रक्षा बंधन -भाई बहन के प्यार पर हावी बाज़ार

मेरे भैया मेरे चंदा मरे अनमोल रतन तेरे बदले मैं ज़माने की कोई चीज न लूँ                               रेडियो पर बहुत ही भावनात्मक मधुर गीत बज रहा है | गीत को सुन कर बहुत सारी भावनाऐ   मन में उमड़ आई | वो बचपन का प्यार ,लड़ना –झगड़ना ,रूठना मानना | भाई –बहन का प्यार ऐसा ही होता है |इस  एक रिश्ते में न जाने कितने रिश्ते समाये हैं ,बहन ,बहन तो है ही ,माँ भी है और दोस्त भी | तभी तो खट्टी –मीठी कितनी सारी यादें लेकर बहने ससुराल विदा होते समय भाइयों से ये वादा लेना नहीं भूलती कि “भैया साल भर मौका मिले न मिले पर रक्षा बंधन के दिन मुझसे मिलने जरूर आना , और भाई भी अश्रुपूरित नेत्रों से हामी बहर कर बहन को विदा कर देता | दूर –दूर रहते हुए भी निश्छल प्रेम की एक सरस्वती दोनों के बीच बहती रहती ,और ये पावन  रिश्ता सदा हरा भरा रहता है | रक्षा बंधन -भाई बहन के प्यार पर हावी बाज़ार     अपने बचपन को याद करती हूँ तो माँ साल भर रक्षा बंधन का इंतज़ार किया करती थी | फिर खुद ही रेशमी धागों से कुछ  कपड़ों की कतरनों से काट –काटकर सुन्दर राखियाँ तैयार किया करती थी | हमें भी वो ये पकड़ा देती और हम भी ग्लेज़ पेपर , ग्रीटिंग कार्ड से निकाले गए सितारे व् धागों से राखियाँ बनाते | जब हम ये बनाते तो माँ अक्सर गुनगुनाया करती “ अबकी बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लेजो बुलाय | “ राखी के महीने भर पहले से यानी सावन की शुरुआत से ही राखी के कपडे ,घर में तैयार करने वाली राखी ,और इस बार मामा के आने पर क्या बनेगा की चर्चा से बाहर सावन से धरती भीगती और अन्दर मन भाई के प्रेम से भीगता | मामा के आने पर लगता ठहाकों का दौर |  शगुन की मीठी  सेवईयों से रिश्ते की मिठास बढ़ जाती | एक –एक पकवान माँ हाथ से बनाती | हर राखी का धागा भाई बहन के  इस रिश्ते को और मजबूत कर देता | समय बदला हर त्यौहार की तरह रक्षा बंधन को भी बाजारवाद ने अपनी गिरफ्त में ले लिया | जिस तरह से दीपावली पर  बल्बों की झालरों की बेतहाशा रौशनी भी दिये  की सात्विकता का मुकाबला नहीं कर सकती उसी तरह ये डिजायनर राखियाँ भी हाथ की बनायी राखियों के प्रेम भाव का मुकाबला नहीं कर पाती | सावन  की शुरुआत  से ही बाज़ार  चायनीज राखियों से सज जाते हैं | एक दूसरे की देखा –देखी अपने –अपने भाई को महंगी और महँगी राखी बंधने की होड़ लग जाती |  सलमा सितारे लगी राखी ,नोट लगी राखी , चांदी  के सिक्के लगी राखी , हीरे पन्ने की राखी हर तरह की राखियाँ  उपलब्ध हैं | एक मन में प्रश्न उपजता है ज्यादा महंगी राखी  या  ज्यादा प्रेम  का प्रदर्शन | या ये सात्विक  प्रेम भी अब बाज़ारों में बिकने लगा है ,उसकी भी कीमत होने लगी है जितना भुगतान उतना ऊंचा प्रेम का पायदान |             बहन त्यौहार के दिन रसोई में न उलझी रहे बाज़ार ने इसकी पूरी व्यवस्था की है | तमाम  तरह के नमकीन मीठे ,बने बनाये डिब्बे अलग –अलग कम्पनियों ने अलग –अलग नामों से बाज़ार में उतार  दिए हैं | खोये की मिलावट के भय ने चॉकलेट  के सेलेब्रेशन के गिफ्ट पैकिटों पर चांदी बरसा दी है | बहन का हाथ से सेवैया बना कर भाई का इंतज़ार करना बेमानी सा लगता है | बाज़ार में बिकते खूबसूरत कार्ड अपनी तराशी हुई शब्दावली के कारण बहन द्वारा पोस्टकार्ड पर लिखे चार अनगढ़ से शब्दों और अंत में लिखी दो  लाइनों “ भैया थोड़े को कम समझना राखी पर जरूर आना को विजयी भाव से मुंह चिढाते हुए प्रतीत होते हैं |         भाई भी कहाँ कम हैं ………. भले ही राखी बाँधने आई बहन को भाई २ मिनट का वक्त न दे “ जल्दी राखी बांधों मुझे तुम्हारी भाभी को ले कर ससुराल जाना है कहकर बहन का सारा उत्साह ठंडा कर दे पर एक बढ़िया सा गिफ्ट बहन के लिए जरूर तैयार होगा |दूसरे शहर में रहने वाली बहन बरसों भाई के आगमन की प्रतीक्षा करती रहे पर नौ की लकड़ी नब्बे खर्च के सिद्धांत पर चलते हुए भाई गिफ्ट आइटम भेजना खुद जाने से कहीं बेहतर समझने लगे हैं | सही भी है बहन को देने के लिए गिफ्ट पैक करे हुए आइटम्स भी बाज़ार में उपलब्ध  जो हैं | जाइए अपने बजट  के हिसाब  से खरीदिये और  गिफ्ट करिए  भले ही इन रगीन कागजों  के नीचे भाई बहन के प्रेम का दम घुट रहा हो |              आजकल पैकेजिंग का जमाना है ……… ठीक वैसे ही जैसे मेक अप की बनावटी परतों  के नीचे असली  चेहरा छिप जाता है वैसे ही  इस गिफ्ट कल्चर में रिश्तों में भावनाओं की कमी छिप जाती है | आज सेलिब्रेशन का जमाना है हम बात –बात में सेलिब्रेट करते हैं , बर्थ डे ,होली ,दिवाली ,ईद ,दशहरा कोई त्यौहार इनसे छूटा  नहीं है| उस पर व्यक्ति गत सेलिब्रेशन “ यार तेरी नयी गाडी , नया पर्स , बेटे का सेलेक्शन , बेटी का स्टेज पर गायन चल सेलिब्रेट करते हैं “| सेलिब्रेशन के नाम पर वही खाना –पीना मौज मस्ती  रंगीन –कागजों में लिपटे गिफ्ट का लेंन –देन | पाश्चात्य सभ्यता ने जहाँ हमें जिंदादिल रहने के लिए सेलिब्रेट करना सिखाया है वही बात बात पर सेलिब्रेट करने के कारण  ये सारा सेलिब्रेशन मशीनी लगने लगा है | हंसी –मजाक गिफ्ट्स का लेंन  देन  सब सब में मोनोटोनी (एक रूपकता )  लगने लगी  है |        ये सच है कि भारत पर्वों का देश है पर हर पर्व को मनाने के तरीके , उसमें बनाये जाने वाले व्यंजन ,उसमें होने वाली पूजा भिन्न होती थी | इसलिए हर त्यौहार का सभी को साल भर इंतज़ार रहता था | अब हर त्यौहार में  महिलाओ का ब्यूटी पार्लर में एक तरीके से सजना …….. सावन की हरी व् करवा चौथ की लाल चूड़ियों का मजा फीका कर देता  है | हर त्यौहार में चॉकलेट  ,केक महंगे गिफ्ट्स जैसे कुछ अंतर रह ही नहीं गया है | मेरा … Read more

