वो पहला खत

बचपन में एक गाना  अक्सर सुनते थे  “लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के सितारे बन गए ” | गाना हमें बहुत पसंद था पर हमारा बाल मन सदा ये जानने की कोशिश करता ये खत सितारे कैसे  बन जाते हैं।. खैर बचपन गया हम बड़े हुए और अपनी सहेलियों को  बेसब्री मिश्रित ख़ुशी के साथ उनके पति के खत पढ़ते देख हमें जरा -जरा अंदाज़ा होने लगा कि खत सितारे ऐसे बनते हैं।  और हम भी एक अदद पति और एक अदद खत के सपने सजाने लगे।  खैर दिन बीते हमारी शादी हुई और शादी के तुरंत बाद हमें इम्तहान देने के लिए मायके   आना पड़ा।  हम बहुत खुश थे की अब पति हमें खत लिखेंगे और हम भी उन खुशनसीब सहेलियों की सूची में आ जाएंगे जिन के पास उनके पति के खत आते हैं। हमने उत्साह  में भरकर कर पति से कहा आप हमें खत लिखियेगा ,खाली फोन से काम नहीं चलेगा। खत …… न न न ये हमसे नहीं होगा  हमें शार्ट में आंसर देने की आदत है।  ,यहाँ सब ठीक है वहाँ सब ठीक होगा इसके बाद तीसरी लाइन तो हमें समझ ही नहीं आती है।  पति ने तुरंत ऐसे कहा जैसे युद्ध शुरू होने से पहले ही युद्ध विराम की घोषणा हो जाए। हमारे अरमानों  पर घड़ों पानी फिर गया। कहाँ हम अभी खड़े -खड़े ४ पेज लिख दे कहाँ ये तीसरी लाइन लिखने से भी घबरा रहे हैं।ईश्वर के भी क्या खेल हैं पति -पत्नी को जान -बूझ कर विपरीत  बनाते हैं जिससे घर में संतुलन बना रहे किसी चीज की अति न हो। हम पति को खत लिखने के लिए दवाब में ले ही रहे थे की हमारी आदरणीय सासू माँ बीच में आ गयीं और अपने पुत्र का बचाव करते हुए बोली ,” अरे ! इससे खत लिखने को न कहो | इसने आज तक हम लोगों  को खत  नहीं लिखा तुम्हें क्या लिखेगा | सासू माँ की बात सही हो सकती थी पर वो पत्नी ही क्या जो अपने पति की शादी से पहले की आदतें न बदलवा दे | हमें पता था समस्त भारतीय नर्रियाँ हमारी तरफ आशा की दृष्टि से देख रही होंगी | हम हार मानने में से नहीं थे | हम पतिदेव को घंटों पत्र लिखने  का महत्व समझाते रहे ,पर  पति के ऊपर से सारी  दलीले ऐसे फिसलती रहीं जैसे चिकने घड़े के ऊपर से पानी।  अंत में थक हार कर हमने ब्रह्मास्त्र छोड़ा ……….इस उम्र में लिखे गए खत ,खत थोड़ी न होते हैं वो तो प्रेम के फिक्स डिपाजिट होते हैं.| सोंचो    जब तुम होगे ६० साल के और हम होंगे ५५ के ,दिमाग पूरी तरह सठियाया हुआ होगा तब हम यही खत निकाल कर साथ -साथ पढ़ा करेंगे ,और अपनी नादानियों पर हँसा करेंगे।वाह रे हानि लाभ के ज्ञाता ! फिक्स डिपोजिट की बात  कहीं न कहीं पति को भा  गयी और उन्होंने खत लिखने की स्वीकृति दे दी।                       एक अदद खत की आशा लिए हम मायके आ गए। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे ,और खत महाराज नदारद। रोज सूना लैटर बॉक्स देख कर  हमारा मन उदास हो जाता। चाइल्ड साइकोलॉजी पढ़ते हुए भी  हमारी सायकॉलॉजी बिगड़ रही थी।  आख़िरकार हमने खत मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी। एक दिन  बुझे मन से लेटर बॉक्स देखने के बाद हम ख़ाना खा रहे थे की हमारा ५ साल का भतीजा चिल्लाते हुए आया “बुआजी ,फूफाजी की चिठ्ठी आई है। हमारा दिल बल्लियों उछल पड़ा ,पर इससे पहले की हम खत उसके हाथ से लेते , हमारी “विलेन ”  भाभी ने यह कहते हुए खत ले लिया “पहले तो हम पढ़ेंगे “| हमें अरेंज्ड मैरिज होने के  कारण यह तो बिलकुल नहीं पता था की पति कैसा खत लिखते हैं। पर हम अपनी भाभी  के स्वाभाव से बिलकुल परिचित थे कि अगर एक लाइन भी ऊपर -नीचे हो गयी तो वो हमें  हमारे पैर कब्र में लटकने तक चिढ़ाएँगी।  लिहाज़ा हमने उनसे पत्र खीचने की चेष्टा की। भाभी पत्र ले कर दूसरी दिशा में भागीं | घर में भागमभाग मच गयी | भाभी आगे भागी हम पीछे। भागते – भागते हम सब्जी की डलिया से टकराये ,आलू -टमाटर सब बिखेरे, हम बिस्तर पर कूदे ,एक -दूसरे पर तकिया फेंकी …………… पर चिठ्ठी भाभी के ही हाथ में रही | अंततः हमें लगा कि लगता है भाभी ने भतीजे के होने में विटामिन ज्यादा खा लिए हैं भाग -दौड़ व्यर्थ है। हार निश्चित हैं | ” आधी छोड़ पूरी को धावे /आधी मिले न पूरी पावे”  के सिद्धांत पर चलते हुए हमने उन्हें पति कि पहली चिठ्ठी पढ़ने कि इज़ाज़त दे दी।                                भाभी ने  खत पढ़ना शुरू किया। . जैसे जैसे वो आगे बढ़ती जा रहीं थी उनका चेहरा उतरता जा रहा था।  धीरे से बोली ” हे भगवान !बिटिया बड़ा धोखा हो गया तुम्हारे साथ “(भाभी हमें लाड में बिटिया कहती हैं )क्या हुआ भाभी हमने डरते हुए पूंछा ?च च च निभाना तो पडेगा ही ,पर दुःख इस बात का ही की पापा से इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी। भाभी ने गंभीरता से कहा।  हमारा जी घबराने लगा “क्या हुआ भाभी ‘”बड़ी मुश्किल से ये शब्द हमारे मुह से निकले। च च च हाय बिटिया ! पापा तो चलो बूढ़े हैं पर तुम्हारे भैया भी तो गए थे लड़का देखने उनसे ये गलती कैसे हो गयी। इंजीनियर देख लिया ,आई आई टी देख लिया बस ,क्या इतना काफी है ? अरे , ये तक नहीं समझ पाये ………… ये लक्षण। हमारी आँखे भर आई। हम पिछले दिनों पति द्वारा बताई गयी बातों से अंदाज़ा लगाने लगे ………… पांचवी में साथ  पढ़ने वाली पिंकी , आठवी वाली सुधा या आई आई टी के ज़माने की मनीषा ,आखिर कौन है वो जिसने हमारा घर बसने से पहले उजाड़ दिया।  भाभी कुछ तो बाताओ ,क्या हुआ है ? न चाहते हुए भी हमरे मुह से ये शब्द निकल गए ,वैसे भी अब जानने को बचा क्या था। बिटिया ,जन्म -जन्मान्तर का साथ है ,निभाना पडेगा ,तुम्हे ही धैर्य रखना … Read more

