स्ट्रेस मेनेजमेंट और माँ का फार्मूला

हम सब को गुस्सा आता है | ऐसा परिवार के अन्दर तब होता है जब हमें  कोई ऐसा कुछ ख देता है जो हमें बहुत चुभ जाता है | और हम भी लगते हैं उसे खरी खोटी सुनाने | इससे बात बनती नहीं है बल्कि और बिगड़ जाती है | कई बार गुस्से में ऐसा कुछ कह  देते हैं कि बाद में पछताना पड़ता है |  वैज्ञानिकों  की सुने तो एक घंटा क्रोध करने में उतनी शक्ति लगती है जितनी सात घंटे  मेहनत का काम करने में | फिर भी हम गुस्सा करते रहते हैं और खुद भी परेशान होते रहते हैं व् रिश्ते भी बिगाड़ते रहते हैं |  ऐसा तो नहीं है कि कभी किसी को गुस्सा न आये | पर गुस्से की उर्जा का सही प्रयोग कैसे करें इसके लिए माँ ने जीवन की किताब से पढ़कर  एक बहुत अच्छा तरीका अपनाया  |  स्ट्रेस मेनेजमेंट और  माँ का फार्मूला  बचपन से अब तक मैंने माँ को कभी गुस्सा करते व् चिल्लाते नहीं देखा | ऐसा नहीं है कभी उन्हें कोई बात बुरी  न लगी हो, या गुस्सा न आया हो  | कई बार दूसरे लोगों की , यहाँ तक की पिता जी की बातें भी उन्हें बहुत तकलीफदायक लग जातीं और उनकी आँखे डबडबा जाती , पर वो कोई जवाब न दे कर वहां से हट जातीं | थोड़ी  ही देर में हम देखते माँ ने कपड़ों की अलमारी , या रसोई घर या स्टोर को खाली कर उसकी सफाई शुरू कर दी है | उस समय वो कम बोलतीं बस उनका ध्यान अपने काम पर होता | शाम तक उनकी सफाई भी हो जाती और उनका मूड भी ठीक हो जाता |  बड़े होने पर मैंने एक दिन माँ से पूंछा , “ माँ आपको गुस्सा नहीं आया , उन्होंने ऐसा कहा , वैसा कहा , आप तो सफाई में लग गयीं | मिसिंग टाइल सिंड्रोम माँ ने उत्तर दिया  , ऐसा नहीं है , कि मुझे बुरा नहीं लगा , पर झगडे के लिए वैसे भी दो लोगों का होना जरूरी है , मैं उस बारे में और सोच कर बात को बढ़ाना नहीं चाहती थी | इसलिए उस समय सारा ध्यान सफाई में लगा देती हूँ | शाम तक जब काम सही खत्म होता है तो मुझे ये सोच कर ख़ुशी होती है कि मैंने अपनी ऊर्जा बेकार बातों को सोचकर बर्बाद नहीं होने दी , काम का काम हो गया और मन इतनी देर में काफी हद तक उस बात को नज़र अंदाज कर चुका होता है | आज माँ इतनी मेहनत के काम नहीं कर सकती पर आज भी जब उन्हें कोई दुःख घेरता है तो एक कॉपी में राम-राम  लिखने लगती है | थोड़ी देर में उनका ध्यान उस बात से हट जाता है | आज स्ट्रेस मेनेजमेंट पर बहुत बातें होती हैं | बहुत किताबें हैं , बहुत सेमीनार होते हैं | माँ ने ऐसी कोई किताब नहीं पढ़ी थी | उन्हें बस इतना पता था कि दुःख या क्रोध में बहुत ऊर्जा होती है … बस इसे सकारात्मक दिशा में लगा दो … जिसका परिणाम एक काम के पूरे होने में होगा और काम पूरा होने की ख़ुशी में मूड अपने आप ठीक हो जाएगा | हमारी पुरानी पीढ़ी ने इतनी किताबें नहीं पढ़ी थी , पर जीवन का ज्ञान उनका हमसे कहीं ज्यादा बेहतर था | उन्हें पता था कि जब दिमाग बोलना रोकना संभव न हो तो शरीर को इतना थका दो कि दिमाग कुछ बोल ही पाए और थोड़ी देर में बात आई गयी हो जाए | सही बात है कि जो ज्ञान अनुभव से आता है उसे आत्मसात करना किताबी ज्ञान को आत्मसात करने से ज्यादा सहज है |इसलिए स्ट्रेस कम करने का माँ का फार्मूला मुझे बहुत  बेहतर लगा |  वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … निर्णय लेने में होती है दिक्कत तो अपनाएं भगवद्गीता के सात नियम तीन गेंदों में छिपा है आपकी ख़ुशी का राज अपनी याददाश्त व् एकाग्रता कैसे बढाये  सिर्फ 15 मिनट -power of delayed gratification जीवन  आपको ““कैसे लगा  अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | FILED UNDER –  personality development, positive thinking, stress management

