सेंध

यूँ तो मंदिर में पूरे नवरात्रों में श्रद्धालुओं की भीड़ रहती है | पर अष्टमी , नवमी  को तो जैसे सैलाब सा उमड़ पड़ता है | हलुए पुडी  का प्रसाद  फिर कन्या भोज | मंदिर के प्रागड़ में ढेर सारी  कन्याएं रंग – बिरंगे कपडे सजी धजी सुबह से ही घूमना शुरू कर देती |इसमें से कई आस – पास के घरों में काम करने वालों की बच्चियाँ  होती | जिन्हें माँ के साथ काम पर जाने के स्थान पर एक दिन देवी बनने  का अवसर मिला था | इसे बचपना कहें या भाग्य के साथ समझौता की वो सब आज  अपने पहनावे और मान – सम्मान पर इतरा  रही थी ये जानते हुए भी की  कल से वही झूठे बर्तनों को रगड़ना है | ” प्रेजेंट ” में जीना कोई इनसे सीखे |                                         खैर !  बरस दर बरस श्रद्धालुओं की भीड़ मंदिर में बढती जा रही थी | और  कन्याओ की भी | हलुआ और पूड़ी तो ये देवियाँ  कितना खा  सकती थी | इसलिए थोडा सा चख कर सब एक जगह इकट्ठा हो जाता | जो शाम को सारी  झुग्गी बस्ती का  महा भोज  बनता | हाँ ! नकदी सब अपनी – अपनी संभाल  कर रखती  | शाम को महा भोज में किस को कितनी नकदी मिली इस पर चर्चा होती | जिसको सबसे ज्यादा मिलती वो अपने को किसी रानी से कम न समझती | नारी मन पर वंदना बाजपेयी की लघुकथाएं                                                                                                 तो आज भी सुबह से ही सजी – धजी कन्याएं मंदिर में इकट्ठी हो गयीं | श्रद्धालु आते और उस भीड़ में से मन पसंद ९ कन्याओं को  छांट  कर भोजन कराते | दक्षिणा देते | मजे की बात सब को छोटी से छोटी कन्या चाहिए | कन्या जितनी छोटी पुन्य उतना ज्यादा | आज  भी कन्याओं की भीड़ में सबसे ज्यादा तवज्जो उन दो कन्याओं को मिल रही  था जो मात्र ३ या चार साल की रही होंगी | दोनों लग भी तो बिकुल देवी सी रही थी | एक लाल घाघरा लाल चुन्नी ओढ़े थी व् दूसरी हरे घाघरे चुन्नी में थी | भरा चेहरा ,बड़ी – बड़ी आँखें और चहेरे पर  मासूमियत बढ़ाती बड़ी सी लाल बिंदी जो उनकी माताओ ने माथे पर लगा दी थी | दोपहर के दो बज रहे थे | दोनों अभी तक १५ बार तक देवी बन दक्षिणा ले चुकी थीं | उधर १० साल की सुरभि को तो किसी ने पूंछा तक नहीं | दो एक साल पहले तक उसकी भी कितनी पूँछ होती थी | अभी इतनी बड़ी तो नहीं हुई है वो | हां ! कद जरा लंबा  हो गया है | बाबा पर गया है | तो उससे क्या ? सुरभि निराश   हो चुकी थी | उसका बटुआ खाली था , और पेट भी | पर सबसे ज्यादा खालीपन उसके मन में था | वो भी एक अन्याय के कारण |जो वो बहुत देर से गुटक रही थी थी | कला                                             तभी   एक पति – पत्नी भीड़ की तरफ आते हुए दिखे | सभी के साथ सुरभि भी उठ खड़ी  हुई | उसे चुने जाने की आशा थी | पर उन्होंने भी सुरभि के स्थान पर उन दोनों बच्चियों को ही चुना | इस बार सुरभि से न रहा गया | और बोल ही पड़ी ,“अंकल जी वो लडकियाँ  नहीं लड़के हैं ” |परन्तु  मंदिर के इतने कोलाहल ,व्रत तोड़ने की जल्दबाजी या फटाफट पुन्य कमाने के लोभ  में किसी  ने सुना ही  नहीं | सुरभि मुँह लटका कर रह गयी |  मंदिर के प्रांगण में देवी की मूर्ति के ठीक सामने इन मासूम देवियों की कमाई पर देवताओं की सेंध लग चुकी थी |  यह भी पढ़ें …. काफी इंसानियत कलयुगी संतान बदचलन आपको    “सेंध “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  keywords-navratri, kanya pujan, women issues

जरूरी है असहमतियों से सहमत होना

कभी – कभी प्रेम उन बातों को नज़रंदाज़ करना भी है जो आपको पसंद नहीं हैं | दो लोगों के मध्य रिश्ता चाहें कोई भी क्यों न हो परन्तु वह रिश्ता बरक़रार तभी रहेगा जब वह असहमतियों से सहमत होना सीख जायेंगे | दो लोग बिलकुल एक जैसा नहीं सोंच सकते | यह भिन्नता ही नए – नए विचारों को जन्म देती है | नए विचार नयी संभावनाओं को | किसी भी मुद्दे पर जब हम अपनी कोई बात रखते हैं तो अवश्य हमें वही बात ठीक लग रही होती है | मनोवैज्ञानिकों की सुने तो जैसे ही हम किसी मुद्दे पर अपना कोई विचार बना लेते हैं तो हमें उस विचार से भावनात्मक लगाव हो जाता है | जिसको छोड़ना थोडा मुश्किल होता है | कुछ हद तक हमें लगने लगता है की जिनसे हम बात करें वो हमारे विचार मानें | खासकर की जो लोग हमारे करीब होते हैं कहीं न कहीं हम उनपर विचार थोपने लगते हैं | जैसे पति – पत्नी  पर व् माँ बच्चों पर | दोस्त आपस में एक दूसरे पर | कई बार ये इस हद तक हो जाता है की हम दूसरे को नीचा दिखने से भी बाज़  नहीं आते |  परन्तु दूसरे पर अपने विचार थोपना उसकी  स्वतंत्रता छीनने के जैसा है | स्वाभाविक है उस व्यक्ति से प्रेम करना मुश्किल है जो हमारा आकलन कर रहा हो | हम खुद चाहते हैं की लोग हमें पूर्ण रूप से स्वीकार करे पर दूसरों को नकारते हैं | प्रेम का अभाव , ये द्वंद ये कोलाहल तब तक चलता रहेगा जब तक हम असहमतियों से सहमत होना नहीं सीख जायेंगे | मैं हूँ , तुम हो …. इसीलिये तो हम हैं वंदना बाजपेयी 

