मनसा वाचा कर्मणा – जाने रोजमर्रा के जीवन में क्या है कर्म और उसका फल

    दैनिक जीवन में कहे जाने वाले तीन शब्द मनसा वाचा कर्मणा कहने में जितने सरल ,पालन  में उतने कठिन | “कर्म सिधांत के अनुसार इन तीन शब्दों का महत्व केवल इस जन्म में नहीं जन्म जन्मान्तर में है | हम सब कर्म और उसके फल के बारे में अक्सर भ्रम में पड़  जाते हैं | क्या आपको पता है है  रोजमर्रा के जीवन में कर्म और उसका फल ? अभी कुछ दिन पहले  नवरात्रि के दिन चल रहे थे  | कहीं रतजगे , कहीं , भंडारे , कहीं कन्या पूजन किये जा रहे थे | ये सब कुछ भावना के आधीन और कुछ पुन्य लाभ के लिए किये जाते हैं | पुन्य इहलोक व् परलोक में अच्छा जीवन जीने की गारंटी है | पर क्या ऐसा होता है की हर पुन्य करने वाले को अच्छे फल मिलते हों |  कई बार हम किसी के बारे में भ्रम में पड़ जाते हैं की कर्म तो अच्छा करते हैं फिर उनका  जीवन इतना नारकीय क्यों है ? अक्सर इसके उत्तर हम पिछले जन्म में किये गए कर्मों में खोजते हैं | ऐसा करते समय हमारे मन में प्रश्न भी उठता है की क्या ये सही तरीका है ? भगवद गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग कहलाता है | जिसमे कर्म की बहुत सूक्ष्म  व्याख्या है | आइये जानते हैं की क्या है कर्म की सही व्याख्या  what is “law of karma”                           हम अक्सर  अपने द्वारा किये जाने वाले कामों को ही कर्म की श्रेणी में रखते हैं |हमारा ये कर्म अंग्रेजी के  “work” का पर्यायवाची सा है | जहाँ केवल किये जाने वाले काम को काम मानते हैं | हमारा वार्तालाप कुछ इस प्रकार होता है … वो बड़े  धर्मात्मा हैं नौ दिन व्रत रखतेहैं ,हर साल भंडारा कराते हैं | पूरे गाँव की कन्याओं को भोज कराते हैं |यहाँ हम कर्म को केवल किये जाने वाले काम की दृष्टि से देखते हैं | ऐसे लोगों के साथ जब दुखद घटना होतीहै है तो हम असमंजस में पड़ जाते हैं की वो तो इतने धर्मात्मा पुरुष या स्त्री थे |उनके साथ ऐसा क्यों हुआ | ऐसा इसलिए है क्योंकी किया जाने वाला काम कर्म की पूर्ण परिभाषा में नहीं आता |कर्म को सही तरीके से समझने के लिए हमें शारीरिक कर्म ,वैचारिक कर्म ,  मानसिक कर्म चेतन और अवचेतन मन की सूक्ष्म  व्याख्या को समझना पड़ेगा | चेतन मन से व् अवचेतन मन द्वारा किये गए कार्यों के अंतर को समझना पड़ेगा | मनसा वाचा कर्मणा ?mansa,vacha, karmna                        कर्म की सही परिभाषा मनसा  वाचा कर्मणा के सिद्धांत में छिपी है | मन  यानि  विचार , वचन यानि शब्द और कर्म यानि किया जाने वाला   काम (work) अर्थात जो हम करते हैं बोलते हैं और सोंचते  हैं वो तीनों मिल कर कर्म बनते हैं |अक्सर हमारे कर्म के इन तीनों में एका  नहीं होता | यानी हम करते कुछ दिखाई देते हैं बोलते कुछ हैं और मन में कुछ और ही सोंच रहे होते हैं | फिर पूर्ण कर्म एक कैसे हो सकता है | दरसल इसमें  ग्रेडेशन करना पड़े तो सबसे निचली पायदान पर है काम (work) , फिर शब्द  और   सबसे ऊपर हैं मन या विचार | या जिस भावना के तहत काम किया गया | उदहारण के तौर पर एक आतंकवादी एक व्यक्ति की हत्या करता है ( पेट में छूरा भोंक कर ) | और एक डॉक्टर एक मरीज की जान बचाने के लिए उसका ऑपरेशन करता है | दोनों व्यक्तियों की ही मृत्यु हो जाती है | आतंक वादी की भावना आतंक फैलाने की थी व् डॉक्टर की मरीज की जान बचाने की | छुरा भोंकने का वहीँ  कर्म पहले स्थान पर निकृष्ट है व् दूसरे स्थान पर श्रेष्ठ है |                      गीता के अनुसार हर कर्म तीन भागों में बंटता है तामसिक , राजसी और सात्विक | और उसी के अनुसार फल मिलते हैं | जैसे की आप व्रत कर रहे हैं | ये एक ही कर्म  है | पर इस व्रत के पीछे आपका उद्देश्य क्या है इस आधार पर इसके फल को तीन भागों  में विभक्त किया जा सकता हैं |  तामसी – अगर आप किसी को हानि या नुक्सान पहुंचाने के उद्देश्य से व्रत कर रहे हैं |  राजसी – अगर आप किसी मनोकामना पूर्ति के लिए व्रत कर रहे हैं या आप के मन में ये भाव है की चलो व्रत के साथ पुन्य तो मिलेगा ही डाईटिंग भी हो जायेगी | या मेरे सास ननद देवर तो व्रत करते हैं मैं उनसे बेहतर व्रत कर के दिखा सकती हूँ / सकता हूँ |  सात्विक – अगर आप सिर्फ ईश्वर के प्रेम में आनंदित हो कर व्रत कर रहे हैं या आप की भावना सर्वजन हिताय , सर्व जन सुखाय है |                            व्रत करने का एक ही काम तीन अलग – अलग कर्म व् तीन अलग – अलग कर्म फलों में आपके विचार के आधार पर परिवर्तित होता है | मोटे तौर पर समझें तो हम जिस भावना या विचार से कोई काम कर रहे हैं उसी के आधार पर हमारे कर्म का मूल्याङ्कन होता है |  सेवा और सेवा में भी फर्क है –                                       किसी की सेवा करना एक बहुत बड़ा गुण है | परन्तु सेवा और सेवा में भी फर्क है | कबीर दास जी कहते हैं की। …. वृक्ष कबहूँ नहीं फल भखें , नदी न संचै  नीर   परमारथ के कारने साधुन धरा शरीर                                            सच्ची सेवा वो है जब व्यक्ति को पता ही नहीं है की वो सेवा कर रहा है | वो उसका स्वाभाव बन गयी है | वो उससे हो रही है | जैसी बादल से बारिश हो रही है … Read more

