दर्द से कहीं ज्यादा दर्द की सोंच दर्दनाक होती है

दर्द की कल्पना उसकी तकलीफ को दोगना कर देती है | क्यों न हम खुशियों की कल्पना कर उसे दोगुना करें – रॉबिन हौब               एक क्लिनिक का दृश्य डॉक्टर ने बच्चे से कहा कि उसे बिमारी ठीक करने के लिए  इंजेक्शन लगेगा और वो बच्चा जोर – जोर से रोने लगा |नर्स मरीजों को इंजेक्शन लगा रही थी |  उसकी बारी आने में अभी समय था | बच्चे का रोना बदस्तूर जारी था | उसके माता – पिता उसे बहुत समझाने की कोशिश कर रहे थे की बस एक मिनट को सुई चुभेगी और तुम्हे पता भी नहीं चलेगा | फिर तुम्हारी बीमारी ठीक हो जायेगी | पर बच्चा सुई और उसकी कल्पना करने में उलझा रहा | वो लगातार सुई से चुभने वाले दर्द की कल्पना कर दर्द महसूस कर रोता रहा | जब उसकी बारी आई तो नर्स को हाथ में इंजेक्शन लिए देख उसने पूरी तरह प्रतिरोध करना शुरू किया |  नर्स समझदार थी | मुस्कुरा कर बोली ,” ठीक है मैं इंजेक्शन नहीं लगाउंगी | पर क्या तुमने हमारे हॉस्पिटल की नीले पंखों वाली सबसे बेहतर चिड़िया देखी  है | वो देखो ! जैसे ही बच्चा चिड़िया देखने लगा | नर्स ने इंजेक्शन लगा दिया | बच्चा हतप्रभ था | सुई तो एक सेकंड चुभ कर निकल गयी थी | वही सुई जिसके चुभने के भय से वो घंटा  भर पहले से रो रहा था |                 वो बच्चा था पर क्या हम सब भी ऐसे ही बच्चे नहीं हैं | क्या हम सब आने वाले कल में होने वाली घटनाओं के बारे में सोंच – सोंच कर इतने भयभीत नहीं रहते की अपने आज को नष्ट किये रहते हैं | वास्तव में देखा जाए तो जीवन में जितनी भी समस्याएं हैं | उनमें से कुछ एक को छोड़कर कल्पना में ज्यादा डरावनी होती हैं | हम बुरे से बुरे की कल्पना करते हैं और भयभीत हो जाते हैं | बुरे से बुरा सोंचने के कारण  एक नकारात्मक्ता  का  का वातावरण बनता है | यह नकारात्मकता गुस्से झुन्झुलाह्ट या चिडचिडेपन के रूप में नज़र आती हैं | जो न केवल हमारे वर्तमान को प्रभावित करती है बल्कि हमारे रिश्तों को भी ख़राब कर देती है |कभी आपने महसूस किया है की हम अपने अनेक रिश्ते केवल इस कारण खो देते हैं क्योंकि हम उनकी छोटी से छोटी बात का आकलन करते हैं | और उन्के बारे में बुरे से बुरी राय बनाते हैं |फलानी चाची अपनी परेशानी से जूझ रही है | हमारे घर जाते ही उन्होंने वेलकम स्माइल नहीं दिया | हमने उनसे उनकी समस्या पूंछने के बाजे मन ही मन धारणा बना ली की वो तो हमारी नयी गाडी , साडी या पर्स देखर जल – भुन गयीं | इस कारण हमें देख कर मुस्कुराई भी नहीं | अगली बार बदला लेने की बारी हमारी | वो हमारे घर आयेंगी तो हम भी नहीं मुस्कुराएंगे |  इस तरह बात साफ़ करने के स्थान पर  उस राय के कारण हम खुद ही एक दूरी बढाने लगते हैं |  जिसका दूरगामी प्रभाव पड़ता है |रिश्ता कच्चे धागे सा टूट जाता है | रिश्तों की भीड़ में हम अकेले होते जा रहे हैं | पर इसका दोष क्या हमारे सर नहीं है | बात केवल किसी के घर जाने की नहीं है | बच्चा पढ़ेगा कैसे , लड़की देर से आई कहीं बिगड़ न गयी हो , हेल्थ प्रोग्राम देख कर बार बार सोंचना की कहीं यह बिमारी हमें तो नहीं है या हमें न हो जाए | सब मिलकर एक नकारात्मक वातावरण बनाते हैं | हो सकता है ऐसा कुछ न हो पर हम सोंच में उन विपरीत परिस्तिथियों को साक्षात महसूस करने लगते हैं | भय और नकारात्मकता का वातावरण बना लेते हैं |  क्यों नहीं हम हर  बात में कोई अच्छाई  ढूंढें या कम से कम संदेह  का लाभ दे दें | देखा जाए तो  भविष्य की कल्पना एक ऐसा हथियार है ,जो ईश्वर प्रदत्त वरदान है |  जिससे हम आने वाले खतरे के प्रति सचेत होकर अपनी तैयारी कर सके न की बुरे से बुरा सोंच कर वास्तविक परिस्तिथियों से कहीं ज्यादा तकलीफ भोग सकें|  अब जैसा की  श्री देसाई का तरीका है |उनके सीने के पास एक गाँठ महसूस हुई | जब डॉक्टर को दिखाने गए तो  डॉक्टर ने उसको बायोप्सी करने को कहा | उसकी पत्नी चिंतित हो गयी | बुरे से बुरे की कल्पना कर वो रोने लगीं |श्री देसाई ने  हँसकर  अपनी पत्नी से कहा | अभी क्यों चिंता कर रही हो | अभी कैंसर निकला तो नहीं | हो सकता है गाँठ बिनाइन हो और कैंसर निकले ही ना | फिर ये सारे  आँसूं बेकार हो जायेंगें |अभी  का पल तो मत खोओ  |  कल  जो होना है वो होना है | तो क्यों न हम अच्छी से अच्छी कल्पना करके अपने वर्तमान को दोगुनी खुशियों से भर दें |                        फैसला आप पर है !!!  वंदना बाजपेयी  प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद

निर्णय लो दीदी ? ( ओमकार भैया को याद करते हुए )

