अच्छा सोंचो … अच्छा ही होगा

वो देखो प्राची पर फ़ैल रहा है उजास दूर क्षितज से  चल् पड़ा है नव जीवन रथ एक टुकड़ा धूप पसर गयी है मेरे आँगन में जल्दी –जल्दी चुनती हूँ आशा की कुछ किरण  हंसती हूँ ठठाकर क्योंकि अब मेरी मुट्ठी में बंद है मेरी शक्ति  हर नयी चीज का आगमन मन को प्रसन्नता  से भर देता है। हर निशा के बाद नव भोर को भास्कर का अपनी किरणों का रथ ले कर आना ,चिड़ियों की चहचाहट ,नए फूलों का खिलना ,घर में अतिथि का आगमन भला किसके मन को हर्षातिरेक से नहीं भर देता। आज   हम समय के एक ऐसे मुहाने पर खड़े हैं , जहाँ आने वाले वर्ष  का नन्हा शिशु  माँ के गर्भ से निकल  अपने आकर -प्रकार के साथ धरती पर आने को  उत्सुक है। यह एक संक्रमण काल है | जहाँ बीता वर्ष  अपनी बहुत सारी  खट्टी -मीठी यादें देकर जा रहा है वहीं नूतन वर्ष से बहुत सारे सपनों के पूरा होने की आशा है |समय अपनी गति के साथ आगे बढ़ता है। एक का अवसान ही दूसरे का उदय है। निशा का अंत ही सूर्य का आगमन है ,सूर्य के उदय के साथ ही भोर के तारे का अस्त है। मृत्यु के शोक के साथ ही नव जीवन का हर्ष है। जय शंकर प्रसाद “कामायनी में कहते हैं। …………… “दुःख की पिछली रजनी बीचविकसता सुख का नवल प्रभात,एक परदा यह झीना नीलछिपाये है जिसमें सुख गात।                           ध्यान से देखा जाये तो हम जीवन पर्यंत एक संक्रमण बिंदु पर खड़े रहते हैं ,जहाँ हमारे सामने होता है एक गिलास आधा भरा हुआ ,आधा खाली। ये मुझ पर आप पर हम सब पर निर्भर है कि हम उसे किस दृष्टी से देखे। हमारे पास चयन की स्वतंत्रता है। सुकरात के सामने विष का प्याला रखा है ,शिष्य साँस रोके अंतिम प्रवचन की प्रतीक्षा कर रहे हैं। सुकरात प्याले को देख कर कहते है “आई ऍम स्टिल अलाइव “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,सुकरात प्याला हाथ में ले कर कहते हैं “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,सुकरात जहर मुँह में लगाते हैं “मैं अभी भी जिन्दा हूँ ,कहकर उनकी गर्दन एक तरफ लुढ़क जाती है। …सुकरात अभी भी ज़िंदा हैं, अपने विचारों के माध्यम से ,क्योंकि उन्होंने मृत्यु  को नहीं माना जीवन को स्वीकार किया। यही अभूतपूर्व सोच उन्हें आम लोगों से अलग करती है।                                   प्रसिद्ध दार्शनिक ओशो कहते हैं “मेरे पास आओ मैं तुम्हे कुछ दूंगा नहीं बल्कि जो तुम्हारे पास हैं वो ले लूंगा।” और तुम यहाँ से खाली हो कर जाओगे। यहाँ ओशों के अनुसार सद्गुरु एक चलनी की तरह हैं। जो शिष्य के समस्त नकारात्मक विचारों को निकाल देता है व् सकारात्मक विचारों को शेष रहने देता है। सर का बोझ हट्ते ही मनुष्य सफल सुखी व् प्रसन्न हो जाता है।                                        वास्तव में हर मनुष्य की जीवन गाथा उसके अमूर्त विचारों का मूर्त रूप है। विचार ही देवत्व प्रदान करते है विचार ही राक्षसत्व के धरातल पर गिराते हैं। अगर मोटे तौर पर वर्गीकरण किया जाये तो  विचार दो प्रकार के होते हैं. …सकारात्मक (प्रेम ,दया ,करुना ,उत्साह ,हर्ष आदि ),नकारात्मक (ईर्ष्या ,घृणा ,क्रोध ,वैमस्यता आदि )दिन भर में हमारे मष्तिष्क में आने वाले लगभग ६०,००० विचारों में जिन विचारों की प्रधानता होती है वही  हमरी मूल प्रकृति होती है.सकारात्मक सोच वाले व्यक्ति नकारात्मक सोच वाले व्यक्तियों  की तुलना में अधिक खुश व् सफल देखे गए हैं।                                   भारतीय संस्कृति भी अपने मूल -मन्त्र (सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुःखभाग् भवेत्।।) में सकरात्मक सोच की अवधारणा को ही पुष्ट करती है |  निर्विवाद सत्य है ,जो लोग सब का भला सोचते हैं उनमें ऊर्जा का स्तर  ज्यादा होता है |                                                            विचारों का मानव जीवन पर कितना प्रभाव है ,इसका उदहारण मनसा वाचा कर्मणा के सिद्धांत पर चलने वाले  हिन्दू धर्म ग्रन्थ गीता में देखने को मिलता है |जहाँ व्रत ,पूजा उपवास से लेकर अच्छे और बुरे हर कर्म को विचार या भावना के आधार पर तामसी ,राजसी या सात्विक कर्म में बांटा जाता है। श्री कृष्ण गीता में कहते हैं “हे अर्जुन मृत्यु के समय समस्त इन्द्रियाँ मन में समाहित हो जाती हैं और मन आत्मा में समाहित हो कर प्राणो के साथ निकल जाता है। संभवत:ये मन विचारों से ही निर्मित है। हमारे कर्म हमारे विचारों के आधीन हैं और कर्मों के आधीन परिस्तिथियाँ हैं |ब्रह्म कुमारी शिवानी जी भी अपने हर प्रवचन में विचार का महत्व बताती हैं | उनके अनुसार जिसे हम कर्म कहते हैं | वह एक न होकर तीन बिन्दुओं से बना है | विचार शब्द और क्रिया | अर्थात हम जो सोंचते , बोलते और करते हैं | तीनों मिल कर कर्म बनाते हैं | अगर हम किसी व्यक्ति काम और घटना के प्रति विचार दूषित रखते हैं परन्तु संभल कर बोलते हैं और काम भी ठीक से करते हैं | तब भी परिणाम नकारात्मक ही आएगा | इसलिए हम सब अक्सर ये प्रश्न करते हैं की हम तो सबके साथ अच्छा करते हैं फिर मेरे साथ ही बुरा क्यों होता है | कारण स्पष्ट है हमारे विचार नकारात्मक होते हैं |.                धर्म ग्रंथों में भी विचारों का महत्व बताया गया है | क्योंकि विचारों का प्रभाव कर्म से भाग्य के सिद्धन्त पर इस जन्म में ही नहीं अगले जन्म में भी होता हैं |  कहते हैं   जैसा हम जीवन भर सोचते हैं वैसा ही मन पर अंकित होता जाता है यही गुप्त भाषा (कोडेड लैंगुएज )हमारे अगले जन्म का प्रारब्ध बनती है। स्वामी  विवेकानंद के अनुसार नकारत्मक व् सकारत्मक उर्जायें मृत्यु के बाद हमारी आत्मा को खींचती हैं | हम अपने जीवन काल में रखे गए विचारों के आधार पर ही वहां पहुँचते हैं व् वैसा ही नकारात्मक या सकारात्मक जन्म पाते हैं |  अतः न सिर्फ इस जीवन के लिए बल्कि अगले जीवन के लिए भी एक- एक विचार महत्वपूर्ण है।  धर्म से इतर अगर दुनयावी … Read more

सबसे सुंदर दिखने की दौड़ – आखिर हल क्या है?

