सांता का गिफ्ट

क्रिसमस से संता का करिश्मा भी जुड़ा है | दुनिया भर के बच्चे क्रिसमस के दिन संता का इंतज़ार करते हैं | सफ़ेद दाढ़ी वाला ये दयालु आदमी स्लेज से आकर चुपके से लोगों के घरों में गिफ्ट छोड़ जाएगा | क्या क्रिसमस से एक रात पहले संता क्लाज गिफ्ट देते हैं और अगर देते हैं तो वो क्या है ? सांता का गिफ्ट  सुबह -सुबह जब बच्चे चमकती आँखों के साथ गले लग कर कहते हैं  ‘मेरी क्रिसमस “ तो मुझे याद आ जाती है उनकी बचपन की वो क्रिसमस जब दिसंबर की सर्द रातों में वो बेसब्री से किया करते थे सांता का इंतज़ार जो आधी रात को आएगा अपनी स्लेज में बैठकर और चुपके से खिड़की से डाल देगा उनकी पसंद का कोई उपहार चॉकलेट, पेंसिल, केक या उनके पसंद की कोई किताब कितनी सर्द रातों में उनींदी पलकों के कोरों झप जाने से रोकने की की थी असफल कोशिश नींद के आगोश में जाने से पहले नहीं बंद करने दी थी खिड़की भले ही ठिठुरते रहे  सब पर सांता को खिड़की नहीं मिलनी चाहिए बंद सांता यानी चमत्कार मनचाही मुराद पूरी होने का द्वार उम्र के जाने किस पायदान पर जब नहीं झपकने लगीं थी उनकी पलकें वो कर सकते थे इंतज़ार १२, १, २ बजे तक भी फिर भी खिड़की रहने लगी थी बंद ऐसा नहीं कि अब उन्हें संता पर विश्वास नहीं रहा या क्रिसमस  पर ख़ुशी का अहसास नहीं रहा हर क्रिसमस पर सुबह -सुबह उनकी चमकती आँखें देती हैं गवाही कि कल रात भी आया था सांता लम्बी सफ़ेद दाढ़ी के साथ अपनी स्लेज पर सवार हो कर और फिर  से दे गया है वही उपहार जो है चॉकलेट, खिलौनों और कपड़ों से भी कीमती जिसको लेने के लिए नहीं है जरूरत खिड़की खुली रखने की जरूरत है बस समझने की कि मनचाही मुराद पाने के लिए जरूरी है नींदों की कुरबानी कि जागती आँखों के कोरों को मेहनत की दिशा में झोंक देने से ही पूरा होता है मुरादों का सफ़र मुरादों के पूरा होने का सफ़र वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … सेंटा क्लॉज आयेंगे क्रिसमस पर 15 सर्वश्रेष्ठ विचार जीवन को दिशा देते बाइबिल के अनमोल विचार आपको  कविता “ सांता का गिफ्ट    “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; CHIRTMAS, CHRISTMAS TREE, SANTA CLAUS

विसर्जन कहानी संग्रह -समीक्षा किरण सिंह

जिंदगी ही कहानी है या कहानी ही जिंदगी है इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर देना थोड़ा उलझन भरा हो सकता है इसलिए जिंदगी और कहानी को एक दूसरे का पूरक कहना ही सही होगा। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी ईश्वर की लिखी कहानी है। हाँ यह और बात है कि किसी की कहानी आम होती है तो किसी की खास, किसी की सीधी-सादी तो किसी की उलझन भरी, किसी की खुशहाल तो किसी की बदहाल, किसी की रोचक तो किसी की नीरस, किसी – किसी की प्रेरणादायी तो किसी की दुखदायी ।लेकिन हर कहानी में कमोबेश कौतूहल तो होता ही है। यही वजह है कि लेखक का संवेदनशील मन किसी की जिंदगी की कहानी को इस कदर महसूस करता है कि उसकी लेखनी अनायास ही चल पड़ती है सर्जन करने हेतु और लिख डालती है उस व्यक्ति की गाथा। छोड़ देती है पाठकों को निर्णय करने के लिए कि किस हद तक उस कहानी को उन तक पहुंचाने में सफल हो पाई है वह । कुछ इसी तरह से जानी-मानी लेखिका Vandana Bajpaiकी लेखनी ने भी कुछ जिंदगी की कहानियों में कल्पना का रंग भरते हुए बड़े ही खूबसूरती से पिरोकर खूबसूरत कवर पृष्ठ के आवरण में एक पुस्तक ( जिसका नाम भी बड़ा ही खूबसूरत और विषय के अनुरूप है विसर्जन है ) के आकार में पाठको को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई है ।     विसर्जन कहानी संग्रह -समीक्षा किरण सिंह      इस संग्रह में कुल ग्यारह कहानियाँ हैं जो कि एक सौ चौबीस पृष्ठ में संग्रहित हैं। सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को खूबसूरती से उकेरती हुई रोचकता तथा कौतूहल से परिपूर्ण हैं। किन्तु इस संग्रह की पहली कहानी में लेखिका ने एक छली गई स्त्री के जीवन के संघर्षों की मनोवैज्ञानिक पहलू को छूते हुए बहूत ही खूबसूरती से अपनी कलम चलाई है जिसकी जितनी भी प्रशंसा करूँ कम होगी। इस कहानी में एक लड़की जो बार – बार अपनी माँ से अपने पापा के बारे में पूछती है और माँ हर बार सच छुपाते हुए उसे झूठी तसल्ली देती है। जब माँ भी मर जाती है तो वह लड़की अपने पिता की खोज में निकलती है। बहुत ढूढने के बाद पिता मिलते तो हैं लेकिन उसके साथ एक स्त्री है जो कि उसके और उसके पिता के मध्य दीवार बनकर खड़ी है अतः लड़की दुखी मन से वापस आ जाती है। उसके बाद वो अपने पिता के उम्र के पुरुषों में अपने पापा का प्यार ढूढती है और बार-बार छली जाती है। अन्ततः वह निर्णय लेती है विसर्जन का जो कि उसके लिए बहुत जरूरी था । पुस्तक की दूसरी कहानी अशुभ अंधविश्वास पर प्रहार करती हुई बहुत ही मार्मिक कहानी है जिसमें एक लड़की का नाम ही अशुभ रख दिया जाता है। जिसको मृत्यु के उपरांत भी ऐसी सजा मिलती है जिसकी वह दोषी होती ही नहीं है। संग्रह की तीसरी कहानी फुलवा में बाल श्रम, बाल विवाह, पर बहुत ही गहराई से प्रकाश डालते हुए बेटियों को पढ़ाने का संदेश दिया गया है।संग्रह की चौथी कहानी दीदी में खून के रिश्तों से अलग भाई – बहन जैसे पवित्र रिश्ते बनाने में भी स्त्रियों की मजबूरियों को बहुत ही सूक्ष्मता से उकेरा गया है जिसे पढ़कर उन पुरुष पाठकों को स्त्रियों को समझने में मदद मिलेगी जो कि कहते हैं कि स्त्रियों को समझना बहुत मुश्किल है । या त्रिया चरित्र को स्वयं देव भी नहीं समझ पाये हैं। संग्रह की पाँचवी कहानी चूड़ियाँ पढ़ने के बाद तो पत्थर हृदय भी पिघल जायेगा ऐसा मैं दावे के साथ कहती हूँ। क्योंकि इस कहानी की नायिका एक ऐसी स्त्री है जिसे बचपन से ही रंग – बिरंगी चूड़ियाँ पहनने का बहुत शौक है लेकिन उसके इस शौक को सामाजिक कुरीतियों ने विराम लगा दिया। तोड़ दी गई उसकी कलाइयों की चूड़ियाँ और पहुंचा दिया जाता है पागलखाना। फिर कहानी की ही एक पात्र लेखिका की सहेली निर्माण लेती है और………. संग्रह की छठी कहानी पुरस्कार एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने शौक को ताक पर रखकर अपना पूरा जीवन अपने घर परिवार की खुशियों पर समर्पित कर देती है। लेकिन अपनी अभिव्यक्ति पर अंकुश नहीं लगा सकी। चूंकि पति को भी खुश रखना चाहती थी और अपनी लेखनी को भी पंख देना चाहती थी सो अपना नाम कात्यायनी रखकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने लगी। धीरे-धीरे कात्यायनी की कीर्ति फैलने लगी और कात्यायनी का नाम पुरस्कार के लिए घोषित किया गया। तो भी कात्यायनी अपनी सच्चाई सामने नहीं लाना चाहती है। लेकिन सच्चाई को कोई कितने दिनों तक छुपाये रख सकता है ? एक न एक दिन तो पता चलना ही है सो स्नेहा के पति को भी पता चल ही गया आगे क्या हुआ पुस्तक के लिए छोड़ती हूँ।इस प्रकार संग्रह की अन्य कहानियाँ ( पुरस्कार, काकी का करवाचौथ, फाॅरगिव मी, अस्तित्व, ये कैसी अग्निपरीक्षा तथा मुक्ति) भी अत्यंत मार्मिक, रोचक, प्रवाहयुक्त तथा कौतूहल पूर्ण है। चूंकि वंदना जी एक स्त्री हैं तो उनकी सभी कहानियाँ स्त्री प्रधान हैं। वैसे उन्होंने अपनी आत्मकथ्य में इस बात को स्वयं स्वीकारा भी है। यथा – ऐसे मेरी कोई योजना नहीं थी, फिर भी इस कहानी संग्रह के ज्यादातर मुख्य पात्र स्त्री ही है। शायद इसकी एक वजह मेरा स्त्री होना है, जो उनके दर्द को मैं ज्यादा गहराई से महसूस कर पाई। इस तरह से इस संग्रह की प्रत्येक कहानी हमारे आस-पास के परिवेश तथ समाज के किसी न किसी व्यक्ति की कहानी प्रतीत होती है । कहानी पढ़ते हुए पाठक किसी न किसी किरदार से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है जो कि लेखिका की सफलता का द्योतक है। पुस्तक का कवर पृष्ठ शीर्षक के अनुरूप ही खूबसूरत तथा आकर्षक है। पन्ने भी अच्छे हैं तथा छपाई भी स्पष्ट है। वर्तनी की अशुद्धियाँ नाम मात्र की या न के बराबर ही है। पुस्तक की गुणवत्ता के अनुपात में पुस्तक की कीमत भी मात्र एक सौ अस्सी रूपये है जिसे पाठक आसानी से क्रय कर सकते हैं। अतः मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि यह पुस्तक पठनीय एवम् संग्रहणीय है। यदि आप उच्च स्तरीय संवेदनशील कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपको जरूर पढ़ना चाहिए। इस पुस्तक के प्रकाशन के … Read more

