कामलो सो लाडलो

motivational story on ” work is worship”  वंदना बाजपेयी  मित्रों , कोई भी काम छोटा या बड़ा नहीं होता | किसी भी व्यक्ति की महानता इस बात में है की वो जो भी काम करें उसे पूरी समग्रता के साथ करे | क्योंकि व्यक्ति की पहचान उसके काम से है | आज आपके साथ काम के महत्व को दर्शाती एक छोटी सी कहानी प्रस्तुत कर रही हूँ |                          आज मुझे को ननकू भैया की याद आ ही गयी | हुआ यूँ की सुबह जैसे ही बेटे ने स्कूल बैग कंधे पर लटकाया | उसकी बद्धि   टूट गयी | जैसे तैसे पुराने  बैग में उसकी कॉपी किताबे भर कर उसे भेजा | अब मेरे पास दो ही ऑप्शन थे या तो मैं आज के आज  ही नया बैग लूँ या पुराने बैग को ही सिलवा  लूँ | दूसरा ऑप्शन ज्यादा सस्ता था | तो मैं बैग लेकर चल दी ननकू के पास | दरसल ननकू हमारे मुहल्ले में बैठने वाले मोची हैं | कॉर्नर वाले मकान से सटा  कर उन्होंने कुछ बांस की खपच्चियों पर पोलिथीन डाल  कर छोटी सी दुकान खोल रखी है | दुकान छोटी जरूर है पर पर ननकू भैया की सब को जरूरत है | तभी तो उनकी दुकान पर भीड़ लगी रहती है | ब्रांडेड सामान की असलियत कई बार ननकू भैया की दुकान पर देखी  जा सकती है | लोग महंगे ब्रांडेड आइटम के टूट जाने पर बैठे हुए दिल से ननकू की दुकान पर आते हैं | ननकू उन्हें २० – २५ रुपये ले कर ठीक कर देता है | ननकू की सधी हुई अंगुलियाँ टूटे हुए बैग्स , लेडीज पर्स व् जूते – चप्पलों पर ऐसे चलती हैं जैसे चित्रकार कोई चित्र बना रहा हो | इसके अलावा ननकू का एक काम और है …वो है लोगों को पता बताना | अजनबी कहीं से भटकते हुए आएगा और ननकू  से मकान  पूंछेगा | तो उसे आगे भटकना नहीं पड़ेगा | ननकू को पता है की मुहल्ले में किस नंबर का घर कहाँ पड़ता है | और अपना यह ज्ञान वो लोगों के साथ खुश हो होकर बाँटता भी |            तो हुआ यूँ की मैं अपना बैग सिलवाने के इंतज़ार में खड़ी  ही थी की एक महिला कार से उतर कर ननकू के पास आई  और बोली ननकू भैया , “ ये चप्पल ठीक हो जायेगी क्या ? अभी कुछ दिन पहले ही मॉल से २५०० की ली है | ननकू ने चप्पल देख कर कहा ,” हाँ ! बिलकुल आप छोड़ दीजिये | “ महिला ने मुस्कुराते हुए कहा ,” ननकू भैया आप कल दिखे नहीं , मेरा तो जी ही बैठा जा रहा था | उसकी बात सुनकर मुझ से रहा नहीं गया | मैंने हँसते हुए  कहा ,” क्या बात है ननकू भैया , इस मेट्रो कल्चर में जब इंसान मर जाता है तब भी महीनों आस पड़ोस वालों को भी खबर नहीं होती और आप का एक दिन काम पर न आने पर भी लोगों का ध्यान जाता है | ननकू भैया अपने पीले दांत दिखाते हुए बोले ,” वो क्या है ना , आप ही लोग कहते हैं की इंसान की वैल्यू नहीं होती उसकी पोस्ट की वैल्यू होती है | कितना सही कहा ननकू ने | इंसान की वैल्यू नहीं उसकी पोस्ट की वैल्यू होती है | इसे थोडा और परिमार्जित करें तो इंसान के काम की वैल्यू होती है | जिन्दगी न जाने इतने कितने उदाहरणों से भरी पड़ी है जहाँ  काम करने वाले व्यक्ति के सारे अवगुण इस एक गुण के आगे ढक  जाते हैं |काश ननकू की तरह हम सब अपने –अपने काम के महत्व को समझ पाते | और उसी तल्लीनता  से कर पाते |   घर लौटते – लौटते मुझे बार – बार दादी की पंक्तियाँ याद आ रही थी “ कामलो सो लाडलो “ जो अपना काम अच्छे से करता है वही  सबका प्यारा होता है |  यह भी पढ़ें ……… दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है प्रेम की ओवर डोज अरे चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी ? बदलाव किस हद तक ?