मीना कुमारी -एक दर्द भरी ग़ज़ल

चिंदी चिंदी दिन मिला , तन्हाँ तनहा रात मिली जितना जिसका आँचल था , उतनी उसको सौगात मिली  मीना कुमारी के ये शब्द महज़ शब्द नहीं हैं |ये उनके जीवन की दर्द भरी दास्ताँ है | हर दिल अजीज ट्रेजडी क्वीन मीना कुमारी का जीवन सच्चे प्यार के लिए तरसती एक ऐसे ग़ज़ल बन कर रह गया जिसको गा सकना उनके लिए भी संभव नहीं रह सका | तभी तो उसकी अदाकारी के तमाम चाहने वालों के होते हुए भी नाम और शोहरत के आसमान पर बैठी एक उदास और वीरान जिंदगी अपने मन के आकाश की रिक्तता को समेटे महज ४० वर्ष की आयु में इस दुनिया को अलविदा कह कर चली गयी |जब भी मैं मीना कुमारी के बारे में सोंचती हूँ तो मुझे याद आती है दिल एक मंदिर में पति और प्रेमी के बीच झूलती मासूम स्त्री , कभी औलाद और पति के प्रेम के लिए तडपती ” साहब बीबी और गुलाम की छोटी बहू तो कभी दूसरे की संतान पर ममता लुटाती ” चिराग कहाँ , रौशनी कहाँ की नायिका | पर मेरी सुई अटक जाती है उस पाकीजा पर जो गाती है , ” ये चिराग बुझ रहे हैं , मेरे साथ जलते -जलते ……….. बुझते हुए चिरागों के साथ बुझती हुई मीना कुमारी की हर अदाकारी बेहतरीन है | क्योंकि कहीं न कहीं ये सारे पात्र उनकी जिंदगी का हिस्सा हैं |चलो दिलदार चलो , चाँद के पार चलो गाने वाली मीना कुमारी न जाने कौन सा चाँद पाने की आरज़ू लिए चाँद के पार चली गयी | इसके लिए मीना के इर्दगिर्द कुछ रिश्तेदार, कुछ चाहने वाले और कुछ उनकी दौलत पर नजर गढ़ाए वे लोग हैं, जिन्हें ट्रेजेडी क्वीन की अकाल मौत के लिए जिम्मेदार ठहराया जा सकता है । आर्थिक तंगी ने बनाया बाल कलाकार पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती हैरात खैरात की सदके की सहर होती है मीना कुमारी को एक अभिनेत्री के रूप में, एक पत्नी के रूप में, एक प्यासी प्रेमिका के रूप में और एक भटकती-गुमराह होती हर कदम पर धोखा खाती स्त्री के रूप में देखना उनकी जिंदगी का सही पैमाना होगा। मीना कुमारी की नानी गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर के छोटे भाई की बेटी थी, जो जवानी की दहलीज पर कदम रखते ही प्यारेलाल नामक युवक के साथ भाग गई थीं। विधवा हो जाने पर उन्होंने ईसाई धर्म अपना लिया। दो बेटे और एक बेटी को लेकर बम्बई आ गईं। नाचने-गाने की कला में माहिर थीं इसलिए बेटी प्रभावती के साथ पारसी थिएटर में भरती हो गईं। प्रभावती की मुलाकात थियेटर के हारमोनियम वादक मास्टर अली बख्श से हुई। उन्होंने प्रभावती से निकाह कर उसे इकबाल बानो बना दिया। अली बख्श से इकबाल को तीन संतान हुईं। खुर्शीद, महज़बी (मीना कुमारी) और तीसरी महलका (माधुरी)। अली बख्श रंगीन मिजाज के व्यक्ति थे। घर की नौकरानी से नजरें चार हुईं और खुले आम रोमांस चलने लगा। परिवार आर्थिक तंगी से गुजर रहा था। महजबीं को मात्र चार साल की उम्र में फिल्मकार विजय भट्ट के सामने खड़ा कर दिया गया। इस तरह बीस फिल्में महजबीं (मीना) ने बाल कलाकार के रूप में न चाहते हुए भी की। महज़बीं को अपने पिता से नफरत सी हो गई और पुरुष का स्वार्थी चेहरा उसके जेहन में दर्ज हो गया।  हमदर्दी जताने वाले कमाल अमरोही से किया प्रेम विवाह फिल्म बैजू बावरा (1952) से मीना कुमारी के नाम से मशहूर और लोकप्रिय महजबीं ने अपने पिता की इमेज को धकियाते हुए उससे हमदर्दी जताने वाले कमाल अमरोही के व्यक्तित्व में अपना सच्चा साथी देखा वे उनके नजदीक होती चली गईं। नतीजा यह रहा कि दोनों ने निकाह कर लिया। लेकिन यहाँ उसे कमाल साब की दूसरी बीवी का दर्जा मिला।कमाल अमरोही और मीना कुमारी की शादीशुदा जिंदगी करीब दस साल तक एक सपने की तरह चली। मगर संतान न होने से उनके संबंधों में दरार आने लगी। फिल्म फूल और पत्थर (1966) के नायक ही-मैन धर्मेन्द्र से मीना की नजदीकियाँ, बढ़ने लगीं। इस दौर तक मीना एक सफल, लोकप्रिय तथा बॉक्स ऑफिस सुपर हिट हीरोइन के रूप में अपने को स्थापित कर चुकी थीं। धर्मेन्द्र का करियर डाँवाडोल चल रहा था। उन्हें मीना का मजबूत पल्लू थामने में अपनी सफलता महसूस होने लगी। धर्मेन्द्र ने मीना कुमारी की सूनी-सपाट अंधेरी जिंदगी को एक ही-मैन की रोशन से भर दिया। कई तरह के गॉसिप फिल्मी पत्रिकाओं में छपने लगी । इसका असर मीना-कमाल के रिश्ते पर भी हुआ। सच्चे प्यार की तालाश में भटकती एक पाकीजा रूह हाँ, कोई और होगा तूने जो देखा होगाहम नहीं आग से बच-बचके गुज़रने वाले शायद फ़िल्मी दुनिया कोा चलन हो | पर मीना कुमारी सच्चे प्यार की तलाश में भटकती रहीं मीना कुमारी का नाम कई लोगों से जोड़ा गया। फिल्म बैजू बावरा के निर्माण के दौरान नायक भारत भूषण भी अपने प्रेम का इजहार मीना के प्रति कर चुके थे। जॉनी राजकुमार को मीना कुमार से इतना इश्क हो गया कि वे मीना के साथ सेट पर काम करते अपने संवाद भूल जाते थे। बॉलीवुड के जानकारों के अनुसार मीना-धर्मेन्द्र के रोमांस की खबरें हवा में बम्बई से दिल्ली तक के आकाश में उड़ने लगी थीं। जब दिल्ली में वे तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ. राधाकृष्णन से एक कार्यक्रम में मिलीं तो राष्ट्रपति ने पहला सवाल पूछ लिया कि तुम्हारा बॉयफ्रेंड धर्मेन्द्र कैसा है? इसी तरह फिल्मकार मेहबूब खान ने महाराष्ट्र के गर्वनर से कमाल अमरोही का परिचय यह कहकर दिया कि ये प्रसिद्ध स्टार मीना कुमारी के पति हैं। कमाल अमरोही यह सुन नीचे से ऊपर तक आग बबूला हो गए थे। धर्मेन्द्र और मीना के चर्चे भी उन तक पहुँच गए थे। उन्होंने पहला बदला धर्मेन्द्र से यह लिया कि उन्हें पाकीजा से आउट कर दिया। उनके स्थान पर राजकुमार की एंट्री हो गई। कहा तो यहाँ तक जाता है कि अपनी फिल्म रजिया सुल्तान में उन्होंने धर्मेन्द्र को रजिया के हब्शी गुलाम प्रेमी का रोल देकर मुँह काला कर अपने दर्द को बयां करने की कोशिश की थी | छोटी बहू वातव में मीना कुमारी की निजी जिंदगी थी पूछते हो तो सुनो कैसे बसर होती हैरात खैरात की सदके की सहर होती है गुरुदत्त की फिल्म साहिब, … Read more