जब मोटिवेशन ,डीमोटिवेट करें – मुझे डिफेंसिव पेसिमिज्म से सफलता मिली

जो आशावादी  था उसने हवाई जहाज बनाया , जो डिफेंसिव पेसिमिस्ट था उसने पैराशूट बनाया | दोनों ही सफल हैं व् समाज के लिए जरूरी भी |                      मैं मालविका वर्मा , मेडिकल फोर्थ इयर स्टूडेंट हूँ | आज जब मैं सफलता के नए अध्याय  लिख रही हूँ तो पीछे पलट कर देखने पर मुझे अपने वो तीन ड्राप ईयर’स और उनमें की गयी गलतियां याद आती हैं | जब मैं लगातार असफल हो रही थी | मेरा सपना डॉक्टर बनने का था और मैं  किसी भी प्रकार उसका इंट्रेंस क्लीयर करना चाहती थी | मैंने भी ठान ली थी चाहें कुछ भी हो जाए मुझे ये इंट्रेंस एग्जाम क्लीयर करना ही है | फिर भी मैं असफल हो रही थी | दरसल मेरी गलती मेहनत में नहीं मेरी स्ट्रेटजी में थी | जो की अपने मूल स्वाभाव को न समझ पाने के कारण हुई |                             शुरू से ही मेरे घर में पढाई का बहुत अच्छा  वातावरण था  | मेरे पिता आई आई एम अहमदाबाद से गोल्ड मेडीलिस्ट व् माँ एक नामी स्कूल में प्रिंसिपल है | बचपन से ही मेरे ऊपर दवाब था |दो जीनियस लोगों की बेटी को अच्छा तो करना ही चाहिए | आखिर कार जींस जो मिले हैं |  और था भी सही | शुरू से ही मेरे माता – पिता ने मेरी पढाई का बहुत ध्यान रखा | माँ मुझे घर आने के बाद  नियम से पढ़ाई कराती  और पिताजी न सिर्फ मुझे एक से बढ़कर एक बुक्स मुहैया कराते बल्कि यूँ खेलते – खेलते न जाने कितनी जानका रियाँ दे देते | इस तरह से कह सकते हैं की बचपन से ही मेरा आई क्यू बहुत स्ट्रांग हो गया | साथ ही मेरे सपने भी | मैं भी अपने माता – पिता के पदचिन्हों पर चलकर कुछ बेहतर करना चाहती थी | जिससे वो मुझ पर फक्र कर सकें | मेरे ऊपर दवाब भी था और मेरे अनवरत प्रयास भी जारी थे | मैं खेल के समय में कटौती करके पढ़ाई करती मुझे मेडिकल एंट्रेंस जो क्लीयर करना था | माँ और पिता भी मुझे असफल जीवन से डराते भी थे | या यूँ कहिये की मुझे असफलता बहुत भयभीत करती |इसलिए मैं असफल; होने का हर कारण सोंच कर पहले से ही उस द्वार को बंद कर देती | मैं लगातार सफल होती जा रही थी | इस कारण मुझ पर दवाब बढ़ रहा था | १२ th तक सब अच्छा चला | पर मेडिकल में मैं कुछ नंबर  से रह गयी | मैंने ड्राप करके दुबारा एग्जाम देने का मन बनाया | जब मैंने अपने माता – पिता को माफ़ किया                   इसी समय बहुत से लोगों ने मुझे राय देना शुरू किया | तुम पॉजिटिव सोंचा करो | पॉजिटिव सोंचने से रिजल्ट अच्छे आते हैं | मुझे बात सही लगी | मैं बाज़ार से ढेर सारी  किताबें पॉजिटिव थिंकिंग की ले आई | अच्छा सोंचो , ऊँचे सपने देखो , अच्छे एंड रिजल्ट की कल्पना करो , अपने आत्मविश्वास को बढाओ … और छू लो आसमान | मुझे सब कुछ बहुत आसान लगा | मैं खुद को डॉक्टर के रूपमें देखती , मैं कल्पना करती की मैं सारे exam बहुत अच्छे दे रही हूँ , मैं आत्म विश्वास से भरी हुई हूँ | पर खुश होने के  स्थान पर रिलैक्स होने से  मेरा तनाव बढ़ जाता |यहाँ मैं बता दूं मैंने सपनों और कल्पनाओं को जीया तो जरूर पर मेहनत में कोई कमी नहीं की | फिर भी रिजल्ट सही नहीं  आया | यहाँ तक की इस बार मेरे पिछली  बार से भी कम नंबर आये | मेरा आत्मविश्वास डगमया पर मैंने फिर प्रयास करने की ठानी | अब की मैंने मेहनत और बढा दी , साथ ही साथ खुद को सफल रूपमें देखने व् सोंचने की सीमा भी | अब मैं ज्यादातर यही सोंचती की मुझे सफलता मिल गयी है , मैं डॉक्टर बन गयी हूँ | पर अफ़सोस मेरे नंबर और कम आये | अब मैं सफलता से थोडा और दूर थी | अब मैंने अपने कारणों की एनालिसिस करना शुरू किया | मेरी मेहनत में तो कोई कमी नहीं थी | फिर क्यों मैं असफल हुई | टर्मीनली इल – कुछ पल जो मिले हैं उस पार जाने वाले के साथ           यही वो समय था | जब मेरे पिता अपना जॉब स्विच ओवर कर रहे थे | उनका इंटरव्यू था | जैसा की मैंने पहले ही लिखा था की वो  जीनियस हैं | पर इंटरव्यू से पहले वो बहुत नर्वस थे | वो तमाम फ़ालतू कल्पनाएँ कर रहे थे | मसलन अगर घबराहट में उनके हाथ से कॉफ़ी का कप गिर गया , या वो कुर्सी पर ठीक से बैठ नहीं पाए , या गैस की वजह से उन्हें तेज डकार आ गयी | उनकी कल्पनाओं को सुन – सुन कर मुझे हंसी आ रही थी | मुझे लगा इतने कमजोर आत्मविश्वास में वो इंटरव्यू देंगे तो क्या ख़ाक सफल होंगे | पर शाम को जब वो मिठाई का डिब्बा क्ले कर आये तो मेरे आश्चर्य की सीमा न रही | उन्होंने इंटरव्यू क्रैक कर लिया था | उनकी सैलिरी १० % बढ़ गयी थी | मैंने याद किया की अपने हर इंटरव्यू से पहले पिताजी ऐसे अजीबो गरीब कल्पनाएँ करते हैं | फिर भी वो इंटरव्यू क्रैक करते हैं | फिर खुद ही सोंचा ,” शायद वो जीनियस हैं इसलिए | “ तभी ध्यान आया की पिताजी अपने जीवन की हर समस्या में बुरे से बुरे की कल्पना करते हैं और फिर उस समस्या से बाहर निकल जाते हैं | फिर मैंने  अपने ऊपर ध्यान दिया | मैं भी तो पहले असफल हो जाउंगी का भय पाले रहती थी तब तक लगातार सफल हो रही थी | जब अपने को सफल होने की कल्पना करने लगी तो असफल होने लगी | ओह ! मेरे हाथ में सूत्र लग गया | मैंने एक बार फिर ड्राप करने का निर्णय लिया | पहले मेरे माता – पिता ने मेरा विरोध किया फिर मान गए | इस बार मैंने कोई गलती नहीं की | रिजल्ट मेरी इच्छा के अनुसार आया | मेरा चयन हो गया था | … Read more