घर में बड़ों का रोल निभाते बच्चे

   चिंतन मंथन – घर में बड़ों को हर बात में अपनी बेबाक राय देते बच्चों की भूमिका कितनी सही कितनी गलत  घरों में बड़ों का रोल निभाते बच्चे   विकास की दौड़ती गाड़ी  के साथ हमारे रिश्तों के विकास में बड़ी उथल पुथल हुई है | एक तरफ बड़े ” दिल तो बच्चा है जी’ का नारा लगते हुए अपने अंदर बच्चा ढूंढ रहे हैं या कुछ हद तक बचकाना व्यवहार कर रहे हैं वहीं बच्चे तेजी से बड़े होते जा रहे हैं | इन्टरनेट ने उन्हें समय से पहले ही बहुत समझदार बना दिया | माता – पिता भी नए ज़माने के विचारों से आत्मसात करने के लिए हर बात में बच्चों की राय लेते हैं | हर बात में अपनी राय देने के कारण जहाँ बच्चों का आत्मविश्वास बढ़ा है | पारिवारिक रिश्तों में अपनी बात रखने का भय कम हुआ है वहीं कुछ नकारात्मक परिणाम भी सामने आये हैं | अत : जरूरी ही गया है की इस बात पर विमर्श किया जाए की बच्चों की ये नयी भूमिका कितनी सही है कितनी गलत |                             निकिता किटी  पार्टी में जाने के लिए तैयार हो रही थी | जैसे ही उन्होंने लिपस्टिक लगाने के लिए हाथ बढाया १५   वर्षीय बेटी पारुल नें तुरंत टोंका “ न न मम्मी डार्क रेड नहीं , ब्राउन कलर की लगाओ वो भी मैट  फिनिश की ,इसी का फैशन हैं | निकिता जी नें तुरंत हामी भरी “ ओके ,ओके | निकिता जी अक्सर  कहा करती हैं कि उन्हें कहीं भी जाना होता है तो बेटी से ही पूँछ कर साड़ी  चुनती हैं , उसका ड्रेसिंग सेंस  गज़ब का है | बच्चे आजकल फैशन के बारे में ज्यादा जानते हैं |                                 धर्मेश जी और उनकी पत्नी राधा के बीच में कई दिन से झगडा चल रहा था | कारण था राधा जी की किसी स्कूल में टीचर के रूप में पढ़ाने की इक्षा | धर्मेश जी हमेशा तर्क देते “ तुम्हे पैसों की क्या कमी है , मैं तो कमाता ही हूँ | चार रुपयों के लिए क्यों घर की शांति भंग करना चाहती हो | राधा जी अपना तर्क  देती कि वो सिर्फ पैसे के लिए नहीं पढाना  चाहती हैं उनकी इक्षा है की अपने दम पर कुछ करे , अपनी नज़र में ऊँचा उठे | पर धर्मेश जी मानने को तैयार नहीं होते | आपसी झगडे में इतिहास और भूगोल घसीटे जाते पर परिणाम कुछ न निकलता | एक दिन रात के २ बजे दोनों झगड़ रहे थे | तभी उनकी ११ साल की बेटी उठ गयी | कुछ देर के लिए पसरी खामोशी को तोड़ते हुए बोली “ पापा ,आप थोड़ी देर के लिए मम्मी की जगह खुद को रख कर देखिये, हम सब स्कूल ,ऑफिस वैगरह चले जाते हैं | मम्मी अकेली रह जाती हैं | ऐसे में अगर वो अपनी शिक्षा का इस्तेमाल करना चाहती हैं ,तो गलत क्या है | इसमें उनको ख़ुशी मिलेगी | हम लोगों को ऐतराज़ नहीं है ,फिर आप को क्यों ? दिन रात इसी बात पर पत्नी से उलझने वाले धर्मेश जी बेटी की बात नहीं काट सके | कुछ दिन बाद राधा जी पास के एक स्कूल में अध्यापन कार्य करने लगी |               ममता का अंग्रेजी का उच्चारण बहुत दोष पूर्ण था पति रोहित उसकी यदा –कदा  हँसी उडा  देता जिससे उनकी हिम्मत और टूट गयी | बेटा सूरज जब बड़ा हुआ तो उसने अपनी मम्मी का उच्चारण दोष दूर करने की ठान ली | उसने ममता के साथ अंग्रेजी में बात करना  शुरू किया | उसको शीशे के सामने बोलने के लिए प्रेरित किया | उसके गलत उच्चारण को विनम्रता पूर्वक सही किया | आज ममता जी फर्राटे  से अंग्रेजी बोलती हैं | उनके मन में अपने बेटे के लिए प्रेम के साथ –साथ सम्मान का भाव भी  है |                                       चंद्रकांत जी पिछले कई सालों से चेन स्मोकर हैं | माँ ,पत्नी ,रिश्तेदार समझाते –समझाते हार गए पर आदत छूटने का नाम ही नहीं ले रही थी | एक दिन ७ वर्षीय बेटा अपना मोबाइल ले कर चंद्रकांत जी  के पास बैठ गया | गूगल पर एक –एक फोटो क्लिक करते हुए वह उन्हें सिगरेट के नुक्सान के बारे में बताने लगा | चंद्रकांत जी सर झुका कर सुनते रहे | वह खुद लज्जित थे | अंत में बेटे नें आंकड़े दिखाए कि सिगरेट पीने वालों के बच्चे भी पैसिव स्मोकर बन जाते हैं | इससे उनके स्वास्थ्य को भी खतरा है | फिर मोबाइल रख कर बेटे ने उनके गालों पर हाथ रखते हुए कहा “ पापा क्या आप हम लोगों को प्यार नहीं करते हैं  “| चंद्रकांत जी की आँखे डबडबा गयी , वे बेटे से नज़रे नहीं मिला सके | उन्होंने सिगरेट फेंक  कर बेटे को गोद ले कर कहा  “ आइ लव यू बेटा , अब कभी सिगरेट नहीं पियूँगा | “ दरसल वो बेटे की नज़रों में गिरना नहीं चाहते थे | रिश्तों में आया है खुलापन              अगर हम एक दो पीढ़ी पीछे जाए तो यह सब एक सपना सा लगेगा | बूढ़े हो जाए पर बच्चे सदा बच्चे ही बने रहते हैं | उन्होंने  जरा कुछ बोलने की कोशिश की …. तुरंत सुनने को मिल जाता “ चार किताबें क्या पढ़ ली ,हमसे जुबान लड़ाओगे | “ खासकर माता –पिता के झगड़ों में तो उन्हें बोलने की सख्त मनाही होती थी | बड़ो के बीच में बोलना अशिष्ट समझा जाता था | उस ज़माने में कहा जाता था ‘ अगर आप को अपनी गलतियाँ देखनी हैं तो अपने बच्चों को गुड़ियाँ खेलते हुए देख लीजिये | अपनी हर गलती समझ आ जायेगी |    मनोवैज्ञानिक सुष्मिता मित्तल कहती हैं “तब बच्चे नकल करते थे अब अक्ल लगाते  हैं | वह माता पिता से अपने मन की बात कहने में ,राय देने में हिचकते नहीं हैं |”  मनोवैज्ञानिक अतुल नागर कहते हैं कि … Read more

चमत्कार की तलाश में बाबाओ का विकास

वंदना बाजपेयी डेरा सच्चा सौदा के राम – रहीम की गिरफ्तारी के बाद जिस तरह से भीड़ पगलाई और उसने हिंसा व् आगजनी का सहारा लिया |उससे तो यही लगता है की बाबा के भक्त आध्यात्मिक तो बिलकुल नहीं थे | आध्यात्म तो सामान्य स्वार्थ से ऊपर उठना सिखाता है | आत्म तत्व को जानना सिखाता है | जो सब में मैं की तलाश करता है वो तो चींटी को भी नहीं मार सकता |फिर इतनी हिंसा इतनी आगज़नी |  इस बात की परवाह नहीं की जिसे हिंसा की भेंट चढ़ाया जा रहा है उससे उनकी कोई निजी दुश्मनी भी नहीं है | ये आध्यत्मिक होना नहीं आतंक फैलाना है | अपनी बात शांति पूर्वक रखने के कई तरीके थे | पर भीड़ ने वो तरीका अपनाया जो अनुयायी होने के आवरण के अंदर सहज रूप से उसके रक्त में प्रवाहित था | हिंसा क्रोध और उन्माद का | आज उन तमाम बाबाओं पर अँगुली उठ गयी है जो आध्यात्म का नाम ले कर अपनी दुकाने चला रहे हैं | वो दुकाने जो धीरे – धीरे उनकी सत्ता में परिवर्तित हो जाती हैं | जहाँ “ नेम , फेम और पावर का गेम चलता है |  प्रश्न ये उठता है की सब समझते हुए सब जानते हुए आखिर लोग क्यों इन बाबाओं के अनुयायी बन जाते हैं | सच्चाई ये है की इन बाबाओं की दुकानों पर जाने वाला आम आदमी एक डरा हुआ कमजोर आदमी है | जी हाँ , ये डरे हुए आम आदमी जिनमें खुद अपनी समस्याओं के समाधान की हिम्मत नहीं हैं | तलाशते हैं कोई बाबा कोई , संत कोई फ़कीर , जो कर दे चमत्कार , चुटकियों में हो जाए हर समस्या का सामाधान …  हो जाए बेटी की शादी , कहाँ से लाये दहेज़ की रकम | बरसों हो गए जिसके लिए योग्य दूल्हा ढूंढते , ढूंढते | बड़का की नौकरी लग जाए | क्या है की बाबूजी रिटायर होने वाले हैं | घर कैसे चलेगा ? छुटकू  का मन पढने में लग जाए | पास हो जाए बस | ब्याही बिटिया को दामाद चाहने लगे | जोरू का गुलाम हो जाए |कोई जंतर मंतर कोई तावीज कहीं कोई चमत्कार तो हो जाए | इन्हीं चमत्कारों  की तालाश में आम आदमी खुद ही उगाते हैं बाबाओं की फसल | आध्यात्म के लिए नहीं चमत्कार के लिए |                     ये बाबा भी जानते हैं की समस्याएं चमत्कार से नहीं पावर से खत्म होती हैं |इसलिए ये अपनी पावर बढाने में लग जाते हैं | राजनैतिक कनेक्शन बनाते हैं | ताकि उनके व् उनके तथाकथित भक्तों के हितों का समर्थन होता रहे | बाबा के पास जैसे ही अनुयायी बढ़ने लगते हैं | उन्हें सरकारी मदद से आश्रम के नाम पर जमीने मिलने लगती हैं | हर चीज पर सब्सिडी मिलने लगती है | फिर क्यों न उनका साम्राज्य फले फूले | दरसल इन बाबाओं का आध्यत्म से कुछ लेना देना नहीं होता है | ये स्वयं अपनी समस्याओं से हार कर अध्यात्म की और पलायन करे हुए लोग होते हैं जो मौका मिलते  ही अपना मुखौटा उतार कर अपनी पूरी महत्वाकांक्षाओ के साथ शुद्ध व्यापारी रूप में आ जाते हैं | जो निज हित में आध्यात्म का सौदा करते हैं , धर्म का सौदा करते हैं | धर्म की आड़ में सारे अधार्मिक  काम करते हैं | ये सिर्फ नाम के आध्यात्मिक बाबा हैं | अपनी  वेशभूषा को छोड़कर ये पूरा आलिशान जीवन जीते हैं |महंगी गाड़ियों में घूमना , फाइव स्टार होटलों में रुकना इनका शगल है |                          ये बाबा जानते हैं की कभी न कभी इनको पकड़ा जा सकता है | इसलिए ये एक ऐसी शुरूआती भीड़ की व्यवस्था भी कर के रखते हैं की पकडे जाने पर उत्पात मचा सके | उन्हें पता है की भीड़ भीड़ को फॉलो करती हैं | उन्हें देख कर और अनुयायी जुड़ ही जायेंगे | और भीड़ भी बुद्धि को ताक  पर रख कर चल देती है इन बाबाओं के पीछे – पीछे | न जाने कितने बाबा पकडे जा चुके हैं | फिर भी बाबाओं की नयी फ़ौज रोज आ रही है | रोज नए अनुयायी बन रहे हैं | जय बाबा – जय बाबा का उद्घोष चल रहा है | और क्यों न हो … हम डरे हुए आम आदमी चमत्कार की तलाश में न जाने कितने लोगों को बाबाओं की गद्दी पर सुशोभित करेंगे | जो नेम फेम और पावर गेम से हमारा ही शोषण करेंगे | कुछ पकडे जायेंगे , कुछ छिपे रहेंगे | और हम नाच – नाच कर गाते रहेंगे |                      “ जय बाबा XXX “ यह भी पढ़ें …….. संवेदनाओं का मीडीयाकरण -नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चों के रिश्तों को कैसे बचाएं आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ? क्यों लुभाते हैं फेसबुक पर बने रिश्ते क्या आप भी ब्लॉग बना रहे हैं ? आत्महत्या किसी समस्या का समाधान नहीं

