बाबा का घर भरा रहे

एक औरत की डायरी – बाबा का घर भरा रहे  हेलो , कैसी हो बिटिया   फोन पर बाबूजी के ये शब्द सुनते ही उसकी निराश वीरान जिंदगी में जैसे प्रेम की बारिश  हो जाती और वो भी उगा देती झूठ की फसलें … हां बाबूजी , बहुत खुश हूँ | सुधीर बहुत ध्यान रखते हैं | जुबान से कुछ निकले नहीं की हर फरमाइश पूरी | अभी कल ही लौट कर आये हैं दो दिन की पिकनिक से |वैसे भी राची  के पास कितने झरने हैं |  चले जाओ तो  लगता है जैसे  प्रकति की गोद में बैठे हों… और .. वो आधे घंटे तक बोलती रही एक खुशनुमा जिंदगी की नकली दास्ताँ | किसी परिकथा सी | उसे भी कहा पता था था की वो इतनी अच्छी कहानियाँ बना लेती है | झूठी कहानियाँ | पर उन्हें बनाने का उसका उद्देश्य  सच्चा होता था | वो जो भी है भोग लेगी बस बाबूजी खुश रहैं  | ऊसका मायका सलामत रहे | बाबा का घर भरा रहे | एक बेटी यही तो चाहती हैं …वो दूर जिंदगी की धूप झेलती रहे पर उसकी जडें सुरक्षित रहे | बाबूजी भी खुश हो कर कहते ,” बिटिया ऐसे ही खुश रहो | हम लोगों का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है | फोन रख कर अक्सर वो सोंचती ,अच्छा किया बाबूजी से झूठ बोल दिया | वैसे भी तो सेहत साथ नहीं देती उनकी | मेरा दुःख सुनेगे तो सह नहीं पायेंगे |  कल के परलोक जाते आज ही चले जायेंगे | नहीं – नहीं , मैं अपने बाबूजी को नहीं खोना चाहती | मैं उन्हें अपना दुःख नहीं बताउंगी | फोन खत्म कर भी नहीं पायी थी कि तभी सुधीर आ गए | बाबूजी से क्या हंस – हंस के बतिया रही थी | अब तो शादी के इतने साल हो गए | अभी भी जब देखो मन माँ – बाप ही लगा रहता है |जब मन में माँ – बाप ही बसे रहेंगे तो  ससुराल में मन कैसे रमेगा | ये शालीन औरतों के लक्षण नहीं है | आज उसने कोई जवाब नहीं दिया | कितना छांटा है , कितना काटा है उसने शालीन औरतों  की परिभाषा में खुद को फिट करने के लिए | पर जितना वो काटती है ये सांचा उतना ही कस जाता है | कौन बनता है शालीन औरतों के सांचे | औरत को इतना बोलना हैं , इतना हँसना है , इतनी बार मायके जाना है , और इतना … |उफ़ !  कितने कसे होते हैं ये सांचे | फिर सुधीर का साँचा वो तो इतना कसा था , इतना कसा की उसे लगता शायद सुधीर की शालीन औरत वो ताबूत है जिसमें घुट कर वो मर जायेगी | कहते हैं बाढ़ बहुत तेज हो तो बाँध टूट ही जाते हैं | चाहे कितने मजबूत बने हों | पर मन के बाँध तो अचानक टूटते हैं | पता ही नहीं चलता की कब से दर्द की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी | बस जरा सा पानी बढ़ा और टूट गया बरसों मेहनत  से बनाया सहेजा गया बाँध |  ऐसे ही उस दिन उसके सब्र का बाँध टूट गया जब बिटिया बोल पड़ी , ” पापा दुकान वाले अंकल ने टाफी दी है | बात मामूली थी | पर स्वाभाव से शक्की सुधीर आगबबूला हो गए | क्या ऐसी ही शालीन औरतें होती हैं | हर किसी से रिश्ते गाँठती  है | लो अब बिटिया भी अंकल कह रही है | कोई अंकल , कोई चाचा कोई भैया और इन रिश्तों की आड़ में जो होता रहा है वो हमसे छुपा नहीं है | सुधीर तो कह कर चले गए | वो रोती  रही , रोती रही |कितना कसा है उसने खुद को | कहीं आती जाती नहीं | किसी से बात भी नहीं करती | अब इससे ज्यादा क्या करे |  तभी बेटी उसके गले में बाहें डाल  कर बोली ,” माँ सामने वाले भैया बुला रहे हैं उनके घर खेलने जाऊं | पता नहीं इन शब्दों ने क्या जहर सा असर किया | वो आपा  खो बैठी | बेतहाशा बेटी को पीटने लगी | खबरदार भैया , चाचा , मामा किसी को कहा | सब आदमी हैं आदमी | बस्स ..| अभी तक तो तेरे पापा  की वजह से कितना खुद को सांचे में ढालने की कोशिश की है | अब तू हर किसी को  अंकल मामा चाचा कहेगी तो मेरे सांचे और कस जायेंगे | सांस लेने की हद तक घुटन भर रही है मेरे जीवन में | कह कर वो रोती रही घंटों … जब होश आया तो बेटी आँखों में आँसूं भरे खड़ी  थी | सॉरी मम्मी अब कभी  नहीं कहूँगी अंकल, भैया आप मत रो |प्लीज मम्मी  कितने मासूम होते हैं बच्चे |लगा की किसी फूल की पंखुड़ी सी सहेज कर रख ले अपने मन की किताब के सुनहरे पन्नों के बीच | कोई दुःख छू भी न जाए | पर  कितना भी चाहों  माँ – बाप के हिस्से के दुःख बच्चों के  भाग्य  में भी जन्म से लिख जाते हैं |वो जान गयी थी की एक शक्की पति के साथ निभाना इतना आसान नहीं है | कहाँ तक खुद को काटेगी | कहाँ तक छांटेगी | खत्म भी हो जायेगी तो भी क्या सुधीर का शक दूर कर पाएगी |कल को बेटी बड़ी हो जायेगी तो ये शक का सिलसिला उसे भी अपनी चपेट में ले लेगा | नहीं … सिहर उठी थी वो अपने ही ख़याल से |   बेटी को सीने से लगा कर उसने निर्णय कर लिया अबकी बाबूजी को बता देगी सब | अपनी बेटी को यूँ घुट – घुट कर नहीं मरने देगी | बाबूजी को बताने के बाद बाबूजी का चेहरा उदास हो गया | थोड़ी देर में खुद को संयत कर जाने कहाँ से संचित गुस्सा उनकी आँखों में उतर आया | रोष में बोले मैं अभी जाता हूँ तुम्हारे ससुराल इसको ये सुना देंगे , उसको वो सुना देंगे | फिर देखे तुम्हें कैसे कोई वहां सताता है | बात सपष्ट थी … रहना तो उसे उसी घर में था | जहाँ सुना कर आने से बात नहीं … Read more

