एक टीचर की डायरी – नव समाज को गढ़ते हाथों के परिश्रम के दस्तावेज

एक टीचर की डायरी

    “वो सवालों के दिन वो जवाबों की रातें” …जी हाँ, अपना बचपन याद आते ही जो चीजें शुरुआत में ही स्मृतियों के अँधेरे में बिजली सी चमकती हैं उनमें से एक है स्कूल | एक सी स्कूल ड्रेस पहन कर, दो चोटी करके स्कूल जाना और फिर साथ में पढना –लिखना, लंच शेयर करना, रूठना-मनाना और खिलखिलाना | आधी छुट्टी या पूरी छुट्टी की घंटी |  पूरे स्कूल जीवन के दौरान जो हमारे लिए सबसे ख़ास होते हैं वो होते हैं हमारे टीचर्स | वो हमें सिर्फ पढ़ाते ही नहीं हैं बल्कि गढ़ते भी है | टीचर का असर किसी बाल मन पर इतना होता है कि एक माँ के रूप में हम सब ने महसूस किया होगा कि बच्चों को पढ़ाते समय वो अक्सर अड़ जाते हैं, “ नहीं ये ऐसे ही होता है | हमारी टीचर ने बताया है | आप को कुछ नहीं आता |” अब आप लाख समझाती रहिये, “ऐसे भी हो सकता है” , पर बच्चे बात मानने को तैयार ही नहीं होते |   एक समय था जब हमारी शिक्षा प्रणाली में गुरु का महत्व अंकित था | कहा जाता था कि “गुरु गोविंद दोऊ खड़े ……” गुरु का स्थान ईश्वर से भी पहले है | परन्तु धीरे –धीरे शिक्षा संस्थानों को भी बाजारवाद ने अपने में लपेटे में ले लिया | शिक्षा एक व्यवसाय में बदल गयी और शिक्षण एक प्रोफेशन में | गुरु शिष्य के रिश्तों में अंतर आया, और श्रद्धा में कमी | बात ये भी सही है कि जब हम किसी काम पर ऊँगली उठाते हैं तो इसमें वो लोग भी  फँसते हैं जो पूरी श्रद्धा से अपना काम कर रहे होते हैं जैसे डॉक्टर, इंजीनीयर, सरकारी कर्मचारी और शिक्षक | क्या हम दावे से कह सकते हैं कि हमें आज तक कोई ऐसा डॉक्टर नहीं मिला , सरकारी कर्मचारी…आदि  नहीं मिला जिसने नियम कानून से परे जा कर भी सहायता ना करी हो | अगर हम ऐसा कह रहे हैं तो झूठ बोल रहे हैं या कृतघ्न हैं | अगर टीचर्स के बारे में आप सोचे तो पायेंगे कि ना जाने कितनी टीचर्स आज भी आपके जेहन दर्पण में अपनी स्नेहमयी, कर्तव्यनिष्ठ, ईमानदार छवि के रूप में प्रतिबिंबित हो रही होंगी | कितनी टीचर्स के कहे हुए वाक्य आपके जीवन सागर में लडखडाती नाव के लिए पतवार बने होंगे , तो कितने अँधेरे के दीपक | कितनी बार कोई टीचर अचनाक्ज से मिल गया होगा तो सर श्रद्धा सेझुक गया होगा |   अगर हम टीचर्स की बात करें तो इससे बेहतर कोई प्रोफेशन नहीं हो सकता क्योंकि शिक्षा के २० -२२ वर्ष पूरे करते समय हर विद्यार्थी का नाता स्कूल, कॉलेज से रहता है | समय पर जाना –आना, नियम, अनुशासन यानि एक ख़ास दिनचर्या की आदत पड़ जाती है | टीचर्स को नौकरी लगते ही अपने वातावरण में कोई खास बदलाव महसूस नहीं होता और ना ही नए माहौल से तारतम्य बनाने में अधिक परिश्रम करना पड़ता है | सबसे खास बात जहाँ और प्रोफेशंस में बदमिजाज, बददिमाग, प्रतिस्पर्द्धी लोगों से जूझना होता है वहीँ यहाँ मासूम नवांकुरों से जिनके भोले मन ईश्वर के बैलेंसिंग एक्ट के तहत सारी दुनिया की नकारात्मकता को साध रहे होते हैं |   ये तो हुई हमारी आपकी बात …एक टीचर क्या सोचता/सोचती  है …जिस पर जिम्मेदारी है कच्ची मिटटी में ऐसे बीज रोपने की जो कल छायादार वृक्ष बने | उसका काम केवल बीज रोप देना ही नहीं, उसे ये सुनिश्चित भी करना है कि हर दिन उन्हें धूप , हवा, पानी सब मिले | एक शिक्षक वो कृषक है जिसके रोप बीज २० -२२ साल बाद पल्लवित, पुष्पित होते हैं | जरूरी है अथक परिश्रम, असीम धैर्य, जरूरी है मन में उपजने वाली खर-पतवार  को निकालना, बाहरी दुष्प्रभावों से रक्षा करना | क्या ये केवल  सम्बंधित पीरियड की घंटी बजने से दोबारा घंटी बजने तक का साथ है | नहीं …ये एक अनवरत साधना है | इस साधना को साधने वाले साधक टीचर्स के बारे में हमें पता चलता है “एक टीचर की डायरी से” प्रभात प्रकशन से प्रकाशित इस किताब में भावना जी ने अपने शिक्षक रूप में आने वाली चुनौतियों, संघर्षों, स्नेह और सम्मान सबको अंकित किया है | पन्ना –पन्ना आगे बढ़ते हुए पाठक एक नए संसार में प्रवेश करता है जहाँ कोई शिष्य नहीं बल्कि पाठक, शिक्षक की ऊँगली थाम कर कौतुहल से देखता है लगन, त्याग और कर्तव्य निष्ठा के प्रसंगों को |   भावना जी को मैं एक मित्र, एक सशक्त लेखिका के रूप में जानती रही हूँ पर इस किताब को पढने के बाद उनके कर्तव्यनिष्ठ व् स्नेहमयी  शिक्षक व् ईमानदार नागरिक, एक अच्छी इंसान  होने के बारे में जानकार अतीव हर्ष हुआ है | कई पृष्ठों पर मैं मौन हो कर सोचती रह गयी कि उन्होंने कितने अच्छे तरीके से इस समस्या का सामाधान किया है | इस किताब ने मुझे कई जगह झकझोर दिया जहाँ माता –पिता साफ़ –साफ़ दोषी नज़र आये | जैसे की “रिजल्ट” में | बच्ची गणित में पास नहीं हुई है पर माता पिता को चिंता इस बात की है कि उन दो लाख रुपयों का क्या होगा जो उन्होंने फिटजी की कोचिंग में जमा करवाए हैं … “पर मिस्टर वर्मा ! सोनम शुरू से मैथ्स में कमजोर है, आपने सोचा कैसे कि वो आई आई टी में जायेगी ?” “ नहीं मिस वो जानती है कि उसे आई आई टी क्लीयर करना है | मैं उसे डराने के लिए धमकी दे चूका हूँ कि अगर दसवीं में ९० प्रतिशत से कम नंबर आये …तो मैं सुसाइड कर लूँगा …फिर भी ..|” हम इस विषय पर कई बार बात कर चुके हैं कि माता –पिता अपने सपनों का बोझ अपने बच्चों पर डाल रहे हैं | पर शिक्षकों को रोज ऐसे माता –पिता से दो-चार होना पड़ता होगा | उनकी काउंसिलिंग भी नहीं की जा सकती | सारे शिष्टाचार बरतते हुए उन्हें सामझाना किता दुष्कर है |   “अंगूठी” एक ऐसी बच्ची का किस्सा है जो शरारती है | टीचर उसे सुधारना चाहती है पर उसकी उदंडता बढती जा रही है | और एक दिन वह अपनी सहपाठिन से ऐसा कठोर शब्द ख … Read more