व्यंग – हमने भी करी डाई-ईटिंग

लेख का शीर्षक देख कर ही आप हमरी सेहत और उससे उत्पन्न परेशानियों के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं |आज के ज़माने में मोटा होना न बाबा न ,ये तो करीना कपूर ब्रांड जीरो फीगर का युग है ,यहाँ मोटे लोगों को आलसी लोगों की कतार में बिठाते देर नहीं लगती|यह सब आधुनिक संस्कृति का दोष है हमें आज भी याद है कि हमारी दादी अपने ८० किलो वज़न के साथ पूरे शान से चलती थी और लोग उन्हें खाते –पीते घर वाली कह कर बात –बात पर भारत रत्न से सम्मानित किया करते थे |पर आज के जामने में पतला होना स्टेटस सिम्बल बन गया है ,आज जो महिला जितने खाते –पीते घर की होती है वो उतनी ही कम वजन की होती है ,क्योकि उसी के पास ट्रेड मिल पर दौड़ने हेतु जिम की महंगी फीस चुकाने की औकात होती है या उसके पास ही ब्रेकफास्ट और सुबह के नाश्ते की जिम्मेदारी नौकरों पर छोड़ कर मोर्निग वाक पर जाने का समय होता है ….. बड़े शहरों में तो महिला का वजन देख कर उसके पति की तनख्वाह का अंदाजा लगाया जाता है,कई ब्यूटी पार्लर में महिलाओं का वजन देख कर पति की तनख्वाह बताने वाला चार्ट लगा रहता है,इसी आधार पर उनके सिंपल ,गोल्डन या डाएमंड फेसियल किया जाता है ….. १ )महिला का वजन ६० किलो से ऊपर …. पति की तनख्वाह ५० ,००० से एक लाख …. सिंपल फेसियल २ ) महिला का वजन ५० किलो से कम … पति की तनख्वाह लाख से डेढ़ लाख रूपये … गोल्ड फेसियल ३ )महिला का वजन ४० किलो से कम … पति करोडपति … डाएमंड फेसिअल खैर ये तो हो गयी ज़माने की बात अब अपनी बात पर आते हैं |ऐसा नहीं है की हम शुरू से ही टुनटुन केटेगिरी को बिलोंग करते हो एक समय ऐसा भी था जब हमारी २२ इंची कमर को देख कर सखियाँ –सहेलियां रश्क किया करती थी अक्सर उलाहने मिलते “पतली कमर है,तिरछी नजर है श्रीमती बनने में थोड़ी कसर है ….. शादी भी हुई ,श्रीमती भी बने पर हमने अपने आप को अब तक मेन्टेन रखा |बढती उम्र इस कदर धोखा देगी ये हमने सोचा नहीं था …. ४० पार जब तन थक जाता है ,मन करता है जिंदगी की भाग –दौड़ के बीच अब कुछ पल आराम से गुज़ार लिए जाए , भाग –दौड़ को विराम देते हुए मन कहता है हर पल काम में लगे रहने से अच्छा है थोड़ी देर पॉपकॉर्न खाते हुए सास बहु के सीरीयल देखे जाए | पर विधि की कितनी विडम्बना है जब जब शरीर बार –बार सीढियां चढ़ने –उतरने से कतराने लगता है तो हारमोन नीचे ऊपर ,ऊपर –नीचे चढ़ना उतरना शुरू कर देते हैं और २४ इंची कमर को ३६ इंची बनते देर नहीं लगती |दुर्भाग्य से हमारे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ |हमें अपनी सेहत की चिंता सताती इससे पहले पति को अपने स्टेटस सिम्बल की चिंता सताने लगी दोस्तों की नज़र में वो सीधे फेसियल की तीसरी श्रेणी से पहली में पहुच गए |उन्होंने हमे ईशारों में समझाने की बहुत कोशिश की पर हमने भी नज़र अंदाज़ किया “अब भला ये भी कोई उम्र है ईशारा समझने की , पति ने दिव्यास्त्र छोड़ते हुए करीना कपूर का बड़ा सा पोस्टर अपनी स्टडी टेबल के सामने लगा लिया ,हमने तब भी उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया वैसे भी कौन सी करीना कपूर हमारे घर आई जा रही थी |पति ने फिर ब्रहमास्त्र छोड़ा ऑफिस से घर देर से आने लगे , हमारे लिए खरीदी जाने वाली साड़ियों ,बिंदी ,चूड़ी आदि में बिलकुल दिलचस्पी नहीं लेने लगे ,और तो और मोबाइल के बिल बेतहाशा बढ़ने लगे तो हमे खतरे की घंटी सुनाई देने लगी … हमने अपनी समस्या अपनी सखियों को सुनाई |हमारी सखियों ने इस समस्या का श्रेय हमारी कमर के घरे को देते हुए सर्वसम्मति से हमारे लिए डाईटिंग का प्रस्ताव पारित कर दिया |हमने भी आज्ञा का पालन करते हुए अगले दिन से डाईटिंग की शुरुआत की घोषणा कर दी | भोजन के चार्ट बनाये जाने लगे ….हमें अपने प्रिय चावल आलूको सबसे पहले टा –टा बाय बाय करना पड़ा , भोजन में तेल ,घी रिफाइंड दाल में नमक के बराबर रह गए , यहाँ तक तो गनीमत थी पर भोजन में शक्कर के चले जाने के कारण सब कुछ फीका व् बेरौनक लगने लगा |खैर हमने डाइटिंग की शुरुआत की …. सुबह –सुबह बिना शक्कर की चाय जैसे तैसे हलक से उतारी , नाश्ते में मुरमुरे से काम चलाया ,सारी दोपहर एक रोटी और दही पर कुर्बान कर दी …. पर कहते हैं न जिस चीज के बारे में न सोचना चाहो उसी के ख़याल आते हैं हमें भी सारे दिन खाने के ही ख़याल आते रहे कभी राज़ –कचौड़ी ,कभी रसगुल्ला कभी ईमरती ,हमारे दिवा स्वप्नों में आ –आ कर हमे सताने लगी |शाम तक हालत बहुत बिगड़ गयी और मन हल्का करने के लिए हम पड़ोस की रीता के घर चले गए | समोसे और रसगुल्ले की खशबू ने हमारे नथुने फाड़ दिए |रीता ने चाय के साथ परोसते हुए कहा “इतने से कुछ नहीं होता वैसे भी अब तो तुम्हे रोज ही डाईटिंग करनी है ,एक दिन खाने से भी क्या फर्क पड़ता है “हमें भी बात सही लगी ,डाई टिंग तो रोज़ करनी है ,फिर हमने प्लेट भर चावल ,चाय की शक्कर,गेंहू की रोटी का तो त्याग किया ही है ये नन्हे –मुन्ने रसगुल्ले , समोसे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे …. सच में इतने से कुछ नहीं होता ,सोच कर हमने सारे तकल्लुफ छोड़ दिए |अब तो हमारा रोज़ का नियम हो गया ,दिन भर खाने का त्याग और शाम को किसी सहेली के घर जा कर “इतने से कुछ नहीं होता के नियम पर चलना |करते –करते दो महीने बीत गए |हम बड़ी ख़ुशी –ख़ुशी वजन लेने वाली मशीन पर चढ़े …. अच्छे परिणाम की उम्मीद थी …पर ये क्या वज़न तो सीधे ६० से ७० पर पहुच गया |हमारी चीख निकल गयी |शाम को पतिदेव को रो रो कर सारा किस्सा सुनाया कि किस तरह हमारा सारा त्याग बेकार गया |लोग झूठ ही कहते हैं कि डाइटिंग से वजन घटता … Read more