क्या आप जानते है आपके घर का कबाड़ भी हो सकता है अवसाद का कारण

                          क्या आप का घर अक्सर बहुत बेतरतीब रहता है ? क्या आप अपना पुराना सामान मोहवश  फेंक नहीं पाते ?क्या आप को पता होता है कि उपयुक्त चीज आपके पास है पर आप उसे सही  समय पर ढूढ़ नहीं पाते ? अगर ऐसा है तो जरा अपने स्वाभाव पर गौर करिए ………. आप कार  ड्राइव करते समय किसी कि बाइक या सायकिल के छू जाने पर बेतहाशा उत्तेजित हो जाते हैं ,मार-पीट पर ऊतारू हो जाते हैं अकसर आप सड़क ,भीड़ और लोगों पर गुर्राते हैं ?या आप  बात बेबात पर अपने बच्चों को पीट देती है ,घर कि काम वाली से झगड़ पड़ती है । तो जरा धयान से पढ़िए…………श्रीमती  जुनेजा की कि भी स्तिथि कुछ -कुछ ऐसी ही थी। …. लेकिन जब गुस्सा बहुत बढ़ गया और घर में भी अक्सर कलह पूर्ण वातावरण ही रहने लगा तो उन्होंने मनोचिकित्सक को दिखाने में ही भलाई समझी मनोचिकित्सक के पास जा कर वो लगभग रो पडी  । “मैं इतना बुरी  इंसान नहीं हूँ ,पर पता नहीं क्यों मुझे आजकल हर समय इतना गुस्सा क्यों  आता है मनोचिकित्सक ने उनकी बात बड़े धैर्य से सुनी और कई बैठकों  में  उनकी रोजमर्रा कि जिंदगी के बारे में जान कर एक सलाह दी “आप रोज सुबह आधा  घंटे जल्दी उठा करिए और अपना बिस्तर कमरा संभालिये और ऑफिस जाने से पहले देख लीजिये कि आप की रसोई ,बाथरूम ,कपड़ों की अलमारी आदि ठीक से है या नहीं,इसके बाद ही ऑफिस जाया करिए  । श्रीमती जुनेजा इसके बाद घर चली गयी ,और एक महीने बाद उन्होंने पाया कि वो ज्यादा शांत रहने लगी हैं ।                                               वस्तुत :आज की जिंदगी बहुत तनावपूर्ण है । हम सब लोग तनाव की जद में हैं अक्सर हम इसका दोष  सड़क पर कार चलने वाले व्यक्ति को ,घर की काम वाली को या बच्चों की लड़ाई -झगडे को देते हैं पर इस तनाव का असली कारण हमारे घर में पड़ा कबाड़ है ।समझने वाली बात है अगर आप किसी के घर जाते हैं वहां सिंक बरतनों से बजबजा रहा है ,सामान बेतरतीब फैला है ,वॉशिंग मशीन बिना धुले कपड़ों से लबालब है …. तो आप को कैसा महसूस होता है ?और अगर वो घर आप का ही घर हो तो ? जाहिर है चिड़चिड़ापन ,बेचैनी ,अवसाद बढ़ेगा ही पर क्यों ? ऊर्जा का  प्रवाह रोकता है कबाड़ –                                                कभी देखा है   नदी के पानी में गति शीलता है ,निरंतर प्रवाह है इसलिए उसका पानी गंदा नहीं होता। पर एक गड्ढे में कितना भी साफ़ पानी भरा हो ,२ ,४ दिन में सड़ने लगता है। और अगर एक दो दिन और बीत जाए तो पास से गुजरना मुश्किल हो जाता है। आपने भी सुना होगा गति ही जीवन है।  इसी प्रकार ब्रह्मांडीय ऊर्जा सूक्ष्म तरंगों के रूप में  हमारे चारों ओर व् घूमती रहती है ।घर का कबाड़ या घर में आवश्यकता से अधिक सामान ( हम बहुधा ऐसे घर में जा कर कहते हैं कि  ,क्या घर को कबाड़ खाना बना रखा है  ?) ऊर्जा के इस सतत प्रवाह को रोक लेता है। वस्तुतः :ये कबाड़ सकारात्मक विचारों के प्रवाह को रोक देता है ऊर्जा का प्रवाह रुकते ही मन में नकारात्मक विचार आने लगते हैं । मन अवसाद से घिर जाता है।  जिससे घर के वातावरण में अजीब सी घुटन व् बेचैनी महसूस होती है । क्या कहते हैं मनोवैज्ञानिक –   मनोचिकित्सक डॉ हरीश शेट्टी कहते हैं कि “ढेर सारा फर्नीचर ,अनावश्यक किताबे ,बर्तन व् सामान हमारे दिमाग में भारीपन का अहसास कराता है ,जिससे उलझन ,थकान व् क्रोध बढ़ता है। इसका नकारात्मक प्रभाव हमारे रिश्ते -नातों पर पड़ता है। यहाँ तक कहाँ जा सकता है की कबाड़ दम्पत्तियों में अनबन व् तलाक तक का कारण बन सकता है। “ कैलिफोर्निया यूनिवर्सिटी के शोध के अनुसार कबाड़ का हमारे मूड व् आत्मसंतुष्टि पर बहुत विपरीत असर पड़ता है। यह निर्जीव सामान हमारा किसी काम पर फोकस (ध्यान केंद्रित करना )रोक देता है।  मनोवैज्ञानिक सुधीर गुप्ता के अनुसार कबाड दृश्य ,घ्राण व् स्पर्श  संवेदनाओ को अत्यधिक उत्तेजित कर देता है। जिससे हमें ऐसा महसूस होता है जैसा बहुत देर काम करने के बाद महसूस होता है।  हमें कभी न खत्म होने वाले काम की थकान महसूस होती है।  क्यों इकठ्ठा हो जाता है कबाड़ –                                        हम सब अपने घर को साफ़ -सुथरा रखना चाहते हैं । ज्यादातर घरों में अलसुबह से ही झाड़ू -पोंछा सफाई का काम शुरू हो जाता है । इतनी सफाई पसंद करने के बाद भी आखिरकार घर में ये कबाड़ इकट्ठा क्यों हो जाता है ।  भावनात्मक लगाव – हम ज्यादातर सामन इसलिए इकट्ठा कर लेते हैं क्योंकि हमें उनसे भावनात्मक लगाव होता है।  अभी भी हमारे देश में पश्चिमी देशों की तरह “यूज एंड थ्रो ” का कांसेप्ट नहीं हैं ….कुछ सामान जो मात्र भावनात्मक लगाव की वजह से रखे जाते है … जैसे टूटी हुई घडी के पट्टे ,पुराने सेल ,बचपन या युवावस्था में पहने हुए कपडे ,हैंडल टूटा तवा ,बच्चों के खिलौने।  इन्हे हम मात्र भावनात्मक लगाव के चलते अलमारियों में भर लेते हैं।   असुरक्षा की भावना –                       अक्सर भारतीय घरों में असुरक्षा की भवना के चलते कबाड़ इकट्ठा  हो जाता है ।भगवान  न करे कभी कोई बुरा दिन देखना पड़े।  कहीं ऐसा न हो की कभी इतनी सी चीज खरीदने की औकात न रहे इस मानसिकता के चलते   कोई चीज फेंकने से हम कतराते हैं और रंग उड़े मग , पुराने सेल फोन , चश्मे  आदि हमारे घर में कबाड़ बढ़ाते जाते हैं।  कभी  तो काम आ जाएगा –                                                    कई वस्तुए हम यह सोच कर रखते जाते हैं की कभी न कभी तो काम आ जाएंगी।  बड़े बेटे की … Read more