                              happy  raksha bandhn , कार्ड्स मिठाइयाँ और चॉकलेट के डिब्बों से सजे बाजारों के  बीच कुछ दबी हुई सिसकियाँ भी हैं | ये उन बहनों  की  हैं जिनकी आँखें राखी से  सजी दुकानों को देखते ही डबडबा जाती  हैं   और आनायास  ही मुँह  फेर  लेती हैं | ये वो अभागी  बहनें  हैं जिन्होंने जीवन के किसी न किसी मोड़ पर अपने भाई को खो दिया    है | भाई – बहन का यह अटूट बंधन ईश्वर की इच्छा के आगे अचानक से टूट कर बिखर गया | अफ़सोस उन बहनों में इस बार से मैं भी शामिल हूँ | भाई , जो भाई तो होता ही है पुत्र , मित्र और पिता की भूमिका भी समय समय पर निभाता है | इतने सारे रिश्तों को एक साथ खोकर खोकर मन का आकाश बिलकुल रिक्त हो जाता है | यह पीड़ा न कहते बनती है न सहते | लोग कहते हैं की भाई बहन का रिश्ता अटूट होता है | ये जन्म – जन्मांतर का होता है | ये जानते हुए भी की  ओमकार भैया की कलाई पर राखी बाँधने और उनके मुँह में मिठाई का बड़ा सा टुकड़ा रखने का सुख अब मुझे नहीं मिलेगा मैं बड़ों के कहे अनुसार पानी के घड़े पर राखी बाँध देती हूँ | जल जो हमेशा प्रवाहित होता रहता है , बिलकुल आत्मा की तरह जो रूप और स्वरुप बदलती है परन्तु स्वयं अमर हैं | राखी बांधते समय आँखों में भी जल भर जाता है | दृष्टि धुंधली हो जाती है | आँखे आकाश की तरफ उठ जाती हैं और पूँछती हैं…”भैया आप कहाँ हैं ?”                                                        मैं जानती हूँ की बादलों की तरह उमड़ते – घुमड़ते मन के बीच में अगर ओमकार भैया के ऊपर कुछ लिखती हूँ तो आँसुओं का रुकना मुश्किल है , नहीं लिखती हूँ तो यह दवाब सहना मुश्किल है | 16 फरवरी को ओमकार भैया को हम सब से छीन ले जाने वाली मृत्यु उनकी स्मृतियों को नहीं छीन सकीं बल्कि वो और घनीभूत हो गयी | तमाम स्मृतियों में से एक स्मृति आप सब के साथ शेयर कर रही हूँ |                                                                          बात अटूट बंधन के समय की है |    कहते हैं  बहन छोटी हो या बड़ी ममतामयी ही होती है | और भाई छोटा हो या बड़ा , बड़ा ही होता है |  बचपन से ही स्वाभाव कुछ ऐसा पड़ा था की अपनी ख़ुशी के आगे दूसरों की ख़ुशी को रख देती | अपने निर्णय के आगे दूसरों के निर्णय को | उम्र के साथ यह दोष और गहराता गया | हर किसी के काम के लिए मेरा जवाब हां ही होता | जैसे मेरा अपना जीवन अपना समय है ही नहीं | मैं व्यस्त से व्यस्ततम होती चली जा रही थी | कई बार हालत यह हो जाती की काम के दवाब में  घडी की सुइंयों के कांटे ऐसे बढ़ते जैसे घंटे नहीं सिर्फ सेकंड की ही सुइयां हों | काम के दवाब में कई बार सब से छुप कर रोती भी पर आँसूं पोंछ कर फिर से काम करना मुझे किसी का ना कहने से ज्यादा आसान लगता |                                        भैया हमेशा कहा करते की दीदी हर किसी को हाँ मत कहा करो | अपने निर्णय खुद लिया करो | पर मैं थी की बदलने का नाम ही नहीं लेती | शायद ये मेरी कम्फर्ट ज़ोन बन गयी थी जिससे बाहर आने का मैं साहस ही नहीं कर पा रही थी | बात थी अटूट बंधन के slogan की | मैंने ” बदलें विचार , बदलें दुनिया ” slogan रखा | भैया ने भी कुछ slogan सुझाए थे | मुझे अपना ही slogan सही लग रहा था | पर अपनी आदत से मजबूर मैंने भैया से कहा ,” भैया , जो आप को ठीक लगे | वही रख  लेते हैं | भैया बोले ,” दीदी आज कवर पेज फाइनल होना है , शाम तक और सोंच लीजिये | मैंने हां कह दिया | शाम को भैया का फोन आया ,” दीदी क्या slogan रखे | मैंने कहा ,” भैया जो आप को पसंद हो , सब ठीक हैं | दीदी एक बताइये , भैया का स्वर थोडा कठोर था | सब ठीक हैं भैया मेरा जवाब पूर्ववत था | भैया थोडा तेज स्वर में बोले ,” दीदी , निर्णय लीजिये , नहीं तो आज कवर पेज मैं फाइनल नहीं करूँगा | आगे एक हफ्ते की छुट्टी है | मैगज़ीन लेट हो जायेगी | फिर भी ये निर्णय आपको ही लेना है | निर्णय लो दीदी | मैंने मैगजीन का लेट होना सोंच कर तुरंत कहा ,” भैया बदलें विचार – बदलें दुनिया ‘ ही बेस्ट है | मैगजीन छपने चली गयी | लोगों ने slogan बहुत पसंद किया | बाद में भैया ने कहा ,” दीदी जीवन अनिश्चिताओं से भरा पड़ा है | ऐसे में हर कदम – कदम हमें निर्णय लेने पड़ते हैं | कुछ निर्णय इतने मामूली होते हैं की उन का हमारी आने वाली जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता | पर कुछ निर्णय बड़े होते हैं | जो हमारे आने वाले समय को प्रभावित करते हैं | ऐसे समय में हमारे पास दो ही विकल्प होते हैं | या तो हम अपने मन की सुने | या दूसरों की राय का पालन करें | जब हम दूसरों की राय का अनुकरण करते हैं तब हम कहीं न कहीं यह मान कर चलते हैं की दूसरा हमसे ज्यादा जानता है | इसी कारण अपनी ” गट फीलिंग ” को नज़र अंदाज़ कर देते हैं | अनिश्चितताओं से भरे जीवन में कोई भी निर्णय फलदायी होगा … Read more

एक राजकुमारी की कहानी

मित्रों , मैं बचपन में कहानी में सुना करती थी | एक राजकुमारी की  , जैसा की राजकुमारियों की कहानी में होता है | वो बहुत सुन्दर थी | बिलकुल परी  की तरह और जब हंसती तो उसके सुन्दर मुख की शोभा सौ गुनी बढ़ जाती | हां वो  बहुत संवेदनशील भी बहुत थी  | किसी की जरा सी बात से उसका मन द्रवित हो जाता |घंटों रोती उसका दुःख दूर करने का प्रयास करती |  जाहिर है किसी भी संवेदनशील व्यक्ति के लिए ये तो सामान्य बात है | अब असामान्य बात ये थी की जब वो रोती थी तो मोती झरते थे , हंसती थी तो फूल | यहाँ से उसकी मुसीबत शुरू हुई | ये  बात पूरे राज्य में जंगल की आग की तरह फ़ैल गयी |  अब तो लोग उससे मिलने आते और बात बिना बात उसे रुला दिया करते |फिर मोती  बटोर कर ले जाते |  हंसाने वाले दो एक ही होते | आप सोंच रहे होंगे ऐसा क्यों ? कारण स्पष्ट था | . फूल तो हर जगह मिल जाते हैं  पर मोती तो बहुत प्रयास से बनते हैं और उससे ज्यादा प्रयास से मिलते हैं |रोज – रोज रोने से राजकुमारी परेशान रहने लगी | वो भी हँसना चाहती थी खिलखिलाना चाहती थी | पर कैसे |  एक दिन एक साधू उस राज्य में आया | राजकुमारी ने उससे मिलने का निश्चय किया | राजकुमारी ने साधू के पास पहुँच कर अपनी समस्या बतायी | साधू उसकी समस्या सुन कर बोला ,” तुम रोया मत करो , सिर्फ हंसा करो | हाँ लोगों की मदद अवश्य करो पर आँसूं एक न निकले | स्वाभाव में परिवर्तन पर ये मोती सूखने लगेंगे और निकलना भी बंद हो जाएगे |  राजकुमारी ने साधू की सलाह पर अमल किया | अब वो हँसती , खूब हँसती , लोगों की मदद भी करती पर रोती बिलकुल भी नहीं | सारा राज्य खुशबु वाले रंग बिरंगे फूलों से भर गया | पूरा वातावरण खुशनुमा हो गया | लोग खुश थे | अब कोई उसे रुलाने नहीं आता | क्योंकि सबकों पता था की अब राजकुमारी को रुलाने से क्या फायदा | न वो रोएगी न ही मोती निकलेंगे |  friends ,  ये कहानी प्रतीकात्मक है | ये कहानी अति संवेदनशील लोगों के ऊपर है |  जिन्दगी के अनुभव सिखाते हैं की  अगर हमारे रोने से किसी को फायदा हो रहा है तो वो रुला – रुला कर ही मार डालेगा | आस – पास नज़र डालिए तो पायेंगे की की  लोग अति संवेदनशील  लोगों का अक्सर लोग फायदा उठाते हैं | सिम्पैथी ले कर अपना काम निकलवाते हैं | किसी की मदद करना अच्छी बात है पर इस बात का ध्यान रखे की कोई हमारा फायदा न उठा पाए |  बेहतर है हँसने और रोने दोनों में फूल ही झरे मोती बिलकुल नहीं | वंदना बाजपेयी  रिलेटेड पोस्ट… खीर में कंकण जमीन में गड़े हैं शैतान का सौदा अच्छी मम्मी , गन्दी मम्मी