मृत्यु – शरीर नश्वर है पर विचार शाश्वत

  मृत्यु जीवन से कहीं ज्यादा व्यापक है , क्योंकि हर किसी की मृत्यु होती है , पर हर कोई जीता नहीं है -जॉन मेसन                                             मृत्यु …एक ऐसे पहेली जिसका हल दूंढ निकालने में सारी  विज्ञान लगी हुई है , लिक्विड नाईटरोजन में शव रखे जा रहे हैं | मृत्यु … जिसका हल खोजने में सारा आध्यात्म लगा हुआ है | नचिकेता से ले कर आज तक आत्मा और परमात्मा का रहस्य खोजा जा रहा है | मृत्यु जिसका हल खोजने में सारा ज्योतिष लगा हुआ है | राहू – केतु , शनि मंगल  की गड्नायें  जारी हैं | फिर भी मृत्यु है | उससे भयभीत पर उससे बेखबर हम भी | युधिष्ठर के उत्तर से यक्ष भले ही संतुष्ट हो गए हों | पर हम आज भी उसी भ्रम में हैं | हम शव यात्राओ में जाते है | माटी बनी देह की अंतिम क्रिया में भाग लेते हैं | मृतक के परिवार जनों को सांत्वना देते हैं | थोडा भयभीत थोडा घबराए हुए अपने घर लौट कर इस भ्रम के साथ अपने घर के दरवाजे बंद कर लेते हैं की मेरे घर में ये कभी नहीं होगा |                                      विडम्बना है की हम मृत्यु को  स्वीकारते हुए भी नकारते हैं | मृत्यु पर एक बोधि कथा है | कहते हैं एक बार एक स्त्री के युवा पुत्र की मृत्यु हो गयी | वो इसे स्वीकार नहीं कर पा रही थी | उसी समय महत्मा बुद्ध उस शहर  में आये | लोगों ने उस स्त्री से कहा की मातम बुद्ध बहुत बड़े योगी हैं | वो बड़े – बड़े चमत्कार कर सकते हैं | तुम उनसे अपने पुत्र को पुन : जीवित करने की प्रार्थना करो | अगर कुछ कर सकते हैं तो वो ही कर सकते हैं | वह स्त्री तुरंत अपने पुत्र का शव लेकर महात्मा बुद्ध के दरबार में पहुंची और उनसे अपने पुत्र को पुनर्जीवित करने की फ़रियाद करने लगी | | महात्मा बुद्ध असमंजस में पड़ गए | वो एक माँ की पीड़ा को समझते हुए उसे निराश नहीं करना चाहते थे | थोड़ी देर सोंचने के उपरान्त वो बोले की ,” मैं मंत्र पढ़ के तुम्हारे पुत्र को पुनर्जीवित कर देता हूँ | बस तुम्हें किसी ऐसे घर से चूल्हे की राख लानी पड़ेगी | जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो | आँसू पोछ कर वो स्त्री शहर की तरफ गयी | उसने हर द्वार खटखटाया | परन्तु उसे कहीं कोई ऐसा घर नहीं मिला जहाँ कभी किसी की मृत्यु न हुई हो | निराश ,हताश हो कर वो वापस महात्मा बुद्ध के पास लौट आई | उनके चरणों में गिर कर बोली ,” प्रभु मुझे समझ आ गया है की मृत्यु अवश्यसंभावी है , मैं ही पुत्र मोह में उसे नकार बैठी थी |                          जीवन के इस पार से उस पार गए पथिक पता नहीं वहाँ  से हमें देख पाते हैं की नहीं | अगर देख पाते तो जानते की इस पार छूटे हुए परिवार के सदस्यों , मित्रों हितैषियों का जीवन भी  उस मुकाम पर रुक जाता है | मानसिक रूप से उस पार विचरण करने वाले  परिजनों के लिए न जाने कितने दिनों तक कलैंडर की तारीखे बेमानी हो जाती हैं , घडी की सुइयां बेमानी हो जाती हैं , सोना जागना बेमानी हो जाता है | क्योंकि वो भी थोडा सा मर चुके होते हैं | अंदर ही अंदर मन के किसी कोने में , जहाँ ये अहसास गहरा होता है की जीवन अब कभी भी पहले जैसा नहीं होगा | यहाँ तक की वो खुद भी पहले जैसे नहीं रहेंगे | जहाँ उन्हें फिर से चलना सीखना होगा ,  संभलना सीखना होगा , यहाँ तक की जीना सीखना होगा |ऐसे समय में कोई संबल बनता है तो उस व्यक्ति के द्वारा कही गयी बातें | उसके विचार | जैसे – जैसे हम वेदना  का पर्दा हटा कर उस व्यक्ति का जीवन खंगालते हैं तो समझ में आती हैं उसके द्वारा कही गयी बातें उसका जीवन दर्शन | कितने लोग कहते हैं की मेरे पिता जी / माता जी अदि – आदि ऐसे कहा करते थे | अब उनके जाने के बाद मुझे ये मर्म समझ में आया है | अब मैं भी यही करूँगा / करुँगी | विचारों के माध्यम से व्यक्ति कहीं न कहीं जीवित रहता है |                                     व्यक्ति का दायरा जितना बड़ा होता है | उसके विचार जितने सर्वग्राही या व्यापक दृष्टिकोण वाले होते हैं | उसके विचारों को ग्रहण करने वाले उतने ही लोग होते हैं |  हम सब को दिशा दिखाने वाली भगवत भी प्रभु श्री कृष्ण के श्रीमुख से व्यक्त किये गए विचार ही थे | परन्तु उससे युगों – युगों तक समाज का भला होने वाला था इसलिए उसे लिखने की तैयारी पहले ही कर ली गयी थी | कबीर दास ने तो ‘मसि कागद छुओ नहीं ‘कलम गहि नहीं हाथ ” परन्तु उनके विचार इतने महान थे की की उनके शिष्यों ने  उनका संकलन किया | जिससे हम आज भी लाभान्वित हो रहे है | पुनर्जन्म है की नहीं इस पर विवाद हो सकता है | परन्तु स्वामी विवेकानंद  के अनुसार  पॉजिटिव एनर्जी और नेगेटिव एनर्जी के दो बादल होते हैं | हम जैसे विचार रखते हैं | जैसे काम करते हैं | अंत में उन्ही बादलों के द्वारा हमारी आत्मा को खींच लिया जाता है | वही हमारे अगले जन्म को भी निर्धारित करता है |                                   विज्ञानं द्वारा भी सिद्ध हो गया है की विचार उर्जा का ही दूसरा रूप है | और उर्जा कभी नष्ट नहीं होती | चूँकि विचार शास्वत है और शरीर नश्वर ,इसलिए हमें अपने शरीर को स्वस्थ रखने … Read more