टफ टाइम : एम्पैथी रखना सबसे बेहतर सलाह है

किसी का दुःख समझने के लिए उस दुःख से होकर गुज़ारना पड़ता है – अज्ञात रामरती देवी कई दिन से बीमार थी | एक तो बुढापे की सौ तकलीफे ऊपर से अकेलापन | दर्द – तकलीफ बांटे तो किससे | डॉक्टर के यहाँ जाने से डर लगता , पता नहीं क्या बिमारी निकाल कर रख दे | पर जब तकलीफ बढ़ने लगी तो हिम्मत कर के  डॉक्टर  के यहाँ  अपना इलाज़ कराने गयी | डॉक्टर को देख कर रामरती देवी आश्वस्त हो गयीं | जिस बेटे को याद कर – कर के उनके जी को तमाम रोग लगे थे | डॉक्टर बिलकुल उसी के जैसा लगा | रामरती देवी अपना हाल बयान करने लगीं | अनुभवी डॉक्टर को समझते देर नहीं लगी की उनकी बीमारी मात्र १० % है और ९० % बुढापे से उपजा अकेलापन है | उनके पास बोलने वाला कोई नहीं है | इसलिए वो बिमारी को बढ़ा  चढ़ा कर बोले चली जा रहीं हैं | कोई तो सुन ले उनकी पीड़ा | अम्मा, “ सब बुढापे का असर है कह  सर झुका कर दवाई लिखने में व्यस्त हो गया | रामरती देवी एक – एक कर के अपनी बीमारी के सारे लक्षण गिनाती जा रही थी | आदत के अनुसार वो डॉक्टर को बबुआ भी कहती जा रही थी | रामरती देवी : बबुआ ई पायन में बड़ी तेजी से  पिरात  है | डॉक्टर – वो कुछ  नहीं रामरती – कुछ झुनझुनाहट होती है डॉक्टर : वो कुछ नहीं रामरती – तनिक अकड  भी जात है | डॉक्टर – वो कुछ नहीं रामरती – जब पीर उठत है तो डॉक्टर : कहा न अम्मा ,” कुछ नहीं रामरती (गुस्से में ), जब तुम्हारे पिरायेगा , तब कहना कुछ नहीं (आपको क्या लगता है , डॉक्टर को सिर्फ दवा लिखनी चाहिए थी  | या ये जानते हुए की रामरती जी अकेलेपन की शिकार हैं उसे दो मिनट उसकी तकलीफ सुन लेनी चाहिए थी | साइकोसोमैटिक डिसीजिज , जहाँ तन का  इलाज़ मन के माध्यम से ही होता है | डॉक्टर भी उसे ठीक करना चाहता था | शायद उसकी रामरती जी की तकलीफ को नज़रंदाज़ करने की या उपहास उड़ाने की  मंशा नहीं थी , जैसा रामरती जी को लगा | —————————————————————————————————————–                 सुराज की नौकरी चली गयी | वो मुँह लटकाए घर आया | कई दिनों तक घर से बाहर नहीं निकला | रिश्तेदारों में खलबली मची | सब उसे समझाने आने लगे | तभी उसका एक रिश्तेदार दीपक आया | वो उसे लगा समझाने ,” अरे एक गयी है हज़ार नौकरियाँ तुम्हारा इंतज़ार कर रही है | “ थिंक पॉजिटिव “ , ब्ला ब्ला ब्ला | थोड़ी देर सुनने के बाद सुराज कटाक्ष करने वाले लहजे में  बोला ,” मुझे पता है की हज़ारो , अरे नहीं लाखों नौकरियां मुझे मिल सकती हैं | मिल क्या सकती हैं , बाहर लोग मुझे नौकरी देने के लिए लाइन लगा कर खड़े हैं | पर अभी मैं अपनी नौकरी छूटने का दुःख मानना चाहता हूँ | क्या आप मुझे इसकी इजाज़त देंगे | | दीपक , ओके , ओके कहता हुआ चला गया | वह सुराज को इस परिस्तिथि से बाहर निकालना चाहता था | पर शायद उसका तरीका गलत था | ——————————————————————————               स्वेता जी के पति का एक महीना पहले स्वर्गवास हो गया था | सहानुभूति देने वालों का तांता लगा रहता | उनमें से एक उनके पड़ोसी नेमचंद जी भी थे | जो उनके प्रति बहुत सहानुभूति रखते थे | रोज़ उनका हाल पूंछने चले आते | स्वेता जी का का संक्षिप्त सा उत्तर होता ,” ठीक हूँ | “ पर उस दिन स्वेता जी का मन बहुत उदास था | उसी समय नेमचंद जी आ गए , और लगे हाल पूंछने | स्वेता जी गुस्से से आग बबूला हो कर बोली ,” एक महीना पहले मेरे पति का स्वर्गवास हुआ है | आप को क्या लगता है मुझे कैसा होना चाहिए | चले आते हैं रोज़ , रोज़ पत्रकार बन के | नेमचंद जी मुँह लटका कर चले गए | वो सहानुभूति दिखाना चाहते थे पर तरीका गलत था | ………………………………………………..                कई बार हमें समस्याओं से जूझते वक्त एक बुद्धिमान दिमाग के तर्कों के स्थान पर एक खूबसूरत दिल की आवश्यकता होती है , जो बस हमें सुन सकें                                बात तब की है जब मैं अपनी सासू माँ के साथ रिश्तों की कुछ समस्याओं से जूझ रही थी | मैं चाहती थी की घर का वातावरण सुदर व् प्रेम पूर्ण हो | पर कुछ समस्याएं ऐसी आ रही थी | जिनको डील करना मेरे लिए असंभव था | हर वो स्त्री जो अपने परिवार को जोड़े रखने में विश्वास करती है , कभी न कभी इस फेज से गुजरती है | व् इसकी पीड़ा समझ सकती है | मैं  समस्याओं को सुलझाना चाहती थी पर असमर्थ थी | लिहाजा मैंने  सलाह लेने की सोंची | मैंने इसके लिए अपनी माँ को चुना | मुझे लगता था , माँ मेरे समस्या अच्छे से सुनेगी व् समाधान भी देंगी | क्योंकि बचपन से अभी तक मैंने माँ को सदा एक सुलझी हुई महिला के रूप में देखा है | समस्याओं को सुलझाना , रिश्तों को निभाना , व् सब को सहेज कर रखना ये उनके बायें हाथ का खेल रहा है | मैंने माँ को फोन लगाया | हेलो , की आवाज़ के साथ ही मैंने रोना शुरू कर दिया | एक – एक करके अपनी सारी  समस्याएं बता दी | माँ , बीच – बीच में ओह ! , अच्छा , अरे कह कर सुनती जा रही थी | मैंने बात खत्म करके माँ से पूंछा माँ , आपको क्या लगता है | इस परिस्तिथि में मुझे क्या करना चाहिए | माँ धीरे से अपने शब्दों में ढेर सारा प्यार भर कर  बोली , बेटा , मुझे पता है  तुम कितनी तकलीफ से गुज़र रही हूँ | मैं तुम्हारा दर्द समझ सकती हूँ | पर मुझे विश्वास है तुम इससे निकल जाओगी |”  पढ़िए –नाउम्मीद करती उम्मीदें           … Read more

