नाउम्मीद करती उम्मीदें – निराशा , अवसाद , चिंता के चक्रव्यूह से कैसे निकलें

वरदान प्राप्त हैं वो लोग जो उम्मीदों से परे जीते हैं , क्योंकि वो कभी निराश नहीं होंगे – अलेक्जेंडर पोप                    बहुत पहले एक कहानी पढ़ी थी | कहानी का नाम तो याद नहीं पर उसका मुख्य पात्र राजू है | गरीब राजू बारहवीं का छात्र है व् तीन बहनों के बीच अकेला लड़का | जाहिर है माता – पिता को राजू से बहुत उम्मीदें  हैं की एक दिन इसकी नौकरी लग जायेगी तो हम सब की गरीबी दूर हो जायेगी | लड़कियों की शादी हो जायेगी व्  बुढापा भी आराम से कट जाएगा | सब बच्चों में राजू का सबसे ज्यादा ख्याल रखा जाता है | खाने में घी दूध राजू को मिलता है , उसके कमरे में कूलर लगा है पर वहां बैठने की इजाजत किसी को नहीं है | राजू के मुँह से कुछ निकले तो उसकी फरमाइश तुरंत पूरी हो जाती है | तीनों बहनों को इसमें अपनी उपेक्षा महसूस होती है | वह चिढाने के अंदाज में राजू को राजू साहब कह कर पुकारने लगती हैं | राजू मन लगा कर पढता है , पर एग्जाम  से ठीक एक दिन पहले वो घर से भाग जाता है | अपनी चिट्ठी में वो सपष्ट कर देता है की उसके घर छोड़ कर जाने की वजह माता – पिता की उम्मीदें है | उसे भय है की कहीं उनकी उम्मीदें न टूट जाएँ | वो स्पष्ट करता है की कितना अच्छा होता अगर उसके माँ – बाप उसकी साड़ी फरमाइशें  पूरी नहीं करते , उसकी बहनों को भी उतने ही दूध में हिस्सा मिलता व् कूलर में लेटने का अधिकार मिलता बदलें में उसे प्रोत्साहित तो किया जाता पर उस पर उम्मीदें पूरा करने का इतना दवाब न होता | यहाँ यह बात ख़ास है की राजू के माता – पिता ने उससे उम्मीदें की थी इसलिए वो घर से भाग गया | अगर यही उम्मीदें उसने खुद से करी होती तो वह भाग कर कहाँ जाता | आज तमाम बच्चों के निराशा , अवसाद व् चिंता में डूबने की वजहें ये उम्मीदें ही तो है | उम्मीदें करना जितना आसन है उम्मीदें टूटने पर उसे सहने उतना ही मुश्किल |कई बच्चे तो उम्मीदें टूटने पर आत्हत्या जैसा घातक कदम भी उठा लेते हैं | बदलाव किस हद तक ?                 मुझे ये स्वीकार करने में कोई संकोच नहीं की मैं इस समय अवसाद और चिंता का शिकार हूँ | मेरी भूख मर चुकी है | आँखों से नींद गायब है | मैं घंटों अपनी बालकनी  में बैठ कर सामने पार्क की पौधों को निहारती हूँ | शयद मैं भी जीवन की विषैली कार्बन डाई ऑक्साइड को निगलने के पश्चात् उसे कोई रचनात्मक रूप दे सकूँ | पर ये गहरी निराशा का पर्दा मेरे सामने से हटता ही नहीं | यहाँ तक की मैं सांस तक नहीं ले  पा रही हूँ | जब भी मै सांस लेने की कोशिश करती हूँ मेरी सारी उम्मीदें जो मैंने जिंदगी से करी थीं , मेरे सामने चलचित्र की तरह चलने लगती हैं | मुझे घुटन होने लगती है | नहीं ये वो जिन्दगी नहीं है जो मैंने मांगी थी | मुझे तो सफल होना था , मुझे तो कुछ बनना था , मुझे ढेर सारे पैसे कामने थे ताकि मैं वर्ल्ड  टूर पर जा सकूँ | मुझे भीड़ का हिस्सा नहीं होना था , मुझे तो अपवाद होना था | अपवाद जो अँगुलियों पर गिने जा सकते हैं | इसके लिए मैंने मेहनत भी तो कितनी की थी | बचपन से ही पिताजी ने बताया था जो बच्चे क्लास में अच्छा करते हैं वो जीवन में सफल होते है , नाम कमाते हैं और मैंने अपनी गुडिया से खेलना छोड़ कर अंग्रेजी की किताब उठा ली थी | क्लास में फर्स्ट आना मेरी आदत में  शुमार हो गया | कितने सफल लोगों के इंटरव्यू पढ़े थे मैंने , सबमें यही तो लिखा था … “ कठोर परिश्रम सफलता की कुंजी है |” ये वाक्य मेरे लिए वेद  वाक्य बन गया | मैंने मेहनत में कोई कसर नहीं छोड़ी | फिर मुझे लगा की अगर मैं कॉलेज में बहुत अच्छा करुँगी तो मुझे सफलता मिलेगी | मैं  काम में दिल लगा दूंगी तो मुझे सफलता मिलेगी | काम को अपना सोलमेट समझ लुंगी तो मुझे सफलता मिलेगी | पर अफ़सोस ऐसा कुछ भी नहीं हुआ | सफलता और मेरे बीच में ३६ का आंकड़ा ही रहा | और मैं भीड़ का हिस्सा बन गयी | जो मुझे कतई  स्वीकार नहीं था | यहाँ सफलता से मेरा अभिप्राय अपवाद वाली सफलता थी | मेरे पास नौकरी थी पर वैसे नहीं जैसी मैंने उम्मीद करी थी , मेरे पास उस तनख्वाह में अफोर्ड करने लायक घर था पर वैसा नहीं जैसा मैंने उम्मीद करी थी | मैं अपने पैसों से विदेश घूम –  फिर सकती थी पर वर्ल्ड टूर नहीं जैसी मैंने उम्मीद करी थी | मेरी खुद से की गयी उम्मीदें मुझे मार रही थी | कुछ खास बनने  व् ख़ास करने के लालच में मैं आम जीवन का या यों कहिये जो मुझे मिला है उसका लुत्फ़ नहीं उठा पा रही थी | मैं निराश थी बहुत निराश |                                 अपने मन की निराशा  का कम करने के लिए  मैंने टी . वी ऑन कर दिया | विज्ञापन आ रहे हैं |पहला विज्ञापन जिस पर मेरी नज़र पड़ी  | गोरेपन की क्रीम का है | गोरेपन की क्रीम से न सिर्फ रंग साफ़ उजला हो जाता है बल्कि आत्मविश्वास बढता  है , अच्छा पति मिलता है , नौकरी मिलती है , रास्ते रुक जाते हैं , सडक पर लोग दिल थाम कर खड़े रहते हैं और बहुत कुछ जिसकी कल्पना एक लड़की कर सकती है | पर क्या ये संभव है ? क्या पहले से ही गोरे  लोगों को ये सब कुछ मिला हुआ है | शायद नहीं | पर मार्केटिंग उम्मीद बेचने की कला है | अगर यही  क्रीम का विज्ञापन ऐसा होता की ये क्रीम आप की त्वचा को नमी प्रदान करेगी तो क्या लोग उसकी तरफ भागते ? क्या उस क्रीम की बिक्री बढती ? उम्मीदें बढ़ाना और और उनके टूटने पर नाउम्मीद लोगों की संख्या … Read more

अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक दिवस : तकनीकी युग में कम्प्यूटर पर काम करने वाले कर्मचारियों विशेषकर महिलाओं को अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठानी चाहिए

विश्व भर में अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस “1 मई” के दिन मनाया जाता है। जिस प्रकार एक मकान को खड़ा करने और सहारा देने के लिये जिस तरह मजबूत “नीव” की महत्वपूर्ण भूमिका होती है, ठीक वैसे ही किसी समाज, देश, उद्योग, संस्था, व्यवसाय को खड़ा करने के लिये कामगारों  की विशेष भूमिका होती है।इतिहास के अनुसार वर्ष 1886 में 4 मई के दिन शिकागो शहर के हेमार्केट चौक  पर मजदूरों ने अपनी मांगों को लेकर हड़ताल कर रखी थी |मजदूर चाहते थे कि उनसे दिन भर में आठ घंटे से अधिक काम न कराया जाए।व् दुर्घटना आदि होने पर उन्हें उचित मुआवजा मिले | तभी अचानक किसी अज्ञात व्यक्ति द्वारा भीड़ पर एक बम फेंका गया। इस घटना से वहाँ मौजूद शिकागो पुलिस नें मजदूरों की भीड़ को तितर-बितर करने के लिये एक्शन लिया और भीड़ पर फायरिंग शुरू कर दी। इस घटना में कुछ प्रदर्शनकारीयों की मौत हो गयी।इसके बाद इस घटना में निर्दोष मारे गए लोगों को श्रद्धांजलि देने के लिए 1889 में अंतर्राष्ट्रीय समाजवादी सम्मेलन में 1 मई को अंतर्राष्ट्रीय मजदूर दिवस के रूप में मानाने की घोषणा करी | भारत में मजदूर दिवस पहली बार सन 1923 में चेन्नई में मनाया गया | मजदूर दिवस मजदूरों के हितों को सुरक्षित करने की दिशा में बढाया गया कदम है | आज दुनिया भर में मजदूरों के हितों की सुरक्षा के लिए मजबूत यूनियन है | फिर भी इस दिन का आज भी ज्यों का त्यों महत्व है | क्योंकि इसी दिन से शुरुआत हुई थी एक कमजोर तबके के संगठित होने की व् अपने अधिकारों के लिए आवाज़ उठाने की | अगर आज के परिपेक्ष्य में देखा जाए तो बहुत सारे जॉब्स कम्प्यूटर रिलेटेड हो गए हैं | ऐसे में आठ घंटे काम करने के बाद भी कर्मचारी अपने साथ घर में काम लाने को विवश हैं | घर से काम करने वालों के ऊपर काम का दवाब इतना है की कई बार उन्हें १८ घंटे भी काम करना पड़ता है |कई बार कर्मचारी सारे काम निबटा कर सांस लेने बैठा ही होता है की बॉस का फोन आ जाता है और सारे जरूरी घरेलू काम छोड़ कर कम्प्यूटर पर बैठना पड़ता है | क्योंकि बॉस से अब कर्मचारी बस एक फोन कॉल की दूरी पर है | और वो उसे जब जी चाहे घर में भी डिस्टर्ब कर सकता है |  जबकि तनख्वाह उतनी ही मिलती है |पुरुषों पर तो इसका प्रभाव पड़ता ही है पर  इसका सबसे बुरा असर महिलाओं व् बच्चों  पर पड़ता है | एक कामकाजी महिला को घर जा कर अपनी घरेलु जिंदगी भी संभालनी होती है | बच्चों को समय न दे पाने पर जहाँ बच्चों का विकास सही रूप से नहीं हो पाता | वहाँ माँ अपराध बोध से ग्रस्त रहती है | वैसे भी हर कर्मचारी को सुस्ताने व् अपने निजी जिन्दगी सुचारू रूप से चलाने की सुविधा मिलनी चाहिए | ताकि वो शारीरिक व् मानसिक रूप से स्वस्थ रहे | ऐसे में क्या ये जरूरी नहीं है की  आज के तकनीकी युग में इन नए कर्मचारियों को  अपनी हिस्से की ज़िन्दगी जीने के लिए समय माँगना चाहिए | आवाज़ उठानी चाहिए और मजदूर दिवस के दिन अपनी बातों को एक मंच प्रदान करना चाहिए। वंदना बाजपेयी 

