विश्व कैंसर दिवस-ैंआवश्यकता है कैंसर के खिलाफ इस युद्ध में साथ खड़े होने की

आज विश्व कैंसर दिवस है | आज मेडिकल साइंस के इतने विकास के बाद भी कैंसर एक ऐसे बिमारी है | जिसका नाम भी भयभीत करता है |परन्तु ये भी सच है की शुरूआती स्टेज में कैंसर का इलाज़ बहुत आसन है | यहाँ तक की स्टेज ३ और 4 के मरीजों को भी डॉक्टर्स ने पूरी तरह ठीक किया है | पर ये एक कठिन लड़ाई होती है जिसमें मरीज को बहुत हिम्मत व् हौसले की जरूरत होती है |सबसे पहले तो यह समझना होगा की कैंसर मात्र एक शब्द है ये कोई डेथ सेंटेंस नहीं है | world कैंसर डे इसी लिए मनाया जाता है | दरसल ये एक जागरूकता अभियान है | जिसके द्वारा कैंसर को शुरू में पहचानने , सही इलाज़ करने व् कैंसर के मरीजों के कैंसर के खिलाफ इस युद्ध में उनके साथ खड़े होने की आवश्यकता पर बल दिया है | वैसे अलग – अलग प्रकार के कैंसर के लिए भी अलग – अलग डे या माह बनाए गए हैं | जैसे ब्रैस्ट कैंसर मंथ , प्रोस्टेट कैंसर मंथ , world लिम्फोमा अवेरनेस डे आदि , आदि | मकसद इस जानलेवा बिमारी के खिलाफ जागरूकता फैलाना व् मरीजों के साथ खड़े होना हैं | कैंसर के मरीजों के लिए बहुत जरूरी है की वो एक कम्युनिटी बनाए | जहाँ वह अपने लक्षणों , इलाज़ , दुःख व् तकलीफ को शेयर कर सकें | एक दूसरे की तकलीफ को बेहतर तरीके से महसूस कर पाने पर वो बेतर समानुभूति दे पाते हैं | जो मनोबल टूटते मरीज के लिए बहुत जरूरी है |विदेशों में ऐसे बहुत से समूह हैं पर हमारे देश में इनका अभाव है |छोटे शहरों और गाँवों में जहाँ अल्प शिक्षा के चलते लोग कैंसर के मरीजो से संक्र्मकता से डर कर दूरी बना लेते हैं , ख़ास कर जब की वो सरकोमा या नॉन हीलिंग वुंड के रूप में हो | जिसके कारण कैंसर का मरीज बेहद अकेला पं व् अवसाद का अनुभव करता है | जो कैंसर के खिलाफ उसकी लड़ाई को कमजोर करता है | एक बात और जो बहुत जरूरी है वो यह है की कैंसर के मरीजों के केयर गिवर का भी ख़ास ख़याल रखा जाए | क्योंकि अपने परियां की तकलीफ के वो भी पल – पल के साझी दार होते हैं और एक गहरे सदमे की अवस्था में जी रहे होते हैं | कैंसर का इलाज़ जो डॉक्टर करते हैं चाहे वो सर्जरी हो , कीमो हो , रडियो थेरेपी हो बहुत पीड़ादायक है , और इनके बहुत सारे साइड इफेक्ट्स होते हैं | परन्तु एक इलाज ऐसा भी है जो हम भी कर सकते हैं वो है उन्हें , संवेदना , प्यार दे कर , उनकी हिम्मत बढ़ाकर , उन्हें हौसला दे कर , ताकि वो अपनी कैंसर के खिलाफ लड़ाई आसानी से लड़ सकें |मेरे साथ आप भी कहिये कैंसर क्या नहीं कर सकता है ……कैंसर भवः नहीं वो इतना सीमित है कीये दोस्ती को नहीं मार सकताये प्रेम को नहीं कम कर सकताये उम्मीद को नहीं नष्ट कर सकताये विश्वास में जंग नहीं लगा सकताये हिम्मत को मौन नहीं कर सकताये यादों को कम नहीं कर सकताऔर मेटास्टेसिस के बावजूद ये आत्मा तक कभी नहीं पहुँच सकताये अब तक जी चुकी हुई जिंदगी को नहीं चुरा सकतासबसे महत्वपूर्ण ये आत्मशक्ति से तो बिलकुल भी नहीं जीत सकता वंदना बाजपेयी keywords:world cancer day, cancer, 

स्वागत है ऋतुराज

                     वसंत ऋतू की शोभा अनुपम है .. इसी लिए इसे ऋतुराज भी कहा जाता है | चरों ओर खिली हुई सरसों जब प्रकृति का श्रृंगार करती है तो क्यों न मन भी वसंती हो जाए | वसंत ऋतू में वासंती हुए मन में निखर ही जाता है प्रीत का रंग |  आइये करें ऋतुराज का स्वागत                                   आइये हम वसंत ऋतू का स्वागत कुछ  कविताओं के साथ करें … “वसंत ऋतु “ फिर पद चाप  सुनाई पड़ रहे  वसंत ऋतु के आगमन के  जब वसुंधरा बदलेगी स्वेत साडी करेगी श्रृंगार उल्लसित वातावरण में झूमने लगेंगे मदन -रति और अखिल विश्व करने लगेगा मादक नृत्य सजने लगेंगे बाजार अस्तित्व में आयेगे अदृश्य तराजू जो फिर से तोलने लगेंगे प्रेम जैसे विराट शब्द को उपहारों में अधिकार भाव में आकर्षण में भोग -विलास में और विश्व रहेगा अतृप्त का अतृप्त फिर सिसकेगी प्रेम की असली परिभाषा क्योकि जिसने उसे जान लिया उसके लिए हर मौसम वसंत का है जिसने नहीं जाना उसके लिए चार दिन के वसंत में भी क्या है ? आइये ऋतुराज  आगमन हो रहा है वसंत का कर लिया है प्रकृति ने श्रृगार आरंभ हो गया है मदन -रति का नृत्य मैंने भी  निकाल लिए है कुछ सूखे लाल गुलाब जो तुम्हारे स्पर्श से पुनः खिल जायेगे वो पुरानी बिंदिया जो तुम्हारी दृष्टि पड़ते ही सुनहरी हो जायेगी और सिल ली है वो पायल जिसकी छन -छन सीधे तुम्हारे ह्रदय में जायेगी हर वसंत की तरह इस बार भी पुनः और दृढ हो जायेगा हमारे रिश्ते का वृक्ष जिसे वर्ष भर असंख्य जिम्मेदारियों और व्यस्तताओ के बीच धीरे -धीरे ,चुपके -चुपके सींच रहे थे हम -तुम “स्वागत है ऋतुराज” लाल गुलाब आज यूं ही प्रेम का उत्सव मनाते लोगों मेंलाल गुलाबों केआदान-प्रदान के बीचमैं गिन रही हूँवो हज़ारों अदृश्यलाल गुलाबजो तुमने मुझे दिए तब जब मेरे बीमार पड़ने पर मुझे आराम करने की हिदायत देकर रसोई में आंटे की लोइयों से जूझते हुए रोटी जैसा कुछ बनाने की असफल कोशिश करते हो तब जब मेरी किसी व्यथा को दूर ना कर पाने की विवशता में अपनी डबडबाई आँखों को गड़ा देते हो अखबार के पन्नो में तब जब तुम “मेरा-परिवार ” और “तुम्हारा-परिवार” के स्थान पर हमेशा कहते हो “हमारा-परिवार” और सबसे ज़यादा जब तुम झेल जाते हो मेरी नाराज़गी भी और मुस्कुरा कर कहते हो “आज ज़यादा थक गई हैं मेरी मैडम क्यूरी “ नहीं , मुझे कभी नहीं चाहिए डाली से टूटा लाल गुलाब क्योंकि मेरा लाल गुलाब सुरक्षित है तुम्हारे हिर्दय में तो ताज़ा होता रहता है हर धड़कन के साथ। वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……… वाणी वंदना मायके आई हुई बेटियाँ काहे को ब्याही ओ बाबुल मेरे बाबुल मोरा नैहर छूटो ही जाए आपको  कविता  “..स्वागत है ऋतुराज “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