मिसिंग टाइल सिंड्रोम

                               जिन्दगी में कितना कुछ भी अच्छा हो , हम उन्हीं चीजों को देखते हैं जो मिसिंग हैं | और यही हमारे दुःख का सबसे बड़ा कारण है | क्या इस एक आदत को बदल कर हम अपने जीवन में खुशहाली ला सकते हैं | मिसिंग टाइल सिंड्रोम /Missing Tile Syndrome                               एक बार की बात है एक छोटे शहर में एक मशहूर होटल  ने अपने होटल में एक स्विमिंग पूल बनवाया |  स्विंग पूल के चारों  ओर बेहतरीन इटैलियन  टाइल्स लगवाये | परन्तु मिस्त्री की गलती से एक स्थान पर टाइल  लगना छूट गया | जो भी आता पहले उसका ध्यान टाइल्स  की खूबसूरती पर  जाता | इतने बेहतरीन टाइल्स देख कर हर आने वाला मुग्ध हो जाता | वो बड़ी ही बारीकी से उन टाइल्स को देखता व् प्रशंसा करता |  तभी उसकी नज़र उस मिसिंग टाइल  पर जाती और वहीँ अटक जाती |  उसके बाद वो किसी भी अन्य  टाइल की ख़ूबसूरती नहीं निहार पाता | स्विमिंग पूल से लौटने वाले हर व्यक्ति की यही शिकायत रहती की एक टाइल मिसिंग है | हजारों टाइल्स  के बीच में वो मिसिंग टाइल उसके दिमाग पर हावी रहता | कई लोगों को उस टाइल को देख कर बहुत दुःख होता  की  इतना परफेक्ट बनाने में भी एक टाइल  रह ही गया | तो कई लोगों को उलझन हो होती  कि कैसे भी करके वो टाइल ठीक कर दिया जाए | बहरहाल वहां से कोई भी खुश नहीं निकला , और एक खूबसूरत स्विमिंग पूल लोगों को कोई ख़ुशी या आनंद नहीं दे पाया |                    मित्रों दरअसल उस स्विमिंग पूल में वो मिसिंग टाइल एक प्रयोग था | मनोवैज्ञानिक प्रयोग , जो इस बात को सिद्ध करता है कि हमारा ध्यान कमियों की तरफ ही जाता है | कितना भी खूबसूरत सब कुछ हो रहा हो पर जहाँ एक कमी रह जायेगी वहीँ पर हमारा ध्यान रहेगा  | टाइल तक तो ठीक है पर यही बात हमारी जिंदगी में भी हो तो ? तो ये एक मनोवैज्ञानिक समस्या है | जिससे हर चौथा व्यक्ति गुज़र रहा है | इस मनोविज्ञानिक समस्या को मिसिंग टाइल सिंड्रोम का नाम दिया गया | ये शब्द ‘Dennis Prager ने दिया था | उनके अनुसार उन चीजों पर ध्यान देना जो हमारे जीवन में नहीं है , आगे चल कर हमारी ख़ुशी को चुराने का सबसे बड़ा कारण बन जाता है |  ऐसी ही एक कहानी प्रत्यक्ष की है |प्रत्यक्ष के लिए विवाह के लिए परिवार वाले लड़की दूंढ़ रहे थे | इसके लिए उन्होंने  अखबार में ऐड दिए , क्योंकि आज वो जमाना तो रहा नहीं की गाँव के पंडित जी रिश्ता बताएं या फिर परिवार के लोग रिश्ता बताये , तो अरेंज्ड मैरिज में यही तरीका अपनाया जाता है | खैर  बहुत सारे प्रपोजल आये | प्रत्यक्ष  की बहन ने उससे फोन करके पूंछा , ” भैया कई सारे प्रपोजल हैं | सभी लडकियां अच्छी हैं , पर आप कोई एक खास गुण  बता दो जो आप अपनी भावी पत्नी में देखना चाहते हों | जिससे हमें आसानी हो | ठीक है , आज रात को बताऊंगा , कह कर उसने फोन रख दिया | रात को फोन करके उसने कहा मेरी निगाह में इंटेलिजेंस सबसे प्रमुख गुण है जो मैं  अपनी भावी पत्नी में देखना चाहता हूँ | बहन ने ठीक है कह कर फोन रख दिया | दूसरे दिन उसकी नींद प्रत्यक्ष  के फोन की रिंग से खुली |  प्रत्यक्ष ने कहा , ” याद रखना इंटेलिजेंस के साथ -साथ , रंग तो गोरा ही होना चाहिए, तुम रंग पर ध्यान देना  | दोपहर को प्रत्यक्ष का फिर फोन आया , ” मैं कहना चाहता हूँ , खाली रंग ही न हो , अगर फीचर्स अच्छे नहीं हुए तो रंग का फायदा ही क्या, तुम चुनाव करते समय फीचर्स पर ध्यान देना  ? बहन ने अच्छा मैं अभी ऑफिस में हूँ कह कर फोन रख दिया | निर्णय लेने में होती है दिक्कत -अपनाए भगवद्गीता के सात नियम  शाम को वो ऑफिस से निकल भी नहीं पायी थी कि प्रत्यक्ष का फोन फिर आ गया | उसने कहा कि अब मुझे पक्का समझ आ गया है , मैं अपनी भावी पत्नी में दयालुता देखना चाहता हूँ | जो दयालु होगी केवल वही स्त्री सामंजस्य बिठा पर प्रेम से रहेगी | अच्छा ठीक है भैया घर पहुँच कर बात करुँगी कह कर उसने फोन रख दिया | दूसरे दिन सुबह फिर प्रय्क्ष का फोन हाज़िर था | बहन ने फोन उठाते हुए कहा कि , भैया , अब आप रहने दो , मैं बताती हूँ कि आप  अपने भावी जीवन साथी में किस गुण को वरीयता देंगे | प्रत्यक्ष  बोला , ” अरे तुम्हे कैसे पता ? मुझे पता है है भैया , आप की  भावी जीवन साथी की पिक्चर परफेक्ट इमेज में जो मिसिंग टाइल हैं या जो गुण आप ने अभी तक नहीं बताये हैं अब आप का सारा फोकस उसी  पर होगा , और आप उनमें से किसी एक गुण को सबसे बेहतर मानेंगे और अपने भावी जीवनसाथी में देखना चाहेंगे | प्रत्यक्ष निरुत्तर हो गया | पर क्या ये समस्या हममे से ह्यादातर की नहीं है | सामाजिक जीवन में मिसिंग टाइल के उदाहरण 1) शर्मा जी के बेटे की शादी में सारा इंतजाम बहुत अच्छा था , केवल  वेटर्स की ड्रेस प्रेस नहीं थी | समारोह से लौटने वाला  हर व्यक्ति वेटर्स की ड्रेस प्रेस नहीं थी ही कह रहा था , किसी का ध्यान अच्छे इंतजाम ओपर नहीं था | 2) नेहा बहुत सुंदर हैं पर उसका माथा थोडा ज्यादा चौड़ा है |  जब उसकी शादी हुई वो तैयार हो कर बहुत खूबसूरत लग रही थी | पर हर आने वाला यही कह रहा था बहु तो बहुत सुंदर है पर माथा थोडा कम चौड़ा होता |लोगों के फोकस में पूरा व्यक्तित्व नहीं बस माथा था | 3) नीतिका के हर सब्जेक्ट में अच्छे मार्क्स आते हैं | … Read more

गुड़िया जायेगी ससुराल लेकिन …

नेहा की चार साल की दो जुड़वां बेटियाँ हैं … फूल सी प्यारी | कल दोनों ने पीले  रंग की एक सी फ्रॉक पहनी थी , जिसमें नन्हें -नन्हे  फूल  बने हुए थे | सारा समय वो इधर -उधर शरारत करती रहीं | फिर नेहा के कहने पर उन्होंने डांस दिखाना शुरू किया | दोनों एक साथ एक लय ताल पर नृत्य कर रहीं थी | नृत्य की हर लय  पर उनकी फ्रॉक ढेर सारे फूल खिलखिला रहे थे |  वो साथ -साथ गा भी रहीं थीं ” “गुडिया जायेगी ससुराल लेकिन रो -रो कर”| इस गुडिया को   ससुर , जेठ , देवर जो भी बुलाता है वो  ससुराल नहीं जाती है | बाद  पति बुलाते हैं तो हँसते – हँसते जाती है |  ऐसा ही एक गीत हमारे समय में गाया जाता था भरी दुपहरी मैं न जाऊं रे डोला पिछवाड़े रख दो | जिसे चांदनी फिल्म में ” मैं  ससुराल नहीं जाउंगी ‘शब्दों  के साथ श्रीदेवी पर बहुत खूबसूरती से फिल्माया गया था | तब से लेकर अब तक हर गीत के बोल थोड़े बहुत अलग भले ही हों पर भाव वही है …. गुडिया जानती है की ससुराल में उसे प्यार करने वाला सिर्फ पति ही है | या यूँ कहें कि पति नहीं पूंछता तो ससुराल में कोई नहीं पूंछता,  लेकिन बहुत सी गुड़ियाएं ऐसी भी हैं जिनका पति भी प्यार नहीं करता , उन्हें हर हाल  में रो के जाना है और रो के  जीना हैं |  मेरा ध्यान एक और  गुडिया पर चला गया ,  जिसका पति उसे बहुत मारता रहा  है … और मारने के बाद उससे पत्नी धर्म निभाने की फरमाइश भी करता रहा है | उसकी नज़र में ये गलत नहीं … आखिर वो अपनी पत्नी से प्यार करता है | तन और मन से टूटी गुड़िया  ने आखिरकार बच्चों के साथ अलग रहने का फैसला किया , ससुराल में सभी ने किनारा कर लिया | गुड़िया  तीन साल से एक कमरे के किराए के मकान में अपने बच्चों के साथ रह कर उन्हें पढ़ा रही है |  खर्चे के लिए उसने छोटी नौकरी कर ली  | तीन साल में पति ने एक पैसा भी नहीं दिया | एक दिन भाई ने  भावुक हो कर उसे परिवार का वास्ता दे कर पति के पास जाने को कहा | भाई के आँसुओं  का असर हुआ या समाज का डर  , गुड़िया  वापस पति के पास चली गयी |  अभी कुछ दिन पहले  ही पता चला गुड़िया हॉस्पिटल में है | वहाँ  जा कर देखा कि गुडिया के शरीर पर चोटों के अनगिनत निशान हैं , जबकि गुडिया ने बयान दिया  वो गिर गयी थी | अकसर गुड़ियाएं सीढ़ी से गिरती रही हैं | गुडिया की माँ का रुदन जारी  था | वो दामाद को कोस रही थी , ” अरे मर जाए तो कम से कम हम अपनी लड़की को रख तो लेंगे ,नहीं तो समाज कहेगा लड़की में ही कोई दोष था तभी आदमी को छोड़ मायके में पड़ी है | कैसा है ये समाज , जो दूसरों की बेटियों को घुट -घुट कर जीने को विवश करता है | ये समाज हब सब से मिलकर बना है | कहीं न कहीं हम सब दोषी हो जाते हैं जब हमारी आपसी बात इस प्रश्न के साथ शुरू होती है , ” फ़लाने  की गुडिया की तो शादी हो गयी थी , वो मायके में क्या कर रही है ?                                                तभी मेरी तन्द्रा टूटी जब वो दोनों बच्चियां मेरा हाथ पकड़ कर खींच रही थी , ” आंटी  डांस कैसा लगा ?” उनके खिले हुए चेहरे और फ्रॉक के मुस्कुराते फूलों को देख कर मैंने कहा , ” तुम्हारा डांस तो बहुत अच्छा था पर मेरी बच्चियों इस गाने के बोल बदलने होंगे , ” गुडिया रो-रो के ससुराल नहीं और  रो , रो के तो वहां बिलकुल नहीं रहेगी | मेरी बात का अर्थ न समझते हुए वो खिलखिला उठीं | मैं मन ही मन सोचने लगी , ” गुडिया , तुम्हारी इस हंसी को बरकरार रखने की जिम्मेदारी , हमारी है , पूरे समाज की है | वंदना बाजपेयी इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं रानी पद्मावती और बचपन की यादें हे ईश्वर क्या वो तुम थे निर्णय लो दीदी आपको  लेख “  गुड़िया  जायेगी ससुराल लेकिन … “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- women empowerment, domestic violence