बहू और बेटी

वो बेटी ही थी | और शादी के बाद बहू बन गयी | • सर पर पल्ला रखो ~ अब तुम बेटी नहीं बहू हो • कुछ तो लिहाज करो , पिता सामान ही सही पर ससुर से बात मत करो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • माँ ने सिखाया नहीं , पैताने बैठो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • घर से बाहर अकेली मत निकलो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो • अपनी राय मत दो , जो बड़े कहे वही मानो ~ तुम बेटी नहीं बहू हो उसने खुद को ठोंक – पीट के बहू के सांचे में ढल दिया | अब वो बेटी नहीं बहू थी | समय पलटा , सास – ससुर वृद्ध हुए और अशक्त व् बीमार भी | बिस्तर से लग गए | * बताओ कौन सा ट्रीटमेंट कराया जाए , राय दो ~ तुम बेटी ही तो हो  सास से बिस्तर से उठा नहीं जाता ~ सिरहाना पैताना मत देखो , अपने हाथ से खाना खिला दो ~ तुम बेटी ही तो हो  ससुर सारा दिन अकेले ऊबते हैं ~ बातें किया करो , तुम बेटी ही तो हो  ससुर के कपडे बदलने में संकोच कैसा ~ तुम बेटी ही तो हो | अब उसकी भी उम्र बढ़ चुकी थी | बेटियाँ मुलायम होती है , लोनी मिटटी सी , बहुएं सांचे में ढली , तराश कर बनायी जाती हैं | दुबारा बहू से बेटी में परिवर्तन असहज लगा | त्रुटियाँ रहने लगी | सुना है घर के तानपुरे ने वही पुराना राग छेड़ दिया है ~ कुछ भी कर लो बहुएं कभी बेटियाँ नहीं बन सकती |

स्ट्रेस ईटिंग डिसऑर्डर – जब आप खाना खा रहे हो और खाना आपको

कई बार तब हम भोजन में अपनी समस्याओं का समाधान ढूँढने लगते हैं जब भावनाएं हमें  खा रही होती हैं – अज्ञात  “देखिये आप बिंज ईटिंग डिसऑर्डर से बुलुमिया नेर्वोसा की तरफ बढ़ रही हैं अब अगर आप खाने से दूर नहीं रहीं तो ये खाना आपको खा जाएगा “कहते हुए डॉक्टर ने मुझे दवाइयों और देखभाल की लंबी – चौड़ी  फेहरिशत  पकड़ा | मैं निराशा से भरी डॉक्टर के केबिन से बाहर निकली | मुझे देख कर बाहर बैठी दो लडकियां मुस्कुरा दी | एक ने चुटकी ली ,” अगर ये अपना खाना कम कर दे तो देश की खाने की समस्या काफी हद तक खत्म हो जायेगी | उसके बाद हंसी के ठहाके  काफी देर तक मेरा पीछा करते रहे और मैं साडी के पल्लू से अपने भीमकाय शरीर को ढकने का असंभव  प्रयास करती रही | आप की जानकारी के लिए बता दूं की मेरी उम्र ३६ साल कद पांच फुट दो इंच और वजन पूरे ९० किलो | यानी 100 से बस १० कम | मेरा स्ट्रेस ईटिंग डिसऑर्डर का इलाज़ चल रहा है | क्योंकि मैं खाने से दूर नहीं रह पाती | अच्छा बुरा मैं कुछ भी खाती हूँ |यहाँ  तक की कुछ न मिलने पर मैं कच्चा आलू भी कहा लेती हूँ |  मैं तनाव में खाती हूँ और खाने की वजह से उपजे तनाव में और खाती हूँ | खाने  से मेरा ऐसा लगाव पहले नहीं था | माँ कहती हैं  ,” मैं बचपन में कुछ नहीं खाती थी , वो बुलाती रह जाती थीं और मैं खेल में इतनी मगन की सुनती ही नहीं | खाना ठंडा हो जाता तो एक दो कौर खा कर माँ अच्छा नहीं लग रहा है कह कर भाग जाती | कई बार माँ के डर लंच में दिया खाना सहेलियों को खिला देती या स्कूल के  डस्टबिन में फेंक आती , ताकि वो मुझे डांट न सके | फिर कब कैसे मैं इतना ज्यादा खाने लगी और खाना मुझे खाने लगा ? यादों के झरोखों से देखती हूँ तो वो दिन याद आता  है  जब रितेश से मेरी शादी हुई थी , न जाने कितने अरमान ले कर मैं इस घर में आई थी | पर यहाँ आते ही  मुझे रितेश  की दो बातें सख्त नापसंद लगी | एक तो उनका शराब पीना और दूसरा अपनी सेकेट्री से  जरूरत से ज्यादा घनिष्ठता |और रितेश को … रितेश को तो शयद मैं पसंद ही नहीं थी | उसने घर वालों के कहने पर मुझसे शादी की थी | कुछ दिन तक तो मैं सहती रही फिर मैंने विरोध करना शुरू किया | पर उसका उल्टा असर हुआ | रितेश और उग्र होते गए उनकी शराब की मात्र व् सेकेट्री को दिया जाने वाला समय बढ़ने लगा | मैं दुःख में अपने प्रति लापरवाह सी रहने लगी | सहेलियों ने कहा तू  बन ठन  कर रहा कर | उसका कुछ असर तो हुआ रितेश मेरी बात को थोडा बहुत सुनने लगे | मैंने सासू माँ से भी रितेश के बारे में बात की | उनके समझाने पर रितेश मेरे पास आये और अपने स्नेह का चिन्ह मेरे माथे पर अंकित कर के बोले,” आज से मैं सिर्फ तुम्हारा “ उन्होंने  मुझसे वादा किया की अगले दिन से वो जल्दी घर आयेंगे व् खाना मेरे साथ ही खायेंगे | जब छोड़ देना साथ चने से बेहतर लगे                             अंधे को क्या चाहिए दो आँखें |और मैंने तो आँखों में अपने व् रोहित के सुनहरे भविष्य के न जाने कितने ख्वाब एक पल में पाल लिए |  मैं इतनी खुश थी की पूछो मत | उसने जो – जो कहा था , मैंने खाने में वो सब कुछ बनाया   | सब कुछ उसकी पसंद का …मटर पनीर , पुलाव , दम आलू की सब्जी और खीर | | कांच के डोंगों में डाईनिग टेबल पर सजा भी दिया | साथ में सजा दिया अपना नन्हा सा दिल | फिर खुद तैयार होने लगी |ये रात मेरी शादी के बाद की पहली रात से भी हसीं जो होने वाली थी | मैंने गुलाबी साडी बिंदी और गुलाबी ही चूड़ियाँ पहनी | फिर आईने में अपने को ही देख कर लजा सी गयी | यूँ ही नहीं मेरी सहेलियां मुझे हीरोइन कह कर बुलाती थी | रंग , रूप , कद काठी सब कुछ परफेक्ट | सहेलियां रस्क करती ,” यार तुझ पर तो मोटापा चढ़ता ही नहीं “ एक हम हैं कमर का कमरा बन गया | सोंचते ही मेरे चेहरे पर मुस्कान फ़ैल गयी , अगले ही पल गहरी उदासी छा गयी | आखिर क्या है उस सेकेट्री के पास की रोहित ऑफिस से इतनी लेट आते हैं वो भी शराब पी कर | और उसके बाद रितेश , रितेश नहीं रहते , जानवर हो जाते है | कितनी बार मैंने रितेश से शिकायत की की मेरे हिस्से में  ये जंगली और सेकेट्री के हिस्से में रितेश , ऐसा क्यों ?  फिर खुद ही मन को समझाया  ,” अरे पगली , आज क्या दुखी होना | आज तो तेरे जीवन का नया अध्याय शुरू हो रहा है | आज से रितेश समय पर घर आएगा , शराब भी नहीं पिएगा और सेकेट्री … उसे तु छुएगा भी नहीं | मन के सूर्य पर छाए बादलों को मैंने अपने विचारों से ही दूर किया और रितेश की प्रतीक्षा करने लगी | १० , 11 , १२ .. एक बजे रितेश आये  | उनके पास से आती शराबकी महक  साथ ही लेडीज परफ्यूम की तीखी गंध मिल कर मेरी दुनिया को विषैली , जहरीली बदबू से भर रही थी , मैं खुद को काबू में न रख सकी | मैं चिल्लाने लगी , रितेश , रीइते ते ते श , तुमने अपना वादा तोड़ दिया , तुम आज जल्दी  आने वाले थे , मेरे साथ खाना खाने वाले थे और …. तुमने मेरे सारे हक़ उसको दे दिए | तुम कभी नहीं सुधर सकते कभी नहीं | रितेश  ने लडखडाते क़दमों से आगे बढ़ते हुए कहा ,” तो क्या हुआ अब दे देता हूँ तुम्हे तुम्हारा हक़ | रितेश  ने डाईनिग टेबल से खाना उठा कर मुँह में ठूसना शुरू … Read more