             आप के सामने आज  का अखबार पड़ा है | हत्या मार –पीट डकैती की खबरों पर उडती –उडती नज़र डालने के बाद आप की नज़र टिक जाती है विज्ञापन पर जिसमें लिखा है दस दिन में वजन १० किलो कैसे घटाए या आप  अपने चेहरे के मुताबिक़ इयरिंग्स कैसे चुने | क्या आप ने कभी सोचा है ऐसा क्यों ? हम देश के संभ्रांत नागरिक की जगह  जीवन शैली के जूनून की हद तक बाई  प्रोडक्ट हो गए हैं | हममें  से ज्यादातर का ध्यान देश की समस्याएं नहीं बल्कि टी वी के १००चैनल, फैशन मैगजीन्स व् कपड़ों पर लिखे कुछ खास ब्रांडेड नेम्स खींचते हैं |             और इस क्यों का केवल एक ही जवाब हैं हम अपने को या अपने किसी हिस्से को बदलना चाहते हैं | क्योंकि हम उसको या शायद खुद को नापसंद करते हैं |  यह एक बीमार सामाजिक मानसिकता का प्रतीक है |  हम ऐसे समाज का हिस्सा हो गए हैं जो अवास्तविक मापदंडों पर दूसरों की और खुद की सुन्दरता को तौलता है | इसलिए हम सब पसंद किये जाने या नापसंद किये जाने के भय से ग्रस्त रहते हैं |           अगर महिलाओ की बात की जाए तो उनकी स्तिथि ओर भी ज्यादा गंभीर है | स्वेता और स्नेहा उम्र २० वर्ष , टी वी पर किसी हेरोइन का ऐड देख कर आह क्या फिगर है कह कर अपनी शारीरिक संरचना से असंतुष्ट हो जाती है | | वही दोनों किसी और पार्टी की फोटो में उसी हेरोइन को उसी ड्रेस में देखती हैं | अब रूप रंग फिगर सब सामान्य नज़र आता है | वो जानती हैं की वो  फोटो शॉप की गयी तस्वीर थी जानते समझते हुए भी उन पर से  उस फोटो शॉप की गयी तस्वीर का नशा और उसके जैसा बनने का जूनून नहीं उतरता है |  यह असंतुष्टि उन्हें पढाई का कीमती समय बर्बाद कर जिम जाने के लिए महंगे ब्यूटी प्रोडक्ट खरीदने के लिए विवश करती है | ये मेकअप  की परतें उन्हें थोड़ी देर के लिए कुछ और होने का अहसास कराती हैं पर अन्दर से वो अपनी असलियत जानती हैं | इसलिए आत्मविश्वास कम होता जाता है | इतना कम की वो सुबह उठ कर शीशे में अपना मेक अप विहीन चेहरा  देखना नहीं पसंद करती हैं | वो समझ ही नहीं पाती की वो मेक उप के बिना भी सुन्दर हैं | ये खुद को पसंद करना नहीं खुद को अस्वीकार करना हैं |           ये हकीकत  है की मॉडल जैसा फिगर पाने की चाहत में लडकियाँ बेजरूरत डाइटिंग करती हैं | कमजोरी के कारण चक्कर खा कर गिरती हैं | कुछ तो अनिरोक्सिया नेर्वोसा नामक मानसिक बीमारी से ग्रस्त हो कर खाना इस कदर छोड़ देती हैं की मात्र कंकाल रह जाती हैं | खुद को नापसंद करना इस हद तक की जीवन ही खत्म हो जाए | ऐसे होंठ , ऐसी नाक ऐसे आँखे ऐसे पलके और ब्रांडेड कपडे क्या इसी में ख़ुशी छिपी है | याद होगी बचपन की एक कहानी जब एक राजा  ने “ हैप्पी मैन “ खोजने के लिए भेजा तो सिपाहियों को पूरे राज्य में केवल एक ही आदमी मिला | पर अफ़सोस उसके पास शर्ट ही नहीं थी |                   सबसे पहले हमें यह समझना होगा जो जैसा है वह उसी तरह से सुन्दर है | अपूर्णता में भी एक सुन्दरता है जो हमें भीड़ से अलग करती है | जरा सोचिये अगर सब फोटो शॉप की गयी तस्वीर की तरह एक जैसे हो जाए तब  क्या हमें कोई सुन्दर दिखेगा | भिन्नता में ही सुन्दरता है | दूसरा हमें यह समझना होगा की ब्यूटी इंडस्ट्री आप के दोषों को छिपा कर आप को सुन्दर या परफेक्ट नहीं बना रही है अपितु आप का धयान आपकी अपूर्णताओ पर दिला कर आप के अन्दर हीन भावना या खुद को अस्वीकार करने की भावना पैदा कर रही हैं | इसी पर सारा सौन्दर्य उद्योग टिका है | वो आपके आत्मविश्वास को तोड़ता है | और आप नए –नए उत्पाद इस्तेमाल करके शीशे से पूंछतें हैं “ बता मेरे शीशे सबसे सुन्दर कौन ,और स्नो वाइट की माँ की तरह निराश होते हैं |          क्लिनिकल साइकोलोजी और पोजिटिव साइकोलोजी में सकारात्मक  रहने के लिए खुद को स्वीकार करना जरूरी है | पर आज की मीडिया एरा ने परफेक्ट दिखने का जिन्न बोतल से निकाल दिया है | आत्म  विश्वास के लिए आप का परफेक्ट दिखना जरूरी है | अगर आप परफेक्ट नहीं दिखते हैं तो कम से कम अपनी अपूर्णताओ को छिपाइए व् परफेक्ट महसूस करिए |   कभी –कभी मेक अप कर लेना बुरा नहीं है पर  जूनून की हद तक खुद को बदलने की इच्छा  रखना वो परजीवी है जो सुख चैन को भी खा जाता है | अंत में मैं इतना ही कहना चाहूँगी  …  अपने को पसंद करिए , स्वीकार करिए | अपनी  हिम्मत बढ़ाइए , क्योंकि अपने को स्वीकार करके आप ज्यादा बहादुर सिद्ध होते हैं | याद रखिये खुद को पसंद करना सबसे बेहतरीन सौन्दर्य प्रसाधन है जो आप इस्तेमाल कर सकते हैं | वंदना बाजपेयी सोंच समझ कर खर्च करें तन की सुन्दरता में आकर्षण , मन की सुन्दरता में विश्वास आखिर क्यों फ़ैल रहा है बाजारवाद चलो चलें जड़ों की ओर