बदलाव

रज्जो धीर गंभीर मुद्रा में बैठी थी , जबकि उसके  माथे पर चिंता की लकीरे थीं | अभी थोड़ी ही देर पहले आँगन से  घर परिवार जात -बिरादरी वाले  उठ कर गए थे | हर अंगुली रज्जो के ऊपर उठी थी | रज्जो पर इलज़ाम था कि उसकी बेटी ने भाग कर शादी कर ली है | क्या -क्या नहीं कहा सबने रज्जो को | माँ ही संस्कार देती है | बाँध कर ना रख पायी लड़की को | सब कुछ जहर की तरह गटकती रही रज्जो | अतीत का नाग उसे फिर डस रहा था | दुल्हन बन कर जब इस घर में आई थी | तब कहाँ पता था कि शराबी पति का दिल कहानी और लगा हुआ है | उसने बहुत कोशिश  की  कि वह शराब और उस लड़की को छोड़ दे | पर रज्जो के हिस्से में सिर्फ मार ही आई |  तभी तपती मन की धरती पर सावन की फुहार बन कर आई उसकी बेटी पूजा | रज्जो को यकीबन  था कि उसके लिए न सही पर पिता का दिल अपनी बेटी के लिए तो पसीजेगा | पर उसके नसीब में ये सुख कहाँ था | उसका पति दूसरी औरत को घर ले आया | उसने बेटों को जन्म दिया |  एक कहावत है माँ दूसरी तो बाप तीसरा हो जाता है | उसके साथ -साथ  उसकी बेटी पूजा भी दुर्व्यवहार का शिकार होने लगी | पीली फराक                 एक दिन हिम्मत करके वो बेटी को ले मायके चली आई | जो हो मेहनत करके खा लेगी पर अपनी बेटी पर जुल्म नहीं होने देगी | नादान कहाँ जानती थी कि  मायका भी पराया हो गया था | भाई उसे देख त्योरियां चढ़ा कर बोला , ” भले घर की औरते ऐसे अकेले रह कर कमाँ कर नहीं खातीं | यहाँ भी रहोगी तो क्या इज्ज़त रहेगी समाज में | हमारी तो नाक कट जायेगी | मुझे अपनी बेटी का ब्याह भी करना है | जाओ  ससुराल लौट जाओ | आदमी कोई पत्थर नहीं होता है -प्यार से बात करोगी तो उसे छोड़ देगा | निराश हो रज्जो अपने घर लौट आई | साल दर साल दर्द सहती रही पर उफ़ तक नहीं की | उसने आज भी उफ़ नहीं की थी | जानती थी , पूजा कब तक यहाँ दर्द सहती , कौन उसका ब्याह करता , वो उसकी राह पर नहीं चली जहाँ सिर्फ सहना ही लिखा होता है | विद्रोह करके निकल गयी उसके साथ जो शायद कुछ पल सुख के उसके नाम लिख दे | वो जानती थी कि पूजा लौट कर कभी नहीं आएगी | लौट के आई लड़कियों के लिए मायके दरवाजे कहाँ खुले होते हैं ? तभी भाई उसके सामने आया और क्रोध में बोला , ” कुल का नाम डुबो दिया इस लड़की ने , भाग कर शादी की वो भी एक विजातीय के साथ | अब हम क्या मुंह दिखाएँगे समाज को | अरे दिक्कत थी पालने में तो मेरे घर आ जाती | कुछ कह सुन के दो रोटी का जुगाड़ कर ही लेता यूँ नाक तो न कटने देता | रज्जो के चेहरे पर एक दर्द भरी मुस्कुराहट तैर गयी | भाई  का ये बदलाव अब की बार उसके लिए अप्रत्याशित नहीं था | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … घूरो , चाहें जितना घूरना हैं जीवन अनमोल है बेटियों की माँ पंडित जी  आपको  कहानी  “ बदलाव “  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-  Hindi stories, change

