रिश्तों को दे समय

                     रिश्तों को दे समय  न  मिटटी न गारा, न सोना  सजाना  जहाँ प्यार देखो वहीं घर बनाना कि  दिल कि इमारत बनती है दिल से दिलासों को छू के उमीदों से मिल के                                       एक खूबसूरत गीत कि ये पंक्तियाँ आज के दौर में इंसान और रिश्तीं के बारे में  बहुत कुछ सोचने को विवश कर देती हैं |आज जब कि भौतिकतावाद हावी हो चुका है |ज्यादासे ज्यादा नाम ज्यादा से ज्यादा पैसा कमाने की होड़ में आदमी दिन -रात मशीन की तरह काम कर रहा है |बच्चों को महंगे से महंगे स्कूल में दाखिला करा दिया ,ब्रांडेड कपडे पहन लिए ,महीने में चार बार मोबाइल या गाडी बदल ली |फिर भी अकेलापन महसूस होता है |बहुत कुछ पा के भी लगता है जैसे खाली हाथ  रह गए| जो जितना पैसे वाला वो उतना ही अकेलापन महसूस करता है |कारण बस एक ही है घर तो बनाया ही नहीं महल बनाने में लगे रहे |यह जरूरी है कि महंगाई के दौर में पैसा कमाना जरूरी है पर कितना ?ये प्राथमिकता तय करनी ही पड़ेगी |वास्तव में  ये पूरा जीवन प्राथमिकताओ के आधार पर चलता है |आप जिस चीज को प्राथमिकता देते हैं वही बढती है खिलती है |अगर आप धन ,यश ,ओहदे को प्राथमिकता देंगे तो वो बढेगा |पर रिश्ते सूख जाएँगे |रिश्तों को खिले रखने के लिए जरूरी है सिर्फ प्यार देना …. और समय देना | पर एक विशेष बात याद रखनी पड़ेगी आप अपने बच्चे से माता –पिता  से भाई -बहन से कितना भी प्यार करते हों अगर आप उनको समय नहीं देते तो ये वृक्ष सूख जायेंगे | कभी इस बात पर गौर करिए कि जब भी किसी मनोरोग विशेषग्य के पास कोई मरीज जाता है तो पहला प्रश्न ही यहीं होता है “आप का बचपन कैसा बीता |” बीमारियों से त्रस्त  ज्यादातर लोगों में यह बात ऊभर कर आई है कि उन्हें  बचपन में पर्याप्त प्यार नहीं मिला |ये बात कहीं न कहीं एक ग्रंथि बन गयी |जो बड़ा होने पर भी एक बेचैनी एक छटपटाहट के रूप में शेष रह गयी । महंगे कैनवास शूज चाहे हजारों किलोमीटर कि यात्रा कर ले पर पिता के साथ पिलो फाइटिंग में बिताए गए दस मिनट कि दूरी कभी नहीं माप पाते । महंगे टेडी बियर माँ के स्नेहिल स्पर्श को कभी छू नहीं पाते । एक पत्नी कि सुन्दरता की तारीफ़ चाहे सारा  संसार कर ले पर अगर पति के पास देखने की भी फुर्सत नहीं है तो सब कुछ व्यर्थ ,सब कुछ बेमानी सा लगता है हर पति अपनी छोटी से छोटी उपलब्धि सबसे पहले अपनी पत्नी को बताना चाहता है.… पर अगर पत्नी ही उस बात पर ध्यानं न दे तो लगता है जैसे सब कुछ पा कर भी किसी ने सब कुछ लूट लिया हो । अगर आप को अपने जीवन के पहले दोस्त अपने भाई या बहन से बात करने के लिए अपॉइंटमेंट लेना पड़े तो इंतज़ार कि हर घडी के साथ रिश्तों में खोखलापन नजर आने लगता है महंगे गिफ्ट मुँह चिढाते है हर गिफ्ट के साथ स्नेह के वृक्ष पर थोडा सा तेज़ाब गिर जाता है ॥……… और अन्दर ही अन्दर कुछ सूख जाता हैं ॥ कभी सोचा है इन अमीर गरीबों का दर्द। …………. (क्रमश ) वंदना बाजपेई (चित्र गूगल से ) अटूट बंधन ………… हमारा फेस बुक पेज 

पोलिश

                                     ********* विवेक ने मुस्कुराते हुए निधि कीआँखों पट्टी खोलते हुए कहा “देखिये मैडम अपना फ्लैट …. अपना ताजमहल , अपना घर … जो कुछ भी कहिये निधि फ्लैट देख कर ख़ुशी से चिहुकने लगी “वाह विवेक ,कितना सुन्दर है पर ये क्या इतने आईने लगा दिए ,जगह -जगह पर क्यों ?विवेक :ये तुम्हारे लिए हैं निधिनिधि :मेरे लिए (ओह ! माय गॉड ) चाहे जितने आईने लगवा लो अब इस उम्र में मैं ऐश्वर्या राय तो दिखने से रही (निधि हँसते हुए बोली ) विवेक: ये चेहरा देखने के लिए नहीं है ,ये तुम्हे समझाने के लिए हैंनिधि :(हँसते हुए )क्या समझाने के लिए ,रिफ्लेक्सन ऑफ़ लाइट ,इमेज फार्मेशन ,जितनी आगे ,उतनी पीछे , वर्चुअल ,लेटरली इनवर्टेड ,क्या विवेक ?विवेक :इतना सब कुछ बता गयी पर वो पोलिश भूल गयी ,जिसके बाद ही शुरू होता है देखने ,दिखने का सिलसिला ……………. यही भूल जाती हो तुम हमेशा इसीलिए कभी देख नहीं पाती असली अक्स न अपना न किसी का …………..निधि की आँखों में आंसूं आ गए …………… गुजरा वक्त सामने आकर खड़ा हो गया ……..एक पोलिश की ही तो कमी थी तभी तो हर किरण गुजरती रही आर पार ,एक सामान ,एक ही तरीके से ,जान ही नहीं पायी किसी का असली रूप ,असली प्रतिबिम्ब । आह ! आइना बनने के लिए पोलिश जरूरी है ,अन्यथा वो बस कांच का टुकड़ा रह जाता है  वंदना बाजपेई  (चित्र गूगल से ) atoot bandhan ……… हमारा फेस बुक पेज 