अस्तित्व

अम्बा … पर्वतों की छाँव पिथौरागढ़ में रहनेवाली है । उसकी पांच बेटियां व एक बेटा सुधीर है । बचपन से ही पांच बहिनों में सबसे छोटा सुधीर माँ का बेहद दुलारा था । सुधीर को आज भी वो दिन याद है जब वह चार वर्ष का था और उसके पिता की खाई में गिरने से मृत्यु हो गई थी । माँ का चूड़ियाँ तोडना … रोना तड़पना … आज भी उसकी आँखें नम कर देता है ।कितनी अकेली हो गयी थी वो |बिलकुल टूट सी गयी थी |पहाड़ों पर रहने वाले ही जानते हैं की उनकी जिंदगी कितनी कठिन होती है | पर्वतों पर रहने वालों को पर्वत सा ही कलेजा चाहिए | तभी तो अम्बा ने बड़ी हिम्मत से घर को संभाला । कम उम्र , पति का वियोग , बच्चों की जिम्मेदारी … लड़कियों की शादी की चिंता ऊपर से स्वयं उसका अल्प शिक्षित होना । पर वो अटल दुःख के इन थपेड़ों से टकराती रही । पर इस पहाड़ के अन्दर एक नदी भी बहती थी , बिलकुल मीठे पानी की , अपने बच्चों की खातिर , तभी तो दिन – रात मेहनत करके दूसरों के खेतों में मजदूरी करके वह जब घर आती तो सुधीर को अपनी गोदी में लिटा कर लोरी सुनाना नहीं भूलती ।पहाड़ी लोक लोक गीत और उनकी मिठास …. सुधीर भी बहार से कठोर और अन्दर से मुलायम होता चला गया | कभी – कभी नन्हा सुधीर माँ के गले में बाहें डाल कर पूंछता, ” माँ एक बात बताओ तुम इतना सब कुछ कैसे कर लेती हो “। अम्बा अपनी एक अंगुली उठाकर उठाकर पहाड़ की तरफ इशारा कर के कहती … मैं उस पहाड़ की तरह हूँ जो तेज़ आंधी तूफ़ान में भी अडिग रह कर अपने ऊपर जमी घास का बाल भी बांका नहीं होने देता ।पर जब – जब जीवन में विपरीत परिस्तिथियाँ आती हर बार माँ के प्रति चिंतित व् आदर भाव से भरे सुधीर का यही प्रश्न होता … और माँ का यही उत्तर होता । सुधीर को उसकी माँ की हर बात अच्छी लगती, उसकी मेहनत … उसका प्रेम … उसकी तपस्या । सब कुछ देख कर वो सोंचता जब मैं बड़ा हो जाऊँगा तो माँ का खूब ध्यान रखूँगा। कोई दुःख नहीं होने दूंगा उसे | पर जैसे चाँद में दाग होता है | एक बात उसे भी माँ की बिलकुल अच्छी नहीं लगती थी, कि चाहे खुद कितनी कंगाली में रहे पर दूसरों को कुछ देने की बात आये तो सबसे आगे बढ़ कर सहायता करती | अपने लिए कुछ बचाने का सोंचती ही नहीं , यहाँ तक की खाना भी | पड़ोस के बच्चे अक्सर खाना खाने के समय आ जाते तो अंपने लिए बनाया खाना वह उन बच्चों को खिला खुद पानी पीकर सो जाती थी । एक दिन सुधीर ने माँ से पूंछ ही लिया ‘ माँ तुम ऐसा क्यों करती हो ‘। माँ हंसकर जवाब देती कहा ना मैं उस पहाड़ की तरह हूँ जब कोई मेघ मुझसे टकराता है तो मैं हर तरफ वर्षा करती हूँ । केवल अपने लिए नहीं दूसरों को देने में मुझे सुख मिलता है । माँ और पर्वत ये उपमा सुनते सुनते सुधीर बड़ा अफसर बन कर मुंबई चला गया | उसकी शिक्षा माँ की ही त्याग तपस्या का फल थी , और उसकी पसंद उसके जीवन में उजाला करने के लिए आई मुंबई की ज्योति पर भी माँ ने सहजता से अपनी पसंद की मोहर लगा दी | और विवाह के पवित्र सूत्र में बंध ज्योति व् सुधीर एक हो गए ।ज्योति सुधीर के मुंह से अम्बा की तारीफे सुनती रहती , वो जानती थी सुधीर के मन में अम्बा के लिए बहुत सम्मान है , इसीलिए तो उसने ही सुधीर के आगे ” माजी को अपने पास लाने का प्रस्ताव रखा था | इधर अम्बा पहाड़ की मिटटी में घुल मिल सी गयी थी | पड़ोस के बच्चों , रोज के काम और पहाड़ी लोक गीत … दिन तो कट ही जाता था | पर रात घिरते ही पुत्र मोह जाग उठता | सुधीर को देखने की इच्छा बलवती होती | पर मन में तसल्ली कर लेती , चलो , ” ज्योति जैसी पत्नी उसके जीवन में जो उसका पूरा ध्यान रखती है व् सुधीर भी तो उसे बहुत प्रेम करता है | उसका क्या है ? पूरा गाँव ही उस का घर है , बची खुची जिन्दगी भी कट ही जायेगी | फिर भी माँ की सेवा करने के लिए सुधीर उसे गाँव से अपने पास ले चलने के लिए आया , तो उसकी ख़ुशी छिपी न रह सकी , आँखों के रास्ते निकल ही गयी | गाँव वाले स्नेह से उलाहना देने लगे ,” अब पहाड़ नदी बन कर मैदानों को हरा- भरा करने चला है |” पर जैसा सोंचा था हुआ उसका उल्टा । ना तो अंग्रेजी सभ्यता में पली बढ़ी ज्योति अम्बा को भाई और ना ही बात बात पर रीति रिवाज़ और पहाड़ की बात करने वाली अम्बा ज्योति को । तनाव बढ़ने लगा ।दोनों लाख कोशिश करतीं पर किसी न किसी बत पर विवाद हो जाता | घर का माहौल बिगड़ जाता |पहाड़ी और मैदानी दो सभ्यताओं की टकराहट हो रही थी | पहाड़ी नदी का उफान मैदानों में बाढ़ लाता , तो कभी मैदानी तपिश पहाड़ पर बेमौसम बरस जाती | प्रेम की धारा विवादों के कीचड में तब्दील होने लगी | ऐसा कीचड जिसमें कमल नहीं खिलते , तभी तो मुरझा गया था सुधीर |किसकी तरफ से बोले … एक तरफ माँ है जिसने लाख मुसीबत झेल कर उसे पाला है दूसरी तरफ पत्नी है जो आजन्म उसकी सहचरी है । वह दोनों के बीच पिसने लगा और उसका स्वास्थ्य दिन प्रति दिन बिगड़ने लगा । दोनों उसके लिए चिंतित थीं पर प्रेम का धागा जो ज्योति और अम्बा के बीच टूट चूका था , वह जुड़ने से भी नहीं जुड़ पा रहा था । सुधीर का स्वास्थय बिगड़ता जा रहा था । एक दिन जब सुधीर घर लौटा तो माँ दिखाई नहीं दी । ज्योति से पूंछा , पर उसने भी अनभिज्ञता दिखाई | मन में उठते अनेकों प्रश्नों हल के रूप में मेज … Read more