बस कह देना कि आऊँगा- काव्य संग्रह समीक्षा

आज मैं आपसे बात करना चाहूँगी नंदा पाण्डेय जी के काव्य  संग्रह “बस कह देना कि आऊँगा के बारे में | नंदा पाण्डेय जी काफी समय से लेखन में सक्रिय हैं | उनकी कई कवितायें समय-समय पर फेसबुक पर व अन्य पत्र –पत्रिकाओं में पढ़ती रही हूँ | झारखंड में साहित्य के प्रचार –प्रसार में भी वो काफी सक्रिय भूमिका निभा रहीं हैं | लेकिन अपना पहला काव्य संग्रह लाने में उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं की क्योंकि वो इंतज़ार में विश्वास करती हैं | धैर्य उनका एक बड़ा गुण है जो उनके व्यक्तित्व व् कृतित्व दोनों में झलकता है | इस संग्रह में ये धैर्य उन्होंने दिखाया है प्रेम में | ये टू मिनट नूडल्स वाला फ़ास्ट फ़ूड टाइप प्रेम नहीं है | ये वो प्रेम है जो एक जीवन क्या कई जीवन भी प्रतीक्षा कर सकता है | इस प्रेम में नदिया की रवानगी नहीं है झील सा ठहराव है | आमतौर पर माना जाता है कि कोई कवि अपनी पहली कविता प्रेम कविता ही लिखता है | परन्तु उस पहली कविता से प्रेम में धैर्य आने तक की जो यात्रा होती है वो इस संग्रह में परिलक्षित होती है | आखिर क्या है तुम्हारा और मेरा रिश्ता……???? प्यार..???? , स्नेह…????, दोस्ती …??? या इन सबसे कहीं ऊपर एक दूसरे को जानने समझने की इच्छा…..??? क्या रिश्ते को नाम देना जरुरी है???? रिश्ते तो “मन” के होते हैं सिर्फ “मन ” के …….!!!!!   बस कह देना कि आऊँगा- काव्य संग्रह समीक्षा        प्रेम यूँ तो जीवन के मूल में है फिर भी इसे दुनिया की दुर्लभ घटना माना गया है | ये बात विरोधाभासी लग सकती है परन्तु सत्य है …रिश्ते हैं इसलिए प्रेम है, ये हम सब महसूस करते हैं लेकिन प्रेम है रिश्ता हो या न हो इसकी कल्पना भी दुरूह है | प्रेम के सबसे आदर्श रूप में राधा –कृष्ण का नाम याद आता है | उनका प्रेम उस पूर्णता को प्राप्त हो गया है जहाँ साथ की दरकार नहीं है | ये प्रेम ईश्वरीय है, दैवीय है | इस अलौकिक प्रेम के अतिरिक्त सामान्य प्रेम भी है | जहाँ मिलन का सुख है तो वियोग की पीड़ा भी | साहित्य में संभवत : इसीलिये श्रृंगार रस को दो भागों में विभक्त किया है | संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार | वियोग में भी प्रतीक्षा का आनंद है | क्योंकि ये प्रतीक्षा उसके लिए है जिसके लिए ह्रदय का तालाब प्रेम से लबालब भरा हुआ है | महादेवी वर्मा इसी वियोग में कहती हैं … जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार और कवयित्री नंदा पाण्डेय जी इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर कहती हैं कि आने की भी आवश्यकता नहीं है “बस कह देना कि आऊँगा” फिर क्या है मन को भला लिया जाएगा, फुसला लिया जाएगा ….और मिलन की प्रतीक्षा में पूरा जीवन व्यतीत हो जाएगा | . पर क्या मुझमें कोई परिवर्तन दीखता है तुम्हें मैं तो बस एक समभाव तुम्हारा इंतज़ार करती रहती हूँ तुम आओ, ना आओ बस कह देना कि आऊँगा || अपनी काव्य यात्रा के बारे में अपनी बात में नंदा जी लिखती हैं कि … “पतझड़ में पत्तों का गिरना, अँधेरी रात में परछाइयों का गहराना, परिंदों का घरौंदा बनाना और घरौंदे का अपनाप बिखर जाना …ऐसी कितनी ही बातें बहा ले जाती मुझे, हवा के झोंकों की तरह और मेरी विस्फारित आँखें वीरान कोनों में अर्थ खोजने लगती हैं | इन्हीं वीरान कोनों में अर्थ खोजने के दौरान कई बार खुल जाती है स्मृतियों की पिटारी | जैसे किसी ने अनजाने में कोने में रखे किसी सितार को छेड़ दिया हो | इस आरोह –अवरोह में झंकृत हो उठी हो अंतर्मन की शांत दुनिया | जो व्यक्त है उसे शब्दों में बाँधा जा सकता है, सुरों में ढाला जा सकता है, कूचियों से कैनवास के सफ़ेद कागज़ पर उकेरा जा सकता है | पर सवाल ये है कि क्या प्रेम को पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है ? नहीं न !! कितना भी व्यक्त करने का प्रयास किया जाये कुछ तो अव्यक्त रह ही जाता है | ये प्रेम है ही ऐसा …गूंगे के गुण जैसा … “कुछ कहना चाहती थी वो पर जाने क्यों … ‘कुछ कहने की कोशिश में बहुत कुछ छूट जाता था उसका… करीने से सजाने बैठती उन यादों से भरी टोकरी को जिसमें भरे पड़े थे उसके बीते लम्हों के कुछ रंग –बिरंगे अहसास कुछ यादें –कुछ वादे , और भी बहुत कुछ … कवयित्री नंदा जी एक पारंगत कवि हैं जो अपनी काव्य क्षमता का प्रदर्शन केवल भाव और शब्द सौन्दर्य से ही नहीं करती अपितु उसमें प्राण का सम्प्रेषण करने के लिए प्रकृति का मानवीयकरण भी करती हैं | … तुम्हारी प्रतीक्षा से उत्सर्ग तक की दूरी बाहर आज धरती के आगोश में ‘पारिजात’भी कुछ पाने की बेचैनी और खोने की पीड़ा से गुज़र रहा था बिलकुल मेरी तरह अब प्रेम से इतर कुछ कविताओं की बात करना चाहूंगी जो मुझे काफी अच्छी लगीं | इन कविताओं में स्त्री जीवन की आम घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं | अल्हड़ लडकियाँ नहीं करती इंतज़ार आषाढ और सावन का अपने अंत:स्त्रवन के लिए बरसते मेघ में भीग कर लिख लेती हैं कवितायें और एक बानगी यह देखिये … आज कलम उठाते ही पहली बार उसने अपने पक्ष में फैसला सुनाया पहली बार तय किया कि अब वो लिखेगी अपने लिए और अंत में मैं फिर कहना चाहूंगी कि कवि हो या लेखक उसका स्वाभाव उसके लेखन में झलकता है | नंदा जी एक भावुक व्यक्ति हैं | एक भावुक व्यक्ति अंत: जगत में ज्यादा जीता है | बाहर की पीड़ा तो कम भी हो जाती है पर अंत : जगत की कहाँ ? यही कविता लिखने का मुख्य बिंदु है | जहाँ वो पीड़ा को अपने पास रख लेना चाहती है….केवल आश्वासन के मखमली अहसास के बहलावे से | बोधि प्रकाशन से प्रकाशित 120 पेज के इस कविता संग्रह का मूल्य है 150 रुपये है | करीब … Read more

लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ

आज मैं आप के साथ बात करुँगी गीताश्री जी के नए कहानी संग्रह लिट्टी-चोखा के बारे में | लिट्टी-चोखा बिहार का एक स्वादिष्ट व्यंजन है | किसी कहानी संग्रह का नाम उस पर रख देना चौंकाता है | लेकिन गौर करें तो दोनों में बहुत समानता है | एक अच्छी कहानी से भी वही तृप्ति  मिलती है जो लिट्टी- चोखा खाने से | एक शरीर का भोजन है और एक मन का | और इस मन पर  पर तरह –तरह की संवेदनाओं के स्वाद का असर ऐसा पड़ता है कि देर तक नशा छाया रहता है | जिस तरह से धीमी आंच पर पकी लिट्टी ही ज्यादा स्वादिष्ट होती है वैसे ही कहानियाँ भी, जिसमें लेखक पूरी तरह से डूब कर मन की अंगीठी  में भावनाओं को हौले –हौले से सेंक कर पकाता है | गीताश्री जी ने इस कहानी संग्रह में पूरी ऐतिहात बरती है कि एक –एक कहानी धीमी आंच पर पके | इसलिए इनका स्वाद उभरकर आया है |     ये नाम इतना खूबसूरत और लोक से जुड़ा है कि इसके ट्रेंड सेटर बन जाने की पूरी सम्भावना है | हो  सकता है आगे हमें दाल –बाटी, कढ़ी, रसाजें, सरसों का साग आदि नाम के नाम कहानी संग्रह पढने को मिलें | इसका पूरा श्रेय गीताश्री जी और राजपाल एंड संस को जाना चाहिए | कहानीकारों से आग्रह है कि वो भारतीय व्यंजनों को ही वरीयता दें | मैगी, नूडल्स, पिजा, पास्ता हमारे भारतीय मानस के अनकूल नहीं | ना ही इनके स्वाद में वो अनोखापन होगा जो धीमी आँच में पकने से आता है | भविष्य के कहानी संग्रहो के नामों की खोज पर विराम लगाते हुए बात करते हैं लिट्टी –चोखा की थाली यानि कवर पेज की | कवर पेज की मधुबनी पेंटिंग सहज ही आकर्षित करती है | इसमें बीजना डुलाती हुई स्त्री है | सर पर घूँघट. नाक में नाथ माथे पर बिंदिया | देर तक चूल्हे की आंच के सामने बैठ सबकी अपेक्षाओं पर खरी उतरने वाली, फुरसत के दो पलों में खुद पर बीजना झल उसकी बयार में सुस्ता रही है | शायद कोई लोकगीत गा रही हो | यही तो है हमारा लोक, हमारा असली भारत जिसे सामने लाना भी साहित्यकारों का फर्ज है | यहाँ ये फर्ज गीताश्री जी ने निभाया है |   गीताश्री जी लंबे अरसे तक पत्रकार रहीं हैं, दिल्ली में रहीं हैं |  लेकिन उनके अन्दर लोक बसता है | चाहें बात ‘हसीनाबाद’ की हो या ‘लेडीज सर्किल’ की, यह बात प्रखरता से उभर कर आती है | शायद यही कारण है कि पत्रकारिता की कठोर जीवन शैली और दिल्ली निवास के बावजूद उनके अंदर सहृदयता का झरना प्रवाहमान है | मैंने उनके अंदर सदा एक सहृदय स्त्री देखी है जो बिना अपने नफा –नुक्सान का गणित लगाए दूसरी स्त्रियों का भी हाथ थाम कर आगे बढ़ाने  में विश्वास रखती हैं | साहित्य जगत में यह गुण बहुत कम लोगों में मिलता है | क्योंकि मैंने उन्हें काफी पढ़ा है इसलिए यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि उन्होंने लोक और शहरी जीवन दोनों ध्रुवों को उतनी ही गहनता से संभाल रखा है | ऐसा इसलिए कि वो लंबे समय से दिल्ली में रहीं हैं | बहुत यात्राएं करती हैं | इसलिए शहर हो या गाँव हर स्त्री के मन को वो खंगाल लेती है | सात पर्दों के नीचे छिपे दर्द को बयान कर देती हैं |जब वो स्त्री पर लिखती हैं या बोलती हैं तो ऐसा लगता है कि वो हर स्त्री के मन की बात कह रही हैं | उनके शब्द बहुत धारदार होते हैं जो चेहरे की किताबों के अध्यन से व गहराई में अपने मन में उतरने से आते हैं | उनकी रचनाओं में बोलते पात्र हैं पर वहाँ हर स्त्री का अक्स नज़र आता है | यही बात है की उनकी कहानियों में स्त्री पात्र मुख्य होते हैं | हालांकि वो केवल स्त्री पर ही नहीं लिखती वो निरंतर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं | भूतों पर लिखी गयी ‘भूत –खेला ‘इसी का उदाहरण है | अभी वो पत्रकारिता पर एक उपन्यास ‘वाया  मीडिया’ ला रही हैं | उनकी रेंज देखकर लगता है कि उन्हें कहानियाँ ढूँढनी नहीं पड़ती | वो उनके अन्दर किसी स्वर्णिम संदूक में रखी हुई हैं | जबी उन्हें जरूरत होती है उसे जरा सा हिला कर कुछ चुन लेती हैं और उसी से बन जाता है उनकी रचना का एक नया संसार | वो निरंतर लिख कर साहित्य को समृद्ध कर रही हैं | एक पाठक के तौर मुझे उनकी कलम से  अभी और भी बहुत से नए विषयों की , नयी कहानियों की, उपन्यासों की प्रतीक्षा है |   लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ            “लिट्टी-चोखा” कहानी संग्रह में गीताश्री जी दस कहानियाँ लेकर आई हैं | कुछ कहानियाँ अतीत से लायी हैं जहाँ उन्होंने झाड़ पोछ कर साफ़ करके प्रस्तुत किया है | कुछ वर्तमान की है तो कुछ अतीत और वर्तमान को किसी सेतु की तरह जोडती हुई | तिरहुत मिथिला का समाज वहाँ  की बोली, सामाजिकता, जीवन शैली और लोक गीत उनकी कहानियों में सहज ही स्थान पा गए हैं | शहर में आ कर बसे पात्रों में विस्थापन की पीड़ा झलक रही है | इन कहानियों में कलाकार पमपम तिवारी व् राजा बाबू हैं, कस्बाई प्रेमी को छोड़कर शहर में बसी नीलू कुमारी है , एक दूसरे की भाषा ना जानने वाले प्रेमी अरुण और जयंती हैंअपने बल सखा को ढूँढती रम्या है और इन सब के बीच सबसे अलग फिर भी मोती सी चमकती कहानी गंध-मुक्ति है | एक खास बात इस संग्रह किये है कि गीताश्री जी ने इसमें शिल्प में बहुत प्रयोग किये हैं जो बहुत आकर्षक लग रहे हैं | जो लगातार उन्हें पढ़ते आ रहे हैं उन्हें यहाँ उनकी कहन शैली और शिल्प एक खूबसूरत बदलाव नज़र आएगा |   अक्सर मैं किसी कहानी संग्रह पर लिखने की शुरुआत उस कहानी से करती हूँ जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई होती है |  पर इस बार दो कहानियों के बीच में मेरा मन फँस गया | ये कहानियाँ हैं  “नजरा गईली … Read more

शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल

 वंदना गुप्ता जी उन लेखिकाओं में से हैं जो निरंतर लेखन कार्य में रत हैं | उनकी अभी तक १२ किताबें आ चुकी हैं  और वो अगली किताबों पर काम करना शुरू कर चुकी हैं | इसमें सात कविता की भी पुस्तकें हैं और एक कहानी संग्रह, दो उपन्यास और समीक्षा की दो किताबें | लेखन में अपनी सक्रियता  से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | कविता ह्रदय की ध्वनि है | भावों की अंजुली में कब भोर में झरते हर्सिगार के पुष्पों से सुवासित हो जायेगी, कोई नहीं जानता | गद्य लेखन में पात्रों की मन की भीतरी पर्तों में न सिर्फ झाँकना होता है बल्कि उसका पोस्ट मार्टम करके रेशा –रेशा अलग करना पड़ता है | कई बार मामूली कथ्य की वल्लरी मजबूत शिल्प का सहारा पकड़ पाठकों के हृदय में अपनी पैठ बना लेती है तो कई बार एक दमदार कथ्य अनगढ़ शिल्प के साथ भी अपनी बात मजबूती से रख पाता है | पर कथ्य, शिल्प, भाव, भाषा के खम्बों पर अपना वितान तानती कहानी ही कालजयी कहानी होती है | मैंने वंदना जी की  कविता की चार  किताबों (बदलती सोच के नए अर्थ, प्रश्न चिन्ह …आखिर क्यों ?, कृष्ण से संवाद और गिद्ध गिद्धा कर रहे हैं ) कहानी संग्रह (बुरी औरत हूँ मैं ) और दोनों उपन्यासों ( अँधेरे का मध्य बिंदु और शिकन के शहर में शरारत को पढ़ा है | कविताओं में वो समकालीन स्थितियों, मानवीय संवेदनाओं और आध्यात्म पर अपनी कलम चलाती हैं | कृष्ण से संवाद पर मैं कभी विस्तृत समीक्षा लिखूँगी | उनकी कहानियों में एक खास बात है वो ज्यादातर नए विषय उठाती हैं | फार्मूला लेखन के दौर में ये एक बड़ा खतरा है पर वो इस खतरे को उठाती रहीं हैं | अपनी कहानी संग्रह में भी उन्होंने बुरी औरत को देखने के दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत पर जोर देते हुए “बुरी औरत हूँ मैं “ कहानी लिखी हैं | इसके अलावा स्लीप मोड, वो बाईस दिन , आत्महत्या के कितने कारण, कातिल कौन में बिलकुल नए विषयों को उठाया है | अपने उपन्यास अँधेरे के मद्य बिंदु में उन्होंने लिव इन के विषय को उठाया है | लिव इन पर कुछ और भी कहानियाँ आई हैं | उनमें मुझे ‘करुणावती साहित्य धारा में प्रकाशित संगीता सिंह भावना की कहानी याद आ रही है | उपन्यास में ये विषय नया है | ज्यादातर हिंदी कहानियों में  विवाह संस्था को लिव इन से ऊपर रखा गया है | परन्तु ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘ में विवाह के रिश्ते के दवाबों की भी चीर-फाड़ करी है | अपेक्षाओं के फंदे पर लटकते हुए प्रेम को समझने का प्रयास भी किया गया है | इसके बाद वो लिव का पक्ष लेते हुए तर्क देती हैं विवाह हो या लिव इन उसे अपेक्षाओं के दंश से मुक्त होना पड़ेगा तभी प्रेम का कमल खिल सकेगा | हम बड़े बुजुर्गों के मुँह से ये सुनते आये हैं कि विवाह एक समझौता है और यही वाक्य यथावत अगली पीढ़ी को पहुँचा देते हैं | इस समझौते को बनाए रखने में कई बार जिस चीज को दांव पर लगाया जाता है वो किसी भी रिश्ते की सबसे कीमती चीज होती है यानि प्रेम और विश्वास | वंदना जी  विवाह की मोहर से ज्यादा किसी युगल के मध्य इसे बचाए रखने की वकालत करती हैं |वस्तुतः विवाह समझौता न होकर सहभागिता होनी चाहिए | शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल   वंदना जी दिल्ली में रहती हैं और दिल्ली में ही पढ़ी लिखी हैं | उनकी ज्यादातर कहानियों में मेट्रो कल्चर और उसका जीवन दिखता है | मेट्रो शहरों का जीवन, वहां का आचार-व्यव्हार, वहां की समस्याएं , जिन्दगी की आपाधापी, गांवों के शीतल शांत जीवन से बिलकुल अलग हैं | अगर 50 % लोगों का वो सच है | तो 30 % लोगों का ये सच है | 20 % वो लोग हैं जो ऐसे शहरों में रहते हैं जो ना तो गाँव की तरह तसल्ली से परिपूर्ण हैं न मेट्रो शहरों की तरह भागते हुए | ये कहानीकार की विडंबना ही हो सकती है कि कई बार एक सच को दूसरा समझ नहीं पाता | मुझे एक वाक्य याद आ रहा है | हमारे एक परिचित जो कनाडा में रहते हैं वो बताने लगे कि वहां सप्ताह में किसी भी दिन किसी की मृत्यु हो अंतिम संस्कार शनिवार को ही होता है | क्योंकि किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि काम से छुट्टी ले कर जा सके | ये बात सुनकर गाँव की रधिया चाची तो पल्ले को मुँह पर रख कर बोली, “ऐ दैया! का मानुष नहीं बसते हैं उहाँ ? इहाँ तो रात के दुई बजे भी काहू के घर से रोने की आवाज आ जाए तो पूरा गाँव इकट्ठा हो जात है |” आश्चर्य कितना भी हो सच तो दोनों ही है | कहानीकार के हाथ में बस इतना है कि वो जहाँ की कहानी लिख रहा है उसके साथ वहीँ की परिस्थितियों में जाकर खड़ा हो जाए तभी वो कहानी के साथ न्याय कर सकता है | “शिकन के शहर में शरारत’ में वंदना जी दिल्ली से दूर हरियाणा के एक गाँव में पहुँच गयी हैं | दिल्ली के मेट्रो  कल्चर में बेरोकटोक लहलहाते प्रेम की फसल को दिल्ली की नाक से बस थोड़ा सा नीचे खरपतवार के मानिंद समूचा काट कर फेंक देने की रवायत का पर्दाफाश करतीं  हैं | ये उनका दूसरा उपन्यास है | “अँधेरे का मध्य बिंदु “ काफी लोकप्रिय रहा है | ऐसे में उनके दूसरे उपन्यास से अपेक्षाएं बढ़ जाना स्वाभाविक है | अपनी भूमिका “यथास्थिति में असहजता पैदा करने की कोशिश” में पंकज सुबीर जी लिखते हैं कि कोई लेखक हो या ना हो एक उपन्यास सभी के मन में रहता है | वो शब्दों में व्यक्त करे या ना करे पर एक उपन्यास की कथा उसके साथ हमेशा चलती है | असली पहचान दूसरे उपन्यास से होती है और असली परीक्षा भी | भोपाल के कवी –कथाकार संतोष चौबे की कविता का शीर्षक है , “कठिन है दूसर उपन्यास लिखना | वाकई दूसरा उपन्यास लिखना कठिन है | ये चुनौती … Read more