व्यर्थ में न बनाये साहित्य को अखाड़ा

                                          ये विवाद सदा से चलता रहेगा कि कौन सा साहित्य बेहतर है ” गहन या लोकप्रिय”………  अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिए या अपनी हताशा छिपाने के लिए साहित्यकारों में यह एक मुद्दा बना ही रहता है। पर मैं इस विवाद को सिरे से नकारती हूँ ………  दरसल साहित्य के रचियताओ ने साहित्य कि परिभाषा ही बिगाड़ दी है।  साहित्य कि एक मात्र सार्थक परिभाषा तुलसीदास जी ने दी थी जब वो कहते हैं ” कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई।। “                                                     मेरे विचार से    साहित्य जनता तक अपनी बातो को,विचारों को  पहुचाने का माध्यम है अगर वो  महज पांडित्य प्रदर्शन का माध्यम बन कर रह गया तो  केवल लाइब्रेरियों में सज कर रह जाएगा,आम जनता न उसे समझ पाएगी न स्वीकार कर पाएगी।  फिर भी अगर  साहित्यकारों का यही उदेश्य है तो कुंठा क्यों ?वस्तुत : मैं प्रभात रंजन जी कि इस बात से सहमत हूँ कि आज का साहित्य आलोचकों को संतुष्ट करने के लिए लिखा जा रहा है. जो उसे क्लिष्ट और दुरूह बना रहा है ,साथ ही आम जनता कि पहुँच से बहुत दूर भी।  ऐसा साहित्य केवल साहित्य वर्ग में ही सराहा जाता है और कुछ त्रैमासिक , अर्धवार्षिक , वार्षिक साहित्यिक लघुपत्र -पत्रिकाओ में ही सिमिट  जाता है।” व्यापक रूप से न सराहे जाने न पढ़े जाने का क्षोभ साहित्यकारों कि बातों से साफ़ झलकता है.। इस निराशा के लिए  साहित्यकार और आलोचक और उनके द्वारा बनाये गए प्रतिमान दोनों  जिम्मेदार हैं  ।                                                                                  जहाँ तक मेरा मानना है गहन बात को सुगुमता से कह देना एक कठिन काम है ……….अह एक कला है और यही लोकप्रियता का पैमाना भी ।  अक्सर मुझे अपनी एक गणित कि शिक्षिका ध्यान में आती है जिन्हें गणित का ज्ञान बहुत था। हम सब उनके फार्मूलों को पकड़ने का प्रयास करते थे पर सदा असफल हो जाते। तभी किसी कारण वश एक दूसरी शिक्षिका कुछ दिन के लिए आई ,उन्हीने वही गणित हम सब के लिए सरल बना दी हमें पढने में आनद  आने लगा।  गणित वही  थी फोर्मुले भी वही थे पर दूसरी शिक्षिका ने उसे इतना सुगम बना दिया कि कक्षा  के हर बच्चे के समझ में आ जाये।  पर यह काम वही कर सकता है जो किसी विचार  को आत्मसात करे ,मथे और सरल बना कर प्रस्तुत करे।  कठिन बात को सरल बना कर कह देना कठिन काम है। ………. जो इस कठिन काम को कर पायेगा वही लोकप्रिय होगा ,साहित्य भी इससे अछूता नही है।                                                  उदहारण के तौर पर मैं तुलसी कृत मानस कि बात करना चाहूंगी।  राम कथा कितने लोगों ने लिखी पर मानस ही लोकप्रिय है …. क्यों ? साहित्य के पुरोधा जानते हैं कि मानस को वह साहित्यिक दृष्टि से किसी भी प्रकार से कम नहीं आंक  सकते।  भाषा सौन्दर्य ,भाव ,अलंकार , और हर  पंक्ति में छिपा दर्शन अपने आप में अनूठा है। पर मानस आज भी लोकप्रिय है शायद सृष्टि  के अंत तक रहे क्योकि कठिन दर्शन को राम कथा के माध्यम से  सरल भाषा में जन -जन तक पहुंचाती है।  प्रेमचंद्र को ही ले कितने कठिन और गूढ़ चरित्रों को वो सुगमता से रचते हैं।  उनका एक -एक पात्र मन में उतरता है।  रंगभूमि में गहरा दर्शन सरलता से कह दिया है।  “निराशा  कि पराकाष्ठा वैराग्य है ” एक वाक्य में पूरा दर्शन है।  पर प्रेमचंद्र अद्रितीय हैं उनका स्थान कोई नहीं ले सकता न साहित्य जगत में न लोकप्रियता के  जगत में ।                                                            अक्सर जब साहित्य पर बहस होती है तो लोग फिल्मों तक पहुचते हैं। ……… और कदाचित गलत भी नहीं है। एक विधा  दूसरी विधा से जुडी होती है । पहले फिल्मों में भी कला और व्यावसायिक के रूप में बटवारा हुआ करता था।  कला फिल्में आम जनता से दूर हुआ करती थी कहा जाता था ” उनका क्लास अलग है “कई लोग अपने को उस क्लास में सिद्ध करने के लिए जबरदस्ती ३ घंटे बर्बाद करते थे । जबकि आम जनता में धरणा  थी कि ” अगर एक कप चाय आधे घंटे में पी जाए तो वो कला फिल्म और आधे मिनट में पी जाए तो व्यावसायिक। पर आज यह वर्गिकरण  खत्म हो चुका है …क्यों ?  उत्तर स्पष्ट है तथाकथित कला फिल्मों के निर्माताओ को लगा कि इस तरह से वो अपनी बात आम जनता तक नहीं पहुचा पा रहे हैं ……….  आज उसका अच्छा रूप सामने देखने को मिल रहा है जहाँ यह बैरियर खत्म हो गए हैं……गहरी बात जनता तक आसानी से पहुचाई जा रही है। ……यही फिल्मों का उदेश्य है।  उदहारण के तौर पर मैं आमिर खान कि “तारे जमी पर “देना चाहूंगी जहाँ एक विशेष रोग से पीड़ित बच्चे कि समस्या को आसानी से जनता तक पहुचाया । माता -पिता ने अपने बच्चों कि समस्या को समझा।  स्कूलो में सेमीनार हुए ,व्यापक तौर यह समझा गया कि बच्चा अगर पढ़ाई  में पिछड़  रहा है तो  कोई शारिक कारण भी हो सकता है । फिल्म अपने व्यावसायिक और सामाजिक दोनों उदेश्यों में सफल हुई ,लोकप्रिय हुई।अजय देवगन की एक फिल्म ने “डिफ्यूस्ड पर्सनालिटी डिसऑर्डर “नामक मानसिक बीमारी से जूझती  स्त्री की समस्या से आम जनता को अवगत कराया है।   अभी हाल में प्रदर्शित NH 24 ………ऑनर किलिंग के गंभीर मुद्दे को उठाती है…..                                                         … Read more