निर्णय लेने में होती है दिक्कत -अपनाए भगवद्गीता के सात नियम

                                                        बहुत पुरानी एक कहानी है कि एक बच्चा था उसे निर्णय लेने में दिक्कत होती थी | एक बार की बात है कि वो अपने माता -पिता के साथ बाज़ार गया | बच्चा छोटा था तो पिता ने सोचा कि इतनी दूर बाज़ार आ कर थक गया होगा चलो इसे पहले कुछ खिला देते हैं | वो एक आइसक्रीम की दूकान पर गए उन्होंने बच्चे से कहा , ” बेटा वैनिला लोगे या स्ट्राबेरी | बच्चे को दोनों पसंद थी | वो बहुत देर तक निर्णय नहीं ले पाया कि उसे कौन सी आइसक्रीम खानी है | देर हो रही थी इसलिए पिता ने सोचा की चलो पहले सामान खरीद लें शायद बच्चे को अभी भूख नहीं लगी है तो बाद में कुछ खिला देंगे | वो बच्चे के साथ कपड़ों की दूकान पर गए | यहाँ भी बच्चा फैसला नहीं ले पाया | पिता ने फिर सोचा , चलो पहले जुटे खरीद लेते हैं | पर बच्चा नहीं समझ पाया कि उसे कौन से जूते पसंद है | लिहाज़ा माता -पिता बच्चे के सामान के स्थान पर अन्य खरीदारी कर के घर वापस आ गए | बच्चे को न जूते मिले न कपडे न ही आइसक्रीम , जबकि सबसे पहले उससे ही पूंछा गया था | ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि वो किसी भी चीज में निर्णय नहीं ले पाया | हममें से कई लोग निर्णय नहीं ले पाते हैं , या फिर सही निर्णय नहीं ले पाते हैं  जिस कारण समय निकल जाने पर वो जीवन भर पछताते हैं | अधिकतर देखा गया है कि जो लोग जल्दी निर्णय लेते हैं और अपने निर्णय पर टिके रहते हैं वो सफल होते हैं | यानि अनिर्णय की स्थिति में रहने वाले ज्यादातर लोग असंतुष्ट , असफल और दुखी रहते हैं | भगवद्गीता ने आज से पाँच हज़ार साल पहले निर्णय  लेने का तरीका भगवान् श्री कृष्ण ने सिखाया है | भगवद्गीता सिर्फ धार्मिक पुस्तक नहीं है यह जीवन दर्शन है | अक्सर लोग इसे केवल धार्मिक पुस्तक समझ कर पढ़ते हैं और इसके मूल भाव को नहीं समझ पाते जबकि  भगवद्गीता में मनुष्य के जीवन में आने वाली तमाम समस्याओं के समाधान प्रस्तुत हैं | अगर निर्णय लेने में होती है दिक्कत -अपनाए भगवद्गीता के सात नियम /7 decision making lessons from shri Bhagvad Geeta by krishna महाभारत के युद्ध के समय जब कौरवों और पांडवो की दोनों सेनायें आमने -सामने थीं तो अर्जुन मोह ग्रसित होकर युद्ध से इनकार कर देते हैं | उसी समय भगवान् कृष्ण उन्हें गीता का ज्ञान देते हैं | जो आज भी व्यवाहरिक है | यानि 5000 साल पहले भगवान् श्री कृष्ण भगवद्गीता में ऐसे कई नियम बता गए थे जो मनुष्य को निर्णय लेने में मदद करते हैं | आइये इनमें से प्रमुख 7 सूत्रों पर चर्चा  करते हैं |  1) आपका निर्णय भावनाओं पर आधारित न हो                                            जब भी हम कोई काम करते हैं तो हमें अच्छा या बुरा महसूस होता है | ये अच्छा या बुरा महसूस होना भावनाएं हैं | श्री कृष्ण गीता में कहते हैं कि कोई भी निर्णय विवेक पर आधारित हो भावनाओं पर नहीं | जब भी हम भावनाओं पर आधारित निर्णय लेते हैं तो वो निर्णय गलत ही होते हैं | जैसे एक विद्यार्थी है उसे पढने में अच्छा नहीं लगता , टीवी देखने में या वीडियो गेम खेलने में ज्यादा मजा आता है ज्यादा अच्छा फील होता है | परन्तु अगर वो अपनी फीलिंग्स के आधार पर पढाई नहीं करेगा और सारा समय टीवी या मोबाइल में बर्बाद कर देगा तो क्या उसका निर्णय सही कहा जाएगा | जाहिर है नहीं | feelings are temporary आज अगर  विद्यार्थी ने फीलिंग्स के आधार पर निर्णय ले लिया तो सारी उम्र अच्छी नौकरी न मिल पाने के कारण वो खुश नहीं रहेगा | जाहिर है तब उसकी अपने बारे में  भावनाएं भी अच्छी नहीं रहेंगी | इसलिए जो निर्णय विवेक पर आधारित न हो कर भावनाओं पर आधारित होते हैं वो हमेशा गलत होते हैं |  2 ) अत्यधिक दुःख या अत्यधिक ख़ुशी की अवस्था में निर्णय न लें                                                              गीता के छठे अध्याय में कहा गया है कि जब भी कोई निर्णय लें अपने दिमाग को संतुलित करके लें | आपने महसूस किया होगा कि जब हम बहुत खुश होते हैं तो हर बात में हां बोल देते हैं और जब हमारा मूड खराब होता है तो अच्छी से अच्छी बात भी हमें नागवार गुज़रती है और हम उसे करने से मना  कर देते हैं | अर्जुन के साथ भी यही हो रहा था | वो मोह में थे , इसलिए उन्होंने युद्ध करने से इंकार कर दिया था | अकसर क्रोध या मोह में लिए गए निर्णय गलत ही  होते हैं | जैसे कि शर्मा जी को उनकी कम्पनी के मालिक ने इंटरव्यू ले कर आदमी रखने की जिम्मेदारी सौंपी | शर्मा जी  जानते थे कि उनका भाई अयोग्य है पर मोह वश उन्होंने योग्य आदमी को छोड़ कर अपने भाई को उस कम्पनी में नौकरी पर रखा | उसने काम में लापरवाही की जिस कारण मालिक को नुक्सान हुआ | जब मालिक को पता चला कि  शर्मा जी ने भाई होने के कारण उसे नौकरी पर रखा है तो उन्होंने उसे निकाल दिया व् शर्मा जी की पदावनति कर दी | शर्मा जी अगर सही निर्णय ले कर योग्य उम्मेदवार को चुनते तो बाद में अपने निर्णय पर न पछताते | इसी तरह अभी हाल की घटना है | दो बहने एक दस साल की एक बारह साल की  माता -पिता के काम पर जाने के बाद घर पर टीवी  देख रही थीं | रिमोट बड़ी बहन के हाथ  में था | छोटी बहन अपनी … Read more

