बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

इतनी किताबों पर लिखने के बाद अगर किसी उपन्यास को पढ़ने के बाद भी ये लगे की मैं जो इस पर कहना चाह रही हूँ, उसके लिए शब्द साथ छोड़ रहे हैं तो मेरे विचार से इससे बढ़कर किसी उपन्यास के सशक्त होने का क्या प्रमाण हो सकता है | ऐसा ही उपन्यास है ऊर्मिला शुक्ल जी का बिन ड्योढ़ी का घर | एक उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा चार राज्यों, एक पड़ोसी देश की भाषाओं, रहन -सहन और जीवन को समेटे यह उपन्यास मुख्य तौर से स्त्री संघर्ष और उसके स्वाभिमान की गाथा है | ये गाथा है स्त्री जीवन के अनगिनत दर्दों की, ड्योढ़ी से बिन ड्योढ़ी के घर की तलाश की, सीता से द्रौपदी तक की, अतीत के दर्द से जूझते हुए स्त्री संघर्ष और उसके अंदर पनपते स्वाभिमान के वृक्ष की | अंत में जब तीन पीढ़ियाँ एक साथ करवट लेती है तो जैसे स्वाभिमान से भरे युग हुंकार करती हैं | पर अभी भी ये यात्रा सरल नहीं है | इतिहास गवाह है लक्ष्मण रेखा का | वो लक्ष्मण रेखा जो सीता की सुरक्षा के लिए भले ही खींची गई थी | पर उसको पार करना सीता का दोष नहीं कोमल स्त्रियोचित स्वभाव था | जिसका दंड रावण ने तो दिया ही .. पितृसत्ता ने भी दिया | उनके लिए घर की ड्योढ़ी हमेशा के लिए बंद हो गई और बंद हो गई हर स्त्री के लिए ड्योढ़ी के उस पार की यात्रा | घर की ड्योढ़ी के अंदर धीरे -धीरे पितृसत्ता द्वारा बनाई गईं ये छोटी -छोटी ड्योढ़ियाँ उसके अधिकार छीनती गई | खुली हवा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीवनसाथी चुनने का अधिकार और घर के अंदर किसी बात विरोध का अधिकार | “लड़की तो तभी अच्छी लगती है, जब तक उसके कदम ड्योढ़ी के भीतर ही रहते हैं | उसके कदमों ने ड्योढ़ी लांघी नहीं की ….और हमारी लड़की ने तो ड्योढ़ी लांघी ही नहीं उसे रौंद भी दिया | हमारी मान  मर्यादा का तनिक भी ख्याल नहीं किया उसने | ना, अब वो हमारी ड्योढ़ी के भीतर नहीं आएगी, कभी नहीं |” ये कहानी है कात्यानी और उसकी मां राम दुलारी की | सीता सी राम दुलारी के लिए पति का आदेश ही ईश्वरीय फरमान है | उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, तब भी नहीं जब बेटी के जन्म के बाद पिता उसकी उपेक्षा करते रहे, अनदेखा करते रहे, तब भी नहीं जब दूसरे प्रांत में ले जाकर किसी से हिलने मिलने पर रोक लगा दी, जब पितृसत्ता की कमान उन्हें सौंपते हुए बेटी का स्वाभाविक बचपन छीना, बेटी की पढ़ाई छुड़ाकर जिन भाइयों से दुश्मनी थी बिना जाँचे परखे उन्हीं के बताये लड़के से विवाह कर दिया और सबसे बढ़कर तब भी नहीं जब ससुराल से लुटी -पिटी आई कात्यायनी के लिए दरवाजा भी नहीं खोला | जो पुरुष स्त्री को बाहरी दुनिया में यह कहने से रोकते हैं, “तुम कोमल हो बाहर ना निकलो, क्योंकि बाहरी दुनिया कठोर है” विडंबना है कि वो ही उस स्त्री को अपनों के लिए कठोरता चाहते हैं | अपने दूध और रक्त संबंधों के लिए भी | प्रेम और सुरक्षा की चादर के नीचे ढंका ये वर्चस्व या अधिकार भाव बिना आहट किए ऐसे आता है की स्त्री भी उसके कदमों की थाप सुन नहीं पाती और पितृ सत्ता का हथियार बन जाती है | ‘पुरुष में जब मातृत्व भर उठता है तो उसके व्यक्तित्व में निखार आ जाता है और स्त्री में जब पितृत्व उभरने लगता है तो उसका जीवन धूमिल हो जाता है | उसकी विशेषताएँ खो जाती हैं और वो चट्टान की तरह कठोर हो जाती है |” उपन्यास में गाँव, कस्बों के स्त्री जीवन के उस हाहाकार का तीव्र स्वर है| जिसे शहर में बैठकर हम जान नहीं पाते | ऐसी ही है गडही माई की कथा, जिसमें गाँव के जमींदार जब गाँव की बेटियों बहुओं को उठा कर ले जाते तो घरवाले ही उन्हें गडही के जल में डूबा देते और प्रचलित कर देते की गाँव की बहु बेटियों पर माई का प्रकोप है | इसलिए जल्दी ही उनकी शादी कर दो और शादी के बाद दोबारा मायके नहीं आना है क्योंकि इसमें भी माई का श्राप है | एक बार की विदा हमेशा की विदा बन जाती | आपस में छोटी -छोटी बातों पर लड़ते पुरुष इस मामले में चुप्पी साध कर ऐका दिखाते | “जवान बेटियाँ और बहनें और कभी -कभी तो उनकी मेहरारू भी उठवा लि जातीं और वे विवश से देखते रहते |फिर उनके वापस आने पर लोक लाज के डर से उन्हें गढ़ही में डूबा आते , फिर कहते गढ़ही में कोई है जो उन्हें लील लेता है |फिर धर्म का चोला पहना दिया गया और वो गढ़ही से गढ़ही माई बन गईं |” “गढ़ही माई | इस जवाँर की वो अभिशाप थीं जिन्होंने लड़कियों को शाप ही बना डाला था |” और  दहेज के दानव के कारण डूबी कजरी और नंदिनी हैं तो कहीं खेतों में काम करने वालों की स्त्रियों पर गाँव के भया लोगों का अत्याचार, जो उन्हें अनचाही संतान को जन्म देने को विवश करता है, जिसे  वो अपना प्रारबद्ध माँ स्वीकार कर लेती हैं |तो कहीं गंगा भौजी का किस्सा है | अपने चरित्र को निर्दोष साबित करने वाले जिसके चरित्र पर लांछन लगाये जाते रहे | गाँव बाहर कर के भी उसकी बारे में बेफजूल की कथाएँ बनती रहीं पर उसने उन्हीं के बीच में … Read more