“यूरेका ” की मौत

                               बूढ़ा आर्किमिडिज़ …जो अब 80 साल का हो गया है। …. सफ़ेद लम्बी दाढ़ी , झुर्रीदार चेहरा , ठीक से चला नहीं जाता ,पर मन में अभी भी विज्ञानं के लिए , मानव समाज के लिए बहुत कुछ करने की अभिलाषा शेष है अपनी पिछली जिंदगी के बारे में सोंचता जा रहा है । (फर्श पर ज्यामिति की तमाम रचनाएँ चाक से बना रहा है ) उसे अभी भी वो दिन अच्छी तरह से याद है कि किस तरह सैराक्वूज के राजा हायरोन ने उसे एक स्वर्ण मुकुट हकीकत पता लगाने को दिया था …….नकली और असली में भेद कर पाना कितना कठिन था.…। और कैसे उसने नहाते समय इस नियम को खोज लिया था कि कोई वस्तु पानी में डुबोने पर अपने भार के बराबर पानी हटा देती है ।ख़ुशी में वो उसी अवस्था में यूरेका -यूरेका (मैंने पा लिया ,मैंने पा लिया) कहते हुए राजमहल की और दौड़ा था। इसी आधार पर उसने स्वर्ण मुकुट की सच्चाई पता लगाई थी . फिर ……………… फिर उसे कितना सम्मान मिला था ।कितना हौसला बढ़ा था। … फिर कैसे उसकी यात्रा चल पड़ी विज्ञानं के अन्य अन्वेषणों की ओर । क्या – क्या नहीं सोंचा था उसने आगे करने को । वो चाहता था कि एक ऐसी राड मिल जाये जिसे लीवर की तरह इस्तेमाल कर पृथ्वी को उठाया जा सके । और उधर लोग कहते हैं कि सैराक्वूज पर रोमन राज्य का शासन हो गया है …. देश छोड़ो ।यह सही है की उसने कई लीवर पर आधारित “युद्ध मशीनों “का निर्माण किया है। … पर उससे क्या ? कैसी बेकार बात है ….. भला मुझ बूढ़े वैज्ञानिक से किसी की क्या दुश्मनी हो सकती है ।अब उम्र के आखिरी पड़ाव में तो अपने ही देश में रहना है। … क्यों जाये भला विज्ञानं की सेवा करने वाला। अभी कल ही की तो बात है ….. पडोसी सल्युसर आया था … सेल्युसर ……. महान वैज्ञानिक आर्किमिडिज़ जी आप की जान को खतरा है ।रोमन , सैनिक आप को नहीं छोड़ेंगे ,आस -पास कही भी सर छुपा लो। आर्किमिडिज़ …….. क्यों भला , मैंने क्या बिगाड़ा है किसी का … मैं तो अपने काम में लगा हूँ, सम्पूर्ण मानव जाती की भलाई के लिए काम कर रहा हूँ ।मेरी किसी से कोई व्यक्तिगत दुश्मनी तो नहीं है। सेल्युसर …… ठीक है …….. बताना मेरा फ़र्ज़ था ।आप सावधान रहिएगा,. आर्किमिडिज़ पुरानी बातें याद करना छोड़ कर फिर काम में लग जाता है । ये गोल ………. इसकी त्रिज्या ……… ये पाई का मान २२ /७ ……. इस गोले में क्षेत्रफल ………………..वो त्रिभुज उसका आयतन। … घोड़ों के टापों की आवाज़ आ रही है ….. टप- टप- टप । तेज़ धूल उड़ रही है । रोमन सैनिक आर्किमिडिज़ का घर घेर लेते हैं । कुछ सैनिक घोड़े से उतरकर उसके घर की तलाशी लेते हैं । एक सैनिक आर्किमिडिज़ के पास जाता है । बूढ़ा आर्किमिडिज़ सर झुकाए अपने काम में तल्लीन है । उसे ना घोड़ों के टापों की आवाज़ सुनाई दे रही है ना उसे ये पता चल पाया कि वो चारों ओर से घिर गया है ।वो काम कर रहा है मानवता के लिए। …. सारी सृष्टि के लिए। …. हाँ आँख के कोर से उसे ये अहसास होता है की कोई उसके ज्यामिति के गोलों के पास आ रहा है ।भय है तो इस बात का कही काम में विघ्न न पड जाये। आर्किमिडिज़ ….. ( सर झुकाए – झुकाए) … अरे भाई … आहिस्ता से अपना काम करो, देखो मेरी ये रचनाएँ ना ख़राब कर देना । बड़ी मेहनत से बनाई हैं । हत्यारा रोमन सैनिक एक क्षण के लिए उसकी मासूमियत पर सकपकाता है …. अगले ही क्षण अपनी तलवार से आर्किमिडिज़ की गर्दन धड से अलग कर देता है ।.…… और एक महान वैज्ञानिक , उसकी वृताकार रचनायें ,क्षेत्रफल ,त्रिज्या सब दो राजाओं की दुश्मनी की भेंट चढ़ जाता है। …… साथ ही दो राजाओं की दुश्मनी की भेंट चढ़ जाती है …. विज्ञानं की अनुपम भेंट जो। …. जो शायद महान वैज्ञानिक के दिमाग में पक रही थी। ……. विश्व वंचित रह गया फिर से यूरेका -यूरेका सुनने को वंदना बाजपेई यह कहानी इतिहास और कल्पना के मिश्रण से लिखी है सूत्र :विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक चित्र गूगल से 