एंजिलिना जोली सिंड्रोम – सेहत के जूनून की हद

एक आम घर का दृश्य देखिये | पूरा परिवार खाने की मेज पर बैठा है | सब्जी रायता , चपाती , गाज़र का हलवा और टी .वी हाज़िर है | कौर तोड़ने ही जा रहे हैं कि टी वी पर ऐड आना शुरू होता है बिपाशा बसु नो शुगर कहती नज़र आती हैं | परिवार की १७ वर्षीय बेटी हलवा खाने से मना कर देती है | माँ के मनुहार पर झगड़ कर दूसरे कमरे में चल देती है | वहीँ बेटा विज्ञापन देख कर ६ पैक एब्स बनाने के लिए जिम कि तगड़ी फीस की जिद कर रहा है | सासू माँ अपने तमाम टेस्ट करवाने का फरमान जारी कर देती हैं|परिवार का एकमात्र कमाऊ सदस्य अपनी लाचारी जाहिर करता है तो एक अच्छा खासा माहौल तनाव ग्रस्त हो जाता है | ये सच है कि आज स्वास्थ्य के प्रति क्रेज दिनों दिन बढ़ रहा है | इसमें कुछ गलत भी नहीं है | अपने स्वास्थ्य का ध्यान रखना और स्वस्थ रहना अच्छी बात है | ये न सिर्फ व्यक्ति के लिए बल्कि पूरे देश के लिए शुभ है क्योंकि जिस देश के नागरिक स्वस्थ रहेंगे | वो ज्यादा काम कर सकेंगें और देश ज्यादा तरक्की कर सकेगा |परन्तु नए ज़माने के साथ स्वाथ्य का औद्योगीकरण हो चुका है | आज विभिन्न देशी विदेशी कम्पनियाँ स्वास्थ्य बेच रहीं हैं | इसके लिए तरह -तरह के लुभावने विज्ञापन हैं , टॉनिक हैं जो पूरी तरह फिट रहने की गारंटी देते हैं , जिम हैं , हाईट वेट चार्ट हैं , प्लास्टिक सर्जरी है | और एक पूरे का पूरा मायाजाल है जो सेहत के प्रति जागरूक लोगों कि जेबें ढीली करने को चारों तरफ फैला है | शहर तो शहर गाँवों में भी दूध मट्ठा छोड़ कर हर्बल पिल्स खाने का चलन बढ़ गया है |अभी कुछ दिन पहले की ही बात है कि एक गाँव की रिश्तेदार मुझे ** कम्पनी की तुलसी खाने की सलाह दे रही थी |जब मैंने कहा की तुलसी तो घर में लगी है उसी की पत्ती तोड़ कर न खा लूं | तो मुंह बिचकाकर बोली , ” आप को न खानी है तो न खाओ , अब टी वी में दिखाते हैं , उसमें कुछ तो ख़ास होगा |ये सारा उद्योग रोग भय पर टिका है| बार -बार संभावित रोग का भय दिखा कर अपने उत्पाद बेंचने का प्रयास हैं |लोग ओरगेनिक फ़ूड पसंद कर रहे हैं , जिम जा रहे हैं , हेल्थ मॉनिटर करने वाला एप डाउन लोड कर रहे हैं, कैलोरी गिन गिन कर खा रहे हैं | यहाँ तक तो ठीक है पर इससे ज्यादा ? इंसान को सचेत करना और उसको भयग्रस्त करना इन दोनों में अंतर है | एक भयग्रस्त या हाइपोकोंड्रीऐक व्यक्ति जो अपने शरीर में किसी रोग की कल्पना करता हैं और भयभीत होता रहता है | वो सामान्यतः स्वस्थ रहने की चाह के लक्षण नहीं हैं | क्योंकि यह रोग भय का विचार हर समय मष्तिष्क पर छाया रहता है | इंसान कुछ भी अच्छा या सकारात्मक नहीं सोंच पाता , काम में मन नहीं लगता |उसके साथ -साथ अक्सर उसके घर वाले भी परेशान रहते हैं | जो उसके शक का समाधान खोजते -खोजते पस्त हो जाते हैं | यहाँ तक भी समझौता कर लिया जाए पर अगर यह भय इस हद तक बढ़ जाए की किसी संभावित रोग की कल्पना से अपनी स्वस्थ्य शरीर का ऑपरेशन तक करना चाहे तो ?निश्चित तौर पर यह स्तिथि चिंता जनक है | आज इसे एन्जिलिना जोली सिंड्रोम का नाम दिया जा रहा हैं | जैसा की विदित है हॉलीवुड अभिनेत्री एन्जिलिना जोली नें मात्र इस भय से की वो कैंसर की जीन कैर्री कर रही है और भविष्य में उनको कैंसर हो भी सकता है | डबल मेसेक्टोमी व् रीकोंसट्रकटिव सर्जरी करवाई थी |आप यह कह सकतें है कि वो हॉलीवुड एक्ट्रेस थी वो कर सकती है , कोई व्यक्ति तो ऐसा नहीं कर सकता | पर यह बात पूर्णतया सत्य नहीं है मेरे एक जानने वाली श्रीमती पाण्डेय के पति को एक रात पेट में ऐपेंडिक्स का तेज दर्द उठा | डॉक्टर को दिखाने पर उन्होंने तुरंत अस्पताल में भारती कर लिया व् ऑपरेशन कर दिया | इस पूरे प्रकरण को देख कर उनकी पत्नी इतना डर गयी कि पति के ऑपरेशन के १५ दिन बाद ही उन्होंने जिद कर के अपना ऑपरेशन भी करवा लिया | जब हम उनसे मिलने गए तो उनका सीधा सा उत्तर था , ” ऐपेंडिक्स है तो वेस्टिजियल ऑर्गन ही , राम जाने कब दर्द उठ जाए कब रात -बिरात अस्पताल भागना पड़े , इसलिए मैंने तो पहले ही ऑपरेशन करवा लिया | न रहेगा बांस न बजेगी बाँसुरी | यह अकेला किस्सा नहीं है | दिनों दिन ऐसे किस्से बढ़ रहे हैं जहाँ रोग भय से लोग ऑपरेशन करवा पहले से ही सारा झंझट ख़त्म कर देना चाहते हैं | “यह एक बेहद खतरनाक स्तिथि का सूचक है जो कि स्वस्थ्य रहने के जूनून और रोग भय के मानसिक विकार के रूप में अपनी जगह बना रहा है जहाँ व्यक्ति केवल रोग भय से अपनी स्वस्थ शरीर का ऑपरेशन करवाना चाहता है या शरीर के उस हिस्से को निकलवाना चाहता है जहाँ रोग का खतरा हो |रूस के गोलमैन ने इस विषय पर रिसर्च कर के पाया है कि आज मेडिकल उद्योग ट्रीटमेंट से ज्यादा प्रीवेंशन पर विश्वास रखता है और इसमें सर्जरी उसे एक अच्छा विकल्प नज़र आता है |रोग होने के बहुत सारे कारण होते हैं | कई बार किसी ख़ास रोग के जीन कैरी करने वाले लोगों में भी पूरी जिंदगी उस रोग के लक्षण दिखयी नहीं देते | अनुभव कहते हैं की किसी रोग के होने के लिए जितनी जीन जिम्मेदार है उतनी ही परिस्तिथियाँ , मानसिक स्तिथि व् जिजीविषा का कम /ज्यादा होना भी जिम्मेदार है | कोई जरूरी नहीं की जिस व्यक्ति में रोग होने की संभावना हो उसमें वो रोग हो ही |अंत में इतना ही कहना चाहूंगी कि स्वस्थ रहने की इक्षा रखना , उसके लिए प्रयास करना एक अच्छी बात है परन्तु दिन रात संभावित रोग की कल्पना करना व् उसके भय से स्वस्थ शरीर का ऑपरेशन … Read more

फेसबुक और महिला लेखन

कितनी कवितायें  भाप बन  कर उड़ गयी थी  उबलती चाय के साथ  कितनी मिल गयी आपस में  मसालदान में  नमक मिर्च के साथ  कितनी फटकार कर सुखा दी गयी  गीले कपड़ों के साथ धूप में  तुम पढ़ते हो   सिर्फ शब्दों की भाषा  पर मैं रच रही थी कवितायें  सब्जी छुकते हुए  पालना झुलाते हुए  नींद में बडबडाते हुए  कभी सुनी , कभी पढ़ी नहीं गयी  कितनी रचनाएँ  जो रच रहीहै  हर स्त्री  हर रोज                               सृजन और स्त्री का गहरा नाता है | पहला रचियता वो ईश्वर है और दूसरी स्त्री स्वयं | ये जीवन ईश्वर की कल्पना तो है पर मूर्त रूप में स्त्री की कोख   में आकार ले पाया है | सृजन स्त्री का गुण है , धर्म है | वह हमेशा से कुछ रचती है | कभी उन्हीं मसालों से रसोई में कुछ नया बना देती है की परिवार में सब अंगुलियाँ चाटते रह जाएँ | कभी फंदे – फंदे जोड़ कर रच देती है स्वेटर | जिसके स्नेह की गर्माहट सर्द हवाओ से टकरा जाती है | कभी पुराने तौलिया से रच देती है नयी  दरी | जब वो इतना सब कुछ रच सकती है तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? कभी – कभी तो मुझे लगता है की क्या हर स्त्री के अंदर कविता बहती है , किसी नदी की तरह या कविता स्वयं ही स्त्री है ? फिर भी भी लम्बे समय तक स्त्री रचनकार अँगुलियों पर गिने जाते रहे | क्या कारण हो सकता है इसका … संयुक्त परिवारों में काम की अधिकता , स्त्री की अशिक्षा या अपनी खुद की ख़ुशी के लिए कुछ भी करने में अपराध बोध | या शायद तीनों |                                 आज स्त्री ,स्त्री की परिभाषा से आज़ाद हो रही है | सदियों से परम्परा ने स्त्री को यही सिखाया है की उसे केवल त्याग करना है | परन्तु वो इस अपराध बोध से मुक्त हो रही है की वो थोडा सा अपने लिए भी जी ले | उसने अपने पंखों को खोलना शुरू किया है | यकीनन इसमें स्त्री शिक्षा का भी योगदान है | जिसने औरतों में यह आत्मविश्वास भरा है की आसमान केवल पुरुषों का नहीं है | इसके विस्तृत नीले विस्तार में एक हरा  कोना उनका भी है | ये भी सच है की आज तमाम मशीनी उपकरणों के इजाद के बाद घरेलु कामों में भी  आसानी हुई है | जिसके कारण महिलाओं को रसोई से थोड़ी सी आज़ादी मिली है | जिसके कारण वो अपने समय का अपनी  इच्छानुसार इस्तेमाल करने में थोडा सा स्वतंत्र हुई है | साहित्य से इतर यह हर क्षेत्र में दिख रहा है | फिर से वही प्रश्न … तो फिर साहित्य क्यों नहीं ? निश्चित तौर पर इसका उत्तर हाँ  है | पर उसके साथ ही एक नया प्रश्न खड़ा हो गया …कहाँ और किस तरह ? और इसका उत्तर ले कर आये मार्क जुकरबर्ग फेसबुक के रूप में | फेसबुक ने एक मच प्रदान किया अपनी अभिव्यक्ति का |                                                  यूँ तो पुरुष हो या महिला फेसबुक सबको समान रूप से प्लेटफ़ॉर्म उपलब्द्ध करा रहा है | परन्तु इसका ज्यादा लाभ महिलाओं को मिल रहा है | कारण यह भी है की ज्यादातर महिलाओ को अपनी लेखन प्रतिभा का पता नहीं होता | साहित्य से इतर शिक्षा प्राप्त महिलाएं कहीं न कहीं इस भावना का शिकार रहती थी की उन्होंने हिंदी से तो शिक्षा प्राप्त की नहीं है, तो क्या वो सही – सही लिख सकती हैं | और अगर लिख भी देती हैं तो क्या तमाम साहित्यिक पत्रिकाएँ उनकी रचनाएँ स्वीकार करेंगी या नहीं | फेसबुक पर पाठकों की तुरंत प्रतिक्रिया से उन्हें पता चलता है की उनकी रचना छपने योग्य है या उन्हें उसकी गुणवत्ता में क्या -क्या सुधार  करने है |   कुछ महिलाएं जिन्हें अपनी प्रतिभा का पता होता भी है  प्रतिभा बच्चो को पालने व् बड़ा करने में खो जाती है |वो भी  जब पुन : अपने को समेटते हुए लिखना शुरू करती हैं तो  पता चलता कि  की साहित्य के आकाश में मठ होते हैं जो तय करते हैं कौन उठेगा ,कौन गिरेगा। किसको स्थापित  किया जायेगा किसको विस्थापित।इतनी दांव – पेंच हर महिला के बस की बात नहीं | क्योंकि अक्सर साहित्य के क्षेत्र में जूझती महिलाओ को ये सुनने को अवश्य मिलता है की ,” ये भी कोई काम है बस कागज़ रंगती रहो | मन निराश होता है फिर भी कम से कम हर रचनाकार यह तो चाहता है कि उसकी रचना पाठकों तक पहुँचे।  रचना के लिए पाठक उतने ही जरूरी हैं जितना जीने के लिए ऑक्सीज़न।  इन मठाधीशों के चलते कितनी रचनायें घुट -घुट कर दम  तोड़ देती थी और साथ में दम  तोड़ देता था रचनाकार का स्वाभिमान ,उसका आत्मविश्वास। यह एक ऐसी हत्या है जो दिखती नहीं है |कम से कम फेस बुक नें रचनाकारों को पाठक उपलब्ध करा कर इस हत्या को रोका है।                                            हालंकि महिलाओ के लिए यहाँ भी रास्ते आसान  नहीं है | उन्हें तमाम सारे गुड मॉर्निंग , श्लील  , अश्लील मेसेजेस का सामना करना पड़ता है |  अभी मेरी सहेली ने बताया की उसने अपनी प्रोफाइल पिक बदली तो किसी ने कमेंट किया ” मस्त आइटम ” | ये कमेन्ट करने वाले की बेहद छोटी सोंच थी | ये छोटी सोंचे महिलाओं को कितना आहत करती हैं इसे सोंचने की फुर्सत किसके पास है | वही किसी महिला के फेसबुक पर आते ही ऐसे लोग कुकरमुत्ते की तरह उग आते हैं जो उसके लेखन को सर्वश्रेष्ठ बताते हुए उसे रातों रात स्टार बनाने में मदद देने को तैयार रहते हैं | याहन इतना ही कहने की जरूरत है की छठी इन्द्रिय हर महिला के पास है और उसे लोगों के इरादों को भांपने और परखने में जरा भी … Read more