देश पी. एल . वी ( पुरुस्कार लौटाओ वायरस )की चपेट में

सर्दी का मौसम दस्तक दे चूका है पर अभी भी देश का राजनैतिक तापमान बहुत गर्म है | हमारे विशेष संवाददाता के अनुसार ये जो पुरूस्कार लौटाने का नया चलन चला है | उसने सबको अपनी चपेट में ले लिया है | रोज़ -रोज़ पुरूस्कार लौटाने की ख़बरों से देश के अलग -अलग वर्गों के लोगों पर क्या असर पड़ा है | यह देखने के लिए राष्ट्रीय दैनिक समाचार पात्र “सच का हौसला” की टीम ने देश के हर उम्र , वर्ग के लोगों से बातचीत की | नतीजे चौकाने वाले हैं | आइये आप को भी इस अभूतपूर्व सर्वे की जानकारी दे दे | सबसे पहले सच का हौसला की टीम बच्चों के स्कूल में गयी | अधिकतर छोटे बच्चे रोते नज़र आये | बच्चों को टॉफ़ी चोकलेट से बहला कर पूंछा तो बच्चे बोले , ” आंटी ये पुरूस्कार लौटने वाले लोग अच्छे नहीं हैं | क्यों के उत्तर में बच्चे सुबकते हुए बोले ,” पहले तो हमें केवल उन्ही लोगों के नाम याद करने पड़ते थे जिन्हें पुरूस्कार मिला था अब उनके भी रटने पड़ेंगे जिन्होंने लौटाए | जब सच का हौसला की टीम ब्यूटी कांटेस्ट के दफ्तर गयी तो पता चला , फमिना मिस इंडिया की टीम यह प्रयास कर रही हैं की सुंदरियाँ पुरूस्कार लेने के अगले दिन पुरूस्कार लौटाए | इससे प्रतियोगिता को दो बार कॉवेरेज मिलेगा | साथ ही विजेताओ के नए कॉस्टयूम व् मेक अप में दुबारा स्टेज पर आने से फैशन ओर ब्यूटी इंडस्ट्री को लाखों का फायदा होगा | कानपुर में आई . आई .टी की कोचिंग कराने वाले देशमुख सर एक नया कोचिंग इंस्टीट्युट खोल रहे हैं ” पुरूस्कार लौटाने की तैयारी कैसे करे “इसमें आपके पुरूस्कार लौटाते समय के भाषण, उठने , बैठने बोलने के तरीके व् ज्यादा देर तक मीडिया में छाए रहने तरीके सिखाये जायेंगे | उनके अनुसार इस बिजनिस में ज्यादा फायदा है | आई . आई . टी में आने वाला बंदा तो चार साल बाद हीरो बनता है | यहाँ तो पुरुस्कार लौटाने की घोषणा करने वाला भी अगले पल शाहरुख़ खान के समकक्ष नज़र आता है | प्रसिद्ध फैशन डिजाइनर रितेश कुमार जी ऐसे कपडे डिजाइन कर रहें हैं जिसमें पुरूस्कार कच्चे धागे से टंके होंगे | सुदर बालाओं के रैंप पर चलते ही ये कपडे फटेंगे और पुरूस्कार चट -चट कर गिरेंगे | अपने नए कलेक्शन की लौन्चिंग से काफी उत्साहित रितेश जी के अनुसार उन्होंने पूरी थीम तैयार कर ली है | वार्डरोप मेलफंकशनिंग के स्थान पर पुरूस्कार मेलफंकशनिंग के नाम से उनका यह शो खासा लोकप्रिय होगा | आम जनता में खासा उत्साह है | लोग अपने पुराने से पुराने पुरूस्कार ढूंढ रहे हैं | जिससे वो भी उसे लौटा कर बहती गंगा में हाथ धो ले | पुरूस्कार लौटाया , पुरूस्कार लौटाया के शोर के बीच में कौन पूंछता है कौन सा लौटाया | पेज ३ , ४ ,५ ,६ में शामिल होनेका इससे बढ़िया अवसर नहीं मिलेगा | सबसे खतरनाक रहा स्वास्थ्य विभाग का सर्वे | स्वास्थ्य विभाग के अनुसार देश में एक नया वायरल इन्फेक्शन फैला है | इसके वायरस का नाम है पी . एल . वी . ( पुरूस्कार लौटाओ वायरस ) जो डेंगू से भी ज्यादा खतरनाक है | डेंगू पीड़ित व्यक्ति को तो प्लेटलेट्स चढाने पर बचाया जा सकता है पर पी एल . वी का शिकार व्यक्ति न केवल कई दिनों तक स्वयं मीडिया के सामने चिल्लाता है बल्कि उसके चिल्ल्लाने से कई और लोग चिल्लाने लगते हैं | इसमें व्यक्ति की आँखे लाल और जुबान तेज हो जाती है | यह बहुत ही संक्रामक है और तेजी से दूसरों को गिरफ्त में लेता है | यहाँ तक की जो गिरफ्त में नहीं आते उनके भी दिल और दिमाग को प्रभावित करता है | विभिन्न टी . वी चैनलों द्वरा जगह – जगह माइक व् टी . वी कैमरे लिए पत्रकार तैनात मिल जायेंगे | जो आम लोगों को रोकते हैं और पूंछते हैं ” अगर आप को पुरूस्कार मिला होता तो आप क्या करते , लौटाते या नहीं | थोड़ी देर के कलिए ही सही पर आम आदमी को ख़ास होने का अहसास होता है | हमारे सर्वे के मुताबिक़ आजकल आम लोग सड़कों पर बहुत खास कपडे पहन कर चल रहे हैं | क्या पता कब कोई पत्रकार टकरा जाए कब टी .वी पर आ जाए | अंत में सच का हौसला टीम चौराहे पर बस की प्रतीक्षा कर रही थी तभी वहां पर एक भिखारी भीख मांग रहा था ” जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला ” जब टीम ने उसे १० का नोट दिया तो बोला , ” पुरूस्कार , नहीं है कोई देने को | जब सच का हौसला टीम ने पूंछा , ” श्रीमान भिखारी जी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं | तो उसने कहा , बाबूजी मोटी बुद्धि की बात है , १० रुपये की कीमत तो १० रुपये ही रहेगी पर जिन्होंने भी ( सबने नहीं ) छोटा या बड़ा कोई भी पुरूस्कार जुगाड़ और चरण वंदना से प्राप्त किया है , और देखा देखि में खामखाँ हीरो बनने के लिए लौटा रहे हैं | वो जब देखेंगे की उनको कोई तवज्जों नहीं दी जा रही है तो चौगुने दामों में हम से खरीदेंगे | जो नहीं खरीदेंगे तो भी कोई बात नहीं हम ही ये सोच कर खुश हो लेंगे की एस जन्म में इक्षा या अनिक्षा से एक पुरूस्कार तो हमारे पास भी आ गया | तभी तो जो दे उसका भी भला , जो न दे उसका भी भला | खैर सबकी अपनी -अपनी सोंच अपनी अपनी समझ | हमारी बस आ गयी | हमारा सर्वे पूरा हो चुका था | अगर आप भी इस सर्वे में शामिल होना चाहते हैं तो आप का स्वागत है | हमारा पता है ……. sachkahausla@gmail.com या editor.atootbandhan@gmail.com | अपने विचार भेजिए और इस सर्वे को महा सर्वे बनाइये | व्यंग : वंदना बाजपेयी कार्यकारी संपादक -अटूट बंधन ग्रुप

क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ?