नकाब घूँघट और टैटू

घूँघट और टैटू |हालांकि आपको ये तीनों बेमेल दिख रहे होंगे | कुछ लोग इसे धर्म से जोड़ने का प्रयास भी कर सकते हैं | पर इनका सम्बन्ध धर्म से नहीं लिंग से है | जी हां ! इनका सम्बन्ध स्त्री से हैं , उसकी सुन्दरता से भयभीत होकर उसे छुपाने से है | एक अपराधबोध जो युगों से समाज स्त्रियों के मन में भरता रहा है | जहाँ सुन्दर दिखना अपराध है |सब जानते हैं की पुरुषों की आपराधिक मानसिकता पर लगाम लागने के लिए स्त्री घुंघट या नकाब में अपना चेहरा ढकने को विवश होती रही |पर आज मैं विशेष रूप से बात करना चाहती हूँ टैटू की |और उससे जुडी स्त्री शोषण की दास्तान की | नारी संवेदना के स्वर वैसे टैटू से आज कोई अनजान नहीं है टैटू एक आर्ट है जिसको हम हिंदी में गोदना भी कहते हैं | हमारे देश में इसकी पुरानी परंपरा रही है |लोग फूल – पत्ती से लेकर अपने प्रियतम – प्रियतमा के नाम तक अपने शरीर पर गुदवाते हैं |प्रसिद्द खिलाडी जॉन बेकहम के बारे में तो कहा जाता है की उन्होंने अपने पूरे शरीर पर टैटू गुदवा लिए हैं | पर ये टैटू पुराने गोदना से थोड़े से अलग हैं | क्योंकि इनमें कई रंगों का प्रयोग किया जाता है | व् डिजाइन भी लज्जवाब होते हैं | यही टैटू आजकल फैशन में है | महिला हो या पुरुष सब इसके दीवाने हैं | और अगर युवा वर्ग की बात करे तो टैटू का नशा सर चढ़कर बोलता है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी |ये सुन्दर और अलग दिखने की ललक ही तो है जो लोग इतना दर्द सह कर भी टैटू गुदवाते हैं | पर आप को जान कर हैरानी होगी की टैटू का जुड़ाव हमारे देश और शहर नहीं बल्कि सुदूर अंचलों से भी है। ऐसा ही एक उदाहरण है म्‍यांमार की पर्वत श्रृंखला का | जहाँ एक ऐसी जनजाति का निवास है जिसकी महिलाएं अपने पूरे चेहरे पर ही टैटू बनवाती हैं। परन्तु इनके टैटू और युवा वर्ग के टैटू प्रेम में जमीन आसमान का अंतर है | जहाँ युवा वर्ग सुदर या आकर्षक दिखने के लिए टैटू का प्रयोग करता है वही ये महिलाएं बदसूरत दिखने के लिए टैटू का प्रयोग करती हैं …. पर क्यों ? जिसने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश किया उस खबर के अनुसार साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट ते हान लीन ने म्‍यांमार की यात्रा की और इस दौरान कुछ खास तस्‍वीरें लीं। उनके अनुसार जब वे म्‍यांमार जाने का सोच रहे थे तब वे जनजातियों पर शोध भी कर रहे थे। उन्‍होंने वहाँ चिन जनजाति के बारे में पता लगाया। यहां उन्‍होंने पाया कि औरतें अपने चेहरे पर टैटू बनवाती हैं।इसका कारण यह है कि महिलाओं का आकर्षण कम हो सके और उनके अपहरण या बर्मा के नरेश द्वारा उठा लिए जाने की संभावना से बचाया जा सके। यह एक पुरानी परंपरा है। साठ के दशक के बाद ये जनजाति मुन, दाई और मकांग में पैदा होने वाली कन्‍याओं को किशोरावस्‍था में चेहरे पर टैटू बनवाना होता था।इन टैटू के चौकोर खानों में छोटे डॉट होते हैं। दाई महिलाएं गहरे नीले रंग का उपयोग करती हैं। मकांग की महिलाएं नीले व हरे रंग को लगाती हैं। इनके बनाने का तरीका अजीब है। ये कांटों की सहायता से पशु की चर्बी व बैल के पित्‍त के मिश्रण से बनाए जाते हैं। इसे लगवाने में बहुत दर्द होता है। इसे बनाने में पूरा एक दिन लग जाता है। दो सप्‍ताह के समय में यह ठीक होता है। हालांकि बाद में म्‍यांमार शासन ने इसे अनुचित मानकर रोक लगाना शुरू किया ।पर आज उम्रदराज़ महिलाओं के चेहरे पर इसके निशान मौजूद हैं। आज स्त्री पुरुष की समानता की बात चलती है | पर स्त्री पुरुष एक सामान हैं ऐसे उदाहरणों से इस बात की धज्जियां उड़ जाती हैं | जहाँ औरत का मुख्य उद्देश अपनी ख़ूबसूरती को कम करना हो ताकि पुरुषों की गन्दी नज़र से बच सकें … तो समानता नहीं पुरुषों और उनके अंदर निवास करने वाले पशुता का चेहरा नज़र आता है |इसे हम दूसरे देश की बात कह कर अपना पल्ला नहीं झड सकते | क्योंकि हमारे देश में भी बुरका या घुंघट घर की महिलायों को पुरुषों की नज़र से बचाने के लिए करने की परंपरा रही है | एक बुजुर्ग पुरुष की बात मुझे अक्सर याद आती है जिसने कहा था की सुन्दर लड़की केवल शादी के मंडप में अच्छी लगती है | बाकी समय उसके पिता , पति , भाई को तनाव से ही जूझना पड़ता है | घूँघट के पक्ष में अक्सर ये सुनने को मिलता है की हीरा तो छुपा कर ही रखा जाता है |प्रश्न तो उठता ही है की हीरे से स्त्री की तुलना उसे बहुमूल्य बताने की कोशिश है या या भावना विहीन बेजान पत्थर में तब्दील करने की कवायद ?भोपाल के एक कॉलेज ने महिलाओ के जीन्स पहनने पर पबदी भी शायद पुरुषो के भय से इन लड़कियों को बचने के लिए लगाईं होगी | अभी पिछले दिनों एक खबर आई थी की एक औरत ने अपने ऊपर तेज़ाब डाल लिया था | क्योंकि वो सुन्दरता के लिए दिए दिए गए पति व् ससुर के तानों से आजिज़ आ गयी थी |वो अकेली औरत नहीं थी , कई घरों में कैद कर दी गयी , कई घुंघट या नकाब में और कई टैटू में | सुप्रसिद्ध खिलाडी शमी ने जब फेसबुक पोस्ट पर अपनी पत्नी के साथ फोटो पोस्ट की तो जैसे ज्वार – भाटा ही आ गया | एक शालीन से गाउन को लेकर तरह – तरह की फब्तियां कसी गयी | ये लोग धर्म के ठेकेदार थे या अपनी गन्दी नज़र का बयां कर रहे थे | धर्म कोई भी हो स्त्रियाँ पुरुषों की इस गन्दी नज़र से महफूज़ तो कहीं भी नहीं हैं ………….. नकाब , घुंघट या टैटू गुदवाने के बाद भी नहीं | अभी हालिया रिलीज ” पिंक में सहगल सर के अनुसार रूल नंबर वन टू टेन अगर महिलाओं के चेहरे को देखने से पुरुषो को तकलीफ होती हैं तो महिलाओं को नकाब , घुंघट और टैटू में कैद करने के बनस्पत उन्हें घरों में कैद … Read more