विदाई

                                        विदाई एक शब्द नहीं है | इसमें अलग होने का भाव है | इसीलिये तो विदा शब्द कहते ही अजीब सी कसमसाहट महसूस होती है | विदाई शब्द कहते ही हमें एक सजी धजी दुल्हन की छवि दिखाई देने लगती है | जो विवाह उपरान्त अपने माता -पिता का घर छोड़ कर हमेशा के लिए पति के घर जा रही है | परन्तु विदाई का अर्थ इससे कहीं व्यापक है | आज यूँ ही मुकेश का गाया  यह गीत कानों में पड  गया और मन की घडी के कांटे उलटे चलने लगे । ये शहनाईयाँ दे रही हैं  दुहाई , कोई चीज अपनी हुई है पराई किसी से मिलन है किसी से जुदाई नए रिश्तों ने तोडा नाता पुराना ………..                                              बात तब की है जब मैं बहुत छोटी थी घर के पास से शहनाई की आवाज़ आ रही थी । थोड़ी देर सुनने के बाद एक अजीब सी बैचैनी हुई….. जैसे कुछ टूट रहा हैं कुछ जुड़ रहा है । आदतन अपने हर प्रश्न की तरह इस प्रश्न के साथ भी  माँ के पास  जाकर  मेरा अबोध मन पूँछ उठा ” माँ ये कौन सा बाजा बज रहा है ,एक साथ ख़ुशी और दुःख दोनों महसूस हो रहा है । तब माँ ने सर पर हाथ फेर कर कहा था ” ये शहनाई है। अंजू दीदी की विदाई हो रही है ना । इसलिए बज रही है । अब अंजू दीदी यहाँ नहीं रहेंगी अपने ससुराल में अपने पति के साथ रहेंगी । क्यों माँ आंटी -अंकल ऐसा क्यों कर रहे है क्यों अपनी बेटी को दूसरे के घर भेज रहे हैं । क्या सब बेटियां दूसरों के घर भेजी जाती हैं ? क्या मुझे भी आप दूसरे के घर भेज देंगी । माँ की आँखें नम हो गयी । हां बिटिया  ! हर लड़की की विदाई होती है । उसे दूसरे के घर जाना होता है । तुम्हारी भी होगी । मेरे घबराये चेहरे को देखकर माँ ने मेरे सर पर हाथ फेर कर किसी कविता की कुछ पक्तियाँ दोहरा दी । पता नहीं किसकी थी पर जो इस प्रकार हैं। …………. कहते हैं लोग बड़ी शुभ घडी हैं शुभ घडी तो है पर कष्टदायक बड़ी है जुदा  होता है ,इसमें टुकड़ा जिगर का हटाना ही पड़ता है दीपक ये घर का                                              उस दिन पहली बार समझ में आया था ये घर मेरा अपना नहीं है मुझे जाना पड़ेगा … कहीं और । पर बचपन की खेल कूद में कब का भूल गयी । एक दिन यूँही माँ ने आरती कर के रखी थी।तेज हवा का झोंका आया और वो बुझ गयी । मैं जोर से  चिल्लाई “माँ आरती बुझ गयी ,आरती बुझ गयी “. । माँ ने डाँट कर कहा ” बुझ गयी नहीं कहते …  कहते हैं विदा हो गयी ।  माँ के शब्दों को मैं देर तक सोचती रही  आरती विदा हो गयी । कैसे ,कहाँ ,किसके साथ ……शायद प्रकाश  अन्धकार के साथ  विदा हो गया…… जो कुछ पीछे छूट गया वो बुझ गया । जीवन के पथ पर जब दो लोग  एक साथ आगे बढ़ जाते हैं ,या विदा हो जाते हैं तो  जो  पीछे जो छूट जाते हैं वो बुझ जाते हैं ।क्या दिन संध्या के रूप में दुल्हन की तरह तैयार होता है और विदा हो जाता है रात के साथ ? रात  खिलते कमल के फूलों और कलरव करते पंक्षियों की बारात के आगमन पर  उगते भास्कर की रश्मियों की डोली में बैठकर विदा हो जाती है दिन के  साथ ?क्या विदाई ही जीवन सत्य है ,अवश्यसंभावी है ।   क्या यही है “किसी से मिलन किसी से जुदाई ” मेरे पास अपने ही प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था ।     अक्सर देखती थी किसी लड़की की विदा पर माँ और लड़की तो रोते ही थे बाकी सब नाते -रिश्तेदार जाने  क्यों रोते थे ,वो तो साथ में भी नहीं रहते थे । शायद वो जानते थे की विदाई ही जीवन का सच हैं । जीवन है तो कभी ङ्कभी कोई न कोई विदाई होनी ही है । हालाँकि हमारे  सखियों के ग्रुप में  अक्सर ऐसा होता था किन्हीं दो सखियों की मित्रता घनी हुई व् वो ग्रुप से अलग हुई ,अक्सर देखा था पर इसे विदाई नहीं माना  । तब तो इतना ही जानती थी कि विदाई लड़कियों की ही होती है। ……… जब भैया की शादी हुई तो भाभी को विदा करा कर लाये तब ये कहाँ जाना था की एक विदाई और हो रही है  …बहन के रूप में भाई पर अधिकार की ,आपस में बिताये जाने वाले समय की जो २ ४ घंटों से घटकर आरती की थाली में रखे राखी के धागे नन्ही सी रोली के टीके और अक्षत के चावलों में सिमट कर रह जाने वाले हैं ।                     शायद वो भी एक विदाई ही थी जब उस स्कूल को छोड़ा था जहाँ बचपन से पढ़ रही थी । फेयर वेल का फंक्शन था । साड़ी लडकियाँ खाने में जुटी थी और हम कुछ सहेलियाँ रोने में । अजीब सा दुःख था……कल से नहीं आना है इस स्कूल में जहाँ रोज आने की आदत थी । तब हमारी प्रिंसिपल सिस्टर करेजिया ने जोर से घुड़की दी थी। फेल हो जाओ यहीं रह जाओगी । और हम आंसूं पोंछ कर विदा होने को तैयार हो गए ।                              विदाई को कुछ कुछ समझा था अपनी बड़ी बहन की विदा पर । साथ खाना ,खेलना ,पढना सोना । छोटी होने के नाते कुछ आनावश्यक फायदे भी लेना  ……. कुछ अच्छा खाने का मन  कर रहा है ” दीदी है ना ‘ ये दुप्पट्टा ठीक से पिन अप  नहीं है …  दीदी है ना । बर्थडे  पार्टी में क्या पहनूँ ….  दीदी है ना वो बताएगी । शादी बारात की ख़ुशी … Read more