डस्टबिन में पेड़ -शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ

  डस्टबिन में पेड़ आशा शर्मा जी का नया बाल कहानी संग्रह है | पेशे से इंजिनीयर आशा जी कलम की भी धनी हैं | इस बाल कहानी संग्रह में २५ कहानियाँ हैं जो बच्चों के मन को सहलाती तो हैं ही एक शिक्षा बजी देती हैं | आइये रूबरू हिते हैं ‘डस्टबिन में पेड़’ से … डस्टबिन में पेड़ –शिक्षाप्रद बाल कहानियाँ   बचपन जीवन की भोर है | इस भोर में आँख खोलते हुए नन्हे शिशु को जो कुछ भी दिखाई देता है वो सब कुछ कौतुहल से भरा होता है …फिर चाहें वो सुदूर आसमान में उगता हुआ लाल गोला हो, या काली रात की चादर के नीचे से झाँकते टीम –टीम करते बल्ब | बालमन कभी समझना चाहता है दादाजी की कड़क आवाज में छिपा प्यार, तो कभी माँ की गोल-गोल रोटियों का रहस्य | कभी उसे  स्कूल का अनुशासन बड़ा कठोर लगता है तो कभी छोटे भाई /बहन का आगमन अपने सम्राज्य में सेंध | अब उन्हें समझाया कैसे जाए |हम सब कभी बच्चे रहे हैं फिर भी बड़े होते ही एक ना एक बार ये जरूर कहा होगा कि “बच्चो को समझाना कोई बच्चों का खेल नहीं”| इस काम में अक्सर हमारे मददगार होते हैं किस्से और कहानियाँ | कुछ किस्से दादी –नानी के जमाने से चले आ रहे हैं जो पुरातन होने के बावजूद चिर नूतन हैं | आश्चर्य होता है कि आज कल के बच्चे भी उन किस्सों को मुँह में ऊँगली दबा कर वैसे ही सुनते हैं जैसे कभी हमने सुने थे | फिर भी बदलते ज़माने के साथ दुनिया भर के बच्चों की चुनौतियां बढ़ी हैं तो उन किस्सों को सुनाने की दादी-नानी की चुनौती भी | दुनिया भर का बाल साहित्य दादी नानी की इस चुनौती को कम करने का प्रयास है | ये अलग बात है बच्चों की मांग के अनुसार ना बाल फिल्में बनती हैं न बाल साहित्य लिखा जाता है | मजबूरन बच्चों को बड़ों की किताबों में मन लगाना पड़ता है | जो उनके लिए दुरूह होती है | जिस कारण बचपन से ही उनकी साहित्य से दूरी हो जाती है | ये ख़ुशी की बात है कि इधर कई साहित्यकार बाल साहित्य के प्रति अपनी जिम्मेदारी को समझ कर इस दिशा में आगे आये हैं | बाल साहित्य केवल किस्से कहानी तक सीमित मनोरंजन भी हो सकता है पर अधिकतर का  उद्देश्य ये होता है कि किस्से कहानी के माध्यम  से उन्हें कोई शिक्षा  दे दी जाए या उनके मन की कोई गुत्थी सुलझा दी जाये | अलग –अलग वय के बच्चों की अलग –अलग समस्याएं होती हैं और उनके अलग –अलग समाधान | अपने बच्चों को बाल साहित्य से सम्बंधित कोई किताब खरीदते समय ये देखना जरूरी होता है कि वो किस उम्र के बच्चों की है | लेखिका -इंजी.आशा शर्मा आज बाल साहित्य की एक ऐसी ही किताब की चर्चा कर रही हूँ जिसका नाम है “डस्टबिन में पेड़” इसको लिखा है आशा शर्मा जी ने | जो लोग नियमित पत्र –पत्रिकाएँ पढ़ते हैं वो आशा जी की रचनात्मकता से जरूर परिचित होंगे |आशा जी निरंतर लिख रही हैं और खास बात ये हैं कि कविता कहानी से लेकर बाल साहित्य तक उन्होंने साहित्य के हर आयाम को छुआ है | उनसे मेरा परिचय उनकी लेखनी के माध्यम से ही हुआ था जो शमी के साथ और मजबूत हुआ | ये किताब आशा जी ने मुझे सप्रेम भेंट की | उस समय मैंने कुछ कहानियाँ पढ़ी फिर लेखन, पठन –पाठन सब कुछ जैसे कोरोना के ब्लैक होल में चला गया | इधर जो भी किताब उठाई वो आधी –अधूरी सी छूट गयी | यही हाल लिखने का भी रहा | आज जब संकल्प ले कर किसी किताब को पढने का मन बनाया जो ये झांकती हुई सी मिली | मुझे लगा इस समय के लिए ये किताब सबसे सही चयन है क्योकि  इंसान कितना भी बड़ा हो जाए उसके अन्दर एक बच्चा जरूर छिपा रहता है,  और क्या पता इसको पढ़कर मेरे अन्दर किताब पढने की जो धार कुंद हो गयी है वो फिर से पैनी हो जाए |   यकीन मानिए शुरू में तो यूँही पन्ने पलते फिर तो लगा जैसे समय कि ऊँगली पकड कर फिर से बचपन मुझे खींचे लिए जा रहा है | वो इमली खाना, या पेड़ों पर चढ़ने की कोशिश या फिर अपनी छोटी छोटी चिंताओं को घर के बड़ों ऐसे बताना जैसे उससे बड़ी समस्या कोई हो ही नहीं सकती और उनका हँसते –हँसते लोट –पोट हो जाना | प्रस्तुत संग्रह में करीब 25 कहानियाँ हैं  जो रोचक तो है हीं  शिक्षाप्रद भी हैं | जैसे ‘असली सुन्दरता ‘में ब्लैकी भालू अपने दोस्त की खरगोश की सुन्दरता देखकर खुद भी पार्लर जाता है और बाल सीधे व् नर्म करवा लेता है पर इससे उसकी समस्या कम करने के स्थान पर बढ़ जाती है | अंतत : उसे समझ आता है कि हम जैसे हैं वैसे ही सबसे अच्छे हैं | आजकल के बच्चों में भी सुदर दिखने का क्रेज है |माता –पिताखुद उन्हें पार्लर  ले जा रहे हैं | सुन्दर दिखने का ये बाज़ार खुद को कमतर समझने की नीव पर आधारित है | इस कहानी के माध्यम से बच्चों को जैसे है वैसा ही सबसे अच्छे हैं की शिक्षा भी मिल जाती है | ऐसी ही एक कहानी है ‘जिगरू मेनिया’ जिसमें जिगरू हाथी के कुश्ती में स्वर्ण पदक जीतते ही जंगल का हर जानवर अपने बच्चे को कुश्ती सिखाने में लग गया | अब जिराफ की तो गरदन ही बार –बार अखाड़े के बाहर निकल जाती और फाउल हो जाता | कमजोर जानवर तो बार –बार पिट जाते | अंत में फैसला हुआ कि हर कोई कुश्ती के लिए नहीं बना है किसी को ऊँची कूद तो किसी को भाला फेंकने  का खेल खेलना ज्यादा उचित है | वस्तुत : आज हमारी शिक्षा व्यवस्था ऐसी हो गयी है कि सब चाहते हैं कि उनका बच्चा गणित व् विज्ञानं में अच्छा करके इंजीनियर बने पर क्या हर बच्चे की रूचि उसमें होती है ? किसी को कविता पसंद तो किसी को चित्रकारी | ये कहानी सांकेतिक भाषा में उसी समस्या का समाधान है … Read more