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

  कुछ घटनाएँ हमारे जीवन में इस प्रकार घटती हैं कि हमें यह लगने लगता है कि बस ये घटना ना घटी होती तो क्या होता? हमें “संसार” सरल दिखता ज़रूर है लेकिन होता बिल्कुल नहीं; इसलिए अकस्मात जहाँ आकर हमारी सोच थिर जाती है, उसके आगे से संसार अपना रूप दिखाना शुरू करता है। और जब हमें ये लगने लगता है कि बस हमने तो सब कुछ सीख लिया, सब कठिनाइयों को जीत लिया है; बस आपके उसी आह्लादित क्षणों में ना जाने कहाँ से एक नन्हा सा “हार” का अंकुर आपके ह्रदय में ऐसे फूट पड़ता है कि उसे दरख़्त बनते देर नहीं लगती। सपनों के राजमार्ग पर चलते-चलते एक छोटी सी कंकड़ी से हम उलझकर धड़ाम से गिरते हैं कि धूल चाट जाते हैं। जितना ये सत्य है उतना ही ये भी सही है कि हम कठिनाइयों के गहरे अवसाद में जब नाक तक डूबे होते हैं और निरंतर किनारे को अपने से दूर सरकते हुए देख रहे होते हैं; हमें बिल्कुल ये लगने लगता है कि अबके साँस गई तो फिर लौट कर नहीं आएगी बस उन्हीं गमगीन भीगे-से क्षणों में रहस्यमयी अंधकार भरे दलदल के ऊपर रेंगता हुआ एक सीलन का कीड़ा हमारा मार्गदर्शन कर जाता है। रेंग-रेंग कर वह हमें ऐसी युक्ति दे जाता है कि लगता है कि जो किनारा पूरी तरह से ओझल हो चुका था वह ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे पास कैसे सरक आया। वो फोन कॉल -कहानी की कुछ पंक्तियाँ “वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी दरअसल में बात कह रही हूँ अभी हाल ही में भावना प्रकाशन से प्रकाशित वंदना बाजपेई जी का नया कहानी संग्रह “वो फोन कॉल” की। इसकी कहानियाँ भी कुछ इसी प्रकार का मनोभाव लिए पाठक को अपने साथ लिए चलती हैं। संग्रह में १३ कहानियाँ हैं। कहानियों का मूलभाव वंचित वर्ग का दुःख, आक्रोश, विकास की लिप्सा, झूठे आडंबर, रूढ़िवादिता में जकड़ा मध्यम वर्ग ही है। सबसे पहले तो वन्दना जी की तारीफ़ इस बात की जानी चाहिए कि उन्होंने कहानी संख्या के लिए उस अंक को चुना है जिसको साधारण लोगों को अक्सर बचते-बचाते देखा जाता है। यानी कि आपके इस पुस्तक में “13” कहानियाँ संग्रहित की हैं। एक मिथक को तो लेखिका ने ऐसे ही धराशाही कर दिया। अब बात करती हूँ आपकी कहानियों की तो सबसे पहले मेरा लिखा सिर्फ एक पाठक मन की समझ से उत्पन्न बोध ही समझा जाए। खैर, वंदना जी की कहानियों की भाषा सरल और हृदय के लिए सुपाच्य भी है। किसी बात को कहने के लिए वे प्रतीकों का जाल नहीं बुनती हैं। और न ही कहानियों का लम्बा-चौड़ा आमुख रचती हैं । वे प्रथम पंक्ति से ही कहानी को कहने लगती हैं इससे आज के भागमभाग जमाने के पाठक को भी आसानी होगी। स्त्री होने के नाते वन्दना जी की कहानियों के तेवर स्त्रियों की व्यथा-कथा को नरम-गरम होते चलते हैं। निम्न मध्यम वर्ग की उठापटक को भी उन्होंने बेहतरी से पकड़ा है। शीर्षक कहानी “वो फ़ोन कॉल” की यदि मैं बात करूँ तो ये कहानी बच्चों और उनके अभिभावक,समाज और रिश्तेदारों की मानसिक जद्दोजहद की कहानी कही जा सकती है। जिसमें किरदार तो सिर्फ दो लड़कियाँ ही हैं किंतु वे जो अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, उसको पढ़ते हुए मन भीग-भीग गया। वहीं ये कहानी पाठक के लिए एक युक्ति भी सहेजे दिखती है। जो इस कहानी को पढ़ चुके हैं वे समझ गए होंगे। और जिनको समझना है वे ज़रूर पढें। लेखिका ने कहानी को अपनी गति से बढ़ने दिया है। पढ़ते हुए जितनी पीड़ा होती है उतना ही संतोष कि स्त्री जीवित रहने के लिए आसरा खोजना सीख रही है। “तारीफ़” कहानी में कैसे स्त्री अपनी तारीफ़ सुनने को लालयित रहती है कि कोई उसका अपना ही उसके बुढ़ापे को ठग लेता है। वहीं “साढ़े दस हज़ार….!” के लिए जो क़िरदार लेखिका ने चुने हैं उसमें नौकरी पेशा और गृहणी के बीच की मानसिक रस्साकसी खूब द्रवित करती है। “सेवइयों की मिठास” के माध्यम से लेखिका ने धर्मांधता को शांत भाव से उजागर किया है। किसी के धर्म, पहनावे ओढ़ावे को देखकर हम ‘जजमेंटल’ होने लगते हैं। उस बात को आपने सफ़ाई और कोमलता से कही है कि पढ़ते हुए आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। “आखिर कब तक घूरोगे” कहानी पढ़ते हुए तो लगा कि एक सामान्य-सी ऑफिस के परिवेश की बात लिए होगी कहानी लेकिन नायिका के द्वारा बॉस को जो सबक मिलता है,वह कमाल का है। ये लेखिका की वैज्ञानिक सोच का नतीज़ा ही कहलाएगा। “प्रिय बेटे सौरभ” कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो ममता में कैसे अपने को गलाती रहती है और बेटा अपने को विकसित करता रहता है; और बहुत बाद में जब माँ तस्वीर में बदल जाती हैं, बस दो बूँद आँसू छलका कर सॉरी बोलता है कि तस्वीर वाली माँ भी कह उठती है कोई बात नहीं। “अम्मा की अंगूठी” कहानी ने बहुत गुदगुदाया, बचपन के किस्से याद दिलाए। इस रचना को हम यादों की गुल्लक भी कह सकते हैं। पहले पति कैसे पत्नि को सबक सिखाता था की बच्चों की हँसी ठट्ठा के साथ मौज हो जाती थी। माँ-बाप के उलझाव में बच्चों के संवाद और उसपर वंदना जी की भाषा, पढ़ते हुए खूब आनंद आया। “जिन्दगी की ई एम आई” कहानी को वन्दना जी ही लिख सकती थीं। इस कहानी का विषय हमारी नवा पीढ़ी का दुःख-दर्द समेटे है।आज के परिवेश में न जाने कितने देवांश इतने अकेले होंगे कि किसी गलत संगत के शिकार हो जाते होंगे। कथा पढ़ते हुए एक थ्रिल का अहसास होता है लेकिन अंत पाठक को सांत्वना देने में सक्षम है। “बद्दुआ” बद्दुआ में कैसे अपनों का दंश लिए हुए एक बच्चा अपने जीवन के उतार-चढ़ाव झेलता हुआ चलता है………।लेकिन अंत इसका भी सुखद है। ”प्रेम की नई बैरायटी” कहानी भी पूरे मनोभाव के साथ पाठक को अपने साथ-साथ लिए चलती हैं। संध्या,उसकी माँ,पति और स्कूल के छात्रों में पनपते गर्ल फ्रैंडस-बॉयफ्रेंड्स के नये चाल-चलन और नये जमाने के प्रेम पर खूब दिलचस्प बात कहते हुए ये कहानी भी पाठक को एक सुखद जतन सिखा जाती है। “वजन” कहानी पढ़ते हुए कितनी मन में कितनी कौंध,डर, आक्रोश और इस दर्द से जूझते कितने चेहरे … Read more

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा - स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