सोनम , आयशा या एरिका – आखिर महिलाओं की सरेआम बेईज्ज़ती को कब तक मजाक समझते रहेंगे हम

वंदना बाजपेयी अभी कुछ दिन पहले जब सोशल मीडिया देश नोट बंदी जैसे गंभीर मुद्दे पर उलझा हुआ था | हर चौथी पोस्ट इसके समर्थन या विरोध से जुडी थी कुछ नोट बंदी के कारण भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन में लगे थे | नए नोटों की किल्लत थी | और लंबी कतारों से जूझते हुए लोगों को अपना ही कैश मिल रहा था | नए नवेले २००० के नोट तो सब लोगों को दिखे ही नहीं थे | तभी एक सिरफिरे ने नए – नए दो हज़ार के नोट पर लिख दिया ” सोनम गुप्ता बेवफा है ” | देखते ही देखते ये पोस्ट वायरल हो गयी |सोनम गुप्ता नेशनल हास्य का विषय बन गयी | नोट बंदी के गहन विवेचन में व्यसत लोग अचानक एक्टिव हो गए , ठीक वैसे ही जैसे मस्ताजी के क्लास छोड़ते ही बच्चे शोरगुल में व्यस्त हो जाते हैं | पर क्या बड़ों की इस बचकाना हरकत की बच्चों की मासूमियत से तुलना की जा सकती है | वो भी तब जब मुद्दा महिलाओं के सम्मान से जुडा हो | इस पोस्ट के वायरल होते ही इतिहास खंगाले जाने लगे | की सबसे पहले किसी ने १० के नोट पर “सोनम गुप्ता बेवफा है “लिखा था | फिर अन्य नोटों पर भी यही लिखा जाने लगा | हालांकि किसी को नहीं पता की ये सोनम गुप्ता कौन है | फिर भी लोग लगे मजाक उड़ाने | कई वेबसाईट ने तो उसकी पूरी कहानी छाप दी | जाहिर है वो मनगढ़ंत थी | किसी ने बताया की सोनम गुप्ता की क्या मजबूरी थी की वो बेवफा हो गयी | तो किसी ने सोनम गुप्ता की बफवाफी को सही ठहराते हुए सोनम का बचाव किया |तो कोई येन केन प्रकारें सोनम गुप्ता को बेवफा सिद्ध करने में जुट गया |सोनम गुप्ता एक ऐसा नाम है जो रातों रात सबकी जुबान पर चढ़ गया | एक सॉफ्ट ड्रिंक कम्पनी ने तो यहाँ तक घोषणा कर दी की कोई महिला जिसका नाम सोनम गुप्ता है उनके आउटलेट पर आये तो वो उसे फ्री कोल्ड ड्रिंक पिलायेंगे |जो भी हो सोनम गुप्ता एक ऐसा प्रसिद्द नाम बन गयी | जिसे कोई नहीं जानता पर जिसे सब जानते हैं | हंसी मजाक के बीच कभी सोंचा है की क्या ये उन महिलाओं के लिए पीड़ा दायक नहीं है जिनका वास्तव में नाम सोनम गुप्ता है | जब कोई मित्र परिचित उन्हें सोनम गुप्ता कह कर भीड़ में पुकारता होगा तो सभी सर उस और मुद जाते होंगे | या कोई अजनबी उनका नाम पूंछता तो उसके चरे पर एक शरारती मुस्कान आ जाती होगी | हंसी मजाक के बच्च सोनम गुप्ता पर क्या गुज़रती होगी इसकी किसे परवाह है | बात सिर्फ सोनम गुप्ता तक ही सीमित नहीं है | महिलाओ पर ही ज्यादातर चुटकुले बनते हैं | उनमें पत्नी व्अ प्रेमिकाओं पर बन्ने वाले चुटकुले सबसे ज्यादा हैं | प्रेमिकाओं को तो बात – बात पर बेवकूफ व् पत्नियों को अत्याचारी और पति की संपत्ति से प्यार करने वाली दर्शाना आम बात है | अगर आप हास्य के धारावाहिक देखे तो उसमें भी ज्यादातर पुरुष महिला बन कर स्त्री शरीर का मजाक उड़ाते हुए फूहड़ हास्य पैदा करते हैं | स्त्री का शरीर अपमान का विषय बन जाता है | कभी चूड़ियाँ पहन रखी हैं क्या ? कह कर महिला को अक्षम व् कमतर करार दे दिया जाता है |अभी कुछ समय पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें एक खास डियो के महक से स्त्री पुरुष की दीवानी हो जाती है | मजे की बात यह है की उस स्त्री को शिक्षित दिखया गया है |तो क्या शिक्षित स्त्री इतनी मूर्ख होती है की वो पुरुष के गुणों को परखने की जगह उसके डीयो पर मर मिटती है | पुरुषों के विज्ञापनों में महिलाओं का ज्यादातर इसी रूप में इस्तेमाल होता है | क्या ये शर्मनाक नहीं है | ये सब सोनम गुट बेवफा है के आगे की कड़ियाँ ही हैं | मेरी एक मित्र ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से प्रश्न किया था की हमेशा मुन्नी बदनाम , शीला जवान या सोनम गुप्ता बेवफा क्यों हो जाती है | क्यों ऐसा नहीं होता की पप्पू जवान , रमेश बदनाम या सुरेश बेवफा हो जाए | शायद ऐसा कभी नहीं होगा | क्योकि पुरुषों को तो हम वैसा मान कर उन्हें क्लीन चित दिए रहते हैं परन्तु स्त्री के लिए ये शब्द आज भी अपमान का विषय बने हुए हैं | युग बदले परन्तु सीता और अग्नि परीक्षा से स्त्री का रिश्ता वही का वही रहा | पुरुषों को हर बात के लिए बैजात बरी कर के स्त्रियों को उसी कटघरे में खड़ा कर आरोप लगाना मज़ाक का नहीं बहस का मुद्दा होना चाहिए | जहाँ तक नोट पर लिखने का सवाल है उसे तो रिजर्व बैंक ने प्रतिबंधित कर दिया है | नए आदेश के अनुसार अब लिखे हुए नोट स्वीकार नहीं किये जायेंगे | उसने लोगों को आगाह भी किया है की आप लिखे हुए नोट न स्वीकारे | इस आदेश के बाद भविष्य में सोनम गुप्ता अपमानित होने से बच जायेगी |पर क्या सामाजिक रूपसे हम सोनम , आयशा या एरिका को अपमानित करने की आदत से मुक्त हो पायेंगे | लाख टेक का सवाल अब भी वहीं है की महिलाओं की सरेआम बेज्जती को कब तक मजाक समझते रहेंगे हम ?