लिव इन को आधार बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु “

                       ” लिव इन ” हमारे भारतीय समाज के लिए एक नयी अवधारणा है | हालांकि बड़े शहरों में युवा वर्ग इसे तेजी से अपना रहा है | छोटे शहरों और कस्बों में ये अभी भी वर्जित विषय है | ऐसे विषय पर उपन्यास लिखने से पहले ही ‘वंदना गुप्ता ‘ डिस्क्लेमर जारी करते हुए कहती हैं कि लिव इन संबंधों की घोर विरोधी होते हुए भी न जाने किस प्रेरणा से उन्होंने इस विषय को अपने उपन्यास के लिए चुना | कहीं न कहीं एक आम वैवाहिक जीवन में किस चीज की कमी खटकती है क्या लिव इन उससे मुक्ति का द्वार नज़र आता है ?  जब मैंने उपन्यास पढना शुरू किया तो मुझे भी पहले गूगल की शरण में जाना पड़ा था ताकि मैं लिव इन के  बारे में जान सकूँ | जान सकूँ कि अनैतिक संबंधों और लिव इन  में फर्क क्या है ? साथ रहते हुए भी ये अलग -अलग अस्तित्व कैसे रह सकता है ये समझना जरूरी था | हम सब वैवाहिक संस्था वाले इस बुरी तरह से जॉइंट हो जाते हैं …जॉइंट घर , जॉइंट बैंक अकाउंट , सारे पेपर्स जॉइंट और यहाँ तक की दोष भी जॉइंट पति की गलती का सारा श्रेय पत्नी को जाता है कि उसी ने सिखाया होगा और पत्नी कुछ गलत करे तो पति का कोर्ट मार्शल ऐसे आदमी के साथ रहते हुए बिटिया बदल तो जायेगी | ऐसे में क्या सह अस्तित्व और अलग अस्तित्व  बनाये रखना संभव है | क्या ये पति -पत्नी के बीच की स्पेस की अवधारणा का बड़ा रूप है | इन सारे सवालों के उत्तर उपन्यास के साथ आगे बढ़ते हुए मिलते जाते हैं | लिव इन को माध्यम बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु “ शायद ये सारे प्रश्न वंदना जी के मन में भी घुमड़ रहे होंगे तभी वो  रवि और शीना के माध्यम से इन सारे प्रश्नों को ले कर आगे  बढ़ती हैं और एक -एक कर सबका समाधान प्रस्तुत करती हैं | इसके लिए उन्होंने कई तर्क रखे हैं | कई ऐसे विवाहों की चर्चा की है जहाँ लोग वैवाहिक बंधन में बंधे अजनबियों की तरह रह रहे हैं , एक दूसरे से बहुत कुछ छिपा रहे हैं या भयानक घुटन झेल रहे हैं | उन्होंने ‘मैराइटल रेप की समस्या को भी उठाया है | इन सब बिन्दुओं पर लिव इन एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह लगता है जहाँ एक दूसरे के साथ खुल कर जिया जा सकता है | भारतीय संस्कृति के नाम पर  ‘ लिव इन ‘ शब्द से ही नाक भौ सिकोड़ते लोगों के लिए वंदना जी आदिवासी  सभ्यता से कई उदाहरण लायी हैं , जो ये सिद्ध करते हैं कि लिव इन हमारे समाज का एक हिस्सा रहे हैं | वो समाज  दो व्यस्क लोगों के बीच जीवन भर साथ रहने के वादे  से पहले उन्हें एक -दूसरे को जानने समझने  का ज्यादा अवसर देता था | ये प्रेम कथा है उन लोगों की जिन्हें आपसी विश्वास और प्यार के साथ रहने के लिए रिश्ते के किसी नाम की जरूरत नहीं महसूस होती | रवि और शीना जो अलग -अलग धर्म के हैं इसी आधार पर रिश्ते की शुरुआत करते हैं | अक्सर ये माना जाता है की लिव इन का कारण उन्मुक्त देह सम्बन्ध हैं पर रवि और शीना इस बात का खंडन करते हैं वो साथ रहते हुए भी दैहिक रिश्तों की शुरुआत  करने में कोई हड़बड़ी नहीं दिखाते | एक दूसरे की भावनाओं को पूरा आदर देते हैं | एक दूसरे की निजता का सम्मान करते हैं |उनके दो बच्चे होते हैं जो सामान्य वैवाहिक जोड़ों के बच्चों की तरह ही पलते हैं | जैसे -जैसे कहानी अंत की और बढती है वो देह के बन्धनों को तोड़ कर विशुद्ध  प्रेम की और बढती जाती है | अंत इतना मार्मिक है जो पाठक को द्रवित कर देता है |  क्या हम सब ऐसे ही प्रेमपूर्ण रिश्ते नहीं चाहते हैं ? वंदना गुप्ता जी का उद्देश्य प्रेम के इस विशुद्ध रूप को सामने लाना है | दो आत्माएं जब एक ही लय -ताल पर थिरक रहीं हों तो क्या फर्क पड़ता है कि उन्होंने उसे कोई नाम दिया है या नहीं | सच्चा प्रेम किसी बंधन का, किसी पहचान का  मोहताज़ नहीं है | स्त्री  संघर्षों  का  जीवंत  दस्तावेज़: “फरिश्ते निकले कुछ पाठक भर्मित हो सकते हैं पर ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘में वंदना जी का उद्देश्य लिव इन संबंधों को वैवाहिक संबंधों से बेहतर सिद्ध करना नहीं हैं | वो बस ये कहना चाहती हैं कि सही अर्थों में रिश्ते वही टिकते हैं जिनके बीच में प्रेम और विश्वास हो | भले ही उस रिश्ते को विवाह का नाम मिला हो या न मिला हो | सहस्तित्व शब्द के अन्दर किसी एक का अस्तित्व बुरी तरह कुचला न जाए | दो लोग एक छत के नीचे  एक दूसरे से बिना बात करते हुए सामाजिक मर्यादाओं के चलते विवाह संस्था के नाम पर एक घुटन भरा जीवन जीने को विवश न हों | वही अगर कोई इस प्रकार के बंधन के बिना जीवन जीना चाहता है तो समाज को उसके निर्णय का स्वागत करते हुए उसे अछूत घोषित नहीं कर देना चाहिए | उपन्यास में जो प्रवाह है वो बहुत ही आकर्षित करता है |  पाठक एक बार में पूरा उपन्यास पढने को विवश हो जाता है | वहीं वंदना जी ने  स्थान -स्थान पर इतने सुंदर कलात्मक शब्दों का प्रयोग किया है जो जादू सा असर करते हैं | जहाँ पाठक थोडा ठहर कर शब्दों की लय  ताल  के मद्धिम संगीत पर थिरकने को विवश हो जाता है | रवि और शीना के मध्य रोमांटिक दृश्यों का बहुत रूमानी वर्णन है | एक बात और खास दिखी जहाँ पर उपन्यास थोडा तार्किक हो जाता है वहीँ वंदना जी कुछ ऐसा दृश्य खींच देती है जो दिल के तटबंधों को खोल देता है और पाठक सहज ही बह उठता है | “काहे करो विलाप “गुदगुदाते पंचो में पंजाबी तडके का अनूठा समन्वय  ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘ नाम बहुत ही सटीक है | जब … Read more

आकांक्षा

                  फेसबुक पर स्क्रोल करते हुए किसी पोस्ट के कमेन्ट पर उसकी प्रोफ़ाइल पिक  दिखी | प्रोफाइल पिक देखते ही प्रतीक  का मन खुश हो गया | कितनी सुन्दर है बिलकुल परी की तरह | झट से उसकी वाल पर पहुँच गया | वहाँ  सिर्फ तसवीरें ही तसवीरें थी | एक से बढ़कर एक |  उसके मुँह से बस एक ही शब्द निकला … माशा अल्लाह और झट से फ्रेंड रिक्वेस्ट भेज दी | उसके आश्चर्य  का ठिकाना न रहा जब वो  रिक्वेस्ट स्वीकार भी हो गयी | केवल  दो म्यूच्यूअल फ्रेंड्स | एक पल को मन संशय में पड़ा ,आखिर उसमें ऐसा खास क्या है जो  उसने उसे मित्र सूची में शामिल किया ? फिर अगले ही पल अपनी प्रोफाइल पिक पर नज़र डाल कर मन ही मन बोला , ” माना हो तुम बेहद हँसी , ऐसे बुरे हम भी नहीं , जरूर उसे भी 21 साल के गबरू जवान में कुछ  तो खास दिखा होगा   और ऊपर से उसने जो इधर ऊधर से कॉपी किये  मानवता भरे  शेर लिख रखे  हैं अपनी वाल पर  उन्होंने ही शायद उसे ” हार्मलेस ” की श्रेणी में रखा होगा | खैर जो भी हो उसे ख़ुशी थी कि तीर निशाने पर लग चुका था |                              मन तो उसका पहले ही दिन से उससे बात करने का था पर कुछ दिन अच्छे बने रहने का नाटक करने के बाद उसने अपनी योजना पर काम करते हुए good morning का एक खूबसूरत मेसेज भेज दिया | आकांक्षा का भी रिप्लाई आ गया | अब तो प्रतीक की ख़ुशी का ठिकाना न रहा | उसे बात करने का सूत्र मिल गया | पहले राजनीति से शुरू हुई बातें आगे बढ़ते हुए घर -गृहस्थी से होती हुई वहां तक पहुँचने लगी जो उनके लिए वर्जित क्षेत्र था | फेसबुक की दोस्ती  प्रतीक जो अभी तक  मानवता  भरे शेर पोस्ट करता था अब उसमें हुस्न के चर्चे होने लगे | ये शेर वो खुद ही लिखता था | इश्क  सबको शायर बना देता है | कुछ खास शेर वो आकांक्षा को इनबॉक्स कर देता | आकांक्षा की स्माइली उसका पूरा दिन बना  देती | धीरे से फोन नंबर एक्सचेंज हुए और आपस में घंटों बातें होने लगीं |  अब उसे आकांक्षा के बारे में सब पता था | उसे लगता था था जैसे वो दोनों एक दूसरे को जन्मों से जानते हैं | आकांक्षा ,एक उच्च शिक्षित   अच्छे परिवार की लड़की थी , जिसके पिता की मृत्यु हो चुकी थी , अब वो  सौतेली माँ के द्वारा सताई जा रही थी | प्रतीक का मन आकांक्षा के दुःख सुन कर भर जाता | उसे लगता कि वो कैसे आकांक्षा को अपनी सौतेली माँ की कैद से मुक्त कराये | इसके लिए वो अपनी दोस्ती को अगले लेवल पर ले जाना चाहता था | उसने आकांक्षा से मिलने का आग्रह किया |आकांक्षा ने उसे अपने शहर   आने का न्यौता दे दिया | प्रतीक की ख़ुशी का कोई ठिकाना न था | वो सोच रहा था कि अगर आकांक्षा ने हाँ  कर दी तो वो माँ को  शादी के लिए मना लेगा | बहुत सारे रंगीन सपने देखते हुए वो आकांक्षा के शहर पहुँचा | आकांक्षा को फोन कर मिलने का स्थान पूंछा | आकांक्षा ने कहा कि वो होटल में मिलेंगे क्योंकि वो अभी घर और मुहल्ले में सीन क्रीयेट  नहीं करना चाहती हैं | प्रतीक ने उसकी बात मान ली | वो दीवानों की तरह अपना सामन ले होटल पहुँचा | होटल किसी छोटी बस्ती में था | बजबजाती नालियों और कूड़े के ढेर से आती दुर्गन्ध  ने उसे रोकने की कोशिश तो की पर वह  आकांक्षा से मिलने की आस में आगे बढता गया | होटल मेनेजर से बात करने पर उन्होंने उसे  रूम नंबर 118 में भेज दिया | वहां आकांक्षा उसका इंतज़ार कर रही थी |  अपने दिल की धडकनों पर काबू करते हुए प्रतीक  कमरे में पहुँचा | आकांक्षा दरवाजे के पीछे खड़ी  थी | उसके अन्दर आते ही उसने दरवाजा बंद कर दिया | मद्धिम रोशिनी में वो आकांक्षा को ठीक  से देख भी न पाया कि आकांक्षा उसका हाथ पकड़ कर बिस्तर की और ले गयी और बोली , ” पहले बातें  करोगे या .. | प्रतीक को इस या का अर्थ समझ नहीं आया उसने आकांक्षा से कहा ,  ” लाइट जलाओ आकांक्षा मैं तुम्हें जी भर के देखना चाहता हूँ | घरेलु पति आकांक्षा ने लाईट जला दी | कमरा सतरंगी रोशिनी से नहा गया | आकांक्षा पीठ  करे खड़ी थी | पीले रंग का लिबास में वो उसे बेडौल लगी | तभी आकांक्षा ने मुँह उसकी तरफ किया | प्रतीक को ऐसा लगा जैसे सारी  रोशिनी बुझ गयी हो | नहीं … ये वो आकांक्षा नहीं हो सकती | फोटो में तो परी सी लगती थी | एक नहीं हजारों फोटो देखी  हैं उसने | हालांकि चेहरा तो वही है … पर, ये दाग , धब्बे ये झाइयां ये निस्तेज आँखें  ? उस की  पेशानी पर तनाव देख कर आकांक्षा जोर से हँसते हुए बोली ,क्यों बदली हुई लग रही हूँ ?  अरे ये तो   आधुनिक सेल्फी कैमरे का कमाल है | किसी को भी सुन्दर दिखाया  जा सकता है | पर तुम परेशान क्यों होते हो , तुम्हे जो चाहिए वो मिलेगा कहते हुए वो अपने गाउन के फ्रंट बटन खोलने लगी | प्रतीक पसीने -पसीने हुआ जा रहा था | उसे रोकते हुए बोला , ” नहीं -नहीं मुझे ये सब नहीं चाहिए | मैं तो … मैं तो … मेरे साथ धोखा हो गया है | धोखा -वोखा हम नहीं जानते , हम तो अपना धंधा जानते हैं | क्या आदमी है रे तू |  देवांश  को देखो , वो भी तो अक्सर मेरी फोटो पर कमेन्ट करता था , दोस्ती की , परसों बुलाया …. मेहताना के साथ बख्शीश भी दे कर गया | फिर आने का वादा भी किया | अपुन काम ही ऐसा करते हैं , पूरी जान डाल देते हैं | प्रतीक रुमाल से पसीना पोंछते … Read more