आत्महत्या – किसी समस्या का समाधान नहीं

अभी हाल ही में श्री – श्री रवि शंकर ने आध्यात्म की कमी को आत्महत्या का कारण बताया है | यह  वक्तव्य उन्होंने चाहे जिस सन्दर्भ में दिया हो पर इससे इस विषय पर वाद विवाद जरूर आरम्भ हो गया है की  लोग आत्महत्या क्यों करते हैं ?  अपने जीवन को स्वयं समाप्त कर देना आसन नहीं है | फिर भी लोग ऐसा निर्णय लेते हैं उसके पीछे बहुत सारी मानसिक वजहें रहती हैं | आत्महत्या किसी भी कारण से की जाए वो है बहुत दुखद और उससे भी ज्यादा दुखद है की उनके पीछे छूटने वाले उनके प्रियजन जीवन भर  उसे न बचा सकने के अपराध बोध व् उसने ऐसा क्यों किया के प्रश्न के साथ जीते हैं | मनोविशेषज्ञों की माने तो आत्महत्या के पीछे ६ मुख्य कारण होते हैं |  1) उसमें पहला कारण अवसाद होता है | जहाँ यह लगने लगे अब कुछ भी ठीक नहीं हो सकता | तब सारी आशाएं टूट जाती हैं | कुछ भी अच्छा न लगने से शुरू हुआ अवसाद जब इस सीमा पर पहुँच जाए की मेरे बिना मेरे अपनों का जीवन ज्यादा बेहतर होगा | तब व्यक्ति अपने को अपने के दुःख का अपराधी मानने लगता है | ऐसे व्यक्ति बार – बार अपने आस – पास वालों से आत्महत्या से सम्बंधित अपने विचारों को बताते हैं , जिन्हें लोग नज़र अंदाज कर देते हैं | एक ६ साल की बच्ची ट्रेन के आगे कूद गयी | उसने अपने नोट में लिखा – वो अपनि माँ के साथ रहना चाहती है जो उसे छोड़ कर भगवान् के पास चली गयी है | अवसाद केवल निराश लोगों को ही नहीं बल्कि अपनी मोनोटोनस जिंदगी से ऊबे लोगों को भी हो जाता है | मशहूर अभिनेत्री दीपिका पादुकोण भी अवसाद का शिकार रह चुकी हैं | उनके चलाये हुए कैम्पेन में कई मशहूर हस्तियों ने स्वीकार किया की वो जीवन में कभी न कभी अवसाद का शिकार रह चुके हैं | क्योंकि अवसाद  का इलाज़ है | इसलिए जरूरी है की लोग अपने आस – पास नज़र रखे की कहीं कोई उनका परिचित चुपके – चुपके आत्महत्या की योजना तो नहीं बना रहा है |  २) दूसरा प्रमुख कारण मनोरोग होते हैं जिसमें Schizophrenia प्रमुख है | इनको पहचानना और भी मुश्किल है | क्योंकि ये कभी नहीं कहते की अंदर ही अंदर इनके मन में खुद को मारने के ख्याल हावी हो रहे है | और उसका शोर इतना तेज़ है की इन्हें बाहर की हंसी – ख़ुशी की कोई आवाजें सुनाई ही नहीं दे रहीं हैं | हालांकि ये 1 % ही होते हैं परन्तु इनकी आत्मघाती प्रवत्ति बहुत ज्यादा होती है | इसका भी इलाज़ है |” अपने को खत्म कर लो “की आवाजे जो इन्हें अपने अंदर सुनाई देती है जिसे वो दोस्तों परिचितों से छुपाये रहते हैं इलाज़ के दौरान स्वीकार कर लेते हैं | हालांकि अगर रोग बढ़ गया है तो Schizophrenics तो इन्हें अस्पताल में भारती करना पड़ता है | यह तब तक होता है , जब तक उन्हें ये शोर सुनाई देना बंद न हो जाए |  ३ ) ये आवेगशील होते हैं | ये निराने किसी इम्पल्स के अंतर्गत लिया जाता है | बाहर से शांत नज़र आने वाले ये व्यक्ति अपने जीवन के किसी वाकये से बेहद शर्म  महसूस कर रहे होते हैं | जब पश्चाताप बढ़ जाता है तो ये ये घातक  कदम उठा लेते हैं  | माता – पिता के डांटने से बच्चों द्वारा की गयी आत्महत्या इसी श्रेणी में आती है | इम्पल्सिव होने के बावजूद अगर कोई ऐसा कदम उठाने का प्रयास करता है तो वो बार – बार ऐसा कदम उठाएगा ये नहीं कहा जा सकता | यहाँ दवाइयों व् अस्पताल के स्थान पर कारण को दूर करने का प्रयास करना चाहिए |  4 ) आत्महत्या कई बार दूसरों को अपनी आशांति से अवगत काराने के लिए उठाया गया कदम भी होती है | ये लोग वास्तव में मरना नहीं चाहते हैं | बस चाहते हैं की दूसरा उनकी बात या तकलीफ को समझे | इस कारण ये आत्मघाती कदम उठाते हैं | कई बार ये खुद भी नहीं जानते की इससे इनकी मृत्यु भी हो सकती है | उन्हें विश्वास होता है की अगला उन्हें बचा लेगा | जैसे एक पति – पत्नी के झगड़े में पति ने कई  की गोलियां खायी , तैश में पत्नी ने भी बची हुई गोलियां खा लीं | मृत्यु नहीं हुई पर गोलियों के साइड इफ़ेक्ट से दोनों की मांसपेशियां अकड  गयी व् दोनों कई दिन तक बेड रिडेन हो गए | दोनों ने स्वीकार किया की उनका उदेश्य मात्र अपनी तकलीफ समझाना था | इन परिस्तिथियों को रोक पाना मुश्किल है | यहाँ स्वविवेक ही काम आता है |कई बार यह तात्कालिक निर्णय भी होता है | केवल कुछ समय टलने से आत्महत्या का विचार हट सकता है |   5) आत्महत्या के कई बार दार्शनिक कारण भी होते है | जहाँ वो व्यक्ति जो टर्मिनल बिमारी से जूझ रहे हों , मृत्यु को चुनते है | न उन्हें अवसाद होता है , न मनोरोग न वो हेल्प के लिए चिल्लाते हैं | उन्हें पता होता है की उनकी बीमारी का कोई इलाज़ नहीं है | अपनी शारीरिक समस्याओं का समाधान उन्हें केवल मृत्यु में दिखाई देता है , जो धीरे – धीरे उनकी और बढ़ रही होती है बस वो उसकी गति तवरित करना चाहते हैं | विदेशों में अस्पतालों में ऐसे टर्मीनली इल लोगों के लिए काउंसलर’स होते हैं | जो उन्हें जीवन क्ले आखिरी दिनों को शांति के साथ जीने में मदद करते हैं | हमारे यहाँ अभी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है |  ६) उन्होंने कोई अक्षम्य गलती कर ली हो | ऐसा ज्यादातर युवा वर्ग की आत्महत्याओं में देखने को मिलता है | ऐसी ही एक स्त्री नियाग्रा फाल के पास रेलिंग पर चढ़ गयी | लोग उसको बचने के स्थान पर इस रोमांचक दृश्य को कैमरे में कैद करनेमें लग गए | जब तक पुलिस की गाडी आती उसकी जीवन लीला समाप्त हो चुकी थी | यहाँ शिक्षा , परिजनों का साथ व् वातावरण बदलाव बहुत काम आता है |                            आत्महत्या … Read more