सेल्फ आइसोलेशन के 21 दिन – हम कर लेंगे

हमारे देश के प्रधानमंत्री मोदी जी ने घोषणा करी है कि covid-19 महामारी के खतरे से देश को बचाने के लिए 25 मार्च 2020 से 14 अप्रैल 2020 तक 21 दिनों के लिए India lockdown किया जाएगा | WHO के अनुसार बिमारी के संक्रमण की तीसरी स्टेज के लिए ये 21दिन बहुत महत्वपूर्ण हैं |इस दौरान सभी को अपने घरों में रहने की हिदायत दी गयी है | ये 21 दिन देश के और देश के नागरिकों के की परीक्षा के दिन हैं |समय कठिन है पर साथ में विश्वास है कि हम कर लेंगे | आज से चैत्र नवरात्र शुरू हो गए हैं| पूजा करके माता के आगे घी का दीपक जला दिया है और एक आशा का दीप अपने मन के आगे जला  लिया है| आज रह-रह कर “बीरबल की खिचड़ी” कहानी का वह धोबी याद आ रहा है जो ठंडे पानी में रात भर खड़े रहने की हिम्मत दूर महल में जलते उस दीपक को देखकर जुटाए रहा | उसके मन में विश्वास था, शायद इसी लिए वो ऐसा कर सका| विश्वास में शक्ति होती है | इस कठिन समय में हम सब को भी इसी विश्वास के सहारे आगे बढ़ना है |  अपने पर संयम  रख कर ही हम इस बिमारी को हरा सकते हैं | हम सब को दिहाड़ी मजदूरों की, बिखारियों  की बहुत चिंता है | आशा है सरकार उनको भोजन उपलब्द्ध करायेगी | दिल्ली सरकार के कुछ वीडियो देखे हैं जिसमें पुलिस वाले भिखारियों को भोजन दे रहे हैं | लंगर में खाना मिल रहा है|आशा है और शहरों में भी यही किया जाएगा |बाकी कई किराना स्टोर्स अपने अपने एरिया में हेल्प लाइन नंबर दे रहे हैं जो घर आ कर सामान पहुंचा सकेंगे | कोरोना और ट्रॉली प्रॉब्लम बहुत पहले एक विश्व प्रसिद्द ट्रॉली  प्रॉब्लम की विश्व  पहेली के बारे में सुनती थी|  शायद आपने भी सुना हो …ये पहेली आज भी अनुत्तरित ही है | पहेली हैं कि आप ट्रॉली चला रहे हैं |  उसके ब्रेक फ़ैल हो गए | आपके सामने दो पटरियां हैं | एक पर एक व्यक्ति है दूसरी  पर ६ व्यक्ति हैं | ट्रॉली एक पटरी पर अवश्य जायेगी |  आप किसे बचायेंगे …एक को या छ: को ? इसमें बहुत सारे समीकरण बनते हैं| मैं अभी दो की बात करुँगी | जाहिर है अभी ज्यादातर लोग कहेंगे कि हम ६ को बचायेंगे | दूसरा समीकरण देखिये …दूसरी पटरी पर जो अकेला व्यक्ति खड़ा है वो हमारा अपना प्रियजन है | तब ?   पूरा विश्व आज इसी ट्रॉली प्रॉब्लम से गुज़र रहा है | इटली में डॉक्टर रोते हुए वृद्धों को मौत के मुँह में जाने दे कर जवान व्यक्ति को बचा रहे हैं |क्योंकि उनके जिन्दा रहने की अधिक सम्भावना है |  ये उनकी चाही हुई परिस्थिति नहीं है | उनके द्वारा खायी हुई कसम के भी विपरीत है पर विकट समय में उनको ये निर्णय करना पड़ रहा है | नकारात्मक सोचने  का नहीं है समय  ये समय नकारात्मक सोचने  का नहीं है | मैं जानती हूँ कि हम सब कम खा के कम सुविधाओं में जी सकते हैं पर आहत है उनके लिए जो गरीब है, दिहाड़ी मजदूर हैं, अपने बुजुर्ग रिश्तेदारों के लिए जो अकेले रहते हैं, अपने उन रिश्तेदारों के लिए जो इस समय कई शारीरिक दिक्कतों को झेल रहे हैं, या जो दूसरे शहरों में कहीं फंस गए हैं |कोशिश करें कि अगर आप के घर के आस -पास ऐसे कोई लोग हैं तो सोशल डिस्टेंसिंग बनाते हुए ही सही उनकी मदद करें | उन्हें हेल्पलाइन नंबर दें | अपने घर से खाना बना कर उन्हें दे सकते हैं | फोन पर बात कर हालचाल ले सकते हैं | दिहाड़ी मजदूरों भिखारियों के लिए पास की पंसारी की दुकान में कुछ धन दे कर एक बड़े अभियान में मदद कर सकते हैं | क्योंकि कई पंसारी स्टोर ऐसी लंगर योजना में निजी धन लगा कर आगे आ रहे हैं |  ना हो तो उपाय है कि हम स्वयं को बचा कर उन सब को बचाएँ | आशा है हम और वो सब भी इस कठिन  समय को झेल कर इस परीक्षा को पार कर लेंगे |   पहले तो जीवन को बचाने  की फिर नौकरी /व्यवसाय , देश की अर्थव्यवस्था बचाने की बहुत सारी आशंकाओं के बीच एक दिया आशा का जालाये रखें | सकारात्मक रहने की कोशिश करें पर दिमाग पर बहुत ज्यादा बोझ डाल कर नहीं | मानसिक स्वास्थ्य का भी रखें ख्याल  शारीरिक स्वास्थ्य के साथ मानसिक स्वास्थ्य को भी उतना ही बचाए रखने की जरूरत है | क्योनी ये समय डर, आशंका और निराशा का है |बार -बार हाथ धोने और सोशल डिस्टेंसिंग की नयी आदत हमें डालनी है | ऐसे में मन घब्राना स्वाभाविक है |  जब मन बहुत घबराए तो सब तरफ से मन हटा कर अपनी साँसों पर ध्यान दीजिये | इसे चाहें मेडिटेशन मान कर करें, चाहें व्यायाम | वही हवा (प्राण वायु)जो मेरी साँसों में जा रही है वही आपकी में भी वही संसार में सबकी | हम सब इस कदर जुड़े हुए हैं | यही समझ, यही  जुड़ाव ही हमें हर समस्या से पार ले जाएगा | यही हमारी शक्ति है |इसी शक्ति के सहारे हम ये 21 दिन पार कर लेंगे | नियमों का पालन करें, स्वस्थ रहे प्रसन्न रहे माँ जगदम्बा सब पर कृपा करें वंदना बाजपेयी Covid-19:कोरोना पैनिक से बचने के लिए सही सोचें आपको यह लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवगत करायें | filed under-social distencing, covid-19, virus, 21 days, corona    

Covid-19 : कोरोना पैनिक से बचने के लिए सही सोचें

  एक नन्हा सा दिया भले ही वो किसी भी कारण किसी भी उद्देश्य से जलाया जाए पूरे मार्ग का अंधियारा हरता है …गौतम बुद्ध   आज हम सब ऐसे दौर में हैं जब एक नन्हा सा वायरस COVID-19 पूरे विश्व की स्वास्थ्य पर, अर्थ पर और चेतना पर हावी है| पूरे विश्व में संक्रमित व्यक्तियों व् मृत रोगियों के लगातार बढ़ते आंकडे हमें डरा रहे हैं| हम  चाहते ना चाहते हुए भी बार-बार न्यूज़ देख रहे हैं| निरीह हो कर देख रहे हैं कि एक नन्हे से विषाणु ने पूरे विश्व की रफ़्तार के पहिये थाम दिए हैं| कल तक ‘ग्लोबल विलेज’ कहने वाले हम आज अपने घरों में सिमटे हुए हैं| देश के कई शहर लॉक डाउन हैं| कल तक हम सब के अपने-अपने सपने थे, आशाएं थीं, उम्मीदें थीं पर आज हम सब का एक ही सपना है कि हम सब सुरक्षित रहे और सम्पूर्ण मानवता इस युद्ध में विजयी हो| इन तमाम प्रार्थनाओं के बाद हम ये भी नहीं जानते कि ये सब कब तक चलेगा| जिन लोगों को एकांत अच्छा लगता था वो भी बाहर के सन्नाटे से घबरा रहे हैं| ऐसे में हम तीन तरह से प्रतिक्रिया दे रहे हैं| यहाँ मैं किसी प्रतिक्रिया के गलत या सही होने की बात न कर के मनुष्य की विचार प्रक्रिया पर बात करके उसे सही विचार चुनने की बात कह रही हूँ|   मैं और मेरा परिवार सुरक्षित रहे बाकी दुनिया… इस क्राइसिस से पहले  हममें से कई लोग बहुत अच्छे थे| पूरी दुनिया के बारे में  सोचते थे| आज वो केवल अपने और अपने परिवार के बारेमें सोच रहे हैं| ये वो लोग हैं जो ६ महीने का राशन जमा कर रहे हैं| अमेरिका में टॉयलेट पेपर तक की कमी हो गयी| ये वो लोग हैं जो बीमारों के लिए सैनिटाईजर्स की कमी हो गयी है अपने ६ महीने के स्टोर से कुछ देने नहीं जायेंगे| हो सकता है कि ये बीमारना पड़ें| इनके सारे सैनीटाईज़र्स यूँ ही ख़राब हो जाए| खाने –पीने की चीजें सड़ जाएँ पर किसी संभावित आपदा से निपटने के लिए ये सालों की तैयारी कर के बैठे हैं| बड़ी आसानी से कहा जा सकता है कि ये लोग समाज के दोषी हैं पर मैं ऐसा नहीं कह  पाऊँगी …कारण है हमारा एनिमल ब्रेन|   मनुष्य का विकास एनिमल या जानवर से हुआ है | क्योंकि जंगलों में हमेशा जान का खतरा रहता था इसलिए दिमाग ने एक कला विकसित कर ली, संभावित खतरों का पूर्वानुमान लगा कर खुद को सुरक्षित करने की| ये कला जीवन के लिए सहायक है और मनुष्य को तमाम खतरों से बचाती भी है|परन्तु ऐसे समय में जब हम जानते हैं कि खाने पीने के सामानों की ऐसी दिक्कत नहीं आने वाली हैं किसी एक व्हाट्स एप मेसेज पर, किसी एक दोस्त के कहने पर, किसी एक न्यूज़ पर दिमाग का वो हिस्सा एक्टिव हो जाता है और व्यक्ति बेतहाशा खरीदारी करने लगता है| हममे से कई लोगों ने इन दिनों इस बात को गलत बताते हुए भी  मॉल में लगी लंबी लाइनों को देखकर खुद भी लाइन में लग जाना बेहतर समझा होगा| भले ही हम उस समय खाली दूध या कोई एक सामान लेने गए हों और खुद भी पैनिक की गिरफ्त में आ गए | इधर हमने भरी हुई दुकानों में  एक दिन में पूरा राशन खाली होते हुए देखा है|   हम तो आपस में ही पार्टी करेंगे- दूसरी तरह के लोग जिन्हें हम अति सकारात्मक लोग कहते हैं| पॉजिटिव-पॉजिटिव की नयी थ्योरी इनके दिमाग में इस कदर फिट है कि इन्हें हर समय जोश में भरे हुए रहना अच्छा लगता है| पॉजिटिव रहने का अर्थ  ये नहीं होता है कि आप सावधानी और सतर्कता  के मूल मन्त्र को भूल जाएँ| जब की सकारात्मकता का आध्यात्मिक स्वरुप हमें ये सिखाता है कि आप जो भी काम करें पूरी तन्मयता और जागरूक अवस्था में करें, अवेयरनेस के साथ करें| शांत रहने का अर्थ नकारत्मक होना नहीं है| एक बार संदीप माहेश्वरी जी ने कहा था कि सक्सेस-सकस भी एक अवगुण है| आम तौर पर लोग अटैचमेंट नहीं सीख पाते | लेकिन जो लोग सक्सेस के प्रति अटैच्ड हो जाते हैं उनके दिमाग में चौबीसों घंटे सक्सेस सक्सेस या काम –काम चलता रहता है| अपने बिजनेस को आगे बढ़ाना रात और सपनों में भी चलता रहता है| यही स्वास्थ्य पर भारी पड़ता है| जितना अटैच होना सीखना पड़ता है उतना ही डिटैच होना भी | कब आप स्विच ओं कर सकें कब ऑफ कर सकें | अति सकारात्मकता  भी यही प्रभाव उत्प्प्न करती है | अगर व्यक्ति चौबीसों घंटे सकारात्मक रहेगा तो उसका दिमाग सतर्क रहने वाला स्विच ऑफ़ कर देगा| यही हाल कोरोना व्यारस के दौर में हमें देखने को मिल रहा है| जब पूरा शहर लॉक डाउन किया गया है तो कुछ लोग जबरदस्ती अपने घर में दूसरों को बुला रहे हैं | पार्टी कर रहे हैं | पुलिस को धत्ता बता कर ये ऐसा इसलिए कर पा रहे हैं क्योंकि ये एक –एक कर लोगों को घर बुलाते हैं | जब २५ -३० लोग इकट्ठा हो जाते हैं तब पार्टी शुरू होती है| इनका कहना होता है कि बिमारी –बिमारी सोचने से नकारात्मकता फैलती है|   अगर समझाओं  तो भी इनका कहना होता है कि अगर मैं मरुंगा तो मैं मरूँगा …इससे दूसरे को क्या मतलब | सकार्त्मकता के झूठे लबादे ने इनका सत्रकता वालादिमागी स्विच ऑफ कर दिया है | जो इन्हें खुद खतरे उठाने को विवश करता है और सामुदायिक भावना के आधीन हो सामाजिक जिम्मेदारी की अवहेलना के प्रति उकसाता है| ऐसे ही कुछ अति सकारात्मक लोगों द्वारा प्रधानमंत्री द्वारा आवश्यक सेवाओं में लगे लोगों को धन्यवाद ज्ञापन के आह्वान को ध्वनि तरंगों के विगन से जोड़ देने का नज़ारा हम कल २२ मार्च को आम जनता के बीच देख चुके हैं | जब जनता जुलुस के रूप में सड़कों पर उतर आई | इसके पीछे व्हाट्स एप में प्रासारित ये ज्ञान था| हमें पता है कि आम जनता में समझ अभी इतनी नहीं है| वो वैज्ञानिक दृष्टि से सिद्ध करे गए ऐसे व्हाट्स एप ज्ञान से प्रभावित हो जाती है| ऐसे में इन अति सकारात्मक लोगों … Read more