मूर्खता दिवस पर अक्लमंदी भरी बात

                                            वैसे तो आज मूर्खता दिवस है पर लोग एक दूसरे को शुभकामनायें देने से बाज नहीं आ रहे |क्योकि हमें तो दिवस मानाने से मतलब कोई भी दिवस हो हम मना  ही लेते हैं ….. वैसे ये आयातित दिवस हैं …. पर हम भारतीय इसे ख़ुशी -ख़ुशी मानते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि भले ही इस दिवस का आविष्कार  हमने न किया हो पर मूर्ख बनने  का तजुर्बा हमे ज्यादा है …. तभी तो हमारे नेता हमें हर बार  गरीबी मिटाओ के नारे के साथ हमे मूर्ख बना कर अपनी गरीबी मिटाते हैं और हम ख़ुशी -ख़ुशी हर ५ साल बाद मूर्ख  बनने  को तैयार हो जाते हैं खैर ये लेख राजनीतिक ,धर्मिक ,अध्यात्मिक लोगो द्वारा मूर्ख बनाने के  ऊपर नहीं है |                             आज मूर्ख दिवस पर हमारे दिमाग में एक अक्लमंदी भरी बात आ रही है ….. ये मूर्ख दिवस अक्लमंद लोग मनाते  है …. स्वाद परिवर्तन हेतु …. वैसे भी मूर्खों के पास इतना समय नहीं होता कि रोज -रोज नयी  मूर्खताएं भी करे और किसी एक  दिन उस पर हँसे भी |वो तो हर रोज हँसते हैं | हंसने कि कमी बुद्धिमानो में पाई जाती है एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि जो जितना कम हँसे वो उतना ही ज्ञानी होता है …..जिन लोगो  के होठों का  हँसते समय  पूरा वृत्त बनता हैं उनके दिमाग का स्तर भी अंडाकार होता है|जिनका मुँह एक स्लिट कि तरह खुलता है उनके दिमाग का स्तर ऊँचा होता है |  जो बड़ी से बड़ी बात पर बस मुस्कुरा कर रह जाए वो महा ज्ञानी  होता है |ऐसे लोग जब कभी अचानक से हंस पड़ते हैं तो आस -पास के लोग हँसना छोड़ कर  सोचने  लगते हैं कि आखिर कार ऐसी क्या बात है इस बात में |ऐसे ही लोग पार्क में हंस योग करते हैं जो बिना बात हाथ ऊपर उठा कर हँसते हैं “हा हा हा हा “हँसते  समय उनका चेहरा भले ही तनाव से भरा हो पर उनको देखने वाले खुलकर हँसते  हैं| एक बार उनको हँसते हुए देख कर एक छोटा बच्चा अपने बड़े भाई से पूँछ बैठा “भैया ,भैया ये क्यों हंस रहे हैं ?बड़ा भाई  ने विद्वता पूर्ण उत्तर दिया “इनमें हंसी के विटामिन कि कमी हो गयी है ठीक से हँसते जो नहीं हैं “                        इन मूर्खों का अक्लमंदो कि दुनिया में विशेष स्थान है  चार्ली चैपलिन और शेखचिल्ली के मुर्खता पूर्ण किस्से हमें  सदा से हंसाते आये हैं |बचपन में रेडिओ में एक कार्यक्रम आता था “मूर्खाधिपति महाराज मंद -बुद्धि सिंह  जिसको सुनने के लिए हम पूरे  हफ्ते इंतज़ार करते थे | वैसे मूर्ख होना कोई बुरी बात नहीं है ,सुनते हैं कालिदास भी कभी मूर्ख हुआ करते थे.। आज भी ऐसे मूर्खों कि कमी नहीं है जो जिस डाल  पर बैठते हैं ( आश्रयदाता ) उसे ही काटने में लगे रहते हैं। कालिदास जी को तो उनकी  पत्नी  ने उन्हें बुद्धिमानों कि श्रेणियों में ला कर खड़ा कर दिया | तबसे सभी भारतीय पत्नियों के ऊपर यह दायित्व आ गया कि अपने -अपने पतियों की मूर्खताओं को कम करके उन्हें महान बनाए । एक आम भारतीय नारी “बुद्धू पड़  गया पल्ले ” गाते हुए ससुराल में प्रवेश करती है ।  आमतौर पर मूर्ख पति जिसे पत्नियों का अत्याचार कहते हैं वह पत्नियों का पतियों को विद्वान् बनाने में किया गया अंश दान हैं।                                    सुना तो ये भी गया  हैं बिजली का आविष्कार करने वाले एडिसन साहब भी  बचपन में बड़े मूर्ख थे |वे एक बार अण्डों के ऊपर जा बैठे  …. कि जब मुर्गी के बैठने से चूजा निकल सकता है तो मेरे बैठने से क्यों नहीं |आइन्स्टीन तो अपनी बचपन कि  मूर्खताओं के  कारण स्कूल से निकाले गए थे ।  दर्शिनिकों की मूर्खताएं विश्व -प्रसिद्ध हैं ।  सुनने में तो यह भी आया है मुर्खता और दार्शनिकता समानुपात में बढती है.।  मेरे विचार से मुर्खता दिवस मनाने  के पीछे एक गहरी मंशा है। आज जिसे मुर्ख सिद्ध किया जा रहा है पता नहीं उनमे से कब कौन महाकवि बन जाए ,कौन वैज्ञानिक बन जाए कौन दार्शनिक बन जाए  ।  इसी भावना के तहत अनेकों स्कूल पहली अप्रैल को खुलते हैं ।    छोटी मोटी मूर्खताओ पर हंसने हसाने के लिए ये दिन बुरा नहीं हैं |तो हसिये -हंसाइये और शान से मुर्खता दिवस मानिए | वंदना बाजपेई सभी अक्लमंदों को मुर्खता दिवस कि शुभकामनाएं अटूट बंधन   …हमारा फेस बुक पेज                         

भुलक्कडपन

वंदना बाजपेयी  पहले मैं अक्सर रास्ते भूल जाया करती थी,क्योंकि अकेले ज्यादा इधर -उधर जाने की आदत थी नहीं स्कूल -कॉलेज और घर ………बस  बात तब की है जब पति के साथ मायके गयी थी ,हमारी बेटी 6 महीने की थी ,किसी ने बताया की वहाँ एक बहुत अच्छे वैध है ,मैंने बेटी की खांसी के लिए उन्हें दिखाने के लिए पति से कहा ,एक दो दिन बीत गए पति परमेश्वर ने हमारी बात पर कोई तवज्जो ही नहीं दी। अपनी ही रियाया में हुक्म की ऐसी  नाफरमानी हमें सख्त नागवार गुजरी। हमने ऎलान कर दिया “आप अपनी दिल्ली की सल्तनत संभालिये यहाँ हमारे बहुत सारे भाई है कोई भी हमारे साथ चल देगा,मौके की नजाकत देखते हुए पति देव ने हमें सारा रास्ता समझा दिया। हमें बस इतना समझ में आया कि बड़े चौराहे से नाक की सीध में चलते हुए एक “साइन -बोर्ड “मिलेगा वहाँ से दायें ,बायें दायें ……कितना आसान …. वरीयता क्रम के हिसाब से हमने छोटे भाई को चुना। … यात्रा प्रारम्भ हुई ,उस समय हमें इस बात का जरा भी अंदाजा नहीं था की किसी साजिश के तहत कानपुर के जिला धिकारी ने रातों -रात वो “साइन -बोर्ड “हटवा दिया है।  …हम आगे -आगे -और आगे बढ़ते गए,बीच -बीच में भाई पूछता जा रहा था “दीदी तुम्हारी नाक कितनी सीधी है ?हम उन्नाव से आगे निकल गए …. थोडा और बढ़ते तो सीधे दूसरे शहर ,हालाँकि दूसरे शहर में हमारे बहुत रिश्तेदार रहते है ,पर अगर किसी शहर में आपके १० रिश्तेदार हो और समयाभाव के कारण आप २ से न मिल पाये। तो धारा 302 के तहत प्रश्नों के फंदे पर तब तक लटकाया जायेगा जब तक जब तक सॉरी बोलते -बोलते जुबान दो इंच लम्बी न हो जाये ,लिहाजा हमने हथियार डालते हुए आँखों में आँसू भर कर कहा “भैया मैं भूल गयी “ चीईईईईईईईईईईईईईई कि आवाज के साथ भाई ने गाड़ी रोक कर कहा “दीदी तुम्हारे चरण कहाँ है ,मैं इसी वाक्य की प्रतीक्षा कर रहा था,दरसल जीजाजी ने हमें रास्ता समझाते हुए ,यह ताकीद कर दी थी कि “बेगम साहिबा को यह एहसास दिल दिया जाये ,कि वो रास्ते भूल जाती है “ ओह्ह्हह्ह्ह्ह ! हमारा आपना भाई विरोधी खेमे में मिल चुका था और अपनी ही सरजमी पर विदेशी राजा के हाथों हमारी शिकस्त हो गयी थी ,पर उस दिन से हमें समझ आया कि जो करना है हमें अपने दम पर करना है क्यूकि पति या भाई हम अबला नारियों का कोई अपना नहीं होता … यह भी पढ़ें … निर्णय लो दीदी क्या आत्मा पूर्वजन्म के घनिष्ठ रिश्तों की तरफ खींचती है वो पहला खत इंजीनीयर का वीकेंड और खुद्दार छोटू

क्यों बदल रहे हैं आज के बच्चे ?