अंतर -8 अति लघु कथाएँ

जीवन में अनेक बार ऐसा होता है की एक जैसी दो परिस्थितियों में स्पष्ट अंतर दिखाई देता हैं | क्यों न हों ,कहीं न कहीं हम सब बायस्ड होते हैं | जहाँ ये अंतर चौकाता है वहीँ कहीं न कहीं विषाद  से भर देता है| हम सब हम सब जाने कितने अंतरों समेटे जीवन में आगे बढ़ते जाते हैं | आज उन्हीं में से कुछ अंतरों को  इंगित करती अति लघुकथाएं  अंतर – 8  अति लघु कथाएँ  इसपार – उसपार  ————————                 वो एक लेखिका हैं |थोड़ी निराश , कुंठित |  उनके कुछ काव्य व् कथा संग्रह आ चुके हैं |फिर भी वो अपनी ख़ास पहचान बनाने में असफल हैं |अक्सर वो कहा करती हैं की जिन महिला रचनाकारों को सरकारी पुरूस्कार मिलते हैं | उनकी बहुत सांठ  – गाँठ होती हैं | पुरुष संपादकों से मिलना जुलना , देर रात तक कहकहे और …  इस साल उनके कथा संग्रह का नाम भी सरकारी पुरुस्कारों में शामिल हैं |अब वो इस पार का सच जान गयी हैं | पर सुना है उस पार बनायी जाने वाली सूची में उनका नाम भी उन महिला रचनाकारों में जोड़ दिया गया है जो सांठ – गाँठ से आगे बढ़ी हैं |  वजन  ———- पार्क के बीचों – बीच बने चबूतरे पर कामवालियां शाम को बैठ कर बतियाती थी | शराबी पति की बेवफाई के किस्से , मारपीट सास की डांट सारे दर्द  आपस में बाँटती | कभी कस के रो पड़ती तो कभी सिसकती सी आंसुओं को पोंछती | फिर कल मिलने का वादा कर चली जाती अपने – अपने घर मन से हलकी होकर | वहीँ उसी पार्क में चारों और बने पाथवे में बड़े घरों के लोग मान -अपमान का विष पिए , गहरे राज दिल में दबाये , चेहरे पर झूठी मुस्काने चिपकाए सर पर झूठी शान बनाए रखने का भारी बोझ उठाये चक्कर पर चक्कर काटते रहते वजन घटाने के लिए | भीगी पलकें  ——- बाबूजी बेटी की शादी के लिए दहेज़ का सामन खरीद रहे थे | बजट में चलना उनकी मजबूरी थी |आगे दो छोटी बहनें और ब्याहने को बैठी थी | फिर भी हर चीज बेहतर से बेहतर लाने का प्रयास करते | सोफे को बेटी को गर्व से दिखा रहे थे | देखो बेटी तुम्हारे लिए उस दुकान से लाया हूँ जहाँ खड़े होने की हैसियत भी नहीं है मेरी |गोदरेज की तो नहीं ले सका पर  ये अलमारी खुद खड़े हो कर बनवाई है | और ये रजाई स्पेशल आर्डर दे कर बनवाई है खास जयपुर के कारीगरों से | बेटी की पलकें  बार – बार भीग रही थी | ससुराल में जब सामान खोला जाने लगा | तो सास का स्वर गूंजा ,” ये भी कोई रजाई है ऐसी तो हम काम वालों को भी न दें | ससुर कह रहे थे अलमारी लोकल दे दी गोदरेज की नहीं है |अरे सोफे तो किसी कबाड़ी की दूकान से उठा लाये लगता है|  न रंग है ढंग | और पलंग तो देखो …. कंगलों से पाला पड़ा है | बेटी की पलकें बार – बार भीग रही थी | घर  ——— गरीब का छोटा सा घर था | उसी में सास – ससुर , देवरानी जिठानी नन्द बच्चे सब एक साथ रहते थे |एक छोटे से घर में पूरी दुनिया को समेटे हुए पास में अमीर का घर का था |चार लोग ६ कमरे | चारों अपने लैप टॉप, मोबाइल , फोन में व्यस्त  अलग – अलग कमरों में अपनी- अपनी  दुनिया में सिमटे हुए | विश्वास ————- एक पति को जब पता चला की उसकी पत्नी का शादी से पहले कोइ दोस्त था तो उसे सख्त नागवार गुज़रा | उसने पत्नी से बातचीत बंद कर दी अब उस पर विश्वास कैसे किया जाए |हैरान – परेशांन  सा हो अक्सर वो ऑफिस में सहकर्मी महिलाओं के पास जा कर अपनी पत्नी की बेवफाई के किस्से सुनाता | महिलाएं उस पर तरस खाती | उसके आंसुओं को पोंछती | धीरे – धीरे उसकी कई शादी शुदा महिलाओं से दोस्ती हो गयी |  उसे विश्वास है की वो कुछ गलत नहीं कर रहा है जिसके कारण उन महिलाओं के पतियों को अविश्वास  हो  | बोझ  —– बड़ा बेटा अच्छी नौकरी से लग गया |और छोटे की कहीं नौकरी ही नहीं लग रहीथी | पिताजी हर किसी से कहते फिरते बड़ा तो सही है अपनी फैमली के साथ खा कमा  रहा है | ये छोटा तो हमारे  सर आन पड़ा  बोझ है |  समय बदला | पिताजी को लकवा मार गया |वो बिस्तर पर पड़ गए |  बड़े बेटे ने नौकरी के कारण सेवा करने में असमर्थता व्यक्त कर दी | सेवा की जिम्मेदारी छोटे बेटे पर पड़ी |  सुना है छोटा बेटा लोगों से कहता है ,” क्या करें करना तो पड़ेगा ही |हम तो बच नहीं सकते | ये बोझ हमारे सर जो आन पड़ा है |  समय ने एक बोझ के अपना बोझ उतारने की व्यवस्था कर दी थी |  विस्थापन  —————- निम्मी तो सारा घर सर पर उठा लेती अगर उसकी मेज पर कोई किताब रख दे | उसकी कपड़ों की अलमारी में कोई हाथ लगा दे या उसकी प्रिय किताबे कोई उससे बिना पूंछे कोई छू ले | और जब कॉलेज फंक्शन में उसकी स्पीच होती तो भाई को डपट कर बोलती अगर तुम नहीं आओगे तो मैं स्पीच तो दूँगी ही नहीं तुमसे बोलूंगी ही नहीं |  विवाह के दो महीने बाद जब निम्मी  मायके ( घर नहीं )आती हैं तो उडती नज़र से देखती है की कपड़ों की अलमारी में भाभी के कपडे  रखे हैं | मेज पर भतीजे की किताबें फैली हैं | और उसकी प्रिय किताबें  मुद तुद गयी हैं शायद नन्हे छोटे भतीजे ने पढने की कोशिश की है |  चलते समय निम्मी धीरे से भाई से कहती है ,” कल मेरी स्पीच है भैया , समय मिले तो  जरूर आना |  तब्दील  बेटे को पिता की हर बात बुरी लगती | क्यों थाली में झूठा न छोड़ा जाए , क्यों समय पर घर लौटा जाए |क्यों खर्च  करते समय एक – एक पैसे  का हिसाब रखा जाए | … Read more

टूटते रिश्ते – वजह अवास्तविक उम्मीदें तो नहीं

 शादियों का मौसम है | खुशियों का माहौल है | नए जोड़े बन रहे हैं | कितने अरमानों से दो लोग एक दूसरे के जीवन में प्रवेश करते हैं | मांग के साथ तुम्हारा मैंने माग लिया सनसार की धुन पर थिरकता है रिश्ता | फिर क्या होता है की कुछ ही दिनों में आपस में चिक- चिक शुरू होजाती है |सपनों का राजकुमार / राजकुमारी शैतान का भाई/बहन  नज़र आने लगता है | एक की पसंद के रंग दूसरे की आँखों में चुभने लगते हैं और एक की पसंद का खाना दूसरे के हलक के नीचे ही नहीं उतरता  और शादी टूटने की नौबत आ जाती है | हालांकि ये हर घर का किस्सा नहीं है | फिर भी अब इसका प्रतिशत बढ़ रहा है | संभल कर -अवास्तविक उम्मीदों से न टूटे रिश्ते की डोर  मेरी घनिष्ठ मित्र रीता की बेटी निधि और रोहन की शादी हुए अभी एक साल भी नहीं हुआ है  की उनके रिश्ते के टूटने की खबर आने लगी | पिछले साल उनकी शादी को याद करती  हूँ तो कितनी ही अच्छी स्मृतियाँ ताज़ा हो जाती हैं | रीता ने शादी के खर्च में जैसे खजाने के द्वार खोल दिए हों | और क्यों न खोलती एक ही तो बेटी है उसकी |फिर उनकी खुशियों की गारंटी भी उसके पास थी | निधि और रोहन पिछले कई सालों से एक दूसरे को जानते थे | उन्होंने ने ही विवाह का फैसला किया था | परिवार वालों ने तो बस मोहर लगायी थी |उस दिन दोनों की ख़ुशी छिप नहीं रही थी |  दोनों ही एक दूसरे को पा कर बहुत खुश थे | यह ख़ुशी विवाह समारोह में परिलक्षित हो रही थी |  निधि और रोहन दोनों ही अच्छे परिवारों से हैं | कोई  ऐसा दोष भी दोनों में दृष्टि गत नहीं  था | हम सब को इस विवाह के सफल होने की उम्मीद थी | शुरू –शुरू में उनकी खुशियों की खबर आती रहती थी | फिर अचानक से ऐसा क्या हो गया जो दोनों एक –दूसरे से अलग होना चाहते हैं  | मैंने दोनों से अलग –अलग बात करने का निश्चय किया | ताकि इस टूटते हुए रिश्ते को संभाला  जा सके | पर दोनों से बात करके मेरे आश्चर्य की सीमा न रही | एक खूबसूरत रिश्ता छोटी –छोटी बातों पर टूटने की कगार पर था | ज्यादातर रिश्ते टूटने में दोनों परिवारों के बीच कुछ कटुता होती है | पर यहाँ मामला केवल उन दोनों के बीच का था | ये केवल निधि और रोहन का ही मामला नहीं है | ऐसा पहले भी होता आया है , जब दोनों में से एक या दोनों एक –दूसरे से ऐसी उम्मीदें पाल लेते हैं | जिनका पूरा होना मुश्किल है | हालांकि पहले ये  प्रतिशत बहुत कम था | एक बात यह भी है  की पहले संयुक्त परिवारों के दवाब के कारण रिश्ता वेंटिलेटर पर चलता रहता था | दो लोग साथ  जरूर रहते थे पर पास  नहीं |  पर अब पति – पत्नी के अकेले रहने , तलाक   के समाज द्वारा मान्य  होने व् दोनों के आर्थिक रूप से स्वतंत्र होने के कारण इन  अवास्तविक उम्मीदों पर रिश्ते टूटने लगे हैं | जाने कैसे अवास्तविक उम्मीदों से टूटती है रिश्ते की डोर               समस्या को समस्या कह देना किसी समस्या का अंत नहीं है | उसका समाधान खोजना आवश्यक है | जहाँ तक मैं समझती  हूँ की  जिस तरह फिल्मों और टी .वी में “ परफेक्ट रिश्ते को  दिखाया जाता है | उसे देखकर युवा मन अपने जीवन साथी  के लिए आदर्श कल्पनाएँ पाल लेते हैं | जो हकीकत के धरातल पर पूरी होती नहीं दिखती तो मन असंतोष से भर जाता है | पहले आपसी खटपट होती है जो रिश्ते की डोर को कमजोर करती है फिर एक –दूसरे से अलग होकर कोई दूसरा परफेक्ट साथी ढूँढने की चाह उत्पन्न होती है | दुखद है जब दो लोग एक दूसरे का हाथ थाम कर जीवन सफ़र में आगे बढ़ते हैं तो महज इन छोटी – छोटी अवास्तविक उम्मीदों से रिश्ता टूट जाए | भले  ही रिश्ते स्वर्ग में बनते हो पर निभाए धरती पर जाते हैं | और उनको ख़ूबसूरती से निभाना एक कला है | आज मैं यहाँ उन अवास्तविक अपेक्षाओं  पर चर्चा करूँगी  जिनकी वजह से रिश्ते टूट जाते हैं या कमजोर पड़  जाते हैं | वो सदैव  रोमांटिक  ही रहेंगे –                  कोई भी रिश्ता एक दूसरे के प्रति प्रेम  के साथ ही शुरू होता है | एक दूसरे को पसंद करना ही किसी रिश्ते की बुनियाद होती है | जाहिर है शुरू –शुरू में इसका इज़हार भी बहुत होता है | एक दूसरे ने क्या कपडे पहने हैं | कैसा दिख रहा है | कैसे बोल रहा है | इस बात पर साधारणतया ध्यान  भी बहुत जाता है | परन्तु जैसे  –जैसे रिश्ता पुराना पड़ता जाता है | जीवन की और जरूरते  प्राथमिकताओं में आ जाती हैं | इसका अर्थ यह नहीं है की प्रेम कम हुआ है बल्कि अर्थ यह है की अगला व्यक्ति जिम्मेदार है | जो प्रेम के साथ अपनी जिम्मेदारियों को भी निभाना चाहता है | अगर आप अपने साथी से कुछ खास बातें ही एक्स्पेक्ट करते रहेंगे  तो  आपको भी दुःख होगा व् यह साथी को भी उलझन होगी की की उसे हर समय आप को खुश करने के लिए कुछ खास काम करने होंगे | ऐसी स्थिति में वो काम प्रेम नहीं ड्यूटी बन जायेंगे जिससे उनका सारा आनंद  ही खत्म हो जाएगा | बेहतर यही है की रोमांस को केवल बाँहों में बाहें डाल कर फिल्म  देखने , कैंडल लाईट डिनर  करने या महंगे गिफ्ट खरीद कर देने तक ही सीमित नहीं कर दिया जाए | जरूरी है रोमांटिक तरीकों के अलावा छिपे हुए प्रेम को पहचाना जाए जो एक दूसरे का ख्याल रखने , चिंता फिकर करने या हर परिस्तिथि में साथ खड़े होने से आता है | जैसे जैसे कपल प्रेम के  इन छिपे हुए तरीकों को समझना शुरू कर देंगे वैसे वैसे रिश्ता प्रगाढ़ होता जाएगा | वो हमेशा सही ही बात बोलेंगे –            जो तुमको हो पसंद वही बात कहेंगे ,                  … Read more