थप्पड़- घरेलू हिंसा का मुखर विरोध जरूरी

  “थप्पड़ से डर नहीं लगता साहेब, प्यार से लगता है” दबंग फिल्म का ये डायलॉग भले ही प्रचलित हुआ हो पर थप्पड़ से भी डरना चाहिए | खासकर जब वो घरेलु हिंसा में एक हथियार की तरह इस्तेमाल हो | इसी विषय पर तापसी पन्नू की एक फिल्म आने वाली है “थप्पड़”| फिल्म का ट्रेलर आते ही इसके चर्चे शुरू हो गए | ट्रेलर के मुताबिक़ पत्नी अपने पति से तलाक लेना चाहती है| इसका कारण है उसने उसे एक थप्पड़ मारा है| “बस एक थप्पड़” यही सवाल महिला वकील का है, उसकी माँ का है, सास का है और समाज के तमाम लोगों का भी है | उसका जवाब है, “हाँ, बस एक थप्पड़, पर नहीं मार सकता”| हम सब को भी अजीब लगता है कि एक थप्पड़ पर कोई तलाक कैसे ले सकता है? उसका जवाब भी ट्रेलर में ही है कि इस एक थप्पड़ ने मुझे वो सारी परिस्थितियाँ साफ़ –साफ़ दिखा दीं जिनको इग्नोर कर मैं शादी में आगे बढ़ रही थी| थप्पड़ -जरूरी है घरेलू हिंसा का मुखर विरोध अपरोक्ष रूप से बात थप्पड़ की नहीं उन सारे समझौतों की है जो एक स्त्री अपनी शादी को बचाए रखने के लिए कर रही है | वैसे शादी अगर एकतरफा समझौता बन जाए तो एक ट्रिगर ही काफी होता है| लेकिन हम अक्सर सौवां अपराध देखते हैं जिसके कारण फैसला लिया गया पर वो निन्यानवें अपराध नहीं देखते जिन्हें किसी तरह क्षमा कर, सह कर, नज़रअंदाज कर दो लोग जीवन के सफ़र में आगे बढ़ रहे थे | अभी फिल्म रिलीज नहीं हुई है इसलिए उसके पक्ष या विपक्ष में खड़े होने का प्रश्न नहीं उठता | इसलिए बात थप्पड़ या शारीरिक हिंसा पर ही कर रही हूँ |इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत सारी महिलाएं घरों में पिटती हैं| हम सब ने कभी न कभी महिलाओं को सड़कों पर पिटते भी देखा ही होगा| सशक्त पढ़ी लिखी महिलाएं भी अपने पतियों से पिटती हैं |हमारी ही संस्कृति में स्त्रियों पर हाथ उठाना वर्जित माना गया है | भीष्म पितामह तो पिछले जन्म में स्त्री रही शिखन्डी के आगे भी हथियार रख  देते हैं | फिर भी  बहनों और माओं के अपने भाइयों और बेटों से पिटने के भी किस्से हमारे ही समाज के हैं| जिन रिश्तों में अमूमन पुरुष के हाथ पीटने के लिए नहीं उठते वहां संस्कार रोकते हैं पर अफ़सोस पत्नी के मामले में ऐसे संस्कार पुरुष में नहीं डाले जाते| जिस बेटे को अपनी पिटती हुई माँ से सहानुभूति होती है वो भी पत्नी को पीटता है| पुन: पति –पत्नी के रिश्ते पर ही आते हुए कहूँगी कि मैंने अक्सर देखा है कि एक स्त्री जिसे एक बार थप्पड़ मारा गया और उसने अगले दिन आँसू पोछ कर वैसे ही काम शुरू कर दिया तो दो दिन बाद उसे थप्पड़ फिर पड़ेगा | और चार दिन बाद हर मारपीट के बाद सॉरी बोलने के बावजूद थप्पड़ पड़ते जायेंगे| सच्चाई ये है कि गुस्से में एक बार हाथ उठाने के बाद संकोच खत्म हो जाता है | फिर वो बार-बार उठता है | लोक भाषा में कहें तो आदमी मरकहा हो जाता है | और औरतें बुढापे में भी पिटती हैं | मैंने ऐसी 70 -75 वर्षीय वृद्धाओं को देखा है जो अपने पतियों से पिट जाती हैं| ये हाथ बुढापे में अचानक से नहीं उठा था ये जवानी से लगातार उठता आ रहा था | आज जब हम बच्चों को पीटने की साइकोलॉजी और दूरगामी प्रभाव पर बात करने लगे हैं तो बात माँ के पिटने पर भी होनी चाहिए| पहले थप्पड़ पर पर तलाक लेना उचित नहीं है | लेकिन इसके लिए पीछे की जिन्दगी की पड़ताल जरूरी है | परन्तु पहला थप्पड़ जो कमजोर समझ कर, या औकात दिखाने के लिए, या पंचिंग बैग समझ कर अपना गुस्सा या फ्रस्टेशन निकालने के लिए किया है गया है तो ये एक वार्निंग कि ऐसा अगली बार भी होगा| किसी भी महिला को इसे हल्के में नहीं लेना चाहिए| इस घरेलु हिंसा का मुखर विरोध जरूरी है | एक बात पर और ध्यान देना चाहिए कि आज बहुत सी लव मैरिज हो रही हैं कई लोग ११ -१२ की नाजुक उम्र से दोस्त हैं | बाद में शादी कर लेते हैं| उनमें धींगामुस्ती, हलके –फुल्के थप्पड़ मार देना चलता रहता है| ये विवाह के बाद भी चलता रहता है| लेकिन यहाँ आपसी समझ और बराबरी में कोई अंतर नहीं होता | ये दोनों तरफ से होता है | इसे नज़रअंदाज कर देना या प्रतिक्रिया व्यक्त करना ये उन दोनों की आपसी अंडरस्टैंडिंग पर निर्भर करता है| लेकिन अगर ये हिंसात्मक है और आत्मसम्मान पर चोट लगती है या पूर्व अनुभव के आधार पर इस बात का अंदाजा हो रहा हो कि ये हाथ बार –बार उठेगा तो पहले ही थप्पड़ पर मुखर विरोध का स्टैंड लेना जरूरी है | क्योंकि वैसे भी अब वो रिश्ता पहले जैसा नहीं रह जाएगा | सबसे अहम् बात चाहे कितना भी कम प्रतिशत क्यों ना हो पुरुष भी पत्नियों के हिंसक व्यवहार के शिकार होते रहे हैं | कुछ स्त्रियाँ थप्पड़ मारने में भी पीछे नहीं है| ऐसे में समाज के डर से या पुरुष हो कर …के डर चुप बैठ जाना सही नहीं है | पहले थप्पड़ का विरोध जरूरी है और रिश्ते की पड़ताल भी | वंदना बाजपेयी आपको   लेख “थप्पड़- घरेलू हिंसा का मुखर विरोध जरूरी   “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-crime against women, violence, domestic violence