मर्द के आँसू

मर्द के आंसुओं पर बहुत बात होती है | बचपन से सिखाया जाता है , “अरे लड़के होकर रोते हो | बड़े होते होते भावनाओं पर लगाम लगाना आ जाता है | पर आंसू तो स्वाभाविक हैं | वो किसी ना किसी तरह से अपने निकलने का रास्ता खोज ही लेते हैं | आइये जानते हैं कैसे … मर्द के आँसू  कौन कहता है की मर्द नहीं रोते हैं उनके रोने के अंदाज जुदा होते हैं सामाज ने कह -कह कर उन्हें ऐसा बनाया है आंसुओं को खुद ह्रदय में पत्थर सा जमाया है पिघलते भी हैं तो  ये आँसू रक्त में मिल जाते हैं और सारे शरीर में बस घुमते रह जाते हैं | बाहर निकलने का रास्ता कहाँ मिल पाता है | इसलिए ये खून इनके अंतस को जलाता है दर्द की किसी शय पर जब मन बुझ  जाता है तो दुःख के पलों में इन्हें गुस्सा बहुत आता है  कई बार जब ये गुस्से में चिल्ला रहे होते हैं या खुदा ! दिल ही दिल में आँसू बहा रहे होते हैं | लोग रोने पर औरत के ऊँगली उठाते हैं , उसको नाजुक और कमजोर बताते हैं | पर औरत तो आंसू पोछ कर सामने आती है पूरी हिम्मत से फिर मैदान में जुट जाती है पर मर्द अपने आंसुओं को कहाँ पाच पाता है | वो तो आँसुओं के साथ बस रोता ही रह जाता है | एक औरत जब आँसुओं का साथ लेती है बड़े ही प्रेम से दूजी का दुःख बाँट लेती है | पर आदमी, खून में अपने आँसू छिपाता है इसलिए दूसरा आदमी समझ नहीं पाता है | ताज्जुब है कि इन्हें औरत ही समझ पाती है | अपने आँसुओं से उस पर मलहम लगाती है | हर मर्द की तकलीफ जो उसे दिल ही दिल में सताती है उसकी माँ , बहन , बेटी पत्नी की आँखों से निकल जाती है | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … अंतर्राष्ट्रीय  पुरुष दिवस -परिवार में अपनी भूमिका के प्रति  सम्मान की मांग  या परदे उखड फेंकिये या रिश्ते प्रेम की ओवर डोज खतरनाक है जरूरत से ज्यादा मोबाइल का इस्तेमाल आपको आपको  लेख “मर्द के आँसू“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  फाइल्ड अंडर – Iternational Man’s Day , aansoon , tear , man’s tear , poem 

समीक्षा –कहानी संग्रह किरदार (मनीषा कुलश्रेष्ठ)

That what  fiction is for . It’s for getting at the truth when the truth  isn’t sufficient for the truth “-Tim o’ Brien मनीषा कुलश्रेष्ठ जी हिंदी साहित्य जगत में किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं |उनकी कहानी ‘लीलण’ जो इंडिया टुडे में हाल ही में प्रकाशित हुई है  आजकल चर्चा का विषय बनी हुई है | एक गैंग रेप विक्टिम की संवेदनाओं को एक मार्मिक कथा के माध्यम से जिस तरह से उन्होंने संप्रेषित किया है उसके लिए वो बधाई की पात्र हैं | मनीषा जी अपनी  कहानियाँ के  किरदारों के मन में उतरती हैं और उनके मन में चलने वाले युद्ध, द्वंद , गहन इच्छाशक्ति के मनोविज्ञान के साथ कहानी का ताना –बाना बुनती हैं | वो आज के समय की सशक्त कथाकार हैं | उनकी कहानियों में विविधता है, उनकी कहानियों में विषयों का दोहराव देखने को नहीं मिलता, हमेशा  वो नए –नए अछूते विषयों को उठाती रहती हैं | इसीलिये उनकी  हर कहानी दूसरी कहानी से भिन्न होती है , न सिर्फ कथ्य में बल्कि शिल्प और भाषा में भी | वो बहुत प्रयोग करती हैं और उनके प्रयोगों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | उनके कई उपन्यास मैंने पढ़े हैं | जिनमें शिगाफ, स्वप्नपाश और मल्लिका प्रमुख हैं | तीनों के ही विषय बिलकुल अलग हैं | अपने किरदारों के बारे में उनका कहना है कि “ मेरे किरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से थोड़ा दूरी बरतते हुए | मेरी कहानियों में फ्रीक भी जगह पाते हैं, सनकी, लीक से हटेले और जो बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे जेहन में रहते हैं | जब मुक्कमल आकार प्रकार ले लेते हैं , तब ये किरदार मुझे विवश करते हैं, उतारो ना हमें कागज़ पर | कोई कठपुतली वाले की लीक से हटकर चली पत्नी, कोई बहरूपिया, कोई दायाँ करार दी गयी आवारा औरत , बिगडैल टीनएजर, न्यूड मॉडलिंग करने वाली …”     किरदार -मेरे किरदार में मुज्मर है तुम्हारा किरदार आज मैं जिस कहानी संग्रह के बारे में आप से चर्चा कर रही हूँ उसका नाम भी  ‘किरदार’ है  | यूँ तो हम सब का जीवन भी एक कहानी ही है | और हम  अपने जीवन की कहानी का किरदार निभा रहे हैं |कहीं ये किरदार जीवंत हैं मुखर हैं तो कहीं अपनी ही जद  में कैद हैं | ये किरदार अपने बारे में बहुत कुछ छिपाना चाहते हैं, परन्तु जिद्दी कलमें उन्हें वहां से खुरच –खुरच कर लाती रहीं हैं | ये मशक्कत इसलिए क्योंकि असली कहानी तो वही है जिसका संबंध असली जिन्दगी से है | ऐसा ही कहानी संग्रह है किरदार | इस कहानी संग्रह में मनीषा जी ऐसे किरदार लेकर आई हैं जो लीक से हट कर हैं | सबके अपने अपने अंतर्द्वंद हैं | इसलिए मनीषा जी उन अनकहे दर्द की तालाश में उनके मन को गहराई तक खोदती चली जाती हैं | बहुत ही कम संवादों के माध्यम से वो उनका पूरा मनोविज्ञान पाठक के सामने खोल कर रख देती हैं |ज्यादातर कहानियों में उच्च मध्यम वर्ग है जो बाहरी दिखावे में इतने उलझे रहते हैं कि इनके दरवाजों और चेहरों की सतह पर ठहरी हुई कहानियाँ एक बड़ा छलावा, एक बड़ा झूठ होती हैं | असली कहानियाँ तो किसी तहखाने में बंद होती हैं और वहां तक जाने की सुरंग लेखक किस तरह से बनाता है पूरी कहानी का भविष्य इसी पर निर्भर होता है | अब  ये उलझे हुए किरदार उन्हें कहाँ मिले, कैसे मिले ? पाठक के मन में स्वाभाविक रूप से उठने वाले इन प्रश्नों को उन्होंने पुस्तक की भूमिका में ही उत्तर दे दिया है | “इस बार फिर कुछ बेसब्र किरदारों के साथ कुछ शर्मीले पर्दादार किरदारों की कहानियाँ ले कर आई हूँ | हर बार ये मुझे औचक किसी सफ़र से उतारते हुए या सफ़र के लिए चढ़ते हुए मिले |” “एक बोलो दूजी मरवण ….तीजो कसूमल रंग” ये नाम है संग्रह की पहली कहानी का | प्रेम जीवन का सबसे जरूरी तत्व लेकिन सबसे अबूझ पहेली | ये जितना सूक्ष्म है उतना ही विराट | कोई सब कुछ लुटा कर भी कुछ नहीं पा पाता है तो किसी के हृदय के छोटे रन्ध में पूरा दरिया समाया होता है |  आज जब दैहिक प्रेम की चर्चाएं जोरो पर हैं और ये माना जाने लगा है कि प्रेम में देह का होना जरूरी है तो मनीषा जी की ये कहानी रूहानी प्रेम की ऊँचाइयों  को स्थापित करती हैं | एक प्रेम जो अव्यक्त हैं , मौन है लेकिन इतना गहरा कि सागर भी समां जाए | एक ऐसा प्रेम जिसमें ना साथ की चाह  है न ही अधिकार भाव, और ना ही शब्दों के बंधन में बांध कर उसे लघु करने की कामना | एक ऐसा प्रेम जिसका साक्षी है एक और प्रेमी युगल |  मध्यवय का  भावों को रंगों से कैनवास पर उतारता चित्रकार युगल | जो कालाकार हैं, आधुनिक हैं , बोहेमियन हैं और सफल भी | ऐसा युगल जिसका प्रेम शर्तों में बंधा है | पास आने की शर्ते, साथ रहने की शर्ते और दूर जाने की भी शर्ते साक्षी बनता है एक ऐसे प्रेम का भीड़ भरी बस में कुछ समय के लिए अव्यक्त रूप से व्यक्त होता है और फिर उस गहराई को अपने में समेट कर अपनी –अपनी राह पर चल देता है | बिलकुल संध्या की तरह, जहाँ दिन और रात मिलते हैं कुछ समय के लिए फिर अपने अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाते हैं प्रेम की उस गरिमा को समेट कर | संध्या काल पूजा के लिए आरक्षित है क्योंकि पूजा ही तो है ऐसा प्रेम | वासना रहित शुद्ध, शुभ्र | ऐसा ही तो है कसमूल  रंग | सबसे अलग सबसे जुदा जो ना लाल है , ना गुलाबी , ना जमुनी ना मैजेंटा | आपने कई प्रेम कहानियाँ पढ़ी होंगी पर इस कहानी में प्रेम का जो कसमूल रंग है वो रूह पर ऐसा चढ़ता है कि उतारे नहीं उतरता |प्रेम की तलाश में भटके युगल शायद …शायद यही तो ढूंढ रहे हैं | “हमारे समान्तर एक प्रेम गुज़र गया था |अपनी लघुता में उदात्ता लिए | अ-अभिव्यक्त, अ –दैहिक, अ –मांसल | और … Read more