टर्मिनली इल – कुछ लम्हे जो मिले हैं उस पार जाने वाले के साथ

प्रेम वो नहीं है जो आप कहते हैं प्रेम वह है जो आप करते हैं                       इस विषय को पढना आपके लिए जितना मुश्किल है उस पर लिखना मेरे लिये उससे कहीं अधिक मुश्किल है | पर सुधा के जीवन की त्रासदी  ने मुझे इस विषय पर लिखने पर विवश किया |               सुधा , ३२ वर्ष की विधवा | जिस   के   जीवन का अमृत सूख गया है | वही कमरा था , वही बिस्तर था ,वही अधखाई दवाई की शीशियाँ , नहीं है  तो सुरेश | १० दिन पहले जीवनसाथी को खो चुकी सुधा की आँखें भले ही पथरा गयी हों | पर अचानक से वो चीख पड़ती है | इतनी जोर से की शायद सुरेश  सुन ले व्  लौट आये | अपनी सुधा के आँसूं पोछने और कहने की “ चिंता क्यों करती हैं पगली | मैं हूँ न | सुधा जानती है की ऐसा कुछ नहीं होगा | फिर भी वो सुरेश के संकेत तलाशती है , सपनों में सुरेश को तलाशती हैं , अगले जन्म का सोंच , किसी नन्हे शिशु में  सुरेश को तलाशती है | उसे विश्वास है , सुरेश लौटेगा | यह विश्वास उसे इतनी दर्द व् तकलीफ के बाद भी  जिन्दा रखता है | मृत्यु की ये गाज उस पर १० दिन पहले नहीं गिरी थी |  दो महीने पहले यह उस दिन गिरी थी जब डॉक्टर ने सुरेश के मामूली सिरदर्द को कैंसर की आखिरी स्टेज बताया था | और बताया था की महीने भर से ज्यादा  की आयु शेष नहीं है | बिज़ली सी दौड़ गयी थी उसके शरीर में | ऐसा कैसे ? पहली , दूसरी , तीसरी कोई स्टेज नहीं , सीधे चौथी  … ये सच नहीं हो सकता | ये झूठ है | रिपोर्ट गलत होगी | डॉक्टर समझ नहीं पाए | मामूली बिमारी को इतना बड़ा बता दिया | अगले चार दिन में १० डॉक्टर  से कंसल्ट किया | परिणाम वही | सुरेश तो एकदम मौन हो गए थे | आंसुओं पोंछ कर सुधा ने ही हिम्मत करी | मंदिर के आगे दीपक जला दिया और विश्वास किया की ईश्वर  रक्षा करेंगे चमत्कार होगा , अवश्य होगा | सुधा , स्तिथि की जटिलता समझ तो रही थी पर मृत्यु को स्वीकार नहीं कर पा रही थी | उसने अपनी आँखों पर पट्टी बाँध  रखी थी | भ्रम की पट्टी | कीमो शुरू हुई ,  पर सुरेश की हालत दिन पर दिन बद से बदतर होती जा रही थी | दिन भर चलने फिरने वाले सुरेश शरीर से लाचार होते जा रहे थे | इधर घर में मेहमानों का ताँता लगना शुरू हो गया | सुधा किसको देखे | मरीज को की मेहमान को | भारतीय समाज जहाँ गंभीर से गंभीर बिमारी से जूझ रहे मरीज को देखने आये रिश्तेदार पूरी आवभगत चाहते हैं | और चलते – चलते एक हिदायत देना नहीं भूलते | सुधा सब कुछ करने का प्रयास करती | ये चालीसा , ये जप वो दान , इसके बीज , उसकी भस्म सब कुछ | कभी कभी सुधीर को दवा के अतिरिक्त दो मिनट का समय भी नहीं दे पाती | सुधीर पास आती मौत की आहत सुन  कर कभी कभी घबरा  जाते | सुधा का हाथ थाम कर मृत्यु का भय बाटना चाहते पर सुधा ,” ऐसा कभी हो ही नहीं सकता कह कर उनकी बात काट देती |सुधीर अपने बाद उसके जीने की बात करते तो सुधा मुँह पर हाथ रख देती | जब मैंने अपने माता – पिता को माफ़ किया                           आज जब सब परदे उतर गए हैं | सुधा के जीवन  में घनघोर खाली पन है, पछतावा है | पता नहीं सुधीर क्या कहना चाहते  थे |पता नहीं सुधीर ने उसके बारे में क्या सोंचा था | काश वो मेहमाननवाज़ी के स्थान पर उस समय सुधीर को ज्यादा समय दे पाती | काश जो थोडा वक्त मिला था उसे वो दोनों  बेहतर तरीके से गुज़ार पाते | काश ! , काश !  और काश ! …. काश ये काश न बचते |                       हम जीवन की बात करते हैं | आशाओं , उमंगों की बात करते हैं | हम मृत्यु की बात नहीं करते | क्योंकि हम मृत्यु की बात करना पसंद नहीं करते | यथा संभव इससे बचते हैं | बात जब अपने किसी प्रियजन की हो तो हम बिलकुल ही नकार जाते हैं |  परन्तु मृत्यु एक सत्य है | जिसे झुठलाया नहीं जा सकता | जब ये हमारे किसी अपने के सामने आ कर खड़ी हो जाती है , जिसे हम पल- पल खोते हुए महसूस कर रहे हों | तब हमारे हाथ पाँव फूल जाते हैं | ये ऐसे मामलों में होता है | जहाँ डॉक्टर , मरीज को “ टर्मीनली इल “ घोषित कर दे | यानी की बीमारी लाइलाज हो चुकी है | मरीज पर अब कोई दवा असर नहीं करेगी | जीवन और मृत्यु के बीच का फासला कुछ , दिनों , हफ़्तों या महीनों का है | ऐसा मुख्यत : टर्मिनल कैंसर , अल्जाइमर्स कुछ खास ह्रदय सम्बन्धी बीमारियाँ या ऐसी ही कुछ बीमारियों में होता है | जहाँ डॉक्टर जीवन का अंत घोषित कर देते हैं | व् उनकी अस्पताल से छुट्टी कर देते हैं |                  विदेशों में इसके लिए hospice care यूनिट “ होती है | जहाँ मरीज का इस प्रकार ख्याल रखा जाता है की उसको शारीरिक व् मानसिक कष्ट कम से कम हों वो आसानी से प्राण त्याग सके | मरीज व् उसके परिवार वालों की शारीरिक , भावनात्मक व् आध्यात्मिक काउंसिलिंग की जाती है | जिससे उस पार जाने वाले  मरीज का कष्ट कम हो सके | व् उसके परिजन खोने के अहसास को झेल सकें |   हमारे देश में क्योंकि “ टर्मीनली इल “ मरीजों की देखभाल कर रहे लोगों को कोई विशेष प्रशिक्षण नहीं प्राप्त  होता है | इसलिए मरीज व् उसके प्रियजनो को बहुत सारी  दिक्कतों को झेलना पड़ता है | मरीज की मृत्यु के बाद इस आघात को  उसके प्रियजनों  को झेलना मुश्किल हो जाता है | ये सोंचना बहुत दर्दनाक है पर जो लोग इस सदमें से गुज़र चुके … Read more