पति द्वारा श्रापित अहिल्या वातभक्षा बन राम की प्रतीक्षा करती रहीं | और अंततः राम ने आकर उनका उद्धार किया | ना जाने इस विषय पर कितनी कहानियाँ पढ़ी, कितनी फिल्में देखीं जहाँ बिम्ब के रूप में ही सही तथाकथित वातभक्षा अहिल्या के उद्धार के लिए राम सा नायक आ कर खड़ा है | पर पद्मश्री उषाकिरण खान जी के नए उपन्यास “वातभक्षा” वीथिका को किसी राम की प्रतीक्षा नहीं है, उसके साथ स्त्रियाँ खड़ी हैं | चाहे वो निधि हो, यूथिका हो, रम्या इंदु हो या शम्पा | यहाँ स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, कला को समर्पित है, परिवार का भार उठाती है पर समाज का ताना -बाना अभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं है | तो उसके विरुद्ध कोई नारे बाजी नहीं है, एक सहज भाव है एक दूसरे का साथ देने का | एक सुंदर सहज पर मार्मिक कहानी में “स्त्री ही स्त्री की शक्ति का” का संदेश गूँथा हुआ है | जिसके ऊपर कोई व्याख्यान नहीं, कहीं उपदेशात्मक नहीं है पर ये संदेश कहानी की मूल कथा में उसकी आत्मा बन समाया हुआ है | वातभक्षा -राम की प्रतीक्षा की जगह स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री पद्मश्री -उषाकिरण खान ये कहानी हम को उस दौर में ले जाती है जब आजादी मिले हुए 16, 17 वर्ष ही बीते थे | पर लड़कियाँ अपनी शिक्षा के लिए, आर्थिक स्वतंत्रता के लिए, और अधिकारों के लिए सचेत होने लगीं थी | समाज शास्त्र एक नए विषय के रूप में आया था जिसमें अपना भविष्य देखा था वीथिका और उसकी सहेली निधि ने | पिता जमीन जायदाद, भाई का ना होना या भाई को खो देना, दुख दोनों के जीवन की कथा रही पर चट्टान की तरह एक दूसरे के साथ वो खड़ी रहीं | यूँ तो दुख के बादल सभी के जीवन में आए किन्तु निधि और यूथिका को तो अंततः किनारा मिल गया पर वीथिका के जीवन में दुख ठहर गया | जैसा की शम्पा एक जगह कहती है .. ‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है | हम कितने भी स्वतंत्र क्यों ना हों हमारी जड़े काट दे जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिए जाते हैं, हमारे फूल निष्फल हो जाते हैं |” कहानी में एक तरफ जहाँ जंगल है, हवा है, प्रकृति है, अरब देश में तेल का अकूत भंडार पता चलने के बाद वहाँ बसी नई बस्तियां हैं तो वहीं समाज शास्त्र विषय होने के कारण जनजातियों के विषय में जानकारी है, सेमीनार हैं, आलेख तैयार करने के तरीके, हॉस्टल है स्त्री- स्त्री के रिश्तों की तरफ बढ़ी स्त्री की भी झलक है | मुख्य कहानी है प्रो. शिवरंजन प्रसाद उनकी पत्नी रम्या इंदु और वीथिका की | रम्या इंदु एक प्रसिद्ध गायिका है , पर वो सुंदर नहीं हैं | प्रोफेसर साहब सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं | पर उनका प्रेम विवाह है | शुरू में बेमेल से लगती इस जोड़ी के सारे तीर और तरकश प्रोफेसर के हाथ में हैं | उनकी शोध छात्रा के रूप में निबंधित वीथिका उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण से अपने को मुक्त रखती पर एक समय ऐसा आता है जब .. “यह मन ही मन विचार कर रही थी कि उनका स्पर्श उसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है |ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके कामी हैं ? उपन्यास की सबसे खास बात है रम्या इंदु की सोच और उनका व्यवहार | अपने पति का स्वभाव जानते हुए वो दोष वीथिका को नहीं देती | “मेरा पति छीन लिया” का ड्रमैटिक वाक्य नहीं बोलती वरण उसका साथ देते हुए कहती हैं … “वीथिका मैं तुम्हें इतना बेवकूफ नहीं समझती थी | तुम इन पुरुषों के मुललमें में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था | वरना मैं तुम्हें समझा देती | मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब जानती हूँ |” वीथिका, एक अनब्याही माँ, की पीड़ा से पाठक गहरे जुड़ता जाता है जो वायु की तरह अपने बेटे के आस -पास तो रहती है पर मौसी बन कर | समाज का तान बाना उसकी स्वीकारोक्ति में रुकावट है पर जीवन भर प्यासी रहने का चयन उसका है | उसके पास कई मौके आते है अपने जीवन को फिर से नए सिरे से सजाने सँवारने के पर उसके जीवन का केंद्र बिन्दु उसका पुत्र है .. जिसके होते हुए भी वो अकेली है | “जिंदगी बार -बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओ लौटा लाती है |” इस कहानी के समानांतर निधि और श्यामल की कथा है | जाति -पाती के बंधनों को तोड़ एक ब्राह्मण कन्या और हरिजन युवक का विवाह और सुखद दाम्पत्य है | बदलते समाज की आहट की है, जी सुखद लगती है | अंत में मैं यही कहूँगी की आदरणीय उषा किरण खान दी की लेखनी अपने प्रवाह किस्सागोई और विषय में गहनता के कारण पाठकों को बांध लेती है | कहानी के साथ बहते हुए ये छोटा और कसा हुआ उपन्यास स्त्री के स्त्री के लिए खड़े होने को प्रेरित करता है | वातभक्षा -उपन्यास लेखिका – पद्मश्री उषा किरण खान प्रकाशक – रूदरादित्य प्रकाशन पेज -94 मूल्य – 195 अमेजॉन लिंक –https://www.amazon.in/…/Ush…/dp/B09JX1K8LK/ref=sr_1_6… समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ आपको समीक्षात्मक लेख “उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री” कैसा लगा ? हमें अपने विचारों से अवश्य परिचित करवाए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा

जीते जी इलाहाबाद

यात्रीगण कृपया ध्यान दे .. अब से ठीक कुछ लम्हों बाद हम एक अनोखी यात्रा पर जा रहे हैं | इस यात्रा की पहली खास बात यह है की आप जिस भी देश में, शहर में, गाँव में बैठे हुए हैं वहीं से आप इस यात्रा में शामिल हो सकते हैं |यूँ तो नाम देखकर लग सकता है की ये यात्रा इलाहाबाद  की यात्रा है जो एक समय शिक्षा का साहित्य का और संस्कृति का केंद्र रहा है | गंगा, जमुना और सरस्वति की तरह इस संगम को भी जब वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया जी अपनी किताब “जीते जी इलाहाबाद में लेकर आती हैं तो इलाहाबादी अमरूदों की तरह उसकाई खास खुशबू, रंगत और स्वाद समाहित होना स्वाभाविक ही है | जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा  एक ही किताब में ये संस्मरणात्मक यात्रा महज इलाहाबाद की यात्रा नहीं है | ये यात्रा है  आधुनिक हिंदी साहित्य के बेहद जरूरी पन्नों की, ये यात्रा है  उस प्रश्न की, की क्यों हमारे बुजुर्ग हमारे घर आने पर वो अपनापन महसूस नहीं कर पाते और चार दीवारी के अंदर अपना शहर तलाशते रहते हैं, ये यात्रा है  इलाहाबाद की लोक कला और गंगा जमुनी संस्कृति की, ये यात्रा थी चौक, रानी मंडी, मेहदौरी की, ये यात्रा थी भावनाओं की, ये यात्रा थी तमाम उन विस्थापितों की जो दूसरे शहर या देश में रोटी के कारण बस तो जाते हैं पर उनके सीने में उनका छोटा गाँव या शहर दिल बन के धड़कता रहता है | तभी तो ममता कालिया दी “आमुख” में लिखती हैं कि.. “शहर पुड़िया में बांधकर हम नहीं ला सकते साथ, किन्तु स्मृति बन के वो हमारे स्नायु तंत्र में, हूक बनकर हमारे हृदय तंत्र में, और दृश्य बनकर आँखों के छविगृह में चलता फिरता नजर आता है |” “शहर छोड़ने से छूट नहीं जाता, वह खुशब, ख्याल और ख्वाब बन कर हमारे अंदर बस जाता है|” मन का अपना ही एक संसार होता है .. जहाँ आप शरीर से होते हैं वहाँ हो सकता है आप पूरे ना हों पर जहाँ आप मन से होते हैं वहाँ आप पूरे होते हैं |  कोई भी रचना कालजयी तब बनती है जब लेखक अपने दर्द से पाठक के किसी दर्द को छू लेता है | वहाँ द्वैत का भेद खत्म हो जाता है, लेखक -पाठक एक हो जाते हैं .. और रचना पाठक की रचना हो जाती हैं | जो लोग इलाहाबाद में रह रहे हैं या कभी रहे हैं वो उन नामों से जुड़ेंगे ही पर ये किताब हर विस्थापित का दर्द बयान करती है | एक बहुत ही सार्थक शीर्षक है “जीते जी इलाहाबाद” | जब तक जीवन है हमारा अपना शहर नहीं छूटता | शरीर कहीं भी हो, मन वहीं पड़ा रहता है | जैसे ममता दी का रहता है, कभी संगम के तट पर, कभी 370, रानी मंडी में कभी गंगा -यमुना साप्ताहिक अखबार में, कभी मेहदौरी के दीमक लगे सागौन के पेड़ में और कभी एक दूसरे को जोड़ते साहित्यिक गलियारों में|जैसे वो घोषणा कर रही हों की जीवन में वो कहीं भी रहें मन से इलाहाबाद में ही रहेंगी | किताब में ही एक घटना का वर्णन है …. ममता दी लिखती हैं कि, “अरे वे हरे चने कहाँ गए ताजगी से भरे ! यहीं तो रखे हुए थे, मैं तोड़ कर छील कर खा रही थी…. इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है | वह गड्ढों-दु चकों से भर ढचर ढूँ शहर जहँ कोई ढंग की जीविका भी नहीं जुटा पाए हम, आज मुझे अपने रूप रस गंध और स्वाद से सराबोर कर रहा है | कितने गोलगप्पे खाए होंगे वहाँ, और कितनी कुल्फी| कितनी बार सिविल लाइंस गए होंगे |” मैंने इन पंक्तियों को कई बार पढ़ा | क्योंकि  ये पंक्तियाँ शायद हर विस्थापित की पंक्तियाँ हैं | मेट्रो शहर सुविधाओं के  मखमली कालीन के नीचे य हमारे “हम को तोड़ कर “मैं” बना देते है | जो कोई भी छोटे शहर से किसी मेट्रो शहर की यात्रा करता है वो इस बात का साक्षी होता है | वो बहुत दिन तक इस “हम” को बचाए रखने की कोशिश करता है पर अंततः टूट ही जाता है | हर मेट्रो शहर का स्वभाव ही ऐसा है | समाज के बाद घर के अंदर पनपते इस “मैं”को “हम” में बचाए रखने की जद्दोजहद शायद हर विस्थापित ने झेली है | मशीन सी गति पर दौड़ता ये शहर हमें थोड़ा सा मशीन बना देता है | मुझे कभी -कभी w w Jacobs की कहानी “The Monkey’s Paw” याद आती है | एक विश पूरी करने पर एक सबसे प्रिय चीज छिन जाएगी | और ना चाहते हुए भी भावनाएँ चढ़ा हम तनख्वाह घर लाते हैं | ममता दी लिखती है, “अपने शहर का यही मिजाज था, तकल्लुफ ना करता था, ना बर्दाश्त करता |इसलिए इलाहाबादी इंसान जितना अच्छा मेजबान होता है उतना अच्छा मेहमान नहीं | एक यात्रा उम्र की भी होती है, जब पता चलता है कि हमारे बुजुर्ग जो बात आज हमसे कह रहे हैं उसका अर्थ हमें 20 साल बाद मिलेगा | जैसा ममता दी लिखती हैं कि, “आज मैं समझ सकती हूँ चाई जी की शिकायत और तकलीफ क्या थी |उनके लिए पंजाब देश था और यू पी परदेश| वे मन मार कर इलाहाबाद आ गईं थीं पर उनकी स्मृतियों का शहर जालंधर उनके अंदर से कभी उखड़ा ही नहीं | उनकी तराजू में हमारा शहर हार जाता |” सांस्कृतिक यात्रा के साथ ममता दी इलाहाबाद के इलाकों में तो ले ही जाती हैं इलाहाबाद के नाम पर भी चर्चा करती हैं | इलाहाबाद से प्रयागराज नाम हो जाने का भी जिक्र है | प्रयाग यानी ऐसी भूमि जिस पर कई यज्ञ हो चुके हों | वो संगम क्षेत्र है | और ‘इलाहाबाद’ लोगों के दिलों में धड़कता हुआ | प्रयाग वानप्रस्थ है तो इलाहाबाद गृहस्थ | अकबर ने कभी जिसका नाम अलाहाबाद किया था वो वापस इलाहाबाद में बदल गया | इस किताब से एक अनोखी जानकारी मिली की इलाहाबाद शब्द इलावास. से आया है | इलावस .. . संसार में बेटी के नाम पर बसा लगभग अकेला शहर … Read more

अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ

अंतर्ध्वनि

लय, धुन, मात्रा भाव जो, लिए चले है साथ दोहा रोला मिल करें, छंद कुंडली नाद छंद कुंडली नाद, लगे है मीठा प्यारा सब छंदों के बीच, अतुल, अनुपम वो न्यारा ज्यों शहद संग नीम, स्वाद को करती गुन-गुन जटिल विषय रसवंत, करे छंदों की लय धुन वंदना बाजपेयी दोहा और रोला से मिलकर बने, जहाँ अंतिम और प्रथम शब्द एक समान हो .. काव्य की ये विधा यानी कुंडलियाँ छंद मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं | इसलिए आज जिस पुस्तक की बात करने जा रही हूँ, उसके प्रति मेरा सहज खिंचाव स्वाभाविक था| पर पढ़ना शुरू करते ही डूब जाने का भी अनुभव हुआ | तो आज बात करते हैं किरण सिंह जी द्वारा लिखित पुस्तक “अंतर्ध्वनि” की | अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ लेखिका -किरण सिंह जानकी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक बेहद खूबसूरत कवर के अंदर समाहित करीब दो सौ कुंडलियाँ कवयित्री के हृदय की वो अंतर्ध्वनि है जो हमारे समकाल से टकराकर उसके हृदय को ही गुंजायमान नहीं करती अपितु पाठक को भी आज के समय का सत्य सारस सुंदर तरीके से समझा कर कई नई परिभाषाएँ गढ़ती है | अपनी गेयता के कारण कुंडलियाँ छंद विधा जितनी सरस लगती है उसको लिखना उतना ही कठिन है | वैसे छंद की कोई भी विधा हो, हर विधा एक कठिन नियम बद्ध रचना होती है | जिसमें कवि को जटिल से जटिल भावों को नियमों की सीमाओं में रहते हुए ही कलम बद्ध करना होता है | ये जीवन की जटिलता थी या काव्य की, जिस कारण कविता की धारा छंदबद्ध से मुक्त छंद की ओर मुड़ गई | कहीं ना कहीं ये भी सच है की मुक्तछंद लिखना थोड़ा आसान लगने के कारण कवियों की संख्या बढ़ी .. लेकिन प्रारम्भिक रचनाएँ लिखने के बाद समझ आता है की मुक्त छंद का भी एक शिल्प होता है जिसे साधना पड़ता है | और लिखते -लिखते ही उसमें निखार आता है | अब प्रेम जैसे भाव को ही लें .. कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजि यात। भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥ बिहारी —— प्यार किसी को करना लेकिन कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या हरिवंश राय बच्चन ——– चम्पई आकाश तुम हो हम जिसे पाते नहीं बस देखते हैं ; रेत में आधे गड़े आलोक में आधे खड़े । केदारनाथ अग्रवाल तीनों का अपना सौन्दर्य है | पर मुक्त छंद में भी शिल्प का आकाश पाने में समय लगता है और छंद बद्ध में कई बार कठिन भावों को नियम में बांधना मुश्किल | जैसा की पुस्तक के प्राक्कथन में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी रवींद्र उपाध्याय जी की पंक्तियाँ के साथ कहते हैं की तपन भरा परिवेश, किस तरह इसको शीत लिखूँ जीवन गद्ध हुआ कहिए कैसे गीत लिखूँ ? “मगर इस गद्य में जीवन में छंदास रचनाओं की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है, जो कभी पाठक को आंदोलित करे तो कभी अनुभूतिपरक मंदिर फुहार बन शीतलता प्रदान करे |” शायद ऐसा ही अंतरदवंद किरण सिंह जी के मन में भी चल रहा होगा तभी बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष श्री अनिल सुलभ जी के छंद बद्ध रचना लिखने को प्रेरित करने पर उन्होंने छंद बद्ध रचना को विवहित और छंद मुक्त रचना को लिव इन रेलेशन शिप की संज्ञा देते हुए एक बहुत खूबसूरत कविता की रचना की है | जिसे “अपनी बात” में उन्होंने पाठकों से साझा किया है | लिव इन रिलेशनशिप भी एक कविता ही तो है छंद मुक्त ना रीतिरिवाजों की चिंता न मंगलसूत्र का बंधन न चूड़ियों की हथकड़ी न पहनी पायल बेड़ी खैर ! किरण सिंह जी की मुक्त छंद से छंद बद्ध दोहा , कुंडली, गीत आदि की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ और हर बार उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा पाठकों को मनवाया है | भाव प्रवणता और भाषा दोनों पर पकड़ इसमें उनकी सहायक बनी है | इस पुस्तक की शुरूआत “समर्पण” भी लेखक पाठक रिश्ते को समर्पित एक सुंदर कुंडलिया से की है | लेखक पाठकों की भावनाओं को शब्द देता है और पाठक की प्रतिक्रियाएँ उसे हर्षित हो कर बार -बार शब्द संसार रचने का साहस , देखिए तेरा तुझको अर्पण वाला भाव …. अर्पित करने मैं चली, लेकर अक्षर चंद | सज्ज हो गई भावना, बना पुन: नव छंद | बना पुन :नव छंद, लेखनी चली निरंतर | मुझको दिया समाज हमेशा नव -नव मंतर | देती है सो आज , किरण भी होकर हर्षित | रचनाओं का पुष्प गुच्छ है तुमको अर्पित || शुरुआती पृष्ठों पर प्रथम माता सरस्वती की आराधना करते हुए अन्य देवी देवताओं को प्रणाम करते हुए उन्होंने सूर्यदेव से अपनी लेखनी के लिए भी वरदान मांगा है .. लेकिन यहाँ व्यष्टि में भी समष्टि का भाव है | हर साहित्यकार जब भी कलम उठाता है तो उसका अभिप्राय यही होता है की जिस तरह सूर्य की जीवनदायनी किरणें धरती पर जीवन का कारक हैं उसे प्रकार उसकी लेखनी समाज को दिशा दे कर जीवन की विद्रूपताओं को कुछ कम कर सके , चाहे इसके लिए उसे कितना भी तपना क्यों ना पड़े | मुझको भी वरदान दो, हे दिनकर आदित्य | तुम जैसा ही जल सकूँ, चमकूँ रच साहित्य | चमकूँ रच साहित्य, कामना है यह मेरी | ना माँगूँ साम्राज्य, न चाहूँ चाकर चेरी | लिख -लिख देगी अर्घ्य किरण, रचना की तुमको | कर दो हे आदित्य, तपा कर सक्षम मुझको || अभी हाल में हमने पुरुष दिवस मनाया था | वैसे तो माता पिता में कोई भेद नहीं होता पर आज के पुरुष को कहीं ना कहीं ये लगता है की परिवार में उसके किए कामों को कम करके आँका जाता है | यहाँ पिता की भूमिका बताते हुए किरण जी बताती है कि बड़े संकटों में तो पिता ही काम आते हैं | मेरा विचार है की इसे पढ़कर परिवार के अंदर अपने सहयोग को मिलने वाले मान की पुरुषों की शिकायत कम हो जाएगी … संकट हो छोटा अगर, माँ चिल्लाते आप आया जो संकट बड़ा, कहें बाप रे बाप | कहें बाप रे बाप, बचा लो मेरे दादा | सूझे … Read more

वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ

वो फोन कॉल

अटूट बंधन की संपादक ,बेहद सक्रिय, संवेदनशील साहित्यकार वंदना बाजपेयी जी का दूसरा कहानी संग्रह “ वो फोन कॉल” भावना प्रकाशन से आया है।इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं। आपकी तीन कहानियाँ “वो फोन कॉल, दस हजार का मोबाईल और “जिंदगी की ई. एम. आई” पढ़ते हुये “मार्टिन कूपर” याद आये। तीनों कहानियाँ में मोबाइल ही प्रमुख पात्र है या परिवेश में मौजूद है। “वो फोन कॉल” में मोबाइल जिंदगी बचाने का माध्यम बना है तो “जिंदगी की ई.एम.आई” में किसी को मौत के मुहाने तक ले जाने का बायस भी वही है। वहीं “दस हजार का मोबाइल” कहानी में मद्धयमवर्गीय जीवन के कई सपनों की तरह ही महंगा मोबाइल भी किस तरह एक सपना बन कर ही रह जाने की कथा है।“दस हजार का मोबाइल” लाखों मद्धयमवर्गीय परिवारों की एक सच्ची और यथार्थवादी कथा है। मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती- “वो फोन कॉल” मोबाइल के जनक “मार्टिन कूपर” ने जब मोबाइल का अविष्कार किया होगा तो कल्पना भी नहीं की होगी की इक्सवीं सदी में आम से लेकर खास और भारत के गांव से लेकर विदेशों तक फोन कॉल लोगों के मानसिक, अद्ध्यात्मिक , वैवसायिक और राजनैतिक जीवन में इंटरनेट से जुडते ही संचार क्रांति की अविस्मरणीय आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक साबित होगा। मोबाइल इंटरनेट के साथ संचार माध्यम का सबसे सस्ता और अतिआवश्यक जरुरत साबित होगा।वैसे देखा जाये तो मोबाइल से लाभ ज्यादा और नुकसान कम ही हुये हैं। बहुत पीछे नहीं अभी का ही लेखा-जोखा लेकर बैठे तो वैश्विक महामारी “कोरोना “और उसके पश्चात लॉकडाउन में लोगों के बीच मोबाइल इंटनेट किसी वरदान की तरह ही काम आया। कोरोना के अप्रत्याशित हमले से घबड़ायी- पगलाई और भयभीत दुनिया ने फोन कॉल्स और सोशल मीडिया के द्वारा एक-दूसरे की खूब मदद की और एक-दूसरे के हृदय में समयाये मृत्यु के भय और अकेलापन को दूर किया। कनाडाई विचारक मार्क्स मैकलुहान ने जब अपनी पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग मीडिया” (1960) में” ग्लोबल विलेज” शब्द को गढ़ा था उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं कि होगी इस दार्शनिक की ग्लोबल विलेज की अवधारणा इतनी दूरदर्शी साबित होगी।और वाकई में 21वीं सदी में दुनिया मोबाइल-इंटरनेट के तीव्र संचार माध्यम के कारण ग्लोबल विलेज में बदल जायेगी। एक क्लिक पर दुनिया के किसी कोने में बैठे व्यक्ति से मानसिक तौर पर जुड़ जायेंगे। मैकलुहान की ग्लोबल विलेज की अवधारणा दुनिया भर में व्यक्तिगत बातचीत और परिणामों को शामिल करने के साथ लोगों की समझ पर आधारित था।इंटरनेट के आने के बाद (1960 के दशक इंटरनेट आ चुका था ।) शीत युद्ध के दौरान गुप्त रूप से बहुत तेज गति से सूचनाओं के आदान प्रदान करने की आवश्यकता हुई । अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने सैनिकों के लिए इसका आविष्कार कर किया था) साइबर क्राइम और ट्रोलिंग की नई संस्कृति ने मानसिक तनाव भी खूब दिये।बरहाल मोबाइल और इंटरनेट की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ गिनने लगे तो कई पन्ने भर जायेंगे। और मोबाइल और मास मीडिया पर निबंध लिखने की कोई मंशा नहीं है मेरी। लेखिका की पहली कहानी “वो फोन कॉल” जो संग्रह का शीर्षक भी बना है ।इस शीर्षक से मैंने अनुमान किया था, कोई संस्पेंस से भरी थ्रीलर कहानी होगी। संस्पेंस तो है पर यह कोई जासूसी कहानी नहीं है। यह समाजिक अवधारणायों पर विचार- विमर्श तैयार करती, जीवन संघर्ष के लिए मजबूत करती मानवीय संबंधों की भावनात्मक सच्ची सरोकारों की कहानी है। एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है। जो हमारे आस-पास है। उसे हमारी जरुरत है पर हम उसे नहीं जानते। या हमें समय ही नहीं है उसे जानने की। या जान भी गये तो उसकी सच्चाई को स्वीकार करने का मनोबल नहीं है। अपनी रुढीगत अवधारणाओं को तोड़ कर ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं। “वो फोन कॉल” पाठक को जीवन संघर्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। प्रकृति सबको समान रुप से देखती है। वह विभिन्नता के कारण किसी को कम या ज्यादा नहीं देती है। अपने ऊपर सबको समान अधिकार देती है। मनुष्य ही है जो विभिन्नता को अवगुण समझ भेद-भाव करता है।“ वो फोन कॉल” इस विमर्श को सधे शब्दों में पूरजोर तरीके से उठाती है। “वो फोन कॉल” में जहाँ मोबाइल एक अनजान व्यक्ति की जिंदगी बचाने के काम आता है। मानवीय संवेदनाओं और संबंधों की नई खिड़की भी खोलता है। “ जिंदगी की ई. एम.आई”में उसी मोबाइल इंटनेट के विकृत चेहरे और संबंधों में आई तकनीकी कठोरता के कारण सहज संबंधों से दूर जटिल उलझन भरे रास्तों पर जाते हुये देखा जा सकता है। किंतु कहानी के पात्र भाग्यशाली हैं।समय रहते भटके हुये रास्तों से अपने मूल जड़ों की ओर उनकी वापसी हो जाती है। किंतु आम जीवन में सबका भाग्य साथ दे। जरुरी नहीं है। शहरी दंपत्ति अपने महंगे फ्लैट की ई एम आई भरने के लिए 24 घन्टे तनाव भरी जिंदगी जीते हैं और अपने बच्चे को अकेला छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह हत्यारिन ब्लू व्हेल गेम के चक्रव्यूह में फंस जाता है। बड़े- बुजुर्ग हमेशा कहते हैं-“ जैसा अन्न वैसा मन”।खान-पान की शुचिता कोई रुढीगत अवधारणा नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच इसके पीछे रही है। समय के साथ इस परंपरागत अवधारणा में छूत-छात जैसी मैल पड़ गई थी। किंतु मूल भाव यही था कि ईमानदारी से मेहनत करें, किसी प्रकार की चलाकियाँ न करें,किसी कमजोर को सताये नहीं। और ईमानदारीपूर्वक कमाये धन से जीवन चलाये ।तभी तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे।“ प्रेम की नयी वैराइटी” कहानी इस कथन की सार्थकता को बहुत ही सुंदर और वैज्ञानिक तरीके से कहती है। आज प्रेम संबंध मोबाइल की तरह हर एक-दो साल में बदल जाते हैं। आधुनिक प्रेमी किसी एक से संतुष्ट नहीं है। वह नये एडवेंचर के लिए नये रिश्ते बनाता है। कुछ नया , कुछ और बेहतर की तलाश में भटकता रहता है। संबंधों की शुचिता उसके लिए पुरातन अवधारणा है। वह आज अपना औचित्य खोता जा रहा है। इसतरह की बेचैनी- भटकाव कहीं न कहीं अत्यधिक लाभ के लिए अप्राकृतिक तरीके से फलों- सब्जियों और अन्न का उत्पादन और आमजन द्वारा उसका सेवन करने का परिणाम है। मन की चंचलता। अस्थिरता। असंतुष्टी की भावना। संवेदनहीनता।अत्यधिक की चाहना।महत्वकांक्षाओं की अंधी दौड़ में शामिल होकर दौड़े जा रहे हैं।सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक परिवार नहीं आस-पास का … Read more