कठिन रिश्ते : जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर लगे

एक खराब रिश्ता एक टूटे कांच के गिलास की तरह होता है | अगर आप उसे पकडे रहेंगे तो लगातार चोटिल होते रहेंगे | अगर आप छोड़ देंगे तो आप को चोट लगेगी पर आप के घाव भर भी  जायेंगे – अज्ञात                                                                                       मेरे घर में  मेरी हम उम्र सहेलियां  नृत्य कर रही थी | मेरे माथे पर लाल चुनर थी |  मेरे हाथों में मेहँदी लगाई जा रही थी | पर आने जाने वाले सिर्फ मेरे गले का नौलखा  हार देख रहे थे | जो मुझे मेरे ससुराल वालों ने गोद भराई की रसम में दिया था | ताई  जी माँ से कह रही थी | अरे छुटकी बड़े भाग्य हैं तुम्हारे जो  ऐसा घर मिला तुम्हारी  नेहा को | पैसों में खेलेगी | इतने अमीर हैं इसके ससुराल वाले की पूछों मत | बुआ जी बोल पड़ी ,” अरे नेहा थोडा बुआ का भी ध्यान रख लेना , ये तो गद्दा भी झाड लेगी तो इतने नोट गिरेंगें की हम सब तर  जायेंगे | मौसी ने हां में हाँ मिलाई  और साथ में अर्जी भी लगा दी ,” जाते ही ससुराल के ऐशो – आराम में डूब जाना , अपनी बहनों का भी ख्याल रखना | बता रहे थे  उनके यहाँ चाँदी का झूला है कहते हुए मेरी माँ का सर गर्व से ऊँचा हो गया |  तभी मेरी सहेलियों   ने तेजी से आह भरते हुए कहा ,” हाय  शिरीष , अपनी मर्सिडीज में क्या लगता है , उसका गोद – भराई  वाला सूट देखा था एक लाख से कम का नहीं होगा | इतनी आवाजों के बीच , ” मेरी मेहँदी कैसी लग रही है” के मेरे प्रश्न को भले ही सबने अनसुना कर दिया हो | पर उसने एक गहरा रंग छोड़ दिया था , .. इतना लाल … इतना सुर्ख की उसने मेरे आत्म सम्मान के सारे रंग दबा लिए | इस समय मैं एक कंप्यूटर इंजिनीयर नहीं , (जिसने अपने अथक प्रयास से कॉलेज टॉप किया था ) एक माध्यम वर्गीय दुल्हन थी जिसे भाग्य से एक उच्च वर्ग का दूल्हा मिल रहा था | मध्यमवर्गीय भारतीय समाज से उम्मीद भी क्या की  जा सकती है ?                                                हालांकि जब मैंने शिरीष से शादी के लिए हाँ करी तो मेरे जेहन में पैसा नहीं था | शिरीष न सिर्फ M .BA . थे बल्कि , बातचीत में मुझे काफी शालीन व्  सभ्य  लगे थे | शिरीष के परिवार ने दहेज़ में कुछ नहीं माँगा था |  मेरे माता – पिता तो जैसे कृतार्थ हो गए थे | और उन्होंने कृतज्ञता निभाने के लिए जरूरत से ज्यादा दहेज़ देने की तैयारी कर ली | विवाह की तमाम थकाऊ रस्मों के बाद जब मैं अपने  ससुराल पहुँची तो मेरे सर पर लम्बा  घूंघट था | हमारे यहाँ बहुए नंगे  सर नहीं घूमती , सासू माँ का फरमान था | चाँदी का झूला जरूर था पर घुंघट पार उसकी चमक बहुत कम लग रही  थी | रात को मैं  सुहाग की सेज पर अपने पति का इतजार कर रही थी | १२ , 1 , २ … घडी की सुइंयाँ आगे बढ़ रही थी | मुझे नींद आने लगी | ३ बजे शिरीष कमरे में आये | मैंने प्रथम मिलंन  की कल्पना में लजाते हुए घूँघट सर तक खींच लिया | शिरीष एक बड़ा सा गिफ्ट बॉक्स लेकर मेरे पास आये | पर ये क्या ! शिरीष ने शराब पी हुई थी | इतनी की वो लगभग टुन्न थे | मै उनका हाथ झटक कर खड़ी हो गयी | मैं समर्पण को तैयार नहीं थी | आज शगुन होता हैं शिरीष ने बायीं आँख दबाते हुए शरारती अंदाज़ में कहा |होता होगा शिरीष पर मैं किसी शगुन के लिए अपनी जिंदगी भर की स्मृतियों को काला नहीं कर सकती | मेरे स्वर में द्रणता थी | हालांकि शिरीष नशे की हालत में ज्यादा देर तक खड़े नहीं रह सके  | और वहीँ बिस्तर पर गिर गए | कमरे में उनके खर्राटों की आवाज़ गूंजने लगी |                                      सुबह जब मैं नहा कर निकली  तब तक शिरीष जग चुके थे | वे मुझ पर मुहब्बत दर्शाने लगे | | मैं अभी तक कल के दर्द से उबर नहीं पायी थी तो जडवत ही रही | अचानक चुम्बन लेते – लेते शिरीष ने मेरा हाथ मरोड़ दिया ,” इतनी बेरुखी , कोई और आशिक था क्या ? मैंने न में सर हिलाया | तो फिर बीबी की ही तरह रहो , जैसे घरेलू  औरतें रहती हैं | अकड़   दिखाने की क्या जरूरत है | मेरी कलाई पर शिरीष की अंगुलियाँ छप  गयी , और मन पर अपमान का दर्द |  पाँव फेरने पहली बार मायके जाने तक मैं तीन बार पिट चुकी थी व् अनेकों बार अपमानित करने वाले शब्द सुन चुकी थी | माँ के पास जाते ही मैंने शिरीष के बर्ताव की शिकायत की | माँ ने शुरू , शुरू में झगडे तो होते ही हैं कह कर मेरी बात सुनने तक से इनकार कर दिया | यह वही माँ थी , जो मुझसे कहा करती थी की अगर आदमी एक बार हाथ उठा दे तो वो जिंदगी भर मारता रहता है | फिर शिरीष तो मुझे बात – बेबात पर न जाने कितनी बार मार चुके थे | क्या उन्हें अपने वचनों का भी मान नहीं रहा | हां ! भाभी के मन में जरूर करुणा उपजी थी | उन्होंने सलाह दी  की तू  नौकरी कर लें | अपना वजूद होगा तो कोई ऐसे अपमानित नहीं कर सकेगा | भाभी की बात मुझे सही लगी | घर आते ही मैंने शिरीष के आगे अपनी बात रखी | सुनते ही शिरीष भड़क उठे | शिरीष मिश्र की … Read more