” ब्लू व्हेल ” का अंतिम टास्क

पापा मेरे मैथ्स के सवाल हल करने में मुझे आपकी मदद चाहिए | नहीं बेटा आज तो मैं बहुत बिजी हूँ , ऐसा करो संडे  को  तुम्हारे साथ बैठूँगा | पापा , न जाने ये संडे कब आएगा | पिछले एक साल से तो आया नहीं | बहुत फ़ालतू बाते करने लगा है | अभी इतना बड़ा नहीं हुआ है की पिता से जुबान लड़ाए | देखते नहीं दिन – रात तुम्हारे लिए ही कमाता रहता हूँ | वर्ना मुझे क्या जरूरत है नौकरी करने की | मम्मा रोज चीज ब्रेड ले स्कूल लंच में ले जाते हुए ऊब होने लगी है ,दोस्त भी हँसी उड़ाते हैं |  क्या आप मेरे लिए आज कुछ अच्छा बना देंगीं | नहीं बेटा , तुम्हें पता है न सुबह सात बजे तक तुम्हारा लंच तैयार करना पड़ता हैं | फिर मुझे तैयार हो कर ऑफिस जाना होता है | शाम को लौटते समय घर का सामान लाना , फिर खाना बनाना | कितने काम हैं मेरी जान पर अकेली क्या क्या करु | आखिर ये नौकरी तुम्हारे लिए ही तो कर रही हूँ | ताकि तुम्हें बेहतर भविष्य दे सकूँ | कम से कम तुम सुबह के नाश्ते में तो एडजस्ट कर सकते हो |                                                                                                                सुपर बिजी रागिनी और विक्रम का अपने १२ वर्षीय पुत्र देवांश से ये वार्तालाप सामान्य लग सकता है | पर इस सामान्य से वार्तालाप से देवांश के मन में उपजे एकाकीपन को  उसके माता – पिता नहीं समझ पा रहे थे | तो किसी और से क्या उम्मीद की जा सकती है | स्कूल से आने के बाद देवांश घर में बिलकुल अकेला होता | कभी सोफे पर पड़ा रहता , तो कभी मोबाइल लैपटॉप पर कुछ खंगालता , कभी रिमोट से टी वी चैनल बदलता | उसे घर एक कैद खाना सा लगता पर माता – पिता की अपने एकलौते पुत्र की सुरक्षा के लिए  घर से बाहर न निकलने की इच्छा उसे मन या बेमन से माननी ही पड़ती | बाहर दोस्त खेलने को बुलाते पर वो  कोई बहाना बना कर मोबाइल में बिजी हो जाता | देवांश पढाई में भी पिछड़  रहा था | ये ऊब भरी जिंदगी उसे निर्थक लग रही थी | उसके लिए जिंदगी बोरिंग हो चुकी थी | जहाँ कोई एक्साईटमेंट नहीं था |                                            जिन्दगी की लौ फिर से जलाने के लिए वो नए – नए मोबाइल गेम्स खेलता रहता | ऐसे ही  उसकी नज़र पड़ी एक नए गेम पर , जिसका नाम था ब्लू व्हेल | यूँ तो ब्लू व्हेल संसार का सबसे बड़ा जीव है | पर इस गेम का नाम उस पर रखने के पीछे एक ख़ास मकसद था | क्योंकि ये ब्लू व्हेल समुद्र मैं तैरती नहीं थी | जिन्दिगियाँ निगलती थी ,पूरी की पूरी | इसका आसान शिकार थे जिन्दगी से ऊबे हुए लोग | खासकर किशोर व् बच्चे | इस गेम में प्रतियोगियों को ५० दिन में ५० अलग – अलग टास्क पूरे करने होते हैं |और हर टास्क के बाद अपने हाथ पर एक निशान बनाना होता है | इस गेम का आखिरी टास्क होता है आत्महत्या |                                 जिंदगी की चिंगारी जलाने की चाह  ब्लास्ट तक ले जा सकती है इस बात से अनभिज्ञ देवांश ने यह गेम खेलना शुरू किया | उसे बहुत मजा आ रहा था | पहला टास्क जो उसे मिला वो था रात में हॉरर मूवी देखने का | वो भी अकेले | देवांश सबके सो जाने के बाद चुपचाप दूसरे कमरे में जा कर फिल्म  देखने लगा | डर से उसके रोंगटे खड़े हो गए | पर  आखिरकार उसने फिल्म देख ही ली | जीत के अहसास के साथ उसने अपने हाथ पर निशान बना दिया | सुबह रागिनी ने हाथ देखा तो देवांश ने उसे बताया माँ ट्रुथ एंड डेयर का एक खेल खेल रहा था ” ब्लू व्हेल ” बहुत मजा आया | रागिनी सुरक्षा के साथ खेल खेलने की ताकीद दे कर अपने काम में लग गयी | इससे ज्यादा कुछ कहने  का समय रागिनी के पास कहाँ होता था |                                  देवांश का व्यवहार बदल रहा था | रागिनी व् विक्रम  महसूस कर रहे थे | कुछ टोंकते तो भी देवांश उनकी बात अनसुनी कर देता | रागिनी ने उसे पढाई के बहाने टोंका तो देवांश ने बताया ,” मम्मा आज मेरे गेम का अंतिम टास्क है | यह पूरा हो जाए फिर कल से पढूंगा | रागिनी  निश्चिन्त हो कर ऑफिस चली गयी | ऑफिस में आज माहौल  कुछ दूसरा ही था | सभी लोग कुछ चिंतित थे | रागिनी ने महसूस किया की आज वो ऑफिस के सहकर्मी नहीं बस माता – पिता थे | जो अपने बच्चों के वीडियो गेम्स खेलने पर चिंतित थे | अब बच्चे हैं तो वीडियो गेम खेलेंगे ही यह सोंच कर रागिनी ने उनकी बातों पर ध्यान न देकर अपने काम पर फोकस करने का मन बनाया | आखिर माता – पिता हैं तो चिंता तो करेंगे ही |                     एक बजे लंच ब्रेक में उसने अपनी सहकर्मी मोहिनी से कहा ,” क्या बात है आज सभी को अपने बच्चों की टेंशन है | मोहिनी दीवार पर आँखे गड़ा कर लंबी सांस लेते हुए बोली ,” क्यों न हो , आज हम सब यहाँ पैसा कमाने में जुटे  हैं , की बच्चों भविष्य सुनहरा हो , वहां घर पर हमारे बच्चे मोबाइल , लैप टॉप पर अपनी जान खतरे में डाल रहे हैं | क्या मतलब ? मोबाइल लैप टॉप पर समय … Read more