sarahah app : कितना खास कितना बकवास

अभी ज्यादा दिन नहीं हुए जब फेसबुक पर sarahah एप लांच हुआ और देखते ही देखते कई लोगों ने डाउनलोड करना शुरू कर दिया | मुझे भी अपने कई सहेलियों की वाल पर sarahah एप दिखाई दिया और साथ ही यह मेसेज भी की यह है मेरा एक पता जिसपर आप मुझे कोई भी मेसेज कर सकते हैं | वो भी बिना अपनी पहचान बाताये | आश्चर्य की बात है इसमें मेरी कई वो सखियाँ भी थी जो आये दिन अपनी फेसबुक वाल पर ये स्टेटस अपडेट करती रहती थी की ,मैं फेसबुक पर लिखने पढने के लिए हूँ , कृपया मुझे इनबॉक्स में मेसेज न करें | जो इनबॉक्स में बेवजह आएगा वो ब्लाक किया जाएगा | अगर आप कोई गलत मेसेज भेजेंगे तो आपके मेसेज का स्क्रीनशॉट शो किया जाएगा , वगैरह , वगैरह | मामला बड़ा विरोधाभासी लगा , मतलब नाम बता कर मेसेज भेजने से परहेज और बिना नाम बताये कोई कुछ भी भेज सकता है | जो भी हो इस बात ने मेरी उत्सुकता सराह एप के प्रति बढ़ा दी | तो आइये आप भी जानिये सराह ऐप के बारे में ,” की ये कितना ख़ास है और कितना बकवास है | क्या है sarahah  app                     सराह एक मेसेजिंग एप है | जिसमें कोई भी व्यक्ति अपनी प्रोफाइल से लिंक किसी भी व्यक्ति को मेसेज भेज सकता है |मेसेज प्राप्त कर सकता है | सबसे खास बात इसमें   उसकी पहचान उजागर नहीं होगी |यानी की बेनाम चिट्ठी | सराह एप में आप मेमोरी भी क्रीऐट कर सकते हैं व् उन लोगों के नामों का भी चयन कर सकते हैं जिन्हें  आप मेसेज भेजना चाहते हैं |आप साइन इन कर उन लोगों को भी खोज सकते हैं जिनका पहले से एकाउंट है | इसे डाउनलोड करने के लिए आप को इसके वेब प्लेटफॉर्म  पर जा कर एकाउंट बनाना होगा |आप इसे गूगल प्ले स्टोर या एप्पल के एप स्टोर से भी डाउनलोड कर सकते हैं |इसकी ऐनड्रोइड की एप साइज़ १२ एम बी है | कहाँ से आया ये sarahah  app                                    सराह एप सऊदी अरेबिया से आया है | जिसे वहां के वेब  डेवेलपर  Zain al-Abidin Tawfiq ने डेवेलप किया है | पहले उन्होंने इसे इस लिए डेवेलप किया था की कम्पनी के     कर्मचारी  मालिकों को अपना फीड बैक दे सके जो वो खुले आम सामने सामने  नहीं दे पाते हैं | पर देखते ही देखते यह एप वायरल  हो गया | अबक इसके ३० लाख से भी अधिक यूजर बन चुके हैं | भारत में हर दिन इसे हजारों लोग डाउनलोड कर रहे हैं | क्या  है sarahah  का मतलब                               ” सराह ” का शाब्दिक अर्थ है इमानदारी | पर जब आप अपना नाम छुपा कर कुछ भेज रहे हैं तो इमानदारी कहाँ रहती है | हां , सकारात्मक आलोचना की जा सकती है | अगर आप सामने कहने से परहेज करते हों | पर ये सुनने वाले किए ऊपर है की वो अपनी आलोचना सुन कर आपको ब्लॉक करता है या नहीं | क्या खास है sarahah app  में                                   सराह  मेसेज देने ,लेने के अतिरिक्त कुछ ज्यादा नहीं कर सकता | हो सकता है भविष्य में इसमें कुछ फीचर जोड़े जाए | वैसे मेसेज देने के लिए व्हाट्स एप व् फेसबुक मेसेंजर भी है | तो फिर इसमें ख़ास क्या है | जहाँ तक आलोचना करने का सवाल है तो लोग फेक फेसबुक आई डी बना कर भी कर लेते हैं | फेसबुक पर फेक आई डी वाले लंबी – लंबी बहसे करते देखे गए हैं | कई की ओरिजिनल आई डी है | पर उन्होंने नाम के अलावा  बाकी सब हाइड कर रखा है | फोटो भी उनकी अपनी नहीं है | मतलब ये की वो लोग कुछ भी लिखने के लिए स्वतंत्र हैं | वैसे भी अगर आप की फ्रेंड लिस्ट छोटी है तो इसमें कुछ भी ख़ास नहीं |क्योंकि सब आपके ख़ास जान – पहचान वाले ही होंगे |  हां अगर फ्रेंड लिस्ट बड़ी है और  कुछ ऐसे लोग आपसे जुड़े हैं जो आपको मेसेज करने की हिम्मत नहीं कर पा रहे हैं तो वो इस एप के माध्यम से कर सकते हैं | दिल की बात कह सकते हैं | यहाँ पर बात सिर्फ तारीफ की नहीं , बेहूदा मेसेजेस व् बेफजूल आलोचना की भी हो सकती है |                                                             अगर आप किसी बिजनिस या क्रीएटीव  फील्ड से जुड़े हैं तो आप इसका प्रयोग ” सेल्फ प्रोमोशन ” में कर सकते हैं | ऐसे में आप नकारात्मकता व् आलोचना से भरी सैंकड़ों पोस्टों को भूल जाइए , व् कुछ तारीफों वाली चिट्ठियों को अपनी वाल पर शेयर करिए | जिससे लोगों को लगे आपका काम या बिजनेस कितना  प्रशंसनीय है |आपके फ्रेंड्स व् फोलोवेर्स अचंभित  हो सकते हैं की आप या आपका काम कितना लोकप्रिय है | इसके लिए आप अच्छी सी चिट्ठियाँ अपने खास दोस्तों या परिवार के सदस्यों से खुद ही लिखवा सकते हैं | ये बात उनके लिए है जिनके लिए सेल्फ प्रोमोशन में सब कुछ जायज है  पर इसके लिए आपको इतना मजबूत होना पड़ेगा की आप अनेकों अवांछित चिट्ठियों से अप्रभावित रह सकें | क्या बकवास है sarahah app में                                        बेनामी चिट्ठियाँ , बेनामी फोन कॉल्स , अब बेनामी मेसेजेस  महिलाओं के लिए हमेशा खतरे की घंटी हैं | sarahah चाहें जितनी ईमानदारी का दावा करें पर अश्लीलता में ये इमानदारी बर्दाश्त नहीं की जा सकती | एक खबर के मुताबिक़ एक लड़की ( नाम जानबूझकर गुप्त रखा है ) ने सराह एप डाउन लोड  किया | उसे रेप … Read more