ईद मुबारक ~सेवइयों की मिठास

  पतिदेव को टूर पर जाना था | मैं सामान पैक  करने में जुटी थी और ये जनाब टी वी देखने में | मुझे लगता है दुनिया भर के  पुरुष इस मामले में एक से ही हैं  | कहीं जाना हो तो कुछ सामन भले ही छूट जाए पर खबर एक भी न छूटे | खाना – पीना,  ओढना -बिछाना जैसे सब कुछ खबरे  ही हैं | पर आज तो हद हो गयी समय भागता ही जा रहा रह और ये हैं की टीवी पर ही नज़रे गडाए बैठे हैं | सारी  दुनिया की ख़बरों का जिम्मा आप ने ही लिया है क्या ,”बडबडाते  हुए मैं टी वी बंद करने आई | पर श्रीमान जी मेरे इरादों को भांप कर मुझे रोकते हुए बोले अरे , रुको , रुको , इतनी महत्वपूर्ण बहस चल रही है | मैं टी वी की तरफ देखा | कुछ बड़े नामी गिरामी पत्रकार धर्म के मुद्दे पर बहस कर रहे थे | यूँ तो उन सब के कुछ नाम थे पर मुझे दिख  रहे थे कुछ … जो सिर्फ मुसलमान थे , कुछ … जो सिर्फ हिन्दू थे | पूरा मुकम्मल इंसान तो कोई था ही नहीं |                                    खैर इधर पतिदेव टूर के लिए निकले उधर मेरे खास रिश्तेदारों का फोन आ गया | वो मेरे घर आना चाहते हैं | यूँ तो कभी कोई आये जाए अच्छा ही लगता है | पर ये रिश्तेदार बड़े ही हाई – फाई व् दिखावा पसंद थे | अपनेघर की नाक न कटे इसका  ध्यान मुझे ही रखना था |मैं शॉपिंग लिस्ट मन ही मन तैयार करने लगी |  तभी  ही मेरा दिमाग बेड रूम की तरफ गया | दरसल  बेडरूम की की अलमारी  बिलकुल सड़ गयी थी | कुछ समय पहले ही पता चला था की दीमक उसे अंदर ही अंदर खा चुकी है |ये दीमक भी बड़ी खतरनाक होती है , इसका पता तब चलता है जब सब कुछ खतम हो जाता है |  तुरंत पेस्ट कंट्रोल  वालों को बुलाया | दीमक मारक दवाइयों ने दीमक तो खत्म कर दी पर अलमारी का एक बड़ा हिस्सा जर्जर हो चूका था | सोंचा था बाद में बनवा लेंगे | परन्तु अब उसको जल्दी से जल्दी बनवाना मेरी मजबूरी थी क्योंकि अलमारी का सारा सामन घर के दूसरे कमरों में बेतरतीब पड़ा था | इस उथल – पुथल के दौरान मेहमानों के आने की सूचना , मैं तो एकदम परेशांन  हो गयी |  मैंने अपनी समस्या  पास में रहने वाली मिसेज जुनेजा को बतायी | उन्होंने कारपेंटर का नंबर दिया | मैंने फोन करके जल्दी से जल्दी उन्हें आने को कहा | पर उन्होंने भी काम ज्यादा और कारीगर कम होने की बात कह कर आने में असमर्थता जताई | फिर शायद मुझ पर तरस खा कर उन्होंने  मुझे एक दूसरा नंबर दिया और कहा आप उनसे बात कर लें | उसने भी कहा ,” मैडम इस समय तो कारीगर मिलना मुश्किल है , फिर भी एक लड़का है पूंछता हूँ | अगले दिन कोई २५ – २६ साल का लड़का मेरे घर आया और कहा की अमुक सर ने आपकी अलमारी बनाने के लिए कहा है | मैंने उसे जल्दी से जल्दी अलमारी बनाने की ताकीद देते हुए पूंछा ,” नाम क्या है तुम्हारा ? उसने उत्तर दिया – हामिद , उसके बाद वो अपने काम में जुट गया | मैं उसके लिए चाय नाश्ता ले कर गयी तो उसने मुस्कुरा कर कहा ,” नहीं दीदी मेरे रोजे चल रहे हैं | अच्छा – अच्छा कहते हुए मैंने चाय – नाश्ते  की ट्रे हटा ली | हामिद , उत्तर प्रदेश के कासगंज का रहने वाला था |यू . पी वाला होने के नाते एक भाईचारे का रिश्ता तो जुड़ ही गया था उससे | बड़ी विचित्र बात है जब आप किसी दूसरे प्रदेश में रहते हैं तो उस प्रदेश का हर व्यक्ति आपको अपना  सा लगता है | इसे वही जान सकता है जो रोजी – रोटी के लिए दूसरे प्रदेश में रह रहा हो |  यही अपनापन मुझे हामिद में नज़र आया |मुझे वो बिलकुल अपने छोटे भाई सा लगा | यू पी वालों की आदत के अनुसार ही हामिद भी काम करते समय बोलता रहता था | उसी ने बताया की  उसका परिवार वहीं कासगंज में  रहता है | बीबी का नाम शबाना है , दो बच्चे है  आदि – आदि | रोजे  रखने के बावजूद हामिद   बड़े मन से काम कर रहा था , हां !थोड़ी देर के लिए  दोपहर में नमाज के लिए जरूर जाता |  मैं आश्वस्त थी तभी मेरे  रिश्तेदारों का फोन आया | उनका प्रोग्राम कुछ बदल गया | अब वो वो २८ की जगह २६ को यानी ठीक ईद वाले दिन आ रहे हैं | मैंने हामिद से जल्दी काम खत्म करने को कहा और बाकी तैयारियों में जुट गयी | बाज़ार से लौटते समय मिसेज जुनेजा टकरा गयी | मैंने उन्हें फोन नंबर देने के लिए शुक्रिया कहते हुए कहा  ” हामिद अच्छे से  काम कर रहा है | मिसेज जुनेजा चौंकते हुए बोलीं ,” क्या हामिद !!! तब तो हो चुका तुम्हारा काम , ईद आने वाली है | देखना अपने गाँव जाएगा ईद मानाने , आखिरी जुम्मे से छुट्टी ले लेगा | तुम्हारी अलमारी तो फंस गयी | अब इतनी जल्दी कोई दूसरा इंतजाम भी नहीं हो सकता | अब सामानों को कैसे व्यव्स्तिथ  करोगी इसके बारे में सोंचों |  मैं निरुत्तर सी हो गयी | मुझे लगा , ” हो सकता है मिसेज जुनेजा की बात सही हो | हामिद भी तो घर जाने की बात कर रहा था | ओह ! तो क्या , मेरा काम यूँ ही अटका रहेगा | फिर खुद से ही अपनी बात को काटा ,” अरे नहीं , हामिद कह तो रहा था की वो समय पर काम कर के दे देगा | कितनी लगन  से लगा भी है | दूसरे दिन हामिद ने आते ही कहा ,” दीदी आज दोपहर में ही चला जाऊँगा | रमजान का आखिरी जुम्मा है  ना | फिर शाम को आऊंगा थोड़ी देर के लिए … Read more