बिना पढ़ें कबीर दास जी को ज्ञान कहाँ से मिला

कबीर दास

    “मसि कागद छूऔं नहीं, कलम गहौं नहि हाथ चारों जुग कै महातम कबिरा मुखहिं जनाई बात”   इसका शाब्दिक अर्थ है कि : मैंने कागज और स्याही छुआ नहीं और न ही कलम पकड़ी है | मैं चारो युगों के महात्म की बात मुँहजुबानी  बताता हूँ |   कबीर दास जी का यह दोहा  बहुत प्रसिद्ध है जो कबीर दास जी के ज्ञान पर पकड़ दिखाता है | इस दोहे का  प्रयोग आम लोग दो तरह से करते हैं | एक तो वो जो कबीर के ज्ञान की सराहना करना चाहते हैं | दूसरे उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल करने के लिए इसका प्रयोग करते हैं जो किताबें ज्यादा पढ़ते हैं या ज्यादा किताबें पढ़ने पर जोर देते हैं .. उनका तर्क होता है कि ज्यादा किताबें पढ़ने से क्या होता है .. कबीर दास जी  को तो वैसे ही ज्ञान हो गया था |   पढ़ने वाले लोग इसका उत्तर बहुधा इस बात से देते हैं की कबीर जैसे सब नहीं हो सकते | वस्तुतः ये जानने वाली बात है कि कबीर दास जी को इतना ज्ञान कैसे मिला ..   बिना पढ़ें कबीर दास जी को ज्ञान कहाँ से मिला कबीर दास जी के जीवन का ही एक प्रसिद्ध किस्सा है, इस पर भी ध्यान दें | कृपया इसे थोड़ा -बहुत हर फेर की गुंजाइश के साथ पढ़ें  .. उस समय काशी में रामानंद नाम के संत उच्च कोटि के महापुरुष माने जाते थे। कबीर दासजी ने उनके आश्रम के मुख्य द्वार पर आकर विनती की कि “मुझे गुरुजी के दर्शन कराओ” लेकिन उस समय जात-पात समाज में गहरी जड़े जमाए हुए था। उस पर भी काशी का माहौल, वहां पंडितो और पंडों का अधिक प्रभाव था। ऐसे में किसी ने कबीर दास की विनती पर ध्यान नहीं दिया। फिर कबीर दासजी ने देखा कि हर रोज सुबह तीन-चार बजे स्वामी रामानन्द खड़ाऊं पहनकर गंगा में स्नान करने जाते हैं। उनकी खड़ाऊं से टप-टप की आवाज जो आवाज आती थी, उसी को माध्यम बनाकर कबीरदास ने गुरु दीक्षा लेने की तरकीब सोची।   कबीर दासजी ने गंगा के घाट पर उनके जाने के रास्ते में और सब जगह बाड़ (सूखी लकड़ी और झाड़ियों से रास्ता रोकना) कर दी। और जाने के लिए एक ही संकरा रास्ता रखा। सुबह तड़के जब तारों की झुरमुट होती है, अंधेरा और रोशनी मिला-जुला असर दिखा रहे होते हैं तब जैसे ही रामानंद जी गंगा स्नान के लिए निकले, कबीर दासजी उनके मार्ग में गंगा की सीढ़ियों पर जाकर लेट गए। जैसे ही रामानंद जी ने गंगा की सीढ़ियां उतरना शुरू किया, उनका पैर कबीर दासजी से टकरा गया और उनके मुंह से राम-राम के बोल निकले। कबीर जी का तो काम बन गया। गुरुजी के दर्शन भी हो गए, उनकी पादुकाओं का स्पर्श भी मिल गया और गुरुमुख से रामनाम का मंत्र भी मिल गया। अब गुरु से दीक्षा लेने में बाकी ही क्या रहा!   कबीर दासजी नाचते, गाते, गुनगुनाते घर वापस आए। राम के नाम की और गुरुदेव के नाम की माला जपने लगे। प्रेमपूर्वक हृदय से गुरुमंत्र का जप करते, गुरुनाम का कीर्तन करते, साधना करते और उनका दिन यूं ही बीत जाता। जो भी उनसे मिलने पहुंचता वह उनके गुरु के प्रति समर्पण और राम नाम के जप से भाव-विभोर हो उठता। बात चलते-चलते काशी के पंडितों में पहुंच गई।   गुस्साए लोग रामानंदजी के पास पहुंचे और कहा कि आपने कबीर  को राममंत्र की दीक्षा देकर मंत्र को भ्रष्ट कर दिया। गुरु महाराज! यह आपने क्या किया? रामानंदजी ने कहा कि ”मैंने तो किसी को दीक्षा नहीं दी।” लेकिन वह  जुलाहा तो रामानंग… रामानंद… मेरे गुरुदेव रामानंद की रट लगाकर नाचता है, इसका मतलब वह आपका नाम बदनाम करता है। तब कबीर दासजी को बुलाकर उनसे दीक्षा की सच्चाई के बारे में पूछा गया। वहां काशी के पंडित इकट्ठे हो गए। कबीर दासजी को बुलाया गया। रामानंदजी ने कबीर दास से पूछा ‘मैंने तुम्हे दीक्षा कब दी? मैं कब तुम्हारा गुरु बना?’   कबीर दास जी ने सारा किस्सा बताया|   स्वामी रामानंदजी उच्च कोटि के संत-महात्मा थे। घड़ी भर भीतर गोता लगाया, शांत हो गए। फिर सभा में उपस्थित सभी लोगों से कहा ‘कुछ भी हो, मेरा पहले नंबर का शिष्य यही है।’ इसने गुरु से दीक्षा पाने के लिए जो प्रयत्न किया है वह इसकी साफ नियत दिखाता है। इसके मन में कोई पाप नहीं। बस, इस तरह रामानंदजी ने कबीर दासजी को अपना शिष्य बना लिया।   कबीर अपने दोहों में, साखियों में वेद की बात करते हैं, द्वैत और अद्वैत  की बात करते हैं , परम ज्ञान की बात करते हैं .. वो ज्ञान उन्हें गुरु से सुन कर प्राप्त हुआ | हम देखते हैं की कबीर दास जी के बहुत से दोहे गुरु के माहत्म के ऊपर हैं |निसन्देह  उन्होंने ज्ञान देने वाले के महत्व को समझा है, माना है | हालांकि इससे कबीर का  महत्व कम नहीं हो जाता क्योंकि उन्होंने एक अच्छे विद्यार्थी की तरह वो सारा ज्ञान आत्मसात कर लिया | वो उनका जीवन बन गया | गुरु के महत्व के साथ-साथ शिष्य का भी महत्व है | गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ी गढ़ी काटैं खोंट। अंतर हाथ सहार दे, बाहर बाहैं चोट।   कुमति कुचला चेला भरा, गुरु ज्ञान जल होय। जनम जनम का मोरचा, पल में डारे धोय।   गुरु गोविंद दोऊ खड़े , काके लागू पाँय। बलिहारी गुरु आपने, गोविंद दियो बताय।   गुरु बिन ज्ञान न होत है , गुरु बिन दिशा अज्ञान। गुरु बिन इंद्रिय न सधे, गुरु बिन बढे न शान।   गुरु को सिर राखीये, चलिए आज्ञा माहिं। कहैं कबीर ता दास को, तीन लोकों भय नाहीं। तो अंत में आते हैं मुख्य मुद्दे पर की ना पढ़ने के पक्ष में इस दोहे को कहने वाले ये ध्यान रखे कबीर दास जी ने भले ही कागज कलम ना छुआ हो पर उन्हें ज्ञान सुन कर मिला  है | इसलिए या तो हम  स्वयं पढ़ें या हम को ऐसा गुरु मिले जिसने इतना पढ़ रखा हो की वो सीधे सार बता दे | आजकल लाइव में या यू ट्यूब वीडियो में हम उनसे सुनकर सीखते हैं जिन्होंने पढ़ा है … Read more

अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ

अपेक्षाओं के बियाबान

    डॉ. निधि अग्रवाल ने अपने अपने पहले कहानी संग्रह “अपेक्षाओं के बियाबान” से साहित्य  के क्षेत्र में एक जोरदार और महत्वपूर्ण दस्तक दी है | उनके कथानक नए हैं, प्रस्तुतीकरण और शिल्प प्रभावशाली है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये कहानियाँ हमारे मन के उस हिस्से पर सीधे दस्तक देती हैं जो हमारे रिश्तों से जुड़ा है | जिन्हें हम सहेजना चाहते हैं बनाए रखना चाहते हैं पर कई बार उन्हें छोड़ भी देना पड़ता है | और तो और कभी- कभी किसी अच्छे रिश्ते की कल्पना भी हमारे जीने कि वजह बन जाती है | महत्वपूर्ण बात ये है कि लेखिका रिश्तों  की गहन पड़ताल करती हैं और सूत्र निकाल लाती हैं| इस संग्रह कि कहानियाँ  ….हमारे आपके रिश्तों  की कहानियाँ है पर उनके नीचे गहरे.. बहुत गहरे  एक दर्शन चल रहा है | जैसे किसी गहरे समुद्र में किसी सीप के अंदर कोई मोती छिपा हुआ है .. गोता लगाने पर आनंद तो बढ़ जाएगा, रिश्तों के कई पहलू समझ में आएंगे |  अगर आप युवा है तो अपने कई उनसुलझे रिश्तों के उत्तर भी मिलेंगे |   कवर पर लिखे डॉ. निधि के शब्द उनकी संवेदनशीलता और  भावनाओं पर पकड़ को दर्शाते हैं..   “दुखों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता| किसान फसल लुटने पर रोता है |प्रेमी विश्वास खो देने पर |दुख की तीव्रता नापने का कोई यंत्र उपलबद्ध हो तो रीडिंग दोनों की एक दिखाएगा | किसान की आत्महत्या और और प्रेमी की आत्महत्या पर समाज कि प्रतिक्रियाएँ भले ही भिन्न हों, पर जीवन और मृत्यु के बीच किसी एक को चुनने कि छटपटाहट एक जैसी होती है| पीछे छोड़ दिए गए अपनों के आंसुओं का रंग भी एक समान होता है|” अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ संग्रह की पहली कहानी “अपेक्षाओं के बियाबान”जिसके नाम पर संग्रह है, पत्र द्वारा संवाद की शैली में लिखी गई है | यह संवाद पाखी और उसके पिता तुल्य  दादा के बीच है | संवाद के जरिए सुखी दाम्पत्य जीवन को समझने की कोशिश की गई है | एक तरफ दादा हैं जो अपनी कोमा मेंगई  पत्नी से भी प्रेम करते हैं, संवाद करते हैं | शब्दों की दरकार नहीं है उन्हें, क्योंकि  उन्होंने सदा एक दूसरे के मौन को सुना है | वहीं पाखी है जो अपने पति से संवाद के लिए तरसती है, उसका पति जिंदगी की दौड़ में आगे -आगे भाग रहा है और वो अपेक्षाओं के बियाबान में | अपेक्षाएँ जो  पूरी नहीं होती और उसे अवसाद में घेर कर अस्पताल  तक पहुंचा देती हैं | एक छटपटाहट है, बेचैनी है .. जैसे आगे भागते हुए साथी से पीछे और पीछे छूटती जा रही है .. कोई गलत नहीं है, दोनों की प्राथमिकताएँ, वो भी अपनी ही गृहस्थी  के लिए टकरा रही है |क्या है कोई इसका हल?   “दाम्पत्य जल में घुली शक्कर है .. पर मिठास विद्धमान होती है| पर बिना चखे अनुभूति कैसे हो?   चखना जरूरी है|इसके लिए एक दूसरे को दिया जाने वाला समय जरूरी है | भागने और रुकने का संतुलन ..   “यमुना बैक की मेट्रो”  एक अद्भुत कहानी है | हम भारतीयों पर आरोप रहता है कि हम घूरते बहुत हैं| कभी आपने खुद भी महसूस किया होगा कि कहीं पार्क में, पब्लिक प्लेस पर या फिर मेट्रो में ही हम लोगों को देखकर उनके बारे में, उनकी जिंदगी के बारे में यूं ही ख्याल लगाते हैं कि कैसे है वो ..इसे अमूमन हम लोग टाइम पास का नाम देते हैं | इसी टाइम पास की थीम पर निधि एक बेहतरीन कहानी रचती हैं | जहाँ  वो पात्रों के अंतर्मन में झाँकती हैं, किसी मनोवैज्ञानिक की तरह उनके मन की परते छीलती चलती है| महज आब्ज़र्वैशन के आधार पर लिखी गई ये कहानी पाठक को  संवेदना के उच्च स्तर तक ले जाती है | कहानी कहीं भी लाउड नहीं होती, कुछ भी कहती नहीं पर पाठक की आँखें भिगो देती है |   जैसे एक टीचर है जो कौशांबी से चढ़ती है| हमेशा मेट्रो में फल खाती है | शायद काम की जल्दी में घर में समय नहीं मिलता | फिर भी चेहरे पर स्थायी थकान है | एक साँवली सी लड़की जो कभी मुसकुराती नहीं | पिछले दो महीनों में बस एक बार उसे किसी मेसेज का रिप्लाय करते हुए मुसकुराते देखा है| तनिष्क में काम करने वाली लड़की जो कभी जेवर खरीद नहीं पाती ..अनेकों पात्र, चढ़ते उतरते .. अनजान अजनबी, जिनके दुख हमें छू जा हैं | यही संवेदनशीलता तो हमें मानव बनाती है|  तभी तो ऑबसर्वर सलाह (मन में) देता चलता है | एक एक सलाह जीवन का एक सूत्र है |जैसे ..   “उतना ही भागों कि उम्र बीतने पर अपने पैरों पर चलने कि शकी बनी रहे| उम्र बढ़ने के साथ चश्मा लगाने पर भी कोई कंधा समीप नजर नहीं आता”   “अभी पंखों को बाँधें रखने पर भी पंखों को समय के साथ बेदम हो ही जाना है | वो अनंत आकाश की उन्मुक्त उड़ान से विमुख क्यों रहे”   “फैटम लिम्ब”एक मेडिकल टर्म है, जिसमें पैर/हाथ या कोई हिस्सा  काट देने के बाद भी कई बार उस हिस्से में दर्द होता है जो अब नहीं है | ये एक मनोवैज्ञानिक समस्या है| कहानी उसके साथ रिश्तों में साम्य  बनाते हुए उन सभी रिश्तों को फैन्टम लिम्ब की संज्ञा देती है जो खत्म हो चुके हैं .. पर हम कहीं ना कहीं उससे लिंक बनाए हुए उस पीड़ा को ढो रहे हैं| जो कट चुका है पर जद्दोजहद इस बात की है कि हम उसे कटने को, अलग होने को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए ढो रहे हैं | कहानी को सुखांत किया है | सुखांत ना होती तब भी अपने उद्देश्य में सफल है |   “परजीवी” स्त्रियों के मन की तहों को खोलती एक मीठी सी मार्मिक कहानी है | मीठी और मार्मिक ये दो विरोधाभासी शब्द जानबूझ कर चुने | कहानी की शुरुआत माँ कि मृत्यु पर भारत आती लड़की के माँ की स्मृतियों  में लौटने से शुरू होती है पर एक स्त्री के मन की गांठों को खोलती है .. उसके भाव जगत की पड़ताल करती है … Read more