ध्यान की पाठशाला -mindful eating

ध्यान या meditation आज के तनावपूर्ण समय की मांग है | ये हम कई जगह पढ़ते हैं | ध्यान के प्रति आकर्षित  हैं | लेकिन ध्यान करने बैठते हैं तो ध्यान नहीं  हो पाता | मन भटक जाता है | किसी को रोना बहुत आता है तो कोई उदास हो जाता है | अगर आपने आज सोचा की ध्यान करा जाए और आज से ध्यान पर बैठने लगे तो आपको अपना दिमाग सुस्त  महसूस होने लगेगा | याहन समझने की जरूरत है कि दिमाग का सुस्त होना और अवेयर होनादो अलग चीजे हैं | असली ध्यान दिमाग को सुस्त नहीं करता बल्कि कमल की तरह खिला देता है | व्यक्ति ज्यादा तरोताजा महसूस करता है | ध्यान की पाठशाला -mindful eating जिस तरफ से हम विज्ञान, कला या किसी अन्य विध्या को एक दिन में नहीं सीख जाते उसी तरह से ध्यान भी एक दिन में सीखना संभव नहीं | इसमें भी समय लगता है | अभी तक हमने जो कुछ भी सीखा होता है उसका संबंध बाह्य जगत से होता है पर ध्यान का संबंध अंत: जगत से होता है | पहली बार हम कुछ ऐसा सीख रहे होते हैं हैं जो हमने आज तक नहीं सीखा होता है | इसलिए समय लगना  स्वाभाविक है | सबसे पहले तो ये समझना होगा की ध्यान है क्या ? आम भाषा में कहें तो ध्यान का अर्थ है अपने विचारों को देखना , उन्हें अपनी इच्छानुसार बदल देना | इतनी आसान सी लगनी वाली बात वास्तव में उतनी आसान नहीं है | ऐसा ही एक प्रश्न लेकर एक व्यक्ति अपने गुरु के पास गया | उसने अपने गुरु से पूछा , ” गुरुदेव ध्यान की कोई आसान विधि बताये ?” गुरु ने कहा, “ये बहुत आसान है | बस तुम्हें इस बात का ध्यान रखना है कि तुम्हारे दिमाग में बन्दर ना आये | ” उत्तर पा कर व्यक्ति बहुत खुश हो गया | वो घर आकर ध्यान लगाने के लिए आँखे बंद कर जैसे ही बैठा उसे सबसे पहले बन्दर दिखाई दिया | उसने बहुत कोशिश की कि उसे बन्दर ना दिखाई दे | पर हर बार आँख बंद करते ही बन्दर आकर खड़ा हो जाता | धीरे -धीरे उसकी स्थिति ये हो गयी कि उसे खाते -पीते उठते बैठते भी बन्दर का ही  विचार मन पर हावी रहता | वो फिर गुरु के पास गया और बोला ,  ” गुरुदेव ये तो संभव ही नहीं है | जितना मैं कोशिश करता हूँ कि बन्दर ना दिखे उतना ही बन्दर सामने आकर खड़ा हो जाता है |” गुरुदेव मुस्कुराये, ” मन का स्वाभाव ही ऐसा है | जिस चीज से रोकोगे | यह वहीँ वहीँ दौड़ेगा | तो ध्यान का पहला नियम है रोकना नहीं हैं | आँख बंद कर ध्यान पर बैठने से पहले बहुत सारे छोटे -छोटे बेसिक स्टेप्स बार -बार करके अपने आप को ध्यान के  लिए तैयार करना है | क्या हैं ध्यान के लिए ये बेसिक स्टेप्स ? सबसे महत्वपूर्ण स्टेप ये हैं कि जो आप कर रहे हैं उसे करने में अपना पूरा ध्यान दें |  मान लीजिये कि आप खाना -खा रहे हैं | तो एक -एक शब्द को स्वाद , रूप , रस , गंध का अनुभव करते हुए खाएं |इसे mindful eating भी कहते हैं | आमतौर पर हमारी वैचारिक प्रक्रिया कैसी होती हैं | उदाहरण के लिए अगर आज आप ध्यान से खाना खाने जा रहे हैं | तो विचार कुछ इस तरह से आयेंगे … टमाटर आलू की  सब्जी तो स्वादिष्ट बनी है | थोडा तीखा और होता तो .. वैसे मुझे मटर पनीर ज्यादा पसंद हैं | फलानी चाची  कितना अच्छा मटर पनीर बनाती हैं | पर रेसिपी नहीं बताती …पिछली बार तो पार्टी में सबके सामने कह दिया था , तुम नहीं बना पाओगी | पता नहीं क्या समझती हैं अपने आपको | हां , आजकल बेटे की पढाई का टेंशन हैं | पर किसको अपने बच्चों की पढाई का टेंशन नहीं है ? मेरे भी तो बच्चे हैं | बिट्टू की मैथ्स की टीचर अच्छी नहीं हैं ……. तो आपने देखा खाने से शुरू हुए विचार बिट्टू की मैथ्स तक पहुँच गए | श्रृंखला कुछ भी हो सकती है | पर हमारे सोचने की प्रक्रिया बेरोकटोक ऐसी ही है | कहते हैं कि एक घंटे में हमारा दिमाग करीब ५० से ६० हज़ार विचारों को डिकोड करता है | मन की सारी  भटकन इन्ही विचारों की वजह से है | इसलिए अवेयर होकर खाने के लिए जरूरी है की जब आप खाएं और दिमाग भटक कर इधर -उधर पहुंचे | उसे वापस खाने के रूप, रस गंध पर ले आये | mindful eating के लिए आपको अपने खाने पर फोकस धीरे -धीरे इस तरह से बढ़ाते जाना है … 1) आपको यह देखना है आप के लिए क्या खाना बेहतर है | खाने की लिस्ट बनाते समय सेहत को स्वाद से या स्ट्रेस बर्नर फ़ूड से ऊपर रखें | 2) खाना हमेशा टेबल या खास स्थान पर खाएं | टी वी देखते समय या कहीं भी नहीं | हल्का म्यूजिक चला सकते हैं | 3) खाने की टेबल पर केवल भूख लगने पर ही जाएँ | अगर आप स्ट्रेस में खाते हैं तो आप बार -बार मेज की तरफ दौड़ेंगे | हर बार दौड़ने पर आप ठहर कर सोचें की क्या वास्तव में मुझे भूख लगी है | 4) थोड़ी मात्रा में छोटी प्लेट में खाना लें और धीमे धीमे स्वाद लेते हुए खाएं | 5) अपनी सारी इंदियों को भोजन पर केन्द्रित कर दें | आप देखेंगे कि धीरे धीरे आप खाते समय सिर्फ खाने पर फोकस कर पायेंगे | आपको अपने विचारों पर थोडा सा नियंत्रण शुरू हो पायेगा | इससे दो फायदे और होंगे … १- आप बहुत कम खाने में तृप्त हो जायेंगे | जो व्यक्ति वजन घटाना चाहते हैं उनके लिए ये बहुत कारगर तरीका है | २…आपका पाचन तंत्र मजबूत होगा | अच्छे से एंजाइम निकलेंगे और आप शरीर पहले से ज्यादा स्वस्थ व् उर्जावान महसूस करने लगेगा | सबसे पहले आप इस अवेयरनेस के साथ कम से कम दिन में एक बार खाना खाइए | फिर अन्य कामों … Read more

बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर

 उषा दी के उपन्यास गयी झुलनी टूट के बाद मन में एक पीड़ा सी पसर गयी थी | झुलनी मेरे मन पर काबिज थी | इसलिए तुरंत मैं कोई गंभीर कृति नहीं पढना चाहती थी | कुछ हल्का –फुल्का, मजेदार पढने के उद्देश्य से मैंने भगवंत अनमोल जी का राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘बाली उमर’ उठाया | जैसा की कवर पेज देख कर और कुछ चर्चा में सुन –पढ़कर  लगा रहा था कि बच्चों की मासूम शरारतों के ऊपर होगा | लिहाजा मुझे अपना चयन उचित ही लगा | जिन्होंने भगवंत अनमोल जी के जिन्दगी 50-50 पढ़ा है , यहाँ उन्हें वो बिलकुल अलग शैली में ही नज़र आयेंगे | किताब उठाते ही पता चला कि ये कहानी तो कानपुर की है | जिसके कारण थोड़ी ख़ुशी बढ़ गयी | पुराना नवाबगंज याद आने लगा | नवागंज से हम लोगों की पहचान चिड़ियाघर यानि की Zoo के साथ जुडी थी | जिनको नहीं पता उनको बता दूं कि कानपुर का चिड़ियाघर 76.55 एकड़ में फैला नार्थ इण्डिया का सबसे बड़ा Zoo है | आंकड़े तो खैर बाद में पता चले पर अनुभव ये था कि हम लोग के घर के बड़े चलते –चलते थक जाते थे और एक जगह बैठ जाते थे और हम बच्चों को बड़ों की डांट के बिना मुक्त विचरण का सुअवसर मिलता था | तब कौन जानता था कि नवाबगंज के किसी दौलतगंज मुहल्ले में लेखक की कल्पना का गाँव होगा जहाँ उसके अनुभव व् कल्पना का गठजोड़ बच्चों के संसार में जाकर किसी “बाली उमर “ को लिखेगा | इस उपन्यास के मुख्य पात्र बच्चे हैं पर ये बच्चों के लिए नहीं है | बड़ों को बचपन की उम्र में ले जाने के लिए हैं | हालांकि जब मैंने ये उपन्यास शुरू किया तो मैं इससे बहुत कनेक्ट नहीं कर पायी |  लेकिन जैसे –जैसे “पागल है” का चरित्र आगे बढ़ता गया मेरे पाठक मन पर उपन्यास अपना शिकंजा कसता गया | अब क्यों कनेक्ट नहीं कर पायी और फिर क्यों उपन्यास ने प्रभावित किया   इसके बारे में बताती हूँ |उसी तरीके से जैसी छूट लेखक ने ली है , कुछ आगे का पीछे और पीछे का हिस्सा आगे करने की शैली के साथ | बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर  कहानी की शुरुआत होती है पात्र परिचय से | जैसा कि विदित है की ये चारों मुख्य  पात्र बच्चे हैं | लेखक एक-एक पात्र की विशेषता बताते हुए आगे बढ़ते हैं | ये चार पात्र हैं | पोस्टमैन, खबरी लाल , गदहा  और आशिक और इनके बीच में “पागल है “ का किरदार | जिसकी चर्चा बाद में | तो पोस्टमैन वो बच्चा है जो किशोर और युवा प्रेमियों के खत इधर –उधर पहुँचाने का काम करता है  | हर मौहल्ले  में ऐसे कुछ बच्चे होते है जो इस नेक काम के स्वयंसेवक होते हैं | अब क्योंकि वह चिट्ठियाँ इधर –उधर पहुचाने के दौरान उन्हें पढ़ भी लिया करता था इसलिए उसका ज्ञान दूसरे बच्चों से ज्यादा हो गया था था | जिसके कारण वो अपनी मंडली का सबसे योग्य सदस्य समझा जाता था | दूसरा बच्चा है खबरीलाल | खबरीलाल  के पिता दुदहा थे | यानि गाँव भर से दूध इकट्ठा कर शहर में बेचा करते थे | खबरीलाल  इसमें अपने पिता का हाथ बँटाता था | गाँव भर  के घरों में जाने के कारण उसे हर घर की खबर रहती थी | आप उसे पत्रकार की श्रेणी में रख सकते हैं | खबरों को  वो अपने दोस्तों से साझा कर बिना खरीदे खबर  देने का अपना पत्रकारिता धर्म निभाता था | तीसरा बच्चा है गदहा या रिंकू | उसके पिता फ़ौज में हैं | उस गाँव में जो बच्चे पढने में अच्छे होते थे वो या तो फ़ौज में जाते थे या लेखपाल हो जाते थे | गदहा भी पढने में होशियार था और उम्मीद थी कि वो भी अपने पिता के नक़्शे –कदम पर चल कर फ़ौज में जाएगा | गदहा  की खास बात थी की वो बहुत प्रश्न पूछता था | वो पढने से भी ज्यादा सोचता था | ऐसे बच्चों को शहर में लोग साइंटिस्ट की उपाधि देते पर गाँव में उसको इसी वजह से गदहा की उपाधि मिली | चौथा बच्चा है आशिक | उसका परिचय देते हुए भगवंत अनमोल  कहते हैं कि हर मुहल्ले में एक ऐसा बच्चा जरूर होता है जो बचपन से ही आशिक गिरी  को बखूबी संभाल  लेता है | उसे आशिकी के ज्ञान की भी अधिक जरूरत नहीं होती |  ऐसा लगता है कि ये जन्म से ही आशिक पैदा हुआ है और पैदा होते ही गोविंदा का रक्त उसके सारे शरीर में  बहने लगा | खैर, पोस्टमैन और खबरीलाल सांवले थे और दर्जा तीन में पढ़ते थे | गदहा और आशिक गोरे  थे | आशिक कक्षा दो में और गदहा एक में पढता है | कहानी बच्चों की छोटी –मोटी  जिज्ञासाओं के साथ शुरू होती है | गदहा के लिए बड़ा कठिन प्रश्न है ये जानना कि पृथ्वी गोल है या चपटी | पोस्टमैन उसकी इस जिज्ञासा को कई प्रयोग करके ये सिद्धकर देते हैं कि पृथ्वी चपटी है | इस तरह के कई मनोरंजक किस्से हैं | मुझे प्रतीक्षा थी बचपन के ऐसे ही अनेकों मासूमियत भरे किस्सों की लेकिन कहानी का  एक बड़ा हिस्सा बच्चों के स्त्री –पुरुष संबंधों के प्रति कौतुहल, फिर उसको गन्दी बात समझ कर मन हटाने की कोशिश  और फिर उसको स्वाभाविक समझ जाने पर है | हालांकि भगवंत जी ने बहुत पहलें  एक इंटरव्यू में इस विषय के बाबत पूछे जाने पर कहा था कि,   “जब कहीं बच्चों के उपन्यास या कहानियाँ पड़ता हूँ तो उसमें नैतिक शिक्षा कूट -कूट कर भरी होती है | लेकिन जब कभी मुझे अपना या अपने आस -पास का बचपन याद आता है तो मैं ये कह सकता हूँ कि उस बाहरी नैतिक शिक्षा के भीतरी मन में कई व्यस्क सवाल और ख्याल चल रहे होते थे | दुनिया को जानने की जिज्ञासा होती थी खासकर उन चीजों को जानने की ज्यादा जिज्ञासा होती थी जो हमसे छिपाई जाती थी |”  ये बात भी सही है कि  बच्चों की … Read more