आरोप –प्रत्यारोप : बेवजह के विवादों में न खोये रिश्तों की खुशबू

कहते हैं जहाँ प्यार है वहां तकरार भी है | दोनों का चोली –दामन का साथ है | ऐसे में कोई अपना खफा हो जाए तो मन  का अशांत हो जाना स्वाभाविक ही है | वैसे तो रिश्तों में कई बार यह रूठना मनाना चलता रहता है | परन्तु कई बार आप का रिश्तेदार थोड़ी टेढ़ी खीर होता है | यहाँ  “ रूठा है तो मना  लेंगे “ कह कर आसानी से काम नहीं चलता |वो ज्यादा भावुक हो या   उसे गुस्सा ज्यादा आता है , जरा सी बात करते ही आरोप –प्रत्यारोप का लम्बा दौर चलता हो , जल्दी मानता ही नहीं हो तो फिर आप को उसको मनाने में पसीने तो जरूर छूट जाते होंगे | पर अगर रिश्ता कीमती है और आप उसे जरूर मानना चाहेंगे | पर सवाल खड़ा होता होगा ऐसे रिश्तेदार को मनाये तो मनाये कैसे | ऐसा  ही किस्सा रेशमा जी के साथ हुआ | आरोप –प्रत्यारोप : बेवजह के विवादों में न खोये रिश्तों की खुशबू                 हुआ यूँ की एक दिन हम सब शाम को रोज की तरह  पार्क में बैठे मोहल्ले की बुजुर्ग महिला मिश्रा चाची जी से जीवन की समस्याओं और उनके समाधान की चर्चा कर रहे थे | तभी  रेशमा जी  मुँह लटकाए हुए आई | अरे क्या हुआ ? हम सब के मुँह से अचानक ही निकल गया | आँखों में आँसू भर कर बोली क्या बताऊँ ,” मेरी रिश्ते की ननद है ,मेरी सहेली जैसी  जब तब बुलाती हैं मैं हर काम छोड़ कर जाती हूँ |वह भी मेरे साथ उतनी ही आत्मीयता का व्यवहार  करती है |  अभी पिछले दिनों की बात है उन्होंने फोन पर Sms किया मैं पढ़ नहीं पायी | बाद में पढ़ा तो घर के कामों में व्यस्त होने के कारण जवाब नहीं दिया | सोचा बाद में दे  दूँगी | परन्तु तभी  उनका फोन आ गया | और लगी जली कटी सुनाने , तुम ने जवाब नहीं दिया , तुम्हे फीलिंग्स  की कद्र नहीं है , तुम रिश्ता नहीं चलाना चाहती हो | मैं अपनी बात समझाऊं तो और हावी हो जाए |आरोप –प्रत्यारोप का लम्बा दौर चला |  यह बात मैं अभी बता रही हूँ पर अब यह रोज का सिलसिला है | ऐसे कब तक चलेगा ? बस मन  दुखी है | इतनी पुरानी दोस्ती जरा से एस एम एसऔर बेफालतू के आरोप –प्रत्यारोप  की वजह से टूट जायेगी | क्या करूँ ?          हम सब अपने अपने तर्क देने लगे | तभी मिश्रा चाची मुस्कुरा कर बोली ,” दुखी न हो जो हुआ सो हुआ ,ऐसे कोई नाराज़  हो ,गुस्सा दिखाए, आरोप –प्रत्यारोप का एक लम्बा दौर चले तो मन उचाट होना स्वाभाविक है | पर कई बार रश्ते हमारे लिए कीमती होते हैं हम उन्हें बचाना भी चाहते हैं | पर आरोप -प्रत्यारोप के दौर की वजह से बातचीत नहीं करने का या कम करने का फैसला भी कर लेते हैं | ज्यादातर किस्सों में होता यह है की इन  बेवजह के विवादों में ऐसी बातें निकल कर सामने आती हैं जिसकी वजह से उस रिश्ते को आगे चलाना मुश्किल हो जाता है | जरूरत है इन  अनावश्यक विवादों से बचा जाए | और यह इतना मुश्किल भी नहीं है | बस थोड़ी सी समझदारी दिखानी हैं |   हम सब भी चुप हो कर चाची की बात सुनने लगे | आखिर उन्हें अनुभव हमसे ज्यादा जो था | जो हमने जाना वो हमारे लिए तो बहुत अच्छा था | अब मिश्रा  चाची द्वारा दिए गए सूत्र आप भी सीख ही लीजिये | चाची ने कहना शुरू किया ,” ज्यादातर वो लोग जो झगडा करते हैं उनके अन्दर  किसी चीज का आभाव या असुरक्षा  होती है| बेहतर है की उनसे तर्क –वितर्क न किया जाए | पर अगर अगला पक्ष करना ही चाहे तो बस कुछ बातें ध्यान में रखें ……….. उनकी बात का समर्थन करों                सुनने में अजीब जरूर लग रहा होगा | अरे कोई हम पर ब्लेम लगा रहा है और हम हां में हां मिलाये | पर यही सही उपाय है | अगर दूसरा व्यक्ति भावुक व् गुस्सैल है तो जब वो ब्लेम करें तो झगडे को टालने का सबसे बेहतर और आसान उपाय है आप उसकी बात से सहमति रखते  हुए उनके द्वारा लगाये हुए कुछ आरोपों को सही बताएं | पर ध्यान रखिये अपनी ही बात से अटैच न हों | जब आप अगले से सहमती दिखाएँगे तो उसके पास झगडा करने को कुछ रह ही नहीं जाएगा | आप उन आरोपों में से सब को सच मत मानिए पर किसी पॉइंट को हाईलाईट कर सकते हैं की हां तुम्हारी इस बात से मैं पूरी तरह सहमत हूँ | या आप अपनी बात इस तरह से रख सकते हैं की सॉरी मेरी इस असावधानी पूर्वक की गयी गलती से आप को तकलीफ हुई | इससे आप कुछ हद तक आरोपों को डाईल्युट  कर पायेंगे व् उसके गुस्से का कारण समझ पायेंगे व् परिस्तिथि का पूरा ब्लेम लेने से भी बच  जायेंगे | बार –बार दोहराइए बस एक शब्द     सबसे पहले तो इस वैज्ञानिक तथ्य को जान लें की जब कोई व्यक्ति भावुक निराशा या क्रोध में होता है तो वो एक ड्रंक ( मदिरा पिए हुए ) व्यक्ति की तरह व्यवहार करता है | ऐसे में व्यक्ति का एड्रीनेलिन स्तर बढ़ जाता है | जिससे शरीर में कुछ क्रम बद्ध प्रतिक्रियाएं होती हैं व् कई अन्य हार्मोन निकलने लगते हैं | इस सम्पूर्ण प्रक्रिया को रासायनिक तौर पर “ एड्रीनेलिन ड्रंक “ भी कहा जाता है | क्योंकि इस स्तिथि में सामान्य व्यवहार करने , कारण को समझने और अपने ऊपर नियंत्रण रखने की हमारी मानसिक क्षमता पूरी तरह ध्वस्त हो चुकी होती है | ऐसे में आप उनको समझा नहीं सकते हैं |  आप ने ग्राउंड हॉग के बारे में सुना होगा | यह एक ऐसा पशु है जो सर्दियों के ख़त्म होने के बाद जब हाइबरनेशन से बाहर निकलता है और धूप  में अपनी ही परछाई देख लेता है तो उसी शीत ऋतु  ही समझ कर वापस बिल में घुस जाता है | इस तरह से उसकी शीत ऋतु एक महीना और लम्बी हो जाती है | … Read more

स्त्री देह और बाजारवाद

बाजारवाद ने सदा से स्त्री को केवल देह ही समझा | पुरुषों के दाढ़ी बनाने के ब्लेड ,शेविंग क्रीम , डीयो आदि में महिला मॉडल्स को इस तरह से पेश किया गया जैसे वो भी कोई प्रॉडक्ट हो |  दुखद है की ये विज्ञापन पढ़ी – लिखी महिला की भी ऐसी छवि प्रस्तुत करते हैं की उसका कोई दिमाग नहीं है वो शेविंग क्रीम या डीयो की महक से बहक कर अपना साथी चुनती है | शिक्षित नारी की बुद्धि पर देह हावी कर स्त्री की छवि बिगाड़ने में इन विज्ञापन कम्पनियों ने कोई कसर नहीं छोड़ी |इससे भी ज्यादा दुखद है की हम परिवार के बीच बैठ वो विज्ञापन देखने के बाद वो प्रोडक्ट भी खरीद कर लाते हैं | यानी बाज़ार जानता है की उसका फायदा किसमें है |  यह सच्चाई किसी से छुपी नहीं है की तमाम अखबार और वेबसाइट फ़िल्मी हीरोइनों की आपत्तिजनक तस्वीरों को डाल – डाल अपनी पाठक संख्या में इजाफा करते हैं | लेकिन ये सिर्फ पाठक संख्या में ही इजाफा नहीं करते ये एक गलत वृत्ति के भी संवाहक है | जिसका परिणाम महिलाओं के प्रति किये जाने वाले अपराधों के बढ़ते आंकड़ों के रूप में दिखाई देता है | इसी कड़ी में अपने घिनौने रूपमें सामने आई है वह ऐश ट्रे जो अमेज़न .कॉम पर बिकने के लिए उपलब्ध है |  जिस कम्पनी ने इसे बनाया , जिस साइट या दुकानों द्वारा बेंची जा रही है वो समान रूप से दोषी हैं | जो स्त्री के प्रति एक गलत सोंच का प्रचार कर रही हैं |जिसका परिणाम हर आम बेटी बहू , माँ , बहन झेलेंगी | जब मीडिया में स्त्री को देह बनाने की साजिशे चल रही थी | तब हम अपने – अपने घरों के दरवाजे खिड़कियाँ बंद कर मौन धारण कर सुरक्षित बैठे रहे |जिसका परिणाम स्त्री के प्रति बढ़ते अपराधों के रूप में सामने आया | अभी हाल का मासूम नैन्सी कांड किसको विचलित नहीं कर देता | यह भी स्त्री के प्रति ऐसी ही घृणित सोंच का परिणाम है | कहीं तो लगाम लगानी होगी | कभी तो लगाम लगानी होगी | हम तब चुप बैठे , क्या अब भी चुप बैठेंगे | अपना विरोध दर्ज कीजिये वंदना बाजपेयी 

इमोशनल ट्रिगर्स –क्यों चुभ जाती है इत्ती सी बात

ज्ञान वह क्षमता है जिससे हम अपने गहरे दर्द भरे घाव को भर सकें हाय फ्रेंड्स             मैं मीरा | आज मैं आप के साथ एक किस्सा बाँटना चाहती हूँ | जिसमें सिर्फ मेरा ही नहीं हम सब का मनो विज्ञान छिपा है | बात तब की है जब मैं इस इस कालोनी में नयी – नयी रहने आई थी | और सुधा के रूप में मुझे एक अत्यंत सुलझी हुई महिला पड़ोसन केर रूप में मिली |हम दोनों की अक्सर बातचीत होने लगी |  जाहिर सी बात है हम दोनों के विचार मिलते थे  व् हम  दोनों  को आपस में बात करना अच्छा लगता था  | हम दोनों घंटों बात करते | पर जब सुधा ये  बताती की उसने खाने में क्या बनाया है | या उसके पति ने उसके बनाये खाने की तारीफ़ में क्या – क्या कशीदे पढ़े तो मैं  अपसेट सी हो जाती | कहीं न कहीं मैं  हर्ट फील करती |एक दिन तो अति हो गयी | मैंने  ने गाज़र का हलवा बनाया व् बड़े प्रेम से सुधा को परोसा | सुधा ने हलवे की तारीफ़ करते हुए कहा , बना तो बहुत अच्छा है पर अगर तुम थोड़ी देर और आंच पर रखती तो शायद और बेहतर बनता | सुनते ही मैं आगबबुला हो गयी और सुधा से तीव्र स्वर में बोली ,” क्या मतलब है आपका , क्या मुझे हलवा बनाना नहीं आता | या आप अपने को किचन क्वीन समझती हैं | अरे आप के पति आप के खाने की प्रशंसा कर देते हैं तो आप को लगता है की आप सबसे बेहतर हो गयी | मेरे हलवे की बुराई करने के लिए धन्यवाद |इतना ही नहीं उनके जाने के बाद भी मैं बहुत देर तक अनाप शनाप जाने क्या – क्या कहती रही |  सुधा को बहुत बुरा लगा | उसने मोहल्ले भर में बात फैला दी | मीरा तो दोस्ती करने लायक ही नहीं है | गुस्सा तो नाक पर रखा रहता है |  आखिर बस इतनी सी बात पर  इतना गुस्सा क्यों हो गयी | जब लगे सब खत्म हो गया है                    काफी देर बाद जब मुझे होश आया | तो मुझे भी बहुत अफ़सोस हुआ | आखिर इत्ती सी बात पर मैंने न जाने क्या – क्या कह दिया | फिर मैंने अपने पूर्व अनुभवों को याद किया की अनेकों बार मैं इत्ती सी बात पर हर्ट हो जाती हूँ | मेरे कई रिश्ते इसी बात पर टूटे | ये मेरा एक पैटर्न था | पर अब मैं इसे बदलना चाहती थी | मैं दुबारा सुधा से दोस्ती करना चाहती  थी | या कम से कम इतना चाहती थी की अब जिससे दोस्ती करु वो रिश्ता न टूटे | इसलिए मैंने गहन पड़ताल की और पाया की  बात सिर्फ मेरी या सुधा की नहीं है हम सब अनेकों बार किसी की बस इतनी सी बात पर बहुत नाराज़ हो जाते हैं या कोई हमारी बस इतनी से बात पर बहुत नाराज़ हो जाता है | हमें समझ नहीं आता  की हमारे या किसी दूसरे के लिए ये इत्ती सी बात इतनी महत्वपूर्ण कैसे हो जाती है | हां ये जरूर है की हमारी इत्ती सी बात दुसरे की इत्ती सी बात से अलग होती है | अब जब भी आपको इत्ती सी बात पर गुस्सा आये तो जरा गौर करियेगा की आपको उस बात पर गुस्सा आ रहा है या उसके पीछे कोई इतिहास है | दरसल हम सब के इमोशनल ट्रिगर्स होते हैं | उन का संबंध अतीत के हमारे किसी दर्द , किसी अधूरी इच्छा या किसी अपेक्षा से होता है | हम अपने सर पर एक बहुत बड़ा बोझा ढो  रहे होते हैं | उस बोझे के साथ हम किसी तरह से संतुलन बना कर चल रहे होते हैं | पर जब ये इत्ती सी बात का वजन बढ़ जाता है तो हमारा संतुलन टूट जाता है | उदहारण के तौर पर इत्ती सी बात के अपने इमोशनल ट्रिगर्स  बता रही हूँ                          मैं अपने पति से अपने बनाये खाने की प्रशंसा सुनना चाहती थी |मैं  अच्छे से अच्छा खाना बनाती और परोसती पर वो चुपचाप बिना कोई एक्सप्रेशन दिए हुए खा  लेते | मैंने कई बार टोंका तो वो बस इतना उत्तर दे देते की वो खाने के लिए नहीं जीते , उन्हें और भी जरूरी काम करने हैं जिंदगी में | और मैं चुपचाप झूठी प्लेटें उठाने  में लग जाती |  कारण चाहें जो भी रहा हो पर मेरे  पति ने मेरी  ये इच्छा पूरी नहीं की | धीरे – धीरे मुझे को लगने लगा की मैं  अच्छा खाना नहीं बनाती | पर जब मैं खुद अपना बनाया खाना चखती तो मेरी पाककला मेरी अपने प्रति  स्वयं ही बनायी धारणा  के खिलाफ चुगली कर देती | मेरा दिल और दिमाग अलग – अलग बोलता | मैं बहुत असमंजस में पड़ जाती |ऐसे में जब कोई ये बताता की उसके पति उसके बनाये खाने की कितनी प्रशंसा करते हैं तो कहीं न कहीं मेरा दर्द उमड़ आता और मैं खुद पर काबू न कर पाती | मैंने यही चीज कुछ और लोगों में भी देखी … नाउम्मीद करती उम्मीदें ·        निधि ने आई आई टी की तैयारी की पर exam से ठीक पहले बीमार पड़ गयी | वो आई आई टी में सफल नहीं हो पायी | हालांकि उसने अच्छे एन  आई टी  से शिक्षा हासिल की पर जब कोई आई आई टी की तारीफ़ करता है तो वो हर्ट हो जाती है | यहाँ तक की परिवार के अन्य बच्चों के सिलेक्शन की खबर सुन कर वो लम्बा भाषण दे डालती है की आई आई टी जीवन में सफलता की गारंटी नहीं है | कहते  –कहते उसका स्वर  उग्र हो जाता और साफ़ पता चल जाता की उसे बुरा लगा है |  ·        निकिता जी का बेटा विदेश में रहता है | वो यहाँ अकेले बुढापे में रह रहीं हैं | जब कोई अपने बेटे की सेवा भाव की तारीफ़ करता तो बात उन्हें चुभ जाती |·        मीता की माँ भाई – भाभी के पास रहती हैं | भाई – भाभी दोनों उनका ख्याल नहीं रखते हैं | मीता अपना ये … Read more