गुड़िया कब तक न हँसोगी से लाफ्टर क्लब तक

                            एक पुराना बहुत प्रसिद्द गीत था , ” गुड़िया कब तक न हँसोगी.. आई रे आई रे हँसी  आई, ये वो जमाना था जब हँसी बात बेबात पर होठों पर थिरक जाया करती थी | हँसी  को रोकना मुश्किल होता था | जब लोगों के पास सुख -दुःख बाँटने का समय होता था | लोग खुल कर हँसते थे , पर उसके लिए उन्हें द्विअर्थी संवादों या कॉमेडी के नाम पर अश्लीलता परोसते टी वी शो कीजरूरत नहीं थी | सहज हास्य जीवन में बिखरा हुआ था | लोकगीतों में था | ननद -भाभी की छेड़ -छाड में था | पर हम विकास के नाम पर जिन चीजों का विनाश करते गए उनमें से एक थी सहज हँसी | बच्चों की मुस्कान से निर्मल व् कोमल | आदमी का कद जितना बड़ा हुआ उसकी हँसी उतनी ही कम होती गयी | जेठ की तपती दोपहर में एक ठेले वाला भले ही कुछ पल हँस लेता हो पर एक ऑफिस बड़ी पोस्ट पर  काम करने वाला हँसना भूल चुका है | एक बार ओशो ने कहा था ,  ” सच्ची हँसी ‘ध्यान’ की तरह है | जिस तरह से ध्यान में कोई विचार नहीं टिकता उसी तरह सहज हँसी में कोई अन्य विचार नहीं टिकता | वो हँसी  जो आत्मा से आ रही हो , जिसमें एक -एक कोशिका हँसती हो , क्या हम वो बचपन की हँसी  सहेज पाए हैं ? कल विश्व हास्य दिवस था | घर के पास वाले पार्क में स्त्री और पुरुष दो अलग -अलग घेरों में बैठे हँसने  की कोशिश कर रहे थे | 1, 2,3… और हाथ उठा के जोर से हाहा हा हा | इसमें एक लय थी जो साथ -साथ उठती , साथ साथ बंद हो जाती … इसे क्या कहा जा सकता है हँसने  का अभिनय या हँसने का व्यायाम |  जो भी हो यह हँसी तो बिलकुल नहीं थी | क्योंकि इसमें कोई हँसते -हँसते गिर नहीं रहा था , कोई पेट पकड कर नहीं कह रहा था , ” अब बस करो , पेट दर्द करने लगा , न ही किसी की आँखों से हँसते -हँसते आँसू टपक रहे थे | जैसे -जैसे सहज हास्य हमारे जीवन से दूर होता जा रहा है , निश्छल हँसी दुर्लभ होती जा रही है , अब हम बनावटी हँसी हँसते है | हँसी  अंदर से किसी धारा  की तरह नहीं फूट रही बस ऊपर ऊपर है तो अभिनय ही तो है कभी किसी का स्वागत करने को , कभी किसी को खुश करने को , कभी अपनत्व दिखाने को किया गया हँसने का अभिनय वास्तविक हँसी  नहीं है | ऐसे ही एक किस्सा याद आ रहा है , एक ऑफिस में बॉस रोज अपने कर्मचारियों को चुटकुले सुनाता था | सभी कर्मचारी पेट पकड़ कर हँसते थे | बॉस को लगा कि वो बहुत अच्छे चुटकुले बनाता है जिस कारण सब इतना हँसते हैं | एक दिन उसके चुटकुलों पर सब तो हँस रहे थे पर एक लड़की नहीं हँस रही थी | बॉस ने पूंछा , ” तुम क्यों नहीं हँस रही हो ?” लड़की ने  उत्तर दिया , ” मैं इस महीने इस्तीफ़ा दे रही हूँ ,|” अब उसके हँसने का कोई मतलब नहीं था | बाकी सब को उसी नौकरी में रहना था इसलिए उन्हें उन चुटकुलों में हँसना था | हँसी को दुर्लभ बनाने में पूरे समाज की भूमिका है | यहाँ न हँसों , वहाँ न हँसों , ऐसे न हँसों , वैसे न हँसों में हंसी सिमटती गयी , कैद होती गयी | फिर भी कभी कभी पारिवारिक समारोहों में उसे  कैद से निकाल कर खुल कर खिलने की इजाज़त होती थी पर आज सोशल मीडिया के ज़माने में  हँसी और दूर हो गयी | हम एक विचार पर टिक नहीं पाते | शोक यो या ख़ुशी बस इमोजी से व्यक्त कर आगे बढ़ जाते हैं | अगर थोडा बहुत हँसते भी हैं तो वही टीवी के फूहड़ हास्य पर जो  हँसी की निर्मल धरा को जीवित करने के स्थान पर उसे प्रदूषित कर  रहा है | हँसी  के टॉनिक की कमी के कारण कई मानसिक , शारीरिक रोग उत्पन्न हुए तो हँसने के लाफ्टर क्लब खुल गए … जहाँ हँसी  व्यायाम में बदल गयी | विश्व हास्य दिवस मनाने के स्थान पर हमें उस हँसी की खोयी हुई प्रजाति को पुनर्जीवित करना होगा | समझना होगा सहज हास्य छोटी -छोटी खुशियों को पकड़ने में होता है | जीवन की रेस में आगे भागते हुए अगर सफलता हँसने की कीमत पर मिलती है तो यह कहना अतिश्योक्ति न होगी की हम बहुत कुछ खो कर थोडा सा पा रहे हैं | तो आइये एक बार खिलखिला कर हँसे , जहाँ हँसना न कोई काम हो न व्यायाम बस वो हो … बिना किसी कारण  के , बिना किसी विवशता के | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … राब रिजल्ट आने पर बच्चों को कैसे रखे पॉजिटिव संवेदनाओं का मीडीयाकरण -नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चों के रिश्तों को कैसे बचाएं आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ? क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते बस्तों के बोझ तले दबता बचपन आपको  लेख “गुड़िया कब तक न हँसोगी से लाफ्टर क्लब तक “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  filed under-World Laughter day, laughing, laugh, Laughter club

