भाई -दूज पर मुक्तक

दीपावली के दूसरे दिन भाई दूज का त्यौहार मनाया जाता है | इस दिन बहनें अपने भाई के माथे पर रोली अक्षत का टीका लगा कर उसके लिए दीर्घायु की प्रार्थना करती हैं | कहा जाता है कि इसी दिन मृत्यु के देवता यमराज अपनी बहन यमी के निमंत्रण पर वर्षों बाद उसके घर भोजन करने गए थे | तभी यमी ने संसार की सभी बहनों के लिए ये आशीर्वाद माँगा था कि जो भी भाई आज के दिन अपनी बहन का आतिथ्य स्वीकार कर उसके यहाँ भोजन करने जाए उसे वर्ष भर यमराज बुलाने ना आयें | इसी लिए आज के दिन का विशेष महत्व है | फिर भी बदलते ज़माने के साथ बहनें इंतज़ार करती रह जाती हैं और भाई अपने परिवार में व्यस्त हो जाते हैं | जमाना बदल जाता है पर भावनाएं कहाँ बदलती है | बहनों की उन्हीं भावनाओं को मुक्तक में पिरोने की कोशिश  की है |  भाई -दूज पर मुक्तक  कि अपने भाई को देखो बहन  संदेश लिखती है चले आओ  कि ये आँखें  तिहारी राह तकती हैं सजाये थाल  बैठी हूँ तुम्हारे ही लिए भाई तुम्हारी याद  में आँखें घटाओं सम बरसतीं हैं …………………………………………. तुझे भी याद तो होंगी पुरानी वो सभी दूजे बहन के सात भाई चौक पर जो थे कभी पूजे बताशे हाथ में देकर सुनाई थी कथा माँ ने सुनाई दे रहीं मुझको न जाने क्यों अभी गूँजें ———————————————— वर्ष बीते  मिले  हमको गिना है क्या कभी तुमने पलों को  भी  जरा सोचो    लगाया है   गले      हम ने  खता हुई      बताओ क्या  जरा  सी  बात पर रूठे                        कि आ जाओ मनाउंगी   उठाई   है कसम  हमने  —————————————- बने भैया    बहन आठों       धरा पे  चौक  आटे से  लगे ना चोट पाँवों  में     कभी  राहों के    काँटे  से  चला मूसर कुचल दूँगी     अल्पें तेरी   मैं  राहों की  बटेगा   ना  कभी     बंधन    हमारा  प्रभु    बांटे से  वंदना बाजपेयी मुक्तक –मु –फाई-लुन -1222 x 4 यह भी पढ़ें … प्रेम दीपक आओ मिलकर दिए जलायें धनतेरस -दीपोत्सव का प्रथम दिन दीपावली पर 11 नए शुभकामना सन्देश लम्बी चटाई के पटाखे की तरह हूँ मित्रों , आपको  ‘भाई -दूज पर मुक्तक‘ कैसे लगे   | पसंद आने पर शेयर करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें |  अगर आपको ” अटूट बंधन ” की रचनाएँ पसंद आती हैं तो हमारा फ्री ईमेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि सभी  नयी प्रकाशित रचनाएँ आपके ईमेल पर सीधे पहुँच सके |  filed under-bhaiya duj, bhai-bahan, muktak

विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेंरी नज़र में

शिवना प्रकाशन की दो पत्रिकाएँ ‘विभोम स्वर’और ‘शिवना साहित्यिकी’ प्राप्त हुईं | अभी थोड़ी ही पढ़ीं हैं, फिर भी उन पर लिखने का मन हो बन ही गया | पूरी पढ़कर और लिखूँगी | सबसे पहले बात करुँगी ‘शिवना साहित्यिकी” की | कवर पेज पर ही बना बच्चा और भगवत रावत जी की कविता मन मोह लेती है | एक अंश … अलमुनियम का वह दो डिब्बों वाला कटोरदान बच्चे के हाथ से छूट कर नहीं गिरा होता सड़क पर तो कैसे पता चलता कि उसमें चार रूखी रोटियों के साथ-साथ प्याज की एक गाँठ और दो हरी मिर्चे भी थीं विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेरी नज़र में  (वर्ष-4 अंक -15 )               इस अंक की खास बात है गीता श्री जी का पारुल सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार | जितने चुटीले सवाल पारुल जी ने पूछे उतने ही दिलकश जवाब गीताश्री जी ने दिए | गीता श्री जी का स्पष्ट दृष्टिकोण, बेबाक और अपनेपन से भरा अंदाज पाठकों को ख़ासा लुभाता है | गीताश्री जी एक पत्रकार रहीं हैं | पत्रकारिता ने उनके अनुभवों को विस्तार दिया हैं और साहित्य प्रेम में शब्दों और भावों पर पकड़ | इस कारण न उनके पास विषयों की कमी होती हैं ना उन्हें अभिव्यक्त करने के अंदाज की | साक्षात्कार लम्बा है, फिर भी कुछ बातें मैं आप सब से साझा कर रही हूँ | जो मेरे ख्याल से आप के अनुभवों में भी कुछ इजाफ़ा करेंगी | पुरुस्कारों के बारे में वो कहती हैं कहती हैं कि, “ पुरूस्कार मुझे उत्साहित  करते हैं और बेहतर करने को उकसाते हैं |” हालांकि वो साहित्य की तुलना जलेबी दौड़ से करती हैं | बचपन में हम सब ने जलेबी दौड़ में हिस्सा लिया है | इसमें हाथ पीछे बंधे होते हैं और धागे में बंधी जलेबी का एक टुकडा  काट कर आगे भागना होता है | गीता श्री जी कहती हैं कि जो छोटा टुकडा काट कर आगे भाग जाते हैं उन्हें पुरूस्कार मिल जाते हैं और वो पूरी जलेबी खाने के लोभ में वहीँ खड़ी रहती हैं तो उनका मुँह मिठास से भर  जाता है | कितनी सुन्दर बात कही है उन्होंने, भले ही पुरूस्कार उत्साहित  करते हैं पर  रचनात्मक संतुष्टि की मिठास किसी पुरूस्कार से कम तो  नहीं | स्त्रियों के मामले में वो एक ऐसे समाज को स्वप्न देखती हैं जहाँ स्त्री समाज से टकराकर रूढ़ियों को तोड़ कर समानता के आधार पर एक संतुलित समाज की नींव रखती है | उनकी कहानियों की नायिकाएं ऐसी ही हैं | वो बार –बार प्रयोग करने का जोखिम उठा कर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं | किसी भी रचनाकार के लिए जरूरी है कि वो अपने द्वारा स्थापित मानकों में कैद होकर ना रह जाए | डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का शोध आलेख “गांधी की पत्रकारिता का भारतीय मॉडल” विचारों का परिमार्जन करने वाला एक अवश्य पठनीय आलेख है | वो लिखते हैं कि , “नाथूराम गोडसे ने गांधी को तीन गोलियों से मारा था | पर हम उन्हें विगत 70 वर्षों सीसंख्य गोलियों से मारते आ रहे हैं , परन्तु गांधी हैं कि मरते ही नहीं | गांधी ने मशीनी सभ्यता के दुष्परिणामों के विरुद्ध जगत को चेताया था तथा ग्रामीण व् प्राकर्तिक जीवन के निरंतर नाश सेसे उत्पन्न होने वाले संकटों से सावधान किया था, परन्तु विज्ञानं एवं तकनीकी जिस प्रकार जीव सृष्टि के लिए संक्सत पैदा कर रही है तब हमें गांधी याद आते हैं और तब हम उनके विचारों में सामाधान ढूँढने लगते हैं |” मंजुश्री के कहानी संग्रह “जागती आँखों का सपना” की डॉ. रमाकांत शर्मा द्वारा व् योगेन्द्र शर्मा जी के उपन्यास ‘कितने अभिमन्यु’ की वेदप्रकाश अमिताभ जी द्वारा की गयी समीक्षा प्रभावित करती है |केंद्र में पुस्तक “जिन्हें जुर्म –ए –इश्क पर नाज था कि मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंकज पराशर, शुभम तिवारी , ब्रिजेश राजपूत, कविता वर्मा, दिनेश पाल की समीक्षाएं पुस्तक पढने के प्रति रुझान उत्पन्न  करती है | मैंने भी इसे अपनी ‘विश लिस्ट’ में रख लिया है |   इसी अंक में मेरे द्वारा प्रज्ञा  जी के कहानी संग्रह “मन्नत टेलर्स” की समीक्षा भी प्रकाशित हुई है | जिसे पढ़कर  बताने का काम आप पाठकों का है | विभोम स्वर  “विभोम स्वर” एक बेहतरीन साहित्यिक पत्रिका है | जिसके उत्तम स्वरुप लेने में सुधा ओम ढींगरा जी व् पंकज सुबीर जी की मेहनत दिखती है | साहित्य में विचारधाराओं की गुटबाजी पर  अपने सम्पादकीय में सुधा जी लिखती हैं, “साहित्य में विचारधाराओं ने क्या किया ? सिर्फ अपने लेखक स्थापित करने के अतिरिक्त साहित्य और भाषा की समृद्धि की ओर किसने देखा ?” डॉ. हंसा दीप का सुधा जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार बहुत ही रोचक व् प्रेरणादायक है |  टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत डॉ.हंसा जी विदेशियों को हिंदी भाषा सिखाने में होने वाली दिक्कतों के बारे में बताती हैं व् इस बात पर जोर देती हैं कि हिंदी को विश्व व्यापी करने के लिए उसका सरलीकरण बहुत जरूरी है | अभी हिंदी दिवस के आस –पास ट्विटर पर यह बहस भी चल रही थी | सच्चाई यही है कि भारत में भी बहुत क्लिष्ट भाषा आज  का युवा समझता नहीं है | सबसे पहले जरूरी है कि युवाओं को हिंदी से जोड़ा जाए | प्रवासी भारतीयों के लेखन के बारे में वो कहती हैं कि रोजी रोटी की व्यवस्था करने बाद ही वो अपनी रचनात्मक भूख शांत कर पाते हैं | इसमें एक लम्बा अंतराल आ  जाता है | फिर भी कैनवास व्यापक  हुआ है | सृजनात्मकता बढ़ी है | स्त्री लेखन, प्रवासी लेखन के वर्गीकरण को वो नहीं मानती पर वो ये मानती हैं पर पश्चिमी व् भारतीय स्त्री के प्रति मूलभूत मानसिकता वही है को स्वीकार करती हैं | विशाखा मुलमुले  की कवितायें गहरे भाव संप्रेषित करती हैं | ये कवितायें हमें जीवन का  आइना दिखाती हैं | ये एक रूपक के माध्यम से अपनी बात कहती हैं और दोनों को तराजू के दो पलड़ों में रखकर सोचने पर विवश कर देती हैं | कहीं ये रूपक विज्ञान से होते हैं तो कहीं जीवन से | जीवन पर उनकी गहरी दार्शनिक पकड़ है | जो सूक्ष्मता से आम जीवन को देखती हैं |उनमें काफी संभावनाएं … Read more