                                                     बचपन ………… एक ऐसा शब्द जिसे बोलते ही मिश्री की सी मिठास मुँह में घुल जाती है ,याद आने लगती है वो कागज़ की नाव ,वो बारिश का पानी,वो मिटटी से सने कपडे ,और वो नानी की कहानियाँ। बचपन……. यानी उम्र का सबसे खूबसूरत दौर ………माता –पिता का भरपूर प्यार ,न कमाने की चिंता न खाने की ,दिन भर खेलकूद …विष –अमृत ,पो शम्पा , छुआ –छुआई ,छुपन –छुपाई।या यूँ कह सकते हैं…… बचपन है सूरज की वो पहली किरण जो धूप बनेगी ,या वो कली जिसे पत्तियों ने ढककर रखा है प्रतीक्षारत है फूल बन कर खिलने की ,या समय की मुट्ठी में बंद एक नन्हा सा दीप जिसे जगमग करना है कल। कवि कल्पनाओं से इतर…… बच्चे जो भले ही बड़ों का छोटा प्रतिरूप लगते हों पर उन पर बहुत बड़ा उत्तरदायित्व है क्योकि वो ही बीज है सामाजिक परिवर्तन के, कर्णधार है देश के भविष्य के।  क्यों बदल रहे हैं आज के बच्चे ? वैसे परिवर्तन समाज का नियम है…जो कल था आज नहीं है जोआज है कल नहीं होगा और हमारे बच्चे भी इससे अछूते नहीं हैं। परिवर्तन सकारात्मक भी होते हैं नकारात्मक भी। इधर हाल के वर्षों में इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के असर ,भौतिकतावादी दृष्टिकोण ,तेज़ी से बदलते सामाजिक परिवेश के चलते बच्चों के सोच -विचार ,भाषा ,मनोविज्ञान आदि में वांछित -अवांछित अनेकों बदलाव हुए हैं। जहाँ बच्चों के सामान्य ज्ञान में वृद्धि हुई है वही मासूमियत में कमी हुई है। अगर मैं आज के बच्चों की तुलना आज से बीस -पच्चीस साल पहले के बच्चों से करती हूँ तो पाती हूँ की आज के बच्चों में तनाव , निराशा अवसाद के लक्षण ज्यादा हैं ,जो एक चिंता का विषय है। दूसरी तरफ मोटापा ,डायबिटीस ,उच्च रक्तचाप जैसी तथाकथित बड़ों की बीमारियाँ बचपन में अपने पाँव पसार रहीं हैं। साथ ही साथ बच्चों में हिंसात्मक प्रवत्ति बढ़ रही है। यह निर्विवाद सत्य है की बचपन में तेजी से बदलाव हो रहे हैं। जहाँ शिक्षित माता -पिता ,एक -दो बच्चों पर सीमित रह कर अपने बच्चों को पहले से ज्यादा सुविधायें ,उच्च शिक्षा आदि देने में समर्थ हुए हैं वहीँ बहुत कुछ पाने की होड़ में कुछ छूट रहा है ,कुछ ऐसा जिसे संरक्षित किया जाना आवश्यक है। क्योकि बच्चे ही कल का भविष्य है ,हमारी सोच ,सभ्यता व् संस्कृति के वाहक हैं ,इसलिए यह एक गंभीर विवेचना का विषय है। तो आइये इसके एक -एक पहलू पर विचार करे………………. सच ही कहा गया है “बच्चों को समझना कोई बच्चों का खेल नहीं है “ ठहरिये मम्मी ! रोबोट नहीं हैं बच्चे……….  पार्क में ,गली मुहल्लों में अडोस -पड़ोस में अक्सर आप को छोटे बच्चों की माताएं बात करती हुई मिल जाएँगी………… ‘”मेरा बेटा तो ६ महीनें में बैठने लगा था ,आपकी बिटिया तो शायद सात महीने की हो गयी ,अभी बैठती नहीं “……. आप डॉक्टर को दिखा लो क्या पता कुछ समस्या हो। बस हो गयी मम्मी तनावग्रस्त ………… दादी ,नानी के समझाने से समझने वाली नहीं, …………. हर बच्चे का विकास का एक अपना ही क्रम होता है ,कोई बैठना पहले सीखता है कोई चलना। शुरू हो जाते है डॉक्टरों के यहाँ के चक्कर पर चक्कर। धीरे -धीरे वो अपना यह तनाव दूध के साथ बच्चों को पिला देती हैं…………… शायद यहीं से शुरू होता बच्चों के रक्त में बहने वाले तनाव और उससे उन की मनोदशाओं पर असर। अकेला हूँ मैं………. यह सत्य है की जनसँख्या हमारे देश की एक बहुत बड़ी समस्या रही है। पर आज़कल के शिक्षित माता -पिता के “हम दो हमारा एक ” के चलते बच्चे घर में अकेले हो गए हैं, ना भाई ना बहन………. ना राखी ,ना दूज…………… हर त्यौहार फीका ,हर मज़ा अधूरा। बचपन में साथ -साथ पलते बढ़ते भाई -बहन लड़ते -झगड़ते ,खेलते -कूदते एक खूबसूरत रिश्ते के साथ दोस्ती के एक अटूट बंधन में भी बंध जाते है। कितनी समस्याएं माता -पिता को भनक लगे बिना भाई -बहन आपस में ही सुलझा लेते हैं। अकेले बच्चों के जीवन में बहुत ही सूनापन रहता है। साथ के लिए घर में कोई हमउम्र नहीं होता। यह अकेलापन या तो अन्तर्मुखी बना देता है या विद्रोही। कहाँ है दादी -नानी? …………  बचपन की बात हो और दादी के बनाये असली घी के लड्डू या नानी की कहानियों की बात ना हो तो बचपन कुछ अधूरा सा लगता है। पर दुखद है आज के बच्चे इतने भाग्यशाली नहीं हैं। दो जून रोटी की तलाश में अपना गाँव -घर छोड़ कर देश के विभिन्न कोनों में बसे लोगों के बच्चे दादी और नानी के स्नेहिल प्यार से वंचित ही रह जाते हैं …………… और उस पर यह कमर तोड़ महंगाई जिस की वजह से घर का खर्च चलाने के लिए माँ -पिता दोनों को काम पर जाना होता है. ………और मासूम बच्चे सौप दिए जाते हैं किसी आया के हांथों या आँगन वाडी में। यह सच है की पैसे के दम पर सुविधायें खरीदी जा सकती हैं पर अफ़सोस माँ का प्यार , परिवार के संस्कार , घर का अपनापन यह दुकान पर बिकता नहीं है। क्या कहीं न कहीं इसी वजह से बच्चे अधिक चिडचिडे ,बदमिजाज व् क्रोधी हो रहे है ?इसका एक दुखद पहलू यह भी है की आंगनवाडी में पले यह बच्चे वृधावस्था में अपने माता -पिता का महंगे से महंगा ईलाज तो करा देते है……………. पर उनका अकेलापन बांटने के लिए समय………समय हरगिज़ नहीं देते। क्यों दोष दे हम उन्हें भी ?सीखा ही नहीं है उन्होंने समय देना। सीखा ही नहीं है उन्होंने कि घर बंधता है ,परस्पर विचारों के आदान -प्रदान से ,प्रेम से और समय देने से। मोबाईल कंप्यूटर………. “सौ सुनार की एक लुहार की…”……  बचपन को बदलने सबसे बड़ा हाथ अगर किसी का है तो वह है मोबाईल और कंप्यूटर। अक्सर बच्चों के हाथों में मोबाईल देख कर मुझे एक दोहा याद आ जाता है। ………… “देखन में छोटे लगे ,घाव करें गंभीर “. इसका सकारात्मक ,और नकारात्मक दोनों प्रकार का असर होता है…………… सकारात्मक असर यह है की ,बच्चों को घर बैठे दुनिया भर का … Read more