क्या आप भी दूसरों की पर्सनालिटी पर टैग लगाते हैं ?

 रुकिए … रुकिए, आप इसे क्यों पढेंगें | आप की तो आदत है फ़िल्मी , मसाला या गॉसिप पढने की | किसी शोध परक आलेख को भला आप क्यों पढेंगे ? आप सोंच रहे होंगे बिना जाने – पहचाने ये कैसा इलज़ाम है | … घबराइये नहीं , ये तो एक उदाहरण था “पर्सनालिटी टैग” का जिसके बारे में मैं आज विस्तार से बात करने वाली हूँ | अगर आपको लगता है की जाने अनजाने  आप भी ऐसे ही दूसरों की पर्सनालिटी पर टैग लगाते रहते  हैं तो इस लेख को जरा ध्यान से पढ़िए |  हम सब की आदत होती है की किसी की एक , दो बात पसंद नहीं आई तो उसकी पूरी पर्सनालिटी पर ही टैग लगा देते हैं | बॉस ने कुछ कह दिया … अरे वो तो है  ही खडूस , टीचर की  क्लास में पढ़ाते समय दो – तीन  बार जुबान फिसल गयी | हमने टैग लगा दिया उन्हें तो इंग्लिश/हिंदी  बोलना ही नहीं आता | कौन , वही देसाई मैम जिनको इंग्लिश/हिंदी  नहीं आती | भाई पिछले दो साल से रक्षा बंधन पर नहीं आ पाया … टैग लगा दिया वो बेपरवाह है | उसे रिश्तों की फ़िक्र नहीं | ऐसे आये दिन हम हर किसी पर कोई न कोई टैग लगाते रहते हैं | दाग अच्छे हैं पर पर्सनालिटी पर टैग नहीं  आज इस विषय पर बात करते समय जो सबसे अच्छा उदहारण मेरे जेहन में आ रहा है वो है एक विज्ञापन का | जी हाँ ! बहुत समय पहले एक वाशिंग पाउडर का ऐड देखा था | उसमें एक ऑफिस में काम करने वाली लड़की बहुत मेहनती थी | क्योंकि वो ऑफिस का सारा काम टाइम से पहले ही पूरा कर देती थी | लिहाज़ा  वह बॉस की फेवरिट भी थी | जहाँ बॉस सबको छुट्टी देने में आना-कानी करता उसको झट से छुट्टी दे देता | ऑफिस के लोगों को उसकी मेहनत नहीं दिखती | दिखती तो बस बॉस द्वारा की गयी उसकी प्रशंसा व् जब तब दी गयी छुट्टियां | अब लोगों ने उसके ऊपर टैग लगा दिया , बॉस की चमची , जरूर बॉस से कुछ चक्कर चल रहा है , चरित्रहीन | एक दिन वो लड़की ऑफिस नहीं आई | बॉस ने ऑफिस की एक जरूरी फ़ाइल उस के घर तक दे आने व् उससे एक फ़ाइल लाने का काम दूसरी लड़की को दे दिया | दूसरी लड़की बॉस को तो मना  नहीं कर सकी पर सारे रास्ते यही सोंचती रही की बॉस की चमची ने तो मुझे भी अपना नौकर बना दिया | अब मुझे उसके घर फ़ाइल पहुँचाने , लाने जाना पड़ेगा | इन सब ख्यालों के बीच  वो उसके घर पहुंची और कॉल बेल दबाई | थोड़ी देर बीत गयी कोई गेट खोलने नहीं आया | उसने फिर बेल दबाई | फिर भी कोई नहीं आया | अब तो उसे बहुत गुस्सा आने लगा | वाह बॉस की चमची सो रहीं होंगी और मैं नौकर बनी घंटियाँ बजा रही हूँ | गुस्से में उसने दरवाज़ा भडभडाया | दरवाज़ा केवल लुढका था इसलिए खुल गया | वो लड़की बडबडाते हुए अंदर  गयी | सामने के कमरे में  एक औरत व्हील चेयर में बैठी थी | उसने धीमी आवाज़ में कहा ,” आओ बेटी , मैं कह रही थी की दरवाज़ा खुला है पर शायद मेरी आवाज़ तुम तक नहीं पहुंची | मेरी बेटी बता गयी थी की तुम फ़ाइल देने आओगी | ये वाली फ़ाइल लेती जाना | बहुत मेहनत करती है मेरी बेटी | ऑफिस का काम , घर का काम , ऊपर से मेरी बिमारी में डॉक्टर से दूसरे डॉक्टर तक की भाग –दौड़ |पर उसकी मेहनत के कारण ही उसके बॉस जब जरूरत पड़ती है उसे छुट्टी दे देते हैं | अब आज ही सुबह चक्कर आ गया | ब्लड टेस्ट करवाया |रिपोर्ट डॉक्टर को दिखाने गयी है | इसलिए तुम्हें आना पड़ा | जो लड़की फ़ाइल देने आई थी | जो उसे अभी तक बॉस की चमची कह कर बुलाये जा रही थी बहुत  लज्जित महसूस करने लगी | अरे , बेचारी इतनी तकलीफ में रह कर भी ऑफिस में हम सब से ज्यादा काम करती है | हम सब तो घर में हुक्म चलाते हैं | उसे तो बीमार आपहिज  माँ की सेवा करनी पड़ती है | अपनी उहापोह में वो लौटने लगी |तभी उसे उस लड़की की माँ का स्वर सुनाई दिया ,” बेटा दरवाज़ा बंद करती जाना | और हां , एक बात और हो सकता है यहाँ आने से पहले तुम भी औरों की तरह मेरी बेटी को गलत समझती होगी | उसे तरह – तरह के नाम देती होगी | पर यहाँ आने के बाद सारी  परिस्थिति देख कर तुम्हारी राय बदली होगी | इसलिए आगे से किसी की  पर टैग लगाने से पहले सोंचना | क्योंकि दाग मिट सकते हैं पर टैग नहीं    कहने को यह एक विज्ञापन था | पर इस विज्ञापन को बनाने वाले ने मानव मन की कमी को व्यापकता से समझा था | की हम अक्सर हर किसी पर टैग लगाते फिरते हैं | ये जाने बिना की पर्सनालिटी पर लगे टैग आसानी से नहीं मिटते | पर्सनालिटी टैग  हमारी प्रतिभा को सीमित कर देते हैं आपको याद होगा की अमिताभ बच्चन ने फिल्म अग्निपथ में अपनी आवाज़ बदली थी | जिस कारण लोगों ने फिल्म को अस्वीकार कर दिया | गोविंदा को सीरियस रोल में लोगों ने अस्वीकार कर दिया | राखी सावंत को आइटम नंबर के अतिरिक्त कोई किसी रूपमें देखना ही नहीं चाहता | एक कलाकार, कलाकार होता है | पर वो अपने ही किसी करेक्टर में इस कदर कैद हो जाता है | की उसके विकास के सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं | यह हर कला के साथ होता है | चाहे साहित्यकार हो , चित्रकार या कोई अन्य कला | साहित्य से संबंध  रखने के कारण मैंने अक्सर देखा है की एक साहित्यकार को आम बातों पर बोलने से लोग खफा हो जाते हैं |क्योंकि वो उसे उसी परिधि में देखना चाहते हैं | स्त्री विमर्श की लेखिकाएं के अन्य विषयों पर लिखे गए लेख पढ़े जाने का आंकड़ा कम है | … Read more