खिलो बच्चो , की मेरे सपनों की कैद से आज़ाद हो तुम्हारे सपने

ये जिंदगी हमेशा नहीं रहने वाली है | वो क्षण जो अभी आपके हाथ में सितारे की तरह चमक रहा है ,ओस की बूँद की तरह पिघल जाने वाला है | इसलिए वही काम, वही चुने जिसे आप सच में प्यार करते हों – नीना सिमोन                         जीवनसाथी  साथ केवल वो व्यक्ति ही नहीं होता जिसके साथ हम सात फेरे ले कर जीवन भर साथ निभाने की कसमें खाते हैं | जीवन साथी वो काम भी होता है जिससे न सिर्फ हमारा घर चलता है बल्कि उसे करने में हमें आनंद भी आता हियो और संतोष भी मिलता है | परन्तु ऐसा हमेशा नहीं हो पाता क्योंकि माँ – पिता ने अपने बच्चों के लिए सपने देखे होते हैं और वो उसे उसी दिशा में मोड़ना चाहते हैं | कई बार ये दवाब इतना ज्यादा होता है की नन्ही आँखें अपने सपने आँखों में ही कैद करे रहती हैं उन्हें बाहर निकालने की हिम्मत भी नहीं कर पाती हैं | ये सपने उनकी आँखों में पानी बन  तैरते रहते हैं और डबडबायी आँखों से उनका जीवन पथ धुंधला करते रहते हैं | क्या ये जरूरी नहीं की पेरेंट्स अपने बच्चों का दर्द समझे और उन्हें उनके सपने पूरा करने में सहयोग दें | अगर ऐसा हो जाता है तो दोनों का ही जीवन बहुत खुशनुमा बहुत आसान हो जाता है | ऐसी ही हिम्मत प्रिया ने दिखाई | जिसने अपनी बेटी को वो पथ चुनने दिया जो उनके लिए बिलकुल अनजान था | उससे भी बड़ी बात ये थी की प्रिया के सपनों के पथ पर कुछ साल चल चुकी थी | अब  अपने सपने पाने के लिए उसे उतना ही वापस लौटना था | ये फैसला दोनों के लिए आसान नहीं था पर उसको लेते ही दोनों की जिंदगी आसान बन गयी | प्रिया अपनी कहानी कुछ इस तरह से सुनाती हैं …. जब मोटिवेशन , डीमोटिवेट करे कई सालपहले की बात है जब प्रिया के भाई की शादी थी | उसने बड़े मन से तैयारी की थी | एक – एक कपडा मैचिंग ज्वेलरी खरीदने के लिए उसने घंटों कड़ी धुप भरे दिन बाज़ार में बिताये थे | पर सबसे ज्यादा उत्साहित थी वो उस लहंगे के लिए जो उसने अपनी ६ साल की बेटी पिंकी  के लिए खरीदा था | मेजेंटा कलर का | जिसमें उतनी ही करीने हुआ जरी का काम व् टाँके गए मोती , मानिक | उसी से मैचिंग चूड़ियाँ , हेयर क्लिप व् गले व् कान के जेवर यहाँ तक की मैचिंग सैंडिल भी खरीद कर लायी थी | वो चाहती थी की मामा की शादी में उसकी परी सबसे अलग लगे | जिसने भी वो लहंगा देखा | तारीफों के पुल बाँध देता तो  प्रिया की ख़ुशी कई गुना बढ़ जाती | शादी का दिन भी आया | निक्ररौसी से एक घंटा पहले पिंकी लहंगा पहनते कर तैयार हो गयी | लहंगा पहनते ही पिंकी ने शिकायत की माँ ये तो बहुत भारी है , चुभ रहा है | प्रिया  ने उसकी बात काटते हुए कहा ,” चुप पगली कितनी प्यारी लग रही है , नज़र न लग जाए | उपस्तिथित सभी रिश्तेदार भी कहने लगे ,” वाह पिंकी तुम तो परी लग रही हो |एक क्षण के लिए तो पिंकी खुश हुई | फिर अगले ही क्षण बोलने लगी , माँ लहंगा बहुत चुभ रहा है भारी है | प्रिया  फिर पिंकी को समझा कर दूसरे कामों में लग गयी | पर पिंकी की शिकायत बदस्तूर जारी रही | बरात प्रस्थान के समय तक तो उसने रोना शुरू कर दिया | वो प्रिया  का हाथ पकड़ कर बोली माँ मैं ठीक से चल नहीं पा रही हूँ मैं शादी क्या एन्जॉय करुँगी | प्रिया  को समझ नहीं आ रहा था वो क्या करे | अगर पिंकी लहंगा नहीं पहनेगी तो इतने सारे पैसे बर्बाद हो जायेंगे , जो उसने लहंगा खरीदने के लिए खर्च किये थे | फिर वो इस अवसर पर पहनने के लिए कोई दूसरा कपडा भी तो नहीं लायी है | नाक कट जायेगी | पर उससे पिंकी के आँसूं भी तो नहीं देखे जा रहे थे | अंतत : उसने निर्णय  लिया और पिंकी का लहंगा बदलवा कर साधारण सी फ्रॉक पहना दी | पिंकी माँ से चिपक गयी | प्रिया  भी मुस्कुरा कर बोली ,”जा पिंकी अपनी आज़ादी एन्जॉय कर “ फिर तो पूरी शादी में पिंकी छाई  रही | हर बात में बढ़ – चढ़ कर हिस्सा लिया | क्या डांस किया था उसने | सब उसी की तारीफ़ करते रहे |  नाउम्मीद करती उम्मीदें                                   बरसों बाद आज माँ बेटी उसी मोड़ पर खड़े थे | पिंकी मेडिकल सेकंड ईयर की स्टूडेंट है |उसको डॉक्टर बनाने का सपना प्रिया  का ही था | पिंकी का मन तो रंगमंच में लगता था , फिर भी उसने माँ का मन रखने के लिए जम कर पढाई की और इंट्रेंस क्लीयर किया | कितनी वह वाही हुई थी प्रिया की | कितनी भाग्यशाली है | कितना त्याग किया होगा तभी बेटी एंट्रेंस क्लीयर कर पायी | प्रिया गर्व से फूली न समाती | परन्तु पिंकी ने इधर मेडिकल कॉलेज जाना शुरू किया उधर उसका रंगमंच से प्रेम उसे वापस बुलाने लगा | उसने माँ से  कहा भी पर प्रिया ने उसे समझा – बुझा कर वापस पढाई में लगा दिया | पिंकी थोड़े दिन तो शांत  रहती | फिर वापस उसका मन रंगमंच की तरफ दौड़ता | करते – करते दो साल पार हो गए | पिंकी थर्ड इयर में आ गयी | अब उसका मन पढ़ाई में बिलकुल नहीं लगने लगा | वो अवसाद में रहने लगी | प्रिया को भय बैठ गया | अगर इसने पढ़ाई छोड़ दी तो समाज को क्या मुँह दिखायेगी | सब चक – चक   करेंगे | फिर दो साल में पढाई में इतने पैसे भी तो लगे हैं उनका क्या होगा | वो तो पूरे के पूरे बर्बाद हो जायेंगे | पर बेटी का अवसाद से भरा चेहरा व् गिरती सेहत भी उससे नहीं देखी  जा रही थी | अंतत : उसने निर्णय लिया और एक कागज़ पर … Read more