तीन तलाक पर आधारित कहानी  उफ़ ! क्या दिन थे वो | जब बनी थी तुम्हारी शरीके हयात | तुम्हारे जीवन में भरने को रंग सुर्ख जोड़े में किया था तुम्हारे घर में प्रवेश , जीवन भर साथ निभाने के वादे के साथ | पूरे परिवार के बीच बैठे हुए जब – जब टकरा जाती थी तुमसे नज़र तो मारे हया के मेरे लिबास से भी ज्यादा सुर्ख लाल हो जाते थे मेरे गाल …… और बन जाता हमारे बीच एक अनदेखा सा सेतु | जिसमें बहता था हमारा प्रेम निशब्द और मौन सा | पर सब के बीच बात करे तो कैसे ? फिर नौकरी की जद्दोजहद में तुम्हारा घर से दूर जाना | बात होती भी तो कैसे | मैं यहाँ तडपती और तुम वहां | समाधान तुम्ही ने निकाला था | | जब मेरे जन्मदिन पर तोहफे के रूप में मेरी हथेली पर रख दिया था तुमने एक मोबाइल और मुस्कुरा कर कहा था | अब बस हमेशा मैं तुमसे एक घंटी की दूरी पर रहूँगा | सही कहा था तुमने जब भी घंटी बजती | बज उठते थे दो दिल | बज उठते थे जज्बातों के हजारों सितार |बज उठता था हमारे तुम्हारे बीच का प्रेम | होती थी घंटों बातें | इसी फोन पर तो दी थी मैंने तुम्हे अपनी प्रेगनेंसी की पहली खबर | बच्चों से खुश हो गए थे तुम | कैसे टोंका था मैंने ,” अब बाप बनने वाले हो , बच्चों सी हरकते बंद करो |इसी फोन पर तो दी थी तुमने मुझे अपने प्रमोशन की खबर | तुमसे कहीं ज्यादा खुश हुई थी मैं | जब अब्बा का इंतकाल हुआ था और तुम ऑफिस में थे, मैं तुमको इत्तला देना चाहती थी , पर शब्द साथ नहीं दे रहे थे | आंसुओं में शब्द जैसे बहे जा रहे थे | तुमने महसूस किया था मुझसे ज्यादा मेरी पीड़ा को | तभी तो रखा नहीं था फोन | ऑफिस से घर आते हुए ड्राइव करते हुए भी लगातार बोले जा रहे थे | खौफ था तुम्हे ,कहीं तुम्हारे आने से पहले टूट कर बिखर न जाऊं मैं | एक आदत सी हो गयी थी इस फोन की | लगता था तुम सदा हो मुझसे एक घंटी की दूरी पर | समय का दरिया बहता गया | साथ में बहती गयी हमारे -तुम्हारे बीच की गर्मजोशियाँ | मैं घर और बच्चों में व्यस्त होती गयी और तुम ऑफिस में | घर पर जो लम्हे मिलते वो तमाम गलतफहमियों से उपजे तनाव की भेंट चढ़ जाते | बड़ा भयानक दौर रहा हमारे बीच , लड़ाई – झगड़ों तोहमतों का | न तुम झुकते न मैं | कुछ तुम टूटते कुछ मैं | जुड़ा था तो बस रिश्ता , कुछ टूटा – टूटा सा कुछ जुड़ा – जुड़ा सा | ऑफिस से फोन अब भी आते पर घंटों की बातें मिनटों में सिमटने लगीं | क्या लाना है , और जरूरी कामों तक सिमट कर रह गया हमारा संवाद | फिर भी तार तो जुड़े थे | और एक घंटी पर घनघना उठते थे दो दिल | हालाँकि कुछ जुदा तरीके से , कुछ जुदा चाल से | पर ये अहसास तो था की एक दिन मिल बैठकर सुलझा लेंगे अपने और तुम्हारे बीच की सारी गलतफहमियाँ | या फिर कभी तुम पहले की तरह फोन पर पढ़ डोगे कोई रूमानी सा शेर और मैं फिर हो जाउंगी लाज से दोहरी …….. और बज़ उठेगी एक घंटी हमारे तुम्हारे दरमियान | फेसबुक पेज नारी संवेदना के स्वर पर कुछ दिनों से तुम कुछ बोल ही नहीं रहे थे | जाने क्या चल रहा था तुम्हारे मन में | मैं लाख कोशिशे कर रही थी | चाहे झगडा ही करो पर कुछ बोलो तो ? ये दम घोटू चुप्पी मेरी जान ले रही थी |मैं अहिस्ता – आहिस्ता मर रही थी | पर एक उम्मीद थी की हो न हो एक दिन सब कुछ पहले जैसा हो जाएगा | और आज जब तुम्हारा कई दिन बाद फोन आया तो बज़ उठे मेरे दिल के तार | कितने ख्वाब  पाल लिए मैंने हेलो कहने से पहले | पर रूह पिघल गयी मेरी जब तुमने तलाक, तलाक, तलाक के तीन पत्थर मार दिए और हमारे रिश्ते को कुछ कहे सुने बिना इस तरह खत्म कर दिया | काश एक बार तुम सामने बैठ कर बात कर लेते | काश मेरा नज़रिया जानने की कोशिश करते , काश ! अपने मन में चलती इस गुथम गुत्था का हल्का भी ईशारा मुझे करते , तो शायद … | एक झटके ख़त्म हो गये हमारे बीच के वो खट्टे – मीठे पल , वो अच्छी बुरी यादें और वो फोन की घंटी भी जो हमारे दिलों को एक किया करती थी | आंसुओं के सैलाब के बीच में डूब जाता है ये प्रश्न की मेरी जिन्दगी से जुड़े इस फैसले में ,” क्या मेरी रजा की जरूरत नहीं थी ? ” वंदना बाजपेयी                             यह भी पढ़ें … तीन तलाक : औरतों और तरक्की पसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना होगा महिला दिवस और नारी मन की व्यथा किट्टी पार्टी