सुबह ऐसे आती है –उलझते -सुलझते रिश्तों की कहानियाँ

    अंजू शर्मा जी से मेरा परिचय “चालीस साला औरतें” से हुआ था | कविता फेसबुक में पढ़ी और परस्पर मित्रता भी हुई | इसी कविता की वजह से मैंने बिंदिया का वो अंक खरीदा था | उनका पहला कविता संग्रह “कल्पनाओं से परे का समय”(बोधि प्रकाशन) लोकप्रिय हुआ | और  मैं शुरू –शरू में उनको एक सशक्त कवयित्री के रूप में ही जानती रही परन्तु हौले –हौले से उन्होंने कहानियों में दस्तक दी और पहली ही कहानी से अपनी महत्वपूर्ण उपस्थिति दर्ज कराई | पिछले कुछ वर्षों से वो कहानी के क्षेत्र में तेजी से काम करते हुए एक सशक्त कथाकार के रूप में उभरी हैं | पिछले वर्ष उनका कहानी संग्रह आया, “एक नींद हज़ार सपने”(सामयिक प्रकाशन) और इस वर्ष भावना प्रकाशन से “सुबह ऐसे आती है “आया  | इसके अतिरिक्त डायमंड प्रकाशन से उनका उपन्यास “ शंतिपुरा- अ टेल  ऑफ़ लव एंड ड्रीम्स” आया है | इसके  अतिरिक्त ऑनलाइन भी उनका उपन्यास आया है | वो निरंतर लिख रही हैं | उनके साहित्यिक सफ़र के लिए शुभकामनाएं देते हुए आज मैं बात करुँगी उनके दूसरे कहानी संग्रह “ सुबह ऐसे आती है “ के बारे में ….   वैसे शेक्सपीयर ने कहा है कि “नाम में क्या रखा है” पर इस समय मेरे जेहन में दो नाम ही आ रहे हैं | उनमें से एक है “एक नींद हज़ार सपने” तो दूसरा “सुबह ऐसे आती है “ | एक कहानी संग्रह से दूसरे तक जाते हुए नामों की ये यात्रा क्या महज संयोग है या ये आती हुई परिपक्वता  की निशानी या  एक ऐलान | यूँ तो नींद से जागने पर सुबह आ ही जाती है | परन्तु सपनों भरी नींद से जागकर निरंतर परिश्रम करते हुए “सुबह ऐसे आती है “ का ऐलान एक समर्पण, निष्ठां और संकल्प का ऐलान है | तो साहित्यिक यात्रा के एक पड़ाव से दूसरे पड़ाव तक ले जाता है |ऐसा कहने के पीछे एक विशेष उद्देश्य को रेखांकित करना  है | वो है एक स्त्री द्वारा अपने फैसले स्वयं लेने की शुरुआत करने का | यह एक स्त्री के जीवन में आने वाली सुबह है, जहाँ वो पितृसत्ता को नकार कर अपने जीवन की बागडोर अपने हाथ में लेने का संकल्प करती है | सुबह ऐसे आती है –उलझते -सुलझते रिश्तों की कहानियाँ अंजू शर्मा जी का कहानी कहने का एक सिग्नेचर स्टाइल है | वो कहानी की शुरुआत  बहुत ही इत्मीनान से करती हैं …शब्द चित्र बनाते हुए, और पाठक उसमें धंसता जाता है | हालाँकि इस कहानी संग्रह  में कहने का लहजा थोड़ा जुदा है पर उस पर अंजू शर्मा जी की खास शैली दिखाई देती है | जहाँ उनकी कवितायें बौद्धिकता का जामा  पहने होती हैं वहीँ कहानियाँ आस –पास के जीवन को सहजता से उकेरती हैं | पहले कहानी संग्रह में वे ज्यादातर वो कहानियाँ लायी थी जो समाजिक सरोकारों से जुडी हुई थी पर इस कहानी संग्रह में वो रिश्तों की उलझन से उलझती सुलझती कहानियाँ  लायी हैं | क्योंकि रिश्ते हमारे मन और भावनाओं से जुड़े हैं इसलिए  ज्यादातर कहानियों में पात्रों का मानसिक अंतर्वंद व् आत्म संवाद उभरकर आता है | रिश्तों के सरोकार भी सरोकार ही होते हैं | जहाँ सामाजिक सरोकार सीधे समाज या समूह की बात करते हैं वहीँ रिश्ते से जुड़े सरोकार व्यक्ति की बात करते हुए भी समष्टि तक जाते हैं | आखिर मानवीय संवेदना एक जैसी ही तो होती है | अंजू जी सपष्ट करती हैं कि, “सरोकारों से परे कोई रचना शब्दों की कीमियागिरी तो हो सकती है पर वो कहानी नहीं बन सकती | लिहाजा सरोकारों का मुझे या मेरा सरोकारों से दूर जाना संभव नहीं | तो भी कहानियों में पढ़ा जाने लायक कहानीपन बना रहे बस इतनी सी कोशिश है |” सबसे पहले मैं बात करुँगी संग्रह की पहली कहानी “उम्मीदों का उदास पतझड़ साल का आखिरी महीना है” | ये कहानी प्रेम कहानी है | यूँ तो कहते हैं कि हर कोई अपनी पहली कविता प्रेम कविता ही लिखता है और संभवत: पहली कहानी प्रेम कहानी ही लिखता होगा | प्रेम पर लिखना कोई खास बात नहीं है | खास बात ये है कि प्रेम पर जब इतना लिखा  जा रहा हो तो उसे अलहदा तरीके से लिखना ताकि ध्यान खींचा जा सके | इस कहानी में कुछ ऐसा ही है | मुझे लगता है किप्रेम के संयोग और वियोग में संयोग लिखना आसान है क्योंकि वहां शब्द साथ देते हैं | मन साथ देता है और पाठक सहज जुड़ाव महसूस करता है परन्तु वियोग में शब्द चुक जाते हैं | प्रकृति भी विपरीत लगती है | तुलसीदास जी ने बहुत सुंदर लिखा है, “घन घमंड नभ गरजत घोरा। प्रिया हीन डरपत मन मोरा॥“ जो पीड़ा होती है सब मनोभावों में अन्तर्निहित होती है | सारा कुछ मानसिक अंतर्द्वंद होता है | ये कहानी भी कुछ ऐसी ही कहानी है | जहाँ लेखिका ने वर्णनात्मक शैली का प्रयोग किया है | जिसमें सारी  प्रकृति सारे मनोभाव निराशा और अवसाद के स्वर में बोलते हैं | एक प्रेम कहानी के ऐसे धीरे धीरे त्रासद अंत की ओर बढ़ते हुए पाठक का दिल टूटता जाता है | यहीं कहानी यू टर्न  लेती है, जैसे बरसात के बाद धूप  खिल गयी हो | दरअसल कहानी एक रहस्य के साथ आगे बढती है और पूरे समय रहस्य बना रहता है | यह इस कहानी की विशेषता है |   “सुबह ऐसे आती है” कहानी एक स्त्री के अपने भावी बच्चे के साथ खड़े होने की है | माँ और बच्चे का रिश्ता दुनिया का पहला रिश्ता है और सबसे अनमोल भी | पितृसत्ता बच्चे के नाम के आगे पिता का नाम जुड़ने/न जुड़ने से उसे जायज या नाजायज भले ही कह दे पर इससे माँ और बच्चे के बीच के संबंद्ध पर कोई फर्क पड़ता | यूँ पति-पत्नी के रिश्तों में विचलन मर्यादित तो नहीं कहा जा सकता पर अस्वाभाविक भी नहीं है | कई बार ये विचलन पूर्व नियोजित नहीं होता | कई बार जीवन नदिया में धीरे –धीरे कर के बहुत सारे कारण इकट्ठे हो जाते हैं जब संस्कार और मर्यादाएं अपना बाँध तोड़ देते हैं | ऐसी ही एक स्त्री है … Read more