इम्पोस्टर सिंड्रोम – जब अपनी प्रतिभा पर खुद ही संदेह हो

इम्पोस्टर सिंड्रोम  एक साइकोलोजिकल  बीमारी है | जिसमें व्यक्ति अपनी प्रतिभा पर संदेह करता है |  इम्पोस्टर सिंड्रोम शब्द का  पहली बार क्लिनिकल साईं कोलोजिस्ट डॉ . पौलिने न क्लेन ने १९७८ में इस्तेमाल किया था | अगर इम्पोस्टर के शाब्दिक अर्थ पर जाए तो सीधा सदा मतलब है धोखेबाज | सिंड्रोम का शाब्दिक अर्थ है लक्षणों का एक सेट | कोई हमें धोखा दे उसे धोखेबाज़ कहना स्वाभाविक है | पर यहाँ व्यक्ति खुद को धोखेबाज समझता है | इस तरह यहाँ धोखा किसी दूसरे को नहीं खुद को दिया जा रहा है | दरसल इम्पोस्टर सिंड्रोम एक विचित्र मानसिक बीमारी है | जिसमें प्रतिभाशाली व्यक्ति को अपनी प्रतिभा पर ही भरोसा नहीं होता है | ऐसे व्यक्ति बहुत सफल होने के बाद भी इस भावना के शिकार रहते हैं की उन्हें सफलता भाग्य की वजह से मिली है | बहुत अधिक सफलता के प्रमाणों के बावजूद उन्हें लगता है की वो इस लायक बिलकुल नहीं हैं | वो दुनिया को धोखा दे रहे हैं | एक न एक दिन वो पकडे जायेंगे | इस कारण वो लागातार भय में जीते हैं | यह ज्यादातर सार्वजानिक क्षेत्रों में काम करने वालों को होता है | महिलाएं इसकी शिकार ज्यादा होती हैं | इम्पोस्टर सिंड्रोम से ग्रस्त प्रसिद्द महिलाएं आपको जान कर आश्चर्य होगा की अनेकों प्रसिद्द महिलाएं  जिन्होंने अपने अपने क्षेत्रों  में विशेष सफलता हासिल की वह इम्पोस्टर सिंड्रोम से ग्रस्त रहीं | उदाहरण के तौर पर माया एंजिलो , एमा वाटसन , मर्लिन मुनरों बेस्ट सेलिंग राइटर नील गेमैन ,जॉन  ग्रीन आदि इम्पोस्टर सिंड्रोम से ग्रस्त महिलाओं के खास लक्षण जैसा की पहले बताया जा चुका है इम्पोस्टर सिंड्रोम ज्यादातर प्रतिभाशाली महिलाओ को होता है | इसके कुछ ख़ास लक्षण निम्न हैं | कठोरतम परिश्रम गिफ्टेड महिलाएं ज्यादातर कठोर परिश्रमी होती हैं | क्योंकि उन्हें लगता है की अगर वो कम परिश्रम करेंगी तो पकड़ी जायेंगी | इस कठोर परिश्रम के कारण उन्हें और ज्यादा सफलता व् तारीफे मिलती हैं जिससे वो पकडे जाने के भय से और डर जाती हैं फिर उस्ससे भी ज्यादा कठोर परिश्रम करने लगती हैं | वो सामान्य महिलाओं से दो –तीन गुना ज्यादा काम करती हैं | व् जरूरत से ज्यादा प्रिप्रेशन , जरूरत से ज्यादा सोचना , जरूरत से ज्यादा सतर्क रहती हैं | जिससे वो अक्सर एंग्जायटी  व् नीद की कमी से ग्रस्त रहती हैं | फेक व्यक्तित्व इन महिलाओं को क्योंकि अपनी प्रतिभा पर भरोसा नहीं होता इसलिए जब उनके सुपिरियर्स या बॉस कुछ कहते हैं तो अपनी स्पष्ट राय न रख कर हाँ में हां मिला देती हैं | ऐसा नहीं है की उनमें निरनय लेने कीक्षमता नहीं होती पर उन्हें लगता हैं वो कभी सही नहीं हो सकती | इसलिए वो दूसरों की राय  पर मोहर लगा देती हैं |पर यह बात उन्हें अन्दर ही अन्दर और फेक होने का अहसास कराती है | सुन्दरता की प्रशंसा  से एक भय ज्यादातर यह गिफ्टेड महिलाएं खूबसूरत होती हैं | इनका चरम दूसरे पर असर डालता है |अक्सर उन्हें उनकी प्रतिभा के साथ – साथ उनकी सुन्दरता के कारण भी तारीफे मिलती हैं | शुरू में तो इस बात का वह प्रतिरोध नहीं करती | परन्तु जब बाद में उनको ज्यादा प्रशंसा मिलने लगती है तो उन्हें लगने लगता है की अगला व्यक्ति उनकी सुन्दरता से प्रभावित है न की उनकी प्रतिभा से |लिहाजा  उनका झूठी प्रतिभा की  पोल खुल जाने का और  भय और बढ़ जाता है | अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन करने से बचती हैं इम्पोस्टर सिंड्रोम से ग्रस्त महिलाएं अपने आत्मविश्वास का प्रदर्शन करने से बचती हंन | उन्हें लगता है अगर वो आत्म विश्वास का प्रदर्शन करेंगी तो लोग उनकी खामियां ढूँढने में जुट जायेंगे | व् उनका फेक होना पकड लेंगे व् उन्हें अस्वीकार कर देंगे | इसलिए वह अपने मन में यह धरनणा  गहरे बैठा लेती हैं की वो इंटेलिजेंट नहीं हैं यह सफलता केवल उन्हें भाग्य के दम पर मिली है | इम्पोस्टर सिंड्रोम का मेनेजमेंट इम्पोस्टर सिंड्रोम का कोई ज्ञात बीमारी नहीं है यह केवल साइकोलोजिकल सिम्टम होते हैं जिन्हें मेनेज किया जा सकता है | स्वीकार करिए                            किसी भी बीमारी से निकलने के लिए सबसे ज्यादा जरूरी है की आप उसे स्वीकार करें | जब हम स्वीकार करते हैं तब उसका इलाज़ ढूंढते हैं | अत : स्वीकार करिए की अपनी प्रतिभा पर संदेह आप एक मानसिक रोग के कारण कर रहे हैं जिसे उचित काउंसिलिंग द्वारा ठीक किया जा सकता है |  ध्यान – इम्पोस्टर सिंड्रोम से बचने का सबसे सरल उपाय है ध्यान या मेडिटेशन | इसके द्वारा आप अपने विचारों पर कंट्रोल करना सीखते हैं | दरसल हमारी परेशानी का कारण हमारे विचार होते हैं | अपने विचारों पर नियंत्रण करके भय की फीलिंग से निकला जा सकता है | अपने भय को जीतना सीखिए ११ किताबें लिखने के बाद भी मुझे लगता था की अब की बार पाठक मुझे पकड़ लेंगे | वह जान जायेंगे की मैं योग्य नहीं हूँ मैं उनके साथ गेम खेल रही हूँ |माया एंजिलो ( अवार्ड विनिग राइटर ) इम्पोस्टर सिंड्रोम से ग्रस्त व्यक्ति  अगर इस बात से भयभीत रहतें हैं की एक दिन उनका झूठ पकड़ा जाएगा | तो इससे निकलने का एक ही सर्वमान्य उपाय है | अपना आकलन खुद करें | जब भी स्टेज पर जाए यह सोचे यह भीड़ आपको सुनने के लिए आई है | अपने अन्दर गर्व महसूस करिए और अकेले में भी विजेता की तरह दिखिए ( बॉडी लेंगुएज  से ) व् बोलिए जैसे भीड़ के सामने हो | एक्सपर्ट बनिए एक कॉपी निकाल कर लिखिए आप के लिए एक्सपर्ट का क्या मतलब है | क्या वो बेस्ट गायक हो , लेखक हो , नेता हो , या उसे अवार्ड मिले हों | फिर अपना मूल्याङ्कन करिए क्या आप के पास वो चीजे हैं ……….अवश्य होंगी | अगर आप निश्चय करतें है तो किताब लिखिए , गायन , अभिनय या जिस क्षेत्र में हों करिए | अवार्ड पाने के लिए नाम भेजिए | निश्चित ही आप को मिलेगा | सफलता विफलता को लिखिए                … Read more

नारी मन – ये खाना – खाना क्या लगा रखा है ?