घूंघट वाली औरत और जींस वाली औरत

आँखें फाड़ – फाड़ कर देखती है घूंघट  वाली औरत पड़ोस में आकर बसी जींस पहनने वाली औरत को याद आ जाते हैं वो दो गज लम्बे दुप्पटे जिन्हें भी तहा  कर रख आई थी माँ की संदूक में की अब बस साड़ी ही पहननी है यही ससुराल का ड्रेस कोड है इसके इतर कुछ पहनने पर लग जायेंगे उसके संस्कार पर प्रश्न चिन्ह ? नाप दिए जायेंगे बाप – दादा पर वो , कैसे पहन पाती है जींस फिर अपने ही प्रश्न को पलट देती है , तवे पर रोटी के साथ फुर्सत में सोंचेगी पहले सबको खाना तो खिला दे बड़ी हसरतों से देखती है घूँघट वाली औरत सुबह कपडे धोते  हुए जींस वाली औरत को फोन पर अंग्रेजी में गपियाते हुए याद आ जाती हैं वो किताबें वो स्कूल का जीवन वो अधूरी शिक्षा जो पिता के  जल्दी कन्यादान कर गंगा नहाने की इच्छा में आंसुओं में बह गयी पर वो …. कैसे पढ़ पायी फिर बहा देती है अपने ही प्रश्न को कपडे के मैल  के साथ भीगी  पलकों से झरोखे से निहारती है घूँघट वाली औरत कार चला कर बाहर जाती जींस वाली औरत को अचानक खिड़की के जिंगले गड़ने लगते हैं सीने में  बढ़ा देती है कदम वो भी बाहर जाने को की ठीक दरवाजे की चौखट के आगे सुनाई पड़ती है खखारते  ससुर की आवाज़ भले घर की औरतें अकेली बाहर नहीं जाती भरती है आह फिर याद आ जाती है विदाई के समय माँ की शिक्षा की उस घर से अर्थी ही जाए पी जाती है अपनी ही चाह को अपने आंसुओं के साथ बड़े गुस्से से देखती है घुंघट वाली औरत जींस वाली औरत को की उसका पति आजकल घर के वरामदे में ज्यादा मंडराया करता है तुलना करता है उसकी जींस वाली औरत से और बात – बात पर देता है उसे गंवार की उपाधि   पर वो …. वो तो भाव नहीं देती उसके पतिको जानती है वो न उसे  बाहर जाने को मिलेगा न उस पर लगा गंवार का लेवल हटेगा इस बार नहीं पलट पाती अपने ही प्रश्न को न तवे पर रोटी के साथ न कपड़ों के साथ न आंसुओं के साथ दिन रात मंथन करती है घूंघट वाली औरत जींस वाली औरत के कारण अनायास  ही उपजी समस्या का पतिव्रता , घर के बाहर कह नहीं सकती है पति के खिलाफ एक भी शब्द साथ जो निभाना है जीवन भर सुना है आजकल उसने घर – बाहर कहना शुरू कर दिया है जींस वाली औरत के बारे में निर्लज्ज है , बेहया ,संस्कारहीन न जाने कैसे कपडे पहनती फिरती है सुना है  सुन – सुन कर आजिज़ आ चुकी जींस वाली औरत भी पुकारने लगी है उसे पिंजड़े की मैना जो दूसरे पर अँगुली उठाने से पहले काबू में न रख पायी अपने पति को मेरे , आप के हम सबके मुहल्ले में है घूँघट वाली औरत और जींस वाली औरत में तनातनी अंगुलियाँ उठ रही हैं दोनों ओर से इस बीच एक तीसरा पक्ष भी है जो लगता है दोनों पर सरेआम आरोप कुछ नहीं “ औरत ही औरत की दुश्मन है “ स्वीकृति में हिलते सरों के बीच कहीं  कोई प्रश्न नहीं उठता “ आखिर औरत को औरत की दुश्मन बनाया किसने “ वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … काव्य जगत में पढ़े – एक से बढ़कर एक कवितायें रूचि भल्ला की कवितायें वीरू सोनकर की कवितायेँ आभा दुबे की कवितायें बातूनी लड़की आपको  कविता  “.घूंघट  वाली औरत और जींस वाली औरत .“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