डूबते को तिनके का सहारा

कहते हैं ‘डूबते को तिनके का सहारा होता है |” कई बार हमारी छोटी सी मदद, छोटी सी बात , या छोटा सा सहयोग किसी दूसरे की जिन्दगी बदल सकता है | ये ऐसे होता है कि हमें पता भी नहीं चलता | संभावना इस बात की भी नहीं होती कि अनजाने हमने जिसकी मदद कर दी है वो कभी हमें मिलेगा भी | फिर भी कुछ किस्से ऐसे होते हैं जो दूसरों की मदद कर उनकी जिन्दगी संवारने के हमारे विश्वास को दृण कर देते हैं |  डूबते को तिनके का सहारा  कभी-कभी कुछ अप्रत्याशित घटनाएं आपकी सोच को एक दिशा देती हैं | कल भी एक ऐसी ही घटना घटी | घटना का जिक्र करने के लिए दो साल  पीछे जाना पड़ेगा |  मैं अपनी बेटी के साथ डॉक्टर के यहाँ ब्लड टेस्ट के लिए गयी हुई थी | वहाँ  अन्य महिलाएं भी अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहीं थी | उन्हीं में से वो महिला भी थी | जो अपनी फर्स्ट प्रेगनेंसी के लिए अल्ट्रासाउंड कराने आई थी | वो महिला बहुत खूबसूरत और साधारण परिवार से थी | महिला रंग गहरा साँवला या काला कहा जाए तो ज्यादा उचित होगा, था | बगल में बैठा उसका पति जो काफी गोरा चिट्टा था, लगभग हर गोरी महिला को घूर रहा था | ये घूरना इतना स्पष्ट था की उसे नज़रअंदाज नहीं किया जा सकता था | बीच –बीच में वो उपेक्षा से अपनी पत्नी से कुछ कह देता जो हम लोग सुन नहीं पा रहे थे पर समझ रहे थे | हालाँकि वो हौले –हौले मुस्कुरा रही थी | क्योंकि हम सब को समय काटना था | तो कोई किताब पढने लगा कोई बातों में व्यस्त हो गया | मेरी बेटी एक कागज़ पर स्केचिंग करने लगी | कुछ फूल पत्ती बनाने के बाद उसने उस महिला का स्केच बनाया | हमारी बारी पहले आई और हम जाने लगे तो बेटी ने वो स्केच उसे देते हुए कहा, “आप बहुत ही खूबसूरत हैं, इसलिए मैं ये स्केच बनाने से खुद को रोक नहीं पायी | आप अपनी स्माइल को हमेशा बनाए रखियेगा |”  उसके चेहरे पर आश्चर्य मिश्रित ख़ुशी के भाव छोड़कर हम घर आ गए | अभी कल वो अचानक से मिल गयी | दूर से देख कर जोर से हाथ हिलाया | मुझे पहचानने में थोड़ा वक्त लगा, उतने में वो मेरे पास आ कर बोली, “नमस्ते आंटी बेटी कैसी है आपकी ? मेरे भी बेटी हुई है |” मैंने उसे बधाई दी | वो फिर मुस्कुराते हुए बोली, “उस दिन आप की बेटी ने मेरा स्केच बनाया था | उसको धन्यवाद भी नहीं दे पायी | रंग की वजह से मैं अपने को काफी बदसूरत समझती थी | मेरे पति और परिवार वाले भी यही समझते थे |कई बार ताने मिलते थे | मेरा आत्मसम्मान और आत्मविश्वास बहुत लडखडाया हुआ था | उस दिन पहली बार महसूस हुआ कि मैं भी सुंदर लग सकती हूँ | ऐसा ही शायद मेरे पति को भी लगा | उनके ताने कम होने लगे | आज भी वो स्केच मेरे पास है | जब कभी आत्मविश्वास डिगता है तो उसे देख लेती हूँ और “अपने चहेरे पर ये स्माइल बनाए रखियेगा” ये शब्द याद कर लेती हूँ | मेरी तरफ से उसे धन्यवाद दे दीजियेगा |” कई बार हमारा आत्मविश्वास हमारे अपने तोड़ते हैं | ऐसे में किसी के शब्द बहुत हिम्मत दे जाते हैं | कल से महसूस हुआ कि जब भी जहाँ भी मौका लगे ये तिनका बननेकी कोशिश करनी चाहिए |  जीना इसी का नाम है … वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … माँ के सपनों की पिटारी भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  वो 22 दिन इतना प्रैक्टिकल होना भी ठीक नहीं आपको संस्मरण   “डूबते को तिनके का सहारा  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:help people, help someone, helping hand, healing, confidence, self worth