रूपये की स्वर्ग यात्रा

त्रिपाठी जी  और वर्मा जी मंदिर के बाहर से निकल रहे थे । आज मंदिर में पं केदार नाथ जी का प्रवचन था । प्रवचन से दोनों भाव -विभोर हो कर उसकी मीमांसा कर रहे थे । वर्मा जी बोले  क्या बात कही है “सच में रूपया पैसा धन दौलत सब कुछ यहीं रह जाता है कुछ भी साथ नहीं जाता फिर भी आदमी इन्ही के लिए परेशान रहता है”। त्रिपाठी जी ने हाँ में सर हिलाया ‘ अरे और तो और एक -दो  रूपये के लिए भी उसे इतना क्रोध आ जाता है जैसे स्वर्ग में बैंक खोल रखा है “। गरीबों पर  दया और परोपकार किसी के मन में रह ही नहीं गया है । वर्मा जी ने आगे बात बढाई ‘ रुपया पैसा क्या है , हाथ का मैल है आज हमारा है तो कल किसी और का होगा‘।  दोनों पूरी तल्लीनता से बात करते हुए आगे बढ़ रहे थे , तभी वहां से एक ककड़ी वाला गुजरा ‘ककड़ी ले लो ककड़ी ५ रु की ककड़ी ‘। वर्मा जी बोले ४ रु  में एक ककड़ी लगाओ। ककड़ी वाला बोला  नहीं साहब नहीं इतने में हमारा पूरा नहीं पड़ता है ।   तोल मोल होता रहा पर ककड़ी वाला टस से मस नहीं हुआ । थोड़ी ही देर में तोल मोल ने बहस का रूप ले लिया । वर्मा जी को एक ककड़ी वाले का यह व्यवहार  असहनीय लगा और उन्होंने गुस्से से तमतमा कर ककड़ी वाले का कालर पकड़ लिया और बोले ‘मंदिर के पीछे तो ४ रु में एक ककड़ी बेंचता है और यहाँ लूटता है “साले  ” एक रु क्या स्वर्ग में ले कर जायेगा ‘। ककड़ी वाला कहाँ कम था, वो भी तपाक से बोला  “तो क्या बाबूजी आप १ रु स्वर्ग में ले कर जाओगे “। त्रिपाठी जी निर्विकार भाव से रूपये की स्वर्ग यात्रा का आनंद ले रहे थे । सच है …….. कथनी और करनी मैं बहुत फर्क होता है । वंदना बाजपेयी  कार्यकारी संपादक -अटूट बंधन  facebook page 

“माँ“ … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए

माँ केवल एक भावनात्मक संबोधन ही नहीं है , ना सिर्फ बिना शर्त प्रेम करने की मशीन ….माँ के प्रति कुछ कर्तव्य भी है …. “माँ” … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए डुग – डुग , डुग , डुग … मेहरबान कद्रदान, आइये ,आइयेमदारी का खेल शुरू होता है | तो बोल जमूरे … जी हजूर सच –सच बताएगा जी हजूर आइना दिखाएगा जी हजूर दूध का दूध और पानी का पानी करेगा जी हजूर तो दिखा …. क्या लाया है अपने झोले में हजूर, मैं अपने झोले में लाया हूँ मनुष्य को ईश्वर का दिया सबसे नायब तोहफा “सबसे नायब तोहफा … वो क्या है जमूरे, जल्दी बता?” “हुजूर, ये वो तोहफा है, जिसका इंसान अपने स्वार्थ के लिए दोहन कर के फिर बड़ी  बेकदरी करता है |” “ईश्वर के दिए नायब तोहफे की बेकद्री ,ऐसा क्या तोहफा है जमूरे ?” “हूजूर ..वो तोहफा है … माँ” “माँ ???” “जी हजूर , न सिर्फ जन्म देने वाली बल्कि पालने और सँभालने वाली भी” “वो कैसे जमूरे” “बताता हूँ हजूर , खेल दिखता हूँ हजूर …… हाँ ! तो मेहरबान  कद्रदान , जरा गौर से देखिये … ये हैं एक माँ,चारबच्चों की माँ , ९० साल की रामरती देवी |झुर्रियों से भरा चेहरा कंपकपाती आवाज़, अब चला भी नहीं जाता | रामरती देवी वृद्ध आश्रम के एक बिस्तर पर  पड़ी जब – तब कराह उठती हैं | पनीली आँखे फिर दरवाज़े की और टकटकी लगा कर देखती हैं | शायद प्रतीक्षारत हैं | मृत्यु का यथार्थ सामने है पर मानने को मन तैयार नहीं की उसके चार बेटे जिन्हें उसने गरीबी के बावजूद अपने दूध और रक्त से बड़ा किया | जो बचपन में उन्हेंचारों ओर घेरे हुए ,” अम्मा ये चाहिए , अम्मा वो चाहिए कहते रहते थे | जब तक वो देने योग्य थी , देती रही | पर अब जब वो अशक्त हुई तो उसको मिला आश्रम का अकेलापन | आज बड़े आदमी बनने के बाद उसके बच्चे यह भी भूल गए की कम से कम एक बार तो पू छना चाहिएथा , “अम्मा तुम्हें क्या चाहिये “?पूछना तो दूर उनका साथ रहना बेटों के लिए भारी हो गया | आश्रम में लायी गयी रामरती देवी बस “माँ ” ही हो सकती है | जो समझते हुए भी नहीं समझ पाती तभी तो प्रतीक्षारत है अपने बेटों की , की आश्रम द्वारा बार – बार नोटिस भेजे जाने पर, “तुम्हारी माँ का अंतिम समय है , आ कर देख जाओ” शायद आ जाये | शायद एक बार दुनिया से कूँच करने से पहले उन्हें सीने से लगा सके | बरसों से अकेले , उपेक्षित रहने का दर्द शायद …शायद कुछ कम हो सके | पर साहिबान रामरती देवी अकेली नहीं है आज न जाने कितनी माएं अपनी वृद्धावस्था में घर के अन्दर ही उपेक्षित , अवांछित सी पड़ी है | जिनका काम बस आशीर्वाद देना भर रह गया है | ये देखिये साहिबान वो भी माँ ही है …..जिसे हमारे पूर्वजों ने धरती मैया कहना सिखाया | सिखाया की सुबह सवेरे उठ कर सबसे पहले उसके पैर छुआ करो | माँ शब्द से अभिभूत धरती माता हँस हँस कर उठा लेती है अपनी संतानों के भार को | जब – जब रौंदी जाती है हल से उपजाती है तरह –तरह की वनस्पतियाँ … कहीं भूँखी न रह जाएँ उसकी संतानें | न जाने कितने अनमोल रत्न छिपाए रहती है अपने गर्भ में , अपनी संतति को सौपने के लिए | पर हमने धरती के साथ क्या किया | पहाड़ काटे , नदियों का रास्ता मोड़ा … यहाँ तक तो कुछ हद तक समझ में आता है | पर जंगल जलाना, ये क्रूरता ही हद है | जिस समय मैं ये कह रहा हूँ उत्तराखंड के जंगल धूँ, धूँ कर के जल रहे हैं | कितने पेड़, कितने जीव –जंतु रक्षा, दया के लिए याचना करते – करते काल के गाल में भस्म हो रहे होंगे | सुनते हैं भू माफिया का काम है | जगल साफ़ होंगे | शहर बसेंगे | बड़े –बड़े भवन खड़े होंगे | पैसे –पैसे और पैसे आयेंगे | माँ तड़प रही है | किसे परवाह है | और तो और जहाँ – जहाँ धरती मैया अपने अन्दर जल समेटे हैं | वहाँ उसका बुरी तरह दोहन हो रहा है |घर – घर बोरिंग हो रही है | ट्यूबवेल लग रहे हैं |धरती दे रही है तो चाहे जितना इस्तेमाल करो |बहाओ , बहाओ , खूब बहाओ | रोज कारे धुल रहीं हैं , नल खुले छूट रहे हैं , पानी की टंकी घंटो ओवर फ्लो कर रही है | किसे चिंता है लातूर औरबुंदेलखंडबूंद – बूँद पानी को तडपते लोगो की |किसे चिंता है धरती माता के अन्दर प्लेटों के रगड़ने की | कितना कष्ट होता होगा धरती माँ को | पर किसे परवाह है | ये देखिये साहिबान एक और माँ … अपनी गंगा मैया | अभिभूत संतति “ जय गंगा मैया “ का उद्घोष कर हर प्रकार का कूड़ा – करकट गन्दगी उसे समर्पित कर देती है | माँ है … सब सह लेंगी की तर्ज पर | और गंगा मैया, सिसकती होगीशायद | हर बार उसके आँसू मिल जाते होंगे उसी के जल में | कहाँ देख पाते हैं हम | वैसे भी आँसू देखने की नहीं महसूस करने की चीज है | तभी तो अब थक गयी रोते –रोते |सिकुड़ने लगी है | समेटने लगी है अपने अस्तित्व को |माँ का आदर प्राप्त “ गंगा मैया “ अक्सर याद करती होंगी अपने अतीत को | जब भागीरथ उसे स्वर्ग से उतार लाये थे | तब ममता पिघल – पिघल कर दौड़ पड़ी थी अपने शिशुओं की प्यास बुझाने को | संतानों ने भी माँ कह कर सम्मानित किया | उसके तटो पर बस गयी हमारे देश की संस्कृति | पर कहाँ गया वो सम्मान | आश्चर्य हर – हर गंगे कह कर गंगा से अपनी पीर हरवाने वाली संतति नाले में तब्दील होती जा रही गंगा की पीर से अनजान कैसे हैं? और देखिये साहिबान …ये हैं वो गौ माता … ३३ करोंण देवताओं का जिसमें वास है | जिसे दो रोटी की … Read more