Happy Birthday bhaiya – अटूट होता है रिश्तों का बंधन

                                                    कहते हैं भाई बहन का रिश्ता कच्चे धागे में बंधा दुनिया का सबसे पक्का रिश्ता होता है | क्योंकि वहां लेने देने की भावना से परे सिर्फ स्नेह होता है | सौ फीसदी खरा , सोने सा | कहते ये भी हैं जब कोई इस लोक से दूर चला जाता है तो वो तारा बन जाता है | कल रात आसमान बहुत साफ़ था | बहुत सारे तारे टिमटिमा रहे थे | और उनके बीच मैं ढूंढ  रही थी अपने “ओम भैया”को | शायद ये , शायद वो …फिर दिखा सबसे चमकीला तारा | हां वही, वही तो हैं भैया | कहते ये भी हैं की इस पार से उस पार हम भले ही न पहुँच सके | पर भावनाएं पहुँच जाती है | उन पर कोई पहरा नहीं होता | ईश्वर  से की गयी प्रार्थनाएं इस बात का प्रमाण नहीं हैं क्या ? मेरी आँखे भले ही धुंधला गयी हों | भावनाएं साफ़ – साफ़ देख रहीं हैं और होंठ बुदबुदा रहे हैं “Happy Birthday भैया , इस दुनिया या उस दुनिया में कहीं भी रहने से रिश्ते नहीं टूटते | क्योंकि रिश्तों का बंधन अटूट होता है |  भैया , क्योंकि आप सदा सकारात्मक विचारों के प्रचार प्रसार में विश्वास रखते थे | आप हमेशा कहा करते थे  जिंदगी यूँ ही काटने के लिए नहीं है | ये एक मिशन है ,इसमें में कुछ करना है,ऐसा जो सबके  काम आ सके |  एक – एक मिनट कीमती है | रुपये गँवा कर कमाये  जा सकते हैं | पर एक पल भी जो गँवा  दिया वो पूरी जिंदगी में फिर से कमाया नहीं जा सकता |आप खुद भी अपनी जिंदगी में  समय की बहुत कद्र करते थे | और हमेशा सीखने सिखाने पर जोर देते थे |     इसलिए आज आप के जन्मदिन पर मैं आपका अपने काम के प्रति जूनून व् समय की कद्र का किस्सा शेयर कर रही हूँ |  बात तब की है | जब कंप्यूटर नया – नया आया था | भैया  भी मीडिया की फील्ड में नए – नए गए थे | एक बार न्यूज़ पेपेर ऑफिस में कोई काम अटक गया | भैया को   उस समय कंप्यूटर की ज्यादा जानकारी नहीं थी | उन्होंने  इसे एक कमी के रूप में लिया और तुरंत कम्प्यूटर कोर्स करने की ठानी |हर काम को जल्दी से जल्दी करने की अपनी आदत के अनुसार भैया ने  इसे एक हफ्ते में सीखने की ठान  ली |  तमाम कंप्यूटर इंस्टीटयूट में पता करने पर  पता चला की इसे सीखने में ६ हफ्ते लगेंगे | लेकिन समय को समय न देना तो भैया की  पुरानी आदत थी | इसलिए उन्होंने  एक साथ ६ जगह वही कोर्स ज्वाइन कर लिया | और हर किसी से बात कर ली की मुझे वहीँ से सिखाना जहाँ से मैं पूँछु | अलबत्ता फ़ीस मैं आपको पूरी दूँगा |  अब हर कम्प्यूटर इंस्टीटयूट वाला हंसने लगे | ऐसा कैसे हो सकता है ? यह कैसे संभव है | एक घंटे में जितना यहाँ सिखाया जाता है | उससे ज्यादा कोई कैसे सीख सकता है | समय की और ह्युमन ब्रेन की कोई सीमा है |  पर भैया तो भैया , ठान ली तो ठान ली |  अब शुरू हुई भैया की भाग – दौड़ | शाम को ऑफिस से आने के बाद पहले एक इंस्टीटयूट जाते वहाँ सीखते | फिर दूसरे में जाते और कहते की अब इसके आगे सिखाओ | फिर तीसरे में उससे आगे ,…फिर घर में प्रैक्टिस  न खाने की सुध न आराम की | बस एक धुन लग गयी तो लग गयी |  एक हफ्ते में भैया ने कम्प्यूटर का कोर्स पूरा कर लिया | जो काम सबको असंभव लगता था उसे भैया ने कर दिखाया | शायद इसी लिए आपने इतनी कम उम्र में इतनी सफलता पायी |जो किसी साधारण व्यक्ति के लिए संभव नहीं है | मुझे  शिव खेडा का वो कोट याद आ रहा है … “जीतने वाले कोई अलग काम नहीं करते ,वो काम को अलग ढंग से करते हैं “|  इस प्रसंग को शेयर करने का मेरा उद्देश्य इतना था की सफलता यूँहीं दरवाजे पर चल कर नहीं आती है | उसके लिए बहुत अनुशासन , जूनून और समय की कद्र करनी पड़ती है |  कभी कभी जब मैं संकोचवश किसी की फ़ालतू बात सुनती रहती तो भैया टोंकते | कभी कभी मैं कह देती , जरा सा सुन ही तो लिया | भैया तपाक से कहते  ,” दीदी ,नकारात्मक लोग केवल वही समय बर्बाद नहीं करते जो आपने सुनने में लगाया है | उनकी बातें उनके जाने के बाद भी दिमाग में चलती रहती हैं | उन्हें शुरू में ही रोक दिया करिए | नहीं तो जीवन का बहुत कीमती समय बर्बाद होता है |  मुझे पता है भैया आप जहाँ कहीं भी है सीखने , सिखाने में लगे होंगे और हम लोगों को देख भी रहे होंगे कि कहीं हम लोग अपना समय फ़ालतू तो नहीं बर्बाद कर रहे हैं |  आपके जाने के बाद एक – एक पल की कीमत सीख ली है हमने | यही आपका बर्थडे गिफ्ट है | आपक जहाँ भी होंगे आपको यह गिफ्ट जरूर मिल गया होगा | क्योंकि रिश्तों का बंधन अटूट होता है |एक बार फिर से ..                                           Happy Birthday bhaiya वंदना बाजपेयी निर्णय लो दीदी – ओमकार भैया को याद करते हुए वो बाईस दिन एक दिन पिता के नाम -मेरे पापा मदर्स डे पर पत्र

नारी मन पर वंदना बाजपेयी की पाँच कवियायें

भारतीय नारी का प्रेम बड़ा विचित्र है भारतीय नारी का प्रेम वह विदेशियों की तरह चोबीसों घंटे करती नहीं है आई लव यू –आई लव यू का उद्घोष बल्कि गूथ कर खिला देती है प्रेम आटे  की लोइयों में कभी तुम्हारे कपड़ों में नील की तरह छिड़क देती है कभी खाने की मेज पर इंतज़ार करते हुए दो बूँद आँखों से निकाल कर  परोस देती है खाली कटोरियों में कभी बुखार में गीली पट्टियाँ बन कर बिछ –बिछ जाती है तुम्हारे माथे पर  जानती है वो की मात्र क्षणिक उन्माद नहीं है प्रेम जो ज्वार की तरह चढ़े और भाटे  की तरह उतर जाये और पीछे छोड़ जाये रेत  ही रेत और मरी हुई मछलियां हां उसका प्रेम ठहराव है गंगा –जमुना के दोआब सा जहाँ लहराती है संस्कृति की फसलें समर्पण  बचपन में  स्मरण नहीं कब ………….  जब   अम्मा ने  बताया था शिवोपासना का महत्त्व   कि शिव -पार्वती  सा होता है  पति -पत्नी का बंधन   और मेरे केश गूँथते हुए  बाँध दिया था मेरा मन  तुम्हारे लिए  तब अनदेखे -अनजाने ही  तुम लगने लगे थे  चिर -परिचित  और तभी से  शुरू हो गया था  मेरा समर्पण  तुम्हारे लिए जब तुम थे अलमस्त  गुल्ली -डंडा खेलने में  तब नंगे पाँव  शुरू हो गयी थी मेरी यात्रा  शिवाले की तरफ  तुम्हारे लिए  जब तुम किशोरावस्था में  मित्रों के साथ  गली चौराहे  नुक्कड़ पर  आनंद ले रहे थे जीवन  का मैं जला  रही थी  नन्हा सा दिया  तुलसी के नीचे  तुम्हारे लिए   जब तुम सफलता के हिमालय पर  चढ़ने के लिए  लगा रहे थे  ऐड़ी -चोटी का जोर  मैंने शुरू कर दिए थे  सोलह सोमवार के व्रत  तुम्हारे लिए  वर्षों  अनदेखा -अंजाना   रिश्ता निभाने के बाद  जब अग्नि को साक्षी मान मंत्रोच्चार के साथ  किया था तुम्हारे जीवन में प्रवेश  तब से  पायलों की छन -छन से  चूड़ी की खन -खन से  माथे की बिंदियाँ से  हाथों की मेहँदी से  सुर और रंग में ढलती ही रही हूँ  तुम्हारे लिए  जब -जब सूखने लगा तुम्हारा जीवन  शोक और दर्द की ऊष्मा से  तो भरने को दरारे  सावन की बदली बन बरसी हूँ  तुम्हारे लिए  पर क्यों यह प्रश्न  कौंधता है  बिजली सम मन में  अब बता भी दो ना  क्या बचपन से लेकर आज तक  तुम्हारे मन में भी रहा है  वैसा ही समर्पण  मेरे लिए.………………   लाल गुलाब आज यूं ही प्रेम का उत्सव मनाते लोगों मेंलाल गुलाबों केआदान-प्रदान के बीचमैं गिन रही हूँवो हज़ारों अदृश्यलाल गुलाबजो तुमने मुझे दिए तब जब मेरे बीमार पड़ने पर मुझे आराम करने की हिदायत देकर रसोई में आंटे की लोइयों से जूझते हुए रोटी जैसा कुछ बनाने की असफल कोशिश करते हो तब जब मेरी किसी व्यथा को दूर ना कर पाने की विवशता में अपनी डबडबाई आँखों को गड़ा देते हो अखबार के पन्नो में तब जब तुम “मेरा-परिवार ” और “तुम्हारा-परिवार” के स्थान पर हमेशा कहते हो “हमारा-परिवार” और सबसे ज़यादा जब तुम झेल जाते हो मेरी नाराज़गी भी और मुस्कुरा कर कहते हो “आज ज़यादा थक गई हैं मेरी मैडम क्यूरी “ नहीं , मुझे कभी नहीं चाहिए डाली से टूटा लाल गुलाब क्योंकि मेरा लाल गुलाब सुरक्षित है तुम्हारे हिर्दय में तो ताज़ा होता रहता है हर धड़कन के साथ। “प्रेम कविता “ मैं लिखना चाहती थी प्रेम कविता पर लिख ही नहीं पायीढालना चाहती थी ,उस गहराई कोपर शब्द कम पड़ गएउकेरना चाहती थी ,उस गम्भीरता कोपर वाक्य अधूरे छूट गए नहीं व्यक्त कर पायी अपने मन के वो भाव जब तुम्हारे साथ खाना खाने की प्रतीक्षा में दिन -दिन भर भूखी बैठी रही जब तुम्हारी मन पसंद डिश बनाने के लिए सुबह से ले कर रात तक हल्दी और तेल लगी साडी में नहीं सुध रही अपने बाल सवाँरने की जब तुम्हारे घर देर से आने पर और फोन न उठाने पर चिंता और फ़िक्र में डबडबाई आँखों से तुम्हारी कुशलता हेतु मान लेती हूँ निर्जला व्रत जब तुम्हारी गृहस्थी के कुशल संचालन में घडी की सुइयों के मानिंद बिना उफ़ किये ,चलती रहती हूँ चौबीसों घंटे ,बारहों महीने अनवरत -लगातार मुझे मॉफ करना सुबह से शाम तक न जाने कितनी प्रेम कवितायेँ लिखती हूँ मैं जो तैरती है हमारे बीच हवा में बजता है जिनका संगीत घर के कोने -कोने में पर नहीं पहना पाती उन्हें शब्दों के वस्त्र क्योंकि मेरा प्रेम सदा से था ,है और रहेगा मौन ,अपरिभाषित और अव्यक्त “लाल से लाल तक “ विदाई की बेला में आँखों में अश्रु लिए एक ही जीवन में दो जन्मों के मध्य का पुल पार कर जब लाल जोड़े मेंप्रवेश किया था तुम्हारे घर मेंतब सेअपनी लाल बिंदियाँ परसजाया है परिवार का मानलाल चूड़ियों की धुरी पर रख कलाईनिभाएं है असंख्य कर्तव्यपैरों में लगी लाल महावर सेरंगती रही हूँ ,तुम्हारी जिंदगी,अनंत बार बांधें है मन्नत के लाल धागेतुम्हारी छोटी -छोटी ख़ुशी के लिएपर जब भी जुड़े हैंयह दो हाँथ अपने लिएमाँगा है ,बस इतना हीकी विदाई की बेला मेंजब पार करूदो जन्मों के मध्य का पुलतब तुम आँखों मेंदो बूँद प्रेम के अश्रु लेकरभर देना मेरी मांग पुनःलाल सिन्दूर सेऊपर से नीचे तकऔरपूरा हो जाये मेरा“लाल से लाल “तक का सफर वंदना बाजपेयी