कोई तो हो जो सुन ले

कभी – कभी हमें एक तर्क पूर्ण दिमाग के जगह एक खूबसूरत दिल की जरूरत होती है जो हमारी बात सुन ले – अज्ञात                                   उफ़ !कितना बोलते हैं सब लोग , बक – बक , बक -बक | चरों तरफ शोर ही शोर | ये सच है की हम सब बहुत बोलते हैं | पर सुनते कितना हैं ?हम सुबह से शाम तक कितने लोगों से कितनी साड़ी बातें करते हैं | पर  कभी आपने गौर किया है की जब मन का दर्द किसी से बांटना चाहो तो केवल एक दो नाम ही होते हैं | उसमें से भी जरूरी नहीं की वो पूरी बात सुन ही लें |  पढ़िए – प्रेम की ओवर डोज                                                 बात तब की है जब मैं एक बैंक में किसी काम से गयी थी |बैंक में पेपर तैयार होने में कुछ समय था | मैं इंतज़ार के समय में कुछ सार्थक करने के उद्देश्य से बैंक के सामने बने सामने पार्क में एक बेंच पर बैठ कर किताब पढने लगी | समय का इससे अच्छा सदुपयोग मुझे कुछ लगता नहीं | तभी एक अजनबी महिला मेरे पास आई और बोली ,” क्या आप भी टेंश हैं , वैसे भी आजकल के ज़माने में कौन टेंशन में नहीं है |” मैं उनको देख कर मुस्कुराई | वो मेरे बगल में बैठ गयीं फिर खुद ही  बोलीं मैं बहुत टेन्स हूँ | मैंने प्रश्न वाचक नज़रों से उनकी ओर देखा | जैसे कोई बीज नर्म मिटटी पा कर अंकुरित होने लगता हैं , वैसे ही  वो अपने दिल की एक – एक पर्त खोलने लगीं | अपने तनाव की , अपने दर्द की , अपनी तकलीफों की | मैं बिना कोई राय व्यक्त किये बस सुनती जा रही थी | अंत में मैं उनके हाथ पर हाथ रख कर बोली ,” आप परेशान न हों , हर समस्या अपने साथ समाधान ले कर आती है | आपकी भी समस्याओं का हल होगा | वो बस अभी आपके दिमाग में कहीं अंदर  छिपा हुआ है , सतह पर नहीं आया | पर आएगा जरूर |बस आप अपनी सेहत का ध्यान रखें व् कूल माइंड से फैसले लें | उन्होंने मुझे थैंक्स कहा और मैं अपना बैग उठा कर चल दी , शायद उनसे फिर कभी न मिलने के लिए | पर रास्ते में ये सोंचते हुए की आखिर क्या कारण है की संयुक्त परिवार में रहने वाली इस महिला को ( रिश्तों की भीड़ से घिरी होने के बावजूद ) अपना दर्द किसी अजनबी से शेयर करने की जरूरत पड़ीं |  पढ़िए – पौधे की फ़रियाद क्या हम रिश्तों की भीड़ में अकेले हैं ? क्या आप ने महसूस किया है की जब हम किसी अपने को अपना दर्द सुनाते हैं तो कई बार वो  इस तरह से सुनते हैं की उनके हाव – भाव बता देते हैं की वो बहुत बोर हो रहे हैं | कई बार  बात बीच में ही काट कर अपनी राय दे देते हैं और कुछ जल्दी से हाँ में हाँ मिला कर किस्सा ही खत्म करना कहते हैं | या हम जब किसी अपने को अपना दर्द सुनाते हैं तो वो बहुत जजमेंटल हो जाता है | जिससे सुनाने वाले को लगता है की उसकी तकलीफ का मजाक उड़ाया जा रहा है |और अपनों के होते हुए भी अपनापन कम होता जा रहा है |शायद इसी लिए हम सब कितना दर्द सीने में दबाये हुए एक हमदर्द ढूंढते रहते हैं | और बंद होंठों के अंदर ही अंदर चीख – चीख कर कहते हैं ” कोई तो हो जो सुन ले ”  वंदना बाजपेयी  रिलेटेड पोस्ट ……… यात्रा दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है सुने अपनी अंत : प्रेरणा की आवाज़ 

यात्रा

वंदना बाजपेयी ———- ये जीवन एक सफ़र ही तो है और हम सब यात्री  जीवन की गाडी तेजी से आगे भागती जा रही है | खिड़की से देखती हूँ तो खेत खलिहान नहीं दिखते | दिखता है जिन्दगी का एक हिस्सा बड़ी तेजी से पीछे छूटता जा रहा | वो बचपन की गुडिया , बचपन के खिलौने कब के पीछे छूट गए , पीछे छूट गए वो चावल जो ससुराल में पहला कदम रखते ही बिखेर दिए थे द्वार पर , बच्चों की तोतली भाषा , स्कूल का पहला बैग , पहली सायकिल … अरे – अरे सब कुछ पीछे छूट गया | घबरा कर खिड़की बंद करती हूँ |  अंदर का दृश्य और भी डरावना है |  कितने सहयात्री जो साथ में चढ़े थे | जिनसे मोह के बंधन बंधे थे | कितने किस्से , कितने सुख दुःख बांटे थे | कितने कसमें – वादे किये थे | अब दिखाई नहीं दे रहे | शायद उनका स्टेशन आ गया | पता नहीं वो उनका गंतव्य था या किसी नयी ट्रेन में चढ़ गए | उतरने से पहले बताया भी नहीं | उनकी सीटो पर नए यात्री बैठ गए हैं | पर उनकी जगह अब भी खाली है | ये खाली पन भरता ही नहीं |एक शून्य बना देता है ठीक मन के बीचों बीच | मैं मन को बस कसना चाहती हूँ , बस अब बहुत हुआ , अब कोई मोह का बंधन नहीं |  पर सफ़र काटना भी तो मुश्किल है |  इतना सतर्क होने के बाद भी न जाने फिर से कैसे मोह के बंधन बंधने लगते हैं | फिर से एक नया शून्य उत्पन्न करने के लिए | फिर भी यात्रा जारी है | अभी सब इत्मीनान में दिख रहे हैं | पर कब तक ? पता नहीं कब , कौन से स्टेशन पर मैं भी उतर जाउंगी , … किसी नयी ट्रेन में चढ़ने के लिए | फिर होंगे नए सहयात्री ,नए खिलौने , नए चावल … और एक नयी यात्रा |  आखिरकार हम सब यात्री ही तो है | यह भी पढ़ें …… प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद

आखिर हम इतने अकेले क्यों होते जा रहे हैं ?