फंदे – फंदे बुनती है प्यार

गर्मी का दरवाज़ा बंद होते ही आसमान के झरोखे से उतर आई है गुलाबी सर्दी | जिसके आते ही पुराने दीवान कुलबुलाने लगे | फिर से निकल आये स्वेटर , कम्बल और रजाइयां और साथ ही साथ पिछले साल संभाल कर रखी गयी सलाइयाँ |खरीद कर आ गई नयी ऊन | फिर से पड़ गए फंदे कुछ उलटे कुछ सीधे , मिलाये जाने लगे रंग , कुछ चटख कुछ शांत , चंचल हो उठी मौन अंगुलियाँ , सरपट दौड़ती लगी किसी संगतराश की तरह , ढालने लगी आकार आकार , पत्थर से नहीं मुलायम धागों से ……… और बुने जाने लगे स्वेटर | अटूट बंधन स्वेटर और स्त्री का बहुत अनोखा रिश्ता है |सलाइयाँ उलटे – सीधे फंदे और ढेर सारे रंग | जिनमें चुनती है अपने मन का रंग | शायद अपने भावों को अभिव्यक्त करने के लिए | तभी तो ६ साल की पिंकी जो अभी ठीक से दो का पहाड़ा भी पढना नहीं सीख पायी है , माँ के बगल में बैठ कर स्वेटर सीखने की जिद्द करती है | नन्हीं कलाई को सलाई भारी लगती है | फिर भी उलटे सीधे फंदे चलाने ही हैं | बुनना है गुडिय के लिए स्वेटर | अरे जब सब सर्दी में स्वेटर पहनेगे तो क्या उसकी गुड़ियाँ सूती कपड़ों में जाड़े में ठिठुरेगी | ये उसकी चिंता – फिकर है या स्नेह दिखाने का तरीका | पता नहीं | उसे तो बस इतना पता है की रूपा , डौली , सुधा सब की गुड़ियां स्वेअतर पहनेंगी | फिर मेरी ही क्यों न पहने | उसे सीखना है तो सीखना है | बुनना है तो बुनना है …. बस | समय पंख लगा कर उड़ता है | पिंकी किशोरी बनती है फिर युवा और फिर वृद्ध हो जाती है | न जाने कब उसकी गुडिया की जगह छोटा भाई , पिता , पति , बेटा व् पोता ले लेता है पता ही नहीं चलता | बहुत कुछ बदल जाता है , नहीं बदलते हैं तो बस ऊन के धागे सलाइयाँ , फंदे कुछ उलटे कुछ सीधे |जो सर्दी आते ही अपनी पैठ बना ही लेते हैं | जिनमें उलझ – उलझ कर बहुत कुछ सुलझा देता है नारी मन | कभी सोंचा है कैसे ? नारी संवेदना के स्वर आज बाज़ार में एक से एक ब्रांडेड स्वेटर मिल जाते हैं , औरतें भी घर बाहर संभाल रही हैं | जिसके कारण हमेशा समय की कमी पड़ी रहती है | फिर भी सर्दियाँ आते ही न जाने क्यों पड़ ही जाते हैं फंदे | कभी गुड्डू के पापा के लिए हाफ स्वेटर , कभी पिताजी के लिए मफलर और समय कम हुआ तो छोटू के दस्ताने ही सही | कहाँ से निकालती हैं इसके लिए समय और क्यों ? इस क्यों पर ही आज राह चलते ठिठक गयी थी मैं | ये क्यों ही तो पूंछा था एक बच्चे ने स्वेटर बिनती हुई अपनी माँ से | मासूम से शब्द झंकृत हो उठे थे | जब उसने माँ के गले में बाँहें डाल कर कहा था ” मम्मा ,आप इतना थक जाती हो , फिर स्वेटर क्यों बुनती हो ? बाज़ार से खरीद लेते हैं | बदले में बिना कुछ बोले मुस्कुरा उठी थी उसकी माँ | सच का हौसला फेस् बुक पेज  बताती भी तो क्या बच्चा समझ पाता | ये तो बस औरतें ही जानती हैं की औरतें स्वेटर नहीं बुनती | बुनती हैं दुआएं , बुनती हैं आशीर्वाद , बुनती हैं ढेर सारा स्नेह | जिनकी गर्माहट से भर जाता है सारा घर | भला बाज़ार के स्वेटर इनका क्या मुकाबला करेंगे |और देखों न के बोड पर थिरकती मेरी अंगुलियाँ भी बेचैन हो उठी ……….. बुनने को कुछ स्नेह , कुछ गर्माहट |

आखिर क्यों छुपाती है महिलायें पैसे

मोदी सरकार द्वारा बड़े नोटों को बंद करने के फैसले के बाद लोग अपने घर में रखे ५०० व् हज़ार के नोटों को गिनने में लग गए | हर व्यक्ति की कोशिश यह थी की इन नोटों को एक जगह इकट्ठा करके या तो बदला जाए या बैंक में जमा किया जाए | इसी खोजबीन में घर की महिलाओ द्वारा साड़ी की तहों में , चूड़ी के डिब्बों में , रसोई की दराजों में रखे गए नोट भी घर के पुरुषों को सौंपे गए | बस घरों में उन् नोटों का मिलना था की घर के पुरुषों ने उसे मजाकिया लहजे में काला धन करार दे दिया | सोशल मीडिया पर भी हास – परिहास के किस्से आते रहे | तमाम कार्टून अपने तथाकथित रूप से घर की महिलाओं द्वारा छुपाये गए काला धन के निकल जाने पर बनाए जाते रहे | महिलाओ ने भी अपने ऊपर बने इन व्यंगों को खुल कर शेयर किया | परन्तु अगर एक स्त्री के नज़रिए से देखूँ तो इस तरह महिलाओं द्वारा आपदा प्रबंधन के लिए जमा की गयी राशि को काला धन करार देना सर्वथा गलत है | आखिर क्यों छुपाती है महिलायें पैसे  महिलाएं , सब्जी – भाजी , रिक्शा आदि के खर्चों में कटौती कर के बड़ी म्हणत से ये पैसे बचाती हैं | जिसे वे पति से चुरा कर नहीं छुपाकर रखती हैं | वह इन पैसों का इस्तेमाल बहुधा आपदा प्रबंधन के लिए करती हैं | ताकि वक्त बेवक्त जरूरत पड़ने पर बैंक ना भागना पड़े | हालांकि क्रेडिट , डेबिट कार्ड की सुविधा हो जाने पर , व् महिलाओ द्वारा आर्थिक रूप से स्वतंत्र हो जाने पर इस छुपाये हुए धन की मात्रा महिलाओं में घटी है | परन्तु फिर भी महिलाएं कुछ धन छुपा कर रखती हैं |मोदी ने भी अपने एक भाषण में खुल कर स्वीकार किया है की हमारी माताएं या बहने घर खर्च से कुछ पैसे बचा कर रखती हैं |पति – पत्नी का रिश्ता पारदर्शिता व् विश्वास का होता है | फिर भी वो पति से बचा कर पैसे छुपाती हैं | सवाल ये है की आखिर वो ऐसा क्यों करती हैं ? आपदा प्रबंधन के लिए  छोटे शहरों या गांवों में जहाँ बैंक से पैसे निकालना इतना आसान नहीं होता वहां महिलाएं कुछ धन इसलिए संभाल कर रखती हैं की कभी किसी बिमारी- तकलीफ के आने पर तुरंत पैसों का इंतजाम हो सके व् पड़ोसियों के आगे हाथ न फैलाने पड़ें |या अचानक किसी अतिथि के आने पर उसके सत्कार में पैसे कम न पड़े |ज्यादातर ये पैसा पति की जानकारी में होता है और दोनों उसे मिल कर एक निश्चित स्थान पर रखते हैं | कुछ अपना पैसा होने का भाव  हमारे देश में अधिकतर महिलाओं को घर से बाहर जाने की स्वतंत्रता नहीं है | अक्सर पति महिलाओं की छोटी – छोटी मांगों को फिजूलखर्ची करार दे देते हैं | जब बच्चे कोइचीज की जिद करते हैं तो भी सदा पिता की राय के अनुसार ही पैसे खर्च होते हैं |ऐसे में अपनी हर छोटी बड़ी आवश्यकता के लिए पति के आगे हाथ फैलाना महिलाओ को आहात करता है | एक बराबरी के रिश्ते में आर्थिक मामलों में उनकी राय की अनदेखी उनके स्वाभिमान को आहत करती है | इसलिए वो कुछ धन उस इक्षा पूर्ति के लिए छुपा कर रखती हैं | पर यह पति से चुराया धन नहीं होता | इसके लिए वो सब्जी बाजी के लिए घंटों मोल – भाव करती हैं , रिक्शे के पैसे बचा कर मीलों पैदल चलती हैं | या साडी आदि के लिए मायके से दिए गए पैसों को कभी किसी अन्य इक्षा की पूर्ति के लिए संजो कर रख लेती हैं |जब वो इस धन को खर्च करती हैं तो उन्हें अपने कमाए पैसों जैसा भाव उत्पन्न होता है | शराबी या खर्चीले पति से बचाने के लिए  यह तरह की बचत निम्न वर्ग या निमंमध्यम वर्गीय महिलाएं करती हैं | अक्सर हमारे घरों में आने वाली कामवालियां अपनी तन्खवाह के कुछ पैसे अपनी मालकिनों के घर में रखवा कर जमा करती हैं | इनमें से ज्यादातर के पति शराबी होते हैं |वो घर के अन्दर महिलाओं द्वारा आपदा प्रबंधन के लिए छुपाये गए धन को ढूंढ लेते हैं | महिलाओं द्वारा रोकने पर वे उनकी बेरहमी से पिटाई करते हैं व् उस पैसे की शराब पी जाते हैं | ये महिलाएं इतनी पढ़ी -लिखी नहीं होती की बैंक जा सके | इसलिए ये अपने परिश्रम की कीमत घर में कम बता कर मालिकों से धन को मालकिनों के यहाँ छुपा कर रखती हैं | जिनके पति बिल्कुल आर्थिक आज़ादी नहीं देते  इस वर्ग में वो महिलाएं आती हैं जिनके पति सुई से ले कर सुग्गे तक खुद खरीद कर लाते हैं | उन्ह्रें बाज़ार जाने या खुद खरीद कर कुछ लाने की अनुमति नहीं होती | ये महिलाएं घरों में कैद केवल घरेलु काम – काज में व्यस्त रहती हैं | परन्तु कभी चीते – मोटे खर्चे करने या मायके में जाने पर अपनी ससुराल की इज्ज़त के लिए वो धन जो उन्हें उपहार आदि में प्राप्त होता है छुपा कर रखती हैं | महिलाओ द्वारा धन छुपा कर रखने के जो भी कारण हो उसे काले धन की संज्ञा देना गलत है | पहले तोयह धन बहुत कम होता है | दूसरे क्योंकि ये धन पति की तन्खवाह का ही हिस्सा होता है उस पर टैक्स देना पति का काम है |जिन घरों में लाखों लाख रुपये मिल रहे हैं वो महिलाओं द्वारा नहीं उनके पतियों द्वारा छुपाया गया काला धन है | जिसका पता कई बार घर की महिलाओं को भी नहीं होता |सौ बातों की एक बात , हर बात की तरह इस बात में भी महिलाओं के ऊपर चुटकुले बना कर हंसना केवल पुरुषों का महिलाओ से खुद को बेहतर साबित करने का प्रयास भर है | इसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं | वंदना बाजपेयी 