आस्थाएं तर्क से तय नहीं होतीं

दुर्गा अष्टमी पर विशेष – आस्थाएं तर्क से तय नहीं होती              आज दुर्गा अष्टमी है | ममतामयी माँ दुर्गा शक्ति स्वरूप हैं | एक तरफ वो भक्तों पर दयालु हैं तो दूसरी तरफ आसुरी प्रवत्तियों का संहार करती हैं | वो जगत माता हैं | माँ ही अपने बच्चों को संस्कार शक्ति और ज्ञान देती है | इसलिए स्त्री हो या पुरुष सब उनके भक्त हैं | वो नारी शक्ति व् स्त्री अस्मिता का प्रतीक हैं | जो अपने ऊपर हुए हमलों का स्वयं मुंह तोड़ जवाब देती है | दुर्गा नाम अपने आप में एक मंत्र है | जो इसका उच्चारण करते हैं, उन्हें पता है की उच्चारण मात्र से ही शक्ति का संचार होता है | नवरात्रि इस शक्ति की उपासना का पर्व है |              अभी पिछले दिनों कुछ पोस्ट ऐसी आयीं, जिनमें माता दुर्गा के बारे में अभद्र शब्दों का इस्तेमाल करा गया | माता दुर्गा के प्रति आस्थावान आहत हुए | इनका व्यापक विरोध हुआ |ये एक चिंतन का विषय है | क्योंकि  *ये आस्था पर प्रहार तो है ही माँ दुर्गा के लिए अभद्र शब्दों का प्रयोग करने वाले स्त्री विरोधी भी हैं |ये एक सामंतवादी सोंच हैं |जिसका विरोध करना ही चाहिए | पढ़ें – धर्म तथा विज्ञानं का समन्वय इस युग की आवश्यकता है * सोंचने वाली बात हैं की वो माँ दुर्गा को मिथकीय करेक्टर  कह रहे हैं | अफ़सोस मिथकीय हो या रीयल, ये जहर उगलने वाली गालियाँ स्त्री के हिस्से में आई हैं| * आस्थाएं तर्क से परे होती हैं | ये सच है की आदिवासियों का एक समुदाय महिषासुर  की पूजा करता है |और इस पर किसी को आपत्ति भी नहीं है | होनी भी नहीं चाहिए |मुझे अपने पिता व् पति की तबादले वाली नौकरी होने के कारण कई आदिवासी जातियों से मिलने बात करने का अवसर मिला | कई घरों में काम करने वाले भी थे | उन सब के अपने अपने इष्ट देवता हैं  | सब महिसासुर की पूजा नहीं करते हैं  | कई दुर्गा माँ की आराधना भी करते हैं | *  परन्तु बड़े खूबसूरत तरीके से अपनी बात को न्याय संगत कहने के लिए तर्क गढ़े जा रहे हैं | इन तर्कों को गढ़ने की शुरुआत  कहाँ से हुई पता नहीं | पर आम जनता के सामने इसका खुलासा जे एन यू-स्मृति इरानी प्रकरण के बाद हुआ | एक जनजातीय समुदाय में पूजे जाने वाले महिसासुर को न सिर्फ समस्त जनजातियों, आदिवासियों और द्रविड़ों के मसीहा के रूप में स्थापित किया जा रहा है | क्या इसे “मेकिंग ऑफ़ न्यू गॉड” की संज्ञा में रखा जाए ? पर क्यों ? कहीं ये अंग्रेजों की कुटिल “डिवाइड एंड रूल” की तरह किसी राजनैतिक पॉलिसी का हिस्सा तो नहीं | इसके लिए दुर्गा का चयन किया गया | जिन्हें पूरब, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण में व्यापक मान्यता मिली है | समझना होगा की क्या इसके पीछे हमें वोट बैंक के रूप में इस्तेमाल करने की साजिश है|पूजा से किसी को आपत्ति नहीं है,सत्ता के खेल से आपत्ति है | मृत्यु संसार से अपने असली वतन जाने की वापसी यात्रा है *पुराणों को मिथकीय बता कर कुछ अन्य ग्रंथों का नाम दिया लिया जा रहा है | या यूँ कहें सबूत के रूपमें पेश किया जा रहा है | सबूत कैसा ? अगर एक मिथकीय है तो क्या दूसरा मिथकीय नहीं हो सकता |वही लोग जो  आज की खबर पर भरोसा नहीं करते | हर खबर को  वामपंथी और दक्षिण पंथी चश्मे से देखते हैं  |वही आज पुराने सबूत ले कर लड़ रहे हैं या लडवा रहे हैं |उन्हें आस्था से मतलब नहीं उन्हें जीतना हैं | और जीतने के लिए हद दर्जे की गन्दी भाषा तक जाना है |किसलिए ?  क्या पता आज कोई एक पुस्तक छपे की हिटलर , मुसोलिनी महान  संत विचारक थे | जिसे आज खारिज कर दिया जाए | क्योंकि हम आज का सच जानते हैं | पर आज से हज़ार साल बाद तर्क के रूप में पेश हो | कुछ को जोश आये , कुछ होश खो दें | पर क्या आस्थाएं कभी तर्क से सिद्ध हो सकती हैं ? * मिथक ही सही शाक्य  समुदाय की अधिष्ठात्री देवी दुर्गा आज हर समुदाय में पूजनीय क्यों हैं ? क्या है देवी दुर्गा में की शाक्य समुदाय की होते हुए भी हर हिन्दू उनका पूजन करता है | ये एक स्त्री की शक्ति है |जो डरती नहीं है  अपने ऊपर हुए आक्रमण का स्वयं उत्तर देती है | इसका देवासुर  संग्राम से कुछ लेना देना न भी हो  तो भी दुर्गा हर स्त्री और हर कमजोर में ये शक्ति जगाती हैं की अन्याय के विरुद्द हम अकेले ही काफी हैं |        अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में हर कोई कुछ भी लिख सकता है | उसका विरोध भी हो सकता है | “मेकिंग ऑफ़ गॉड” भी जारी है,तर्कों का खेल भी जारी है | इन सब के बीच मुझे ओशो की पंक्तियाँ याद आ गयीं |                 ओशो इस पर बहुत ख़ूबसूरती से लिखते हैं की | जो धर्म  ग्रंथों को आधार बना कर लड़ते हैं | उनमें से कोई धार्मिक नहीं है | क्योंकि धर्म ग्रंथों की भाषा काव्य की भाषा हैं | काव्य की भाषा और तर्क की भाषा  में फर्क है | एक बहुत खूबसूरत उदहारण है | एक पति कवि था और पत्नी वैज्ञानिक | शादी के बाद एक दिन पति ने बड़े ही प्रेम से पत्नी से कह दिया, “तुम तो बिलकुल चंद्रमा की तरह हो” | बात पत्नी को चुभ गयी | उसने झगड़ना शुरू कर दिया,“ तुम मुझे चंद्रमा कैसे कह सकते हो , वहां तो आदमी न सांस ले सकता है व् प्यास बुझा सकता है अरे वो तो सीधा चल भी नहीं सकता | कवि  पति सकते में आ गए |ऐसा मैंने क्या कह दिया जो इसे बुरा लग गया | और शादी टूट गयी | दोनों ही अपनी जगह सही थे और दोनों  गलत थे |           चंद्रमा से तुलना काव्य की भाषा है | इसका अर्थ है पत्नी को देख कर वही आनंद व् शांति प्राप्त होती है जो चंद्रमा को देख कर होती … Read more

जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना

वंदना बाजपेयी हमारे जीवन का सबसे खूबसूरत हिस्सा  बचपन होता है | पर बचपन की खासियत जब तक समझ में आती है तब तक वो हथेली पर ओस की बूँद की तरह उड़ जाता है | जीवन की आपा धापी  मासूमियत को निगल लेती है | किशोरावस्था और नवयुवावस्था  में हमारा इस ओर ध्यान ही नहीं जाता |उम्र थोड़ी बढ़ने पर फिर से बचपन को सहेजने की इच्छा होती है | आजकल ऐसी कई किताबें भी आ रही हैं जो कहती हैं सारी  ख़ुशी बचपन में है अगर हमारे अन्दर का बच्चा  जिन्दा रहे तो एज केवल एक नंबर है | इन किताबों को आधा – अधूरा समझ कर जारी हो जाती है बचपन को पकड़ने  की दौड़ | ” दिल तो बच्चा है जी ” की तर्ज पर लोग बचपन नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | व्यस्क देह में बच्चों जैसी ऊल जलूल हरकतें कर के अपनी  उम्र को भूलने का प्रयास करते हैं | थोड़ी ख़ुशी मिलती भी है पर वो स्थिर नहीं रहती | क्या आपने सोंचा है की इसका क्या कारण है ? दरसल हम बचपन को नहीं बचपने को जीवित कर लेते हैं | कई बार ऐसी हास्यास्पद स्तिथि भी होती है | जब बच्चे तो शांत बैठे होते हैं | वहीँ माँ – पिता बच्चों की तरह उचल -कूद  कर रहे होते हैं | यहाँ ये अंदाज लगाना मुश्किल हो जाता है की इनमें से छोटा कौन है | दरसल बचपन और  बचपने में अंतर है |  अगर इस बचपने का उद्देश्य लोगों का ध्यान खींचना या थोड़ी देर की मस्ती है तब तो ठीक है | परन्तु ये अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखना नहीं है | क्योंकि इस उछल कूद के बाद भी हम वही रहते हैं जो अन्दर से हैं |  अपने अन्दर का बच्चा जीवित रखने का अभिप्राय यह है की जिज्ञासा जीवित रहे , कौतुहल जीवित रहे , किसी की गलती को भूलने की क्षमता जीवित रहे , अपने प्रतिद्वंदी के काम की दिल खोलकर प्रशंसा करने की भावना जीवित रहे |पर क्या बच्चों की तरह हरकतें करने से  ये जीवित रहता है | बच्चा होना यानी सहज होना |पर हम अर्थ पर नहीं शब्द पर ध्यान देते हैं | जरूरी है की बचपन जीवित रहे न की बचपना  यह भी पढ़ें ………. यात्रा दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है सुने अपनी अंत : प्रेरणा की आवाज़  कोई तो हो जो सुन ले