मदर्स डे पर विशेष- प्रिय बेटे सौरभ

एक माँ का पत्र बेटे के नाम               प्रिय बेटे सौरभ ,                              आज तुम पूरे एक साल के हो गए | मन भावुक है याद आता है आज ही का दिन जब ईश्वर ने तुम्हे मेरी गोद में डाला था तब मैं तो जैसे पूर्ण हो गयी थी | जिसे पूरे नौ महीने अपने अन्दर छुपा कर रखा , पल –पल जिसका इंतज़ार किया उसे देखना छूना कितना सुखद है | हाँ  महसूस तो मैं तुम्हे पहले से ही कर रही थी अपने गर्भ  के अन्दर | जब लगता था किसी कली  को अपने अन्दर कैद कर लिया है | जो पल –पल खिल रही है | मेरी जिंदगी अब तुम्हारे चारों और घूमती है , सुबह से रात तक | जानती हो तुम्हारी नानी हँसती  हैं , कहती है ,” ये कल की बिटिया मम्मी बनते ही बदल गयी | और क्यों न बदलूँ  , तुम हो ही इतने प्यारे | जब तुम खेलते –खेलते आकर मुझे देख जाते हो , मुझे देखते ही किसी की गोदी से उतर कर मेरे पास आने की जिद करते हो या मुझे किसी दूसरे बच्चे को गोद में उठाता हुआ देखकर रोने लगते हो , तो अपने वजूद पर अभिमान हो उठता है | मेरे नन्हे से फ़रिश्ते ईश्वर तुम्हे खूब लंबी  आयु  व् जीवन की हर ख़ुशी दें | अले ले ले … का तुमने तो रोना शुरू कर दिया … अब पत्र लिखना बंद , मेरा बेटू  बुलाएगा तो मम्मी सबसे पहले उसके पास जायेगी | ************************************************************************** प्रिय बेटे सौरभ            आज तुम पूरे ५ साल के हो गए | तुम्हारा स्कूल का पहला दिन | जब तुम्हे तुम्हारी टीचर मुझसे दूर कर के क्लास में ले जा रही थी और तुम बेतरह मुझे देख कर मम्मी , मम्मी चीख रहे थे | उफ़ ! जैसे मेरा कालेज कटा  जा रहा था | फिर भी उपर –ऊपर से तुम्हे मोटिवेट कर रही थी ,” अरे पढ़ेगा नहीं तो ,  तो कमाएगा कैसे ? फिर  अपनी मम्मी के लिए सुंदर  साड़ी   कैसे लाएगा , क्या मैं हमेशा पापा की लायी साड़ी  ही पहनती रहूंगी , बेटे की दी  नहीं | इतना सुनते ही तुम जैसे जिम्मेदारी  के अहसास से भर गए | थोडा सुबकते ही सही पर आँसू पोंछ कर चुपचाप क्लास में चले गए | और मैं पूरा दिन घर में बेचैनी से तुम्हारा इंतज़ार करती रही | कितना बुरा लग रहा था आज करीने से सजा घर | हर चीज जहाँ की तहां | न बात – बात पर रोने चीखने की आवाज़े न खिलखिलाकर हंसने की | ये भी कोई घर है | पर शुक्र है भगवान् का तुम्हारे  आते ही सब कुछ पहले जैसा हो गया |  हाँ  इतना फर्क जरूर आया है की अब तुम समझदार होने लगे हो ,” तभी तो मेरे पिछले बर्थ डे पर छुप –छुप  कर मेरे लिए कार्ड बनाते रहे और सुबह मेरे उठते ही , “ हैप्पी  बर्थडे टू यू  मम्मी कह कर गले  से लग गए | कार्ड क्या . कुछ आड़ी  तिरछी  रेखाए , पर ये कार्ड मेरे जीवन का सबसे अनमोल तोहफा है | और उससे भी अनमोल तोहफा है बात बात पर तुम्हारा कहना ,” मम्मी आप दुनिया की सबसे अच्छी मम्मी हो | |मेरी बगिया  के फूल जीते रहो मेरे लाल | ************************************************************************* प्रिय बेटे सौरभ              आज तुम पूरे १४ साल के हो गए | मन में अपने पौधे  को बढ़ते हुए देखने की ख़ुशी तो है पर ये क्या … क्या हो गया मेरे लाल , क्यों  तुम मुझसे दूर जा रहे हो |  मैं तो वही हूँ , फिर क्यों तुम्हे मेरी हर बात गलत दिखाई देती है | मैं तो पहले की ही तरह खाने –पीने सोने हर बात में तुम्हारा ध्यान रखती हूँ | पर अब तुम्हे वो ध्यान नहीं टोंका टोंकी लगने लागा है | “ माय लाइफ , माय  रूल्स “ का जुमला जो तुम बार – बार उछालते हो तो सुन लो बेटा मैं ऐसे कैसे तुम्हे अपनी मर्जी चलने दूं | आखिरकार तुम मुझसे पृथक तो नहीं हो | तुम मेरे अंश हो | और वो क्या जो तुम दोस्तों से कहते फिरते हो ,” मम्मी चैनल “ जो दिन भर नॉन स्टॉप चलता रहता है |  अपने बच्चे का ध्यान रखना गलत है क्या ? पर किससे कहूँ  तुम्हे तो मेरी हर बात से शिकायत है , मेरा बनाया खाना अच्छा नहीं लगता … दोस्त की मम्मी अच्छा बनाती है , मैं ठीक से कपडे प्रेस नहीं करती , सलवट रह जाती है | दोस्त की मम्मी ने साइंस  पढ़ा दी  इसलिए उसके नंबर अच्छे आ गए … और फिर उलाहना में कहना ,” मैं कहाँ से अच्छे नम्बर लाऊं तुम्हे तो साइंस भी नहीं आती | बेटा क्या साइंस न आना किसी माँ का इतना बड़ा दोष होता है | उस दिन जो तुम कहते –कहते रूक गए , “ हिटलर माँ टोंका –टांकी  न करो ,” आप तो दुनिया की सबसे बुरी … “ | तुमने तो कह दिया पर मैं घंटों तकिये में मुँह छिपाए रोती  रही | तुम्हारे पापा कह रहे थे इस उम्र में होता है , सब ठीक हो जाएगा | हे प्रभु सब ठीक हो जाए ,मेरा जीवन तुम्हारे इर्द –गिर्द घूमता है | तुम मुझे गलत समझो … सहन नहीं होता … सहन नहीं होता | खूब तरक्की करो मेरे लाल | ************************************************************************** प्रिय बेटे सौरभ                 प्रतियोगी परीक्षाओं में तुम्हारा चयन इतने अच्छे कॉलेज में हो गया | मन बहुत खुश है | सभी पड़ोसनें मुझे बहुत भाग्यशाली बता रही हैं | सच में हूँ तो मैं भाग्यशाली जो तुम्हारे जैसा बेटा पाया है | पर तुम्हे घर से दूर  भेजने में बहुत बेचैनी है | कौन तुम्हारा ध्यान रखेगा | कौन कमरा साफ़ करेगा , कौन कपडे धोएगा , और तुम तो हो ही लापरवाह .. खाने पीने की सुध तो रहती नहीं | यहाँ भी तो खाना सामने पड़ा –पड़ा ठंडा होता रहता है | जब तक मैं याद न दिलाऊ , तुम खाते ही नहीं | अब वहाँ क्या खाओगे | सोंच –सोंच कर कलेजे में हूक सी उठ रही है … Read more