लेकिन वो बात कहाँ – कहाँ तक सच है ?

दो लोगों की तुलना नहीं हो सकती | जो रास्ता आपके लिए सही है , हो सकता है दूसरे के लिए गलत हो |हर किसी की अपनी विशेष यात्रा है |हम सब की यात्रा न सही है न गलत न अच्छी है न बुरी …. बस अलग है – डैनियल कोपके                             तुलना का इतिहास बहुत पुराना है | शायद जब से प्रकृति में दूसरा मानव बना तब से तुलना करना शुरू हो गया होगा | ये तुलना भले ही सही  हो या गलत पर जीवन के हर क्षेत्र में होती है | तुलना करने से किसको क्या मिलता है , पता नहीं पर तुलना रंग –  रूप में होती है , आकार प्रकार में होती है | सफलता असफलता में में होती है |हालांकि तुलना करना न्याय संगत  नहीं है | क्योंकि दो लोगों की परिस्तिथियाँ व् सोंच , दृष्टिकोण अलग – अलग हो सकता है | उनके संसाधन भी अलग – अलग हो सकते हैं |  उस पर भी अगर बात दो पीढ़ियों की तुलना की हो , वो भी उनकी सफलता की  तो ?                                              कला हो  , विज्ञानं , साहित्य , खेल या कोई और क्षेत्र दो पीढ़ियों की तुलना करना बड़ा कठिन काम है | क्योंकि दोनों पीढ़ियों की परिस्तिथियाँ अलग – अलग  होती हैं | उनका संघर्ष और उनके साथ के पतिस्पर्धा करने वालों की काबिलियत भी अलग | पुरानी पीढ़ी के सफल लोग इस  प्रश्न को दो तरह से लेते हैं  | कुछ तो नए लोगों के संघर्ष और उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हैं और कुछ उन्हें सिरे से नकार देते हैं | उन्हें लगता है की अब तो इस क्षेत्र  में लोगों की “बाढ़ “सी आ गयी है | कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा है | उदहारण के तौर पर अब तो क्रिकेट ही क्रिकेट हो रहा है | हमारे ज़माने में पांच दिन के मैच होते थे अब तो टी – २० रह गया | कैसे कोई बेहतर खिलाड़ी सिद्ध करेगा | हमारे ज़माने में  आई . आई टी की हज़ार सीटे  भी नहीं होती थी | अब तो ५००० सीटे हैं , exam का पैटर्न भी अलग है वैसा  दिमाग कैसे पता चलेगा | लेखन में तो इतने लोग आ रहे हैं पर अब गहराई रह ही नहीं गयी है , सब फ़ास्ट फ़ूड है | भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं                इन सब के बावजूद नयी प्रतिभाएं हर क्षेत्र में आ रही हैं |उनके अपने संघर्ष हैं , अपनी लड़ाई है और सफलता की अपनी दास्ताँ है |  “बाढ़ ” शायद बढ़ी हुई जनसँख्या , बढ़ी हुई शिक्षा और अपने पैशन को अधिक समय देने की लालसा के कारण है | जिसे नकारात्मक रूप में नहीं देखना चाहिए | ये स्वागत  करने वाली बात है | जो कोई भी कुछ अच्छा करने की कोशिश कर रहा है उसके प्रयास  का उपहास नहीं उड़ाया जाना चाहिए | हर ज़माने में  अपनी कला को , प्रतिभा को आम लोगों तक पहुचाने के लिए प्रचार किया जाता रहा है | हां उसके तरीके अलग होते थे | पर वो तरीके सर्वसुलभ नहीं थे | आज टीवी पर तमाम प्रतिभा खोज कार्यक्रम इस बात के गवाह है की हमारे देश में गांवों – गाँवों में प्रतिभा छुपी हुई है |  तकनीकी बढ़ी है जिससे सफ़र आसान भी हुआ है और कठिन भी | क्योंकि अब अपनी कला को आम लोगों तक पहुँचाना आसान हुआ है | परन्तु अब हजारों के बीच में अपनी एक अलग पहचान बनाना उतना ही मुश्किल |                                             अब आती हूँ अपने प्रिय विषय लेखन पर | अगर लेखन की बात करें तो आज लेखन में बहुत प्रयोग हो रहे हैं | क्योंकि आज केवल साहित्य ही नहीं वुभिन्न विषयों से शिक्षित लोग लिख रहे हैं है | चाहे  वो डॉक्टर हो , इंजिनीयर , विज्ञानं के छात्र  सब ने अपने भीतर छिपे लेखक की कुलबुलाहट को शब्द देना शुरू कर दिया | लेखन की पहली शर्त ही विचार हैं | जब विभिन्न  तरह के विचार सामने आयेंगे तो नयी संभावनाएं बनेगी |  कबीर अनपढ़ थे | फिर भी साहित्य की ऊँची कक्षाओं में पढाये जाते हैं | पर आज किसी दूसरे विषय से शिक्षित व्यक्ति को साहित्यकार का दर्जा देने में आनाकानी करना साहित्य के नहीं व्यक्ति के  हित में हो सकता है | अगर पाठकों की बात करें तो पाठकों की पसंद भी बदली है उनके पास समय का आभाव भी है | अब गाँव में भी चौपाल या बरगद  तले लेट कर घंटों पढने का समय नहीं है |  पढने वाला भी एक पैराग्राफ घुमाते हुए बात पर आने की जगह टू दी पॉइंट पढना चाहता है |ये समय  फ़ास्ट फ़ूड कल्चर को जन्म दे रहा है |क्या इस पर गौर किया गया है की ये लेखक या पाठक की ख़ुशी नहीं विवशता भी हो सकती है | व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाडा                                                 अगर हम स्त्री विमर्श या महिला लेखन की ही बात करें  तो आज महिलाएं बड़ी संख्या में लिख रही हैं | भले ही इसे “बाढ़ “का दर्जा दिया जाए पर विभिन्न विषयों पर स्त्रियों के विचार खुल कर सामने आ रहे हैं | आने भी चाहिए |आज शहर की स्त्री के अपने अलग संघर्ष हैं जो उसकी दादी के संघर्षों से अलग हैं | वो जिन समस्याओं से जूझ रही है उन्हें स्वर देना चाहती है , उन्हें ही पढना चाहती है |उनका हल ढूंढना चाहती है | जबसे  दादी का संघर्ष  घर के अंदर था , पोती का घर के बाहर | ये सच है की अगर दादी ने घर के अंदर संघर्ष न किया होता तो पोती … Read more