जस्ट लाइक &कमेंट

                           फेस बुक पर आने के बाद देखा तो हमने भी था कि कुछ लोग इसे विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम समझते हैं और कुछ अपनी तस्वीरों की |खैर जिसकी जैसी इक्षा सोच कर हमने तो चुप रहने में ही भलाई समझी पर  आज शाम को घर आते वक्त मिसेज चावला मिल गयी |बड़ा उदास सा मुँह बना रखा था |हम तो टमाटर और भिन्डी खरीदने के बाद उनके  दामों में हुई वृद्धि और उससे घर के  बजट बिगड़ने कि गणित में उलझे हुए थे तभी मिसेज चावला हमारी आँखों के आगे आ गयी उनका चेहरा तो हमारी सस्ती भिन्डियों  से भी ज्यादा मुरझाया हुआ था |घबरा कर हमने पूंछा क्या हुआ ,बीमार हो क्या ? ये क्या हाल बना रखा है ,कुछ लेती क्यों नहीं? हमारे इतने सारे प्रश्नो के उत्तर में बुरा सा  मुँह बना कर बोली “क्या बताएं मेरे तो ५००० रुपये पर पानी फिर गया | ५००० रुपये  सुन कर हमारा तो कलेजा मुँह को आगया |कितना कुछ आ सकता है ५००० रुपये में ४ किलो चावल ,३ किलो अरहर दाल ,आशीर्वाद का आटा ,जो गेंहू की एक -एक बाली चुन -चुन कर पीसा जाता हैं …. पंसारी का बिल …. हां ! सच में बात तो दुखी होने कि ही है |फिर भी हिम्मत करके हमने पूँछ ही लिया “कैसे हुआ ये गजब “ मिसेज चावला आँखों में आंसू भर कर बोली “अरे वो ५००० की साड़ी पहन कर जो फोटो एफ बी पर डाला था उस पर केवल ७०० लाइक और ५० कमेंट आये इससे  पहले  जो ५७५ रुपये कि साड़ी पहन कर फोटो डाली थी उस पर तो पुरे २००० लाइक आये थे और कमेंट तो पूछो मत | मैं हतप्रभ थी |सुना तो मैंने भी था की अब वो जमाने लद  गए  जब औरतें नयी साडी पहन कर अपने पति को दिखाते हुए पूछती  थी “सुनो जी कैसी लग रही हूँ “|अब शाम तक पति का इंतज़ार कौन करे |फोटो खीचा डाला …. राय हाज़िर | इंस्टेंट राय का जमाना है | कहते हैं परिवर्तन समाज का नियम है “ओनली चेंज इस अनचेंजेबल |                  उस दिन तो बड़ा दुःख लगा कि बेचारी …………. पर मिसेज चावला जरा कम समझदार थी ये पता हमे उस दिन चला जब अपनी सहेली मीता   से मिले| मीता चहक कर बोली अरे मैं तो इतने पैसे वेस्ट करती ही नहीं….. सीधे दुकानदार से कह देती हूँ  एक घंटे के लिए साड़ी ले जा रही हूँ एफ बी पर फोटो डाल कर लोगों का रिस्पोंन्स देखूंगी |अगर ज्यादा लाइक ,कमेंट मिले तो ठीक वर्ना साडी वापस |अब तुम ही बताओ ५००० फ्रेंड्स और १०,००० फोल्लोवर्स इतनी सटीक राय और कहाँ मिलेगी | और तो और कई  बार दुकानदार डिस्काउंट भी दे देता है आखिर कार लोकल सहेलियां पूछेंगी “कहाँ से ली,तो उसकी दूकान का मुफ्त में प्रचार होगा | मैं बड़े श्रधा भाव से  मीता कि बातें सुन रही थी ,कितनी ज्ञानी हो गयी है ये |                                   मेरी एक और सखी मधु  हर समय किसी रीता के बारे में बताती रहती है ….. रीता का ये ,रीता का वो ,एक दिन हमने पूछ ही लिया कि आखिरकार ये रीता है कौन ?प्रश्न सुन कर कंधे उचकाते हुए बोली  रीता मेरी परिचित नहीं है पर मैं उन्हें अच्छे से जानती हूँ क्या है कि वो रोज  अपनी ४-६ फोटो तो डालती ही हैं। ये खाना बनाते हुए ,ये पानी भरते हुए ,ये सोफे का कवर बदलते हुए….. और कभी कभी तो यह पहला कौर खाते हुए ,ये दूसरा कौर खाते हुए ,ये तीसरा ….. |रीता के घर में क्या –क्या है सबको  पता है | वो क्या खाती है सबको पता है,उसके घर का कुत्ता क्या खाता है सबको पता है ,उसके वार्ड रोप में कितनी साडियाँ  हैं सबको पता है |लोग सुबह ४ बजे से रात के पौने चार बजे तक रीता के घर में दिलचस्पी लेते हैं |रीता को जरा भी फुर्सत नहीं हैं अपने बच्चों से बात करने की ,पति का हाल –चाल पूछने ने की |और मुहल्ले वाले…..उनसे तो रीता कभी सीधे मुँह बात ही नहीं करती ………….. पेज-३ कि सेलीब्रेटी जो हो गयी है|                        पर आप ये मत समझिएगा की इस मामले में औरतों कि मोनो पोली है |मिस्टर जुनेजा ने कल बताया  कि अक्सर वो भीड़ भरे स्थानों पर जाने से घबराते हैं |क्यों भला ,कहीं दिल का रोग तो नहीं हो गया अब ६५ कि उम्र में धमनियों में कोलेस्ट्रोल तो जम ही जाता है |छूटते ही बोले “अरे नहीं ,वो फेस बुक पर जवानी कि तस्वीर जो डाल रखी है |क्यों भला ?न चाहते हुए भी हम पूछ ही बैठे। अब इस उम्र की तस्वीर पर कोई लाइक -कमेंट तो देगा नहीं ,बड़ा ईगो हर्ट होता है हम दिन भर सब पर लाइक कमेंट करते रहे और हमारी फोटो पर ……ऐसा लगता है किसी भिखारी के कटोरे में रेजगारी पड़ी हो। आखिरकार फेसबुक पर लाइक कमेंट स्टेटस सिंबल जो होता है। हमने बमुश्किल अपनी हंसी रोकते हुए कहा “तो फिर डर कैसा ? डर तो सारी  मेहनत  पर पानी फिरने का ही है। अब लड़कियों का सिक्स्थ सेन्स तो मजबूत होता ही है कहीं उनकी पुलिसिया निगाहें सारा भेद न जान ले |फिर तो …………               उस दिन बातों -बातों में हमारी सखी रेहाना  ने बड़ी  ज्ञान कि बात बतायी अगर पति –पत्नी दोनों फेस बुक पर हैं तो एक –दूसरे कि तस्वीर को कभी लाइक नहीं करते |उस पर तुर्रा यह कि घर पर तो लाइक करते ही हैं और दो बार लाइक करने से अनलाइक हो जाता है                अभी कल ही की तो बात है सड़क पर दो बच्चे झगड़ रहे थे। एक ने दूसरे का कॉलर पकड़ कर कहा “अरे ! १० लाइक  पाने वाले तेरी हिम्मत कैसे हुई ५० लाइक पाने वाले के सामने अपना मुंह खोलने की।  इतना सुनने के बाद हमारी तो बोलती ही बंद हो गयी अब तो … Read more