समीक्षा – “काहे करो विलाप” गुदगुदाते ‘पंचों’ और ‘पंजाबी तड़के’ का एक अनूठा संगम

हिंदी साहित्य की अनेकों विधाओं में से व्यंग्य लेखन “एक ऐसी विधा है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं और सबसे ज्यादा मुश्किल भी!” कारण स्पष्ट है – भावुक मनुष्य को किसी भावना से सराबोर कर रुलाना तो आसान है परन्तु हँसाना मुश्किल| आज के युग की गला काट प्रतियोगिता में जैसे – जैसे तनाव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है वैसे – वैसे ये कार्य और दुरूह होता जा रहा है और आवश्यक भी| “आप थोडा सा हँस ले” – तनाव को कम करने का इससे कारगर कोई दूसरा उपाय नहीं है| हर बड़े शहर में कुकरमुत्तों की तरह उगे “लाफ्टर क्लब” इस बात के गवाह हैं| आज के मनुष्य की इस मूलभूत आवश्यकता को समझते हुए व्यंग्य लेखकों की जैसे बाढ़ सी आ गयी हो| परन्तु व्यंग्य के नाम पर फूहड़ हास्य व् द्विअर्थी संवादों के रूप में जो परोसा गया उसने व्यंग्य विधा को नुकसान ही पहुँचाया है, क्योंकि असली व्यंग्य में जहाँ हास्य का पुट रहता है वहीँ एक सन्देश भी रहता है और एक शिक्षा भी! ऐसे व्यंग्य ही लोकप्रिय होते हैं जिसमें हास्य के साथ – साथ कोई सार्थक सन्देश भी हो| आज जब अशोक परूथी जी का नया व्यंग्य – संग्रह “काहे करो विलाप” मेरे सामने आया तो उसे पढने का मुझे एक विशेष कौतुहल हुआ, क्योंकि अशोक जी के अनेकों व्यंग्य हमारी पत्रिका “अटूट बंधन” व् दैनिक समाचार पत्र “सच का हौसला” में प्रकाशित हो चुके हैं| मैं उनकी सधी हुई लेखनी, हास्य पुट, सार्थक सन्देश वाली कटाक्ष शैली के चमत्कारिक उपयोग से भली भांति वाकिफ हूँ| कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं एक ही झटके में सारे व्यंग्य-संग्रह को पढ़ गयी और एक अलग ही दुनिया में पहुँच गयी जहाँ होंठो पर मुस्कुराहट के साथ दिमाग के लिए सन्देश भी था| इसी कलात्मकता ने मुझे इस व्यंग्य – संग्रह पर कुछ शब्द लिखने को विवश किया| शुरुआत करना चाहूंगी संग्रह के पहले ही व्यंग्य “पापी पेट का सवाल है” से – कटाक्ष शैली में लिखे गए इस व्यंग में अशोक जी ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से सारे पापों, सारे घोटालों, सभी समस्याओं, रोटी की तालाश में विदेश गए लोगों व् मात्र पेट को भरने की जुगत में लगे लोगों का समय का सार्थक उपयोग न कर पाने की विवशता का कारण पेट को माना है| जब वो ‘पेट देना‘ भगवान् की सबसे बड़ी गलती करार देते हैं तो पाठक अपने पेट पर हाथ फेरते हुए उनसे सहमत हो ही जाता है| “हाय, मेरी बत्तीसी!” मेरे पसंदीदा व्यंगों में से एक है| इसे हमने “सच का हौसला” में प्रकशित भी किया था| मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि जो भी व्यक्ति सौभाग्य या दुर्भाग्य से दांत के डॉक्टर के पास गया होगा वह इस व्यंग्य को पढ़ कर अपनी व्यथा-कथा का स्मरण कर मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता| दूध में पानी की मिलावट से जहाँ हम सब भारतीय विशेकर महिलाएं परेशान होती हैं, वहीँ अशोक जी इसे व्यंग्य का मुद्दा बनाते हैं| यही नहीं अपने व्यंग्य –लेख “बस, थोड़ी यही तकलीफ है” में तुलनात्मक अध्धयन से सिद्द कर देते हैं कि भारतीय दूधवाला विदेशी शुद्ध दूध या पानी की मात्रा बता कर मिलावटी दूध बेचने वाली कम्पनियों से ज्यादा बेहतर है क्योंकि वह आप को दिल, जिगर और गुर्दे आदि की तमाम बीमारियों से बचा कर आप पर अहसान करता है| अशोक जी दूध वाले की कृपा से पैर की नस खींच कर दिल में लगाने में होने वाले खर्चे की बचत जैसे खूबसूरत पंच का प्रयोग करते हैं जो पाठक को गुदगुदाता है| “लाल परी वाली पार्टी” में देशी शादियों में पीने – पिलाने के रिवाज़ पर हास्य का शानदार प्रयोग है| “बोलो जी, आज क्या बनाऊ?” घरेलू जिंदगी में हास्य पैदा करता है| इस व्यंग्य की शैली रोचकता उत्पन्न करती है और पाठक एक सांस में पढता जाता है| हालांकि, एक महिला होने के नाते मैं इसका समर्थन नहीं करूंगी, पाठक खुद ही पढ़ कर निर्णय लें| हममे से ज्यादातर लोग अतीत को वर्तमान से बेहतर मानते हैं और उसी में खोये रहते हैं और अगर बात फेसबुक प्रोफाइल पर फोटो लगाने की हो तो निश्चित तौर पर अतीत ही बेहतर होता है| मानवीय स्वाभाव की इस कमजोरी पर लिखा गया ये व्यंग्य “कोई लौटा दे मेरे वो दिन” बेहद शानदार बन पड़ा है| अंत में, मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि अशोक जी चाहे वर्षों से विदेश में बसे हुये हैं, उनकी हिंदी पर पकड़ बहुत अच्छी है| हिंदी के साथ – साथ पंजाबी को गूंथ कर जो भाषाई स्तर पर उन्होंने प्रयोग किया है वह बेहद ही सफल रहा है| उनका यह व्यंग्य – संग्रह व्यंग्य विधा के हर मानक को पूरा करता है| अशोक जी एक बेहतरीन लेखक के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं| उनमें असीम संभावनाएं हैं| यदि आप भी व्यंग्य के नाम पर कुछ अच्छा, कुछ सार्थक और कुछ चुटीले पंच युक्त-लेख पढना चाहते हैं जो दिल और दिमाग दोनों के लिए बेहतर हो तो आप को अशोक जी का व्यंग्य संग्रह “काहे करो विलाप“ अवश्य पढना चाहिए| हार्दिक शुभकामनाओं के साथ – ******************वंदना बाजपेयी, ****************कार्यकारी सम्पादक, **********अटूट बंधन व् सच का हौसला 