गहरा दुःख : आओ बाँट ले दर्द शब्दों से परे

सबसे पीड़ादायक वो ” गुड बाय ” होते हैं जो कभी कहे नहीं जाते और न ही कभी उनकी व्याख्या की जाती है | -अज्ञात   सुख – दुःख जीवन के अभिन्न अंग हैं | परन्तु कुछ दुःख ऐसे होते हैं , जो कभी खत्म नहीं होते | ये दुःख दिल में एक घाव कर के रख देते हैं | हमें इस कभी न भरने वाले घाव के साथ जीना सीखना होता है |  ये दुःख होता है अपने किसी प्रियजन को हमेशा के लिए खो देने का दुःख | जब संसार बिलकुल खाली लगने लगता है | व्यक्ति जीवन के दांव में अपना सब कुछ खो चुके एक लुटे पिटे जुआरी की तरह  समाज की तरफ सहारा देने की लिए कातर दृष्टि से देखता है | परन्तु समाज का व्यवहार इस समय बिलकुल  अजीब सा हो जाता है | शायद हम सांत्वना के लिए सही शब्द खोज नहीं पाते हैं और दुखी व्यक्ति का सामना करने से घबराते हैं या हम उसे जल्दी से जल्दी बाहर निकालने के लिए ढेर सारे शब्दों का इस्तेमाल करते हैं | जो उस अवस्था में किसी धार्मिक ग्रन्थ के तोता रटंत से अधिक कुछ भी प्रतीत नहीं होता |                                      ऐसा ही अनुभव मुझे अपने पिता की मृत्यु  पर हुआ था | जब दिल्ली में हम इस घर में नए – नए शिफ्ट हुए | जल्द ही आस – पड़ोस से दोस्ती हो गयी थी | हम कुछ सामाजिक कार्यक्रमों में भी व्यस्त थे | तभी पिता जी के न रहने का दुखद समाचार मिला | अपने हर छोटे बड़े निर्णय जिस पिता का मुँह देखते थे उन का साया सर से उठ जाना  ऐसा लगा जैसे दुनिया बिलकुल खाली हो गयी हैं | वो स्नेह का कोष जिससे जीवन सींचते थे | अचानक से रिक्त हो गया , अब जीवन वृक्ष कैसे आगे बढेगा | अपने अस्तित्व पर भी खतरा मंडराने लगा | परन्तु इस समय में जब मुझे अपनों की बहुत ज्यादा आवश्यकता थी | अपनों का समाज का व्यवहार बड़ा ही विचित्र लगा | टर्मीनली इल – कुछ लम्हें जो मिले हैं उस पार जाने वाले के साथ                    जहाँ मेरे निकट जन , सम्बन्धी मुझे जल्दी से जल्दी बाहर निकालने का प्रयास करने में एक हद तक मुझ पर दवाब डाल रहे थे | उनके द्वारा कही गयी ये सब बातें …अब वो बातें मत सोंचों , पार्क जाओ , घूमों फिरो , बच्चों के लिए कुछ अच्छा बनाओं , कुछ नया सामान  लाओ, मुझे बेमानी लग रही थी | क्या वो मेरा दुःख नहीं समझ पा रहे है | उनकी एक्सपेक्टेशन्स इतनी बचकानी क्यों है ? मेरे हाथ में कोई रिमोट कंट्रोल नहीं है की मैं पुरानी यादों को एकदम से डिलीट करके , जिंदगी को “फ़ास्ट फारवर्ड “ कर सकूँ | वही दिल्ली वापस आने पर अचानक से मेरे पड़ोसियों का व्यवहार बड़ा विचित्र हो गया | वो जैसे मुझे कन्नी काटने लगे | कभी सड़क पर अचानक से मिल जाने पर “ वेलकम स्माइल “ भी नहीं मिलती | जैसे मैं हूँ ही नहीं | पिता को खोने के गम के साथ  – साथ मैं अजीब सी रिक्तता से घिरती जा रही थी | स्नेह की रिक्तता , अपने पन की रिक्तता | जब मैंने अपने माता – पिता को माफ़ किया                    हालंकि बाद में मुझे  अहसास हुआ की दोनों में से कोई गलत नहीं थे | जहाँ एक और मेरे अपने येन केन प्रकारेंण मुझे सामान्य जिंदगी में देखना चाहते थे | ताकि उनकी भी जिन्दगी सामान्य हो सके | वो मेरे शुभचिंतक थे | वो मुझे इस हालत में छोड़ना नहीं कहते थे | परन्तु उनकी सामन्य जिन्दगी मेरी असमान्य जिन्दगी  में अटक गयी थी | मेरे सामान्य होने पर वो अपनी सामान्य जिंदगी आसानी से जी सकते थे | शायद इसी लिए मुझे जल्दी से जल्दी सामान्य करने के लिए वो मुझ पर शब्दों की बमबारमेंट कर रहे थे | और उनके जाने के बाद मैं चीखने जैसी स्तिथि में  सर पकड कर सोंचती ,” अब मत आना मुझे समझाने , ये सारा ज्ञान मेरे पास है , फिर भी मैं नहीं निकल पा रही हूँ | वहीं दूसरी ओर जैसा की एक पड़ोसन ने बताया की हमारी दोस्ती नयी थी | और उस समय मेरा चेहरा इतना दुखी दिखता था की वो ये समझते हुए भी की मैं बहुत दुखी हूँ कुछ कह नहीं पाती | सही शब्दों की तालाश में वो अपना मुँह इधर – उधर कर लेती | और मैं बेगाना सा महसूस करती रहती | यह सही कहने का नहीं , सही करने का वक्त है         एक तरफ शब्दों  की अधिकता , दूसरी तरफ शब्दों की कमी … क्या हम सब इसी के शिकार नहीं हैं ? क्या हम सब किसी दुखी व्यक्ति को सांत्वना देना कहते  हुए भी दे नहीं पाते हैं | किसी को हमेशा के लिए खो देने के अलावा भी कई ऐसी परिस्तिथियाँ होती हैं | जहाँ हमें समझ नहीं आता  है की हम क्या कहें | जैसे किसी का डाइवोर्स हो जाने पर , किसी की नौकरी छूट  जाने पर या किसी को  ठीक न होने वाले कैंसर की खबर  सुन  कर | अक्सर ऐसी परिस्तिथियों में हम सही शब्द नहीं खोज पाते | तब या तो जरूरत से ज्यादा बोलते हैं या जरूरत से कम | वास्तव में किसी को सांत्वना देने के लिए हमें कुछ बातों का विशेष ख़याल रखना चाहिए | सब से पहले खुद को संभालें –             जब भी आप को अपने किसी प्रियजन  या जान – पहचान वाले के जीवन में हुए किसी हादसे या दुखद घटना का पता चलता है तो  जाहिर है आप को भी बहुत दुःख लगेगा | ऐसे में जब आप उससे मिलने जायेंगे तो आप उसका कितना भी भला चाहते  हों आप भी तनाव में आ जायेंगे | आप के दिल की धडकन भी बढ़ जायेगी , रक्त चाप बढ़ जाएगा और एक तरह का स्ट्रेस महसूस होगा | ऐसे में आप कभी भी सही शब्द नहीं खोज पायेंगे |याद रखिये आप उसे संभालने जा रहे हैं न की उसका तनाव बढाने | इसलिए पहले खुद को संभालिये | जब आप खुद को संभालेंगे | तनाव मुक्त होंगे , तभी आप सही शब्द खोज पायेंगे और दूसरे को … Read more