सिर्फ 15 मिनट

                              आजकल बस” दो मिनट “के जमाने में सिर्फ १५ मिनट साल भर लम्बा लग रहा होगा | पर ये सिर्फ 15 मिनट वैज्ञानिकों द्वारा छोटे बच्चों पर किये गए शोध का नतीजा हैं जो आगे जा कर यह तय करते हैं कि बच्चे की शिक्षा , स्वास्थ्य व् सफलता कैसी रहेगी | तो आइये जाने सिर्फ 15 मिनट का राज सिर्फ  15 मिनट और सफलता /role of delayed gratification                                बहुत पहले की बात है अमेरिका में एक प्रयोग किया गया | जिसमें  छोटे बच्चों को अकेले बारी -बारी से  एक कमरे में भेजा गया ,जहाँ उनकी फेवरेट चॉकलेट रखी थी | साथ में कुछ पजल गेम  भी रखे थे | बच्चों से कहा गया कि आप एक चॉकलेट अभी ले लो, या फिर अगर आप 15 मिनट वेट कर सकते हो तो 15 मिनट बाद आप दो चॉकलेट  ले सकते हैं |  कुछ बच्चों से तो बिलकुल भी धैर्य नहीं हुआ उन्होंने तुरंत चॉकलेट ले ली | और खा भी ली , कुछ ने थोड़ी देर रुक कर खायी | कुछ बच्चे थोड़ी देर अपने को इधर-उधर उलझाए रखे फिर 15 मिनट से पहले ही बस एक चॉकलेट ले ली | पर कुछ बच्चे पूरे 15 मिनट तक कमरे में इधर उधर दौड़ते रहे , कुछ खेलते रहे या पज़ल सॉल्व  करते रहे पर उन्होंने कैसे भी कर के वो 15 मिनट पार कर दिए | उसके बाद उन्हें दो चॉकलेट मिलीं | आप सोच रहे होंगे बात तो छोटी सी  है | इससे क्या फर्क पड़ता है बच्चों ने तुरंत चॉकलेट ले ली या 15 मिनट बाद ली | परन्तु यही प्रयोग का हिस्सा था | उन बच्चों को निरंतर ऑब्जर्व किया गया | करीब २५ साल बाद ये निष्कर्ष निकाला गया किजिन बच्चों ने तुरंत चॉकलेट ले ली थी उनकी तुलना में जिन बच्चों ने 15 मिनट इंतज़ार किया था उनके पढाई में मार्क्स अच्छे आये , स्वास्थ्य अच्छा रहा व् रिश्ते अच्छे रहे व् उन्होंने जीवन में अधिक सफलता पायी | ये 15 मिनट का प्रयोग एक बहुत ही महत्वपूर्ण प्रयोग था जो यह बताता हैं  कि जब हम किसी किसी मनपसंद  काम से खुद को डिस्ट्रेक्ट कर पाते हैं तभी हम लॉन्ग टर्म गोल को पा पाते हैं | ये लॉन्ग टर्म गोल हमारा स्वास्थ्य है , रिश्ते हैं , शिक्षा है व् सफलता है | इसे delayed gratification भी कहते हैं | जानिये सिर्फ 15 मिनट कैसे आपको पीछे खींचते हैं  अब मान लीजिये कि आप क्लास में वार्षिक परीक्षा में प्रथम स्थान पाना चाहते हैं | इसके लिए आप को साल भर कम से कम चार घंटे रोज पढना होगा | बीच में कई बार मेहमान घर आयेंगे , कभी सब दोस्त लेटेस्ट मूवी देख रहे होंगे या कभी आपका फेवरेट क्रिकेट मैच टी . वी पर आ रहा होगा | आप चार घंटे तभी पढ़ पायेंगे जब आप इन डिस्ट्रेक्ट करने वाली चीजों से अपना ध्यान हटा पायेंगे | अगर आप मनपसन काम को करने लगेंगें तो आप चार घंटे रोज पढने का लक्ष्य पूरा नहीं कर पायेंगे | या फिर आपको किसी रिश्तेदार की बात बुरी लगी आपने तुरंत ही उसे जा कर खूब भला बुरा सुना दिया , बाद में आपको पता चला कि आपके समझने में गलती हुई थी | आप लाख सॉरी बोले अब वो रिश्ता पहले जैसा नहीं रहेगा | याद रखिये अच्छे रिश्ते भी हमारा लॉन्ग टर्म बांड होते है | टूटे लव बांड के साथ जिन्दगी बहुत मुश्किल होती है | या आप वेट लॉस  की तैयारी कर रहे हैं | अब आपके सामने आपकी मनपसंद डिश  गाज़र का हलुआ आती है  अगर आप खुद पर कंट्रोल नहीं कर पायेंगे तो आप  निश्चित रूप से  कटोरी भर हलुआ खा ही लेंगे और आप की कई दिनों की मेहनत  पर पानी फिर जाएगा | ज्यादातर वही लोग सफल हुए हैं जिन्होंने सफलता के लॉन्ग टर्म प्लान बनाए हैं | उसके लिए उन्होंने लम्बे समय तक फ्री में काम किया है |  अनुभव प्राप्त किया है , और शुरू पर पैसों पर बिलकुल फोकस नहीं किया है | जाहिर है की ज्यादातर काम पैसे कमाने के लिए ही किये जाते हैं |  परन्तु जो लोग शुरू से पैसे पर फोकस करते हैं वो एक काम को ज्यादा दिन तक नहीं कर पाते और कोई दूसरा काम शुरू कर देते हैं , जिस कारण वो पैसे तो कमाने लगते हैं पर उन्हें बड़ी सफलता नहीं मिलती | कैसे करे खुद पर कंट्रोल  खुद पर कण्ट्रोल करने के कुछ तरीके हैं , जिन पर हम बारी -बारी से चर्चा करेंगे |  खुद को डिस्ट्रेक्ट करें                             आप को बस वही करना है जो बच्चों ने किया था |  यानि  की आप  को अपने मनपसंद काम को करने से रोकना है | बच्चों ने चॉकलेट खाने से अपने को रोकने के लिए पज़ल खेली थी , दौड़ लगायी थी या कुछ और किया था | अब किसी भी तरीके से आप को भी डिस्ट्रेक्ट करना है … जैसे अभी आप का मन गाज़र का हलुआ खाने का हो रहा है तो आप खुद  को डिस्ट्रेक्ट करने के लिए वाक् पर चले जाए , कुछ व्यायाम  करलें , किसी सहेली से फोन कर लें या फिर कोई हल्का स्नैक जैसे मुरमुरे , खीरे  , ककड़ी आदि खा लें , जिससे आपकी हलुआ खाने की इच्छा खत्म हो जाए | तीन  गेंदों में छिपा है आपकी ख़ुशी का राज  आपका गोल है कि साल में आपको १लाख २० हज़ार रुपये बचा कर  किसी स्कीम में डालने हैं | यानी आपको हर महीने १०, ००० रूपये बचाने हैं | ऐसे में आप को खुद को छोटी -छोटी चीजें खरीदने से रोकना है  |  तो ऐसी मार्किट जाने से बचे जहाँ वो चीजें मिलती हैं | अगर जरूरी काम से जाएँ तो उन दुकानों से बच कर रहे | टी वी के ऐड न देखे ताकि बार -बार मन न चले | अपने … Read more