फीलिंग लॉस्ट : जब लगे सब खत्म हो गया है

आज मैं लिखने जा रही हूँ उन तमाम निराश हताश लोगों के बारे में जो जीवन में किसी मोड़ पर चलते – चलते अचानक से रुक गए हैं | जिन्हें गंभीर अकेलेपन ने घेर लिया है और जिन्हें लगता है की जिंदगी यहीं पर खत्म हो गयी है |सारे सपने , सारे रिश्ते , सारी संभावनाएं खत्म हो गयीं | यही वो समय है जब बेहद अकेलापन महसूस होता है | ऐसे ही कुछ चेहरे शब्दों और भावों के साथ मेरी आँखों के आगे तैर रहे हैं , जहाँ जिन्दगी अचानक से अटक गयी थी और उसका कोई दूसरा छोर नज़र ही नहीं आ रहा था …….. * निशा जी , दो बच्चों की माँ , जब उसके सामने पति का दूसरा प्रेम प्रसंग सामने आया तो उसे लगा जैसे सब कुछ खत्म हो गया है | अपनी सारी त्याग , तपस्या प्रेम सब कुछ बेमानी लगने लगा | उस पर समाज का ताना ,” पति को सँभालने का हुनर नहीं आता , वर्ना क्यों वो दूसरी के पास जाता ” , जले पर नमक छिडकने के लिए पर्याप्त था | मृत्यु ही विकल्प दिखती , पर उसे जीना था , अपनी लाश से खुद ही नकालकर … अपने बच्चों के लिए | *सुजाता , एक जीनियस स्टूडेंट जिसकी आँखों में बहुत सारे सपने थे | पर क्योकर उसका पढाई से मन हटता चला गया | वो खुद भी नहीं समझ पायी | कॉलेज जाने के लिए रोज खुद को मोटिवेट करती पर रोज निराश हो तकिये में मुंह छिपा कर सो जाती | रोज खुद को उत्साहित करने व् निरुत्साहित होने का एक ऐसा चक्रव्यूह चला की वो उससे निकल ही नहीं पायी | अकेली होती गयी | परिणाम वही हुआ जिससे वो भाग रही थी | असफलता … न सिर्फ उसके बल्कि उसके माता – पिता व् परिवार के सपनों की | * प्रशांत ने एक स्टार्ट अप शुरू किया , उसकी आँखों में चमक थी उन बहुत सारे सपनों की … जो शायद रियलिस्टिक नहीं थे | पर उसने उन्हें पूरा करने अपना सारा समय , पैसा व् अथाह परिश्रम झोंक दिया | पर सपनों ने सपनों सा परिणाम नहीं दिया कम्पनी बंद हो गयी | निराशा के अंधियारे ने उसे अकेलेपन में डुबो दिया | ये मात्र कुछ उदाहरण हैं .. उन बहुत सारे लोगों के जो जीवन में कभी न कभी लॉस्ट या सब कुछ खतम हो गया महसूस करते हैं | अगर आप या आपका कोई अपना भी ऐसी ही मन : स्तिथि से गुजर रहा है | तो शायद मेरा यह लेख आपके कुछ काम आ सके | कुछ लिखने से पहले मैं अपनी प्लेलिस्ट ऑन कर देती हूँ | और संयोग से आज जो पीछे से मधुर गीत बज रहा है वो मुझे बहुत प्रेरणा दे रहा है | गीत के बोल हैं ,” चल अकेला , चल अकेला चल अकेला …. तेरा मेला पीछे छूटा राही चल अकेला | ” एक दार्शनिक सा गीत जिसमें जीवन का सार छुपा हुआ है | और कहीं न कहीं यह भी छुपा हुआ है की हमसे आपसे पहले बहुत से लोग इस ” सब कुछ खत्म हो गया ” वाली भावनात्मक दशा से गुज़र चुके हैं |इस गीत को सुनते हुए मुझे राधिका जी ( परिवर्तित नाम ) याद आ जाती हैं | राधिका जी जो इस समय एक सफल डॉक्टर हैं अपने अनुभव बताते हुए कहती हैं , ” आज मैं सफल , सुखी और संतुष्ट नज़र आती हूँ पर कभी कभी इस प्रकार के भावों से मुझे भी दो चार होना पड़ा | तब इस गीत को सुन कर मुझे लगा की शायद हम सब ” अपने अपने अकेलेपन को भोगने के लिए आये हैं |”क्या ये खूबसूरत धरती मात्र पेट भरती है ,”मन नहीं ” ? लेकिन इसमें एक खास बात थी |                                        जितना ज्यादा मैं इस अकेलेपन या , निराशा या सब खत्म हो गया के बारे में सोंचती , उतना ही मुझे इस अकेलेपन की ख़ूबसूरती दिखाई देने लगती | एक ऐसे ख़ूबसूरती जिससे मैं अभी तक अनभिग्य थी | वह खूसुरती थी उस शख्स को जानने समझने का अवसर जिससे हम सबसे ज्यादा प्यार करते हैं , यानि हम खुद | ये अकेला पन हमें खुद से कनेक्ट होने का अवसर देता है | आइये जानते हैं कैसे … अकेले हो कर भी हम अकेले नहीं सब से पहले तो जान लीजिये की अकेला होंना इतना आसान नहीं है | जब आप को लगता है की आप के जीवन में यह निराशा की चरम सीमा है , सब कुछ खत्म हो गया है , आप किसी लायक नहीं है , आप को कोई प्यार नहीं करता और आप दुनिया में बिलकुल अकेले हैं |यकीन मानिए ठीक उसी समय बहुत से लोग जिनका रूप , रंग , आकर आपसे भिन्न होगा | वो आपसे परिचित , अपरिचित हो सकते हैं आप से मीलों दूर हो सकते हैं पर अपने बारे में ठीक वैसा ही सोंच रहे हैं | मतलब आप अकेले हो कर भी अकेले नहीं हैं , आप उस बहुत बड़े group का हिस्सा हैं जो खुद को अकेला महसूस करता है | जब छोड़ देना साथ चलने से बेहतर लगे जब आप अकेलापन महसूस करते हैं तब आप अकेले रहना चाहते हैंकभी आप ने सोंचा है की जब आप अकेले होना चाहते हैं तभी आपकेलापन महसूस करते हैं | कभी – कभी आप भीड़ में भी बेहद तनहा मह्सूस करते हैं तो कभी अकेले घर में मधुर संगीत और एक कप कॉफ़ी के साथ तरोताज़ा महसूस करते हैं | यानी आप का ध्यान आप के अकेलेपन पर जाता ही नहीं |अब जरा गौर करिए जब आपके अन्दर ग्लूकोज की कमी हो जाती है और आप काम में लगे होते हैं , तो कौन बताता है आप को की आप को कुछ खा लेना चाहिए … आप का दिमाग | जी हाँ ! आप का दिमाग सिग्नल देता है और आप को जोर की भूख लगती है | ठीक वैसे ही जब आप सब कुछ खत्म हो गया की फीलिंग … Read more