अहसासों का स्वाद

काका और काकी का झगडा कोई नयी बात नहीं है | काका अक्सर काकी के खाने में कुछ न कुछ नुस्ख  निकाल देते | रोज़ का वही नाटक ,” तुम कैसा खाना बनाती  हो इसमें स्वाद नहीं है हमारी अम्मा तो ऐसा बनाती थी | क्या  स्वाद था | अंगुलियाँ चाट जाने को जी करता था | काकी चुपचाप सुन कर सर झुका कर रसोई में आ जाती |मन ही मन सोंचती , बढती उम्र में सठिया गए हैं | इतनी मेहनत के द भी प्रसंशा के दो शब्द नहीं फूटते मुँह से | फिर मन मार कर काम में लग जातीं |  काकी ने आज बड़े जतन  से आंवलें का मुरब्बा बनाया |काका ने जुबान पर रखते ही कहा ,” ये कैसा बनाया है , इसमें तो स्वाद ही नहीं है | हमरी अम्मा तो  ऐसे बनाती थी | सुनते ही काकी का पारा सातवें आसमान पर पहुँच गया | आज उनसे भी नहीं रहा गया | तपाक से बोलीं ,” ७० के हो गए हो अब न वो दांत हैं न वो आंत तो स्वाद वही कैसे रह जाएगा ?                     क्या हम सब भी जब अपने अतीत को याद करते हैं तो ये नहीं सोंचते की वो जमाना ही अच्छा था | वो तवा टनटनाता  हुआ चाट वाला , वो 5 पैसे की पांच संतरे की फांकों जैसी टाफियां , वो प्याऊ पर मिली गुड की ढेली सब का स्वाद मुँह में अमृत सा घोल देता है | अतीत को याद करते हुए हम इस बात को सिरे से खारिज कर देते हैं की वो उम्र का स्वाद था , वो अपने और पराये में भेद न होने का स्वाद था , कौतुहल का स्वाद था , आँखों में सपनों का स्वाद था | बढती उम्र के साथ अनुभव में शामिल हुआ खट्टापन , तीखापन , कसैलापन हर स्वाद को बदल देता है |बाहरी तौर पर  अगर अब सब कुछ पहले जैसा भी हो जाए तो भी क्या वैसा  महसूस होगा ?  क्योंकि बढती उम्र के साथ अहसासों का स्वाद बदल चुका  है | वंदना बाजपेयी 

औकात

दफ्तर से लौटते समय सुरेश बाबू ने स्कूटर धीमी कर के देखा , हाँ  ! ये सोमेश जी ही थे | अब ऐसा क्या हुआ जो ये यहाँ आ गए | ये तो बहुत ख़ुशी या गम में ही पीते थे | चलो पूंछते हैं , साथ तो देना बनता है , सोंचते हुए सुरेश बाबू ने स्कूटर किनारे लगा दी और पहुँच गए सोमेश जी का साथ देने | कुर्सी खिसका कर बैठते ही प्रश्न दागा ,” क्या रे सोमेश अब आज क्या हुआ ? सोमेश ने एक बड़ा सा घूँट गटकते हुए कहा , ” कुछ न पूंछो  ,  ?ये औरतें न हों न दो दुनिया का कोई मर्द शराब खाने की और रुख न करे | तुम्हारी भाभी हैं न, उन्ही को देखो ? अब ऐसा क्या कर दिया भाभी ने , सुरेश जी रहस्य से पर्दा उठाने को बेताब हो गए |  बहुत मुँह खुल गया है | मायके में किसी की शादी पड़ रही है | | भाभी ऐसी साडी पहनेंगी , दीदी ऐसी साडी , मुझे भी चाहिए | जब मैंने असमर्थता जाहिर की तो मुँह बना कर बोली ठीक है तुम्हारी औकात नहीं है खरीदने की तो अब नहीं कहूँगी | बोझ और तुमने सुन लिया ,” सुरेश जी ने आश्चर्य और क्रोध मिश्रित भाव से पूंछा ? सोमेश जी मुँह बनाते हुए बोले ,” सुन कैसे लेता , एक के बदले हज़ार सुनाई | |सारी पुरानी बातें दोहरा दी |जो हमेशा सुनाता रहता था |   बाप के पास था ही क्या , यूँ ही अपनी गंवार बेटी को मेरे पल्लू में बाँध दिया , ढंग का स्कूटर तक नहीं दिया  |देते भी कैसे औकात ही नहीं थी | सुरेश : ओह ! तब तो भाभी जी भी आहत हो कर यहीं कहीं कोई प्याला गुटक रहीं होंगी |  सोमेश : अरे नहीं ! दिन भर ओंधे मुँह पड़ी रोती  रहेगी | फिर रात को मेरी पसंद की मटर – पनीर की सब्जी बनाएगी , शयद वो नीली वाली नाईटी भी पहन लें ( कहते हुए सोमेश जी ने बायीं आँख दबा दी ) क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ? सुरेश : अच्छा ! ऐसा ? सोमेश : और नहीं तो क्या , बाप ने पैसे बचाने  के चक्कर में ज्यादा पढाया नहीं , दहेज़ और पढ़ाई डबल खर्चा जो होता | जो  थोडा बहुत पढ़ा था वो भी बच्चों के पोतड़े बदलते – बदलते उड़ गया | ये औरतें भी न ऐवेई भाव खाती हैं | अब  मुझ से झगड़ कर कहाँ जायेगी | ” औकात ‘ क्या है उसकी ?  वंदना बाजपेयी 