हम अपने बच्चों के दोषी हैं

बच्चे

  बच्चों को दुनिया में तभी लाएँ जब आप शारीरिक -मानसिक रूप से 21 साल का प्रोजेक्ट लेने के लिए तैयार हों — सद्गुरु बच्चे दुनिया की सबसे खूबसूरत सौगात हैं | एक माता -पिता के तौर पर हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं तो एक वादा भी होता है उसे जीवन की सारी खुशियाँ देंगे | शायद अपने हिसाब से अपने बच्चों के लिए हम ये करते भी हैं पर कभी उँगलियाँ अपनी ओर भी उठ जातीं हैं |शायद कभी कभी ये जरूरी भी होता है |   हम अपने बच्चों के दोषी हैं हम अपने बच्चों के दोषी हैं, हम लाते हैं उन्हें दुनिया में , उनकी इच्छा के विरुद्ध क्योंकि  हमें चाहिए उत्तराधिकारी, अपने पैसों का, अपने नाम और उपनाम का भी, हम नहीं तो कम से कम सुरक्षित रह जाए हमारा जेनिटिक कॉन्फ़िगयुरेशन और शायद हम बचना चाहते हैं अपने ऊपर लगे बांझ या नामर्दी के तानों से, और उनके दुनिया में आते ही जताने लगते हैं उन पर अधिकार, गुड़िया रानी के झबले से, खाने में रोटी या डबलरोटी से, उनके गाल नोचे जाने और हवा में उलार देने तक उनकी मर्जी के बिना हम अपने पास रखते हैं दुलार का अधिकार , हम ही तो दौड़ाते हैं उन्हें जिंदगी की रैट रेस में, दौड़ों,भागों पा लो वो सब कुछ, कहीं हमारी नाक ना कट जाए पड़ोस की नीना , बिट्टू की मम्मी,ऑफिस के सहकर्मियों के आगे, उनकी मर्जी के बिना झटके से उठा देते हैं उन्हें तकिया खींचकर क्योंकि हम उनसे ज्यादा जानते हैं इसीलिए तो खुद ही चुनना चाहते हैं उनके सपने, उनका धर्म  और उनका जीवन साथी भी उनका विरोध संस्कारहीनता है क्योंकि जिस जीव को हम अपनी इच्छा से दुनिया में लाए थे उसे खिला-पिला कर अहसान किया है हमने उन्हें समझना ही होगा हमारे त्यागों के पर्वत को तभी तो जिस नौकरी के लिए दौड़ा दिया था हमने, किसी विशेषाधिकार के तहत जीवन की संध्या वेला में कोसते हैं उसे ही … अब क्यों सुनेंगे हमारी, उन्हें तो बस नौकरी प्यारी है .. अपना,नाम अपना पैसा क्योंकि अब हमारी जरूरतें बदल गईं है अब हमें पड़ोस की नीना और बिट्टू की मम्मी नहीं दिखतीं अब दिखती है शर्मा जी की बहु,चुपचाप दिन भर सबकी सेवा करती है राधेश्याम जी का लड़का,नकारा रहा पर अब देखो , कैसे अस्पताल लिए दौड़ता है.. और ये हमारे  बच्चे ,संस्कारहीन, कुलक्षण बैठे हैं देश -परदेश में हमारा बुढ़ापा खराब किया लगा देते हैं वही टैग जो कभी न कभी हमें लगाना ही है जीवन के उस पन में जब सब कुछ हमारे हिसाब से ना हो रहा हो सच, पीढ़ी दर पीढ़ी हम बच्चों को दुनिया में लाते हैं उनके लिए नहीं अपने लिए अपने क्रोमज़ोम के संरक्षण के लिए,अपने अधूरे रह गए सपनों के लिए , अपने बुढ़ापे के लिए कहीं न कहीं हम सब अपने बच्चों के दोषी हैं | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. प्रियंका–साँप पकड़ लेती है ऐ, सुनो ! मैं तुम्हारी तरह अजनबी मर्द के आँसू आपको कविता “हम अपने बच्चों के दोषी हैं “कैसी लगी |हमें अपने विचारों से जरूर अवगत कराए |अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो वेसआइट सबस्क्राइब करें | अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |

नए साल का स्वागत

new year

  2020 साल एक ऐसा रहा जिसने ये सिद्ध किया कि हम चाहें जितनी योजनाएँ बना लें होगा वही जो नियति  ने लिख रखा है |वैसे यह साल इतिहास में एक नकारात्मक साल के रूप में दर्ज है फिर भी बहुत कुछ ऐसा है जो सकारात्मक हुआ है | एक कहावत है न .. सुख में ही दुख और दुख में सुख छिपा है | वही हाल इस साल का भी है हमने समय से बहुत कुछ सीख है पहले से बेहतर इंसान बने हैं |उम्मीदों की गठरी 2021 को सौंपते हुए एक कविता नए साल का स्वागत ऐ जाते हुए साल अलविदा, बहुत सताया तुमने, कर दिया हमें  घरों में कैद ग्लोबल विलेज सिमिट गया घर के चाहर दीवारी के अंदर बाँट जोहती रहीं आँखें पुरानी रौनकों की भूल ही गए हम दोस्तों के साथ गले मिलना पीठ पर धौल -धप्पा कभी भी किसी के घर जा कर ठसक कर बैठ जाना दोस्तों की थाली से कुछ भी उठा कर खाना तुम्हीं ने परिचय कराया हमारा कोविड -19 के खौफ से मास्क सेनीटाइजर और दस्तानों से कुछ भी छू कर ,बार -बार हाथ धुलवाने से कितनी  नौकरियां छूटी , कितने स्वाभिमान टूटे , क्लास बंक  कर मिलने की हसरत भरे कितने दिल टूटे पर हर बार की तरह हमारी जिजीविषा भारी पड़ी तुम पर हामने सीख ही लिया बेसिक सुविधाओं में जीना घर के कामों को खुद ही कर लेना कहीं न कहीं हम और टेक्निकल हो गए छोटे कस्बे गाँव भी ऑनलाइन मुखर हो गए हमने  समझ ली है रिश्तों की अहमियत पर्यावरण और हमारी सेहत का गणित समझती हूँ ,तुम आए थे एक शिक्षक की तरह सिखा रहे थे जिंदगी का पाठ और एक अच्छे विधयार्थी की तरह सीख कर हम जा रहे हैं दो हजार इक्कीस में हमने सौंप दी है आशाओं की गठरी इस नए साल को नई समझदारी और ज्ञान से हम अवश्य ही बेहतर बनाएंगे प्रकृति के हाल को आओ दो हजार इक्कीस स्वागत है तुम्हारा नए जोश और नई  उम्मीदों  के साथ हम फिर से तैयार हैं करने को समय से दो -दो हाथ वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. मुन्नी और गाँधी -एक काव्य कथा सैंटा तक ये  सन्देशा