जब भी आँखें बंद करके माँ को याद करती हूँ तो कभी कमर पर पल्लू कस कर पूरी तलते हुए , तो कभी सिल बटने पर चटनी या मसाला पीसते हुए तो कभी हमारे पीछे लंच बॉक्स ले कर दौड़ते हुए , यही दृश्य याद आते हैं | इससे इतर माँ का कोई रूप ध्यान ही नहीं आता | शायद माँ भी जब अपनी माँ को याद करती होंगी या नानी अपनी माँ को या मेरी बेटी मुझे उसे माँ का यही रूप दिखाई देता होगा | भले ही रसोई और पहनावा अलग –अलग हो पर माँ और भोजन या  पोषण शब्द एक दूसरे में घुल –मिल गए हैं | पर आज मुझे कोई दूसरी माँ ही याद आ रही हैं | एक टी वी धारावाहिक की माँ |                            काफी समय बीत गया है जब टी वी पर एक धारावाहिक आया करता था |  नाम तो ठीक से याद नहीं  शायद जिंदगी … से शुरू होता था | उसमें अरुणा ईरानी  मुख्य घरेलू माँ की भूमिका में थीं | और कहानी भी घर –परिवार और उससे जुडी समस्याओं पर थी | उसी में एक एपिसोड में अरुणा ईरानी ( घर की मुख्य स्त्री पात्र ) थोडा देर से उठती है | भाग –भाग कर जल्दी जल्दी नाश्ता तैयार करती है | पर पति और बच्चे मुझे लेट हो जाएगा , मुझे लेट हो जाएगा कहते हुए बिना खाए और बिना लंच लिए चले जाते है | एक पराजित सिपाही की तरह नायिका हाथों में टोस्ट और आँखों में आँसू  लिए खड़ी  रह जाती है | तभी उसकी सहेली आती है उसे समझाती है की वो सब बाहर कुछ खा लेंगे , पर तू  शायद दिन भर कुछ नहीं खाएगी |  तू  हर समय परिवार के बारे में सोंचती है कुछ अपने बारे में भी सोंच | अपनी जिंदगी के बारे में भी सोंच |         इस धारावाहिक को आज याद करने की ख़ास वज़ह भी है | दरसल मैं अपनी सहेली के घर गयी हुई थी | वो भाग भाग कर खाना बना रही थी , साथ ही साथ अभी लायी दो मिनट रुकिए कहती जा रही थी | तभी उसके पति ,”मैं जा रहा हूँ “कहते हुए जाने लगे |  जी खाना , उसके प्रश्न पर एकदम बिफर पड़े क्या खाना , खाना लगा रखा है ?  मुझे देर हो रही है | उनके जाते ही सुधा के सब्र का बाँध टूट पड़ा | इतनी कोशिश करती हूँ इतने तरीके से बनाकर खिलाती हूँ | ऐसे ही क्या खाना  –खाना लगा रखा है कहकर चल देते हैं , फिर मुझसे एक कौर भी खाया नहीं जाता |  मुझे क्यों झिडकते हैं इस तरह से , बताओ ?  उसके इस प्रश्न पर उस समय तो मैं चुप रही | यूँहीं इधर उधर की बातें कर घर आ गयी | पर घर में यह प्रश्न मुझे मथता रहा | क्यों एक घरेलू  औरत की जिंदगी आखिर तुम करती क्या हो से क्या खाना खाना लगा रखा हैं के दो दरवाजों की सांकल खोलने में बीत जाती हैं | इन  बंद दरवाजों के बीच वो एक अपराधी, एक कैदी की तरह जीती है | जरूर पढ़ें – फेसबुक और महिला लेखन  खाने के माध्यम से उसके द्वारा की गयी देखभाल उसका स्नेह पराजित होता है फिर भी वो अगले दिन उसी तरीके से अपने को व्यक्त करती है क्यों ? शायद धरती से जो नारी की तुलना की गयी है वो व्यर्थ नहीं हैं | कितने हल चलते हैं , कितना रौंदा जाता है पर धरती इनकार नहीं करती फिर , फिर उपजाती  है नए –नए फूल –  फल | भूखी  न रहे उसकी संताने |                         बच्ची हो या बड़ी वस्तुतः नारी एक माँ है और सबको पोषित करना उसका संतोष | एक स्त्री को भी नहीं पता होता की उसके जन्म लेने के कुछ समय बाद ही एक माँ उसके अन्दर जन्म ले लेती है | तभी तो कोई नहीं सिखाता पर वो पहला खिलौना गुडिया चुनती है | उसको होती है गुड़िया की भूख की चिंता | माटी  के बर्तनों में कुछ झूठा –सच्चा पका कर खिला देती है उसे समय –समय पर | कुछ बड़ी होती है तो उसे होने लगती है चिंता पिता की |  बाबा घर आये हैं तो उन्हें  पानी देना है , और नन्ही हथेलियों के बीच बड़ा सा गिलास थाम  कर छलकाते –छलकाते पहुँच जाती है बाबा के पास , गुटकती  है घूँट –घूँट संतुष्टि | फिर बड़ी होती है तो अपने हिस्से का खाना भाई की थाली में डाल  देती है | खाने से ज्यादा खिलाने में संतोष होता है |          झूठ नहीं कहते नारी अन्नपूर्णा है | सबको पोषित करना उसका स्वाभाव है | जब उसका नन्हा शिशु उसकी अपनी रचना उसकी गोद में आ जाती है… तो उसकी सारी  दुनिया भोजन और पोषण के इर्द –गिर्द घूमने लगती है |नन्हे नटखट का ठुमक कर आगे बढ़ जाना और माँ का कौर लिए पीछे घूमना देखने वाले को भी वात्सल्य से भर देता है | जब समय पंख लगा कर उड़ जाता है बच्चों और पति की व्यस्तताएं बढ़ जाती हैं और प्राथमिकताएं बदल जाती हैं | नहीं बदलता है तो एक माँ का भोजन के माध्यम से अपने स्नेह को व्यक्त करने का भाव |  जरा रुकना और सोचना किसी भोजन से भरी थाली को नहीं किसी स्नेह से भरी थाली को ठुकराते हो , जब तुम कहते हो , “ क्या खाना –खाना लगा रखा है “ वंदना बाजपेयी   रिलेटेड पोस्ट  बंद तहखानों को भी जरूरत है रोशिनी की स्त्री देह और बाजारवाद नौकरी वाली बहू नाबालिग रेप पीडिता को मिले गर्भपात कराने का अधिकार