श्राद्ध पक्ष : उस पार जाने वालों के लिए श्रद्धा व्यक्त करने का समय

वंदना बाजपेयी   हिन्दुओं में पितृ पक्ष का बहुत महत्व है | हर साल भद्रपद शुक्लपक्ष पूर्णिमा से लेकर आश्विन कृष्णपक्ष अमावस्या तक के काल को श्राद्ध पक्ष कहा जाता है |  पितृ पक्ष के अंतिम दिन या श्राद्ध पक्ष की अमावस्या को  महालया  भी कहा जाता है | इसका बहुत महत्व है| ये दिन इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि जिन्हें अपने पितरों की पुन्य तिथि का ज्ञान नहीं होता वो भी इस दिन श्रद्धांजलि या पिंडदान करते हैं |अर्थात पिंड व् जल के रूप में अपने पितरों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करते हैं | हिन्दू शस्त्रों के अनुसार पितृ पक्ष में यमराज सभी सूक्ष्म शरीरों को मुक्त कर देते हैं | जिससे वे अपने परिवार से मिल आये व् उनके द्वरा श्रद्धा से अर्पित जल और पिंड ग्रहण कर सके |श्राद्ध तीन पीढ़ियों तक का किया जाता है |   क्या बदल रही है श्राद्ध पक्ष के प्रति धारणा                                           मान्यता ये भी है की पितर जब संतुष्ट होते हैं तो वो आशीर्वाद देते हैं व् रुष्ट होने पर श्राप देते हैं | कहते हैं श्राद्ध में सबसे अधिक महत्व श्रद्धा का होता है | परन्तु क्या आज हम उसे उसी भाव से देखते हैं | शायद नहीं |कल यूँहीं कुछ परिचितों  से मिलना हुआ | उनमें से एक  ने श्राद्ध पक्ष की अमावस्या के लिए अपने पति के साथ सभी पितरों का आह्वान करके श्राद्ध करने की बात शुरू कर दी | बातों ही बातों में खर्चे की बात करने लगी | फिर बोली की क्या किया जाये महंगाई चाहे जितनी हो खर्च तो करना ही पड़ेगा , पता नहीं कौन सा पितर नाराज़ बैठा हो और ,और भी रुष्ट हो जाए | उनको भय था की पितरों के रुष्ट हो जाने से उनके इहलोक के सारे काम बिगड़ने लगेंगे | उनके द्वारा सम्पादित श्राद्ध कर्म में श्रद्धा से ज्यादा भय था | किसी अनजाने अहित का भय | पढ़िए – सावधान आप कैमरे की जद में हैं वहीँ  दूसरी  , श्राद्ध पक्ष में अपनी सासू माँ की श्राद्ध पर किसी अनाथ आश्रम में जा कर खाना व् कपडे बाँट देती हैं | व् पितरों का आह्वान कर जल अर्पित कर देती है | ऐसा करने से उसको संतोष मिलता है | उसका कहना है की जो चले गए वो तो अब वापस नहीं आ सकते पर उनके नाम का स्मरण कर चाहे ब्राह्मणों को खिलाओ या अनाथ बच्चों को , या कौओ को …. क्या फर्क पड़ता है |  तीसरी सहेली बात काटते हुए कहती हैं , ” ये सब पुराने ज़माने की बातें है | आज की भाग दौड़ भरी जिन्दगी में न किसी के पास इतना समय है न पैसा की श्राद्ध के नाम पर बर्बाद करे | और कौन सा वो देखने आ रहे हैं ?आज के वैज्ञानिक युग में ये बातें पुरानी हो गयी हैं हम तो कुछ नहीं करते | ये दिन भी आम दिनों की तरह हैं | वैसे भी छोटी सी जिंदगी है खाओ , पियो ऐश करो | क्या रखा है श्राद्ध व्राद्ध करने में | श्राद्ध के बारे में भिन्न भिन्न हैं पंडितों के मत  तीनों सहेलियों की सोंच , श्राद्ध करने का कारण व् श्रद्धा अलग – अलग है |प्रश्न ये है की जहाँ श्रद्धा नहीं है केवल भय का भाव है क्या वो असली श्राद्ध हो सकता है |प्रश्न ये भी है कि जीते जी हम सौ दुःख सह कर भी अपने बच्चों की आँखों में आंसूं नहीं देखना कहते हैं तो मरने के बाद हमारे माता – पिता या पूर्वज बेगानों की तरह हमें श्राप क्यों देने लगेंगें | शास्त्रों के ज्ञाता पंडितों की भी इस बारे में अलग – अलग राय है ……….. उज्जैन में संस्कृत विश्वविद्यालय के प्रमुख संतोष पंड्या के अनुसार, श्राद्ध में भय का कोई स्थान नहीं है। वो लोग जरूर भय रखते होंगे जो सोचते हैं कि हमारे पितृ नाराज न हो जाएं, लेकिन ऐसा नहीं होता। जिन लोगों के साथ हमने 40-50 साल बिताएं हैं, वे हमसे नाखुश कैसे हो सकते हैं। उन आत्माओं से भय कैसा? वहीं इलाहाबाद से पं. रामनरेश त्रिपाठी भी मानते हैं कि श्राद्ध भय की उपज नहीं है। इसके पीछे एक मात्र उद्देश्य शांति है। श्राद्ध में हम प्याज-लहसून का त्याग करते हैं, खान-पान, रहन-सहन, सबकुछ संयमित होता है। इस तरह श्राद्ध जीवन को संयमित करता है। भयभीत नहीं करता। जो कुछ भी हम अपने पितरों के लिए करते हैं, वो शांति देता है। शास्त्र में एक स्थान पर कहा गया है, जो लोग श्रद्धापूर्वक श्राद्ध नहीं करते, पितृ उनका रक्तपान करते हैं। इसलिए श्रद्धा बहुत आवश्यक है और श्रद्धा तभी आती है जब मन में शांति होती है। क्यों जरूरी है श्राद्ध  अभी ये निशिचित तौर पर नहीं कहा जा सकता की जीव मृत्यु के बाद कहाँ जाता है | नश्वर शरीर खत्म हो जाता है | फिर वो श्राद्ध पक्ष में हमसे मिलने आते भी हैं या नहीं | इस पर एक प्रश्न चिन्ह् है |  पर इतना तो सच है की उनकी यादें स्मृतियाँ हमारे साथ धरोहर के रूपमें हमारे साथ रहती हैं |स्नेह और प्रेम की भावनाएं भी रहती हैं |  श्राद्ध पक्ष के बारे में पंडितों  की राय में मतभेद हो सकता है | शास्त्रों में कहीं न कहीं भय उत्पन्न करके इसे परंपरा बनाने की चेष्टा की गयी है | लेकिन बात  सिर्फ इतनी नहीं है शायद उस समय की अशिक्षित जनता को यह बात समझाना आसांन नहीं रहा होगा की हम जिस जड़ से उत्पन्न हुए हैं हमारे जिन पूर्वजों ने न केवल धन सम्पत्ति व् संस्कार अपितु धरती , आकाश , जल , वायु का उचित उपयोग करके हमारे लिए छोड़ा है | जिन्होंने हमारे जीवन को आसान बनाया है | उनके प्रति हमें वर्ष में कम से कम एक बार तो सम्मान व्यक्त करना चाहिए | उस समय के न के आधार पर सोंचा गया होगा की पूर्वज न जाने किस योनि में गया होगा … उसी आधार पर अपनी समझ के अनुसार ब्राह्मण , गाय , कौवा व् कुत्ता सम्बंधित योनि  के प्रतीक के रूप में चयनित … Read more

क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकॉलजी की समझ है ?