फिल्म पद्मावती से रानी पद्मावती तक बढ़ता विवाद

आज संजय लीला भंसाली के कारण रानी पद्मावती  व् जौहर व्रत फिर से चर्चा में है | फिल्म पर बहसें जारी हैं | हालाँकि की जब तक फिल्म न देखे तब तक इस विषय में क्या कह सकते हैं ? ये भी सही है की कोई भी फिल्म बिलकुल इतिहास की तरह नहीं होती | थोड़ी बहुत रचनात्मक स्वतंत्रता होती ही है | जहाँ तक संजय लीला भंसाली का प्रश्न है उनकी फिल्में भव्य सेट अच्छे निर्देशन व् गीत संगीत , अभिनय के कारण काफी लोकप्रिय हुई हैं |  परन्तु यह भी सच है की वह भारतीय ऐतिहासिक स्त्री चरित्रों को हमेशा से विदेशी चश्मे से देखते रहे | ऐसा उन्होंने अपनी कई फिल्मों में किया है | उम्मीद है इस बार उन्होंने न्याय किया होगा | आज इस लेख को लिखने का मुख्य मुद्दा सोशल मीडिया पर हो रही वह बहस है जिसमें फिल्म पद्मावती के स्थान पर अब रानी पद्मावती को तुलनात्मक रूप से कमतर साबित करने का प्रयास हो रहा है | रानी पद्मावती इतिहास के झरोखे से प्राप्त ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार संझेप मे रानी  पद्मावती सिंघल कबीले के राजा गंधर्व और रानी चंपावती की बेटी थी | वो अद्वितीय सुंदरी थीं | कहते हैं की वो इतनी सुन्दर थीं की अगर पानी भी पीती तो उनकी गर्दन से गुज़रता हुआ दिखाई देता |पान खाने से उनका गला तक लाल हो जाता था |  जब वो विवाह योग्य हुई तो उनका स्वयंवर रचाया गया | जिसे जीत कर चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने रानी पद्मावती से विवाह किया | और उन्हें ले कर अपने राज्य आ गए |  यह १२ वी १३ वी शताब्दी का समय था | उस समय चित्तौड़ पर राजपूत राजा रतन सिंह का राज्य था | जो सिसोदिया वंश के थे | वे अपनी पत्नी पद्मावती से बेहद प्रेम करते थे | कहते हैं उनका एक दरबारी राघव चेतन अपने राजा  के खिलाफ हो कर दिल्ली के सुलतान अल्लाउदीन खिलजी के पास गया | वहां जा कर उस ने रानी की सुदरता का वर्णन कुछ इस तरह से किया की सुलतान उसे पाने को बेचैन हो उठा |उसने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी |राजा रतन सिंह  ने किले का दरवाजा बंद करवा दिया | खिलजी की सेना बहुत बड़ी थी | कई दिन तक युद्ध चलता रहा | किले के अन्दर खाने पीने का सामान खत्म होने लगा | तब राजा रतन सिंह ने किले का दरवाजा खोल कर तब तक युद्ध करने का आदेश दिया जब तक शरीर में प्राण रहे |  रानी पद्मावती जानती थी की की राजा रतन सिंह की सेना बहुत छोटी है | पराजय निश्चित है | राजपूतों को हरा कर सैनिक उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे | इसलिए उसने जौहर व्रत का आयोजन किया | जिसमें उसने व् किले की समस्त स्त्रियों ने अग्नि कुंड में कूदकर अपने प्राणों का बलिदान किया  | जब खिलजी व् उसकी सेना रतन सिंह की सेना को परस्त कर के अन्दर आई तब उसे राख के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला | रानी पद्मावती के ऐतिहासिक साक्ष्य रानी पद्मावती के बारे में लिखित ऐतिहासिक साक्ष्य मालिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत नामक महा काव्य है | कर्नल टाड  ने भी राजस्थान के इतिहास में रानी पद्मावती के बारे में वर्णन  किया है | जो जायसी के माहाकव्य से मिलता जुलता है | जिसे उन्होंने जनश्रुतियों के आधार पर तैयार किया | इतिहासवेत्ता साक्ष्यों के आभाव में इसके अस्तित्व पर समय समय पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं | परन्तु एक पराधीन देश में ऐतिहासिक साक्ष्यों का न मिल पाना कोई असंभव बात नहीं है | साक्ष्य नष्ट किये जा सकते हैं पर जनश्रुतियों के आधार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंची सच्चाई नहीं | ये अलग बात है की जनश्रुति के आधार पर आगे बढ़ने के कारण कुछ जोड़ – घटाव हो सकता है | पर इससे न तो रानी पद्मावती के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगता है न ही उसके जौहर व्रत पर … जिसे स्त्री अस्मिता का प्रतीक बनने  से कोई रोक नहीं पाया | रानी पद्मावती की सीता व् लक्ष्मी बाई से तुलना आश्चर्य है की फिल्म पद्मावती का पक्ष लेने की कोशिश में सोशल मीडिया व् वेबसाइट्स पर सीता पद्मावती और रानी लक्ष्मी बाई की तुलना करके रानी पद्मावती को  कमतर  साबित करने  का बचकाना काम  किया जा रहा है  | जहाँ ये दलील दी जा रही है की सीता रावण के राज्य में अकेली होकर भी आत्महत्या नहीं करती है व् रानी लक्ष्मी बाई अकेली  हो कर भी अंग्रेजों से लोहा लेती है तो रानी पद्मावती ने आत्महत्या (जौहर ) कर के ऐसा कौन सा आदर्श स्थापित कर दिया जो वह भारतीय स्त्री अस्मिता का प्रतीक बन गयी | हालांकि मैं दो विभिन्न काल खण्डों की स्त्रियों की तुलना के  पक्ष में नहीं हूँ | फिर भी यहाँ स्पष्ट करना चाहती हूँ | इन तीनों की स्थिति अलग – अलग थी | जहाँ रावण ने  सीता की इच्छा के बिना उन्हें हाथ न लगाने का संकल्प किया था | वो केवल उनका मनोबल तोडना चाहता था | जिसे सीता ने हर विपरीत परिस्थिति में  टूटने नहीं दिया | कहीं न कहीं उन्हें विश्वास था की राम उन्हें बचाने अवश्य आयेंगे | वो राम को रावण से युद्ध में परस्त होते हुए देखना चाहती थी | यही इच्छा उनकी शक्ति थी | रानी लक्ष्मी बाई  का युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ था | अंग्रेज उनका राज्य लेना चाहते थे उन्हें नहीं | इसलिए उन्होंने अंतिम सांस तक युद्ध करने का निर्णय लिया | रानी पद्मावती   जानती थी की राजा रतनसिंह युद्ध में परस्त हो जायेंगे | वो भी अंतिम सांस तक युद्ध कर के वीरगति को प्राप्त हो सकती थी | लेकिन अगर वो वीरगति को प्राप्त न होकर अल्लाउदीन  खिलजी की सेना द्वारा बंदी बना ली जाती तो ? ये जौहर व्रत अपनी अस्मिता को रक्षा करने का  प्रयास था | आत्महत्या नहीं है रानी पद्मावती का जौहर व्रत कई तरह से रानी पद्मावती  के जौहर व्रत को आत्महत्या सिद्ध किया जा रहा है | जो स्त्री अस्मिता की प्रतीक रानी पद्मावती  व् चित्तौड़ की अन्य महिलाओं को गहराई से न समझ पाने के कारण है … Read more

अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति सम्मान की मांग

  मिसेज गुप्ता कहती हैं की उस समय परिवार में सब  कहते थे, “लड़की है बहुत पढाओ  मत | एक पापा थे जिन्होंने सर पर हाथ फेरते हुए कहा, “तुम जितना चाहो पढो” |   श्रीमती देसाई बड़े गर्व से बताती हैं की उनका भाई शादी में सबसे ज्यादा रोया था | अभी भी हर छोटी बड़ी जरूरत में उसके घर दौड़ा चला जाता है |   कात्यायनी जी ( काल्पनिक नाम ) अपने लेखन का सारा श्री पति को देती हैं | अगर ये न साथ देते तो मैं एक शब्द भी न लिख पाती | जब मैं लिखती तो घंटो सुध न रहती | खाना लेट हो जाता पर ये कुछ कहते नहीं | भले ही भूख के मारे पेट में चूहे कूद रहे हों | श्रीमान देशमुख अपनी पत्नी की ख़ुशी के लिए  स्कूटर न लेकर उसके लिए उसकी पसंद का सामान लेते हैं |                            फेहरिस्त लम्बी है पर  ये सब हमारे आपके जैसे आम घरों के उदाहरण है | ये सही है  कि हमारे पिता , भाई , पति बेटे और मित्र हमारे लिए बहुत कुछ करते हैं |पर क्या हम उनके स्नेह को नज़रअंदाज कर देते हैं | अगर ऐसा नहीं है तो क्यों पुरुष ऐसा महसूस कर रहे हैं |  अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति  सम्मान की मांग है  कल व्हाट्स एप्प पर एक वीडियो वायरल हुआ जिसमें एक खूबसूरत गीत के साथ अन्तराष्ट्रीय पुरुष दिवस मानाने की अपील की गयी थी .. गीत के बोल कुछ इस तरह से थे “ मेन्स डे पर ही क्यों सन्नाटा एवेरीवेयर , सो नॉट फेयर-२” … पूरे गीत में उन कामों का वर्णन था जो पुरुष घर परिवार के लिए करता है, फिर भी उसके कामों को कोईश्रेय नहीं मिलता है | जाहिर है उसे देख कर कुछ पल मुस्कुराने के बाद एक प्रश्न दिमाग में उठा “ मेन्स डे’ ? ये क्या है ? तुरंत विकिपिडिया पर सर्च किया | जी हां गाना सही था |  अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस कब मनाया जाता है    १९ नवम्बर को इंटरनेशनल मेन्स डे होता है | यह लगातार १९९२ से मनाया जा रहा है | पहले पहल इसे ७ फरवरी को मनाया गया | फिर १९९९ में इसे दोबारा त्रिनिदाद और टुबैगो में शुरू किया गया |     अब पूरे विश्व भर में पुरुषों द्वारा किये गए कामों को मुख्य रूप से घर में , शादी को बनाये रखने में , बच्चों की परवरिश में , या समाज में निभाई जाने वाली भूमिका के लिए सम्मान की मांग उठी है |     पुरुष हो या स्त्री घर की गाडी के दो पहिये हैं | दोनों का सही संतुलन , कामों का वर्गीकरण एक खुशहाल परिवार के लिए बेहद जरूरी होता है | क्योंकि परिवार समाज की इकाई है | परिवारों का संतुलन समाज का संतुलन है | इसलिए स्त्री या पुरुष हर किसी के काम का सम्मान किया जाना जरूरी हैं | काम का सम्मान न सिर्फ उसे महत्वपूर्ण होने का अहसास दिलाता है अपितु उसे और बेहतर काम करने के लिए प्रेरित भी करता है | क्यों उठ रही है अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग    यह एक  सच्चाई  है की दिन उन्हीं के बनाये जाते हैं जो कमजोर होते हैं |पितृसत्तात्मक  समाज में हुए महिलाओं के शोषण को से कोई इनकार नहीं कर सकता | महिला बराबरी की मांग जायज है | उसे किसी तरह से गलत नहीं ठहराया जा सकता है | पर इस अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस  की मांग क्यों ? तस्वीर का एक पक्ष यह है की दिनों की मांग वही करतें हैं जो कमजोर होते हैं | तो क्या स्त्री इतनी सशक्त हो चुकी है की पुरुष को मेन्स डे सेलेब्रेट करने की आवश्यकता आन पड़ी | या ये एक बेहूदा मज़ाक है | जैसा पहले स्त्री के बारे में कहा जाता था की पुरुष से बराबरी की चाह में स्त्री अपने प्रकृति प्रदत्त गुणों का नाश कर रही है , अपनी कोमलता खो रही है | क्योंकि उसने पुरुष की सफलता को मानक मान लिया है | इसलिए वो पुरुषोचित गुण अपना रही हैं |अब पुरुष स्त्री की बराबरी करने लगे हैं |      सवाल ये उठता है की पुरुषों को ऐसी कौन सी आवश्यकता आ गयी की वो स्त्री के नक़्शे कदम पर चल कर मेन्स डे की मांग कर बैठा | क्या नारी को अपनी इस सफलता पर हर्षित होना चाहिए “ की वास्तव में वो सशक्त साबित हो गयी है | पर आस पास के समाज में देखे तो ऐसा तो लगता नहीं , फिर अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस की मांग क्यों ?     अपने प्रश्नों के साथ मैंने फिर से वीडियो देखा …. और उत्तर भी मिला | इस वीडियों के अनुसार पुरुष घर के अन्दर अपने कामों के प्रति सम्मान व् स्नेह की मांग कर रहा है | कहीं न कहीं मुझे लग रहा है की ये बदलते समाज की सच्चाई है | पहले महिलाएं घर में रहती थी और पुरुष बाहर धनोपार्जन में | पुरुष को घर के बाहर सम्मान मिलता था और वो घर में परिवार व् बच्चों के लिए पूर्णतया समर्पित स्त्री का घर में बच्चो व् परिवार द्वारा ज्यादा मान दिया जाना सहर्ष स्वीकार कर लेता था |समय बदला , परिसतिथियाँ  बदली |आज उन घरों में जहाँ स्त्री और पुरुष दोनों बाहर धनोपार्जन कर रहे हैं |   बाहर दोनों को सम्मान मिल रहा है | घर आने के बाद जहाँ स्त्रियाँ रसोई का मोर्चा संभालती हैं वही पुरुष बिल भरने ,घर की टूट फूट की मरम्मत कराने , सब्जी तरकारी लाने का काम करते हैं | संभ्रांत पुरुषों का एक बड़ा वर्ग इन सब से आगे निकल कर बच्चों के डायपर बदलने , रसोई में थोडा बहुत पत्नी की मदद करने और बच्चों को कहानी सुना कर सुलाने की नयी भूमिका में नज़र आ रहा है | पर कहीं न कहीं उसे लग रहा है की बढ़ते महिला समर्थन या पुरुष विरोध के चलते उसे उसे घर के अन्दर या समाज में उसके स्नेह भरे कामों के लिए पर्याप्त सम्मान नहीं मिल रहा है |     अपने परिचित का एक उदाहरण … Read more