वंदना बाजपेयी शहरीकरण संयुक्त परिवारों का टूटना और बच्चों का विदेश में सेटल हो जाना , आज अकेलापन महानगरीय जीन में एक बहुत बड़ी समस्या बन कर उभरा है | जिसका ताज़ा उदाहरण है मुबई की आशा जी जो टूटते बिखरते रिश्तों में निराशा की दास्तान हैं | मुबई के एक घर में एक महिला का कंकाल मिलता है | घर में अकेली रहने वाली ये महिला जो एक विदेश में रहने वाले पुत्र की माँ भी है कब इहलोक छोड़ कर चली गयी न इसकी सुध उसके बेटे को है न पड़ोसियों को न रिश्तेदारों को | यहाँ तक की किसी को शव के कंकाल में बदलने पर दुर्गन्ध भी नहीं आई | सच में मुंबई की आशा जी की घटना बेहद दर्दनाक है | कौन होगा जिसका मन इन हृदयविदारक तस्वीरों को देख कर विचलित न हो गया हो | ये घटनाएं गिरते मानव मूल्यों की तरफ इशारा करती हैं | एक दो पीढ़ी पहले तक जब सारा गाँव अपना होता था | फिर ऐसा क्या हुआ की इतने भीड़ भरे माहौल में कोई एक भी अपना नज़र नहीं आता | हम अपने – अपने दायरों में इतना सिमिट गए हैं की की वहां सिर्फ हमारे अलावा किसी और का वजूद हमें स्वीकार नहीं | अमीरों के घरों में तो स्तिथि और दुष्कर है | जहाँ बड़े – बड़े टिंटेड विंडो ग्लास से सूरज की रोशिनी ही बमुश्किल छन कर आती है , वहां रिश्तों की गुंजाइश कहाँ ? अभी इसी घटना को देखिये ये घटना आशा जी के बेटे पर तो अँगुली उठाती ही है साथ ही उनके पड़ोसियों व् अन्य रिश्तेदारों पर भी अँगुली उठाती है | आखिर क्या कारण है की उनका कोई भी रिश्तेदार पड़ोसी उनकी खैर – खबर नहीं लेता था | ये दर्द नाक घटना हमें सोंचने पर विवश करती है की आखिर ऐसा क्यों हो रहा है ? आखिर क्यों हम इतने अकेले होते जा रहे हैं ? एक अकेली महिला की कहानी आशा जी की घटना को देख कर मुझे अपने मुहल्ले की एक अकेली रहने वाली स्त्री की याद आ रही है | जिसे मैं आप सब के साथ शेयर करना चाहती हूँ | दिल्ली के पोर्श समझे जाने वाले मुहल्ले में ये लगभग ७० वर्षीय महिला अपने १० – १5 करोण के तीन मंजिला घर में अकेली रहती है | बेटा विदेश में है | महिला की अपनी कामवाली पर चिल्लाने की आवाज़े अक्सर आती रहती हैं |उसके अतिरिक्त बंद दरवाजों के भीतर का किसी को कुछ नहीं पता | पर हमेशा से ऐसा नहीं था | पहले ये तीन मंजिला घर खाली नहीं था | ग्राउंड फ्लोर पर महिला के पेरेंट्स रहते थे | फर्स्ट फ्लोर पर उनके भाई- भाभी अपने परिवार के साथ रहते थे | भाभी डॉक्टर हैं , व् थर्ड फ्लोर जो दूसरे भाई का था ( जो दिल्ली के बाहर कहीं रहते हैं ) किराए पर उठा था | जहाँ १० साल से एक ही किरायेदार रह रहे थे | जिनकी सभ्यता व् शालीनता के मुहल्ले में सब कायल थे | ये महिला अपने पति से विवाद के बाद तलाक ले कर अपने पिता के घर उनके साथ रहने लगी | बेटी पर तरस खा कर पिता ने यूँहीं कह दिया की ये मकान मेरे बाद तुम्हारा होगा | पिता की मृत्यु के बाद महिला ने कच्चे पक्के दस्तावेज से अपने भाइयों से झगड़ना शुरू कर दिया | सबसे पहले तो किरायेदार से यह कहते हुए घर खाली करवाया की ये घर की मालकिन अब वह हैं और अब उन्हीं के अनुसार ही किरायेदार रहेंगे |उनकी इच्छा है की घर खाली ही रहे | किरायेदारों ने एक महीने में घर खाली कर दिया | फिर उन्होंने अपने भाई – भाभी से झगड़ना शुरू कर दिया | भाभी जो एक डॉक्टर हैं व् जिनकी मुहल्ले में सामजिक तौर पर बहुत प्रतिष्ठा है ने रोज – रोज की चिक – चिक से आजिज़ आ कर अपने परिवार समेत घर खाली कर दिया |छोटा भाई जो दिल्ली के बाहर रहता है उसके दिल्ली आने पर घर में प्रवेश ही नहीं करने दिया | शांत रहने वाले मुहल्ले में इस तरह का शोर न हो ये सोंच कर वो भाई यहाँ आने ही नहीं लगा |इतना ही नहीं मुहल्ले के लोगों को वो घर के अंदर आने नहीं देतीं | उन्हें सब पर शक रहता है , की उनके भेद न जान लें |उनके घर में फिलहाल किसी को जाने की इजाजत है तो वो हैं कामवालियां | वो भी सिर्फ बर्तन के लिए | कामवालियों के मुताबिक़ गंदे – बेतरतीब पड़े घर में वो सारा दिन कंप्यूटर पर बैठी रहती हैं | साल में एक बार बेटे के पास जाती हैं | बेटे की अपनी जद्दोजहद है पहली पत्नी के साथ तलाक हो चुका है , दूसरी के साथ अलगाव चाहता नहीं है | शायद इसी पशोपेश में वो स्वयं चार साल से भारत नहीं आया | और फिलहाल उसकी माँ अपने तीन मंजिला घर में , जिसके दो फ्लोर पूरी तरह अँधेरे में रहते हैं , अकेली रहती है |सबसे अलग , सबसे विलग | कहाँ से हो रही है अकेलेपन की शुरुआत मुहल्ले में अक्सर ये चर्चा रहती है की जिस मकान के लिए वो इतना अकेलापन भोग रही हैं वो तो उनके साथ जाएगा ही नहीं | निश्चित तौर पर ये पुत्र मोह नहीं है ये लिप्सा है | अधिक से अधिक पा लेने की लिप्सा | जब ” पैसा ही सब कुछ और रिश्ते कुछ नहीं की नीव पर बच्चे पाले जाते हैं वो बच्चे बड़े हो कर कभी अपने माता पिता को नहीं पूँछेंगे | वो भी पैसे को ही पूँछेंगे | कितना भी पैसा हो किसी का स्नेह खरीदा नहीं जा सकता | पुराने ज़माने में बुजुर्ग कहा करते थे की इंसान अपने साथ पुन्य ले कर जाता है | इसीलिए मानव सेवा रिश्ते बनाने , निभाने पर बहुत जोर दिया जाता था |पर क्या आज इस तरह रिश्ते निभाये जा रहे हैं ? क्या एक् पीढ़ी पहले रोटी के लिए शहरों आ बसे लोगों ने खुद को समेटना नहीं शुरू कर दिया था ? हमें कारण खोजने होंगे … Read more

संवेदनाओं का मीडियाकारण: नकारात्मकता से अपने व् अपने बच्चो के रिश्ते कैसे बचाएं ?