बोझ

इस बार कामिनी के मायके आने पर कोई स्वागत नहीं हुआ | भाभियों ने मामूली दुआ सलाम कर रसोई की राह संभाली | बिट्टू के मनपसंद खाने के बारे में भी नहीं पूंछा | लौकी की सब्जी और तुअर दाल देख कर बिट्टू नाक – भौं बनाती , तब तक माँ की तरेरती आँखे देख चुपचाप वही गटक  लिया | पर बिट्टू हैरान थी की इस बार मामा ने भी कहीं घूमने चलने की बात नहीं कही | न ही दीदी , दीदी कर के उसकी माँ के इर्द – गिर्द घूमें | पर सब से ज्यादा आश्चर्य उसे नाना जी की बात सुन  कर हुआ जो नानी को डांटने के लहजे में कह रहे थे | ज्यादा बिटिया – बिटिया करती रहोगी तो बेटे बहुएं तुम्हारे खिलाफ हो जायेंगे | कामिनी का जो हो सो हो , तुम अपने बुढापे के बारे में सोंचों | अब तो 8 वर्षीय बिट्टू से रहा नहीं गया | सीधे माँ के पास जा कर पूंछने लगी ,”माँ , आखिर इस बार ऐसा क्या हुआ है , कोई हमसे ठीक से बात क्यों नहीं कर रहा है |सब लोग इतना बदल क्यों गए हैं ? कुछ नहीं बेटा , इस बार मैंने हिम्मत कर के वो नीले साव भाभी और माँ को दिखा दिए जो तेरे पापा की बेल्ट से हर रात मेरी पीठ पर उभर आते हैं | बस , सबको भय हो गया की मैं अब कहीं यहीं न रुक जाऊं ” कामिनी ने बैग पैक करते हुए सपाट सा उत्तर दिया | वंदना बाजपेयी 

पौधे की फ़रियाद

नन्हा सा था | तभी से तो इस घर में है | श्रीमती जुनेजा ने कितने प्यार से पाला था उसे , उसने भी तो माँ से कम नहीं समझा था उन्हें |उनका जरा सा स्पर्श पा कर कैसे ख़ुशी से झूम उठता था वह | पर अपने अंदर उठ रहे प्यार को इससे बेहतर तरीके से वो व्यक्त नहीं कर पाता  था | उसकी भी कुछ विवशताएँ थी | शारीरिक ही सही | पर प्यार तो प्यार होता है न | जिसकी अपनी ही भाषा होती है | जिसे बिना बोले बिना कहे लेने वाला व् देने वाला दोनों ही समझ लेते हैं |  पर इस बार ऐसा क्या हुआ ? न जाने क्यों श्रीमती . जुनेजा को छुट्टियों में मसूरी जाते समय उसका बिलकुल ख्याल नहीं आया | जरूरी है असहमतियों में सहमत होना                                     यह भी नहीं सोंचा बंद घर में कितनी तकलीफ होगी उसे | यूँ तो अकेलापन झेलने के लिए वो अभिशप्त है पर इतना दम घोंटू अकेलापन वो भी गर्मी के महीने में धूप में खड़े – खड़े | कितना रोया था , कितना चिल्लाया था वह | पर सुनता कौन |सब उसकी भाषा कहाँ समझ पाते हैं | तपती धूप  में सूरज जब उसकी रगों से जीवन की एक – एक बूँद खींच रहा था , तो कितनी देर तक वो पानी – पानी चिल्लाता रहा | पर सुनता कौन , कोई हो तो सुने न | प्यास के मारे कलेजा मुँह को आ रहा था | बस एक ही आस थी शायद दरवाजा खुल जाए और उसे भरपेट पानी पीने को मिले | पर भाग्य ने उसका साथ नहीं दिया और उसने  तडप – तड़प कर प्यासे ही दम तोड़ दिया | मृत्यु : शरीर नश्वर है पर विचार शाश्वत                                  श्रीमती जुनेजा जब घूम – घाम कर ढेर सारी  शॉपिंग कर के लौटी , तब तक उसके प्रान पखेरू उड़ चुके थे | घबराकर श्रीमती जुनेजा ने ढेर भर पानी से उसे जैसे नहला दिया , परन्तु उसमें पुन: प्राण  न फूंक सकीं | हां ! सूखी मृत देह से ये आवाज़ जरूर आ रही थी की जब आप लोग हमें रोपते हो , प्रेम से सींचते हो तो छुट्टियों पर जाते समय क्यों नहीं हमारी देखभाल की जिम्मेदारी पड़ोसियों पर छोड़ जाते हो | जिससे आप भी आराम से छुट्टियां मनाओ और हम भी तड़प – तड़प कर न मरें | “अपने पौधों का ख्याल रखिये ,  क्योंकि हर हत्या दिखाई नहीं देती |” वंदना बाजपेयी