गयी झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा

                                                ‘पदमश्री’ और ‘भारत भारती’ आदि अनेकों श्रेष्ठ  पुरुस्कारों से सम्मानित डॉ. उषाकिरण खान जी यानि कि उषा दी का किताबघर से प्रकाशित उपन्यास ‘गयी झुलनी टूट’ अपने नाम से जितना आकर्षित करता है उतना ही अपने कवर पेज से भी | इसके कवर पेज में बनी मधुबनी पेंटिग सहज ही ध्यान खींच लेती है | उन्होंने ‘महालक्ष्मी’ मधुबनी को इस किताब में क्रेडिट भी दिया है | लोक कलाओं के विस्तार का उनका ये तरीका मन को छू गया | उषा दी का नाम आते ही पाठकों के मन में  ‘भामती, ‘अगन हिंडोला’ और ‘भामती’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों की याद ताज़ा हो जाती है | पर यह उपन्यास उनसे अलग हट कर है | इसमें हाशिये के चरित्रों के जीवन के संघर्षों को दिखाया गया है | इसमें वो एक मार्मिक सवाल उठाती हैं कि “…जीवन केवल संगसाथ नहीं है | अगर संगसाथ है तो वंचना क्यों है ?” पूरा उपन्यास एक स्त्री के संघर्ष की जीवंत कहानी है जो कहीं ठहरती नहीं | हर धड़कन के साथ धड़कती हुई महसूस होती है | उषा दी  निरंतर अपने आस –पास के परिवेश की कहानियाँ लिखती आई हैं | उनकी कहानियाँ गल्प नहीं होती जीवन का यथार्थ होती हैं | इसीलिये वो मन में गहरे उतर जाती हैं | उनकी कहानियाँ से  उस परिवेश  के जीवन व् स्त्रियों की दशा, पर्यावरण आदि के बारे में भी बहुत कुछ जानने समझने को मिलता है | जो यहाँ शहर में बैठ कर हम नहीं देख पाते | वो स्वयं कहती हैं कि ,  “मैंने जब 1977 से कहानी लिखने के लिए कलम उठाई तब से यही कह रही हूँ कि जहाँ रहती आई हूँ उस भूमि की, नदी की पर्यावरण की कथा किसी ने नहीं लिखी | वह स्थान ओझल ही रहा | वह स्थान ओझल रहा तो स्त्री भी ओझल ही रही | मेरी कहानी पढ़कर कुछ तो टूटा |” उनके विमर्श शहरी स्त्री के सरोकारों से ना जुड़े होकर भारतीय गाँवों की स्त्री के सरोकारों से जुड़े हैं | जहाँ आज भी भारत की 80 प्रतिशत आबादी रहती है | गाँव की स्त्री के सरोकार शहरी स्त्री के सरोकार से भिन्न हैं | उसके कष्ट अलग हैं | वहाँ  सवाल शुचिता का नहीं है |  आज हम शहर में जिन ‘लिव इन’ संबंधों की बात कर रहे हैं, जिन पर लिखी कहानियाँ नए ज़माने के तथाकथित  ‘दैहिक विमर्श’ के खाँचे में धकेल दी गयी हैं,  वो गाँवों में मौजूद ही नहीं है  पूरी तरह से स्वीकार्य भी है | किसी की यहाँ  का समध कर लेना, किसी की चूड़ी बदल लेना ये सब शब्द गाँवों में आम हैं | स्त्री की शुचिता का वो प्रश्न यहाँ नहीं दिखता जिस पर शहरों में तलवारें तन जाती हैं | वो दुखी है पर उसके दुःख अलग हैं | सच्चाई ये है कि  उनके जीवन में  कष्टों की नदी का कोई ओर छोर नहीं है | उनके पति शहर में रोजी रोटी कमाने चले जाते हैं और पीछे बच जाती हैं औरतें | ये औरते जो परिवार के विरिष्ठ लोगों द्वारा प्रताड़ित की जाती हैं | अकेली जीवन काटती बच्चों को पालती स्त्री के मार्ग में अपने ही क्या –क्या काँटे बो सकते हैं वे उस पर मार्मिकता से प्रहार करती हैं | रोजी-रोटी  की तलाश में जो औरतें गाँवों से आकर बड़े शहरों  में झुग्गियों में बस गयीं हैं | वो हमारे बड़े शहरों के वो अँधेरे कोने हैं जिस पर हम प्रकाश डालने से भी बचते हैं | रोज सुबह समय पर आकर हमारे घरों की फर्श को आईने की तरह चमकाने वाली हमारी कामवालियों, घरेलु सहायिकाओं  की अपनी निजी जिन्दगी किस कालिमा में डूब रही है उसका किसी विमर्श का हिस्सा न बनना निराशाजनक है | शहर आ कर अपनी पहचान खो चुकी ये चेहराविहीन स्त्रियाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई नहीं लड़ती,ये दो जून रोटी की लड़ाई लड़तीं हैं | हर सूर्योदय के साथ इनका संघर्ष उदय होता है और हर सूर्यास्त को पस्त हुए तन-मन के साथ अस्त होता है कुछ घंटों की बेचैन रात  में ठहरने के बाद अगले सूर्योदय को फिर उदित होने के लिए | हालांकि ये स्त्रियाँ  संघर्षशील स्त्रियाँ  है | वह किसी स्थान पर अटक कर रोते हुए जिन्दगी नहीं काटती बल्कि संघर्ष करते हुए आगे के रास्ते बनाती है | इनके जीवन में आपसी इर्ष्या और परनिंदा है पर समय आने पर ये एक दूसरे को सहयोग देकर फिर से खड़ा करने में भी तत्पर रहती हैं | “जीवन की गति न्यारी है | नदी तल से निकाली मिटटी की तरह फिर समतल हो जाना नियति है |” जब आप कहानी के माध्यम से आगे बढ़ते जाते हैं तो सिर्फ आप कहानी ही नहीं पढ़ते लोक जीवन से रूबरू होते हैं | लोक संस्कृति से रूबरू होते हैं | गाँव के पंचायत निर्माण की प्रक्रिया हो या प्रधानी के चुनाव किस तरह सम्पन्न होते हैं उसकी जानकारी भी मिलती है | वहाँ घांटो जैसा मजबूत चरित्र हैं जो गाँव के विकास के लिए, शिक्षा के लिए, जरूरी सुविधाओं के लिए काम करता है, तो घूँघट वाली ऐसी औरतें भी हैं जो सरपंच तो बन गयी हैं पर वैसे ही घरेलु कामों में व्यस्त हैं और सरपंच के मुखौटे के पीछे असली सत्ता उनके पति संभाले हुए हैं |चालाकियाँ, गुट बाजी, अपने खेमे, वर्चस्व की लड़ाई ,  सब कुछ अनपढ़ और मासूम  से ग्रामीणों  में भी वैसे ही आम है जैसे शहरों में | आखिर असली मानव स्वाभाव भिन्न थोड़ी न है |  गयी  झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा  गयी झुलनी टूट पढ़ते हुए न जाने कितनी बार लगा कि जैसे मन में कहीं से कुछ टूट गया है | कुछ दरक गया है |मन के चारों तरफ दर्द पसर गया | ये दर्द कमली का दर्द था तो घांटों का भी | किसना का तो जगत का भी | हम कमली के दर्द के साथ रोते कलपते  आगे बढ़ते जाते हैं पर हर पात्र अपने हिस्से का दर्द जी रहा होता है | अपने हिस्से … Read more