आज गंगा स्नान की नहीं गंगा को स्नान कराने की आवश्यकता है

  गंगा एक शब्द नहीं जीवन है , माँ है , ममता है | गंगा शब्द से ही मन असीम श्रद्धा से भर जाता है | परन्तु क्या सिर्फ श्रद्धा करन ही काफी है या हमारा माँ गंगा के प्रति कुछ कर्तव्य भी है |बरसों पहले एक फ़िल्मी गीत आज  भी प्रासंगिक है ” मानों तो मैं गंगा माँ हूँ , न मानों तो बहता पानी “ | जिस गंगा को हम पूजते आये हैं , क्या उसे माँ मानते हैं या हमने उसे बहता पानी ही मान लिया है | और उसे माँ गंगे से गंदे नाले मेंपरिवार्तित करने में लगे हुए हैं |   गंगा … पतित पावनी गंगा … विष्णु के कमंडल से निकली  , शिव जी की जटाओ में समाते हुए  भागीरथ प्रयास के द्वारा धरती पर उतरी | गगा  शब्द कहते ही हम भारतीयों को ममता का एक गहरा अहसास होता है | और क्यों न हो माँ की तरह हम भारतवासियों को पालती जो रही है गंगा  | मैं उन भाग्यशाली लोगों में हूँ जिनका बचपन गंगा  के तट पर बसे शहरों में बीता | अपने बचपन के बारे में जब भी कुछ सोचती हूँ तो कानपुर में बहती गंगा और बिठूर याद आ जाता है | छोटे बड़े हर आयोजन में बिठूर जाने की पारिवारिक परंपरा रही है | हम उत्साह से जाते | कल -कल बहती धारा के अप्रतिम सौंदर्य को पुन : पुन : देखने की इच्छा तो थी ही , साथ ही बड़ों द्वरा अवचेतन मन पर अंकित किया हुआ किसी अज्ञात पुन्य को पाने का लोभ भी था | जाने कितनी स्मृतियाँ मानस  पटल पर अंकित हैं पर निर्मल पावन गंगा प्रदूषण का दंश भी झेल रही है | इसका अहसास जब हुआ तब उम्र में समझदारी नहीं थी पर मासूम मन इतना तो समझता ही था की  माँ कह कर माँ को अपमानित करना एक निकृष्ट काम है |   ऐसा ही एक समय था जब बड़ी बुआ हम बच्चों को अंजुरी में गंगा जल भर कर आचमन करना सिखा रही थी | बुआ ने जैसे ही अंजुरी में गंगा जल भरा , समीप में स्नान कर रहे व्यक्ति का थूकी हुई पान की पीक  उनके हाथों में आ गयी  | हम सब थोडा पीछे हट गए | थूकने वाले सज्जन उतनी ही सहजता से जय गंगा मैया का उच्चारण भी करते जा रहे थे | माँ भी कहना और थूकना भी , हम बच्चों के लिए ये रिश्तों की एक अजीब ही परिभाषा थी | यह विरोधाभासी परिभाषा बड़े होने तक मानस पटल पर और भी प्रश्न चिन्ह बनाती गयी | हमारे पूर्वजों नें गंगा को मैया कहना शायद इसलिए सिखाया होगा की हम उसके महत्व को समझ सकें | और उसी प्रकार उसकी सुरक्षा का ध्यान दें जैसे अपनी माँ का देते हैं | गंगा के अमृत सामान जल का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सके इस लिए पुन्य लाभ से जोड़ा गया | पर हम पुन्य पाने की लालसा में कितने पाप कर गए | फूल , पत्ती , धूप दीप , तो छोड़ो , मल मूत्र , कारखानों के अवशिष्ट पदार्थ , सब कुछ बिना ये सोचे मिलाते गए की माँ के स्वास्थ्य पर ही कोख में पल रहे बच्चों का भविष्य टिका है | इस लापरवाही का ही नतीजा है की आज गंगा इतनी दूषित व प्रदूषित हो चुकी है कि पीना तो दूर, इस पानी से नियमित नहाने पर लोगों को कैंसर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ गया है। गंगाजल में ई-कोलाई जैसे कई घातक बैक्टीरिया पैदा हो रहे हैं, जिनका नाश करना असंभव हो गया है। इसी तरह गंगा में हर रोज 19,65,900 किलोग्राम प्रदूषित पदार्थ छोड़े जाते हैं। इनमें से 10,900 किलोग्राम उत्तर प्रदेश से छोड़े जाते हैं। कानपुर शहर के 345 कारखानों और 10 सूती कपड़ा उद्योगों से जल प्रवाह में घातक केमिकल छोड़े जा रहे हैं। 1400 मिलियन लीटर प्रदूषित पानी और 2000 मिलियन लीटर औद्योगिक दूषित जल हर रोज गंगा के प्रवाह में छोड़ा जाता है। कानपुर सहित इलाहाबाद, वाराणसी जैसे शहरों के औद्योगिक कचरे और सीवर की गंदगी गंगा में सीधे डाल देने से इसका पानी पीने, नहाने तथा सिंचाई के लिए इस्तेमाल योग्य नहीं रह गया है। गंगा में घातक रसायन और धातुओं का स्तर तयशुदा सीमा से काफी अधिक पाया गया है। गंगा में हर साल 3000 से अधिक मानव शव और 6000 से अधिक जानवरों के शव बहाए जाते हैं।इसी तरह 35000 से अधिक मूर्तियां हर साल विसर्जित की जाती हैं। धार्मिक महत्व के चलते कुंभ-मेला, आस्था विसर्जन आदि कर्मकांडों के कारण गंगा नदी बड़ी मात्रा में प्रदूषित हो चुकी है। स्तिथि इतनी विस्फोटक है की अगर व्यक्ति नदी किनारे सब्जी उगाए तो लोग प्रदूषित सब्जियां खाकर ज्यादा बीमार होंगे। इन आकड़ों को देने का अभिप्राय डराना नहीं सचेत करना है | यह सच है की गंगा की सफाई के अभियान में कई सरकारी योजनायें बनी हैं | अरबों रुपये खर्च हुए फिर भी स्थिति  वहीँ की वहीँ है | पर्यावरणीय मानकों के मुताबिक नदी जल के बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (B.O.D )का स्तर अधिकतम 3 मि.ली. ग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। सफाई के तमाम दावों के बावजूद वाराणसी के डाउनस्ट्रीम (निचले छोर) पर बीओडी स्तर 16.3 मि.ग्रा. प्रति ली. के बेहद खतरनाक स्तर में पाया गया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट दर्शाती है कि गंगा के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। शायद सरकारी योजनायें कागजों पर ही बनती हैं | और उन कागजों में धन का बहाव गंगा के बहाव से भी ज्यादा तेज है | धन तो प्रबल वेग से बह जाता है | पर गंगा अपने आँचल में हमारे ही द्वारा डाली गयी गंदगी समेटे वहीँ की वहीँ रह जाती है | अब सवाल ये उठता है की क्या हम इन सरकारी योजनाओं के भरोसे ( जिनका निष्क्रिय स्वरूप हमने अपनी आँखों से देखा है ) अपनी माँ को छोड़ दें | या माँ को माँ कहना छोड़ दें ? बहुत हो गया पुन्य का लोभ , पीढ़ियाँ बीत गयी गंगा में स्नान करते – करते | अब जब गंगा को स्वयं स्नान की आवश्यकता है तो हम पीछे क्यों हटे | इस का हल … Read more