अंतर्मन के द्वीप- विविध विषयों का समन्वय करती कहानियाँ

अभी  पिछले दिनों मैंने “हंस अकेला रोया” में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखी हुई कहानियों का वर्णन किया था | आज इससे बिलकुल विपरीत कहानी संग्रह पर बात रखूँगी  जहाँ ज्यादातर कहानियों के केंद्र में शहरी और विशेष रूप से उच्च मध्यम वर्ग है | जहाँ मेमसाहब हैं | लिव इन रिश्ते हैं | टाइमपास के लिए पुरुषों से फ़्लर्ट करने वाली युवा लडकियाँ हैं | नौकरीपेशा महिलाएं हैं | माता –पिता दोनों के नौकरी करने के कारण  अकेलेपन से जूझते बच्चे हैं | स्त्रियों को अपने से कमतर समझने वाले परन्तु स्त्री अधिकारों पर लेख, कवितायें  लिखने वाले  फेमिनिस्ट लेखक हैं | और उन सब के बीच में है अना …जो आज के युग की नहीं है | पाषाणयुगीन महिला है | इन तमाम महिलाओं के बीच अना का होना अजीब लगता है | परन्तु उसका अलग होना ही उसकी खासियत है जो पाषाण युग से आधुनिक युग को जोडती है | कैसे …?  आज मैं बात कर रही हूँ वीणा वत्सल सिंह के कहानी संग्रह ‘अंतर्मन के द्वीप’ की | द्वीप यानि भूमि का ऐसा टुकडा जो चारों  तरफ से पानी से घिरा हो | जिसका भूमि के किसी दूसरे टुकड़े से कोई सम्बन्ध ना हो | जब ये द्वीप मन के अंदर बन रहे हों तो हर द्वीप एक कहानी बन जाता है | क्योंकि ऐसे ही तो उच्च-मध्यम वर्ग के लोग रहते हैं | एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे से पूरी तरह कटे हुए, अपने –अपने अंदर बंद | फिर भी चारों तरफ भावनाओं के समुद्र में बहते हुए ये द्वीप पृथक –पृथक होते हुए भी उसी भाव समुद्र का हिस्सा हैं | एक दूसरे से पूर्णतया पृथक और अलग होना ही इन द्वीपों की विशेषता है और कहानियों की भी | शायद इसी कारण आजकल के चलन के विपरीत  “अंतर्मन के द्वीप” नामक कोई भी कहानी संग्रह में नहीं है | अंतर्मन के द्वीप- विविध विषयों का समन्वय    सबसे पहले मैं बात करना चाहूँगी कहानी “अना” की | ये कहानी हमें समय के रथ पर बिठाकर पीछे ले जाती है …बल्कि बहुत पीछे, ये कहना ज्यादा  सही होगा | ये कहानी है पाषाण युग की, जब मनुष्य गुफाओं में रहना व् आग पर भोजन पकाना सीख लिया था | उस युग में महिला व् पुरुष एक टोली बनाकर एक गुफा में रहते थे | पुरुष शिकार को जाते थे व् महिलाओं का काम संतान उत्पन्न करना था | जब महिला संतान उत्पन्न करने लायक नहीं रह जाती थी तो गुफा के पुरुष उस महिला को शिकार पर साथ ले जाकर उसे खाई में धक्का दे देते या जानवर के आगे डाल कर उसकी हत्या कर देते थे | इस तरह से महिलाएं अपना पूरा जीवन जी ही नहीं पाती थी | उन्हीं महिलाओं में से एक महिला थी अना और उसकी बेटी चानी | हालांकि उस युग में नाम रखने का चलन नहीं था पर लेखिका ने पाठकों की सुविधा के लिए ये नाम रखे  हैं | अना ने पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ उनकी सेवा करके उनके लिए अधिक समय तक उपयोगी सिद्ध होकर ज्यादा जीवन जी लेने का पहला प्रयोग किया | अपने प्रयोग को सफल होते देख उसने ये गुरुमंत्र अपनी बेटी चानी को भी दिया | चानी ने यहाँ से मन्त्र को और आगे बढ़ाते हुए पुरुषों के लिए देवताओं से लम्बी आयु का वरदान माँगना भी शुरू किया | इस कहानी को स्त्री की आज की कहानी  के शुरूआती पाठ की तरह देखा जा सकता है | आज भी स्त्री अपने परिवार के  पुरुषों की लंबी आयु के लिए व्रत उपवास करती है | भोजन से लेकर शयन तक उनकी हर सुविधा का ध्यान रखती है …क्यों ?  क्यों अपने को पुरुष के जीवन में उपयोगी सिद्ध करने की ये सारी जद्दोजहद स्त्री के हिस्से में आती है ? क्यों ऐसी आवश्यकता पुरुष  को नहीं पड़ती ? तमाम स्त्री विमर्श के केंद्र में जो शाश्वत प्रश्न हैं ये कहानी उन्हीं के उत्तर ढूँढते –ढूँढते पाषण युग में गयी है | कहानी में एक नयापन होने के साथ ये स्त्री के जीवन के बेनाम संघर्षों की अकथ बयानी भी है |   अना का जिक्र करते हुए मेरे जेहन में एक अन्य कहानी आ रही है | हालांकि इस कहानी से उसका कोई लिंक नहीं है फिर भी  जिसके बारे में लिखने में मैं खुद को रोक नहीं पा रही हूँ | “The Handmaid’s tale” जो Margret Atwood का उपन्यास है | ये उपन्यास  Dystopian Fiction  का एक नमूना है | जो यूटोपिया यानि आदर्श लोक का बिलकुल उल्टा है | इस कहानी में लेखिका ने स्त्री जीवन की आगे की यात्रा की है | आज जिस तरह से लिंग अनुपात बिगड़ रहा है और बढ़ते प्रदूष्ण , रेडीऐशन व् जीवन शैली में बदलाव के कारण स्त्री की संतान उत्पत्ति की क्षमता प्रभावित हो रही है | तो हजारों साल  बाद एक ऐसा समय आएगा जब स्त्रियाँ खासकर वो स्त्रियाँ जिनमें संतान उत्पत्ति की क्षमता है, बहुत कम रह जायेगी | तब पुरुषों द्वारा स्त्री प्रजाति को दो भागों में स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया जाएगा | एक वो जिनमें संतान उत्पन्न करने की क्षमता है और दूसरी वो जो उनकी सेवा करेंगी | जिनमें क्षमता है तो क्या उनका जीवन सुखद होगा ? नहीं | उनके ऊपर कैसे भी, किसी भी तरह से ह्युमन रेस को बचाने का दारोमदार होगा | ये कैसे भी और किसी भी तरह से इतना वीभत्स है कि पढ़ते हुए रूह काँप जाती है | दोनों कहानियों का जिक्र मैंने एक साथ इसलिए किया क्योंकि एक ओर अना है जो स्त्री के द्वारा पुरुष की दासता स्वीकार करने से आज के दौर में पहुँचती है जहाँ स्त्री ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू कर दिया है | The Handmaid’s tale  स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष की शुरुआत से लेकर स्त्री के अधिकारों को पुन: छीन लिए जाने तक जाती है | ये बात महिलाओं को समझनी होगी कि इतिहास से हम सीख सकते हैं … अपने सघर्ष को और तेज कर सकते हैं | लेकिन इसके साथ यह भी याद रखना होगा कि हमें  The Handmaid’s tale जैसे अंजाम तक भी नहीं पहुँचना है … Read more

हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ

 “गाँव” एक ऐसा शब्द जिसके जुबान पर आते ही अजीब सी मिठास घुल जाती है | मीलों दूर तक फैले खेत, हवा में झूमती गेहूं की सोने सी पकी बालियाँ, कहीं लहलहाती मटर की छिमियाँ, तो कहीं छोटी –छोटी पत्तियों के बीच से झाँकते टमाटर, भिन्डी और बैगन, कहीं बेल के सहारे छत  पर चढ़ इतराते घिया और कद्दू, दूर –दूर फैले कुछ कच्चे, कुछ पक्के घर, हवा में उड़ती मिटटी की सुवास, और उन सब के बीच लोक संस्कृति और भाषा में रचे बसे सीधे सच्चे लोग | यही तो है हमारा असली रूप, हमारा असली भारत जो जो पाश्चात्य सभ्यता में रचे शहरों में नहीं बम्बा किनारे किसी गाँवों में बसता है | पर गाँव के इस मनोहारी रूप के अतिरिक्त भी गाँव का एक चेहरा है…जहाँ भयानक आर्थिक संकट से जूझते किसान है, आत्महत्या करते किसान हैं, धर्म और रीतियों के नाम पर लूटते महापात्र, पंडे-पुजारी हैं | शहरीकरण और विकास के नाम पर गाँव की उपजाऊ मिटटी को कंक्रीट के जंगल में बदलते भू माफिया और ईंट के भट्टे | गाँव के लोगों की छोटी –मोटी लड़ाइयाँ, रिश्तों की चालाकियाँ, अपनों की उपेक्षा से जूझते बुजुर्ग | जिन्होंने गाँव  नहीं देखा उनके लिए गाँव केवल खेत-खलिहान और शुद्ध जलवायु तक ही सीमित हैं | लेकिन जिन्होंने देखा है वो वहाँ  के दर्द, राजनीति, निराशा, लड़ाई –झगड़ों और सुलह –सफाई से भी परिचित हैं | बहुत से कथाकार हमें गाँव के इस रूप से परिचित कराते आये हैं | ऐसी ही एक कथाकार है सिनीवाली शर्मा जो गाँव पर कलम चलाती हैं तो पाठक के सामने पूरा ग्रामीण परिवेश अपने असली रूप में खड़ा कर देती हैं | तब पाठक कहानियों को पढ़ता नहीं है जीता है | सिनीवाली जी की जितनी कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं उनकी पृष्ठभूमि में गाँव है | वो खुद कहती हैं कि, ‘गाँव उनके हृदय में बसता है |” शायद इसीलिये वो इतनी सहजता से उसे पन्नों पर उकेरती चलती हैं | अपने कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” में सिनीवाली जी आठ कहानियाँ लेकर आई हैं | कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सारी कहानियाँ ग्रामींण पृष्ठभूमि पर आधारित हैं | इस संग्रह के दो संस्करण आ चुके हैं | उम्मीद है कि जल्दी तीसरा संस्करण भी आएगा | तो आइये  बात करते हैं संग्रह की कहानियों की | हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ सबसे पहले मैं बात करुँगी उस कहानी की जिसके नाम पर शीर्षक रखा गया है यानि की  “हंस अकेला रोया” की | ये कहानी ‘परिकथा’ में प्रकाशित हुई थी | ये कहानी है एक ऐसे किसान विपिन की, जिसके पिता की मृत्यु हुई है | उसके पिता शिक्षक थे | आस –पास के गाँवों में उनकी बहुत इज्ज़त थी | पेंशन भी मिलती थी | लोगों की नज़र में उनका घर पैसे वाला घर था | लेकिन सिर्फ नज़र में, असलियत तो परिवार ही जानता था | रही सही कसर उनकी बीमारी के इलाज ने पूरी कर दी | कहानी शुरू होती है मृत्यु के घर से | शोक का घर है लेकिन अर्थी से लेकर तेरहवीं में पूरी जमात को खिलाने के लिए लूटने वाले मौजूद हैं | अर्थी तैयार करने वाला, पंडित , महापात्र, फूफा जी यहाँ तक की नाउन, कुम्हार, धोबी सब लूटने को तैयार बैठे हैं | आत्मा के संतोष के नाम पर जीवित प्राणियों के भूखों मरने की नौबत आ जाए तो किसी को परवाह नहीं | जो खाना महीनों एक परिवार खा सकता था वो ज्यादा बन कर फिकने की नौबत आ जाए तो कोई बात नहीं, आत्मा की शांति के नाम पर खेत बिके या जेवर  तो इसमें सोचने की क्या बात है ? ये कहानी मृत्यु के उपरान्त किये जाने वाले पाखंड पर प्रश्न उठाती है पर इतने हौले से प्रहार करती है कि कथाकार कुछ भी सीधे –सीधे नहीं कहती पर पाठक खुद सोचने को विवश होता है | ऐसा नहीं है कि ये सब काम कुछ कम खर्च में हो जाए इसका कोई प्रावधान नहीं है | पर अपने प्रियजन को खो चुके  दुखी व्यक्ति को अपने स्वार्थ से इस तरह से बातों के जाल में फाँसा जाता है कि ये जानते हुए भी कि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं है, फिर भी व्यक्ति खर्चे के इस जाल में फँसता जाता है | ये सब इमोशनल अत्याचार की श्रेणी में आता है जिसमें सम्मोहन भय या अपराधबोध उत्पन्न करके दूसरे से अपने मन का काम कराया जा सकता है | जरा सोचिये ग्रामीण परिवेश में रहने वाले भोले से दिखने वाले लोग भी इसकी कितनी गहरी पकड़  रहते हैं | एक उदाहरण देखिये … “किशोर दा के जाने के बाद  विपिन के माथे पर फिर चिंता घूमने लगीं | दो लाख का इंतजाम तो किसी तरह हो जाएगा | पर और एक लाख कहाँ से आएगा ? सूद पर …? सूद अभी दो रुपया सैंकड़ा चल रहा है | सूद का दो हज़ार रुपया महीना कहाँ से आएगा…सूद अगर किसी तरह लौटा भी दिया तो मूल कहाँ से लौटा पायेगा | वहीँ दूसरी तरफ … “अंतर्द्वंद के बीच सामने बाबूजी के कमरे पर विपिन की नज़र पड़ी …किवाड़ खुला है,  सामने उनका बिछावन दिख रहा है | उसे लगा एक पल में जैसे बाबूजी उदास नज़र आये.. नहीं नहीं बाबूजी मैं भोज करूँगा | जितना मुझसे हो पायेगा | आज नहीं  तो कल दिन जरूर बदलेगा पर अप तो लौट कर नहीं आयेंगे …हाँ, हाँ करूँगा भोज |” कथ्य भाषा और शिल्प तीनों ही तरह से ये कहानी बहुत ही प्रभावशाली बन गयी है | एक जरूरी विषय उठाने और उस पर संवेदना जगाती कलम चलने के लिए सिनीवाली जी को बधाई | “उस पार” संग्रह की पहली कहानी है | इस कहानी बेटियों के मायके पर अधिकार की बात करती है | यहाँ बात केवल सम्पत्ति पर अधिकार की नहीं है (हालांकि वो भी एक जरूरी मुद्दा है-हंस जून 2019 नैहर छूटल  जाई –रश्मि  ) स्नेह पर अधिकार की है | मायके आकर अपने घर –आँगन को देख सकने के अधिकार की है | इस पर लिखते हुए मुझे उत्तर प्रदेश के देहातों में गाया जाने वाला लोकगीत याद आ … Read more