बाल मनोविज्ञान आधारित पर 5 लघु कथाएँ

बच्चे हमारी पूरी दुनिया होते हैं | पर बच्चों की उससे अलग एक छोटी सी दुनिया होती है | कोमल सी , मासूम सी | उनमें एक कौतुहल होता है और ढेर सारी जिज्ञासाएं | हर बात पर उनके प्रश्न होते है | और हर प्रश्न के लिए उन्हें उत्तर चाहिए | मिल गया तो ठीक नहीं तो वो हर चीज को अपने तरीके से समझने की कोशिश करते हैं | बच्चे भले ही छोटे हों पर उनके मन को समझना बच्चों का खेल नहीं है | आज उनके हम उनके मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करते हुए आप के लिए लाये हैं पांच लघुकथाएं … पढ़िए बाल मनोविज्ञान पर पाँच  लघु कथाएँ  चिंमटा  नन्हा रिंकू खेलने में मगन है | आज वो माँ रेवती के साथ किचन में ही खेल रहा है | घर की सारी  कटोरियाँ उसने ले रखी हैं | एक कटोरी का पानी दूसरे में दूसरी का तीसरे में … बड़ा मजा आ रहा है उसको इस  खेल में | तभी उसका ध्यान चिमटे की ओर चला जाता है | वो झट से चिंमटा  उठा कर बजाने लगता है …टिंग , टिंग ,टिंग | रेवती  उसे मना  करती है ,” बेटा  चिमटा मत बजाओ | पर रिंकू कहाँ मानने वाला है | खेल चल रहा है … टिंग टिंग , टिंग  रेवती  :मत बजाओ , रखो उसे  रिंकू :टिंग , टिंग , टिंग  माँ चिंमटा  छींनते  हुए कहती है ,”नहीं , बजाते चिमटा ,पता है चिंमटा  बजाने से घर में कलह होने लगती है |  रिंकू रोने लगता है | तभी रिकू के पापा सोमेश फाइलों से सर उठा कर कहते हैं ,”दे दो चिमटा | मुझे ये फ़ाइल कल ही जमा करनी है | इसकी पे पे से तो चिमटे की टिंग , टिंग भली  रेवती  ; ऐसे कैसे दे दूँ | चिंमटा  बजाने से घर में कलह होने लगती है | सोमेश  :क्या दकियानूसी बात है | रेवती  : दकियानूसी नहीं , पुरखों से चली आ रही है |ऋषि – मुनि कह गए हैं | सोमेश  : सब अन्धविश्वास है | कम से कम मेरे बेटे को तो  अन्धविश्वास  मत सिखाओ रेवती : (आँखों में आँसूं भर कर )मुझे ही कहोगे | जब तुम्हारी माँ कहती हैं की चावल तीन बार मत धो , नहीं तो वो भगवान् के हो जाते हैं खा नहीं सकते | तब कहते हो मानने में क्या हर्ज है माँ कह रहीं है तो जरूर ही सच होगा  | फिर उनका  इतना  मन तो रख सकते हैं | आज मैं अपने बेटे से इतना भी नहीं कह सकती | सोमेश : (आवेश में ) देखो माँ को बीच में मत लाओ रेवती : क्यों न लाऊ | जो तुम्हारी माँ कहे वो संस्कार , जो मैं कहूँ वो पोंगा पंथी सोमेश : अच्छा, और तुम्हारी माँ तो …..                           रिंकू सहम कर चिंमटा  एक तरफ रख देता है | उसे पता चल गया है कि चिंमटा  बजाने से घर में कलह होती है | ———————————————————————— क़ानून  सरला जी ने दरवाजा खोला … ये क्या …. उनका ४ वर्षीय बेटा चिंटू आँखों में आँसू  लिए खड़ा है । क्या हुआ बेटा … सरला जी ने अधीरता से पूंछा । मम्मी आज मैं ड्राइंग की कॉपी नहीं ले गया था, इसलिए मैम ने चांटा मार दिया ।  सरला जी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया । गुस्से मैं बोलीं … ये कैसी औरत है , तुम्हारी टीचर  क्या उसे बच्चों के कानून के बारे में पता नहीं है । चलो मेरे साथ मैं आज ही उस को कानून बताउंगी । तमतमाती हुई सरला जी चिंटू को साथ ले स्कूल पहुंची । प्रिंसिपल के पास जाकर शिकायत की और उन्हें बच्चों के कानून का वास्ता दिया । प्रिंसिपल ने तुरंत टीचर को बुलाकर ताकीद दी कि छोटे बच्चों को बिलकुल न मारा जाये ये कानून है ।  ख़ुशी ख़ुशी चिंटू अपनी मम्मी के साथ घर आ गया । खेलते खेलते उसने ड्रेसिंग टेबल की अलमारी खोल ली । रंग बिरंगी लिपस्टिक देखकर उसका मन खुश हो गया । कुछ दीवार पर पोत दी कुछ मुँह  पर लगा ली और कुछ सहज भाव से तोड़ दी ।   सरला जी वहां आयीं और ये नज़ारा देखकर उन्होंने आव देखा न ताव … चट चट ३-४ तमाचे चिंटू के गाल पर जमा दिए और कोने में खड़े होने की सजा दे दी । कोने में चिंटू खड़ा सोंच रहा है ….. क्या घर में छोटे बच्चों को मारने से रोकने के लिए कोई कानून नहीं है । ——————————– आत्मा  आज सुधीर दादी के साथ सुबह – सुबह मंदिर दर्शन को गया है । दादी सुमित्रा देवी ने सोंचा कि आज छुट्टी का दिन है …. पोते की छुट्टी है तो चलो उसे ले चलते हैं, आखिर संस्कार भी तो सिखाने हैं । सबसे पहले सुमित्रा देवी ने मंदिर के प्रांगण  में लगे पीपल को नमस्कार करने को कहा । सुधीर ने पूंछा ‘ क्यों दादी पेड़ को नमस्कार क्यों करें ‘। सुमित्रा देवी ने समझाया ‘ बेटा पेड़ भी जीवित होता है । उसमें भी आत्मा होती है और हर आत्मा में परमात्मा यानि की भगवान् होते हैं …. इसलिए हमें हर जीव का और पेड़ों का आदर करना चाहिए ‘। सुधीर दादी के साथ आगे बढ़ा । दादी ने गणेश जी को लड्डू का भोग लगाने के लिए कहा । सुधीर लड्डू चढ़ा रहा था की लड्डू छिटक कर दूर जा कर गिरा । सुधीर लड्डू उठाने लगा तो सुमित्रा देवी बोलीं ‘ सुधीर सम्मान के साथ भोग लगाया जाता है । यह गिर गया है तो दूसरा लड्डू चढाओ । किसी को कुछ दो तो इज्ज़त के साथ देना चाहिए … फिर ये तो परमात्मा हैं ‘। 4 वर्षीय सुधीर सब समझता जा रहा था । कैसे सम्मान देने के लिए दोनों हाथ लगा कर पूजा करनी चाहिए, कैसे हर जीव का आदर करना चाहिए । सुधीर बहुत खुश था, जैसे की प्रायः बच्चे किसी नयी चीज़ को सीख कर होते हैं । पूजा करने के बाद सुधीर दादी के साथ मंदिर से बाहर निकला । भिखारियों की भीड़ लगी थी । दादी … Read more

माता-पिता के झगडे और बच्चे

नन्ही श्रेया अपने बिल्डिंग में नीचे के फ्लोर में रहने वाले श्रीवास्तव जी के घर जाती है और उनका हाथ पकड़ कर कहती है “अंकल मेरे घर में चलो , लाइट जला दो ,पंखा चला दो ,गर्मी लग रही है | श्रीवास्तव जी श्रेया को समझाते हुए कहते हैं “बेटे मम्मी को कहो वो चला देंगी ,जाओ घर जाओ | नहीं अंकल मम्मी नहीं चलाएंगी | पापा –मम्मी में बिजली के बिल को लेकर झगडा चल रहा है | पापा मम्मी को डांट  रहे हैं और मम्मी कह रही हैं ,ठीक है अब पंखा नहीं चलाऊँगी ,कभी नहीं चलाऊँगी ,मम्मी रो रही हैं | आप चलो न अंकल ,प्लीज चलो ,मुझे गर्मी लग रही है | पंखा चला दो न चल के ,प्लीज अंकल |      पी टी एम में निधि कक्षा अध्यापिका के डांटने पर फफक –फफक कर रो पड़ी | मैंम मेरे घर से कोई नहीं आएगा | न् पापा  न मम्मी | पापा तो ऑफिस गए हैं और मम्मी की तबियत खराब है ,कल पापा ने मारा था | हाथ पैर में चोट लग गयी है | मैं रोज –रोज के झगड़ों की वजह से पढ़ नहीं पाती मैम |        ५ साल के  अतुल का पिछले ६ महीने से ईलाज करने वाले डॉ देसाई उसके न बोल पाने की वजह कोई शारीरिक न पाते हुए उसे मनोवैज्ञानिक को दिखाने की सलाह देते हैं | मनोवैज्ञानिक एक लम्बी परिचर्चा  के बाद इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि अतुल के न बोल पाने की वजह उसके माता –पिता में होने वाले अतिशय झगडे हैं | दोनों खुद चिल्लाते हैं और एक दूसरे को चुप रहने की ताकीद देते हैं | अतुल अपनी बाल बुद्धि से चुप रहने  को ही सही समझता है और बोलने की प्रक्रिया में आगे बढ़ने से इनकार कर देता है | बच्चो पर असर डालते हैं माता -पिता के झगडे              जैसा की उदाहरणों से स्पष्ट है जब पति –पत्नी लड़ते हैं तो उसका बहुत ही प्रतिकूल असर बच्चों पर पड़ता है | लड़ते समय उन्हें ये भी ख़याल नहीं रहता कि आस –पास कौन है | वे बच्चों के सामने निसंकोच एक दूसरे के चाल –चरित्र पर लांछन  लगाते हैं| एक दूसरे के माता –पिता व् परिवार वालों को बुरा –भला कहते हैं | भले ही उनका मकसद लड़ाई जीत कर अपना ईगो सैटिसफेकशन हो |पर उन्हें इस बात का ख्याल ही नहीं रहता कि जो मासूम बच्चे जो उन्हें अपना आदर्श मानकर हर चीज उन्हीं से सीखते हैं उन पर कितना विपरीत असर पड़ेगा | कई बार रोज  –रोज के झगड़ों को देखकर बच्चे दब्बू बन जाते हैं तो कई बार उनमें विद्रोह ही भावना  आ जाती है | किशोरबच्चो में अपराधिक मानसिकता पनपने का एक कारण यह भी हो सकता है | अक्सर  माता –पिता तो लड़ –झगड़कर सुलह कर लेते हैं पर जो नकारात्मक असर बच्चों पर पड़  जाता है उसको बाद में ठीक करना बहुत मुश्किल हो जाता है | माता-पिता के झगडे और बच्चे: मनोवैज्ञानिकों की राय     प्रसिद्द मनोवैज्ञानिक सुशील जोशी कहते हैं कि “ पति –पति में  झगडा होना अस्वाभाविक नहीं है | कहा भी गया है जहाँ चार बर्तन होंगे वहां खट्केंगे  ही | दो भिन्न परिवेश में पले  लोगों में अलग राय होना आम बात है | इससे बच्चों को फर्क नहीं पड़ता , फर्क पड़ता है बात रखने के तरीके  से | आये दिन जोर जोर से चीख चिल्ला कर करे गए झगडे बच्चों पर बहुत ही विपरीत असर डालते हैं | यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य है कि अगर झगड़ों के बाद माता –पिता में अच्छे रिश्ते दिखाई देते हैं तो बच्चे भी झगड़ों  को नजर अंदाज कर  देते हैं | उन्हें लगता है की उनके माता –पिता में प्रेम तो है  | परन्तु अगर बच्चों को लगता है कि माता-पिता में प्रेम नहीं  है व् साथ रहते हुए भी उनमें दुश्मन हैं  तो बच्चे सहम जाते हैं | उन्हें भय उत्पन्न हो जाता है कि कहीं वो लड़ -झगड़ कर अलग न हो जाएँ और उन्हें वो प्यार मिलना बंद न हो जाए  अपने माता – पिता से मिल रहा है |   वैज्ञानिकों की माने  तो इस मानसिक भय के शारीरिक लक्षण अक्सर बच्चों में प्रकट होने लगते हैं जैसे दिल की धड़कन बढ़ जाना, पेटमें दर्द होना, बेहोशी आना , व् विकास दर में कमी आदि।एक प्रचलित विचारधारा तो यह भी है कि अधिक गंभीरकिस्म की स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं मूल रूप में मनोवैज्ञानिक आधार लिये हुये होती हैं।  मनोवैज्ञानिक डॉ. ऐनी बैनिग के अनुसार बच्चों के लिए सबसे खराब वो झगडा होता है जहाँ उनको को ऐसा लगने लगता है की चाहे अनचाहे वो दोषी है | ऐसा तब होता है जब माता – पिता में से एक दबंग व् दूसरा दब्बू प्रकृति का होता है | बच्चे को बार – बार यह अहसास होता है की माता या पिता उसकी वजह से इस ख़राब बंधन में जकड़े हुए हैं |  वैज्ञानिक विश्लेषण से पता चलता है कि हमारे शरीर में  सिम्पैथीटिक व् पैरासिम्पैथीटिक नर्वस सिस्टम होता  है | किसी भावी विपत्ति के समय यही सिस्टम हमारे खून में  एड्रीनेलीन नामक ग्लैंड से एड्रीनेलिन हरमों निकाल कर शरीर को खतरे के लिए तैयार करता है | जिससे दिलकी धड़कन बढ़ जाती है , पाचन क्रिया , एनेर्जी रिलीज सब बढ़ जाती है | खतरे के लिए तो ये एक स्वाभाविक प्रतिक्रिया है पर जब रोज – रोज के झगड़ों से बच्चे भावनात्मक खतरा महसूस करते हैं तो यह प्रक्रिया उन्हें नुक्सान पहुंचाती है व् शारीरिक व् मानसिक विकास को कम करती है |  माता-पिता झगड़ते समय बच्चो के विषय में सोंचे             विवाह भले ही जीवन भर का रिश्ता है पर इसमें अप और डाउन होना बिलकुल स्वाभाविक है | विवाहित जोड़ों का आपस में झगड़ना कोई असमान्य प्रक्रिया नहीं है | असमान्य यह है की वो झगडा करते समय अपने बच्चों को भूल जाते हैं | उस समय उनका धयान पूरी तरह से तर्क –वितर्क करने और एक दूसरे को नीचा दिखाने में होता है |जब भी आप अपने पति या पत्नी से झगडा करने को तत्पर हो यह हमेशा धयान रखे कि आप के बच्चे यह ड्रामा देख रहे हैं | जो उन्हें भानात्मक रूप से कमजोर बना रहा है | इसका मतलब यह नहीं है की आप माता –पिता हैं तो आप को झगडा करने का  या अपनी बात रखने का अधिकार नहीं है | पर आप को … Read more

किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता :जिम्मेदार कौन ?

किशोरावस्था यानि उम्र का वो पड़ाव जिसमें उम्र बचपन व् युवास्था के बीच थोडा सा विश्राम लेती है | या यूँ कहें  न बचपन की मासूमियत है न बड़ों की सी समझ और ऊपर से ढेर सारे शरीरिक व् मानसिक और हार्मोनल परिवर्तनों का दवाब | शुरू से ही किशोरावाथा “ हैंडल विथ केयर “की उम्र मानी जाती रही है | और यथासंभव परिवार व् समाज इसका प्रयास भी करता रहा है | और किशोर अपनी इस उम्र की तमाम परेशानियों से उलझते सुलझते हँसी – ख़ुशी  युवावस्था में पहुँच ही जाते हैं | पर  निर्भया रेप कांड के बाद मासूम प्रद्युम्न की हत्या की जांच की जो खबरे आ रही हैं | वो चौकाने वाली हैं | अगर अपराधी मानसिकता की बात करें तो किशोर बच्चे अब बच्चे नहीं रहे | चोरी , बालात्कार और हत्या जिसे संगीन अपराधों को अंजाम देने वाले ये किशोर किसी खूंखार अपराधी से कम नहीं है | आखिर बच्चों में इतनी अपराधिक प्रवत्ति क्यों पनप रही है | हम हर बार पढाई का प्रेशर कह कर  समस्या के मूल को नज़रअंदाज नहीं कर सकते | बच्चों में सहनशक्ति की कमी होती जा रही है और गुस्सा बढ़ता जा रहा है व् अपराधिक प्रवत्तियां जन्म ले रही हैं |हमें कारण तलाशने होंगे | किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता: संयुक्त परिवारों का विघटन  है जिम्मेदार *नौकरी की तलाश में पिछली पीढ़ी अपना गाँव ,शहर छोड़ कर दूसरे शहरों में बस गयी | संयुक्त परिवार टूट गए | साथ ही छूट गया दादी नानी का प्यार भरा अहसास और सुरक्षा का भाव | क्रेच में पले  हुए बच्चे जो स्वयं प्यार के लिए तरसते हैं उन में मानवता के लिए प्यार की भावना  आना मुश्किल है | *दादी नानी की कहानियों की जगह हिंसात्मक वीडियो गेम जहाँ गोली चलाना , मार डालना खेल का हिस्सा है | उसे खेलते हुए बच्चों में अपराधिक मानसिकता की पृष्ठभूमि तैयार हो जाती है | उन्हें मरना या मारना कोई बड़ी बात नहीं लगती | आंकड़ों की बात की जाए तो किशोर आत्महत्या भी बढ़ रही है | जरा सी बात में अपनी जिंदगी भी  समाप्त कर देने में वो परहेज नहीं करते |कई उदहारण तो ऐसे आये कि माँ ने जरा सा डांट दिया या कुछ कह दिया तो बच्चे ने आत्महत्या कर ली | या फिर माँ ने टी .वी देखने को मन किया तो बच्चे ने माँ की हत्या कर दी | दोनों ही स्थितियों में मरने मारने की कोई प्री प्लानिंग नहीं थी | कहीं न कहीं ये हिंसात्मक खेल बच्चों में हिंसा की और प्रेरित कर रहे हैं | बहुत पहले काल ऑफ़ ड्यूटी वीडियो गेम देख कर एक नवयुवा ने कई बच्चों की हत्या कर दी थी | आजकल इसका ताज़ा उदहारण “ब्लू व्हेल “ गेम है | दुखद है की इसे  खेल कर बच्चे न सिर्फ अपने शरीर में चाकू से गोद कर व्हेल बना रहे हैं बल्कि जीवन भी समाप्त कर रहे हैं |   एकल  परिवारों में जहाँ हर बात में बच्चों की राय ली जाती है |कुछ हद तक यह बच्चों को निर्णय लेना सिखाने व् परिवार में उनकी राय को अहमियत देने के लिए जरूरी है | पर अति हर जह बुरी होती है | कौन सा सोफे लेना है , बच्चों से पूँछो , चादर का रंग बच्चो से पूँछ कर , घर का नक्शा बच्चों से पूँछ कर | जब सब कुछ बच्चों से पूँछ कर हो रहा है तो बच्चे अपने को  बड़ों के बराबर समझने लगते हैं | लिहाज़ा उनसे कही गयी हर बात उन्हें अपना अपमान लगती है |उन्हें राय लेने नहीं देने की आदत पड़  चुकी होतीहै | जब उन्हें कह जाता है की बेटा गुस्सा न करों , अच्छे से पढाई करो या दोस्तों से झगडा न करों तो वो सुनने वाले नहीं हैं | बल्कि १० तर्क दे कर माता – पिता को ही चुप करा  देंगे |  किशोर बच्चों में अपराधिक मानसिकता : पढाई का प्रेशर है जिम्मेदार * आज बच्चे के हर दोष के लिए पढाई का प्रेशर कह कर उसे दोष मुक्त कर दिया जाता है | बच्चों पर पढाई का प्रेशर हमी ने डाला है | खासकर छोटे बच्चों में | जहाँ हम इसी तुलना में लगे रहते हैं की किसके बच्चे ने A फॉर एप्पल के आलावा A फॉर ant पहले सीख लिया | हमने इसे नाक का प्रश्न बनाया है |आज छोटे बच्चों की माएं स्वयं सुपर मॉम और अपने बच्चे को सुपर चाइल्ड बनाने की जुगत में लगी रहती हैं |इस कारण वो स्वयं भी तनाव में रहती हैं व् बच्चों पर भी तनाव डालती हैं | ये तनाव बच्चों की सांसों में इस कदर घुल मिल जाता है की उनके जीवन का एक हिस्सा बन जाता है |जब तक परिवार को बात समझ में आती है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | अब तक तनाव रिफ्लेक्स एक्शन में स्थापित हो गया होता है | जिसे वहां से निकाल पाना  असंभव है |  पढ़िए -बदलता बचपन * रही बात किशोर बच्चों की तो किशोर बच्चों में पढाई का प्रेशर हमेशा से रहा है | यही वो उम्र होती है जब प्रतियोगी परीक्षाएं दे कर करियर चुना जाता है |असफलताएं पहले भी होती थी | पर अब असफलताएं सहन नहीं होती | न बच्चों को न माँ – बाप को |इसीलिए इस प्रेशर का  मीडिया हाइप बना कर हम ही अपने बच्चों के सामने प्रेशर , प्रेशर , प्रेशर का मंत्र  जप कर कहीं न कहीं उनके दिमाग में यह बात बिठा दी जाती है की उनके साथ कुछ गलत हो रहा है |इस कारण किशोर बच्चे अक्सर बौखलाए से रहते हैं | क्रोध उनको अपराध की ओर प्रेरित करता है | उनको माँ – बाप ,समाज दुश्मन से नज़र आते हैं |          इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि जिन घरों में किशोर बच्चे है उनके माता – पिता उनके इस अतिशय क्रोध से डरे रहते हैं | बच्चों के माता – पिता यह कहते है की हम तो उससे बात भी नहीं कर पाते पता नहीं कब नाराज़ हो जाए | कहीं न कहीं ये … Read more