तीन तलाक – औरतों और तक्की पसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना होगा

तीन तलाक एक ऐसा मुद्दा जिस पर आजकल बहुत कुछ बोला जा रहा है , लिखा जा रहा है और जब मैंने इस पर कलम उठाने की कोशिश की तब मेरे जेहन में न कोई धर्म था , न सम्प्रदाय अगर थी तो सिर्फ और सिर्फ औरतें | उनमें कुछ वो भी थी , जो लोगों के लिए अखबार की खबर थी पर मैं उन्हें करीब से जानती थी | जानती थी उनके आंसूं उनका दर्द और तलाक के बाद की उनकी तकलीफें |वास्तव में तलाक , तलाक , तलाक …. तीन शब्द नहीं तीन खंजर हैं जो एक रिश्ते एक पल में क़त्ल कर देते हैं |यह सच है की तलाक एक बहुत जरूरी और लोकतान्त्रिक अधिकार है जो किसी नाकाम रिश्ते पर उम्र भर आंसूं बहाने से ज्यादा बेहतर है | जहाँ दोनों को आगे अपनी जिंदगी संवारने का बराबर हक़ दिया जाता है |पर अगर ये अधिकार एक तरफ़ा हो जाए तो ?आज विभिन्न समुदायों में तरक्की होने के साथ ही लैंगिक समानता की बातें बढ़ी हैं | समुदाय कोई भी हो महिलाओं को सम्मान के साथ जीने का अधिकार है | तीन तलाक का मुद्दा गर्माते ही ऐसे लेखों की भरमार हो गयी , की इस मामले में धर्म क्या कहता है | और मुझे इसे मानने में कोई गुरेज नहीं की इस्लाम धर्म ने औरतों को बराबर का हक़ दिया है | और तीन तलाक तीन मिनट मिनट की नहीं ९० दिन की प्रक्रिया है ,की इद्दत और रजू बहुत ही लोकतान्त्रिक प्रक्रियाएं हैं , की हलाला का स्वरुप वैसा नहीं है जैसा की समझा जाता है या फिल्म ” निकाह ” में दिखाया गया है |क्योंकि मुद्दा ये नहीं है की जो ” पवित्र कुरआन ” में जो लिखा गया था वो कितना सही था | मुद्दा ये है की उस सही में कितनी कुरीतियाँ व्याप्त हो गयी हैं |क्या उसका वैसे ही पालन होता है जैसा की लिखा है ? क्या वास्तव में जब कोई शौहर तलाक तलाक तलाक कह कर किसी रिश्ते को खत्म करता है तो महिला के हित सुरक्षित रह पातें हैं ? क्या हलाला के कारण कई महिलाओं का जबरदस्ती दुबारा निकाह नहीं कराया जाता |ये बहुत सारे क्या इस बात के गवाह हैं की तलाक के हक़ को तोड़ मरोड़ कर पुरुषों ने अपने पक्ष में कर लिया है | मुद्दा किसी धर्म का नहीं स्त्री – पुरुष का है | धर्म कोई भी हो पुरुष उसे अपने हिसाब से परिभाषित कर के अपने हक़ में कर लेता हैं और औरतों के सारे अधिकार हाशिये पर धकेल दिए जाते हैं | अगर हिन्दू समुदाय को ही लें तो सती प्रथा और बाल विवाह जैसे अनेक कुप्रथाएं रही हैं | दहेज़ प्रथा और किसी विधवा स्त्री के जीवन में पुन : रंग भरने के लिए आज भी स्त्रियाँ संघर्ष कर रही हैं |मैंने इस विषय पर एक कहानी चूड़ियाँ लिखी थी जो विधवा स्त्री के श्रृंगार की वकालत करती है | जहाँ बात कानून से इतर सामाजिक सुधारों की हैं | क्योंकि कानून अगर बन भी जाए पर अगर समाज द्वारा स्वीकृत न हों तो उनकी धज्जियां उड़ जाती हैं | जरूरत है समाज के अन्दर चेतना आने की | अपने अधिकार को समझने की | और उसे पाने के लिए संघर्ष करने की | धर्म या सम्प्रदाय कोई भी हो हमारी पितृ सत्तात्मक सोंच महिलाओं को प्लेट में सजा कर उनके अधिकार नहीं देने वाली | इसके लिए महिलाओं को संघर्ष करना ही होगा | जैसा की भारतीय मुसलिम महिला आयोग ने कहा है की 88 फीसद मुसलिम महिलाएं भी इस फैसले के पक्ष में हैं। तो संघर्ष उन्हें ही करना होगा | उनकी आवाज़ दबाने के लिए आॅल इंडिया मुसलिम पर्सनल बोर्ड और अन्य संगठनों का कहना है कि सरकार को मजहबी रवायतों का अदब करते हुए, दखलंदाजी नहीं करनी चाहिए। यानी जैसा है वैसा ही चलता रहे | पर्सनल लॉ बोर्ड जैसे संस्थान दावा करते हैं कि वे पूरे देश के मुसलिमों की अगुआई करते हैं।पर क्या ये सच है ? वो इसे धर्म का मुद्दा बना कर फिर से हथियार पुरुषों के हाथ में सौंपना चाहते हैं |कम – पढ़ी – लिखी महिलाओं को भी फुसलाने की कोशिश की जा रही है | लेकिन फिर भी सवाल उठ रहा है की जब पाकिस्तान, तुर्की, इजिप्ट, बांग्लादेश जैसे कई देशों ने तीन तलाक को खारिज किया है, तो हिंदुस्तान में क्यों नहीं?इस मुद्दे को धर्मिक या सम्प्रदायिक रंग देने के पीछे धर्म गुरुओं और पित्रसत्तात्मक सोंच के चाहे जो भी हित छुपे हों समता समानता की लड़ाई में मुस्लिम समाज की औरतों व् तरक्कीपसंद पुरुषों को स्वयं आगे आना चाहिए | और औरतों के खिलाफ हथियार के रूप में प्रयोग होने वाली इस कुप्रथा का विरोध करना चाहिए |तभी इस मुद्दे को सांप्रदायिक रंग देने से बचा जा सकता है | और समाज सम्मत वास्तविक सुधार भी तभी होंगे |