लिखो की कलम अब तुम्हारे हाथ में भी है

लिखो की कलम अब तुम्हारे हाथ में भी है लिखो की कैसे छुपाती हो चूल्हे के धुए में आँसू लिखो की  हूकता है दिल जब  गाज़र  –मूली की तरह उखाड़ कर फेंक दी जाती हैं कोख की बेटियाँ लिखो उन नीले साव के बारे में जो उभर आते  है पीठ पर लिखो की  कैसे कलछता है मन सौतन को देख कर इतना ही नहीं … प्रेम के गीत लिखो मुक्ति का राग लिखो मन की उड़ान लिखो जो भोगा ,जो झेला ,जो समझा सब लिखो क्योंकि अब कलम तुम्हारे हाथ में है लिखो कब तक बांचा जाएगा तुम्हे पुरुष की कलम से   आज महिलाएं  मुखर हुई हैं| वो साहित्य का सृजन कर रही हैं | हर विषय पर अपनी राय दे रही हैं | अपने विचारों को बांच रही हैं | यह एक सुखद समय है |  इस विषय पर कुछ लिखने से पहले मैं आप सब को ले जाना चाहूंगी इतिहास में ….कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह वह दिखाता  है जो समाज का सच हैं ,परन्तु दुखद है नारी के साथ कभी न्याय नहीं हुआ उसको अब तक देखा गया पुरुष की नजर से …….क्योकि हमारे पित्रसत्रात्मक समाज में नारी का बोलना ही प्रतिबंधित रहा है ,लिखने की कौन कहे मुंह की देहरी लक्ष्मण रेखा थी जिससे निकलने के बाद शब्दों के व्यापक अर्थ लिए जाते थे ,वर्जनाओं की दीवारे थी नैतिकता का प्रश्न था …. लिहाजा पुरुष ही नारी का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे …….. …और नारी के तमाम मनोभाव देखे जाते रहे पुरुष के नजरिये से | उन्होंने नारी को केवल दो ही रूपों में देखा या देवी के या नायिका के ,बाकि मनोभावों से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया की “नारी को समझना तो ब्रह्मा के वश में भी नहीं है “भक्ति काल में नारी देवी के रूप में स्थापित की गयी , त्याग ,दया क्षमा की साक्षात् प्रतिमूर्ति . जहाँ सौन्दर्य वर्णन भी है तो मर्यादित देवी के रूप में  |  रीति काल श्रृंगार रस से भरा पड़ा है,जहाँ नारी नायिका की छवि में कैद हो कर रह गयी, उसकी आत्मा उसके आकार –प्रकार की मापदंडों में नापी जाने लगी  |                        यह सच है की विचार शील लोग केवल मुट्ठी भर होते हैं | बाकी सब उन विचारों का अनुसरण करते हैं | जब आधी आबादी ही लिखने से वंचित थी तो विचार और समाज एक तरफ़ा होता चला गया | काल बदले पर लेखन के क्षेत्र में  नारी की दशा वही रही | परन्तु जब  देश स्वतंत्र हुआ और कुछ हद तक नारी को भी कागज़ कलम में अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिली|  तब कुछ सपने सजे , कुछ पंख लगे कुछ आकाश दिखा तब नारी को एक सांचे में देखने वाला पुरुष मन भयभीत हुआ ,आधुनिकता का लेवल लगा कर उसे वापस कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी |  लिखो , और पन्ने पर उतार दो अपने हर दर्द को                             यही शायद वो समय था जब शिक्षित नारी बोल उठी “बस “देवी ,प्रेमिका ,माँ बहन ,बेटी ,पत्नी के अतरिक्त सबसे पहले एक इंसान हैं हम , हमारे अन्दर भी धड़कता है दिल ,हैं भावनाएं ,कुछ विरोध ,कुछ कसक ,कुछ पीड़ा कुछ दर्द जो सदियों से पुरुष के प्रतिबिम्बों में ढलने के लिए छिपाए थे गहरे अन्दर, अब असह्य हो गयी है वेदना,  अब जन्म देना ही पड़ेगा किसी रचना को |वास्तव में देखा जाये तो नारी लेखन खुद में खुद को ढूँढने की कोशिश है क्योकि सदियों से परायी परिभाषाओं में जीते -जीते सृष्टि  की रचना रचने वाली खुद भूल गयी कि विचारों को आकर कैसे दिया जाता है |                ऐसे में कई सशक्त रचनाकारों ने कलम उठा कर नारी जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उद्घाटित किया यहाँ तक की नारी जीवन की पीड़ा कसक को व्यक्त करने के लिए उन्होंने अपने जीवन को भी पाठकों के सामने परोस दिया |  कुछ महिला रचनाकारो ने तो  एक कदम आगे बढ़कर वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करते हुए स्त्री -पुरुष संबंधों पर बेबाकी से कलम चलाई  यह भी एक सच है जिसे  नारी के नजरिये से समाज के सामने लाना जरूरी था | महिलाओ को उनके हिस्से का सम्मान दिलाने के लिए आज  न  सिर्फ लेखन अपितु संपादन के क्षेत्र में भी न जाने कितनी महिलाएं अपने अदम्य हौसलों के साथ   कलम ले कर इस यज्ञ  में आहुति दे रही  हैं |  उन्होंने पुरुषों के इस क्षेत्र में वर्चस्व को तोडा है आज महिलाएं हर विषय पर लिख रहीं हैं ,गभीर विवेचना , वैज्ञानिक तथ्यों ,समाज के हर वर्ग का दर्द ,स्त्री पुरुष संबंधोंपर ,  हर बात पर बेबाकी से लिख रहीं हैं , अपनी राय ,अपने विचार रख रहीं हैं |  अगर देखा जाये तो यह एक बहुत ही शुभ लक्षण  है|  इससे पहले की सदियों से दबाया गया कोई ज्वाला मुंखी फूटता धरती के गर्भ में छिपे लावे को सही दिशा मिल गयी है यह विनाश का नहीं विकास का प्रतीक बनेगा |  कलम उठाओ ताकि आने वाली पीढ़ियाँ समझ सके तुम्हें    यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की संतान को आँखे तो ईश्वर देता है पर उसे दृष्टि माँ देती है | पिछली पीढ़ियों ने भले ही आँसू बहाए हैं पर वो व्यर्थ नहीं गए हैं | आज का बच्चा पढ़ रहा है स्त्री के दर्द को अपनी माँ की कलम से ………….. आशा है वो समझेगा अपने नाम से पहचान की अपनी पत्नी की इक्षा को , ,भेदभाव की शिकार अपनी बेटी के दर्द को , सहकर्मी के मनोभावों को ,कामवाली ,मजदूर स्त्री की पीड़ा को | तभी होगा संतुलन तभी बनेगा क्षितिज स्त्री पुरुष के मध्य सही अर्थों में | इसलिए लिखो …. क्योंकि कलम तुम्हारे हाथ में भी है ….  वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……… फेसबुक और महिला लेखन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं करवाचौथ के बहाने एक विमर्श आपको आपको  लेख “ लिखो की कलम अब तुम्हारे हाथ में भी है  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट … Read more