फॉरगिवनेस : जब मैंने अपने माता – पिता को माफ़ किया

           क्षमा करना किसी कैदी को आज़ाद करना है , और ये समझना है की वो कैदी आप खुद हैं – लुईस .बी . सेमेडेस                   मदर्स डे आने वाला है | ठीक एक महीने बाद फादर्स डे है | गर्मी की छुट्टियों में आने वाले ये दिन बच्चों , खासकर छोटे बच्चों के लिए बहुत स्पेशल होते है | बच्चे अपने पेरेंट्स के लिए गिफ्ट्स , ग्रीटिंग कार्ड्स वैगैरह बड़े जतन  से बनाते हैं | और क्यों न करें जब पेरेंट्स होते ही इतने स्पेशल हैं | सोशल मीडिया हो , प्रिंट मीडिया हो , या आम महफ़िल हर तरफ माता – पिता के त्याग और निस्वार्थ प्रेम की बात हो रही है | फिर भारतीय संस्कृति में तो माता पिता का दर्जा भगवान् से भी ऊँचा है | ऐसे में मेरे लेख  का शीर्षक पढ़ कर आप जरूर सकते में आ गए होंगे | हो सकता है आप मुझे किसी दुष्ट बच्चे की  उपाधि से भी नवाज़ दें | कैसा बच्चा है अहसान फरमोश जो माता – पिता को माफ़ करने की बात कह रहा है | क्या जमाना आ गया है बच्चे संस्कार हीन हो गए हैं | आप के इन आरोपों के बीच में  मुझे याद आ रही है सात साल की छोटी सी बच्ची जिसकी माँ ने पिता से झगडे के बाद फिनायल की पूरी बोतल पी ली थी | माँ हॉस्पिटल में आई सी यू में ऑक्सीजन मास्क लगाए अपनी साँसों के लिए संघर्ष कर रही थी और मैं अपने एक साल के छोटे भाई को गोद में लिए बाहर से टुकुर – टुकुर ताक  रही थी | मुझे पहली बार अहसास हो रहा था , माँ इतना पास हो कर भी मुझसे इतना दूर हैं | मेडिकल स्टाफ मुझे माँ के पास जाने से रोक रहा है | मैं उन्हें छटपटाते हुए देख सकती थी  पर  मैं उन्हें गले से नहीं लग सकती | मैं दूसरी तरफ देखती हूँ वहां पिताजी किसी पुलिस वाले से बात कर रहे हैं , वो उन्हें पैसे दे रहे हैं | शायद मामला रफा – दफा करने के लिए | (तब तो नहीं समझी थी पर आज समझती हूँ ) मेरी गोद में मेरा भाई रो रहा है | मैं उसे चुप करा रही हूँ , वो सुसु कर देता है मैं उसके कपडे बदलती हूँ | माँ से जिस भाई को गोद लेने पर मैं झगड़ती थी की उसे उतारों मुझे लो , आज मैं उसी भाई की माँ बन गयी हूँ | नन्ही सी माँ | तभी पिताजी मेरी तरफ आते हैं | मेरी गोद से भाई को छीनते हैं और मेरी बांह पकड़ कर घसीटते हैं चालों घर चलो ये इतना रो रहा है अस्पताल की शांति भंग कर रहा है | मैं जाने से इनकार करती हूँ | पिताजी मुझे घसीटते हैं | मैं माँ – माँ चिल्लाती हूँ | पिताजी मुझे एक थप्पड़ मारते हैं ,” मत कर माँ – माँ , बहुत घटिया औरत है तेरी माँ , मरने चल दी , अरे मेरी नौकरी चली जाती…. सुसाइड करेंगी , नीच औरत | पिताजी अनवरत माँ को गालियाँ दिए जारहे हैं | इस बीच मैं पीछे मुड – मुड़ कर माँ को ढूंढती हूँ | मैं  फिर माँ चिल्लाती हूँ | पिताजी मेरे बाल नोचते हैं ,” नाम न ले उस घटिया औरत का | पर माँ को ऐसी हालत में अस्पताल में अकेले छोड़ कर जाना मुझे गंवारा नहीं है मैं अनवरत रो रही हूँ व् मार खाते हुए भी फिर – फिर पिताजी की बांह पकड कर कहीं रहीं हूँ ,” पिताजी माँ कब लौटेंगी | जितनी बार मैं माँ शाद कहती हूँ उतनी बार पिताजी मुझे मारते हैं | अपनी माँ को मरणासन्न हालत में छोड़ कर पिताजी से अनवरत माँ के लिए अपशब्द सुनने को विवश हूँ | रिश्तों में पारदर्शिता : या पर्दे उखाड़ फेंकिये या रिश्ते दो दिन हो गए मुझे माँ के बारे में कुछ पता नहीं | मैं पिताजी से पूंछने की हिम्मत भी नहीं कर पा रही हूँ | मैं भाई के लिए सरेलेक बना रही हूँ , उसे सुसु ,छि- छि करा रही हूँ |पर मेरी भूख खत्म है | मैं बार – बार सोंच रही हूँ | मेरी माँ को पिताजी ऐसे शब्द क्यों कह रहे हैं | वो तो इतना प्यार करती हैं फिर वो घटिया औरत क्यों हैं ? माँ कह कर मैं रोती हूँ सुबकती हूँ | ऐसा नहीं है की माता पिता का ये झगड़ा मेरे सामने पहली बार हुआ हो | दोनों जोर – जोर से चिल्लाते थे | हमेशा मैं सहम जाती थी | माँ घंटो रोती  रहती , रोती  रहती पर कुछ दिन बाद सब ठीक हो जाता | मैं फिर खेल में मगन हो जाती मुझे लगता “ happy family “ ऐसी ही होती है | पर शायद मैं गलत थी | तीसरे दिन पिताजी माँ को घर छोड़ कर ऑफिस चले गए | माँ ने हम दोनों को भाई – बहनों को प्यार किया | खाना बनया कपडे धोये | वैसे ही जैसे कुछ हुआ ही न हो | मैंने माँ से वादा भी लिया की माँ हमें छोड़ कर कभी मत जाना | माँ ने मेरे माथे को चूम कर हामी भरी | मैंने सोंचा अब सब कुछ ठीक हो गया है | हमारी फैमली “ happy family “ हो गयी है | कुछ दिन सब ठीक रहा | फिर झगडे फिर से शुरू हो गए | मैंने अब झगड़ों पर ध्यान देना शुरू किया | पिताजी माँ को घर में कैद रखना चाह्ते थे | इतना इस कदर की सब्जी भी खरीदने वो अकेली नहीं जा सकती थी | मौसी – मामा , नानी – नाना से भी वो कितनी बात कर सकती है इसके भी नियम थे | वो उनसे कितना प्यार कर सकती हैं इसके भी नियम थे | इन नियमों को न मानने पर वो  घटिया औरत की श्रेणी में आ जाती | माँ बिलकुल वैसे ही करती जैसे पिताजी कहते तब तक घर में सब कुछ शांत रहता | पर कुछ दिनों  में इस थोपी हुई जिन्दगी में उनका दम घुटने लगता | वो … Read more