जिस देश में औरत की ना को हाँ समझना सिखाया जाता हो वहां “पिंक ” रेड सिग्नल में कैसे बदलेगी ” सहगल बाबू “

पिंक फिल्म देकहते हुए जैसे मेरी समाधी लग गयी थी | एक एक दृश्य प्रभाव् में डूबते उतराते हुए फिल्म का आखिरी डायलाग” ना का मतलब ना होता है, ना अपने आप में पूरा वाक्य है, जिसे किसी तरह के तर्क, स्‍पष्टीकरण या व्याख्या की ज़रूरत नहीं होती, न मतलब स़िर्फ न होता है।” दिल पर एक गहरी चाप छोड़ गया | कितनी सच्चाई , कितनी इमानदारी और कितनी दमदार आवाज़ में अमिताभ बच्चन ने यह बात कह दी | हाल से बाहर निकलते समय फिल्म का एक हैंगोवर सा हो गया | शायद बाहर निकलती हुई हर औरत को हुआ होगा तभी तो सब सर ऊँचा कर के चल रहीं थी | जैसे सहगल सर ने कोर्ट में उन्हें भी ना कहने का अधिकार दिला दिया हो | एक ऐसा अधिकार जो भारतीय नारी के लिए दिवा स्वप्न ही है | तभी तो जब किसी के मोबाइल की रिंग टन बजी ” आ चल के तुझे मैं ले के चलूं एक ऐसे गगन के तले ,जहाँ गम भी न हो आंसूं भी न हों बस प्यार ही प्यार पलें “|| तो मेरे साथ न जाने कितनी महिलाएं अर्श से फर्श पर आ गयीं | सच भारतीय महिलाओं के लिए न कहने का अधिकार एक दिवा स्वप्न ही तो है | आज महिलाएं शहरी क्षेत्रों में आत्म निर्भर हो रहीं हैं | शायद कुछ हद तक उन्हें न कहने का अधिकार मिला हो | पर आम भारत जो गाँवों कस्बो और छोटे शहरों में बसता है | वहां दैहिक संबंध तो छोडिये महिला के लिए किसी बात में न कहना आसान नहीं होता | पति के साथ रात को सोयी महिला की शारीरिक चोटों पर देवरानी जेठानी हंसतीं हैं , ये बिलकुल स्वीकार्य है की पति किसी भी तरह अपनी पत्नी को चोटिल करे| वह उसका हक़ है | घर की अन्य महिलाएं भी उसका साथ देने के स्थान पर उसका आनंद लेती हैं | हमारे लोक गीतों में इसके दर्शन आसानी से हो जातें हैं |महिला का काम है पति को खुश रखना …. यही उसकी सुखी गृहस्थी का मूल मंत्र है | पति आवारा बदचलन ही क्यों न हो उसके लिए स्त्री ( वेश्या ) उपलब्द्ध करना पत्नी को महँ सटी की श्रेणी में लाकर खड़ा कर देता है |हालांकि घरेलू महिलाओं की सुरक्षा के लिए या न कहने के अधिकार के लिए कानून बन रहे हैं | पर ” जिस घर में डोली गयी है वहीँ से अर्थी निकले के गणित में उलझी ” भारतीय नारी के लिए घर की चाहर दिवारी के अन्दर असर खो देते हैं | अपने आशिकों को न कहने वाली कितनी महिलाएं तेज़ाब का शिकार होती हैं , कितनी रेप का और कितनी सामाजिक आलोचना का इसके आंकड़े देने की आवश्यता नहीं है | भारतीय पुरुष को इस बात को समझने में बहुत समय लगेगा की स्त्री भी पुरुष की तरह एक इंसान है जिसे ना कहने का अपनी भावनाएं रहने का हक़ है | हालांकि फिल्म में न सिर्फ आपने ना कहने के अधिकार की वकालत की है बल्कि जो जो पॉइंट उठाये है की पुरुष शराब पी सकते हैं तो टीक , महिलाएं पिए तो चरित्र हीन , पुरुष हँस कर बात करें तो ठीक महिलाएं करें तो चरित्रहीन या महिला के चरित्र का पैमाना उसके कपड़ों की लम्बाई नहीं होनी चाहिए | ये सारे पॉइंट्स बिलकुल सही है ये सारे अधिकार महिलायों को मिलने चाहिए | और in सब के लिए उनके चरित्र पर लांछन नहीं लगना चाहिए |परन्तु सवाल यही है की जिस देश में बचपन से पुरुषों को यह समझाया जाता हो की महिला की ना का मतलब हाँ है वहां आप की ” पिंक ” को रेड सिग्नल कैसे मिले | वंदना बाजपेयी