अटूट बंधन वर्ष -२ , अंक -१ सम्पादकीय

तेरा शुक्रिया है …  “ अटूट बंधन “ राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका अपने एक वर्ष का उत्साह  व् उपलब्धियों से भरा    सफ़र पूरा कर के दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रही है | पहला वर्ष चुनौतियों और उसका सामना करके लोकप्रियता का परचम लहराने की अनेकानेक खट्टी –मीठी  यादों के साथ स्मृति पटल पटल पर सदैव अंकित रहेगा | हम पहले वर्ष के दरवाजे से निकल कर दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रहे हैं | एक नया उत्साह  , नयी उमंग साथ ही नयी चुनौतियाँ , नए संघर्ष पर  उन पर जीत हासिल करने का वही  हौसला वही जूनून |  पहले वर्ष की समाप्ति पर अटूट बंधन लोकप्रियता के जिस पायदान पर खड़ी  है वो किसी नयी पत्रिका के लिए अभूतपूर्व है | मेरी एक सहेली ने पत्रिका के लोकप्रियता के बढ़ते ग्राफ पर  खुश होकर मुझसे कहा,  “ ऐसा लगता है जैसे कोई बच्चा खड़ा होना सीखते ही दौड़ने लगे | ये किसी चमत्कार से कम नहीं है | पर ये चमत्कार संभव हो सका पत्रिका की  विषय वस्तु , “ अटूट बंधन ग्रुप “ के एक जुट प्रयास और पाठकों के स्नेह , आशीर्वाद की वजह से | पाठकों ने जिस प्रकार पत्रिका हाथों हाथ ले कर सर माथे पर बिठाया उसके लिए मैं अटूट बंधन ग्रुप की तरफ से सभी पाठकों का ह्रदय से शुक्रिया अदा  करती  हूँ |                   वैसे शुक्रिया एक बहुत छोटा शब्द है पर उसमें स्नेह की कृतज्ञता की , आदर की असीमित भावनाएं भरी होती हैं | अभी कुछ दिन पहले की बात है माँ के घर जाना हुआ | अल सुबह घर में स्थापित छोटे से मंदिर से माँ के  चिर –परिचित भजन की आवाजे सुनाई देने लगी | “ मुझे दाता तूने बहुत कुछ दिया है तेरा शुक्रिया है , तेरा शुक्रिया है ….     मैं बचपन की अंगुली थाम मंदिर में जा कर हाथ जोड़ कर खड़ी हो गयी | माँ पूरी  श्रद्धा और तन्मयता के साथ  भजन गाने में लींन  थी और मैं माँ में लींन  हो गयी | जीवन के सत्तर दशक पार कर चुकी , अनेकों सुख , दुःख झेल चुकी माँ के झुर्रीदार चेहरे में  चमक और गज़ब की शांति थी जो कह रही थी , “ जब आवे संतोष धन सब धन धूरी सामान “ | कहाँ से आता है ये संतोष धन | क्या इस भजन से ?या शुक्रिया कहने से ?  शायद …और मैं बचपन की स्मृतियों में चली गयी | जब माँ हमें समझाया करती थी , सुबह उठते ही सबसे पहले ईश्वर का शुक्रिया अदा  किया करो | ईश्वर की कृपा से नया दिन देखने का अवसर मिला है | अपनी बात कहने का अवसर मिला है , दूसरों की बातें सुनने का अवसर मिला है , बुरे  कर्मों का प्रायश्चित करने और अच्छे कर्म करने का एक और अवसर मिला है | कितने लोग हैं जो अगली सुबह नहीं देख पाते | कितनी बातें हैं जो सदा के लिए अनकही ,अनसुनी रह जाती हैं |  हम माँ की आज्ञा पालन करने के लिए  आदतन शुक्रिया कहने लगे , इस बात से अनभिज्ञ की एक छोटा सा शुक्रिया सुबह-  सुबह कितना सकारात्मक वातावरण तैयार करता है | कितने सकारात्मक विचारों को जन्म देता है |     बचपन के गलियारों में घुमते हुए मुझे अपने बड़े फूफा जी की स्मृति हो आई | बड़े फूफाजी डाइनिंग टेबल छोड़ कर  पूरे देशी तरीके से जमीन पर चौकी लगा कर भोजन करते थे | ख़ास बात यह थी वो भोजन करने से पहले  थाली  छूकर कहा करते “ अन्न उगाने वाले का भला , बनाने वाले का भला , परोसने वाले का भला | हम उनकी बात को गौर से सुनते और सोचते वह ऐसा क्यों कहते हैं  | एक दिन हमारे पूंछने पर उन्होंने राज़ खोला , यह मंत्र  है इसीकी वजह से स्वस्थ हूँ ,  दो पैसे की दवा नहीं खानी पड़ती | सच ही होगा , तभी तो उन्होंने बिना दवा पर निर्भर हुए स्वस्थ तन और मन के साथ लम्बी आयु के बाद   अपनी इह लीला पूरी कर परलोक गमन किया | शुक्रिया , धन्यवाद एक बहुत छोटा सा शब्द है पर बहुत गहरी भावनायों से भरा हुआ | वो भावनाएं जो ह्रदय से निकलती हैं | जो प्रेम और कृतज्ञता से भरी होती हैं | जो आम चलन में भावना हीन कहे जाने वाले थैंक्स से बहुत भिन्न होता हैं |                   ये  भावनाएं ही तो हैं जो हमें पशु से ऊपर उठाकर मनुष्य बनाती हैं |रिश्तों की डोर में बांधती हैं , उन्हें मजबूत बनाती हैं और जीवन को सार्थक करती हैं | मानव तो क्या  भगवान् भी भाव के भूखे  हैं | एक पौराणिक कथा हैं | श्रीकृष्ण की परम  भक्त मीरा बाई  कृष्ण प्रेम में इतना डूबी रहती की सुबह उठते ही उन्हें  सबसे पहले यह चिंता सताती की उसके आराध्य भूखे  न रह जाए | इसलिए बिना स्नान किये प्रभु को नैवेध अर्पित करती | जब आस –पास वालों को पता चला तो उन्होंने समझाने का प्रयास किया , ईश्वर तो तुम्हारे आराध्य हैं , सबके रचियता हैं उन्हें बिना स्नान किये कुछ खिलाना गलत है | मीरा बाई डर  गयी, अपराध बोध हुआ  | अगले दिन से श्री कृष्ण के स्थान पर उन्हें स्नान की चिंता सताने लगी | वह स्नान कर विधिवत नैवेध अर्पित करने लगी | तीन दिन बाद स्वप्न में श्री कृष्ण दिखाई दिए | उन्होंने मीरा बाई से कहा , मैं तीन दिन से भूखा हूँ ,कुछ खिलाओ | मीरा बाई बोली , प्रभु ! मैं तो रोज नैवेध अर्पित करती हूँ | प्रभु मुस्कुरा कर बोले , नहीं मीरा पहले मैं तुम्हारे स्मरण में रहता था तो उस भोजन में भाव थे अब स्नान और सफाई की चिंता में तुम्हारे वो भाव खो गए हैं | मैं अन्न ग्रहण नहीं करता भाव ग्रहण करता हूँ | इसलिए तीन दिन से मैं भूखा हूँ | यह मात्र एक किवदंती हो सकती है जिसका उद्देश्य मनुष्य को भावनाओं की श्रेष्ठता सिखाना है |          वस्तुतः भावनाएं आत्मा हैं और विचार शरीर | विज्ञान कहता है मानव मष्तिष्क में प्रतिदिन तकरीबन ६०,००० विचार आते हैं | चाहे अनचाहे | क्यों … Read more

चूडियाँ ( कहानी -वंदना बाजपेयी )