रिश्तों में पारदर्शिता : या परदे उखाड़ फेंकिये या रिश्ते

पारदर्शिता किसी रिश्ते की नीव है | रहस्य के पर्दों में रिश्तों को मरते देर नहीं लगती – बॉब मिगलानी                                                                       बचपन में हमारे माता – पिता प्रियजन जो कुछ समझाते हैं उसे हमारा बाल मन कैसे लेता है या उसे कैसे समझता है ये कोई नहीं जानता | माता – पिता या घर के बड़े अपना समझाने का दायित्व पूरा जरूर कर लेते हैं |  और बाल मन किसी अनजाने चक्रव्यूह में फंस जाता है | क्योंकि कभी – कभी समझाई गयी दो बातों में विरोधाभास होता है | और इसके   कारण  न जाने कितने अंधविश्वासो , धार्मिक विश्वासों की जो खेती बाल मन की उपजाऊ भूमि पर कर दी जाती हैं | उसकी फसल कई बार इतनी भ्रम भरी इतनी विषाक्त होती है , जो न बोने वाला जानता है न उगाने वाला |                                                          ऐसा ही कुछ – कुछ मेरे दिमाग में भरा गया था   की घर की बात बाहर न जाए | विभीषण की वजह से लंका  का सर्वनाश हुआ था | हालांकि ये भी कहा गया था की सदा सच बोलना चाहिए | पर युगों बाद भी विभीषण को यूँ कोसा जाना मुझे भयभीत कर देता था | मेरे बाल – मन में ये तर्क उठते की रावण का नाश उसके कर्मों , उसकी बुराइयों या उसके अहंकार के कारण हुआ, जो की होना ही था | पर बनी बनायी मान्यताओं के विपरीत मैं न जा सकी | मेरे लिए घर का मतलब चार दिवारी के अंदर रहने वाले प्राणी ही थे | पर क्या हमारे रिश्ते उन्हीं चार प्राणियों से होते हैं जो एक घर में रहते हैं या एक सरनेम इस्तेमाल करते हैं | जाहिर है हमारे घनिष्ठ रिश्ते इसके मोहताज़ नहीं होते | आत्मीयता और मन मिलना वास्तविक रिश्तों की एक अलग ही परिभाषा है जिसका परिवार खून खानदान के बनवटी पर्दों से कोई लेना देना नहीं है | ऐसा ही मेरा रिश्ता सौम्या  से था | पर उम्र और शिक्षा मेरी पूरानी मान्यताओं को नहीं बदल सकी |                            सौम्या से मेरी मुलाकात हमारी एक कॉमन फ्रेंड निधि के यहाँ हुई | सौम्या के अंदर समाज के लिए कुछ करने की भावना थी | उसकी  में कुछ करने की चमक थी  | वो एक फ़ूड चेन खोलना  चाहती थी | जहाँ अच्छा और सस्ता खाना मिल सके |क्योंकि काम बड़ा था उसमें अधिक मात्रा में धन व्अ श्रम लगना था अ त : ये केवल लोंन लेकर या एक संस्था बना कर किया जा सकता था |  सौम्या  के व्यक्तित्व से प्रभावित थी |  हमें सौम्या का संस्था बनाने का विचार प्रभावी लगा |  मैंने भी हां कर दी | जैसा की सभी जानते हैं की कोई संस्था बनाने में ढेर सारे पैसे और लोगों की जरूरत होती है | हम अपने काम में लग गए |हमें फंड्स इकट्ठे करने थे और सदस्य जोड़ने थे , जो काम में हमारा सहयोग कर सकें | निधि , रूपा , प्रिया  भी सौम्या के साथ आ गयी | मैं सौम्या  से लगभग रोज़ मिलने लगी | हमारा स्नेह घनिष्ठ से घनिष्ठतम होता गया | धीरे – धीरे मैं सौम्या  के विचारों व् उसके जज्बे के प्रति समर्पण  नतमस्तक होती चली गयी | सौम्या भी मुझसे बहुत स्नेह करने लगी | वो सदा यही कहती मैं उसके  शरीर में  में रीढ़ की हड्डी की तरह हूँ| और  मैं मैं भी तो उसके उद्देश्य में  अपना तन – मन धन सब समर्पित कर देना चाहती थी | | नाउम्मीद करती उम्मीदें – निराशा अवसाद , चिंता के चक्रव्यूह से कैसे निकलें                                                         पर नियति कुछ और ही थी | हमें कहाँ पता था की वो दिन जो हमारे लिए सबसे महत्वपूर्ण दिन होना चाहिए था , इतिहास में समस्याओं के शुरू होने के दिन के रूप में दर्ज हो जाएगा | वो दिन था हमारी छोटी सी संस्था के शुरुआत का दिन | सौम्या ने सबके सामने मुझे उस का उप – प्रबंधक घोषित कर दिया | निधि , रूपा , प्रिया  को ये नागवार गुज़रा | उन सब को मेरा यूँ सम्मानित होना रास नहीं आया | पर सौम्या मेरे साथ थी इस विश्वास के साथ की हम सब इसी तरह  समर्पित भाव से काम करते रहेंगे | हमारेउसके विश्वास को पहला झटका लगा प्रिया से | प्रिया ,   जो आर्थिक रूप से सशक्त थी , संस्था को छोड़ कर चली गयी | ये छोटे सपने में बड़ी रुकावट थी | सौम्य को  प्रिया  से आर्थिक मदद की आशा थी | अब संस्था के सारे खर्चे  सौम्या  पर आ गए | निधि और रूपा ने अपनी आर्थिक स्तिथि स्पष्ट कर दी , और ये भी की वो अपनी सीमा भर ही काम कर पाएंगी | ऐसे समय में सौम्या  ने बड़ी आशा से मेरी तरफ देखा | वो जानती थी की मेरे पति एक बड़े व्यसायी हैं | सौम्या  को आशा थी की मैं आर्थिक मदद अच्छे से कर  सकूंगी | मैंने हां में सर हिला दिया |                                                      उसी रात मैंने अपने पति से बात की उन्होंने मेरी इस सो कॉल्ड संस्था के लिए  अपनी गाढ़ी  कमाई  के पैसे देने से इनकार कर दिया | उन्होंने न सिर्फ इनकार किया वरन इसे मेरा टाइम पास शौक करार दे  मुझे भी संस्था छोड़ने  का दवाब बनाया | हमारे बीच झगड़े हुए |तीखे प्रहार हुए व् फिर  बातचीत बंद  हो गयी |मुझ पर पूरी तरह से दवाब … Read more

जीवन

                                      तेरहवीं का पूजन शुरू होने वाला था | पंडित जी आ चुके थे | इतनी भीड़ के बावजूद घर में मृत्यु का सन्नाटा पसरा हुआ था | पंडित जी ने पूजन शुरू करने से पहले लोगों की ओर देखा फिर कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय “ तभी मृतक की पत्नी प्रीती की करुण चीख सुनाई पड़ी ,” बस करिए पंडित जी , मत करिए ये आत्मा परमात्मा और जीवन की बातें | इसका क्या फायदा ? १२ साल के वैवाहिक जीवन अपना एक अंश भी तो नहीं छोड़ गए सुधीर जिसके सहारे मैं जिंदगी काट लेती | अब इस घर में दीवारों पर सर मारने के लिए अकेली मैं ही बची हूँ जिन्दा , और मेरे साथ बचा है सुधीर की मौत का सच | अब कभी आएगी तो मेरी मौत ही आएगी | इस घर में कभी जिंदगी नहीं आ सकती कभी नहीं | प्रीती के दर्द से पंडित जी के साथ – साथ सभी की आँखें नम हो गयी | फिर पंडित जी पाटे से उठ कर बोले ,” ये सच नहीं है बेटी , देखों सुधीर के जाने के बाद भी इस घर में जीवन आया है ,विभिन्न रूपों में , वो उस रोशनदान में गौरैया के घोंसले में अण्डों से चूजे निकल आये हैं | जिनकी ची – ची का शोर पूरे घर में सुनाई दे रहा है | तुम्हारे आँगन के आम के पेड़ पर न जाने कितनी कच्ची अमिया लटक रही है , कभी गिना है तुमने | ये बेल भी कुछ और छएल गयी है |और उस गुलाब को तो देखो कितने काँटों के बीच सर उठा कर हम सब की जीवनदायनी वायु को सुवासित कर रहा है | प्रीती आँखें फाड़ – फाड़ कर देखने लगी | सच में शोक के इन दिनों में भी उसके अपने घर में जीवन कितने रूपों में प्रगट हुआ है | पंडित जी फिर पातटे पर जा कर बैठ गए | उन्होंने फिर से कहना शुरू किया “वासांसि जीर्णानि यथा विहाय” पर इस बार प्रीती ने कोई प्रतिरोध नहीं किया | सुधीर की यादें तो सदा साथ रहेंगीं पर वो जीवन के समग्र व् सतत रूप को स्वीकार कर चुकी थी | वंदना बाजपेयी