गुडिया , माटी और देवी

आज जिसके बारे में लिखने जा रही हूँ वह महज एक खबर थी , अखबार के कोने में | मात्र कुछ पंक्तियों की पर मेरे लिए वो मात्र एक खबर नहीं रह पायी | न जाने क्यों मैं उसके दर्द से खुद को अलग नहीं कर पायी | अन्दर की बेचैनी कहती उसके बारे में कुछ लिखू | शायद कोई उसका दर्द समझ सके | शायद समाज कुछ बदल सके | पर उसके दर्द को शब्द देना मेरे लिए आसान न था | इसीलिये अब जो कहेगी वो स्वयं कहेगी …. क्या कहूँ ,अपने बारे में कुछ लिखने से पहले अपना परिचय देना जरूरी होता है | परिचय में सबसे ऊपर होता है नाम , जो किसी भी अपने द्वारा रखा हुआ और अपनों के लिए बहुत प्यारा होता है | पर जिसका कोई भी अपना न हो उसके लिए नाम के होने न होने का महत्व ही नहीं रहता | यादों के धुंधलके में याद आते हैं अम्मा और बाबा | जो मुझे लाड से गुडिया कहते थे | जीती जागती गुडिया | नटखट , चंचल , हंसमुख गुडिया | जो मासूम थी जिसे विरोध करना नहीं आता था | जिसके प्रश्न जब तब समाज द्वारा ,” चुप रहो “ कह कर दबा दिए जाते और वो चुपचाप यथा स्तिथि स्वीकार कर लेती | क्योंकि उसे वही सोचना था करना था , रहना था जो समाज ने उसके लिए निर्धारित कर दिया था | जो भी हो उस गुडिया में उसके माता पिता की जान बसती थी | बहुत शौक था उसे बाज़ार देखने का | अपनी नन्ही अंगुलियाँ पिता की अँगुलियों में देकर बाज़ार जाया करती थी | मक्कू टाफी और झालर वाली फ्रॉक से ऊपर उसके कोई बड़े सपने नहीं थे | विधि की विडम्बना वो गुडिया जो हर रोज़ बाबा से बाज़ार ले जाने की जिद करती , आज वो खुद एक बाज़ार है | कैसे कब और क्यों हुआ ये याद करते ही मन पर दर्द की एक गहरी रेखा खिंच जाती है |हां ! १२ साल की कच्ची उम्र ही तो थी | जब पास में रहने वाले एक किरायेदार जो घर में अक्सर आया जाया करते थे | जिसे मैं चाचा कहती थी एक दिन मेला दिखाने के लिए ले गए | माँ ने भी इजाज़त दे दी ,सच कितनी भोली थीं | मैंने अपनी सबसे अच्छी फ्रॉक पहनी थी उस दिन लाल , गोटा लगे किनारों वाली | लाल लाल चूडियाँ भी पहनी थी कुहनी तक | माँ ने ही पोत दिया था ढेर सारा पाउडर चेहरे पर और साथ में बुरी नज़र से बचाने के लिए लगा दिया था एक काला टीका , कान के पीछे | उस दिन बात –बात पर हंस रही थी मैं … शायद आखिरी बार | चाचा मुझे मेले तो ले गए पर दूसरे शहर में | वो मेला नहीं जो दिन में लगता है , वो जो रात में लगता है | जहाँ सूरज की रौशनी आने से भी डरती है | एक अँधेरी कोठरी में बंद कर दिया गया मुझे | जिसमें बस एक रोशनदान था | कितना रोती , बाहर निकलने के लिए पर परकटी चिड़िया की तरह फडफडाती | रोते –चीखते जब थक जाती तो उसी रोशन दान से बाहर निकलने की असफल कोशिश करती | सामने एक कसाई का बाड़ा था | जहाँ बकरे बंधे रहते | ठीक बारह बजे बकरों के आगे खाना परोस दिया जाता और मुझे एक लम्बी दाढ़ी वाला सुई लगाने आता |कितना डरती थी मैं सुई से | तब नहीं जानती थी की वो सुई मुझे जल्दी से जल्दी बड़ा करने के लिए लागाई जा रही है | शायद बकरा भी नहीं जानता था उसके आगे डाले गए खाने का मतलब | पर खाना या सुई दोनों का मतलब एक ही तो था की गोश्त बढे | बाज़ार में वही बिकता है | हड्डियां तो चूस कर फेंक दी जाती हैं | क्योंकि वो सदा से गडती आई हैं इंसान की और समाज की आँतों में | तब तो ये भी नहीं जानती थी की बकरे के पास दो मृत्यु के दो विकल्प थे झटका या हलाल और मेरे पास बस एक , केवल हलाल वो भी जीवन पर्यंत | हमारी जिंदगियां तहखानों में बंद जरूर हैं पर आज आस –पास हलचल है , वो भी दिन में | साल में एक ही दिन तो होती है ये हलचल | नवरात्रि जो आने वाली है | हमारे दरवाजे की माटी ली जायेगी | देवी की प्रतिमाएं जो बनानी हैं | न जाने क्यों चली आ रही है ये परम्परा | माटी कितना अजीब सा शब्द है | पहली बार बाबा से इसका मतलब पूंछा था जब बाबा पडोसी की मृत्यु पर अम्मा से कह थे ,” जल्दी करो मिटटी उठने वाली है |” मैंने अपने बाल मन की जिज्ञासा शांत करने के लिए पिता का हाथ घसीट कर पूंछा ,” बाबा , वो दादाजी मिटटी में कैसे बदल गए | बाबा ने मेरे प्रश्न पर मेरे सर पर हाथ फेरते हुए कहा ,” मृत्यु के बाद जब शरीर में जान नहीं रह जाती तब वो मिटटी ही तो होता है | बिना जीव ( आत्मा ) के जब सिर्फ शरीर ही होता है तब वो मिटटी ही तो रह जाता है | आज सोचती हूँ बिना जान के शायद माटी ही तो हैं हम | ले लो जितनी चाहे माटी ले लो , देवी की मूर्ति की भव्यता में कमी न पड़े | माटी कितनी भी रौंदी जाए पर माटी से बनी मूर्ति तो देवी की ही होगी | हां ! वो देवी हैं , उनके पास शक्ति है, वो अपने ऊपर नज़र उठाने वाले , महिषासुरों का मर्दन कर सकती हैं इसीलिए नाम जपता है सर झुकाता है समाज ,| मैं ये प्रश्न भी नहीं पूँछ सकती की पूजा देवी की है या शक्ति की ? क्योंकि गुडिया और माटी को प्रश्न करने का अधिकार नहीं है | एक अजीब सी निराशा के साथ मैं विचारों के तहखाने में फिर से बंद हो जाती हूँ | मुझे रह –रह कर दिखाई दे रही हैं गुडिया, माटी और देवी | क्या ये महज एक यात्रा है | या … Read more