चूड़ियाँ

      न जाने क्यों आज उसका चेहरा आँखों के आगे से हट नहीं रहा है, चाहे  कितना भी मन बटाने के लिए, अपने को अन्य कामों में व्यस्त कर लू, या टी वी ऑन करके अपना मनपसंद कार्यक्रम देखकर उसे भूलने की कोशिश करू, –बार बार उसका मासूम चेहरा, खिलखिलाती हँसी  और हाँ खनकती चूड़ियाँ मेरा ध्यान अपनी ऒर वैसे ही खीच ले जाती है जैसे तेज हवा का झोंका किसी तिनके को उड़ा  ले जाये। आज कितने वर्षोबाद मिली थी वो,आह! वो भी इस रूप में….. इस हालत में।  बचपन से जानती थी उसे, हमारे  घर से दो घर छोड़ कर रहने वाले शर्मा  अंकल के यहाँ किरायेदार बनकर आये थे वो लोग। माँ ने बताया था,  उनकी  एक लड़की है, मुझसे 4साल छोटी, बिलकुल गुड़ियाँ जैसी… उस समय मेरी उम्र कोई दस  साल  होगी  , बहुत शौक था मुझे छोटी बहन का,इसीलिए बहुत उत्सुकता थी उसे देखने की, जिस दिन उनका सामान उतर  रहा था मैं बालकनी में खड़े -खड़े  उसे देखने की चेष्टा कर रही थी| सब सामान उतरने के बाद उतरी थी वो नन्ही परी अपनी माँ की अंगुली  थाम  कर, जैसे मक्खन से बनी हुई हो, छूते ही  पिघल जाएगी , ओह! मैंने नज़र फेर ली, कही मेरी ही नज़र न लग जाये।  तभी उसकी माँ का स्वर सुनाई पड़ा ” रिया उधर बैठ जाओ बेटा “ और वो चुप- चाप निर्दिष्ट जगह पर बैठ गयी। यह था रिया से मेरा पहला परिचय। उसके बाद जैसे- जैसे उसे जाना, वो उतनी ही प्यारी उतनी ही कोमल, उतनी ही मासूम लगी। उसके मुँह  में तो जैसे जुबान ही नहीं थी।  बेहद शांत … न रोती न चिल्लाती बल्कि कोई और चिल्ला रहा हो तो माँ की गोद में छिप जाती, और सबसे  खास थी  उसकी हलकी सी मुसुकुराट, जरा से होंठ  टेढ़े कर के जब वो मुस्कुराती, सच्ची बिलकुल मधुबाला जैसी लगती,हम बच्चे अक्सर उसे छेड़ते ,”रिया, मुस्कुरा न एक बार, बस एक बार …प्लीज … और रिया मुस्कुरा देती, फिर हम सब ताली बजाते “वाह रिया वाह “ हाँ! एक और बात खास थी ….  बचपन में बच्चे तरह तरह के खिलौनों के लिए मचलते हैं पर रिया सबसे अलग थी … उसे भाती थी तो बस रंग बिरंगी चूड़ियाँ। लाल, पीली , नीली ,हरी कांच की चूड़ियाँ  खन-खन करती हुईं । उसकी गोरी कलाई में लगती भी बहुत अच्छी थीं। काँच की चूड़ियों की खन-खन के स्वर उसे इतने अच्छे लगते थे जैसे किसी ने सितार के सातों तार छेड़ दिए हों । जरूरत,बेजरूरत हाथ हिला हिला कर चूडियाँ खनखनाती ही रहती, कहती ” दीदी सुन रही हो न यह खन – खन , इसमें मेरी जान बसती है जैसे नंदन वन वाले राक्षस की जान उसके तोते में बसती है, अगर यह खन -खन रूक जाये न तो जैसे सारी  श्रृष्टि ही रूक जाएगी….मैं उसकी मासूमियत पर मुस्कुरा कर उसका सरहिलाते हुए कहती “अच्छा ख्न्नों देवी “|वह  जब भी बाजार जाती चूड़ी का डिब्बा जरूर लाती। और तो और पड़ोसी  और रिश्तेदार भी उसके चूड़ी प्रेम के बारे में जानते थे इसलिए जन्म दिन पर उसे ढेरों चूड़ी के डिब्बे मिलते थे। उनको देखकर रिया ऐसे इठलाती जैसे कोई खज़ाना मिल गया  हो ।पर … उसके स्वाभाव में एक विचित्रता थी | बेवजह भयभीत सी रहती थी वो कि उसकी एक भी चूड़ी टूटनी नहीं चाहिए, इसलिए दौड़ -भाग वाले खेलों से दूर ही रहती थी,अगर गलती से किसी से उसकी चूड़ी टूट जाये तो एकदम चुप हो कर खुद को अपने में ऐसे समेट  लेती थी, जैसे कछुआ अपने खोल में बंद हो जाता है। मुँह से कुछ नहीं कहती पर ….  कुछ दिन तक बड़ा विचित्र रहता था उसका व्यवहार  , फिर सब ठीक हो जाता  और वह लौट आती अपनी भोली मुस्कान के साथ। रिया बड़ी हुई,रूप चन्द्रमा की तरह खिल गया पर चूड़ी प्रेम अब भी यथावत था । कॉलेज में उसकी चूड़ियों के किस्से आम थे।  अकसर लड़कों के बीच चर्चा होती की वो कौन भाग्यशाली होगा जो इन चूड़ी  वाले हाथो  को थामेंगा। उसी समय रिया के पिता का तबादला दूसरे शहर हो गया।  रिया अपने परिवार के साथ चली गयी। मुझे याद है उदासी में मैंने दो दिन तक खाना नहीं खाया ,धीरे -धीरे उसके बिना जीने की आदत हो गयी,  फिर मेरी शादी हुई,मैं विदेश में  अपने घर में रच  बस गयी, पर हमारे बीच पत्र  व्यव्हा र चलता रहा। पत्रों से ही रिया की शादी की सूचना मिली थी, फोटो भी तो भेजे थे उसने,सुशांत और रिया की जोड़ी कितनी अच्छी लग रही थी, कोई किसी से उन्नीस नहीं जैसे ईश्वर ने एक -दूजे के लिए ही बनाया हो। मैं तो देखती ही रह गयी थी, मेरी तन्द्रा टूटी थी पति के हंसने के स्वर से हा हा हा ! देखो तो साली साहिबा की चूड़ियाँ ,पूरी कुहनी तक,एक भी रंगनहीं छोड़ा “तब मेरा भी ध्यान गया ,अरे हाँ ! पूरी कुहनी  तक भरी चूड़ियाँ हर रंग की , मुस्कुरा उठी थी मैं, अगले ही पल आँखो  में आँसू भर हाथ  जोड़ कर मन ही मन बुदबुदाई ” हे ईश्वर ! रिया और उसकी चूड़ियाँ हमेशा यूँही खनकती रहे।   शादी हुई रिया ससुराल पहुँच गयी  …  पति के घर में भी उसकी चूड़ी प्रेम की चर्चा होने लगी । पति उससे बहुत प्रेम करते थे । दो हंसो का जोड़ा था उनका,फिर कैसे न जानते उसके दिल की बात …… उसे तरह-तरह की चूड़ियाँ ला कर देते । लाल पीली हरी ,नीली , लाख की , कटाव दार , फ्रेंच डिजाईन , मोती जड़ी ,कामदार , कभीकभी स्पेशल आर्डर दे कर मंगाते । चूड़ी से उसके दोनों हाथ भर जाते । देवरानीजेठानी सब छेड़ती” लो एक और तुलसीदास।”  जब यह बात उसने मुझे पत्र में लिखी थी तो मुझे दूर से ही सही पर उसकी शरमाई आँखों और लजाते होठ जैसे साफ़-साफ़ दिख रहे थे।  रिया माँ बनी इतना तक तो मुझे पता चला पर उसके बाद अचानक उसका चिट्ठी आना बंद हो गया.  . , मैंने बहुत चिट्ठियां लिखी पर उधर से कोई जवाब नहीं आया।  वो मेरे मायके के शहर में नहीं थी ,उसकी शादी कही अन्यत्र हो चुकी थी ,अब उसका हाल जानने का मेरे पास कोई जरिया नहीं था, मैं केवल उसके पत्र की प्रतीक्षा कर सकती थी और वो मैं करती रही, दिनों ,महीनों , सालों …पर पत्र नहीं आया   तो नहीं आया। … Read more

डायरियाँ – कविता ( वंदना बाजपेयी )

डायरियाँ जब -जब मैं दर्द और वेदना से भर उठी मेरी आह और कराह ढल गयी शब्दों में और किसी गहरे समुन्दर के मानिंद डूब गयी नीली डायरी के पन्नों में जो गहराता गया समय के साथ हर दर्द ,हर आह ,हर शब्द के साथ उसका रंग और ,और ,और नीला होता गया २ ) जब-जब मैं ख़ुशी और उत्साह से भर उठी मेरी हर मुस्कान ढल गयी शब्दों में और किसी ताज़ा गुलाब के मानिंद बिखर गयी लाल डायरी के पन्नों में जो महकता गया ,हर ख़ुशी के साथ उसका रंग और और और लाल होता गया ३) अक्सर देखती थी लोगों को लिखते हुए सुनहरी डायरी के पन्नों में लुभाती थी शब्द रचना जो सज जाती थी हर पन्ने पर किसी सुनहरे वर्क की तरह पर आह! घोर आश्चर्य कि शब्द चूर – चूर हो जाते छूते ही ये मायावी सुनहरी डायरियाँ रचती हैं तिलिस्म किसी सिंड्रेला की कथा का पर अफ़सोस कि यहाँ जूता ढूँढता राजकुमार नहीं होता होते सिर्फ जुते छोटे,बड़े,उससे बड़े, सबसेबड़े जिसमें फिट होती सुनहरी डायरियाँ होती पदोन्नति छोटे जूते से सब से बड़े तक मंजिल तक पहुँचते -पहुँचते रह जाता सिर्फ रंग वर्क से सजे शब्द कब के कुचल गए होते ४) भय से पलट कर देखती हूँ अपनी नीली व् लाल डायरियों को धैर्य से लेती हूँ एक लम्बी साँस उसमें लिखा एक- एक शब्द सुरक्षित है वो सुरक्षित रहेगा रहती दुनिया तक या शायद उसके बाद भी तैरेगा गैलेक्सियों के मध्य क्योंकि चमक फीकी पड़ सकती है पर भावनाएं …………………………… कभी नहीं वंदना बाजपेयी चित्र गूगल से अटूट बंधन