– अभी हाल में खबर आई की मुंबई की एक वृद्ध माँ का बेटा जब डेढ़ साल बाद आया तो उसे माँ का कंकाल मिला | खबर बहुत ह्रदय विदारक थी | जाहिर है की उसे पढ़ कर सबको दुःख हुआ होगा | फिर सोशल मीडिया पर ऐसी पोस्टों की बाढ़ सी आ गयी | जहाँ कपूत बेटों ने अपने माँ – बाप को तकलीफ दी हर माता – पिता ऐसी  ख़बरों को पढ़ कर भयभीत हो गए | कहीं न कहीं उन्हें डर लगने लगने  की उनका बेटा भी कपूत न निकल जाए | कहीं उन्हें भी इस तरह की किसी दुर्घटना का शिकार न होना पड़े |  इस भय के आलम में किशोर या युवा होते बच्चों पर माता – पिता ताना मार ही देते हैं ,” आज कल की औलादों से कोई उम्मीद नहीं है “, सब कपूत निकलेंगे “ , अरे , इनके लिए दिन रात कमाओ यही बुढापे में नहीं पूंछने वाले | “ क्या हम कभी सोंचते हैं की ऐसा कहते समय हमारे बच्चों के दिल पर क्या असर पड़ता होगा ? शायद नहीं , क्योंकि हम अपने मन का काल्पनिक भय उन पर थोपना चाहते हैं | एक तरह से अपने बच्चे को आज से ही बुरा बच्चा घोषित कर देना चाहते हैं ? क्या ये उसे सही संस्कार देना हुआ ? अगर हम अपने बच्चे को दूसरों की ख़बरों के आधार पर पहले से ही प्रतीकात्मक रूप में ही सही बुरा घोषित कर दें तो उनके मन में अपने लिए बुरा शब्द सुनने प्रति इम्युनिटी विकसित  हो जाती है |भविष्य में उन्हें बुरा कहा जायगा तो उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ेगा |                   ऐसी ही एक फिल्म थी “ बागवान “जिसमें बेटे बुरे थे | फिल्म अक्सर टीवी पर आती ही रहती है | एक बार अपने किशोर होते बेटे के साथ देख रही थी | बेटा बार – बार यह कह रहा था की मम्मी मैं बड़ा होकर ऐसा नहीं बनूँगा | जाहिर है वो कहीं न कहीं हर्ट फील कर रहा था और कहना चाहता था की मम्मी हर बेटा ऐसा नहीं होता | पर मेरे मन में फिल्म की नकारात्मकता भरी थी | दो दिन बाद किसी बात पर मैंने उसे डांटते हुए कहा ,” बड़े होके  तो तुम्हें पूँछना नहीं है हम लोगों को अभी सारा दिन मम्मी ये मम्मी वो कह कर सेवा करवाए रहो | सासू माँ हम लोगों की बात सुन रहीं थी | उसके जाने के बाद मुझ से बोली ,” बच्चों को हमेशा अच्छे बच्चों की नजीर दिया करो | बल्कि ये कहा करो , फिल्म में चाहें जो दिखाया हो पर “ जब बुढापे में हमारे हाथ – पाँव थकने लगेंगे तो हम कहाँ जायेंगे , तुम्हारे साथ ही तो रहेंगे |जिससे बच्चे मानसिक रूप से तैयार रहे की माता – पिता  उनके साथ रहेंगे | मुझे याद आया की जब मैं विवाह के बाद ससुराल आई थी तो सासू माँ मुझे हर अच्छी बहू के किस्से सुनाया करती थी | हालांकि मैंने शादी से पहले बुरी बहुओं के किस्से सुने थे | पर उन्होंने मुझे एक भी ऐसा किस्सा नहीं सुनाया | मुझे लगा , शायद यहाँ कोई बुरी बहू है ही नहीं  सब अच्छी बहुएं हैं तो मुझे भी अच्छी ही बनना चाहिए | यानी की बुरी बहू बनने का ऑप्शन ही मेरे पास से खत्म हो गया |  बात हंसी की जरूर लग सकती है पर हम सब या कम से कम ९५ प्रतिशत लोग सोशल नॉर्म  से प्रभावित होते हैं | व् उसी दायरे में रहना चाहते हैं | समाज से अलग – थलग छिटका  हुआ या बुरी मिसाल बन कर नहीं | इसमें वो सुरक्षित महसूस करता है |इसे सामाजिक दवाब भी कह सकते हैं पर इसी से हमारा व्यवहार संतुलित रहता है | जिसे हम संस्कार कहते हैं |  याद करिए की दादी नानी की कहानियाँ भी तो ऐसी  ही थी | की बुराई पर अच्छाई की जीत वाली | बुरा व्यक्ति चाहें जितना रसूख वाला हो पर अंत में बुराई पर अच्छाई की ही जीत होती थी | ये कहानियाँ बचपन से ही बच्चों को अच्छा बनने की ओर प्रेरित करती थी |                                 क्या आपको नहीं लगता की ये गलती तो हमारी पीढ़ी से हो रही है | हम बच्चों को शुरू से ही कहते रहते हैं की तुम चाहें जहाँ रहो हम दोनों तो यहीं रहेंगें | यानी हम शुरू से ही बच्चों को अपनी जिम्मेदारी से आज़ाद कर देते हैं | जब ये बच्चे बड़े होते हैं तो वो मानसिक रूप से तैयार होते हैं की उन्हें तो अकेले अपने भावी परिवार के साथ रहना है | व् माता – पिता को अलग रहना हैं | ऐसे में शारीरिक अक्षमताओं के चलते जब उन पर अचानक माता – पिता की जिम्मेदारी आती है तो उन्हें बोझ लगने लगता है |  ये संवेदनाओं के अति मीडियाकरण का नकारात्मक प्रभाव है | जहाँ हम बुरी खबरें देखते हैं | उन्हें ही 100 % बच्चों का  सच मान लेते हैं | खुद तो भय ग्रस्त होते ही हैं अपने बड़े होते बच्चों को बार – बार यह अहसास दिलाते हैं की पूरा समाज बुरा हो गया है |इसका उल्टा असर उसके मन पर पड़ता है की जब सब बुरे हो गए हैं तो उसके बुरा हो जाने में कोई बुराई नहीं है |यह बात सिर्फ हम अपने बच्चों से ही नहीं कहते | गली मुहल्ले सड़क और अब तो सोशल मीडिया हर जगह कहते हैं | एक नकारात्मक वातावरण बनाते हैं |  चाहते न चाहते हुए भी हम हम बड़े हो कर बुरे निकल जाने वाले बच्चों के प्रतिशत में इजाफा कर देते हैं | जरूरी है जब भी ऐसी खबरे आये | हम अपने बच्चों के साथ ( खासकर किशोर बच्चे )  ये खबर शेयर करते समय इस बात का ध्यान रखें की साथ ही उन्हें अच्छे बच्चों का भी उदहारण दें | बताये की अभी जमाना इतना खराब नहीं हुआ है | साथ ही उन पर पूर्ण विश्वास व्यक्त करना न भूले | हामारा यह विश्वास हमारे बच्चों को संस्कारों से  विमुख नहीं होने देगा |  वंदना बाजपेयी  रिलेटेड पोस्ट … … Read more