सेल्फ केयर : आखिर हम खुद को सबसे आखिरी में क्यों रखते हैं

हमेशा सबकी मदद करने के लिए आगे रहिये ,  पर खुद को पीछे मत छोड़ दीजिये –   अज्ञात                माँ को हार्ट अटैक पड़ा था | मेजर हार्ट अटैक | वो अस्पताल के बिस्तर पर पर लेटी थी | इतनी कमजोर इतनी लाचार मैंने उन्हें पहले कभी नहीं देखा था | तभी डॉक्टर कमरे में आया | माँ का चेकअप करने के बाद बोला | इनका पेस मेकर   बहुत वीक है | माताजी आप को पहले कभी कोई अंदाजा नहीं हुआ | माँ , धीमे से बोली ,” कभी सीढियां चढ़ते हुए लगता था , फिर सोंचा उम्र बढ़ने का असर होगा | या काम करते हुए थक जाती तो जरा लेट लेती | बस ! डॉक्टर मुस्कुराया ,” खुद के प्रति इतनी लापरवाही तभी तो आपका दिल केवल १५ % काम कर रहा है | डॉक्टर फ़ाइल मुझे पकड़ा कर चला गया | अरे ! निधि तू डॉक्टर की बातों में मत आना , मैं ठीक हूँ , चिंता मत कर | माँ ने अपने चिर परिचित अंदाज़ में कहा | और मैं याद करने लगी ,”ये मैं ठीक हूँ   “ के इतिहास को  |हमेशा  से मैं माँ के मुँह से यही सुनती आ रही थी | हम सब को बुखार आता , खांसी , जुकाम , मलेरिया जाने क्या – क्या होता | माँ सब की सेवा करती , प्रार्थनाएं करती | माँ को कभी बीमार पड़ते नहीं देखा | हां  ! इतना जरूर देखा की कभी सर पर पट्टी बाँध  कर खाना बना रही हैं , पूंछने पर ,” अरे कुछ नहीं , जरा सा सर दर्द हैं | मैं ठीक हूँ | बुखार में बर्तन माँज  रही हैं और मुस्कुरा कर कह रही हैं , बुखार की दवा ले ली है , अभी उतर जाएगा , मैं ठीक हूँ | गला इतना पका है की बोला नहीं जा रहा है तो इशारे से बता रही हैं अदरक की चाय ले लूँगी  , मैं ठीक हूँ | धीरे – धीरे हम सब पर माँ के इस मैं ठीक हूँ का असर इतना ज्यादा हो गया की हमें लगने लगा माँ को भगवान् ने किसी विशेष मिटटी से बनाया है जो वो हमेशा ही ठीक रहती हैं | माँ अपने खाने का ध्यान नहीं रखती फिर भी वो ठीक रहती हैं , वो पूरी नींद सोती नहीं , फिर भी वो ठीक रहती है , वो दिन भर काम करके भी थकती नहीं ठीक रहती है | पर डॉक्टर की फ़ाइल तो माँ के ‘मैं ठीक हूँ ‘के झूठ की पोल खोल रही थी | हीमोग्लोबिन , कैल्सियम , कोलेस्ट्रोल ,और हार्ट सब गड़बड़ | मेरी आँखों में आँसू  भर रहे हैं | मैं माँ पर चिल्लाना चाहती हूँ ,” माँ ऐसा क्यों किया , क्यों अपना ध्यान नहीं रहा , क्यों मैं ठीक हूँ का झूठ बोलती रही | पर अचानक मेरे शब्द जैसे जम गए | मैं भी तो यही करती हूँ |  आज मैं भी तो एक माँ हूँ  | और अपने बच्चों से ” मैं ठीक हूँ का झूठ बोलती हूँ | माँ , मैं , अन्य महिलाएं न जाने कितने लोग ऐसा करते हैं | नाउम्मीद करती उम्मीदें – निराशा और अवसाद के चक्रव्यूह से कैसे निकलें ऐसे लोग जो परिवार का , और दूसरे लोगों की हर छोटी बड़ी जरूरतों का ध्यान रखते हैं | पर जब अपनी बात आती है तो पीछे हट जाते हैं |सेल्फ केयर गुनाह क्यों लगता है | बचपन से हमारे दिमाग में ये बात हावी रहती है की अपने को आगे रखना गलत है | हमेशा दूसरों को ही पहले रखना चाहिए | खुद का ख्याल  रखना स्वार्थी  होना है | बहुत कुछ ऐसा है जो गलत धारणाओं  के कारण पनपता है | खासकर जब बात शारीरिक व् मानसिक स्वास्थ्य की हो | महिला हो या पुरुष , किसी की भी सेहत बिगडने से पूरा परिवार  प्रभावित होता है | शरीर साथ नहीं देता तो  कोई भी साथ नहीं देता |हालांकि मामले की तह में जाए तो मामला और अधिक गंभीर हैं जो केवल स्वास्थ्य तक जुड़ा  न होकर , मी टाइम ,अपनी पसंद के कपडे ,अपनी पसंद से उठाना , बैठना , खाना – पीना आदि की लंबी फेहरिस्त तक जाता है |  फिर अपने प्रति इतनी लापरवाही  क्यों ?  ढूँढने पर कुछ कारण  समझ में आते हैं | जो मेरे साथ रहे है | शायद आप के साथ भी रहे हों |  हमें लगता है खुद का ख्याल रखने वाले स्वार्थी होते हैं                                 बचपन से समाज हमें ये घुट्टी पिलाता है की खुद का ख्याल रखने वाले स्वार्थी होते हैं | एक सास अपनी तारीफ़ करती हुए कह रही थीं की मैंने तो अपनी बहू  को इजाज़त दे रखी है की रसोई में चाय पीते – पीते काम करो | दूसरी औरते उनकी महानता  पर धन्य थी | भले ही उन की बहू को दोपहर दो बजे तक कुछ भी खाने को न मिलता हो पर वो चाय पीने के लिए स्वतंत्र है | पर वहीं बैठी 4 साल की बच्ची के दिमाग में ये आया की चाय पीना  बहू की महानता को कम करता है | बड़े होकर उसने चाय भी रसोई का काम खत्म होने के बाद ही पी | अफ़सोस की वो छोटी बच्ची मैं थी | जाने अनजाने न जाने कितनी धारणाएं समाज हमारे ऊपर आरोपित कर देता है | जहाँ खुद की देखभाल करना स्वार्थी होना लगने लगता है | कठिन रिश्ते : जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर लगे हम दूसरों का ध्यान रखने के स्थान पर उसे अपने हिसाब से चलाने की कोशिश तो नहीं कर रहे ….             हमारे पास बिलकुल भी टाइम नहीं है की हम खुद को देख सकें | एक कप चाय भी शांति से पी सके | क्योंकि हमें , इसका उसका सबका ध्यान रखना है | इस हद तक की हम बीमार पड़ जाए | क्या ये सही है ? क्या वास्तव में अगला यही चाहता है की हम इस तरह से ध्यान रखे | खासकर के तब जब घर में कोई बीमार हो | ऐसे ही एक रिश्तेदार की बीमारी के समय हम सब उसका ध्यान रखने में कोई कसर नहीं रख रहे थे | हमारे पास इंस्ट्रक्श्न्स की एक लिस्ट थी जिसे उसे फॉलो करना था ताकि वो जल्दी अच्छा हो जाए | उसे कमजोरी न आये और वो जल्दी ठीक हो जाए | इसलिए उसके चलने , फिरने यहाँ तक की बोलने पर भी हम ने लगाम लगा दी | मरीज तो ठीक नहीं हो रहा था | पर हम स्ट्रेस की वजह से  जरूर बीमार पड़ने लगे थे | उपाय डॉक्टर ने ही बताया | इनको बिलकुल नार्मल लाइफ जीने दीजिये | तब ये जल्दी ठीक होंगे | बॉडी अपनी रूटीन में जितनी जल्दी आती है | जल्दी हील होती है | इसका अर्थ ये कतई  नहीं है की किसी की मदद नहीं करनी चाहिए … Read more