श्राद्ध की पूड़ी

श्राद्ध  पक्ष यानी अपने परिवार के बुजुर्गों के प्रति सम्मान प्रगट करने का समय | ये सम्मान जरूरी भी है और करना भी चाहिए | पर इसमें कई बार श्रद्धा के स्थान पर कई बार भय हावी हो जाता है | भय तब होता है जब जीवित माता -पिता की सेवा नहीं की हो | श्राद्ध पक्ष में श्रद्धा के साथ -साथ जो भय रहता है ये कहानी उसी पर है | श्राद्ध की पूड़ी  निराश-हताश बशेसरी  ने आसमान की ओर देखा | बादल आसमान में मढ़े  हुए थे | बरस नहीं रहे थे बस घुमड़ रहे थे | उसके मन के आसमान में भी तो ऐसे ही बादलों के बादल घुमड़ रहे थे , पर बरस नहीं रहे थे | विचारों को परे हटाकर उसने हमेशा की तरह लेटे -लेटे पहले धरती मैया के पैर छू कर,”घर -द्वार, परिवार  सबहीं की रक्षा करियो धरती मैया ” कहते हुए  दाहिना पैर जमीन पर रखा | अम्मा ने ऐसा ही सिखाया था उसको | एक आदत सी बना ली है | पाँच -छ : बरस की रही होगी तब से धरती मैया के पाँव छू कर ही बिस्तरा छोड़ती है | पर आज उठते समय चिंता की लकीरे उसके माथे पर साफ़ -साफ़ दिखाई दे रहीं थी | आज तो हनाय कर  ही रसोई चढ़ेगी | रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध जो है | पाँच  बरस हो गए उन्हें परलोक गए हुए |  पर एक खालीपन का अहसास आज भी रहता है | श्राद्ध पक्ष  लगते ही जैसे सुई से एक हुक सी  कलेजे में पिरो देता है | पिछले साल तक तो सारा परिवार मिल कर ही श्राद्ध करता था | पर अब तो बड़ी बहु अलग्ग रहने लगी है | कितना कोहराम मचा था तब | मझले गोविन्द से अपनी  बहन के ब्याह की जिद ठाने है | अब गोविन्द भी कोई नन्हा लला है जो उसकी हर कही माने | रहता भी कौन सा उसके नगीच है | सीमापुरी में रहता है | वहीँ डिराइवरी का काम मिला है | रोज तो मिलना होता नहीं | मेट्रो से आने -जाने में ही साठ रुपैया खर्चा हो जाता है | दिन भर की भाग -दौड़ सो अलग | ऐसे में कैसे समझाए | फिर आज -कल्ल के लरिका-बच्चा मानत हैं क्या बुजर्गन की | अब उसकी राजी नहीं है तो वो बुढ़िया क्या करे ? पर बहु को तो उसी में दोष नज़र आता है | जब जी आये सुना देती है | सात पुरखें तार देती है | यूँ तो सास -बहु की बोलचाल बंद ही रहती है पर मामला श्राद्ध का है | मालिक की आत्मा को तकलीफ ना होवे ई कारण कल ही तो उसके द्वारे जा कर कह आई थी कि,  “कल रामनाथ के बाबूजी का श्राद्ध है , घरे आ जइयो, दो पूड़ी तुम भी डाल दियो तेल में | रामनाथ तो करिए ही पर रामधुन  बड़का है , श्राद्ध  कोई न्यारे -न्यारे थोड़ी ही करत है | आखिर बाबूजी कौरा तो सबको खिलाये रहे | पर बहु ने ना सुनी तो ना सुनी | घर आई सास को पानी को भी ना पूछा | मुँह लटका के बशेसरी अपने घर चली आई | बशेसरी ने स्नान कर रसोई बनाना शुरू किया | खीर,  पूड़ी , दो तरह की तरकारी, पापड़ …जब से वो और रामनाथ दुई जने रह गए हैं तब से कुछ ठीक से बना ही नहीं | एक टेम का बना कर दोनों टेम  का चला लेती है | हाँ रामनाथ की चढ़ती उम्र के कारण कभी चटपटा खाने का जी करता है तो ठेले पर खा लेता है | उसका तो खाने से जैसे जी ही रूसा गया है | खैर  विधि-विधान से रामनाथ के हाथों श्रद्ध कराया | पंडित को भी जिमाया | सुबह से दो बार रामधुन की बहु को भी टेर आई | पर वो नहीं आई | इंतज़ार करते -करते भोर से साँझ हो आई | पोते-पोती के लिए मन में पीर उठने लगी | बाबा को कितना लाड़ करते थे | अब महतारी के आगे जुबान ना खोल पा रहे होंगे | बहुत देर उहापोह में रहने के बाद उसने फैसला कर लिया कि वो खुद ही दे आएगी  उनके घर | न्यारे हो गए तो क्या ? हैं तो इसी घर का हिस्सा |  बड़े-बड़े डोंगों में तरकारी और खीर भर ली | एक बड़े से थैले में पूरियाँ भर ली | खुद के लिए भी नहीं बचायी | रामनाथ तो सुबह खा ही चुका  था | लरिका -बच्चा खायेंगे | इसी में घर की नेमत है | दिन भर की प्रतीक्षारत आँखें बरस ही पड़ीं आखिरकार | जाते -जाते सोचती जा रही थी कि कि बच्चों के हाथ में दस -दस रूपये भी धर देगी | खुश हो जायेंगे | दादी -दादी कह कर चिपट पड़ेंगे | जाकर दरवाजे के बाहर से ही आवाज लगायी, ” रामधुन, लला , तनिक सुनो तो …” रामधुन ने तो ना सुनी | बहु चंडी का रूप धर कर अवतरित हो गयी | “काहे-काहे चिल्ला रही हो |” ” वो श्राद्ध की पूड़ी देने आये हैं |” ” ले जाओ, हम ना खइबे | लरिका-बच्चा भी न खइबे | बहु तो मानी  नहीं हमें | तभी तो हमारी बहिनी से गोविन्द का ब्याह नहीं कराय रही हो | अब जब तक हमरी  बहिनी ई घर में ना आ जाए हमहूँ कुछ ना खइबे तुम्हार घर का | ना श्राद्ध, न प्रशाद | कह कर दरवाजे के दोनों कपाट भेड़ लिए | बंद होते कपाटों से पहले उसने कोने में खड़े दोनों बच्चे देख लिए थे | महतारी के डर से आये नहीं | बुढ़िया की आँखें भर आयीं | पल्लू में सारी  लानते -मलालते समेटते हुए घर आ आई | बहुत देर तक नींद ने उससे दूरी बनाये रखी | पुराने दिनों  की यादें सताती रहीं | क्या दिन थे वो जब मालिक का हुकुम चलता था | मजाल है कि बहु पलट कर कुछ कह सके | आज मालिक होते तो बहु की हिम्मत ना होती इतना  कहने की | सोचते -सोचते पलकें झपकी ही थीं कि किसी  द्वार खटखटाने की आवाज़ आने लगी | … Read more