कुल्हड़ भर इश्क -बनारसी प्रेम कथा

कुल्हड़ भर इश्क एक बनारसी हल्की -फुलकी प्रेम कथा है | बिलकुल बनारसी शंकर जी की बूटी की तरह जिसका नशा थोड़ी देर चढ़े खूब उत्पात मचाये और फिर उतर जाए |  प्रेम कहानियों में भी मुझे थोड़ी गंभीरता पसंद है | जो मुझे विजयश्री तनवीर ( अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ) और प्रियंका ओम ( मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है ) अक्टूबर जंक्शन (दिव्य प्रकाश दुबे ) अंजू शर्मा (समय रेखा ) में दिखती है | ज्यादातर मैं उन किताबों पर नहीं लिखती हूँ जो मुझे बहुत  पसंद नहीं होती हैं | इसका कारण है कि समयाभाव के कारण मैं उन किताबों पर भी नहीं लिख पाती जो मुझे पसंद आई हैं | फिर उन पर लिखना संभव नहीं जो मुझे पसंद नहीं आई हैं | फिर भी मैंने इस बनारसी प्रेम कथा  को लिखने के लिए चुना क्योंकि मुझे लगता है कि ये किताब युवाओं को पसंद आ सकती है जो कॉलेज में पढ़ रहे हैं | जिनकी उम्र किशोरावस्था से लेकर २४ -२५ वर्ष तक है | कॉलेज में पढ़ते हैं |जिन्हें नौकरी के लिए पढाई और इश्क दोनों को संभालना पड़ता है | मैंने भी एक युवा समीक्षक की समीक्षा को पढ़कर  ही इसे खरीदने का मन बनाया था |अमेजॉन पर इसके ढेर सारे रिव्यू इसके गवाह है | वैसे भी फिल्म हो, उपन्यास हो या फैशन युवा जिसे पसंद करते हैं वो बहुत जल्दी लोकप्रिय हो जाता है | किस किताब की चर्चा दस साल/20 साल  बाद भी होगी ये समय तय करता है | दूसरी बात इस किताब पर लिखने के पक्ष में ये है कि  किताब के लेखक कौशलेन्द्र मिश्र की उम्र मात्र 22 वर्ष है | और उनके प्रथम प्रयास के रूप में इसे उचित ठहराया जा सकता है | इस पर लिख कर  नवांकुर  कलम को प्रोत्साहित करना  मुझे अपना दायित्व लगा | मैने एक बात गौर की है कि इधर बहुत सारी किताबें वाराणसी  की पृष्ठभूमि से आ रही हैं | बनारस के घाट वहाँ  कि ठंडाई ,जीवन नदिया और दार्शनिकता इन किताबों की खासियत है | अभी कुछ समय पहले की बात है कि मुझे वाराणसी जाने का बहुत मन कर रहा था | क्योंकि मेरा जन्म वाराणसी में हुआ है और बाद में भी अक्सर पिताजी बाबा विश्वनाथ के  दर्शन के लिए हम लोगों को ले जाते रहे है | जिस कारण वहां से लगाव व् वहाँ  जाने की इच्छा स्वाभाविक ही लगी | परन्तु एक दिन एक किताब पढ़ते -पढ़ते अचानक क्लिक  किया कि साहित्य में वाराणसी का बहुत अधिक वर्णन पढने से अवचेतन में ये इच्छा जाग्रत हुई | ये एक शोध का विषय भी हो सकता है कि कितनी किताबें अभी हाल में बनारस की पृष्ठभूमि पर लिखी गयीं है | फिलहाल इतना तो कह सकते हैं कि वाराणसी का नशा फिलहाल साहित्य से जल्दी उतरने वाला नहीं है | इसका कारण है वहां की हवाओं में घुली दार्शनिकता | कुल्हड़ भर इश्क -बनारसी प्रेम कथा  तो चलिए लौट कर आते हैं कुल्हड़ भर इश्क पर जिसे कौशलेन्द्र मिश्र ने काशीश्क का सबटाइटल भी दिया है |  कौशलेन्द्र ने अपना बी ए (हिंदी ऑनर्स ) और बी ऐड बी एच यू से ही किया है  फिलहाल वो वहीँ से हिंदी में परा स्नातक कर रहे हैं | कहानी भी बी ए, बी ऐड से गुज़रती हुई परास्नातक तक पहुँचती हैं | यानी कि कहानी  की बुनावट गल्प के साथ सत्य की भी जरूर होगी | तभी हॉस्टल का जीवन, लड़कियों को ताकते और उनके पीछे भागते लड़के , पढाई के दौरान परवान चढ़ती प्रेम कहानियाँ ,जिनमें से कुछ कॉलेज बदलते ही बदल जाती हैं और कुछ अटेंडेंस रजिस्टर की तरह हमेशा के लिए बंद हो जाती है | तो कुछ ऐसी  होती है जो किसी मोड़ पर अचानक से बिछुड़ जाती है | ये कहानियाँ ही खास कहानियाँ हैं क्योंकि इनकी हूक  जिन्दगी में और कैरियर में हमेशा ही रहती हैं | हम सदियों से सुनते आये हैं कि कॉलेज का समय जीवन बनाता भी है और बिगाड़ता भी है | इस लिए कहानी की शुरुआत करते समय ही कौशलेन्द्र ये इच्छा जताते हैं कि विद्यार्थियों के लिए इश्क की कोई खुराक होनी चाहिए जिस पर मार्कर  से निशान लगा हो | बस इतना पीना है | कहने का तात्पर्य ये है कि कुल्हड़ भर इश्क को घूँट -घूँट पीना है ताकि पढाई भी चलती रहे और प्रेम भी | क्योंकि अक्सर इन प्रेम प्रसंगों के चलते “ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम ” वाली स्थिति हो जाती है | प्रेमियों की कहीं और शादी हो जाती है और कैरियर की नैया बीच भंवर में डूब जाती है | बहुत से बच्चों को इस उम्र में  भटक कर कैरियर बर्बाद करते देखा है इसलिए कौशलेन्द्र की इस बात कमें पुरजोर समर्थन करती हूँ | तो आते हैं कहानी पर |कहानी सीधी सरल है | कहानी के नायक सुबोध को अपनी कक्षा में पढने वाली रोली से प्रेम  हो जाता है | सुबोध ब्राह्मण है और रोली ठाकुर | रोली थोड़ी टॉम बॉय  टाइप की है | पर सुबोध का लगातार पीछा करना एक दिन रोली को भी प्रेम की गिरफ्त में ले ही लेता है | दोनों पढ़ते भी हैं और प्रेम को भी निर्धारित समय देकर संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं | उनकी लव मैरिज में घरवालों को भी दिक्कत नहीं है | बस शर्त नौकरी की है | न सिर्फ रोली के घरवाले सुबोध की नौकरी चाहते हैं बल्कि सुबोध के पिता भी नौकरी वाली बहु चाहते हैं ताकी लव मैरिज और नौकरी वाली बहु के होने से विवाह करने के उनक्ले व्यवसाय में भी इजाफा हो | दोनों मेहनत करते हैं | प्रयास करते हैं | इस समय देश की राजनीति रंग लाती है और कुछ प्रदेशों में शिक्षकों के चयन की परीक्षा रद्द हो जाती है | अब  वो मिलते हैं या बिछुड़ते हैं ये तो आप किताब पढ़ कर ही जानेगे | कहानी जैसे -जैसे आगे बढती है थोड़ी संजीदा होती है …या ये कहना ज्यादा सही रहेगा कि कुल्हड़ भर | रोली का किरदार तेज तर्रार होते हुए भी प्रभावित करता है | किताब … Read more