मायके आई हुई बेटियाँ

मायके आई हुई बेटियाँ , फिर से अपने बचपन में लौट आती है , और जाते समय आँचल के छोर में चार दाने चावल के साथ बाँध कर ले जाती है थोडा सा स्नेह जो सुसराल में उन्हें साल भर तरल बनाये रखने के लिए जरूरी होता है |  कविता -मायके आई हुई बेटियाँ  (१ ) बेटी की विदाई के बाद  अक्सर खखोरती है माँ  बेटी के पुराने खिलौनो के डिब्बे  उलट – पलट कर देखती है  लिखी -पड़ी  गयी  डायरियों के हिस्से  बिखेरकर फिर  तहाती है पुराने दुपट्टे  तभी तीर सी  गड जाती हैं  कलेजे में   वो  गांठे  जो बेटियों के दुप्पटे पर   माँ ही लगाती आई हैं  सदियों  से  यह कहते हुए  “बेटियाँ तो सदा पराई होती हैं ”   (२ ) बेटी के मायके आने की  खबर से  पुनः खिल उठती है   बूढी बीमार माँ  झुर्री भरे हाथों से  पीसती है दाल  मिगौड़ी -मिथौरी  बुकनू ,पापड ,आचार  के सजने लगते हैं मर्तबान  छिपा कर दुखों की सलवटे  बदल देती हैं  पलंग की चादर  कुछ जोड़ -तोड़ से  खाली कर देतीं है  एक कोना अलमारी का  गुलदान में सज जाते है  कुछ चटख रंगों के फूल  भर जाती है रसोई  बेटी की पसंद के  व्यंजनों की खशबू से  और हो जाता है  सब कुछ पहले जैसा  हुलस कर मिलती चार आँखों में  छिप जाता है  एक झूठ  (३ ) मायके आई हुई बेटियाँ  नहीं माँगती हैं  संपत्ति में अपना हिस्सा  न उस दूध -भात  का हिसाब  जो चुपके से  अपनी थाली से निकालकर  रख दियाथा भाई की थाली में  न दिखाती हैं लेख -जोखा  भाई के नाम किये गए व्रतों का  न करनी होती है वसूली  मायके की उन चिंताओं की  जिसमें काटी होती हैं  कई रातें  अपलक  आसमान निहारते हुए  मायके आई हुई बेटियाँ  बस इतना ही  सुनना चाहती है  भाई के मुँह से   जब मन आये चली आना  ये घर   तुम्हारा अपना ही है  (४ ) अकसर बेटियों के  आँचल के छोर पर  बंधी रहती है एक गाँठ  जिसमें मायके से विदा करते समय माँ ने बाँध दिए थे  दो चावल के दाने    पिता का प्यार  और भाई का लाड  धोते  पटकते निकल जाते है ,चावल के दाने  परगोत्री घोषित करते हुए   पर बंधी रह जाती है  गाँठ  मन के बंधन की तरह  ये गाँठ  कभी नहीं खुलती  ये गाँठ  कभी नहीं खुलेगी  (५ ) जब भी जाती हूँ  मायके  न जाने कितने सपने भरे आँखों में  हुलस कर दिखाती हूँ  बेटी का हाथ पकड़  ये देखो  वो आम का पेड़  जिस पर चढ़कर  तोड़ते थे कच्ची अमियाँ  खाते थे डाँट  पड़ोस वाले चाचा की  ये देखो  बरगद का पेड़  जिसकी जटाओं  पर बांधा था झूला  झूलते थे  भर कर लम्बी -लम्बी पींगें  वो देखो खूँटी पर टँगी  बाबूजी की बेंत  जिसे अल -सुबह हाथो में पकड़  जाते थे सैर पर  आँखें फाड़ -फाड़ कर देखती है बिटियाँ  यहाँ -वहाँ ,इधर -उधर  फिर झटक कर मेरा  हाथ  झकझोरती है जोर से  कहाँ माँ कहाँ  कहाँ है आम का पेड़ और ठंडी छाँव  वहां खड़ी है ऊँची हवेली  जो तपती  है धूप  में  कहाँ है बरगद का पेड़  वहां तो है  ठंडी बीयर की दुकान  जहाँ झूलते नहीं झूमते हैं  और नाना जी की बेंत  भी तो नहीं वहां टंगी है एक तस्वीर  पहाड़ों की  झट से गिरती हूँ मैं पहाड़ से  चीखती हूँ बेतहाशा  नहीं है ,नहीं है  पर मुझे तो दिखाई दे रही है साफ़ -साफ़  शायद नहीं हैं  पर है …. मेरी स्मृतियों में  इस होने और नहीं होने की कसक  तोड़ देती है मुझे  टूट कर बिखर जाता है सब  फिर समेटती हूँ  तिनका -तिनका  सजा देती हूँ जस का तस  झूठ ही सही  पर !हाँ  … अब यह है  क्योंकि इसका होना  बहुत जरूरी है  मेरे होने के लिए  वंदना बाजपेयी   atoot bandhan…… हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  कैंसर कच्ची नींद का ख्वाब ये इंतज़ार के लम्हे सतरंगिनी आपको “ मायके आई हुई बेटियाँ  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- maaykaa, Poetry, Poem, Hindi Poem, Emotional Hindi Poem, girl, 