डॉटर्स डे-जिनके जन्म पर थाली नहीं पीटी जाती

डॉटर्स डे, बहुत ही खूबसूरत शब्द है | पर हमारे देश में जहाँ बेटियाँ गर्भ में मार दी जाती हों | उनके जन्म पर उदासी छा जाती हो | घर में भेदभाव होता हो …वहां डॉटर्स डे सिर्फ मनाने का त्यौहार नहीं है बल्कि संकल्प ले ने का दिन है कि हम अपनी बेटियों को  समान अधिकार दिलवाएंगे |  डॉटर्स डे-जिनके जन्म पर थाली नहीं पीटी जाती  जानती हूँ, आज डॉटर्स डे है सब दे रहे है बेटियों को जन्म की बधाइयाँ , ऐसे में , एक बधाई तो तुम्हे भी बनती हैमेरी प्यारी बेटी,ये जानते हुए भी क़ि तुम्हारे जन्म परनहीं पीटी गयीं थी थालियाँ ,न ही मनी थी छठी या बरहीं,सब के बीच घोषित कर दी गयी थी मैं,पुत्री जन्म की अपराधिनी,जिसने ध्यान नहीं रखा था,चढ़ते -उतरते दिनों का,खासकर चौदहवें दिन का,कितना समझाया गया था,फिर भी…सबके उदास लटके चेहरे,और कहे -अनकहे तानेपड़ोसियों के व्यंग -बाण,“सुना है पहलौटी कि लड़की होती है अशुभ”के बीच दबे हुए मेरे  प्रश्न“क्या पहली बेटी के बाद दूसरी हो जाती है शुभ?”जानती थी उत्तर,फिर भी…जैसे जानती हूँ क़ि “दुर्गा आयी है,लक्ष्मी आयी है”के बाहरी उद्घोष के बीच मेंघर की चारदीवारी के अंदर,बड़ी ख़ूबसूरती से दबा दी जाती हैदोषी घोषित की गयी माँ की सिसकियाँ, किससे शिकायत करती सब अपने ही तो थे, अपने ही तो हैं,फिर भी… उस समय दबा कर उपेक्षा की वेदना को  मैं अकेली ही सही खड़ी हुई थी तुम्हारे साथ,दी थी खुद को बधाई तुम्हारे जन्म की  और तुम्हारी वजह से ही, समझी हूँ दर्द नकारे जाने का इसलिए   आज मैं खड़ी हूँ उन लाखों बेटियों के साथ जिनके जन्म पर थाली नहीं पीटी जाती वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “डॉटर्स डे-जिनके जन्म पर थाली नहीं पीटी जाती “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-poem, hindi poem, life, daughter’s day, women issues, mother and daughter

मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़

 आज का दौर बाज़ारों का दौर है | ये केवल अपनी जगह सीमित नहीं है | ये बाज़ार हमारे घर तक आ गए हैं | ये हमें कहीं भी पकड़ लेते हैं | हम सब इसकी जद में है | टी.वी, रेडियो, मोबाइल स्क्रीन से आँख हटा कर जरा दूर देखने की कोशिश करें तो किसी ना किसी होर्डिंग पर कुछ ना कुछ खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है | आज हमारे पास पहले से ज्यादा कपड़े है, महंगे मोबाइल हैं, गाड़ियाँ हैं, लोन पर लिए ही सही पर अपने फ़्लैट हैं | हम सब अपने बढ़ते जीवन स्तर की झूठी शान से खुश हैं | उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में भागते हुए हमें कहाँ ध्यान जाता है गिरते हुए मानव मूल्यों का, टूटते रिश्तों का और आपसी सौहार्द का | ये सब लिखते हुए मुझे याद आ रहा है महान वैज्ञानिक  न्यूटन का तीसरा नियम…क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर होती है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में | आप सोच रहे होंगे कि विज्ञान का यहाँ क्या काम है | लेकिन भौतिकी का  ये नियम उपभोक्तावाद की संस्कृति में भी मौजूद है | जरा गौर कर के देखिएगा…बाज़ार से हमारी दूरी जितनी घट रही है, आपसी रिश्तों की दूरी उतनी ही बढ़ रही है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में | “उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे” से आपसी रिश्तों में इर्ष्या के बीज बोती इस उपभोक्तावादी संस्कृति का असर सिर्फ इतना ही नहीं है | “मेरे घर के बस दस कदम की दूरी पर मॉल है”, “मेट्रो तो मेरे घर के बिलकुल पास से गुज़रती है”, “हम तो सब्जियाँ  भी अब ऐ.सी . मार्किट से ही खरीदते हैं…भाई कौन जाए सब्जी मंडी में झोला उठाकर पसीने बहता हुआ” जब हम बड़ी शान से ऐसे वाक्य कहते हुए विकास का जय घोष करते हैं तो हम बड़ी ही बेरहमी में उन लोगों की पीड़ा के स्वरों को दबा देते हैं जिनकी रोजी –रोटी छिन गयी है | जिनके बच्चों की पढाई छूट गयी है | जिनकी झुगगियाँ तोड़ दी गयी हैं | इस संवेदनहीनता में हम सब शामिल हैं | बाजारवाद की भेंट चढ़े उन्हीं मानवीय रिश्तों, जीवन मूल्यों और रोजी-रोटी से महरूम किये गए दबे कुचले लोगों के प्रति संवेदना जगाने के लिए प्रज्ञा जी लेकर आई है “मन्नत टेलर्स” | इस कहानी संग्रह की हर कहानी कहीं ना कहीं आपको अशांत करेगी, सोचने पर विवश करेगी, और विवश करेंगी उन प्रश्नों के उत्तर खोजने को भी जो आपके मन में प्रज्ञा जी हलके से रोप देती हैं | यूँ तो बहुत तरह की कहानियाँ लिखी जाती है पर साहित्य का उद्देश्य ही अपने समय को रेखांकित करना है, संवेदना जगाना और समाधान ढूँढने को प्रेरित करना है | आज जब महिला लेखिकाओं पर लोग आरोप लगाते हैं कि वो केवल स्त्री संबंधित  मुद्दों पर ही लिखती है तो मुझे लगता है कि ‘मन्नत टेलर्स’ जैसे कथासंग्रह उन सारे आरोपों का जवाब है | जहाँ ना सिर्फ बाज़ारवाद  पर सूक्ष्म पकड है बल्कि उसके दुष्प्रभावों पर संवेदना जगाने की ईमानदार कोशिश भी | जैसा की अपने आत्मकथ्य में प्रज्ञा जी कहती हैं कि, “ जब धरती बनी तो उस पर रास्ते नहीं थे| पर जब बहुत सारे लोग एक ही दिशा की ओर चलते चले गए तो रास्ते बन गए | समाज की कठोर परिस्थियों और निराशाओं के अंधेरों की चट्टान के नीचे मुझे हमेशा एक नए पौधे की हरकत दिखाई दी है | ये कहानियाँ साधारण से दिखने वाले लोगों के असाधारण जीवट की कहानियाँ हैं |” मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़  ‘लो बजट’ इस संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी है प्रखर की जो अपने दोस्त संभव के साथ दिल्ली में एक ‘लो बजट’ का फ़्लैट ढूढ़ रहा है | प्रखर अपनी पत्नी व् दो बच्चों के साथ अभी किराए के मकान में रहता है | उसका भी सपना वही है जो किराए के मकानों में रहने वाले लाखों लोगों का होता है …एक अपना घर हो, छोटा ही सही लेकिन जिसकी दीवारें अपनी हों और अपनी हो उस की सुवास | और फिर फ़्लैट अपने होने से  हर महीने दिए जाने वाले किराए से भी छुट्टी मिलती है |  कहानी की शुरुआत फ़्लैट ढूँढने में होने वाली परेशानियों से होती है | आये दिन प्रॉपर्टी डीलर फ़्लैट देखने के लिए बुला लेता है | संडे की एक सुकून भरी छुट्टी बर्बाद होती है | फिर भी फ़्लैट पसंद नहीं आता | किसी की फर्श चीकट है तो किसी के किचन का स्लैब बहुत नीचा और किसी की अलमारियाँ दीमकों का राजमहल बनी हुई हैं | घर ढूँढने की शुरूआती परेशानियों के बाद  जैसे-जैसे कहानी आगे बढती है भू माफियाओं के चहरे बेनकाब करती चलती है | किस तरह से उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है | किस तरह से तंग गलियों में ऊँचे –ऊँचे फ़्लैट बन कर महंगे दामों में बेचे जा रहे हैं | किस तरह से बिना नक्शा पास कराये फ्लैस जब तोड़े जाते हैं तो नुकसान सिर्फ और सिर्फ खरीदार को होता है | एक उदहारण देखिये … “ आप क्या समझ रहे हैं मकान खरीदने को ? इतना आसान है क्या ? फ़्लैट पसंद आ भी गया तो उसके साथ रजिस्ट्री की कीमत जोड़ो | हमारे दो परसेंट कमीशन को जोड़ो | फिर कागज़ बनवाने के साथ अथॉरिटी से कागज़ निकलवाने का खर्चा जोड़ो | और फिर असली कीमत तो तय होगी मालिक के साथ टेबल पर |” जिन्होंने  भी फ़्लैट खरीदे  हैं या प्रयास किया है वो सब इस दौर से गुज़रे होंगे | कहानी यहीं नहीं रूकती | उसका फैलाव उन खेतों तक पहुँचता है जिन पर भू माफियाओं की नज़र है | जहाँ किसान की मजबूरी खरीदी जा रही है या उन्हें बड़े सपने बेच कर कृषि योग्य भूमि खरीदी जा रही है | बड़ी ही निर्ममता से हरी फसलों से लदे खेतों को कंक्रीट के जंगलों में बदला जा रहा है | कृषि योग्य भूमि की कमी हो रही है | किसान आत्महत्या कर रहे हैं | पर इसकी चिंता किसे है कि उपजाऊ जमीन और अन्नदाता को मृत्यु की ओर धकेल कर वो भविष्य में … Read more

विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ, मत बुझाओ ! जब मिलेगी, रोशिनी  मुझसे मिलेगी पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ आँसुओं से जन्म दे-दे कर हँसी को एक मंदिर के दिए सा जल रहा हूँ, मैं जहाँ धर दूं कदम वह राजपथ है, मत मिटाओ ! पाँव मेरे देखकर दुनिया चलेगी ! जब मिलेगी, रोशिनी मुझसे मिलेगी !                    राम अवतार त्यागी   आज मैं जिस किताब के बारे में लिखने जा रही हूँ वो सिर्फ एक किताब नहीं है ..वो जिन्दगी है , जिसमें हताशा है, निराशा है संघर्ष हैं और संघर्षों से टकरा –टकरा कर लिखी गयी विजय गाथा है | दरअसल यह गिर –गिर कर उठने की दास्तान है | यूँ तो ये एक आत्मकथा है जिसे पढ़ते हुए आपको अपने आस-पास के ऐसे कई चेहरे नज़र आने लगेंगें जिनके संघर्षों को आप  देख कर भी अनदेखा करते रहे | कई बार सहानुभूति में आँख तो भरी पर उनके संघर्षों में उनका हौसला बढाकर साझीदार नहीं बने | इस पुस्तक का उद्देश्य इस सामजिक मानसिकता के भ्रम को तोडना ह , जिसके तहत हम –आप,  किसी दिव्यांग को , किसी अस्वस्थ को, या  किसी अन्य आधार पर किसी  को अपने से कमतर मान कर उसे बार –बार कमतरी का अहसास करते हुए उसके स्वाभिमान पर प्रहार करते रहते हैं |  सहानभूति और समानुभूति में बहुत अंतर है | सहानभूति की नींव कभी समानता पर नहीं रखी होती | क्यों नहीं हम सहानुभूति वाली मानसिकता को त्याग कर हर उस को बराबर समझें | उसे अपने पंख खोलने का हौसला और हिम्मत दे …यकीन करें उसकी परवाज औरों की तरह ही ऊँची होगी …बहुत ऊँची | विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब   और जैसा किताब के लेखक ललित कुमार जी ने पाठकों को संबोधित करते हुए लिखा है कि “मैंने इस पुस्तक में हर भारतीय को आवाज़ दी है कि वो विकलांगों के प्रति अपने नजरिया सकारात्मक बनाए | मैंने समाज को कुछ वास्तविकताओं के बारे में बताया है, ताकि हमारा समाज विकलांग लोगों को हाशिये पर डालने के बजाय विकलांगता से लड़ने के लिए खुदको मानसिक व् संरचनात्मक रूप से तैयार कर सके | यदि यह पुस्तक एक भी व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने में थोडा भी योगदान दे सके तो मैं इस पुस्तक के प्रकाशन को सफल समझूंगा |” आज  हम जिस पुस्तक की चर्चा कर रहे हैं वो है ललित कुमार जी की “विटामिन –जिंदगी” | ललित कुमार जी को कविता कोष व गद्य कोष के माध्यम से सभी जानते हैं | लेकिन उनके सतत जीवन  संघर्षों और संघर्षों को परास्त कर जिन्दगी की किताब पर विजय की इबारत लिखने के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे | “ये विटामिन जिंदगी” वो इच्छा शक्ति है वो जीवट है, वो संकल्प है जिससे कोई भी निराश, हताश व्यक्ति अपनी जिन्दगी  की तमाम मुश्किलों से टकराकर सफलता की सीढियां चढ़ सकता है | इसमें वो लोग भी शामिल हैं जिनके साथ प्रकृति माँ ने भी अन्याय किया है | “प्रकृति विकलांग बनती है और समाज अक्षम”  “ओह ! इसके साथ तो भगवान् ने बहुत अन्याय किया है”कह कर  हम जिन लोगों को देखकर आगे बढ़ जाते हैं उन्हीं में से एक थे मिल्टन, जिनकी कवितायें आज भी अंग्रेजी साहित्य में मील का पत्थर बनी हुई हैं,  उन्ही में एक थे बीथोवन जिनकी बनायी सिम्फनी को भला कौन नहीं जानता है | उनकी सुनने की क्षमता  26 वर्ष की आयु से ही कम हो गयी थी | अन्तत: उन्हें सुनाई देना पूरी तरह से बंद हो गया | पाँचवीं सिम्फनी तक वो पूरी तरह से सुनने की क्षमता खो चुके थे | फिर भी वो रुके नहीं …और उसके बाद भी एक से बढ़कर एक  लोकप्रिय सिम्फनी बनायी | उन्हीं में से एक है हिंदी फिल्मों में नेत्रहीन संगीतकार, गीतकार  रवीन्द्र जैन जिनकी बनायीं धुनें आज भी भाव विभोर करती हैं |  उन्हीं में से एक है दीपा  मालिक जी, जिनके सीने के नीचे का हिस्सा संवेदना शून्य है लेकिन उन्होंने रियो पैरा ओलम्पिक में रजत पदक जीता | हाल ही में उन्हें खेल रत्न से नवाजा गया है | और उन्हीं में से एक हैं ललित कुमार जी | ऐसे और भी बहुत से लोग होंगे जिनके नाम हम नहीं जानते, क्योंकि उन्होंने सार्वजानिक जीवन में भले ही कुछ ख़ास न किया हो पर अपने–अपने जीवन में अपने संघर्ष और विजय को बनाए रखा | ये सब लोग अलग थे ….दूसरों से अलग पर सब ने सफलता की दास्तानें लिखीं | ये ऐसा कर पाए क्योंकि इन्होने खुद को अलग समझा दूसरों से कमतर नहीं | इस किताब के लिखने का उद्देश्य भी यही है कि आप इनके बारे में जान कर महज उनकी प्रशंसा प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में कर के आगे ना बढ़ जाए | बल्कि  अपने आस-पास के दिव्यांग लोगों को अपने बराबर समझें | उनमें कमतरी का अहसास ना जगाएं |   पल्स पोलियो अभियान के बाद आज भारत में पोलियो के इक्का दुक्का मामले ही सामने  आते हैं परन्तु एक समय था कि पूरे  विश्व को इसने अपने खुनी पंजे में जकड़ रखा था | कहा जाता है कि उस समय अमेरिका में केवल दो चीजों का डर था एक ऐटम  बम का और दूसरा पोलियो का | पोलियो के वायरस का 90 से 95 % मरीजों पर कोई असर नहीं होता | 5 से 10% मरीजों पर हल्का बुखार और उलटी और दर्द ही होता है केवल दशमलव 5% लोगों में यह वायरस तंत्रिका तंत्र पर असर करता है और उसे जीवन भर के लिए विकलांग कर देता | ये बात भी महवपूर्ण है कि  1955 में डॉ सार्क  ने पोलियो का टीका बनाया था | लेकिन उन्होंने इसे पेटेंट नहीं करवाया | उन्होंने इसे मानवता के लिए दे दिया | वो इस टीके के पेटेंट से हज़ारों करोणों डॉलर कमा सकते थे | पर उन्होंने नहीं किया | और इसी वजह से पोलियो को दुनिया से लगभग मिटाया जा सका है | मानवता के लिए ये उनका अप्रतिम योगदान है | ये जानने के बाद उनके प्रति श्रद्धा से सर झुक जाना स्वाभाविक है … Read more

इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ

जीवन में खुश रहने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं  ( रोटी कपड़ा और मकान ) के बाद हमारे जीवन में सबसे ज्यादा जरूरी  क्या है ? उत्तर है रिश्ते |  आज जब हर इंसान पैसे और सफलता के पीछे भाग रहा है तो ख़ुशी के ऊपर किये गए एक अमेरिकन सर्वे की रिपोर्ट  चौकाने वाली थी | सर्वे करने वाले ग्रुप को विश्वास था कि जो लोग अपनी जिन्दगी में बहुत सफल हैं या जिन्होंने बहुत पैसे कमाए होंगे वो ज्यादा खुश होने परन्तु परिणाम आशा के विपरीत निकले | वो लोग अपनी जिन्दगी में ज्यादा खुश थे जिनके रिश्ते अच्छे चल रहे थे भले ही उनके पास कम पैसे हो या सफलता उनकी तयशुदा मंजिल से बहुत पहले किसी पगडण्डी पर अटकी रह गयी हो | भले ही सफलता के  के नए गुरु कहते हों कि जिन्दगी एक रेस है …दौड़ों और ये सब पढ़ सुन कर हम बेसाख्ता दौड़ने लगे हों पर जिन्दगी एक बेलगाम दौड़ नहीं है | ये अगर कोई दौड़ है भी तो नींबू दौड़ है | याद है बचपन के वो दिन जब हम एक चम्मच में नीबू रखकर चम्मच को मुँह में दबा कर दौड़ते थे | अगर सबसे पहले लाल फीते तक पहुँच भी गए और नींबू चम्मच से गिर  गया तो भी हार ही होती थी | सफलता की दौड़ में ये नीम्बू हमारे रिश्ते हैं जिन्हें हर हाल में सँभालते हुए दौड़ना है | लेकिन तेज दौड़ते हुए इतना ध्यान कहाँ रह जाता है इसलिए आज हर कोई दौड़ने के खेल में हार रहा है | निराशा , अवसाद से घिर है | समाज में ऐसे नकारात्मक बदलाव क्यों हो रहे हैं ? , रिश्तों के समीकरण  क्यों बदल रहे हैं ? गाँव की पगडण्डीयाँ चौड़ी सड़कों में बदल गयी पर दिल संकुचित होते चले गए | क्या सारा दोष युवा पीढ़ी का है या बुजुर्गों की भी कुछ गलती है ? बहुत सारे  सवाल हैं और इन सारे सवालों के  प्रति सोचने पर विवश करने और समाधान खोजने के लिए प्रेरित करने  के लिए ‘रीता गुप्ता ‘ जी ले कर आयीं हैं “इश्क के रंग हज़ार “ इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ  ” इश्क के रंग हज़ार ‘ नाम पढ़ते ही पाठक को लगेगा कि इस संग्रह में प्रेम कहानियाँ होंगी | परन्तु आशा के विपरीत इस संग्रह की कहानियाँ  रिश्तों के ऊपर बहुत ही गंभीरता से अपनी बात करती हैं | पाठक कहीं भावुक होता है , कहीं उद्द्वेलित होता है तो कहीं निराश भी वहीँ कुछ कहानियों में रिश्तों की सुवास उसके मन वीणा के तार फिर से झंकृत कर देती हैं | कहानी संग्रह का नाम क्या हो ये लेखक का निजी फैसला है | ज्यादातर लेखक किसी एक कहानी के नाम पर ही शीर्षक रखते हैं | शीर्षक के नाम वाली कहानी बहुत मिठास का अहसास देती हैं पर जिस तरह से गंभीर कहानियाँ अंदर के पन्नों पर पढने को मिलती हैं तो मैं कहीं न कहीं ये सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि संग्रह का शीर्षक कुछ और होता तो रिश्तों की उधेड़बुन से जूझते हर वर्ग के पाठकों को  ज्यादा आकर्षित कर  पाता | वैसे इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं  , फिर भी जिन्होंने नाम के कारण इस संग्रह पर ध्यान नहीं दिया है उनसे गुजारिश है कि इसे पढ़ें और फिर अपनी राय कायम करें | सबसे पहले मैं बात करना  चाहूँगी कहानी ‘आवारागर्दियों का सफ़र ‘की | ये कहानी ‘इद्र्प्रस्थ भारती’ में प्रकाशित हुई  थी | ये कहानी है 17 -18 साल के किशोर  अनु की , जो  ट्रक में खलासी का काम करता है | काम के कारण अनु को अलग -अलग  शहर में जाना पड़ता है | पिछले कई वर्षों में वो झारखंड व् आसपास के कई राज्यों में  जा चुका  है | हर जगह उसकी कोशिश यही होती है कि  उस शहर में रेलवे स्टेशन जरूर हो |  हर रेलवे स्टेशन के पास ही वो अपना डेरा बनाता है ताकि उसे खोजने में आसानी हो  | आप सोच रहे होंगे कि आखिर अनु क्या खोज रहा है ? इस खोज के पीछे एक बहुत दर्द भरी दास्ताँ है | नन्हा अनु अपने माता -पिता के साथ किसी रेलवे स्टेशन के पास ही रहता था , जब वो पिता की ऊँगली छुड़ा कर रेलगाड़ी में घुस गया था | उसके लिए महज एक खेल था , एक छोटी सी शरारत ….पर यही खेल उसके जीवन की सबसे कड़वी  सच्चाई बन गया | आज उसे कुछ भी याद नहीं है …याद है तो पिता की धुंधली सी आकृति , तुलसी  के चौरे पर घूंघट ओढ़े दिया जलाती माँ और स्टेशन के पास एक दो कमरों का एक छोटा सा मकान जिसकी दीवारे बाहर से नीली और अंदर से पीली पुती हुई थी पर दरवाजा सफ़ेद और पीछे कुएं के पास लगे आम और अमरुद के पेड़ | हर स्टेशन के आस -पास यही तो ढूँढता है वो …और हर बार बढती जातीं है उसके साथ पाठक की बेचैनियाँ | अब उसकी तलाश पूरी होती है या नहीं ये तो आपको कहानी पढ़ कर पता चलेगा पर अनु की बेचैनी को उजागर करती ये पंक्तियाँ अभी आप को भी बेचैन होने को विवश कर देंगी | “पक्षियों के झुण्ड दिन भर की आवारागर्दियों के बाद लौट रहे थे | अनु को उनके उड़ने में एक हडबडी , एक आतुरता महसूस हो रही थी | “घर ” वहाँ  इन सब का जरूर कोई ना कोई घर कोई ठिकाना होगा , वहाँ  कोई होगा जो इनका इंतजार कर रहा होगा | ‘परिवार ‘इन पंक्षियों का भी होता होगा क्या ? होता ही होगा , दुनिया में हर किसी का एक परिवार अवश्य ही होता है , सिवाय उसके , और अनु की आँखों से कुछ खारा पानी आज़ाद हो गया उसी क्षण | ‘ बाबा ब्लैक शीप ‘इस संग्रह की मेरी सबसे पसंदीदा कहानी है | ये कहानी दो पीढ़ियों के टकराव पर है | कहानी की शुरुआत अंकल सरीन की मृत्यु की खबर से होती  है , जिसे कभी उनके  पड़ोसी रहे व्यक्ति का बेटा पढता है | खबर में … Read more