माउथ ऑर्गन –किस्सों के आरोह-अवरोह की मधुर धुन

  जब बात किस्सों की आती है तो याद आती है जाड़े की गुनगुनी धूप सेंकते हुए, मूंगफली चबाते हुए दादी –नानी के पोपले मुँह से टूटे हुए दांतों के बीच से सीटी की तरह निकलती हवा के साथ निकलती रोचक किस्सों की फुहार, “हमारे जमाने में तो …|” या फिर रात को अंगीठी के चारों ओर घेरा बनाकर भाई –बहनों के बीच किस्सों की अन्ताक्षरी, “जानते हो, मेरे क्लास में ना..” | किस्सों का जादू ही कुछ ऐसा है जो सब को अपने पास खींच लाता है, “हाँ भैया ! और बताओ| और शुरू हो जाते हैं किस्से यहाँ वहाँ सारे जहाँ के |“ मुझे लगता है कि हम भारतीय किस्से सुनने-सुनाने के मामले में कुछ ज्यादा ही शौक़ीन रहे हैं | इसके लिए हमारे पास कभी समय की कमी नहीं रही | शादी-बरात से लेकर, बसों और ट्रेनों में धक्के खाते हुए, और चाय और पान की गुमटी पर भी जहाँपनाह किस्सों का दरबार सजा ही रहता है | खैर ! इस बार सर्दी भी ऐसी नहीं है कि गुनगुनी धूप दिखे | बड़े शहरों में अंगीठियाँ भी कब की एंटीक आइटम हो गयी हैं | लोग भी और-और का नारा लगाते हुए तेज़ दौड़ने लगे हैं, घड़ी की सुइयां भी एक घंटे में दो घंटे की रफ़्तार से सफ़र तय करने लगीं | शहर तो छोड़िये, गाँव की चौपाले भी टी.वी. कम्प्यूटर के आगे पालथी मार कर बैठने लगीं हैं | तो ऐसी में ताज़े-ताज़े नर्म-नर्म किस्सों के पुराने आशिक कहाँ जाए ? सुशोभित जी की किताब ‘माउथ ऑर्गन’ किस्से के उसी स्वप्न लोक में ले जाती है | जैसे सात सुरों से तरह –तरह की धुन बनायी जाती है वैसे ही इसमें तरह- तरह की किससे धुनें हैं | जो जो उन्हीं मूल इमोशंस से जुड़े होने के बावजूद अपने आरोह अवरोह से अलग –अलग संगीत पैदा करती हैं |     माउथ ऑर्गन –किस्सों के आरोह-अवरोह की मधुर धुन यूँ तो किस्सागोई किसी कहानी का हिस्सा होती है पर इसे पूरी तरह से कहानी नहीं कहा जा सकता है | ये कुछ इसी तरह से है जैसे बादल से अलग हुआ उसका कोई टुकड़ा अपने आप में मुक्कमल बादल ही है | बड़े बादल देर तक बरसते हैं तो छोटे बादल की रिमझिम फुहार भी भली लगती है | किस्से कथा और कथेतर के बीच का कुछ हैं | मैं सुशोभित जी की इस बात से सहमत हूँ कि इसमें कुछ किस्से ‘नैरेटिव प्रोज’ और कुछ ‘फिक्शनलाईज़ड मेमायर्स’ की श्रेणी में आते हैं | यानी कुछ ब्यौरों में रमने वाला गल्प और कुछ आपबीतियाँ | किस्सों का स्वरुप कुछ भी हो उनमें सबसे महत्वपूर्ण होता है उनको कहने की कला | ये कला ही है, बोलने वाला जब बोलता है तो सुनने वाला आँखों में आगे क्या होगा का प्रश्नवाचक चिन्ह खींचे, उत्सुकता में मुँह बाए सुनता है | किस्सों का किसी महत्वपूर्ण रोचक मुकाम पर खत्म हो जाना ही उनकी विशेषता है |  चलिए किस्से की बातों से निकल कर आते हैं किस्सों-कहानियों या कहन  की किताब यानी कि ‘माउथ ऑर्गन’ पर | इस किताब में छोटे –बड़े सौ से ऊपर किस्से हैं | जो अलग –अलग मूड के हैं | कहीं पाठक को जानकारी देते तो कहीं उनकी भावनाओं के जल में एक छोटा सा कंकण डाल कर भंवर उत्पन्न करते हुए, तो कहीं यूँ ही हलके –फुल्के टाइम पास टाइप | हर किसी की एक अलग आवाज़, एक अलग अहसास | ये किस्से आपस में जुड़े हुए नहीं हैं | इसलिए आप इस किताब को कहीं से भी शुरू कर के पढ़ सकते हैं | जब मन आया जिस किस्से पर नज़र जम गयी उसी को पढ़ लिया | वैसे कुछ किस्सों में पुराने किस्सों का जिक्र है | उस में भी कोई दिक्कत नहीं है, आप पन्ना पलटिये उस किस्से तक जाइए और पढ़ डालिए | आसान इसलिए कि किस्से छोटे –छोटे हैं और बहुत समय नहीं माँगते | फिर भी हर पाठक का अपना –अपना तरीका होता है |  जैसे मैंने सबसे पहले किस्सा पढ़ा “अखबार” | ये शायद पीछे से दो चार किस्से पहले है | मैंने इसे ही पढने के लिए सबसे पहले क्यों चुना मुझे पता नहीं | शायद एक कारण ये है कि एक लम्बे समय तक मैं भी अख़बार को पीछे के पन्नों से पढ़ती थी | पहला और दूसरा पन्ना मैं आँखों के आगे से ऐसे सरका देती थी जैसे टीवी का रिमोट हाथ में लेकर कुछ फ़ास्ट फॉरवर्ड कर दिया हो | ये वो समय था जब पिताजी की मृत्यु के बाद मैं निराशा से जूझ रही थी | और मुझे लगता था कि मैं दुःख से इतना भरी हुई हूँ कि दुनिया का और कोई दुःख सह नहीं पाऊँगी |अब अखबार हैं खबरे हैं तो वो दुःख को ही लिखेंगे | जैसा की सुशोभित जी लिखते है कि“बुरी खबरें सबसे अच्छी खबरें होती हैं, क्योंकि बुरी खबरें खूब बिकाऊ होती हैं बाज़ार में हाथों –हाथ उठती हैं | ये हमें अखबारों में सिखाया गया था, और ऐसा सिखाने वालों में वे अखबार भी शुमार थे, जो आज ‘केवल अच्छी खबरों” का स्वांग रहते हैं |” ‘स्कूल’ से लेकर ‘पासपोर्ट साइज़ तसवीरें’ पिता और मासूम पुत्र के किस्से हैं | जिसमें पुत्र की मासूम बातें दिल को गुदगुदाती हैं वहीँ पिता की छलक-छलक कर बहती ममता भाव –विभोर कर देती है | स्कूल गेट पर इंतज़ार करते पिता के शब्द देखिये,  “बाहर जहाँ बच्चों के नन्हे जूते तरतीब से सजे होते हैं, वहां खड़े –खड़े इंतज़ार करते पापा को अक्सर ये मायूसी घेर लेती है कि बेटा धीरे –धीरे उस दुनिया में प्रवेश करता जा रहा है, जहाँ शायद उस तक हरदम पहुँच पाना इतना सरल नहीं रहेगा, जैसे हाथ बढाकर उसकी आँखों पर चले आये बालों को पीछे हटा देना |” “दुनिया बढती जा रही है इसका मतलब दुनिया में मौजूद दूरियाँ भी फ़ैल रही हैं |”इस किस्से को पढ़कर किसको अपने बच्चे के स्कूल के गेट पर उसकी छुट्टी की प्रतीक्षा में खड़े रहना नहीं याद आ जाएगा | “माउथ ऑर्गन’ किस्सा जिस पर किताब का नाम रखा गया है वो भी चुनु और उसके पापा का ही किस्सा है … Read more

तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप

आज आपसे ” तपते  जेठ में गुलमोहर सा  उपन्यास के बारे में  बात करने जा रही हूँ |यह  यूँ तो एक प्रेम कहानी है पर थोड़ा  अलग हट के | कहते हैं प्रेम ईश्वर की बनायीं सबसे खूबसूरत शय है पर कौन इसे पूरा पा पाया है या समझ ही पाया है | कबीर दास जी तो इन ढाई आखर को समझ पाने को पंडित की उपाधि दे देते हैं | प्रेम अबूझ है इसीलिए उसे समझने की जानने की ज्यादा से ज्यादा इच्छा होती है | प्रेम में जरूरी नहीं है कि विवाह हो | फिर भी अधिकतर प्रेमी चाहते हैं कि उनके प्रेम की परणीती विवाह मे हो |  विवाह प्रेम की सामजिक रूसे से मान्य एक व्यवस्था है | जहाँ प्रेम कर्तव्य के साथ आता है | मोटे तौर पर देखा जाए तो  किसी भी विवाह के लिए कर्तव्य प्रेम की रीढ़ है | अगर कर्तव्य नहीं होगा तो प्रेम की रूमानियत चार दिन में हवा हो जाती है  | हाथ पकड़ कर ताज को निहारने में रूमानियत तभी घुलेगी जब बच्चो की फीस भर दी हो | अम्मा की दवाई आ गयी हो | कल के खाने का इंतजाम हो | प्रेम के तिलिस्म कई बार कर्तव्य के कठोर धरातल पर टूट जाते हैं | पर ये बात प्रेमियों को उस समय कहाँ समझ आती है जब किसी का व्यक्तित्व अपने अस्तित्व पर छाने लगता है | “कितनी अजीब सी बात है ना …आपके पास तो कई सारे घर हैं …बंगला है , गाँव की हवेली है …पर ऐसी कोई जगह कोई कोना आपके पास नहीं …जहाँ आप इन पत्रों को सहेज सकें | चलो, इस मामले में तो हम दोनों की किस्मत एक जैसी ठहरी, घर होते हुए बेघर |” वैसे भी प्रेम और प्रेमियों में इतनी विविधता है कि उसे घर-गृहस्थी में पंसारी के यहाँ से लाये जाने वाले सामान  की लिस्ट या खर्चे की डायरी में दर्ज नहीं किया जा सकता | फिर तो उसकी विविधता ही खत्म हो जायेगी | ये तो किसी के लिए खर्चे की डायरी  से छुपा कर रखी गयी चवन्नी -अठन्नी भी हो सकता है तो किसी के लिए  पूरी डायरी ….एक खुली किताब | जैसे “तपते जेठ में गुलमोहर जैसा”में डॉ. सुविज्ञ का प्रेम एक ऐसा इकरार है जिसे सात तहों में छिपा कर रखा जाए तो अप्पी के लिए एक खुली किताब | और यही अंतर उनके जीवन के तमाम उतार  चढ़ाव का कारण | तपते  जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप    अगर विवाहेतर प्रेम की बात की  जाए तो ये हमेशा एक उलझन क्रीएट करता है | जिसमें फंसे दोनों जोड़े बड़ी बेचारगी से गुज़रते हैं | प्रेम की तमाम पवित्रता और प्रतिबद्धता  के बावजूद | दो जो प्रेम कर रहे हैं और दो जो अपने साथी के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं | सब कहीं ना कहीं अधूरे हैं | अभी कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका की वाल पर पढ़ा था कि एक स्त्री को अपने प्रेम और अपने विवाह दोनों को सँभालने का हुनर आता है | उस समय भी मेरे अंतस में यह प्रश्न कौंधा था कि मन में प्रेम रख कर विवाह को संभालना क्या स्त्री को दो भागों में नहीं बाँटता | आज के आध्यत्मिक जगत में “Who am I ” का प्रश्न तभी आता है जब हम अपने अस्तित्व को तमाम आवरणों से ढँक लेते हैं | कुछ आवरण सामाज के कुछ अपनों के और कुछ स्वयं अपने बनाये हुए | उनके बीच में पलती हैं मनोग्रंथियाँ | प्रेम अपराध नहीं है पर भौतिक जगत के गणित में ये अपराधी सिद्ध कर दिया जाता है | इससे इतर अप्पी ने यही तो चाहा की उसका अस्तित्व दो भागों में ना बंटे | उसे समग्र रूप से वैसे ही स्वीकार किया जाए जैसी की वो है | पर ऐसा हो नहीं सका | उसका जीवन तपती जेठ सा हो गया | फिर भी उसका प्रेम गर्मी के मौसम में खिलने वाले गुलमोहर के फूलों की तरह उस बेनूर मौसम को रंगता रहा | अप्पी के इसी अनोखे प्रेम को विशाल कैनवास में उतारा है सपना सिंह जी ने  | ये कहानी शुरू होती है  पाओलो  कोएलो के प्रसिद्द  उपन्यास ‘अलेकेमिस्ट  के एक कोट से … “सूरज ने कहा, मैं जहाँ हूँ धरती से बहुत दूर, वहीँ से मैंने प्यार करना सीखा है | मुझे मालूम है मैं धरती के जरा और पास आ गया तो सब कुछ मर जाएगा …हम एक दूसरे के बारे में सोचते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं, मैं धरती को जीवन और ऊष्मा देता हूँ , और वह मुझे अपने अस्तित्व को बनाए रखने का कारण |” मुझे लगता है कि प्रेम की एक बहुत ही खूबसूरत परिभाषा इस कोटेशन में कह दी गयी है | प्रेम में कभी कभी एक दूरी बना के रखना भी दोनों के अस्तित्व को बचाये  रखने के लिए जरूरी होता है | अभी तक तो आप जान ही गए होंगे कि ये कहानी है अप्पी यानि अपराजिता और डॉ. सुविज्ञ की | डॉ. सुविज्ञ …शहर के ख्याति प्राप्त सर्जन |मूलरूप से गोरखपुर के रहने वाले | खानदानी रईस | फिर भी उनकी पीढ़ी ने गाँव छोड़ कर डॉक्टर, इंजिनीयर बनने का फैसला किया | वो स्वयं सर्जन बने | हालांकि  पिछले दो साल से सर्जरी नहीं करते | पार्किन्संस डिसीज है | हाथ कांपता है | वैसे उनका  अपना नर्सिंग होम है | डायगोनेस्टिक सेंटर है, ट्रामा सेंटर है | कई बंगले हैं, गाडियाँ  है ….नहीं है तो अप्पी | पर नहीं हो कर भी सुबह की सैर में उनके पास रोज चली आती है भले ही ख्यालों में | “सुबह -सुबह हमें याद करना” अप्पी ने एक बार कहा था उनसे | “सुबह -सुबह ही क्यों ?”उसकी बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थीं | “आप इतने बीजी रहते हो …हमें काहे याद करते होगे …चलो सुबह का एपॉइंट मेंट मेरा !”  अप्पी ..पूर्वी उत्तर  प्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में रहने वाली लड़की |साधारण परिवार की लड़की |  लम्बा कद, सलोना लम्बोतरा चेरा …बड़ी -बड़ी भौरेव जैसी आँखें व् ठुड्डी पर हल्का सा गड्ढा | शुरूआती पढाई वहीँ से … Read more

विसर्जन कहानी संग्रह पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया

महिमा से पहली बार सन्निधि संगोष्ठी में मुलाकात हुई थी | मासूम सी, हँसमुख बच्ची ने जहाँ अपने व्यक्तित्व से सबका मन मोह लिया था वहीँ अपनी कविता से अपनी गहन साहित्यिक समझ से परिचित कराया था | एक लेखिका व व्यक्ति के रूप में वे सदा मुझे प्रिय रही हैं | आज ‘विसर्जन’ पर उनकी समीक्षा पढ़ कर एक पाठक के रूप में उनकी गहराई से हृदय द्रवित है | उन्होंने इतना डूब कर पढ़ा है और उस गहराई तक पहुँची है जहाँ वो पात्र पीड़ा भोग रहे थे | आप जैसा पाठक मिलना किसी लेखक के लिए अनमोल उपलब्द्धि है | बहुत -बहुत स्नेह के साथ स्नेहिल आभार महिमा  विसर्जन कहानी संग्रह पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया  “विसर्जन” वंदना बाजपेयी जी का पहला कहानी संग्रह है। जिसमें कुल 11 यथाथर्वादी कहानियाँ हैं। “विसर्जन” जब मेरे हाथ में आया तो मैंने सोचा कि ये तो एक-दो दिन में पढ़कर खत्म हो जाएगा। पर ऐसा हो नहीं सका। ऐसी कई कहानियाँ हैं जिसे पढ़ने के बाद इतनी भावुक हो गई कि अवसाद ने घेर लिया। और दूसरी कहानी पढ़ने से पहले विराम स्वत: हो गया। आँखे और दिमाग ने साथ नहीं दिया।कमोबेस सभी कहानियों के नारी पात्रों की विषम परिस्थितियों ने दुखी कर दिया।इन कहानियों में वंदना जी ने अपनी संवेदनशीलता के साथ स्त्री के मनोविज्ञान को बखूबी चित्रित किया है। विर्सजन, पुरस्कार,मुक्ति आदि कहानियों में स्त्री पात्र समाज में माँ, पत्नी, बेटी, प्रेमिका जैसे उत्तरदायित्व को वहन करते हुए, जटिल जीवन के हर मोर्चे पर संर्घष करते हुए अतंत: स्वतंत्रचेता स्त्री के रुप में स्वयं को स्थापित करती है। वहीं अशुभ, फुलवा, दीदी, चुड़ियाँ आदि के पात्र अपनी सामाजिक, आर्थिक चक्रव्यूह में फंस कर अपने सपनों की बलिवेदी पर स्वंय ही चढ़ जाती हैं या चढ़ा दी जाती हैं। समाज का मध्यमवर्गीय जहाँ अपनी स्त्रियों को एक विशेष संस्कारजनित ढ़ाचे में देखना चाहता है। इन स्त्रियाँ का जीवन समाज,संस्कार, कर्तव्य़ और अपने सपनों के साथ तालमेल बिताने में ही बीत जाता है। वही निम्नवर्गीय स्त्री कमाऊ होती हुई भी अपनी परिस्थितियों की गुलामी में जकड़ी होती है।संग्रह की सभी कहानियाँ इन दो वर्गो की स्त्रियों की सच्ची संघर्ष गाथा है। उनके पात्र हमारे आस-पास से ही उठा कर रचे गए हैं।हर कहानी में समाज के उन स्वार्थी चेहरों को बेनकाब किया गया है जो अपने स्वार्थ के लिए रिश्तों को दांव पर लगाते हैं। समाजिक संदेश भी निहित है। इसप्रकार लेखिका ने अपनी लेखकीये कर्म को बखूबी अंजाम दिया है। इसलिए हर पाठक इनसे स्वत: जुड़ा महसूस करेगा। कहानियाँ पढ़ते हुए अहसास होता है कि लेखिका ने बहुत धैर्य और बारीकी से पात्रों के चरित्र को गढ़ा है। लेखिका वंदना बाजपेयी जी को संग्रह के लिए अशेष बधाइयाँ।लेखिका – वंदना वाजपेयीप्रकाशक – एपीएन पब्लिकेशन्समूल्य – 180लिंक – https://www.amazon.in/dp/9385296981/ref=mp_s_a_1_6 प्रकाशक से मंगवाएं …transmartindiamail@gmail.com पर मेल करें या .. +919310672443 पर whats app करें आप पुस्तक प्राप्त करने के लिए editor.atootbandhan@gmail.com पर भी मेल कर सकते हैं | समीक्षा – महिमा श्री यह भी पढ़ें … विसर्जन कहानी संग्रह पर किरण सिंह की समीक्षा भूत खेला -रहस्य रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ शिकन के शहर में शरारत -खाप पंचायत के खिलाफ बिगुल बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर आपको  समीक्षात्मक लेख “  विसर्जन कहानी संग्रह  पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; review , book review,  Hindi book , visarjan, hindi story book, hindi stories, vandana bajpai, emotional stories