Teachers should have basic understanding of child psychology  वंदना बाजपेयी   शिक्षक दिवस -यानी  अपने टीचर के आभार व्यक्त करने का , उनके प्रति सम्मान व्यक्त करने का | छोटे बड़े हर स्कूल कॉलेज में “टीचर्स डे “ पर कार्यक्रम का आयोजन होता है  | जिसमें बच्चे  कविता ,कहानी  नृत्य के माध्यम से टीचर्स के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त करते हैं  | लम्बी – लम्बी स्पीच चलती है  | टीचर्स को फूल कार्ड्स , गिफ्ट्स मिलते हैं  | आभासी  जगत यानी इन्टरनेट की दुनिया में भी हर वेबसाइट पर , फेसबुक की हर वाल पर  टीचर्स की शान में भाषण , सुविचार व् टू  लाइनर्स पढने को मिलते हैं | यह जरूरी भी है | क्योंकि टीचर्स हमें गढ़ते हैं | उन्होंने हमें ज्ञान का मार्ग दिखाया होता है | इसलिए हमारा कर्तव्य है की हम उनके प्रति आदर व् सम्मान का भाव रखे | क्या सभी टीचर्स को चाइल्ड साइकॉलजी  की समझ है ?  सामूहिक सम्मान तो ठीक है | पर जैसे  की बच्चों का अलग – अलग मूल्याङ्कन होता है | उसी तरह हर टीचर का मूल्यांकन करें तो क्या हर  टीचर इस सम्मान का अधिकारी है ? क्या टीचर हो जाना ही पर्याप्त है ?क्या सभी टीचर्स बाल मनोविज्ञान की समझ रखते हैं | आइये इस की गहन विवेचना करें |   क्यों हो मासूम बच्चों पर इतना प्रेशर                             शिक्षक दिवस पर  मुझे उस बच्चे की याद आ गयी | जिसका वीडियो  वायरल हुआ था | जिसमें बच्चे की माँ बच्चे को बहुत गुस्सा करते हुए पढ़ा रही थी | सभी  ने एक स्वर में माँ की निंदा की | पर माँ के इस व्यवहार के पीछे क्या कारण हो सकता है | ये जानने के लिए किसी भी स्कूल के “ पेरेंट्स टीचर मीटिंग “ में जा कर देख लीजिये | टीचर किस बुरी तरीके से बच्चों के चार – पांच नंबर कम आने पर बच्चे के बारे में नकारात्मक  बोलना शुरू कर देते हैं | जिससे माँ – बाप के मन में एक भय पैदा होता है |शायद  मेरा बच्चा कभी कुछ कर ही न पाए या कम से कम इतना तो लगता ही है की सबके बीच में अगली बार उनके बच्चे को ऐसे न बोला जाए |हमें खोजना होगा की एक मासूम बच्चे पर इतना प्रेशर पड़ने की जडें कहाँ पर हैं | क्या जरूरी नहीं की पेरेंट्स टीचर मीटिंग में बच्चे के माता – पिता व् टीचर अकेले में बात करें | जिससे माता – पिता या बच्चे में सबके सामने अपमान की भावना न आये | होता है मासूम बच्चो का शारीरिक शोषण  एक उदहारण  मेरे जेहन में आ रहा है | एक प्ले स्कूल का | प्ले स्कूल में अमूमन ढाई से चार साल के बच्चे पढ़ते हैं | उस प्ले स्कूल की  टीचर बच्चों के शरारत करने पर , काम न करने पर , दूसरे बच्चे का काम बिगाड़ देने पर उस बच्चे के सारे कपडे उतार कर बेंच पर खड़ा होने का पनिशमेंट देती थी | इस उम्र के बच्चों को शर्म  का अर्थ नहीं पता होता  है | परन्तु जिस तरह से सार्वजानिक रूप से ये काम करा जाता उससे बच्चे बहुत अपमानित महसूस करते | कुछ बच्चों को सजा हुई | बाकी बच्चे भयभीत रहने लगे  | कुछ बच्चे स्कूल जाने  से मना करने लगे | बात का पता तब चला जब एक बच्चा १० दिन तक स्कूल नहीं गया | वो तरह – तरह के बहाने बनता रहा | जबरदस्ती स्कूल भेजने पर वह चलते ऑटो से कूद पड़ा | फिर माता – पिता को शक हुआ | बच्चे से गहन पूँछतांच में बच्चे ने सच बताया | पेरेंट्स के हस्तक्षेप से टीचर को स्कूल छोड़ना पड़ा | परन्तु बच्चों के मन में जो ग्रंथि जीवन भर के लिए बन गयी उसका खामियाजा कौन भुगतेगा | वर्बल अब्यूज भी है खतरनाक  मेरी एक परिचित के तीन साल के बच्चे ने एक दिन घर आ कर बताया की ड्राइंग फ़ाइल न ले जाने पर टीचर ने मारा | हालांकि वो डायरी में नोट भी लिख सकती थीं | दूसरे ही दिन वे दोनों स्कूल गए व् प्रिंसिपल से बात की ,की मासूम बच्चों को न मारा जाए | उसके बाद बच्चे ने स्कूल की बातें घर में बताना बंद कर दिया | वह अक्सर स्कूल जाने से मना  करने लगा | जब पेरेंट्स ने बहुत जोर दे कर पूंछा की क्या टीचर अब भी मारती हैं तो बच्चा बोला नहीं मारती नहीं हैं , पर रोज कहतीं हैं की इन्हें तो कुछ कह ही नहीं सकते अगले दिन इनके माता – पिता आ कर खड़े हो जाते हैं | इसके बाद बच्चे ताली बजा कर हँसते हैं | आप लोग मेरा स्कूल चेंज करवा दो | मनोविज्ञान के अनुसार वर्बल अब्यूज , फिजिकल अब्यूज से कम घातक  नहीं होता | लगातार ऐसी बातें सुनने से बच्चे के कोमल मन पर क्या असर होता है ये सहज ही समझा जा सकता है | मारपीट किसी समस्या का हल नहीं   एक और वीडियों जो अभी वायरल हुआ उसमें टीचर बच्चे को बेरहमी से पीट रही थी | वीडियो देखने से ही दर्द महसूस होता है | मासूम बच्चों को मुजरिम की तरह ऐसे कैसे पीटा  जा सकता है ? हालांकि यहाँ मैं सपष्ट करना चाहूंगी की कई पेरेंट्स भी बच्चे को रोबोट बनाने की इच्छा रखते हैं वह आकर स्वयं कहते हैं की ,” आप इसकी तुड़ाई करिए | टीचर भी सहज स्वीकार करती हैं कि  मार पीट से ही बिगड़े बच्चे सुधरते हैं | जबकि उसे बताना चाहिए की तुड़ाई करने से कमियाँ नहीं टूटती बच्चे का आत्मविश्वास टूटता है | इसके अतिरिक्त भी  टीचर्स अक्सर बच्चों पर  नकारात्मक फब्तियां कसते रहते हैं | एक कोचिंग सेंटर में जहाँ इंजीनयरिंग इंट्रेंस एग्जाम की तयारी करवाते हैं | वहां के गणित के टीचर कोई भी सवाल बच्चों को हल करने के लिए देते | फिर यह जुमला कसना नहीं भूलते की देखना कोई लड़का ही करेगा | लड़कियों से तो मैथ्स होती ही नहीं | वैसे तो जेंडर बायस कमेंट बोलने का अधिकार किसी को नहीं है | फिर भी यह जानते हुए की समान अवसर व् सुविधायें मिलने के बाद लडकियां लड़कों से कहीं कम सिद्ध नहीं होती | उस क्लास में पढने वाली लड़कियों का आत्मविश्वास डगमगाने लगा | जाहिर है … Read more

आप अकसर क्या व्यक्त करते हैं – खेद या आभार

वंदना बाजपेयी  मृत व्यक्ति को किसी जीवित व्यक्ति से अधिक फूल मिलते हैं क्योंकि खेद व्यक्त करना आभार व्यक्त करने से ज्यादा आसान है – ऐनी फ्रैंक                                          वो मेरा स्टूडेंट था | तकरीबन १० साल बाद मुझसे मिलने आया था | अभी क्या करते हो ? पूछने  पर उसने सर झुका लिया  , केवल चाय की चुस्कियों की गहरी आवाजे आती रहीं | मुझे अहसास हुआ की मैंने कुछ गलत पूँछ लिया है | माहौल को हल्का करने के लिए मैं किसी काम के बहाने उठ कर जाने को हुई तभी उसने चुप्पी तोड़ते हुए कहा , ” एक दुकान संभालता  हूँ ,  बस गुज़ारा हो जाता है | ” फिर सर झुकाए झुकाए ही बोला ,”मुझे खेद हैं |  काश ! मैंने समय पर आप की सलाह मान ली होती तो आज मेरी तकदीर कुछ और होती | ”  पढ़िए – कोई तो हो जो सुन ले कोई बात नहीं |जहाँ हो अब आगे बढ़ने का प्रयास करो |  हालांकि जब तुम मुझसे मिलने आये थे तो मुझे आशा थी की तुम मेरी सालाह के लिए आभार व्यक्त करने आये हो |”मेरे सपाट उत्तर के बाद पसरा मौन  उसके जाने के बाद भी मेरे मन में पसरा रहा |                                                   वो मेरा ब्रिलियेंट स्टूडेंट था | पर जैसे – जैसे क्लासेज आगे बढ़ी वो पढ़ाई से जी चुराने लगा | मैंने कई बार उसे समझाने का प्रयास किया की मेहनत ही सफलता का मूलमंत्र है | पर वो मेहनत  से जी चुराता रहा | स्कूल बदलने के बाद मेरा उससे संपर्क नहीं रहा | आज आया भी तो खेद व्यक्त करने के लिए |  जीवन की कितनी बड़ी विडंबना है की हम सही समय पर सही काम नहीं करते और खेद व्यक्त करने के लिए बहुत कुछ बचा कर रखते हैं | न सिर्फ कैरियर के मामले में बल्कि आपसी रिश्तों में , लोक व्यवहार में | कितने लोग अपने बीमार रिश्तेदारों से आँख बचाते रहते हैं और समय निकल जाने पर खेद व्यक्त करते हुए कहते हैं की ,” आप ने तो हमें बताया ही नहीं |” उस समय बताते तो हम ये ये ये कर देते | सड़क पर गरीब ठंड  से मर रहा है , हममे से कितने उसे अपने घर के एक्स्ट्रा कम्बल दे देते हैं , अलबत्ता उसके मरने के बाद शोक अवश्य करते हैं की काश हमने तब उसे कम्बल दे दिया होता | बेहतर होता की हम उसे पहले कम्बल दे देते और ईश्वर का आभार व्यक्त करते की उसने हमें इस लायक बनाया है की हम किसी की मदद कर सकें |कई बार तो हम अपने बच्चों के मामले में भी समय रहते लापरवाही करते हैं फिर कहते है | समय का फेर है हम उस समय ध्यान नहीं दिया | उदाहरणों की लम्बी लिस्ट है |  पढ़िए – चमत्कार की तलाश में बाबाओं का विकास                                          क्या आप जानते हैं की ऐसा क्यों होता है | ऐसा इसलिए होता है क्योंकि  आभार् व्यक्त  करना मेहनत मांगता है | आभार व्यक्त करना समय पर तीमारदारी मांगता है , आभार व्यक्त करना  अपने अहंकार को कम करना मांगता है , आभार व्यक्त करना समय का सदुप्रयोग मांगता है | … खेद व्यक्त करना आसान राह है  पर यह एक ऐसी राह है जिसकी कोई मंजिल नहीं है | तमाम सुडा , कुडा और वुडा हमें जहाँ हैं वहीँ पर रोक कर रखते हैं | मंजिल सदा सही समय पर सही काम करने वालों को मिलती है | आप अक्सर क्या व्यक्त करते हैं – खेद या आभार  वंदना बाजपेयी  रिलेटेड पोस्ट ….. यात्रा दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है सुने अपनी अंत : प्रेरणा की आवाज़  कामलो सो लाडलो