दूसरा फैसला

मीरा ने नंबर देखा ,माँ का फोन था ,एक बार होठों पर मुस्कराहट तैर गयी , ये नंबर उसके लिए कितना कितना खास रहा है , उसके जीवन का संबल रहा है , तभी एक झटका सा महसूस हुआ , कुछ तल्ख़ यादें  कानों में शोर मचाने लगीं |                          बस जरा सा लिखना , पढ़ना ही सीख पायी थी वो कि माँ ने पढाई छुडवा कर काम पर लगा दिया था | तब से शादी तक सुबह से ले कर -देर शाम तक घर -घर सफाई -बर्तन करके न जाने कितना कमा -कमा  कर दिया था माँ को घर खर्च के लिए | कभी कोई शौक जाना ही नहीं था , भाई -पढ़ जाएँ , बहनों की अच्छे घर शादी हो जाए , माँ- बाबूजी ठीक से रहे यही उसकी मेहनत का सबसे बड़ा पारिश्रमिक था | माँ भी तो कितना लाड करती थीं | मेरे घर की लक्ष्मी कहते -कहते नहीं अघाती थीं |                         समय गुज़रा उसके हाथ पीले हो गए वो पराये घर चली गयी और उसकी जगह उसकी छोटी बहन काम पर लग गयी | अब वो घर की लक्ष्मी थी | शादी के पांच सालों में  तीन बच्चे और पति की मार के सिवा कुछ भी तो नहीं मिला उसे | घरों का काम तो यहाँ भी करती थी पर माँ की तरह पति इज्ज़त नहीं देता था |महीने के पैसे भी , चाहे जितना छुपा के रखो , शराब में उड़ा देता | बच्चों की पढाई के लिए कुछ कहने पर जबाब में मार मिलती | फिर भी वो माँ से सब छुपाती रही , माँ को दुःख होगा , पर एक रात तो जानवरों की तरह इतना पीटा  कि उठने की ताकत भी न रही , नौबत इलाज़ की आ गयी थी | किसी तरह से भाई को फोंन  करके ले जाने को कहा | यमुना पार झुग्गी बस्ती में माँ के पास आ कर उसने फैसला कर लिया अब वो यहीं कमरा किराए पर ले कर रहेगी , बच्चों को पढ़ाएगी |  अपना जीवन खराब हुआ तो क्या बच्चों का जीवन ख़राब नहीं होने देगी | वो बचपन से बहुत हिम्मती थी , उसे अपने फैसले पर गर्व था | जल्दी ही कालोनी में दो काम  मिल भी गए | पर दो कामों से तो किराया भी नहीं पूरा पड़ता | भाई तो उसे देखते ही मुंह फेर लेते कि कहीं कुछ मांग न ले | वो स्वाभिमाननी मन ही मन हंसती , जिन्हें बचपन में कमा -कमा  कर खिलाया है उनसे पैसे थोड़ी ही लेगी , नाहक ही डरते हैं | वो तो भावों में भर कर यहाँ रह रही है , अपनी जिंदगी के दर्द तो उसे खुद ही सहने हैं पर यहाँ कम से कम अपनापन तो है | कट ही जायेगी जिन्दगी की रात इन जुगनुओं की चमक से | इन जुगनुओं की चमक बहुत जल्दी मद्धिम पड़ने लगी | पास रहते हुए भी भाई दूर -बहुत दूर होते जा रहे थे | बड़ी भाभी ने कन्या खिलाई थी इन नवरात्रों में , पूरी बस्ती में प्रसाद बांटा , पर उसके यहाँ चम्मच भर हलुआ भी नहीं भेजा | दिल दुखता था तो कोठियों  में जहाँ वो काम करती थी वहां बडबडा कर मन का गुबार निकाल देती | कोठी की मालकिने भी मन से सुनती | कभी-कभी सलाह भी देतीं , ” अरे क्यों चिंता करती है , तुम लोग हो या हम लोग , जब घरवाला नहीं पूंछता तो किसके भाई पूंछते हैं ? तू तो बस अपने बच्चों पर ध्यान दे | ” वो भी इस नसीहत को मान   चाय सुडकते हुए अपना दर्द सुड़क  जाती |   कामवाली भले ही थी पर वो जानती थी कि औरत अमीर हो या गरीब दोनों का दर्द एक ही होता है , डाल से टूटे पत्ते की तरह उसकी पीड़ा एक ही होती है | शुक्र है माँ का हाथ तो उसके सर पर है | वो हर मुसीबत से टकरा जायेगी | तभी  सुखद संयोग से छोटी भाभी गर्भवती हो गयी | चक्कर और उल्टियों  वजह से उसे अपने काम छोड़ने पड़ें | उसने मीरा को काम सौंपते हुए कहा ,” दीदी बच्चा होने के एक महीने बाद मेरे काम वापस कर देना”  | उसने हामी भर दी | वह बड़ी ही लगन से काम करने लगी | सभी कोठियों की मालकिने  उसके काम से खुश थीं |  दिन बीतते -बीतते उसकी चिंता बढती जा रही थी | लाख कोशिश के बाद भी उसे नए  काम मिले नहीं थे , इधर  भाभी के नौ महीने पूरे होने वाले थे | उसने तय कर लिया था कि बच्चों को पूरा पड़े या न पड़े , भले ही पढाई छूट जाए पर भाभी जब काम मांगेंगी तो उनके काम उसे सौप देंगीं | आखिर काम के पीछे रिश्ते थोड़ी न बिगाड़ने हैं | सुख -दुःख में यही लोग तो काम आते हैं | पर चिंता ने उसके शरीर को कमजोर कर दिया था | सुबह हलकी हरारत थी | देर से उठी और देर से ही काम पर  आई | कोठी का दरवाजा खुला हुआ था , मालकिन से किसी के बात करने की आवाजें आ रहीं थी | उसने गौर किया ये तो माँ की आवाज़ थी | माँ यहाँ क्या कर रहीं हैं , उसने बातों पर कान  लगा दिए | माँ मालकिन से कह रहीं थीं , ” छोटी बिटिया की भी शादी तय हो गयी है | आप तो जानती ही हैं , दौड़ – दौड़ कर कई घर कर लेती थी उसी से हमारा घर चल रहा था | अब बड़ी मुश्किल आएगी ,लड़का तो वैसे ही कुछ करता धर्ता नहीं है | बड़ा पहले से ही अलग अपने बीबी बच्चों के साथ रहता हैं हमें दो कौर को भी नहीं पूंछता | हमारी भी उम्र हो गयी है कोई सफाई  का काम  देता ही नहीं | ये बहु ही है जो साथ निभा रही है | समझदार है ,जानती है   शराबी आदमी के साथ अकेले कैसे बच्चे पालेगी | … Read more