*मोह* ( साहित्यिक उदाहरणो सहित गहन मीमांसा )

कृष्ण

वंदना बाजपेयी  कोई इल्तजा कोई बंदगी न क़ज़ा से हाथ छुड़ा सकी किये आदमी ने कई जतन  मगर उसके काम न आ सकी न कोई दवा न कोई दुआ ………………                                                        यू  कहने को तो यह गीत की पंक्तियाँ  हैं पर इसके पीछे गहरा दर्शन है ………………मृत्यु  अवश्यम्भावी है ……………हम रोज देखते हैं पर समझते नहीं या समझना नहीं चाहते है ………….. मृत्यु  हर चीज की है|बड़े -बड़े  पर्वत समय के साथ   रेत  में बदल जाते है .|नदियाँ विलुप्त हो जाती हैं ,द्वीप गायब हो जाते हैं |सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं|किसी का आना किसी का जाना जीवन का क्रम है .परंतू मन किसी के जाने को सहन नहीं कर पता है .जाने वाला विरक्त भाव से चला जाता है ,कहीं और जैसे कुछ हुआ ही न हो बस समय का एक टुकड़ा था जो साथ -साथ जिया था |परंतू जो बच  जाता है उसकी पीड़ा असहनीय होती है ,ह्रदय चीत्कारता है ,स्मृतियाँ जीने नहीं देती ……..यह मोह है जो मन के दर्पण को धुंधला कर देता है |जो अप्राप्य को प्राप्त करने की आकांक्षा करने लगता है | मोह ( साहित्यिक उदाहरणो  सहित गहन मीमांसा ) ………….. दुर्गा शप्तशती में राजा  सुरथ जो  अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा जंगल में भेजे जाने पर भी निरंतर अपने राज्य के बारे में चिंतन करते रहते हैं वो  विप्रवर मेधा के आश्रम में वैश्य को भी अपने सामान पीड़ा भोगते हुए पाते हैं जो पत्नी व् पुत्र के ठुकराए जाने पर भी निरंतर उन्हीं की चिंता करता है .वैश्य कहता है “हे महामते ,अपने बंधुओं के प्रति जो इस प्रकार मेरा चित्त प्रेम मगन  हो रहा है .इस बात को मैं जान कर भी नहीं जान पाता ,मैं उनके लिए लम्बी साँसे ले रहा हूँ जिनके मन में प्रेम का सर्वथा आभाव है .|. मेरा मन उनके प्रति निष्रठुर  क्यों नहीं हो पता? ऋषि समझाते हैं “मनुष्य ही नहीं पशु -पक्षी भी मोह से ग्रस्त हैं ….. जो स्वयं भूखे होने पर भी अपने शिशुओ की चोंच में दाना डालते हैं(दुर्गा शप्तशती -प्रथम अध्याय -श्लोक -५०) यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिम्रिगाद्य : ज्ञानं  च तन्मनुश्यांणा यत्तेषा मृगपक्षीणाम .मोहग्रस्त शूरवीर निद्राजित अर्जुन के हाथ से धनुष छूटने लगता है वो कहते हैं “इस युद्ध  की इच्छा  वाले स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है मेरे हाथ से धनुष गिरता है ,त्वचा जल रही है मेरा मन भ्रमित है मैं खड़ा रहने की अवस्था  में नहीं हूँ (गीता अध्याय -१ श्लोक ३० ) स्वयं प्रभु राम जो माता सीता से बहुत प्रेम करते हैं कि उनके अपहरण होने पर होश खो बैठते हैं ……दुःख में पशु -पक्षियों ,लता पत्रों से भी सीता का पता पूछते हैं (अरण्य कांड (२९ -४ ) “हे खग -मृग हरी मधुकर श्रेणी ,तुम देखि  सीता मृगनयनी खंजन सुक कपोत मृग मीना ,मधुप निकर कोकिला प्रवीणा वही स्वयं   बाली के वध पर उसकी पत्नी तारा को ईश्वर द्वारा निर्मित  माया का ज्ञान देते हैं …………….(किष्किन्धा कांड -चौपायी ११ -२ ) “तारा विकल देख रघुराया ,दीन्ह ज्ञान हर लीन्ही माया चिति जल पावक गगन समीरा ,पञ्च रचित अति अधम शरीरा प्रगट सो तन तव आगे सोवा ,जीव नित्य को लगी तुम रोवा उपजा ज्ञान चरण तब लागी ,लीन्हेसी परम भागती वर मांगी                                      उपनिषदों में में आत्मा के नित्य स्वरुप की व्यख्या करते हुए मोह को बार -बार जन्म लेने का कारण बताया है। यह मोह ही है जो समस्त पीड़ा का केंद्र बिंदु है ,जिसके चारों ओर प्राणी नाचता है। ………. “साधकको शरीर और मोह की  की अनित्यता और अपनी आत्मा की नित्यता पर विचार करके इन अनित्य भोगो से सुख की आशा त्याग करके सदा अपने साथ रहने वाले नित्य सुखस्वरूप परमब्रह्म पुरुषोतम को प्राप्त करने का अभिलाषी बनना चाहिए (कठोपनिषद -अध्याय १ वल्ली दो श्लोक -१९ )                                     परन्तु फिर भी ये प्राणी के बस में नहीं है,कि वो मोह को अपने वष में कर ले।                                                          मोह एक ऐसा पर्दा है जो  ज्ञान ,विवेक पर आच्छादित हो जाता है जब देवता व् अवतारी ईश्वर भी इससे  नहीं बचे तो साधारण मनुष्य की क्या बिसात है | दरसल जब मनुष्य समाज में रहता है तो एक -दूसरे के प्रति शुभेक्षा या सद्भाव  और प्रेम होना होना स्वाभाविक है .|परन्तु मोह और प्रेम में अंतर है ……… मोह वहीँ उत्पन्न होता है  जहाँ प्रेम की पराकाष्ठा  हो जाये …………दशरथ का पुत्र प्रेम कब पुत्र मोह में परिवर्तित हो गया स्वयं दशरथ भी नहीं जान पाए ….और पुत्र के वियोग में तड़पते -तड़पते उन्होंने प्राण त्याग दिए ……………….. जहाँ प्रेम स्वाभाविक है वहीँ मोह घातक .|समझना ये है कि प्रेम आनन्द देता है मोह पल -पल पीड़ा को बढ़ाता  है ,जहाँ प्रतीक्षा है वहीँ तड़प है .|अगर हम हिंदी काव्य साहिय में बात करे तो  हरिवंश राय  बच्चन मोह वश  कहते हैं …………………. तिमिर समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी  न कट सकी न घट सकी विरह घिरी विभावरी कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की …………. इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे दुलार लो इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे पुकार लो …………                             वही जब माया  का पर्दा हटता है तो वो खुद ही गा उठते है,जीवन -म्रत्यु ,प्रेम और मोह के अंतर को समझते हैं  …………..तो कह उठते हैं …………….. अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई                                 अपनी … Read more