संन्यास नहीं, रिश्तों का साथ निभाते हुए बने अध्यात्मिक

अध्यात्म  का अर्थ ये नहीं है की हमने सारे रिश्ते – नाते छोड़ कर कमंडल और चिंता उठा कर संन्यास ले लिया है | वस्तुत : अध्यात्म   आत्मिक उन्नति की एक अवस्था है जो सब के साथ , सबके बीच रहते हुए भी पायी जा सकती है | पर हमने ही उन्हें दो अलग – अलग घेरों में रख रखा है | इस बात समझना सहज तो है पर इन घेरों को तोड़ने के लिए एक यात्रा अंतर्मन की करनी पड़ेगी | ताकि अध्यात्म के मूल भूत सिद्धांतों को समझा जा सके |   अध्यात्मिक  उन्नति के लिए आवश्य नहीं है संन्यास   आज इस विषय पर लिखने का कारण मधु आंटी हैं | वो अचानक रास्ते में मिल गयीं | मधु आंटी  को देखकर  बरसों पहले की स्मृतियाँ आज ताज़ा हो गयी | बचपन में वो मुझे किसी रिश्तेदार के यहाँ फंक्शन में मिली थी | दुबला –पतला जर्जर शरीर , पीला पड़ा चेहरा , और अन्दर धंसी आँखे कहीं  न कहीं ये चुगली कर रही थी की वह ठीक से खाती –पीती नहीं हैं | मैं तो बच्ची थी कुछ पूँछ नहीं सकती थी | पर न जाने क्यों उस दर्द को जानने की इच्छा  हो रही थी | इसीलिए पास ही बैठी रही | आने –जाने वाले पूंछते ,’अब कैसी हो ? जवाब में वो मात्र मुस्कुरा देती | पर हर मुसकुराहट  के साथ दर्द की एक लकीर जो चेहरे पर उभरती वो छुपाये न छुपती | तभी खाना खाने का समय हो गया | जब मेरी रिश्तेदार उन को खाना खाने के लिए बुलाने आई तो उन्होंने कहा उनका व्रत है | इस पर मेजबान रिश्तेदार बोली ,” कर लो चाहे जितने व्रत वो नहीं आने वाला | “ मैं चुपचाप मधु आंटी के चेहरे को देखती रही | विषाद  के भावों में डूबती उतराती रही | लौटते  समय माँ से पूंछा | तब माँ ने बताया मधु  आंटी के पति अध्यात्मिकता  के मार्ग पर चलना चाहते थे | दुनियावी बातों में उनकी रूचि नहीं थी | पहले झगडे –झंझट हुए | फिर वो एक दिन सन्यासी बनने के लिए घर छोड़ कर चले गए |माँ कुछ रुक कर बोली ,”  अगर सन्यासी बनना ही था तो शादी की ही क्यों ?वो लौट कर घर – बार की जिम्मेदारी संभाल  लें इसी लिए मधु इतने व्रत करती है |                बचपन में मधु आंटी से सहानुभूति के कारण मेरे मन में एक धारणा  बैठ गयी| की पूजा –पाठ तो ठीक है पर अध्यात्मिकता या किसी एक का अध्यात्मिक  रुझान रिश्तों के मार्ग में बाधक है |और बड़े होते –होते ऐसे कई रिश्ते देखे जिसमें एक व्यक्ति आध्यात्मिक मार्ग पर चला वहां रिश्तों में खटपट शुरू हो गयी |  हालांकि भगवान् कृष्ण ने अपने व्यक्तित्व व् कृतित्व के माध्यम से दोनों का सही संतुलन सिखाया है | वो योगी भी हैं और गृहस्थ भी | इन दोनों का समुचित समन्वय करने वाले राजा जनक भी विदेहराज़ कहलाते हैं |   मैं तत्व को जानने और योगी होने के लिए संसार को त्याग कर सन्यासी होने की आवश्यकता नहीं है | फूल अगर खिलना है तो वो सदूर हिमालय के एकांत में भी खिलेगा और शहर के बीचों –बीच कीचड में भी |  अध्यात्मिक  प्रक्रिया फूल खिलने की भांति है | क्यों होता है अध्यात्मिक रुझान  कोई व्यक्ति क्यों अध्यात्मिक हो जाता है | इसका उत्तर एक प्रश्न में निहित है की कोई व्यक्ति क्यों लेखक , कवि या चित्रकार ,कलाकार हो जाता है | दरसल हम इस रुझान को ले कर पैदा होते हैं | पूर्व जन्म के सिद्धांत के अनुसार हम इस मार्ग पर पिछले कई जन्मों से चल रहे थे | जिस कारण इस जन्म में भी हमें इस ओर खिंचाव महसूस हुआ | अगर रुझान वाला काम व्यक्ति नहीं करेगा तो उसे बेचैनी होगी | अध्यात्मिक रुझान भी ऐसा ही है | जिसे मैं तत्व को खोजने की तीव्र इच्छा होगी | वो उस और अवश्य खींचेगा |इस मैं तत्व को जानने  में रिश्ते या सांसारिक कर्म बिलकुल भी बाधक नहीं हैं | व्यक्ति आराम से रिश्तों के बीच में रह कर इन्हें जानने का प्रयास कर सकता है |   आध्यात्म नहीं रिश्तों की मांगे हैं संन्यास लेने का कारण                    यह सच है की संसार में कई लोग ऐसे हुए जिन्होंने अध्यात्मिक प्रक्रिया अपनाने के बाद अपने रिश्तों को नजरअंदाज कर दिया। ऐसा इसलिए नहीं कि आध्यात्मिक प्रक्रिया इस तरह की मांग करती है। उन्होंने ऐसा इसलिए किया क्योंकि वो रिश्तों की मांगों को पूरा नहीं कर सकते थे।  आध्यात्मिक मार्ग इस बात की मांग नहीं करता कि आप अपने रिश्तों को छोड़ दीजिए लेकिन रिश्ते अक्सर ये मांग करते हैं कि आप आध्यात्मिक राह को छोड़ दीजिए। ऐसे में लोग या तो अध्यात्मिक  मार्ग का चुनाव करते हैं, या अपने रिश्तों को बचाए रखते हैं।सच्चाई ये है की ज्यादातर लोग अपनी कम्फर्ट ज़ोन से बाहर नहीं निकल पाते और रिश्तों के दवाब में आकर अध्यात्मिक पथ को छोड़ देते हैं | आश्चर्य है की जब हम रिश्तों में रहते हुए मन में इसकी उसकी बुराई भलाई सोंचते रहते हैं | कई बार अपने मन में चलने वाली कमेंट्री के चलते परिवार वालों से बुरी तरह से झिड़क कर या गुस्से में कुछ अप्रिय  बोल भी देते हैं | पर बात आई गयी हो जाती है | परन्तु जब कोई व्यक्ति अध्यात्म की ओर अग्रसर होता है तो वो मौन में अपने अन्दर झांक रहा होता है | उसकी ये शांति परिवार से बर्दाश्त नहीं होती | उन्हें लगता है वो एक सेट पैटर्न पर चले | वो  हमसे अलग कैसे हो सकता है | वो हमारे जैसा ही हो |  रिश्तों में असुरक्षा का भाव है अध्यात्म में बाधक  अक्सर देखा गया है  जब कोई ध्यान करना शुरू करता है तो शुरूआत में उसके परिवार के दूसरे सदस्य खुश होते हैं, क्योंकि उस की अपेक्षाएं कम हो जाती हैं, वह शांत रहने लगता है और चीजों को बेहतर तरीके से करने लगता है। लेकिन जैसे ही व्यक्ति ध्यान की गहराई में जाता है, जब वो आंखें बंद करके आनंद के साथ चुपचाप बैठा रहता है, तो लोगों को परेशानी होने लगती है।खास कर जीवन साथी … Read more