हम कमजोर नहीं हैं – रेप विक्टिम मुख्तार माई के साहस को सलाम

वंदना बाजपेयी  सुनो तुम , रात को घर से बाहर मत जाना , दुपट्टा से सर पूरा ढक लेना , पूरे दांत दिखा के मत हँसना … जब परिवार वाले अपने ही घर की बेटी बहुओं पर यह  कह कर मना  करते हैं तो उनके अन्दर एक भय रहता है | वो भय उनके मन में बैठा है  अखबार की उन सुर्ख़ियों से  जो न सिर्फ सफ़ेद पन्नों पर काले अक्षरों से लिखी जाती हैं बल्कि किसी स्त्री के जीवन के आगे के सारे पन्नों  को स्याह कर देती हैं | स्त्री  के साथ होने वाले सबसे खौफनाक अपराधों में से एक है बालात्कार | क्या पुरुष का यह पाशविक रूप स्त्री के सामने  इसलिए आता है क्योंकि वो शारीरिक रूप से कमजोर है ?  रेप या बालात्कार उसे तन से नहीं तोड़ता मन से भी तोड़ देता है |मन के घाव जीवन भर नहीं भरते | स्त्री अपना पूरा आत्म विश्वास  खो बैठती है | परन्तु आज मेरा इस लेख को लिखने का उद्देश्य उस महिला को सलाम करने का है  जिन्होंने इस  हादसे के बाद न केवल खुद को शारीरिक व् मानसिक रूप से संभाला  बल्कि हर महिला को रास्ता दिखाया की ” हम कमजोर नहीं हैं ”   आज हम एक ऐसी ही महिला के बारे में बता रहे हैं |उस महिला का नाम है मुख्तार माई | शायद आपके लिए ये नाम अनजाना हो | है भी क्या ख़ास इस नाम में | पर इस नाम में क्या ख़ास है यह उनकी जीवनी   ” इज्ज़त ‘पढने के बाद पता चल जाएगा | उनकी आत्मकथा का अनुवाद कई भाषाओँ में हो चुका हैं | कई देशों में यह बेस्ट सेलर भी रही है |इस पर एक लघु फिल्म भी बन चुकी है व् उस पर उन्हें कई अवार्ड भी मिल चुके हैं | न्यूयार्क के मशहूर ओपेरा थंबप्रिंट में मुख्तार माई की दर्द भरी दास्ताँ को सामाजिक अत्याचार के नाम पर शिकार मासूम लोगों के दर्द के रूप में दिखाया गया है |  मुख्तार माई पाकिस्तान के मुज्जफ्फरगढ़ की रहने वाली हैं | उनकी की दर्द भरी दास्ताँ आज से १५  साल पहले शुरू हुई थी | उस समय उनके भाई पर आरोप लगा था की उसने मस्तोई बलोच परिवार की एक महिला को छेड़ने  की कोशिश  की थी | गाँव की पंचायत में मुकदमा बैठा | उसने आँख के बदले आँख के कानून पर चलते हुए फैसला सुनाया ,” इसकी कीमत लड़के के परिवार को चुकानी पड़ेगी | ” और वो कीमत चुकाई मुख्तार माई ने | जब पुरुष का रूप धरे ६ भूखे  भेडिये उन पर टूट पड़े | गांव की परिषद की ओर से दी गई सजा के तौर पर मुख्तार माई से न सिर्फ सामूहिक बलात्कार किया गया था बल्कि  उनकी  बिना कपड़ों के परेड कराई गई थी। निरपराध व् निर्दोष माई तन से और मन से पूरी तरह टूट गयी | पर उन्होंने ख़ुदकुशी का रास्ता न अपना कर दोषियों को सजा दिलाने की ठानी | उन्होंने अदालत में शिकायत दर्ज की | बार – बार अदालत जाते समय उन्हें जान से मार देने की धमकी मिलती रही पर वो अपने निर्णय  पर चट्टान की तरह अडिग रहीं | उनका कहना था की पंचायत के पूर्व नियोजित फैसले में उन्हें बलि का बकरा बनाया गया | उनका दर्द कम नहीं हो सकता | पर वो ऐसे अपराध झेती लड़कियों के लिए मिसाल देना चाहती है की चुप बैठ कर रोने से बेहतर है सामने आओ व् दोषियों को सजा दिलवाओ |सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई मुख्तार माई महिला अधिकारों के लिए चलने वाले अभियान का प्रतीक बन गई थी। मुख़्तार के संघर्ष की कहानी मीडिया में फैलते ही कई देशों से उन्हें मदद आने लगी | उन्हें कई पुरूस्कार मिले | एक स्थानीय अदालत ने इस मामले में छह लोगों को सजा सुनाई लेकिन ऊपरी अदालत ने मार्च 2005 में इनमें से पांच को बरी कर दिया था और मुख्य अभियुक्त अब्दुल खालिक की सजा को उम्र कैद में बदल दिया था। पाकिस्तान सरकार की तरफ से हर्जाने के रूप में ९४०० डॉलर मिले |इस पैसे से उन्होंने दो स्कूल खोले | वो बहुत से लोगों की मदद कर रही हैं | उनका कहना है की लड़कियों को केवल मूक पशु बन कर नहीं रहना चाहिए | बल्कि अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए | क्यों पुरुष महिलाओं की सहमति के बिना उनके लिए निर्णय लें |                                         संघर्ष की मिसाल बनी मुख्तार माई ने अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू किया | अभी हाल में रोजीना मुनीब ने उन्हें   पाकिस्तान फैशन वीक में रैंप पर उतारा |  दरसल रोजीना मुनीब ने मुख्तार माई  को मनाया कि वह यहां आए ताकि महिलाओं में संदेश जाए कि एक बार गलत होने का मतलब ये नहीं होता कि जिंदगी खत्म हो गई है।हालांकि इस तरह से आम  जनता का सामना करने से पहले वो थोडा हिचकिचा जरूर रही थी पर फिर से उन्होंने साहस का दामन थामा और पूरे आत्मविश्वास के साथ रैम्प पर चलीं | सभी ने उनका तालियों की गडगडाहट के साथ स्वागत किया | पाकिस्तान के कराची शहर में आयोजित कार्यक्रम में रैंप पर उतरी मुख्तार माई पाकिस्तान की ही नहीं समस्त नारी जाती के लिए साहस और आशा का रोल मॉडल बनकर उभरी। ।   पढ़िए -जब आप किसी की तरफ एक अँगुली उठाते  हैं तो तीन अंगुलियाँ आप की तरफ उठती हैं   बाद में श्रोताओं को संबोधित करते हुए माई ने कहा, उन्होंने कहा कि अगर मेरे एक कदम से एक महिला की मदद होती है, तो मैं मुझे बहुत खुशी होगी| ‘मैं उन महिलाओं की आवाज बनना चाहती हूं जो उन परिस्थितियों से होकर गुजरी हैं, जिनका सामना मैंने किया। मेरी बहनों के लिए मेरा संदेश है कि” हम कमजोर नहीं है।”  हमारे पास भी दिल और दिमाग है, हम सोच सकते हैं।’ मैं अपनी बहनों से कहना चाहती हूं कि अन्याय होने पर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए क्योंकि एक एक दिन हमें न्याय जरूर मिलेगा। पढ़िए – नाबालिग रेप पीडिता को मिले गर्भपात का अधिकार  अंत में टाइम पत्रिका में निकोलस क्रिस्टाफ के लेख का जिक्र जरूर … Read more