हिंदी दिवस पर विशेष – हिंदी जब अंग्रेज हुई

वंदना बाजपेयी सबसे पहले तो आप सभी को आज हिंदी दिवस की बधाई |पर जैसा की हमारे यहाँ किसी के जन्म पर और जन्म दिवस पर बधाई गाने का रिवाज़ है | तो मैं भी अपने लेख की शुरुआत एक बधाई गीत से करती हूँ ………. १ .. पहली बधाई हिंदी के उत्थान के लिए काम करने वाले उन लोगों को जिनके बच्चे अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढ़ते हैं | २ …दूसरी बधाई उन प्रकाशकों को जो हिंदी के नाम पर बड़ा सरकारी अनुदान प्राप्त कर के बैकों व् सरकारी लाइब्रेरियों की शोभा बढाते हैं | जिन्हें शायद कोई नहीं पढता | ३… तीसरी और विशेष बधाई उन तमाम हिंदी की पत्र – पत्रिकाओ व् वेबसाइट मालिकों को जो हिंदी न तो ठीक से पढ़ सकते हैं , न बोल सकते हैं न लिख सकते हैं फिर भी हिंदी के उत्थान के नाम पर हिंदी की पत्रिका या वेबसाइट के व्यवसाय में उतर पड़े | आप लोगों को अवश्य लग रहा होगा की मैं बधाई के नाम पर कटाक्ष कर रही हूँ | पर वास्तव में मैं केवल एक मुखौटा उतारने का प्रयास कर रही हूँ | एक मुखौटा जो हम भारतीय आदर्श के नाम पर पहने रहते हैं | पर खोखले आदर्शों से रोटी नहीं चलती |जैसे बिना पेट्रोल के गाडी नहीं चलती उसी तरह से बिना धन के कोई उपक्रम नहीं चल सकता |न ही कोई असाध्य श्रम व्र मेहनत से कमाया हुआ धन hindi के प्रचार – प्रसार में लगा कर खुद सड़क पर कटोरा ले कर भीख मांगने की नौबत पर पहुंचना चाहेगा | तमाम मरती हुई पत्र – पत्रिकाएँ इसकी गवाह हैं | जिन्होंने बड़ी ही सद्भावना से पत्रिका की नीव रखी पर वो उसे खींच नहीं पाए |क्योंकि धन देने के नाम पर कोई सहयोग के लिए आगे नहीं बढ़ा |  रही बात सरकारी अनुदान की तो ज्यादातर अनुदान प्राप्त पत्रिकाओ या पुस्तकों के प्रकाशक प्रचार – प्रसार के लिए बहुत मेहनत नहीं करते | वो केवल ये देखते हैं की उनका घाटा पूरा हो गया है | इसलिए ज्यादातर अनुदान प्राप्त किताबें सरकारी लाइब्रेरियों के शो केस की शोभा बढाती हुई ही रह जाती हैं |कुल मिला कर स्तिथि बहुत अच्छी नहीं रही | पर अब समय बदल रहा है …… कुछ लोग हिंदी को एक ” ब्लूमिग सेक्टर ” के तौर पर देख रहे हैं | वो इससे लाभ की आशा कर रहे हैं | अगर ये व्यवसायीकरण भी कहे और हिंदी लोगों को रोटी दिलाने में सक्षम हो रही है तो कुछ भी गलत नहीं है | क्योंकि भाषा हमारी संस्कृति है , हमारी सांस भले ही हो पर पर उसको जिन्दा रखने के लिए ये जरूरी है की उससे लोगों को रोटी मिले | उदाहरण के तौर पर मैं हिंदी सिनेमा को लेना चाहती हूँ | जिसका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक ही क्यों न हो ….. पर जब एक रूसी मेरा  जूता है जापानी गाता है … तो स्वत : ही hindi के शब्द उसकी जुबान पर चढ़ते हैं और भारत व् भारतीय संस्कृति को जानने समझने की इच्छा पैदा होती है | कितने लोग हिंदी फिल्मों के कारण हिंदी सीखते हैं | कहने की जरूरत नहीं जो काम साहित्यकार नहीं कर पाए वो हिंदी फिल्में कर रही हैं |  किसी संस्कृति को जिन्दा रखने के लिए भाषा का जिन्दा रहना बहुत जरूरी हैं | पर क्या उसी रूप में जैसा की हम हिंदी को समझते हैं | यह सच है की साहित्यिक भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं है | और आम पाठक उसी साहित्य को पढना पसंद करता है जो आम बोलचाल की भाषा में हो | साहित्यिक भाषा पुरूस्कार भले ही दिला दे पर बेस्ट सेलर नहीं बन सकती | कुल मिला कर लेखक का वही दुखड़ा ” कोई हिंदी नहीं पढता ” रह जाता है | देखा जाए तो आम बोलचाल की हिंदी भी एक नहीं है | भारत में एक प्रचलित कहावत है “ चार कोस में पानी बदले सौ कोस पे बानी ” |  इसलिए हिंदी को बचाए रखने के लिए प्रयोग होने बहुत जरूरी हैं | आज हिंदी आगे बढ़ रही है उसका एक मात्र कारण है की प्रयोग हो रहे हैं | हिंदी में केवल साहित्यिक हिंदी पढने वाले ही नहीं डॉक्टर , इंजिनीयर , विज्ञान अध्यापक और अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग लिख रहे हैं | उनका अनुभव विविधता भरा है इसलिए वो लेखन में और हिंदी में नए प्राण फूंक रहे हैं | पाठक नए विचारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं | और क्योंकि लेखक विविध विषयों में शिक्षा प्राप्त हैं | इसलिए उन्होंने भावनाओं को अभिव्यक्त करने में भाषा के मामले में थोड़ी स्वतंत्रता ले ली है | हर्ष का विषय है की ये प्रयोग बहुत सफल रहा है | पढ़ें –व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाड़ा  आज हिंदी में तमाम प्रान्तों के देशज शब्द ख़ूबसूरती से गूँथ गए हैं | और खास कर के अंग्रेजी के शब्द हिंदी के सहज प्रवाह में वैसे ही बहने लगे हैं जैसे विभिन्न नदियों को समेट कर गंगा बहती है |यह शुभ संकेत है | अगर हम किसी का विकास चाहते हैं तो उसमें विभिन्नता को समाहित करने की क्षमता होनी कहिये , चाहे वो देश हो , धर्म हो, या भाषा | कोई भी भाषा जैसे जैसे विकसित व् स्वीकार्य होती जायेगी उसमें रोजगार देने की क्षमता बढती जायगी और वो समृद्ध होती जायेगी |आज क्षितिज पर हिंदी के इस नए युग की पहली किरण देखते हुए मुझे विश्वास हो गया है की एक दिन हिंदी का सूर्य पूरे आकश को अपने स्वर्णिम प्रकाश से सराबोर कर देगा | आप सब हो हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं यह भी पढ़ें … भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य मोह – साहित्यिक उदाहरणों सहित गहन मीमांसा कवि एवं कविता कर्म