#NaturalSelfi ~ सुंदरता की दुकान या अवसाद का सामान

                                                   #NaturalSelfi,ये मात्र एक शब्द नहीं एक अभियान हैं | पिछले कुछ दिनों से इस हैशटैग से महिलाएं  फेसबुक पर अपनी तसवीर पोस्ट कर रहीं  हैं| यह मुहीम बाजारवाद के खिलाफ है |  इस मुहिम की शुरुआत की है  गीता यथार्थ यादव ने |   बाजार जिस तरह सौंदर्यबोध को प्रचारित कर रहा है और मेकअप प्रोडक्ट बेचे जा रहे हैं, उसके खिलाफ यह महिलाओं को ऐलान है कि वे बिना मेकअप के भी सुंदर हैं |                             सुन्दरता के इस चक्रव्यू में महिलाओं को फंसाने का काम सदियों से चला आ रहा है |आज भी ये शोध का विषय है की क्लियोपेट्रा  किससे  नहाती थी | आज भी सांवली लड़की पैदा हिते ही माता – पिता के चेहरे उतर जाते हैं की उसका ब्याह कैसे करेंगे | योग्य वर कैसे मिलेगा ? बचपन से ही उसका आत्मसम्मान बुरी तरह कुचल दिया जाता है | और शुरू होता है लड़की को स्त्री बनाने की साजिश | उसमें मुख्य भूमिका अदा करता है उसका सौन्दर्य |  यह माना जाता रहा है की सुन्दरता स्त्री के अन्य गुणों के ऊपर है या कम से कम साथ तो है ही | दुर्भाग्य है की स्त्री शिक्षा व् जागरूकता के साथ – साथ  एक नया कांसेप्ट आया ब्यूटी विद ब्रेन का | बाजारवाद  ने इसको हवा दे दी | मतलब स्त्री ब्रेनी है तो भी  उसके ऊपर ख़ूबसूरती बनाये रखने का दवाब भी है | ये दवाब है खुद को नकारने का , बाज़ार के मानकों में फिट होने का , ऐसी स्किन , ऐसे हेयर और ऐसी फिगर …. इन सब  के बीच अपना करियर , अपनी प्रतिभा अपना हुनर बचाए रखने की जद्दोजहद |                                           एक तरफ हम सुखी जीवन जीने के लिए self love को प्रचारित करते हैं | वहीँ मेकअप कम्पनियां स्त्री को खुद को कमतर समझने और हीन भावना भरने की जुगत में लगी  रहती हैं |  ये आई ब्रो के बाल तोड़ने से पहले आत्मविश्वास तोड़ने का काम करती हैं | ये ख़ुशी की बात हैं की आज महिलाएं खुद आगे आई हैं | उन्होंने न सिर्फ इस जाल को समझा है बल्कि उसे नकारना भी शुरू किया है |                                                                      बहुत पहले  इसी विषय पर कविता लिखी थी … ” सुन्दरता की दु कान या अवसाद का सामान ” | आज ये #NaturalSelfi अभियान उसी दर्द का मुंहतोड़ जवाब है |  देश की राजधानी में  हर छोटी -बड़ी गली नुक्कड़ में  कुकुरमुत्ते की तरह उगी हुई हैं  सौंदर्य  की दुकाने जो सुंदरता के पैकेट में  बेचती हैं अवसाद का सामान  असंतोष तुलना और हीनभावना  यहाँ आदमकद शीशों के सामने  बैठी मिल ही जाती है  सात से सत्तर साल की  स्नोवाइट की अम्माएं  पल -प्रतिपल पूँछती  बता मेरे शीशे “सबसे सुन्दर कौन “ शीशे के मुँह खोलने से पूर्व  आ जाती हैं परिचारिकाएं  कहती हैं मुस्कुराते हुए  ठहरो……….  मैं बनाती हूँ तुम्हें “सबसे सुन्दर “ भौहों को तराशती  चेहरे नाक ठोढ़ी  की मसाज करती  पिलाती जाती हैं घुट्टी  धीरे -धीरे  देह के आकर्षण की  कितना आवश्यक है सुन्दर दिखना  कि खूबसूरत चेहरा है  एक चुम्बक  प्रेम की पहली पायदान  कमजोर -सबल शिक्षित -अशिक्षित महिलाओं के मन में  गुथने  लगते हैं  प्रेम के दैहिक मापदंड  बिकने लगते हैं  महंगे “सौंदर्य प्रसाधन “ पार्लर मायाजाल में जकड़ी मासूम  महिलाएं  दे बैठती हैं वरीयता  दैहिक सुंदरता  को  आत्मिक और बौद्धिक सुंदरता के ऊपर नहीं रह जाता चर्चा का केंद्र  मंगल अभियान  प्रधानमंत्री का भाषण  कश्मीर की बाढ़  रह जाती हैं चर्चा  सिमिट कर मात्र  तेरी कमर २८ तो मेरी ३२ कैसे ? आती है सहज ईर्ष्या  दौड़ती ट्रेड मिल पर  गिनती एक -एक कैलोरी  चेहरे का एक पिम्पल कभी नाक का आकर  कभी कोई तिल   तोड़ कर रख देता है सारा आत्मविश्वास जिंदगी सिमट कर रह जाती है देह के मापदंडों में  खरीदती हैं नया प्रसाधन  साथ में आ जाता है नया अवसाद  वो पांच साल की गुड़ियाँ  खेलती है बार्बी डॉल से  जो मासूम बच्चों के मन में गढ़ती है  देह के सौंदर्य की परिभाषा  आह !खो गया है गुड़ियाँ का  बचपन  इसीलिए तो बड़ी अदा से  तरण-ताल में  उतरती है “टू पीस “में  शायद दिखना चाहती है जवान उम्र से पहले  क्योंकि नन्ही उम्र जान गयी है व्यर्थ है बच्चा दिखना   जवान ही हैं आकर्षण का केंद्र  अ आ इ  ई सीखने से पहले  सीखा दी  है माँ ने दैहिक आकर्षण की परिभाषा  सोलह से बीस साल की चंचला ,स्वीटी ,पिंकी  इस उम्र में कैरियर की जगह  करती है फ़िक्र “जीरो फिगर की “ इतनी इस कदर कि  कंकाल मात्र देह  लगने लगती है वज़नी  शिकार हैं “एनोरोक्ज़िआ नर्वोसा” की  बैठा लिया है गणित खाने व् वज़न के बीच  खाना कहते ही करती हैं उलटी  जैसे पाप  है अन्न खाना  सूखी देह में पड़ गयी है झुर्रियाँ  बंद हो गया है मासिक चक्र  दिमाग में बेवजह की उलझन  बस एक ही भय  कहीं वज़न न बढ़ जाये उनके लिए   कृशकाय होना ही सुंदरता है  एक बड़े मॉल में  आँखों में आंसूं भर एक महिला  परिचारिका से करती है बहस कि  ट्रायल रूम में  अन्तःवस्त्रों की फिटिंग देखने जाने दिया जाये  उसके पति को  बड़े घरों की हंसती -मुस्कुराती दिखती यह महिलाएं  भयंकर अवसाद ग्रस्त हैं  जिन्होंने देह की सुंदरता को ही प्रेम का आधार मान लिया है  दिन -रात डरती  हैं  सौंदर्य के ढलने से  अस्वीकृत होने से  युवावस्था के  खोने के भय से  प्रौढ़ महिलाएं  उम्र से कम दिखने के असफल प्रयास में डालती हैं  एफ बी पर सुबह -शाम   अनेकों मुद्राओं में फोटो   झूठी वाह -वाह और लाइक  और पीछे हँसते लोग  कहाँ पढ़ पाते हैं उनका अवसाद  की बाज़ार के पढ़ाने पर  सौंदर्य को ही माना था अब तक थाती  अब रिक्त हांथों में भर रहा है   दुःख और अवसाद सौंदर्य के बाज़ार वाद … Read more

लली

मिताली ने डाइनिंग टेबल पर अपनी सारी फाइलें  फैला ली और हिसाब किताब करने लगी | आखिर गलती कहाँ हो रही है जो उसे घाटा हो रहा है | कुछ समझ में नहीं आ रहा है | एक तो काम में घाटा ऊपर से कामवाली का टेंशन | महारानी खुद तो गाँव चली गयीं और अपनी जगह किसी को लगा कर नहीं गयीं | पड़ोस की निधि से कहा तो है की अपनी कामवाली से कह कर किसी को भिजवाये | पर चार दिन हो गए अभी तो दूर – दूर तक कोई निशान दिखाई नहीं दे रहे हैं | आखिर वो क्या – क्या संभाले ? अपने ख्यालों को परे झटक कर मिताली फिर हिसाब में लग गयी | तभी दिव्य कमरे में आये | उसे देख कर बोले ,” रहने दो मिताली तुमसे नहीं होगा | ये बात मिताली को तीर की तरह चुभ गयी | दिव्य को देख कर गुस्से में चीखती हुई बोली ,” क्या कहा ? मुझसे नहीं होगा … मुझसे , मैं MBA हूँ | वो तो तुम्हारी घर गृहस्थी के चक्कर में इतने साल खराब हो गए , वर्ना मैं कहाँ से कहाँ होती | वो ठीक हैं मैडम पर आपके इस प्रोजेक्ट के चक्कर में मेरा बैंक बैलेंस कहाँ से कहाँ जा रहा है | दिव्य ने हवा में ऊपर से नीचे की और इशारा करते हुए कहा | मिताली कुछ कहने ही वाली थी की तभी बाहर से आवाज़ आई ,” लली “ मिताली ने बाहर जा कर देखा | कोई 52- 55 वर्ष  की महिला खड़ी  थी | मोटी स्थूलकाय देह , कपड़ों से उठती फिनायल की खुशबू से मिताली को समझते देर न लगी की ये काम वाली है जिसे निधि ने भेजा है | इससे पहले की मिताली कुछ कहती वो ही मुस्कुराते हुए बोल पड़ी ,”सुनो लली ,  कमला नाम है मेरा , निधि मेमसाहब ने बताया था की आप को कामवाली की जरूरत है | मिताली : ( उसे देखते हुए ) हां पर मुझे कम उम्र लड़की चाहिए | कमला : देखो लली , काम तो हम लड़कियों से ज्यादा अच्छा करते हैं | एक बार करा कर देखोगी तब पता चलेगा | मिताली : देखो मेरा समय बर्बाद मत करो , तुम्हारा शरीर इतना भारी है तुम कैसे पलंग के नीचे से कूड़ा निकाल पाओगी | कमला : अरे लली , उसकी चिंता न करो , हम सब कर कर लेंगें | मिताली : कैसे? कमला : अब का बताये लली ,करा के तो देखो मिताली : नहीं कराना , मुझे लड़की ही चाहिए बस | कमला : देखो लली , मिताली : ( गुस्से में उसकी बात बीच में ही काटते हुए ) क्या , लली , लली लगा रखा है | बड़े – बड़े बच्चे हैं मेरे | अब कोई कम उम्र लली थोड़ी न हूँ मैं | कमला : आश्चर्य से उसे देख कर बोली , “ का बातावें धोखा खा गए | अब आप को देख कर कोई कह सकता है की आप के बड़े – बड़े बच्चा  हैं | लड़की सी लगती हैं उमर का  तो तनिक पता ही नहीं चलता है | भाग हैं , भगवान् की देन है | उसके शब्दों ने जादू सा असर किया | अब मिताली थोड़ी ठंडी पड़ गयी | धीरे से बोली , “ कितना लोगी ?’ कमला : सफाई बर्तन का पंद्रह सौ मिताली :पंद्रह सौ , अरे ये तो बहुत ज्यादा हैं | पहले वाली तो बारह सौ लेती थी |  इससे अच्छा तो बर्तन मैं ही कर लूं और तुम सफाई कर लो  |मिताली घाटे का गणित लगाते हुए बोली | कमला : क्या  लली , अपने हाथ देखे हैं | कितने मुलायम हैं | सबके कहाँ होते हैं ऐसे हाथ |  भगवान् बानाए रखे | कया  , २ ००- २५०  रुपया के लिए इन्हें भी कुर्बान कर दोगी | मिताली अपने हाथ देखने लगी | सच में कितने मुलायम हैं | तभी तो दो नंबर की चूड़ियाँ भी झटपट चढ़ जाती है | सहेलियां भी तो अक्सर तारीफ करती हैं | मिताली ने अपने हाथ देखते हुए स्वीकृति में सर हिलाया | खुश होते हुए कमला बोली ,” ठीक है लली , कल से आयेंगे | फिर से लली ,इस बार मीताली  के स्वर में प्यार भरी  झिडकी थी | कमला हँसते हुए बोली ,” अब हम तो लली ही कहियें | जैसे दिखती हो , वही कहेंगे | और दोनों हँस पड़ीं |                            कमला ने काम पर आना शुरू कर दिया | और मिताली उसी प्रोजेक्ट , हिसाब , किताब , गुणा  – भाग में लग गयी | वो घाटे  से उबर नहीं पा रही थी | क्या दिव्य सही कहते हैं की उसे बुकिश नॉलिज है | प्रैक्टिकल नहीं | कहीं , कुछ तो है गलत है | पांच – छ : लोगों की छोटी सी कंपनी को वो संभाल  नहीं पा रही थी | सबके इगो हैंडल करना उसके बस की बात नहीं थी | पैसा वो लगाये , काम वो सबसे ज्यादा करे और मनमर्जी सबकी सहे |  हर कोई अपनी वाहवाही चाहता था |  दिव्य कहते हैं की सब का इगो हैंडल करना ही सबसे बड़ा हुनर है | नहीं तो कम्पनी ही टूट जायेगी |फिर बचेगा क्या ? कैसे करे वो ? और अब तो दिव्य ने भी पैसे देने से इनकार कर दिया है  | मिताली हारना नहीं चाहती थी |उसने लोन लेने का मन बनाया | सारे कागज़ तैयार किये | पर MBA की डिग्री की फोटो कॉपी रह गयी | मिताली डिग्री की फोटो कॉपी कराने बाज़ार के लिए निकली |                              रास्ते में पार्क पड़ता है | जहाँ काम वालियां अक्सर झुण्ड में बैठ कर बतियाती हैं | उसे दूर से कमला बैठी दिख गयी | कमला ने उसे नहीं देखा वो बातचीत में मशगूल थी |  पार्क के पास पहुँचते – पहुँचते मिताली को उनकी सपष्ट आवाज़े सुनाई देने लगीं | एक बोली ,” कमला चाची इस उम्र में भी तुम कैसे इतने घर पकड़  ली हो | हमें तो 40 की होने के बाद से ही काम नहीं मिलने लगा | सब ओ लड़की … Read more

सुने अपने अंत : प्रेरणा की आवाज़

अपनी अंत : प्रेरणा से निर्णय लें | तब आप की गलतियाँ आपकी अपनी होंगीं , न की किसी और की – बिली विल्डर _________________________ जीवन अनिश्चिताओं से भरा पड़ा है | ऐसे में हर कदम – कदम हमें निर्णय लेने पड़ते हैं | कुछ निर्णय इतने मामूली होते हैं की उन का हमारी आने वाली जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता | पर कुछ निर्णय बड़े होते हैं | जो हमारे आने वाले समय को प्रभावित करते हैं | ऐसे समय में हमारे पास दो ही विकल्प होते हैं | या तो हम अपनी अंत : प्रेरणा की सुने | या दूसरों की राय का अनुसरण करें | जब हम दूसरों की राय का अनुकरण करते हैं तब हम कहीं न कहीं यह मान कर चलते हैं की दूसरा हमसे ज्यादा जानता है | इसी कारण अपनी ” गट फीलिंग ” को नज़र अंदाज़ कर देते हैं |  वो निर्णय जिनके परिणाम भविष्य के गर्त में छुपे हुए हैं | उनके बारे में कौन कह सकता है की क्या सही सिद्ध होगा क्या गलत |कौन कह सकता है की आज हम जिस बच्चे के कैरियर के लिए सलाह ले या दे रहे हैं उस पर आगे चल कर उसे सफलता मिलेगी ही, या जिस रिश्ते को बनाए रखने की सलाह दे रहे हैं वो आगे चल कर बेहतर साबित होगा या आत्मघाती कदम साबित होगा , कोई नहीं जानता एक नौकरी या व्यवसाय को छोड़कर जब दूसरे में जा रहे हैं वो भविष्य में फलदायी साबित होगा या नहीं |  अनिश्चितताओं से भरे जीवन में कोई भी निर्णय फलदायी होगा या नहीं न हमारा न किसी और का सुझाया हुआ, ये पक्के तौर पर नहीं कहा जा सकता | गलतियों की सम्भावना दोनों में है | हम केवल आज वो निर्णय ले सकते हैं जो हमें आज सही लग रहे हैं , चाहे वो हमारे द्वारा सुझाये हुए हों या दूसरे के द्वारा परन्तु जरूरी नहीं है इससे वही परिणाम आये जो हम चाहते हैं | ऐसे में बेहतर है हम वो निर्णय लें जो हमारी अंत : प्रेरणा कह रही है | अगर भविष्य में वो गलत भी साबित हुआ तो भी हम दूसरों पर आरोप मढ कर उनकी आलोचना करने से बच जायेंगे | बेवजह आलोचना कर के नकारात्मकता फैलाने के स्थान पर हम कोई अन्य निर्णय ले कर आगे बढ़ने की का प्रयास करेंगे |  हम अपने जीवन के उतार – चढाव का बेहतर तरीके से तभी संचालन कर सकेंगे जब हम अपनी जिंदगी की गाडी के ड्राइवर की सीट पर बैठे हो | अलबत्ता अपने निर्णय पर कायम रहने के लिए जरूरी है की हममें स्टेयरिंग पकड़ने की हिम्मत हो | वंदना बाजपेयी  पढ़ें ……… प्रेम की ओवर डोज अरे ! चलेंगे नहीं तो जिंदगी कैसे चलेगी बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद

भाग्य बड़ा की कर्म

 “ भाग्य बड़ा है या कर्म “ ये एक ऐसा प्रश्न  है जिसका सामना हम रोजाना की जिन्दगी में करते रहते है | इसका सीधा – सादा   उत्तर देना उतना ही कठिन है जितना की “पहले मुर्गी आई थी  या अंडा “का | वास्तव में देखा जाए तो भाग्य और कर्म एक सिक्के के दो पहलू हैं | कर्म से भाग्य बनता है और ये  भाग्य हमें ऐसी परिस्तिथियों में डालता रहता है जहाँ हम कर्म कर के विजयी सिद्ध हों  या परिस्तिथियों के आगे हार मान कर हाथ पर हाथ रखे बैठे रहे और बिना लड़े  ही पराजय स्वीकार कर लें | भाग्य जड़ है और कर्म चेतन | चेतन कर्म से ही भाग्य का निर्माण होता है | जैसा की जयशंकर प्रसाद जी “ कामायनी में कहते हैं की कर्म का भोग, भोग का कर्म, यही जड़ का चेतन-आनन्द। अब मैं अपनी बात को सिद्ध करने के लिए कुछ तर्क देना चाहती हूँ | जरा गौर करियेगा की हम कहाँ – कहाँ भाग्य को दोष देते हैं पर हमारा वो भाग्य किसी कर्म  का परिणाम होता है | 1)कर्म जब फल की चिंता रहित हो तो सफलता दिलाता है  हमारी भारतीय संस्कृति  जीवन को जन्म जन्मांतर का खेल मानते हुए कर्म से भाग्य और भाग्य से कर्म के सिद्धांत पर टिकी हुई है |गीता का तीसरा अध्याय कर्मयोग के नाम से ही जाना जाता हैं | ये सच है की जन्म – जन्मांतर को तार्किक दृष्टि से सिद्द नहीं किया जा सकता | फिर भी कर्म योग के ये सिद्धांत आज विश्व के अनेक विकसित देशों में MBA के students को पढाया जा रहा है | और और इसे पुनर्जन्म पर नहीं तर्क की दृष्टि से सिद्ध किया जा रहा है | जैसा की प्रभु श्री कृष्ण गीता में कहते हैं की .. कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन। उसकी तार्किक व्याख्या इस प्रकार दी जाती है की ….फल की चिंता अर्थात स्ट्रेस या तनाव जब हम कोई काम करते समय जरूरत से ज्यादा ध्यान फल या रिजल्ट पर देते हैं तो तनाव का शिकार हो जाते हैं | तनाव हमारी परफोर्मेंस पर असर डालता है | हम लोग दैनिक जीवन की मामूली से मामूली बातों में देख सकते हैं की स्ट्रेस करने से थकान महसूस होती है , एनर्जी लेवल डाउन होता है और काम बिगड़ जाता है |पॉजिटिव थिंकिंग की अवधारणा इसी स्ट्रेस को कम करने के लिए आई | मन में अच्छा सोंच कर काम शुरू करो , जिससे काम में जोश रहे , दिमाग फ़ालतू सोंचने के बजाय काम पर फोकस हो सके | कई बार पॉजिटिव थिंकिंग के पॉजिटिव रिजल्ट देखने के बाद भी हम अपनी निगेटिव थिंकिंग को दोष न देकर कहते हैं …. अरे पॉजिटिव , निगेटिव थिंकिंग नहीं ये तो भाग्य है |J २ ) भाग्य नहीं गलत डिसीजन है असफलता का कारण  कई बार जिसे हम भाग्य समझ कर दोष देते हैं वो हमारा गलत डिसीजन होता है | उदाहरण के लिए किसी बच्चे की रूचि लेखक बनने की है | पर माता – पिता के दवाब में , या दोस्तों के कहने पर बच्चा गणित ले लेता है | निश्चित तौर पर वो उतने अच्छे नंबर  नहीं लाएगा | हो सकता है फेल भी हो जाए | अब परिवार के लोग सब से कहते फिरेंगे की मेरा बच्चा तो दिन रात –पढता है पर क्या करे भाग्य साथ नहीं देता |मैंने ऐसे कई बच्चे देखे जिन्होंने तीन , चार साल मेडिकल या इंजिनीयरिंग की रोते हुए पढाई करने के बाद लाइन चेंज की | और खुशहाल जिन्दगी जी | बाकी उसी को बेमन से पढ़ते रहे , असफल होते रहे और भाग्य को दोष देते रहे | क्या आप को नहीं लगता हमीं हैं जो भाग्य की ब्रांडिंग करते हैं | J J ३)प्रतिभा और परिश्रम बनाते हैं भाग्य   इसी प्रतियोगिता में ही शायद मैंने पढ़ा था की हर चाय वाला मोदी नहीं हो जाता | यानी हम ये मान कर चलते हैं की हर अँगुली बराबर होती है |J प्रतिभा को हमने सिरे से ख़ारिज कर दिया , और उन  स्ट्रगल्स को भी जो मोदी ने मोदी बनने के दौरान की | पूरे देश घूम – घूम कर जनसभाएं की | लोगों से जुड़ने का प्रयास किया | उनकी समस्याएं समझी , सुलझाई | क्या हर चाय वाला इतना करता है | या इतना महत्वाकांक्षी भी होता है | हम सब ने बचपन में संस्कृत का एक श्लोक पढ़ा है | उद्यमेन हि सिध्यन्ति कार्याणि न मनोरथैः । न हि सुप्तस्य सिंहस्य प्रविशन्ति मुखे मृगाः ॥                   हम ये श्लोक पढ़कर एग्जाम पास कर लेते हैं | पर तर्क ये देते हैं की हम भी चाय बेंचते हैं | फिर हम मोदी क्यों नहीं बने | चाय वाला =चायवाला , सबको मोदी बनना चाहिए | अरे ,ये तो भाग्य है | J 4)सफलता बरकरार रखने के लिए भाग्य पर नहीं स्ट्रेटजी पर ध्यन दें   अब जरा गौर करते हैं , उन किस्सों  पर जिनमें शुरू में प्रतिभा बराबर होती है | कई बार शुरूआती प्रतिभा बराबर होने के बाद भी हम लगातार उतने सफल नहीं हो पाते | क्योंकि एक बार सफलता पाना और उसे बनाए रखना दो अलग – अलग चीजे हैं | उसके लिए अनुशासन , फोकस , अपने अंदर जूनून को जिन्दा रखना , असफल होने के बाद भी प्रयास न छोड़ना आदि कर्म आते हैं | जो लगातार करने पड़ते है | चोटी  पर बैठा व्यक्ति जिस स्ट्रेस को झेलता है , उस के लिए खुद को मानसिक रूप से तैयार करना पड़ता है | Our greatest weakness lies in giving up.  The most certain way to succeed is always to try just one more time.  — Thomas Edison काम्बली और तेंदुलकर का उदहारण अक्सर दिया जाता है |क्या सचिन तेंदुलकर की निष्ठा जूनून , लगन  , अनुशासित जीवन और हार्ड वर्क को हम नकार सकते हैं | पर हम किसी लगातार सफल व्यक्ति के  ये गुण खुद में उतारने के स्थान पर लगेंगे भाग्य को दोष देने | J 5 )कर्म तय कराता है महा गरीबी से महा अमीरी का सफ़र   एक और स्थान जिसे हम भाग्य के पक्ष में रखते हैं | … Read more