पति -पत्नी के बीच सात्विक प्रेम को बढाता है तीज

विवाह की बस एक गाँठ दो अनजान – अपरिचित लोगोंको एक बंधन में बांध देती है जिसमें तन ही नहीं मन और आत्मा भी बंध  जाते हैं | जिससे ये प्रेम जिस्मानी नहीं रूहानी हो जाता है | वैसे भी कहते हैं जोड़े आसमान में बनाये जाते हैं | हमारे देश में तो पति पत्नी का रिश्ता जन्म – जन्मान्तर का माना जाता है |जिसके साथ जिन्दगी के हर छोटे से छोटे सुख – दुःख , अच्छे  – बुरे सब पल  बिताने हैं वो कोई अपरिचित तो नहीं हो सकता | उन दोनों को मिलाने में कोई न कोई दैवीय धागे जरूर काम करते हैं | | पति -पत्नी  बीच मनाये जाने वाले ये सारे व्रत त्यौहार उसी  सात्विक प्रेम को याद दिला कर  , प्रेम की रूहानी अनुभूति को तरोताजा कर देते हैं |ऐसा ही एक त्यौहार है तीज |                                               तीज का व्रत मुख्यत : बिहार और उत्तर प्रदेश में किया जाता है | इस दिन महिलाएं अपने पति की लंबी आयु के लिए निर्जला व्रत रखती हैं व् शिव , पार्वती और गणेश का पूजन करती हैं | पौराणिक मान्यता के अनुसार  शिव को पाने के लिए कुमारी पार्वती ने वर्षों तक कठोर तपस्या की | तब जा कर शिव जी प्रसन्न हुए और उन्हें अपनी पत्नी के रूप में स्वीकार किया |तीज को हरतालिका तीज भी कहते हैं क्योंकि पार्वती जी की सखियों ने उनका तपस्या करते हुए ही अपहरण कर लिया था | हरत  मतलब हरण व् आलिका मतलब सहेली | अर्थाथ सहेलियों द्वारा अपहरण करना हरतालिका कहलाया | मुख्यत : यह व्रत कुमारी कन्याओं द्वरा अच्छा सुयोग्य पति पाने के लिए किया जाता है | विवाहित  स्त्रियाँ इसे अपने पति की दीर्घायु की कामना के साथ करती हैं  | पूजन के लिए बालू की शिव पार्वती , गणेश , रिद्धि – सिद्धि व् पार्वती जी की सहेली की प्रतिमायें बनायीं जाती हैं | बाद में इनका बेल पात्र , आम के पत्ते , केवडा आदि से पूजन किया जाता है व् आरती की जाती हैं |रात में भजन कीर्तन आदि का बहुत महत्व है |  महिलाएं इस दिन निर्जला व्रत करती हैं व् अगले दिन पूजन करके व्रत खोलती हैं |                                           ये सच है की आज यह मांग उठी है है की अकेले पत्नी ही व्रत क्यों करे , पति को भी व्रत करना चाहिए | अगर पति ऐसा चाहते हैं तो वो भी व्रत कर सकते हैं | इन  व्रत त्योहारों को केवल परम्परा की दृष्टि से ही नहीं देखना चाहिए | नहीं तो सारे व्रत त्यौहार बस लकीर के फ़कीर हो कर रह जायेंगे | जैसे प्राण के बिना शरीर |अगर केवल लकीर ही पीटनी है तो पत्नी भी व्रत न करने के लिए स्वतंत्र है | पर पति भी व्रत करे इसे  मांग के रूप में नहीं माँगा जा सकता | क्योंकि प्रेम में कोई बराबरी नहीं होती | प्रेम अभिव्यक्ति में भी नहीं | प्रेम है तो छलकेगा , तरीका वही हो यह जरूरी नहीं | बराबरी व्यापार है  है और प्रेम व्यापर से परे  | जब कोई स्त्री अपने पति के लिए व्रत करती है | उसकी मंगलकामना और दीर्घायु के लिए व्रत करती है तो उसे भी एक आनंद की  प्राप्ति होती  है  | ये आनद होता है ” प्रेम का आनंद , समर्पण के भाव का आनंद, रिश्तों की गाँठ और मजबूत होने का आनंद  | जिसे तर्क द्वारा  सिद्ध नहीं किया जा सकता , केवल इसका अनुभव किया जा सकता है |जरूरत है तो हर छोटे बड़े अवसर पर रिश्ते की गाँठ को और मजबूत करने की | पति पत्नी के रिश्ते के आत्मिक और आध्यात्मिक महत्व को समझने की और जन्म – जन्मान्तर के साथ को सुखद और प्रेमपूर्ण बनाने की | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …………. देवशयनी एकादशी – जब श्रीहरी विष्णु होंगे योगनिद्रा में लीन क्यों ख़ास है ईद का चाँद उसकी निशानी वो भोला भाला राम नाम एक सम्पूर्ण मंत्र

लघुकथा – कला

तुम्हारा क्या … दिन भर घर में रहती हो … कोई काम धंधा तो है नहीं … यहाँ बक बक वहां बक बक … आराम ही आराम है … बस पड़े पड़े समय काटो । एक हम हैं दिन भर गधे की तरह काम करते रहते हैं । ये कहते हुए श्रीनाथ जी ऑफिस के लिए निकल गए  अनन्या आँखों में आंसू लिए खड़ी रही । ज्यादा पढ़ी लिखी वो है नहीं,  घर के कामों के अलावा उसके पास जो भी समय होता कभी टीवी चला लेती कभी किसी को फ़ोन मिला लेती … आखिर समय तो काटना ही था । पर पति पढ़ा लिखा पुरुष है …. ऊंची पदवी , नाम , उसके पास समय का सर्वथा अभाव रहता है । जो थोड़ा बहुत समय मिलता भी है वह आने जाने वाले खा जाते हैं । अनन्या के हिस्से में पति का समय तो नहीं आता पर शिकायत करने पर ताने जरूर आ जाते हैं । समय बदला … अब श्रीनाथ जी रिटायर हैं । न ऑफिस का काम है … न पदवी के कारण दिन भर घर पर लगा रहने वाला लोगों का मजमा । बच्चे दूसरे शहर में रहते हैं । माँ से तो घंटों फ़ोन पर बात करते है पर पिता से बस हाल चाल … क्योंकि एक तो श्रीनाथ जी को फ़ोन पर इतनी बात करने की आदत नहीं है और दूसरे समय अभाव के कारण बच्चों से इतना घनिष्ठ रिश्ता भी नहीं बना । अनन्या व्यस्त है । घर के काम … पड़ोस की औरतों के साथ सत्संग …आदि आदि । पति के लए अब उसके पास समय नहीं है । निराश … ऊबे हुए श्रीनाथ जी एकदिन अनन्या से पूछते है ‘ तुम कैसे इतनी आसानी से समय काट लेती हो ‘। अनन्य मुस्कराकर कहती है ‘ कोई चीज़ व्यर्थ नहीं जाती … आपने बड़ी बड़ी डिग्री हांसिल की जो जीवन भर आपके काम आई । मैंने केवल यही डिग्री हांसिल की जो अब मेरे काम आ रही है ‘। समय समय की बात है । आखिर समय काटना भी एक कला है । वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … चॉकलेट केक आखिरी मुलाकात गैंग रेप यकीन  आपको  कहानी  “लघुकथा – कला  “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |