पालतू बोहेमियन – एक जरूर पढ़ी जाने लायक किताब

प्रभात रंजन जी की मनोहर श्याम जोशी जी के संस्मरणों पर आधारित किताब ‘ पालतू बोहेमियन’ के नाम से वैसे ही आकर्षित करती है जितना आकर्षण कभी टी.वी. धारावाहिक लेखन में मनोहर श्याम जोशी जी का था | इसे पूरी ईमानदारी के साथ पन्नों पर उतारने की कोशिश करी है प्रभात रंजन जी ने | जानकी पुल पर प्रभात रंजन जी को पढ़ा है उनका लेखन हमेशा से प्रभावित करता रहा है  परन्तु इस किताब में उन्होंने जिस साफगोई के साथ उस समय की अपनी कमियाँ, पी.एच.डी. करने का कारण, और उस समय लेखन को ज्यादा संजीदगी से ना लेने का वर्णन किया है वो वाकई काबिले तारीफ़ है | ये पुस्तक गुरु और शिष्य के अंदाज में लिखी गयी है | फिर भी  आज आत्म मुग्ध लेखकों का दौर है | कोई कुछ जरा सा भी लिख दे तो दूसरों को हेय  समझने लगता है | ऐसे में मनोहर श्याम जोशी जी के कद को और कुछ और ऊँचा करने के लिए प्रभात रंजन जी जब कई खुद को कमतर दर्शाते  हैं तो इसे एक लेखक के तौर पर बड़ा गुण समझना चाहिए |  उम्मीद है जल्दी ही उनका उपन्यास पढने को मिलेगा | वैसे उन्हें  जोशी जी द्वारा सुझाया गया “दो मिनट का मौन” हिंदी साहित्य के किसी अनाम लेखक के ऊपर एक अच्छा कथानक है परन्तु क्योंकि अब प्रभात रंजन जी ने उस रहस्य को उजागर कर दिया है इसलिए उम्मीद है कि वो किसी नए रोचक विषय पर लिखेंगे | इस पुस्तक पर कुछ लिखने से पहले मैं कहना चाहती हूँ कि पुस्तक समीक्षा के लिए नहीं है , क्योंकि ये ज्ञान की एक पोटली है आप जितनी श्रद्धा से इसे पढेंगे उतना ही लाभान्वित होंगे | पालतू  बोहेमियन – एक जरूर पढ़ी जाने लायक किताब “तो छुटकी डॉक्टर बन पाएगी या नहीं कल ये देखेंगे ..हम लोग “ ” ऐसे ना देखिये मास्टर जी “ ” तो कैसे देखूं लाजो जी ”  मनोहर श्याम जोशी जी के साथ खास बात यह थी कि वो  उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनका नाम वो लोग भी जानते हैं जो हिंदी साहित्य में ख़ास रूचि नहीं रखते हैं | भला ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ जैसे ऐतिहासिक धारावाहिक लिखने वाले लेखक का नाम कौन भूल सकता है ? हालांकि उनका जीवन शुरू से ही लेखन –सम्पादन को  समर्पित रहा और हम लोग लिखने से पहले उनका उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ व् ‘कसप’ से  साहित्य जगत में बहुत चर्चित भी हो  चुका था फिर भी आम जन-मानस के ह्रदय में उनकी पैठ हम लोग और बुनियाद जैसे धारावाहिक लिखने के कारण ही हुई |  मनोहर श्याम जोशी जी हिंदी के उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनकी रचनाएँ पाठकों और आलोचकों में सामान रूप से लोकप्रिय रही हैं | साथ ही उनकी खास बात ये थी उनका लेखन किसी विचारधारा की बेंडी से जकड़ा हुआ नहीं था | उन्होंने पत्रकारिता कहानी , संस्मरण, कवितायें और टी वी धारावाहिक लेखन भी किया | कोई एक लेखक इतनी विधाओं में लिखे ये आश्चर्य चकित  करने वाला है |उस समय बहुत से लेखक उन पर शोध कर रहे थे |   मनोहर श्याम जोशी जी के संस्मरणों पर आधारित इस पुस्तक में उनके जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को छुआ है | इसकी प्रस्तावना पुष्पेश पन्त जी ने लिखी है | उन्होंने इसमें मुख्यत : जोशी जी के प्रभात जी से मिलने से पहले के जीवन पर प्रकाश डाला है | जोशी जी के साथ –साथ इसके माध्यम से पाठक को पुष्पेश पन्त जी के बचपन की कुछ झलकियाँ  देखने को मिलती हैं | साथ ही आज से 59-60 वर्ष पहले के पहाड़ी जीवन की दुरुह्ताओं की भी जानकारी मिलती है | पुष्पेश जी एक वरिष्ठ  लेखक हैं उनके बारे में जानकारी से पाठक समृद्ध होंगे | हालांकि प्रस्तावना थोड़ी बड़ी और मूल विषय से थोडा इतर लगी | फिर भी, क्योंकि ये किताब ही जानकारियों की है इसलिए उसने पुस्तक में जानकारी का बहुत बड़ा खजाना जोड़ा ही है | असल में हम लोग जादुई यथार्थवाद के नाम पर अंग्रेजी भाषा और यूरोपीय वर्चस्व के जाल में उलझ जाते हैं | क्या तुम जानते हो कि उनकी भाषा को कभी स्पेनिश और लेटिन अमेरिकी आलोचकों ने कभी जादुई नहीं कहा | पहली मुलाकात ये किताब वहाँ  से शुरू होती है जब लेखक प्रभात रंजन जी ने पी.एच.डी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था | जिसका शीर्षक था : उत्तर आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास | जोशी जी से पहली मुलाकात के बारे में वह लिखते हैं कि वो उदय प्रकाश जी द्वारा दिए गए ‘ब्रूनो शुल्ज’ के उपन्यास “स्ट्रीट ऑफ़ क्रोकोडायल्स” को  पहुँचाने के लिए उनके घर गए थे | उनके मन में एक असाधारण व्यक्ति से मिलने की कल्पना थी |  परन्तु उनसे मिलकर उन्हें कुछ भी ऐसा नहीं लगा जो उनके मन में भय उत्पन्न करे | साधारण मध्यम वर्गीय बैठक में बात करते हुए वे बेहद सहज लगे | जोशी जी के व्यक्तित्व में खास बात ये थी कि वो चाय बिना चीनी की पीते थे और साथ में गुड़ दांतों से कुतर-कुतर  कर खाते थे | पहली मुलाक़ात में जब उन्हें पता चला की प्रभात जी उन पर पी एच डी  कर रहे हैं तो उन्होंने इस बात पर कोई खास तवज्जो नहीं दी |   जोशी जी का  व्यक्तित्व  १)       जोशी जी आम लेखकों  की तरह मूड आने पर नहीं लिखते थे | वो नियम से १० से पाँच तक लिखते थे | जिसमें धारावाहिक कहानी , उपन्यास सभी शामिल होता था | २)       जोशी जी कभी कलम ले कर नहीं लिखते थे बल्कि वह हमेशा बोलते थे और एक टाइपिस्ट उसको टाइप करता रहता था | हे राम फिल्म तक शम्भू दत्त सत्ती जी उनके लिए टाईप  करने का काम करते रहे | ३)       धारावाहिक लेखन तो वो बहुत जल्दी जल्दी बिना रुके कर लेते थे लेकिन जब भी कुछ साहित्यिक लिखते तो उसके कई –कई ड्राफ्ट बनाते थे | ४)       बोलने के कारण उनकी रचना व् विचार प्रक्रिया को  समझना आसान हो जाता | ५)       जोशी  जी जितना लिखते थे उससे कहीं ज्यादा पढ़ते थे | हिंदी ही नहीं विश्व साहित्य पर भी उनकी … Read more

वो पहला क्रश

फोटो –WIKIHOW.COM से साभार यूँ तो सोशल मीडिया हर समय सनसनीखेज रहता है | कब युद्ध करवा दे और कब  वार्ता के लिए हथियार डलवा दे | कोई ठीक ठीक कह नहीं सकता | यहाँ बिना आग लगाए राकेट छूटते हैं  | इस समय एक पुराने  राकेट में फिर से आग लगायी जा रही है | हालांकि ये पुराना राकेट बेदम हो चुका है और सुर्सुरिया की तरह छूट रहा है | पर हास्य विनोद ने कश्मीर की समस्या , पकिस्तान की युद्ध की धमकी , और पाँव पसारती आर्थिक मंदी के दौर में सबके चेहरे पर मुस्कुराहटों को आने को विवश कर दिया है |                       आपको बता दें कि राकेट है  सोशल मीडिया पर महिलाओं द्वारा अपने पहले क्रश के खुलासे का | एक के बाद एक वाल इस खुलासे से रंगीन होती जा रही है | जहाँ पुरुष इन पोस्टों पर मौन धारण करें बैठे हैं | वहीँ महिलाएं छेड़छाड़ करती खिलखिला रही हैं | क्योंकि पहला प्यार भले ही कभी भुलाए ना भूलता हो पर पहला क्रश बहुटी नॉन सीरियस चीज होती है | वो पहला क्रश  सबको देखकर हमने भी अपने यादों के संदूक  को खोला और पहुँच गए वहाँ जहाँ बचपन की अंतिम पायदान पर किशोरावस्था दस्तक दे रही थी | सहेलियाँ उस समय अकसर फिल्मों के हीरो की बातें करतीं और हम बच कर निकल जाते | क्योंकि उन दिनों दो ही लोग थे जिन से मिलने का बहुत मन करता था | पर वो किसी की रूचि से मेल नहीं खाते थे इसलिए हम उनकी बातों में मौन धारण कर लेते | उनमें से एक थे जय शंकर प्रसाद और दूसरे आइंस्टीन | एक साहित्य के रवि और दूसरे विज्ञान के | दुःख की बात ये कि दोनों ही हमारे जन्म से पहले दुनिया से कूच कर गए थे | जयशंकर प्रसाद की कवितायें कहानियाँ दीदी और भैया की किताबों से चुपके -चुपके पढ़ते और आइन्स्टीन के किस्से अखबार या पत्र -पत्रिकाओं से | कितनी पत्रिकाओं की कटिंग हमारे पास मौजूद रहती जिसमें आइन्स्टीन के बारे में कुछ छपा होता | जब भी आइन्स्टीन के बारे में ये किस्सा पढ़ते कि वो अपने पड़ोस की एक बच्ची से चॉकलेट ले कर उसके मैथ्स के सवाल हल कर दिया करते तो लगता कि काश वो बच्ची हम होते | रोज आइन्स्टीन के घर जाते कितना जानने समझने को मिलता |  ड्राइवर की हाज़िर जवाबी वाला किस्सा तो आइन्स्टीन की बुद्धिमता पर सलाम ठोंकने लगता |  हाँ , एक किस्सा  बहुत दुखी कर देता कि आइन्स्टीन को एक रूसी जासूस महिला ने अपने प्रेम में फंसा कर उनसे वैज्ञानिक समीकरण चुराए थे | जी में आता अगर मुझे मिल जाती तो उसकी पिटाई कर दूँ  | खैर ! जब ये बात सहेलियों को पता चली तो उन्होंने जयशंकर प्रसाद की कुछ कवितायें तो सुन लीं  पर कुमार गौरव के आगे आइन्स्टीन को कोई तवज्जो नहीं दी | और बात आई -गयी हो गयी |  मुश्किल तब शुरू हुई जब हम लोग साइंस लैब में पहली बार गए , वहाँ  अन्य  वैज्ञानिकों के साथ आइन्स्टीन की भी एक बड़ी से फोटो लगी हुई थी | वही फोटो जिसमें आइन्स्टीन काफी वृद्ध थे और उन के बाल कुछ अजीब से दिखते थे | ज्यादातर पत्र -पत्रिकाओं में भी यही फोटो छपती थी | परन्तु ये फोटो बड़ी होने के कारण विशेष रूप से नज़र आ रही थी | बस फिर क्या था , सहेलियों ने फोटो दिखा -दिखा कर हमें चिढ़ाना शुरू कर दिया , ” लो वंदना , तुम्हारे आइन्स्टीन , बाप रे इतने बूढ़े .. ” “अब क्या करें वंदना को तो यही पसंद है”,  “तुम लव मैरिज कभी मत करना , वर्ना तुम आइन्स्टीन जैसा कोई ढूंढ लोगी”   खी , खी खी की आवाजों से सारी  लैब गूँज गयी | उन दिनों गूगल का ज़माना था नहीं , जो अगले दिन हम कोई और फोटो निकाल कर दे देते | खुदा कसम हम उस दिन बहुत फजीहत महसूस हुई |  हम लाख दलीले देते रहे कि वो इतने इंटेलिजेंट तो हैं … ब्यूटीफुल ब्रेन है, पर  सच्चाई तो ये है कि उनके कुमार गौरव के आगे हम अपने आइन्स्टीन का बचाव ना कर सके |  धीरे -धीरे लड़कियों का चिढाना कम  हुआ | पर आइन्स्टीन से हमारा लगाव  कम नहीं हुआ | हमारे आइन्स्टीन ने हमारा बहुत साथ निभाया | जब न्यूटन की ग्रेविटी के न्यूमेरिकल्स की बॉल कभी ऊपर से गिर कर , कभी नीछे  उछल कर , कभी आगे -पीछे  या किसी एंगल पर रुक कर हमें खूब छकाती तब आइन्स्टीन की मॉडर्न  फिजिक्स हमारी कलम पर मक्खन मलाई की तरह फिसल जाती |  समय आगे बढा | गुड़िया छूटी, सखियाँ छूटी और साथ साथ आइन्स्टीन भी छूट गए | हम भी अपनी घर गृहस्थी में मगन थे पर आइन्स्टीन का हमारी जिन्दगी में प्रवेश  बड़े भतीजे  के माध्यम से दुबारा हुआ | उन दिनों वह आई .आई . टी कानपुर में पढने लगा था |   विज्ञान और वैज्ञानिकों के प्रति उसका लगाव बढा  हुआ था | हम मायके गए तो उसने विशेष आग्रह किया कि बुआ जी  मेरे कमरे में आइये | कमरे में उसने कई सारे वैज्ञानिकों  की बड़ी बड़ी फोटो फ्रेम करके लगवा रखी थीं | हम दूर से देकहकर  उनके नाम बता रहे थे … ये जगदीश चंद्र बोस , ये गैलिलियो , ये न्यूटन , ये … , फिर अचानक एक फोटो को देखकर हम अटक गए …और भतीजे की तरफ देखकर प्रश्न किया , “ये …ये कौन हैं  ? “ “ये आइन्सटाइन  है बुआ जी” (अंतर सिर्फ इतना नहीं था कि हमारे समय के आइन्स्टीन अब आइन्स्टाइन हो गए थे , दरअसल ये फोटो उनकी युवावस्था की थी |) ” अरे ये तो बहुत गुड लुकिंग थे |” नाम जानने के बाद हमारे मुँह से पहला व्याक्य यही निकला |  ” तो क्या बुआ जी ” भतीजे ने खिसयाते  हुए कहा  तब हमें ध्यान आया कि हमारे संस्कार घर में हमें ऐसे वाक्य बोलने की इजाज़त नहीं देते | झेपते हुए हमने भी उत्तर दिया ,  “दरअसल हमने कभी उनकी यंग एज की फोटो … Read more

मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है –संवाद शैली की खूबसूरत आदयगी

                आजकल युवा लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं | अपनी भाषा,प्रस्तुतीकरण और शिल्प सभी में वो खूब प्रयोग कर रहे हैं | वो जो देख रहे हैं महसूस कर रहे हैं वो बिना किसी लाग लपेट के, उन्हें खूबसूरत शब्दों का जामा पहनाये, वैसा का वैसा ही परोस देते हैं, जिसकी ताजगी की भीनी –भीनी खुशबु पाठक के मन को सुवासित कर देती है | शिल्प में भी कई प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें से कई आगे अपनी एक नयी शैली में विकसित होंगे | वैसे भी साहित्य, जीवन की तरह किसी एक दायरे में बंधा हुआ ना होकर बहती हुई नदी की तरह निरंतर गतिशील होना चाहिए जो अपनी धाराओं में हर किसी को बहा ले जाए | जैसे –जैसे जीवन जटिल हो रहा है कहानियों के प्रस्तुतीकरण में सरलता आई है, ताकि पाठक आसानी से उस जटिलता को आत्मसात कर सके | ऐसे ही सरल से खूबसूरत प्रयोगों से युवा लेखक कई बार चौंका देते हैं …ऐसे ही मुझे चौकाया ‘प्रियंका ओम’ ने अपनी किताब “ मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है” के माध्यम से | प्रियंका ओम बिहार में जन्मी और पली बढ़ी हैं और फिलहाल दारे-सलाम, तंजानिया में रह रही हैं | ये उनकी दूसरी किताब है | उनकी पहली किताब “वो अजीब लड़की” है |  मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है –संवाद शैली की खूबसूरत आदयगी “मुझे तुम्हारा जाना इतना बुरा नहीं लगता, जितना आना क्योंकि तुम हमेशा जाने के लिए ही आते हो, और मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है |” ये वाक्य है संग्रह की प्रमुख कहानी “मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है” का | जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसका जाना अच्छा नहीं लगता | लगता है वो हमारे साथ ही रुक जाए हमेशा के लिए कितने फिल्मी गाने इस खूबसूरत अह्सास् से  भरे पड़े हैं | इसे लिखते समय मेरे जेहन में  अपने जमाने का एक बहुत प्रसिद्द गीत ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं बजने लगा है  …लेकिन मिलन का ये समय ठहरता कहाँ है ?  उसे जाना होता है, और जाता भी है …लेकिन क्या हमेशा के लिए या फिर से लौट आने के लिये ? वैसे ही जैसे मौसम जाते हैं फिर से लौट आने के लिए ,पानी भाप बन कर उड़ जाता है फिर बदरी बन बरसने के लिए, सूरज और चन्दा जाते हैं अगले दिन फिर लौट आने के लिए | दरअसल ये कहानी जाने के दर्द पर विलाप करने की नहीं, बार –बार लौट आने के मर्म को समझने की है | जब कोई हमारी जिन्दगी में बार –बार पलट –पलट कर आ रहा है तो वो जाने के लिए नहीं जाता, वो रुकना चाहता है ठहरना चाहता है पर परिस्थितियाँ और हालत उसे मजबूर कर देते हैं |  इस कहानी की शुरुआत बहुत ही दिलचस्प व् रहस्यमय है | इसमें कहानी के नायक को (जो अकेला , एकांत और निराश जिन्दगी बिता रहा होता है ) एक अजनबी लड़की का फोन आता है | हर फोन रहस्य को और गहरा कर देता है और नायक की बेचैनी को बढ़ा देता है | रहस्य से पर्दा उठातीं है नायक की दीदी और खुलता  है बचपन की स्मृतियों का पिटारा |  नायक -नायिका का बचपन का साथ  प्रेम की हल्की सी दस्तक बन कर मिट जाता है | क्योंकि अभिषेक की  सत्रह साल बड़ी दीदी जो उसकी माँ सामान हैं उसे  इस सब बातों में समय ना बर्बाद करके पढाई पर ध्यान लगाने को कहतीं है | अभिषेक  इस बात को भूल जाता है पर श्वेता … श्वेता नहीं भूलती | एक बार फिर वो उसकी जिन्दगी में आती है, बहुत ही रोमांचक तरीके से | परिस्थितियाँ एक बार फिर बदलती हैं और अभिषेक एक बार फिर अपने एकांत में लीन  हो जाता है ….श्वेता फिर लौटती है …पर फिर उलझती है गुत्थी कि आखिर वो क्यों आई है ?  जाने के लिए या रूकने के लिए ? क्या इस बार अभिषेक बार –बार लौट के आने के मर्म को समझता है ? एक नये अंदाज में नए एंगल पर फोकस करती ये कहानी अपनी लेखन शैली के कारण बहुत ही खूबसूरत बन पड़ी है | इस कहानी का दार्शनिक अंदाज में आगे बढ़ना बेहतरीन प्रयोग है |  “और मैं आगे बढ़ गयी” प्रेम में अधिकार जताने व् समर्पित होने के अंतर को बखूबी स्पष्ट करती है | मुझे लगता है ये कहानी स्त्रियों के लिए बहुत खास है क्योंकि अधिकतर स्त्रियाँ प्रेम के शुरूआती दौर में इस अंतर को नहीं समझ पातीं फिर जीवन भर दर्द झेलती हैं | कहानी  एक ट्रेन में नायिका वनिता के अपने पुराने प्रमी आदित्य के साथ अचानक व् अनचाहे  सफ़र शुरू होती है | आज वनिता शादी शुदा है और एक बच्चे की माँ है जो अपने बच्चे के साथ ए .सी . टू टियर में अकेली है और आदित्य अभी भी अकेला और उदास है | जाहिर है, ऐसे में आपस में तानाकशी भी होगी और पुरानी यादें अपने बंद झरोखे खोल कर पुन : सामने भी आएँगी | कुछ अतीत और कुछ वर्तमान की ऐसी ही भागदौड़ के साथ कहानी आगे बढती है | वनिता और आदित्य का प्रेम बचपन का प्रेम था, प्रेम क्या था, उन्हें तो उनके माता-पिता ने बचपन में अपनी दोस्ती को पक्का रखने के लिए शादी के वादे  की डोर में ही बाँध दिया था | पड़ोस में रहने वाले दो बच्चे जो साथ खेलते, पढ़ते, और बढ़ते हैं ….शुरू से ही  एक दूसरे के प्रति आकर्षण में बंधे रहते हैं | कहानी में जहाँ प्रेम की छुटपुट फुहारें मन को रूमानी करती हैं वहीँ वहीँ आदित्य और वनिता के स्वभाव में अंतर किसी अप्रिय भविष्य की तरफ भी इशारा करने लगता है | बच्चे जैसे –जैसे बड़े होते जाते हैं, उनके परिवारों की सोच और परवरिश का अंतर स्पष्ट नज़र आने लगता है | जहाँ वनिता का परिवार खुले विचारों का है, जिसमें पति –पत्नी दोनों को बराबर स्थान है, वहीँ आदित्य का परिवार पुरुषवादी अहंकार और पितृसत्ता का पोषक …जहाँ घर की स्त्रियों का काम बस पुरुषों को खुश करना, उनकी सेवा करना है | पारिवारिक गुण धीरे –धीरे आदित्य में आने लगते हैं …वनिता को घुटन मह्सूस … Read more

अन्त: के स्वर – दोहों का सुंदर संकलन

सतसैयां के दोहरे, ज्यूँ नाविक के तीर | देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर ||                                   वैसे ये दोहा बिहारी के दोहों की ख़ूबसूरती के विषय में लिखा गया है पर अगर हम छन्द की इस विधा पर बात करें जिसके के अंतर्गत दोहे आते हैं तो भी यही बात सिद्ध होती है | दोहा वो तीक्ष्ण अभिव्यन्जनायें हैं जो सूक्ष्म आकर में होते हुए भी पाठक के अन्त:स्थल व् एक भाव चित्र अंकित कर देती हैं | अगर परिभाषा के रूप में प्रस्तुत करना हो तो, दोहा, छन्द की वो विधा है जिसमें चार पंक्तियों में बड़ी-से बड़ी बात कह दी जाती है | और ये (इसकी  चार पंक्तियों में 13, 11, 13, 11 मात्राएँ  के साथ ) इस तरह से कही जाती है कि पाठक आश्चर्यचकित हो जाता है | हमारा प्राचीन कवित्त ज्यादातर छन्द बद्ध रचनाएँ हीं  हैं | दोहा गागर में सागर वाली विधा है पर मात्राओं के बंधन के साथ इसे कहना इतना आसान नहीं है | शायद यही वजह है कि मुक्त छन्द कविता का जन्म हुआ | तर्क  भी यही था कि सामजिक परिवर्तनों की बड़ी व् दुरूह बातों को छन्द में कहने में कठिनाई थी | सार्थक मुक्त छन्द कविता का सृजन भी आसान नहीं है | परन्तु छन्द के बंधन टूटते ही कवियों की जैसे बाढ़ सी आ गयी | जिसको जहाँ से मन आया पंक्ति को तोड़ा-मरोड़ा और अपने हिसाब से प्रस्तुत कर दिया | हजारों कवियों के बीच में अच्छा लिखने वाले कवि कुछ ही रह गए | तब कविता का पुराना पाठक निराश हुआ | उसे लगा शायद छन्द की प्राचीन  विधा का लोप हो जाएगा | ऐसे समय में कुछ कवि इस विधा के संरक्षण में आगे आते रहे, जो हमारे साहित्य की इस धरोहर को सँभालते रहे | उन्हीं में से एक नाम है किरण सिंह जी का | किरण सिंह जी छन्द बद्ध रचनाओं में न सिर्फ दोहा बल्कि मुक्तक,रोला और कुंडलियों की भी रचना की है | अन्त :के स्वर – दोहों का सुंदर संकलन  “अन्त: के स्वर” जैसा की नाम सही सपष्ट है कि इसमें किरण जी ने अपने मन की भावनाओं का प्रस्तुतीकरण किया है | अपनी बात में वो कहती हैं कि, “हर पिता तो अपनी संतानों के लिए अपनी सम्पत्ति छोड़ कर जाते हैं, लेकिन माँ …? मेरे पास है ही क्या …? तभी अन्त : से आवाज़ आई कि दे दो अपने विचारों और भावनाओं की पोटली पुस्तक में संग्रहीत करके , कभी तो उलट –पुलट कर देखेगी ही तुम्हारी अगली पीढ़ी |” और इस तरह से इस पुस्तक ने आकर लिया | और कहते है ना कि कोई रचना चाहे जितनी भी निजी हो …समाज में आते ही वो सबकी सम्पत्ति हो जाती है | जैसे की अन्त: के स्वर आज साहित्य की सम्पत्ति है | जिसमें हर पाठक को ऐसा बहुत कुछ मिलेगा जिसे वो सहेज कर रखना चाहेगा | भले ही एक माँ संकल्प ले ले | फिर भी कुछ लिखना आसान नहीं होता | इसमें शब्द की साधना करनी पड़ती है | कहते हैं कि शब्द ब्रह्म होते हैं | लेखक को ईश्वर ने अतरिक्त शब्द क्षमता दी होती है | उसका शब्दकोष सामान्य व्यक्ति के शब्दकोष से ज्यादा गहन और ज्यादा विशद  होता है | कवित्त का सौन्दर्य ही शब्द और भावों का अनुपम सामंजस्य है | न अकेले शब्द कुछ कर पाते हैं और ना ही भाव | जैसे प्राण और शरीर | इसीलिए किरण जी एक सुलझी हुई कवियित्री  की तरह कागज़ की नाव पर भावों की पतवार बना कर शब्दों को ले चलती हैं … कश्ती कागज़ की बनी, भावों की पतवार | शब्दों को ले मैं चली , बनकर कविताकार || अन्त: के स्वर  का प्रथम प्रणाम जिस तरह से कोई व्यक्ति किसी शुभ काम में सबसे पहले अपने  ईश्वर को याद करता है , उनकी वंदना करता है | उसी तरह से किरण जी ने भी अपनी आस्तिकता का परिचय देते हुए पुस्तक के आरंभ में अपने हृदय पुष्प अपने ईश्वर के श्री चरणों में अर्पित किये हैं | खास बात ये है कि उन्होंने ईश्वर  से भी पहले अपने जनक-जननी को प्रणाम किया है | और क्यों ना हो ईश्वर ने हमें इस सुंदर  सृष्टि में भेजा है परन्तु माता –पिता ने ही इस लायक बनाया है कि हम जीवन में कुछ कर सकें | कहा भी गया है कि इश्वर नेत्र प्रदान करता है और अभिवावक दृष्टि | माता–पिता को नाम करने के  बाद ही वो प्रथम पूज्य गणपति को प्रणाम करती है फिर शिव को, माता पार्वती, सरस्वती आदि भगवानों के चरणों का भाव प्रच्छालन करती हैं | पेज एक से लेकर 11 तक दोहे पाठक को भक्तिरस में निमग्न कर देंगे | संस्कार जिसने दिया, जिनसे मेरा नाम | हे जननी हे तात श्री, तुमको मेरा प्रणाम || ———————– .. अक्षत रोली डूब लो , पान पुष्प सिंदूर | पहले पूज गणेश को,  होगी विपदा दूर || ———————– शिव की कर अराधना, संकट मिटे अनेक | सोमवार है श्रावणी , चलो करें अभिषेक || अन्त: के स्वर का आध्यात्म                      केवल कामना भक्ति नहीं है | भीख तो भिखारी भी मांग लेता है | पूजा का उद्देश्य उस परम तत्व के साथ एकीकर हो जाना होता है | महादेवी वर्मा कहती हैं कि,   “चिर सजग आँखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना |”  मन के दर्पण पर परम का प्रतिबिम्ब  अंकित हो जाना ही भक्ति है | भक्ति है जो इंसान को समदृष्टि दे | सबमें मैं और मुझमें सब का भाव प्रदीप्त कर दे | जिसने आत्मसाक्षात्कार कर लिए वह दुनियावी प्रपंचों से स्वयं ही ऊपर उठ जाता है | यहीं से आध्यात्म का उदय होता है | जिससे सारे भ्रम  दूर हो जाते हैं | सारे बंधन टूट जाते हैं | किरण जी गा उठती हैं … सुख की नहीं कामना, नहीं राग , भय क्रोध | समझो उसको हो गया , आत्म तत्व का बोध || ………………………. अंतर्मन की ज्योति से, करवाते पहचान | ब्रह्म रूप गुरु हैं मनुज, चलो करें हम ध्यान || अन्त : के स्वर  में नारी  कोई स्त्री स्त्री के बारे में … Read more

अक्टूबर जंक्शन -जिन्दगी के फलसफे की व्याख्या करती प्रेम कहानी

वास्तवमें प्रेम क्या है ? इसकी कोई परिभाषा नहीं है और हम सब इसे अपनी -अपने तरह से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं | ऐसा ही एक प्रयास दिव्य प्रकाश दुबे जी ने उपन्यास अक्टूबर जंक्शन में भी किया है | ये किताब 2017 से दैनिक जागरण की बेस्ट सेलर में शामिल है | इसका कारण है  कि ये सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं है | इसमें प्रेम कथा के साथ -साथ जीवन का फलसफा व् बहुत  सारा दर्शन भी है | अक्टूबर जंक्शन -जिन्दगी के फलसफे की व्याख्या करती प्रेम कहानी                                     “हमारी दो जिंदगियां होती हैं | एक वो जो हम जीते हैं और दूसरी वो जो हम जीना चाहते हैं | ये कहानी उसी दूसरी जिन्दगी की कहानी है |”                                    ‘ अक्टूबर जंक्शन ‘एक ऐसा उपन्यास है जो सुदीप यादव और चित्रा  पाठक की अनोखी प्रेम कहानी के साथ रिश्तों को, जिन्दगी के फलसफे को और  सच व स्वप्न के बीच  की    खाली जगह  समझने और उसकी व्याख्या करने की भी कोशिश करता  है | ये एक ऐसी  प्रेम कहानी   है  जिसमें एक ‘सैड ट्यून’ लगातार पीछे बजती रहती है | कहानी के तेज प्रवाह   के साथ आगे बढ़ते हुए भी ऐसा लगता है पीछे कुछ छूटा जा रहा है जिसे थामना है, पकड़ कर रखना है ..पर ये संभव नहीं पाता , ना कहानी में ना प्रेम में और ना ही जीवन में | कहानी के नायक सुदीप और चित्रा की पहली मुलाक़ात बनारस के अस्सी घाट पर होती है | बनारस , एक ऐसा शहर जो सच और सपने के बीच में बसता है | कोई यहाँ सच ढूँढने आता है तो कोई सपना भूलने | सुदीप और चित्रा भी यहाँ कुछ ऐसी ही वजह से आये हैं | सुदीप यादव   सुदीप यादव केवल बारहवीं पास है | उसने आगे पढाई नहीं की लेकिन लक्ष्मी उसकी उँगलियों पर खेलती है | वो  बहुत ही कम उम्र करोणपति बन गया था  | आज ‘बुक माय ट्रिप’ कंपनी का मालिक है | पेज थ्री सेलेब्रेटी है | उसके हजारों -लाखों फोलोअर्स हैं | आये दिन अखबार में उसकी खबरें छपती रहती हैं | लेकिन आज वो बनारस आया है  ताकि शांत दिमाग से अपनी जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण फैसला ले सके | ये फैसला है अपनी कम्पनी के कुछ शेयर बेंचने का | इस पैसे से वो अपनी कम्पनी को और ऊँचाइयों पर ले जा सकेगा परन्तु उसका मालिकाना ह्क थोडा घटेगा | अपने सपने को किसी दूसरे के हाथों सौंप देना एक कठिन निर्णय है | एक तरफ जहाँ वो असमंजस में है वहीँ काम का अतरिक्त दवाब उसके जीवन में उसके खुद के लिए जीने वाले समय को चुरा रहा है | सपने के साथ आगे और आगे भागते हुए भी उसे विरक्ति हो रही है | वो हर जगह पहचान लिए जाने से ऊब चुका है | क्या यही जीवन है ? क्या बस यही उसका सपना था ? वो अभी 25 साल का है | पर वो 35 में रिटायरमेंट लेना चाहता है |  दौड़ -भाग से थककर सुस्ताना चाहता है | अपनी जिन्दगी थोड़ा अपने लिए बिताना चाहता है | चित्रा पाठक   चित्रा पाठक  एक लेखिका है | उम्र २६ -२७ वर्ष , दो वर्ष पूर्व उसका तलाक हो गया था | वो उपन्यास लिख रही है | उसका सपना है इस उपन्यास  को लिखकर नाम , शोहरत और बहुत से पैसे कमाना | वो पेज थ्री सेलेब्रिटी बनना चाहती है | वो इतना ऊँचा उठना चाहती है कि कोई उसे इग्नोर ना कर सके | कभी कहानी साथ छोड़ देती है तो कभी पात्र मुकर जाते हैं | उसे लगता है कि वो शायद इसे पूरा नहीं कर पाएगी | एक अजीब सी निराशा उसे घेरे हुए है | उसकी आँखों में सपने हैं आशाएं और निराशाएं हैं | एक का सपना उसके गले का फंदा सा बना उसे खींच रहा है और दूसरी पसीने से लथपथ होते हुए भी अपने सपने की डोर छोड़ना  नहीं चाहती | विरोधाभास ही तो है कि सुदीप को आसमान से जमीन बेहद सुकून भरी दिखाई देती है तो चित्रा को जमीन से आसमान बेहद उम्मीदों भरा |  ये प्रेम कथा है या नहीं  पर ये कहानी अपोजिट अट्रैकट्स की भी नहीं है और ना पहली नज़र का प्यार है | खास बात ये है कि अलग अलग स्थिति में होते हुए भी दोनों एक दूसरे की तकलीफ को समझ पाते हैं, ढांढस बंधाते हैं हिम्मत देते हैं | दोनों को बस एक दूसरे का साथ अच्छा  लगता है …और लगता है कि यही वो जगह है जहाँ वो अपने मन को खाली कर सकते हैं | अपने मन के टनों बोझ का खाली हो जाना एक ऐसा अनुभव है जिसे वो दोहराना तो चाहते हैं पर उस स्पेस को भी बनाये रखना चाहते हैं ताकि ये सुकून का अहसास हमेशा बना रहे | इसलिए पहली बार दस अक्टूबर  2010  (10-10-10) को मिलने के बाद वो अगली बार दस अक्टूबर  2011 को मिलने का वादा कर अपने अपने रास्ते अपनी -अपनी जिंदगियों में डूब जाते हैं | ये वाद महज जुबानी नहीं है इसके लिए हर बार वो जापानी लेखक मुरकामी की किताब पर अगली तारीख लिखते हैं |  इस दौरान  वो एक दूसरे को कॉल भी नहीं करते |  लेकिन अगली दस को वो फिर मिलते हैं , फिर अगली 10 को | 2010 से 2020 के दरमियान हर 10 अक्टूबर को मिलकर वो महज 20 दिन ही साथ रहते हैं | पर ये छोटा सा साथ उनके 364 दिनों के लिए एक टॉनिक की तरह काम करता है | वो समझते हैं इस ३६४ दिन के इंतज़ार और मिलन की अहमियत …इसलिए हर बार मिलते हैं और हर बार मिलने का वादा करते हैं |   ये किरदार सच और सपने के बीच की छोटी सी खाली जगह में मिले थे | बंद मुट्ठी से खुली मुट्ठी भर ही हम जिन्दगी को छू पाते हैं | … Read more

रक्षा बंधन का एक धागा हमारे कश्मीर की कलाई पर …

अबकी बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लीजो बुलाय …बंदिनी फिल्म का यह गीत चाहे कितना भी पुराना क्यों ना हो जाए फिर भी चिर नूतन है | कारण है इससे हर बहन की भावनाएं  जुड़ी हैं | जो बहनें साल भर  मायके नहीं  जा पाती हैं उनके लिए सावन मायके जाने का एक बहाना होता है | सावन के अंत में ही आता है रक्षा बंधन का त्यौहार | जो बहनें -बेटियाँ सावन में मायके जाती हैं वो रक्षा बंधन मना  कर ही वापस ससुराल आती हैं | मायके से चलते समय अपने अंजुरी  से मुट्ठी भर चावल के दाने छिड़क कर भाई और भतीजों के लिए मंगलकामनायें करना नहीं भूलती |  अगर मैं अपनी बात करूँ तो विवाह के इतने वर्षों बाद भी आज भी मायके से आते समय आँखे नम हो जाती हैं | माँ भी तो ऐसा ही करती हैं …और मेरी बेटी भी कई बार मैं दीवारों को अपनी हथेलियों से छूटे हुए जैसे उन सब स्मृतियों को अपने अंदर भर लेना चाहती हूँ , जो मेरे बचपन की वहाँ  पर छूट गयीं है | ये भाव मन को आल्हादित करता है कि दीवारें साक्षी होती हैं , उन्होंने सब देखा है | कितनी बार उनके रंग बदले गए हैं, कितनी बार प्लास्टर भी झड़ा है , फिर भी अंदर कहीं गहराई में वो स्मृतियाँ अभी भी सहेजे हुए हैं | स्नेह के कितने बन्धनों की वो साक्षी रही हैं | वहीँ से मैं पुन : समेट लेना चाहती हूँ वो सारी स्मृतियाँ जो जो पूरे वर्ष भर मुझे जीवन के हर ताप में नम रखती हैं |  बहन बेटियाँ सदा से ऐसी होती आयीं हैं | कितने चुटकुले बने हैं महिलाओं के मायके के प्रति प्रेम से | कौन सी महिला होगी जिसने पति या ससुराल वालों से मायके के लिए ताजने ना सुने हो | “इतने साल साल हो गए पर मन तो वहीँ रखा रहता है इनका ” कितना कुछ छिपा जाती हैं महिलाएं पर मायके के नाम पर जो आँखों में चमक आती है वो छुपाये नहीं छिपती | कितनी बार ऐसा हुआ कि भाइयों ने निष्ठुरता दिखाई  | जल्दी से राखी बाँध दो कह कर अपने कामों में लग गए | मायके आई बहन के पास दो घंटा बैठ कर बात भी नहीं की | आहत बहन आँखों में आँसूं  लिए लौट गयी ससुराल | पर जब भी मायके से कोई खबर आई तुरंत दौड़ी चली आई … ना कोई गिला ना शिकवा |  क्यों करती हैं हम बहने ऐसा ?  क्यों न करें आखिर हमारी नार जो वहां गड़ी हुई हैं | कितना भी दूर रहे कहीं भी रहे पर मन में लौट -लौट वहीँ जाता रहा है … रहेगा |  कहना ना होगा कि एक ना एक दिन भाई भी समझते हैं इस प्रेम की कीमत और चाहें जितने निष्ठुर हो कभी ना कभी झुकते ही हैं इस प्रेम के आगे | भले ही बरसों बात सुध लें पर जब समझ आती है तो बहनों के कानों में भी भाइयों के फोन बज उठते हैं ,  ” बहुत दिन हो गए मिले हुए , इस बार रक्षा बंधन पर जरूर आना |”  आखिरकार कच्चे धागे का ये बंधन होता ही इतना पक्का है | तभी तो अम्मा सदा कहती आयीं हैं , ” पानी बांटने से बंटा है कभी “ इस बार का रक्षा बंधन और भी विशेष है क्योंकि इस बार उसके साथ स्वतंत्रतता दिवस भी आ रहा है | और यह स्वतंत्रता दिवस हमारे लिए इस लिए भी ख़ास है क्योंकि इस बार अभी कुछ ही दिन पहले हमारा प्यारा भाई कश्मीर धारा ३७० की कैद से आज़ाद हुआ है | कितना दुःख झेला है भाई ने | आतंक ने कितना सीना छलनी किया है उसका | कितने भाई बहन वहां से  भगा दिए  | कितना भीषण रक्तपात हुआ , जो बचे उनको भी कहाँ सुकून लेने दिया आतंकवाद ने |  कितना कराहा ता वो | और हम बहनें भी विवश थे | क्या करते सिवाय आँख नम करने के | अभी  तक का मिलना भी कोई मिलना था वो भी दूर हम भी दूर | इस बार हम भाई बहन परस्पर एक दूसरे को ढेर सारा प्यार और दुलार भेज पायेंगे जो अभी तक दिल में भरा था , लेकिन जिसके इजहार में पराये पन की बू थी |  जबसे कश्मीर से धारा 370 हटाई गयी है , तबसे  हमारा पड़ोसी , हमारा पकिस्तान हमारे खिलाफ विश्व को एक जुट कर ये प्रयास कर रहा है कि  कि भाई बहन के इस प्रेम में बाधा पड़े | उसका नजरिया तो फिर भी समझ में आता है पर जिस तरह से कुछ अपने   धारा 370 हटाये जाने का विरोध कर रहे हैं तो आम आदमी के लिए ये समझना मुश्किल हो जाता है कि ये हमारा पक्ष रख रहे हैं या पकिस्तान का | मुझे तो इनमें वो निष्ठुर भाई नज़र आते हैं जिन्हें बहनों का प्रेम नज़र नहीं आता | जो एक बार पराई की गयी को फिर अपनाना ही नहीं चाहते |  खैर कुछ मुट्ठी भर लोगों के विमुख होने से , निष्ठुर होने से या दुष्प्रचार करने से बहनों का प्रेम कभी कम हुआ है भला … वो तो लौट -लौट कर उमड़ता ही रहता है |   इस बार पूरे देश की बहनें अपने कश्मीरी भाईयों  को राखी बाँधने  के लिए थाली तैयार कर रही हैं | माथे पर प्रेम की प्रतीक लाल रोली का टीका, अक्षुण्य प्रेम के के लिए अक्षत के दाने छितराए हुए | आरती का थाल और रेशम के मुलायम धागे जो इस रिश्ते  को और मजबूत करेंगे |  वो फैलाते रहे नफरत हम तो प्यार बांटेंगे |  प्यार हमेशा जीता है …जीतेगा |  हम बांधेंगे  ….इस बार रक्षा बंधन का धागा हमारे कश्मीर की कलाई पर  गम जदा या खौफजदा ना होना भैया … हम हैं ना तुम्हारे साथ  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … निर्णय लो दीदी – ओमकार भैया को याद करते हुए एक पाती भाई बहन के नाम – डॉ भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ आया राखी का त्यौहार -भाई बहन पर कुछ कवितायें रक्षा बंधन स्पेशल -फॉरवर्ड लोग  आपको   लेख  “रक्षा बंधन  का एक … Read more

भूत-खेला –रहस्य –रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ

 मेरे पास नहीं है कोई सुरक्षा कवच | मैं फिर भी प्रेतों को आमंत्रित करती हूँ | आओ, मुझे और भी तुम्हारी कथाएँ कहनी है …अब तुम दे जाओ कथाएँ | कह जाओ अपने दमन की कथाएँ, शोषण की दास्तानें और अतृप्त इच्छाओं की अर्जियाँ दे जाओ | उन्हें कथा में पूरी करुँगी | आखिर कहानी में एक मनोवांछित संसार रचने का साहस तो है न मेरे पास | मेरा बचपन गाँवों में अधिक गुजरातो मेरे पास  वहीँ की कहानियाँ बहुत हैं | शहरों में जिन्दा भूत मिले थे | उनकी कथाएँ तो लिखती ही रहती हूँ | पहली बार ऐसे भूतों की कहानियाँ लिखी हैं |                              …गीता श्री क्या आपको डरने में मजा आता है ? डरना भी एक तरह का आनंद देता है | तभी तो लोग ऐसे पहाड़ों पर चढ़ते हैं कि नीचे गिरे तो …, उफनती लहरों में नदी पार करते हैं , एम्युजमेंट पार्क में सबसे खतरनाक झूले पर चढ़ते हैं …उस डर को जीतने में जो आनंद आता है , जो डोपामीन रिलीज होता है उसका मजा ही कुछ और है | इसी श्रृंखला में आते हैं डरावनी  फिल्में , किस्से और कहानियाँ | ऐसे ही एक डर का आनंद देने वाले किस्सों –कहानियों का संग्रह है … भूत-खेला –रहस्य –रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ कहते हैं की जीवन अनंत है |जन्म और मृत्यु इसके बस दो सिरे हैं | फिर भी मृत्यु एक बहुत बड़ी सच्चाई है , जो हमें भयभीत करती है | हमें नहीं पता आगे क्या होगा ?  जीवन और मृत्यु के बीच में एक पर्दा है, जिससे न तो इस पार का व्यक्ति उस पार देख सकता है ना उस पार का व्यक्ति इस पार , और ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि मरने के बाद इंसान जाता कहाँ है ? उस अदृश्य संसार के बारे में तो हम नहीं जानते लेकिन इतना जरूर माना जाता रहा है कि अकाल मृत्यु या अतृप्त इच्छा के साथ जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा उस पार ना जा कर यहीं हमारे बीच बिना देह के तड़पती हुई,  भटकती रहती है | जिसे हम भूत का नाम देते हैं |  देह नहीं होने के कारण उनकी शक्तियाँ हमसे अधिक होती हैं |  ज्यादातर लोगों को वो दिखते नहीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे दावे करते आये हैं कि वो उन्हें देख चुके हैं या महसूस कर चुके हैं | शायद वो उनकी फ्रीकुएन्सी को पकड़ लेते हैं, और उन्हें वो दिखते हैं साक्षात चलते , बोलते, उड़ते हुए, कुछ रहस्यमय कामों को अंजाम देते हुए | भूत होते हैं कि नहीं यह पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि विज्ञान जिस तरह से आगे बढ़ रहा है और जिस तरह से हम उन चीजों को देख सुन पा रहे हैं जिन्हें नकारते रहे हैं, तो क्या पता एक दिन अपनी ही पृथ्वी पर भटकती इन बेचैन आत्माओं से रूबरू हो सकें | पर फिलहाल अभी तक जो रहस्य और रोमांच इन भूतों के बारे में बना हुआ है, वहीँ  से जन्म होता है भूतिया किस्सों का | हममें से कौन है जिसने अपने बचपन में अपने भाई –बहनों के साथ रात में छत पर  चारपाई पर बैठ कर किसी चाचा , मामा, ताऊ या जान –पहचान के व्यक्ति के भूत से मुलाक़ात के किस्से न सुने हों | “और जब वो चलता था …” से थमी हुई साँसों, और बढती हुई धडकनों के बाद कितनी बार रात में टॉयलेट जाने के लिए माँ या बड़ी बहन को जगाया होगा, और प्लीज बाहर खड़ी हो जाना की गुहार लगाई होगी | कितनी बार अँधेरे में किसी की परछाई नज़र आई होगी और भय से चीख  निकल गयी होगी | खैर वो बचपन के दिन थे  पंख लगा के उड़ गए | अब अगर आप एक बार फिर से बचपन के उस रोमांचक अहसास को जगाना चाहते हैं तो गीता श्री जी आपके लिए लेकर आयीं है , डरावने भूतिया  किस्सों से भरा “भूत खेला “ | और अगर अभी भी आप भूतों पर यकीन करते हैं तो भी  उत्तर वही ही है | हम सब जो हॉरर फिल्में देखते हैं वो जानते हैं कि लाइट और साउंड इफ़ेक्ट से डर आसानी से पैदा किया जा सकता है | जब किस्सों के रूप में किसी से सुनते हैं तो भी रात होती है और कहने का तरीका कुछ ऐसा होता है कि डर का माहौल बनता है | ऐसे में लोगों को लगता है कि क्या किताब में शब्दों के माध्यम से  वो डर उत्पन्न किया जा सकता है ? जी हाँ ! बिलकुल किया जा सकता है और ये लेखक के लिए बहुत चुनौती का काम है | जिन्होंने भी W.W.Jacobs की “monkey’s paw“ कहानी पढ़ी होगी | उन्होंने केवल शब्दों के माध्यम से दरवाजे के बाहर सीढियां चढ़ने की आवाजों में डर महसूस किया होगा |पढ़ते –पढ़ते किसको नहीं लगा होगा कि उसकी माँ से कह दे कि दरवाजा ना खोलना, बाहर भूत है | इस कहानी का उदहारण मैं इसलिए दे रही हूँ क्योंकि ये कई राज्यों में  सिलेबस में पढाई जाती है |  और अगर आज की बात करें तो  स्टीफन किंग के हॉरर से भला कौन ना डरा होगा अगर मैं ‘भूत खेला’ की बात करूँ तो गीता श्री जी भी वो माहौल तैयार करने और डर पैदा करने में पूरी तरह सफल रहीं हैं  | आप लाख कहिये कि ‘डरना मना है पर अन्तत: डर ही जायेंगे | डरावनी कहानियाँ लिखते समय लेखक के हाथ में केवल एक ही अस्त्र होता है वो है भाषा का …उसी से खौफ पैदा करना है, ऐसे दृश्य क्रिएट करने हैं जो पाठक की दिल की धडकने बढ़ा दें | गीता श्री जी ने कथा भाषा ऐसी रखी है जो डरावना माहौल क्रिएट करती है | यूँ  तो संग्रह की सभी कहानियाँ इसमें सफल हैं पर इस मामले में मैं खासतौर पर मैं इस संग्रह की  कुछ  कहानियों के नाम “कहीं ये वो तो नहीं” और “वे वहाँ लाइव थीं “ “उसका सपनों में आना जाना है” का नाम लेना चाहूँगी | इन तीनों  कहानियों में शब्दों और दृश्य का ऐसा मंजर … Read more

डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान

डॉ.सिताबो बाई  जन्म – १९२५ विक्रमी संवत  पिता -बाबू राम प्रसाद सिंह  विवाह -मौजा कादीपुर जिला बनारसछात्रवृत्ति के सहारे शिक्षा  आगरा मडिकल कॉलेज से डॉक्टरी  की शिक्षा  पहले जबलपुर फिर उदयपुर फिर बनारस में सेवाएं दी |  BHU के निर्माण में दस हज़ार का चंदा दिया  विधवा आश्रम, आनाथ आश्रम , वृद्ध आश्रम खोले  अपनी सारी  जायदाद समाज के लिए दान कर दी |                        डॉ. सिताबो बाई का इतना परिचय जान कर आप अंदाजा लगा चुके हिन्ज कि आप किसी महान विभूति के बारे में पढने जारहे हैं | साथ में ये प्रश्न भी उठा होगा कि उस  ज़माने की डॉक्टर, समाजसेवी महिला के बारे में आपको आखिर पता क्यों नहीं है ? यही तो है नारी जीवन की त्रासदी |  आइये जाने स्त्री संघर्षों की एक ऐसी दास्तान के बारे में जिसे उसकी मृत्यु के बाद इतिहास में भी जगह नहीं मिली …. डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान  ‘डॉ. सिताबो बाई’ उपन्यास पर कुछ लिखने से पहले मैं इसकी लेखिका आशा सिंह जी को बधाई देना चाहती हूँ कि वो अतीत की खुदाई कर ऐसे जीवंत चरित्र को ले कर आई हैं जिसने  बेदर्द  ज़माने द्वारा दिए गए हर दर्द को न सिर्फ सहा बल्कि उससे क्षत-विक्षत अपने तन और मन  के साथ उसे ही संघर्ष की सीढ़ी बनाया | दर्द और सितम बढ़ते गए, सीढ़िया बढती गयीं , अपनी अदम्य इच्छा शक्ति व् सेवा भावना के कारण निजी जीवन में दुखी बहुत दुखी होते हुए भी कर्म क्षेत्र में और सामाजिक जीवन में बहुत सफलताएं हासिल की | जी हाँ ! डॉ. सिताबो बाई वो सशक्त स्त्री रही हैं जिनके संघर्ष , श्रम और जनसेवा भावना को इतिहास के पन्नों में बड़ी बेदर्दी से दबा दिया गया | इस उपन्यास को पढ़कर मुझे लगा कि प्रेम अपराधिनी अनारकली को दीवारों में जिन्दा चुनवा दिया गया इसके बारे में हम सब जानते हैं | परन्तु कितने सशक्त स्त्री चरित्रों को इतिहास के पन्नों में चुनवा दिया गया इसकी खबर किसी को नहीं है | ऐसा ही एक चरित्र मल्लिका के साथ में मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने न्याय किया तो आशा जी ने डॉ. सिताबो के साथ | निश्चित रूप से ऐसे बहुत से चरित्र होंगे जहाँ हमें कलम से  खुदाई कर के पहुँचना है और उनके संघर्षों को उचित सम्मान दिलवाना है | ऐसे चरित्रों पर लिखना आसान नहीं होता जहाँ आपके पास साक्ष्य नहीं होते | गूगल भी कोई मदद नहीं करता | ऐसे में किसी अँधेरी सुरंग के पार कुछ उड़ती-उड़ती सी  रौशनी दिखती है उसे ही कलम के सहारे पकड़ना होता है | ऐसा ही काम किया है आशा जी ने | उन्होंने साक्ष्य जुटाने का बहुत प्रयास किया परन्तु पंडित मदन मोहन मालवीय जी के पत्र, सेविंग अकाउंट, हॉस्टल के बिल से ज्यादा कुछ प्राप्त ना कर सकीं , यहाँ तक की उनकी तस्वीर भी नहीं | ऐसे में लिखने में संघर्ष बढ़ जाता है | जितना लिखा जाता उससे कहीं ज्यादा लिख कर मिटाया जाता | कितना समय तो सूत्र तलाशने में निकल जाता | पर आशा जी संकल्प की धनी रहीं और आखिर कार उनका ये दृण  निश्चय हज़ार बाधाओं  को पार करते हुए उपन्यास के रूप में हमारे सामने आ गया | इस काम में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ( B.H.U) से उन्हें थोड़ी बहुत मदद मिली पर उनके परिवार वालों से बिलकुल भी नहीं, कारण था अपने परिश्रम से अर्जित किये हुए समस्त धन को डॉ.सिताबो बाई  विधवा आश्रमों, बालिका ग्रहों और अनाथालयों के लिए दान कर गयीं थी | परिवार वालों को उनसे  आपत्ति थी ..घोर आपत्ति थी पर उनके धन से तो नहीं थी | फिर वो इतना बड़ा निर्णय कैसे ले गयी | पितृसत्ता की जड़े काटना इतना आसन नहीं होता | रोती-तडपती अबलाओं की कहानियाँ आगे बढ़ती हैं और सशक्त स्त्री चरित्र दबा दिए जाते हैं | कहीं दूसरी औरतों को उनकी हवा ना लग जाए |   एक सीता को तो हम सब जानते ही हैं …प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता, जिन्होंने  पत्नी धर्म निभाने के लिए राज सुख का त्याग किया, उनके साथ जंगल –जंगल भटकीं और बदले में उन्हें मिली अग्नि परीक्षा द्वारा खुद को निष्कलंक सिद्ध कर देने की सजा और उस पर भी शांति ना मिलने पर गर्भावस्था में त्याग  दिए जाने का फरमान | सीता सबकी आदर्श रहीं हैं क्योंकि वो आदर्श पत्नी, बहु और बेटी हैं | वो तर्क नहीं करती हैं, प्रेम करती हैं प्रेम के साथ कर्तव्य निभाती हैं | पूरी पितृसत्ता अपनी पत्नी बहु, बेटी में सीता को देखना चाहती है | सीता का यही रूप जनमानस में छाया रहा | बेटियों के नाम ‘सीता’ रखे जाने लगे | आखिर हमें बेटियों से त्याग और प्रेम के अतिरिक्त और चाहिए ही क्या था, इसी से तो कुल की इज्ज़त थी |  ये अलग बात है कि प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता ने जो संघर्ष किया , अपने पुत्रों को अस्त्र-शास्त्र की शिक्षा दी | इसे भी कालांतर में कलम की खुदाई से ही निकाला गया | खैर सीतायें जन्म लेतीं रहीं और ना जाने कितनी सीतायें …माता सीता की तरह धरा की गोद में समाती रहीं | ऐसी ही एक सीता थी जिसने  संवत 1925 में वाराणसी के पियरी कला मुहल्ला में बाबू राम प्रसाद के यहाँ जन्म लिया | भाग्य या दुर्भाग्य अपनी हमनाम की तरह इस नन्ही बच्ची की भी प्रतीक्षा कर रहा था | पर उस नन्हीं बालिका ने कदम –कदम पर संघर्ष का सहारा लिया और धरा की गोद में समाने की जगह सीता से डॉ.सिताबो बाई का सफ़र तय किया | महिलाओं के लिए एक मिसाल बनी डॉ. सिताबो बाई की जीवन गाथा समस्त स्त्रियों के लिए प्रेरणा दायक है |     डॉ .सिताबो बाई की लेखिका  आशा सिंह गौरवर्णा, आकर्षक नैन–नक्श वाली बालिका सीता पढने में भी तेज थी | उस समय लड़कियों की शिक्षित करना अच्छा नहीं समझा जाता था | चिंता यही रहती थी कि अगर लड़की शिक्षित हो गयी तो उसके योग्य वर कैसे मिलेगा | कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को अपने से योग्य देख नहीं सकता, … Read more

वियोग श्रृंगार के दोहे

श्रृंगार रस के दो रूप होते हैं संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार ….वियोग में प्रेम की तीव्रता देखते ही बनती है | ऐसे में हम लायें हैं वियोग श्रृंगार रस में डूबे कुछ दोहे …….. वियोग श्रृंगार के  दोहे  १.. पढ़ कर पाती प्रीत की , भीग रहे हैं नैन | आखर -आखर बोलते , साजन हैं बेचैन || २… मैं उनकी हो ली सखी , पर वो मेरे नाही | एकतरफा अग्नि प्रेम की , नाहि  जाए बुझाहि  || ३ .. रूठे साजन से कहूँ , कैसे हिय की बात | ऊँघत तारों के तले  , कटती है हर रात || ४… मुझे होता जो भान ये , साजन हैं चितचोर | मनवा रखती  खींचकर , नहीं सौपती  डोर || ५… जबसे बालम ने किया , दूर देश में ठौर | तबसे देखा है नहीं ,दर्पण करके गौर || ६… घड़ी चले घड़ियाल सी , इस वियोग में हाय | तडपत हूँ दिन -रैन  मैं , पर साजन ना आय || ७… संदेशा तू  प्रेम का , बदरा ले जा साथ | बूँदों -बूँदों में छिपा , कहना हिय की बात || 8…. रिमझिम सावन भी गया , गयी घाम औ शीत | दिवस -दिवस बढती रही , मेरे उर की प्रीत || 9 .. नून घुले ज्यूँ नीर में , घुलती है यूँ देह | थामे रहतीं प्राण को , साँसें भर कर नेह || 10… तुम भी तो होगे पिया , उतने ही बेचैन | लिखना खत हमको कभी , कटती कैसे रैन || 11… मैं हुई हलकान पिया , नाम तुम्हारा टेर | अब तो आजा बालमा , नहीं करो अब देर || वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … पढ़ें सावन पर कुछ भीगती हुई कवितायें – अगर सावन ना आई (भोजपुरी कविता ) सावन में लग गयी आग कि दिल मेरा (कहानी ) सावन पर किरण सिंह की कवितायें सावन एक अट्ठारह साल की लड़की है आपको “वियोग श्रृंगार के  दोहे   “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- poem in Hindi, Hindi poetry, dohe, viyog shringar

भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के विधायक की पुत्री साक्षी के भागकर अजितेश से विवाह करने की बात मीडिया में छाई हुई है | भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के लिए ही इस्तेमाल होता है | जब लड्का अपने मन से विवाह करता है तो भागना शब्द इस्तेमाल नहीं होता है | लेकिन इस प्रकरण ने स्त्री जीवन के कई मुद्दों को फिर से सामने कर दिया है | मुद्दा ये भी उठ रहा है कि लड़कियों को विवाह की अपेक्षा अपना कैरियर बनाने के लिए भागना चाहिए |  आदरणीय मैत्रेयी पुष्पा  जी कहती हैं कि, ” जब लड़की भागती है तो उसका उद्देश्य विवाह ही होता है अपने सपनों के लिए तो लड़की अकेले ही घर से निकल पड़ती है |”  तो .. भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो  सपनों के पीछे भागती लडकियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं | ऐसी ही एक लड़की है राखी,  जो मेरी घरेलु सहायिका आरती  की बेटी है | रक्षा बंधन के दिन पैदा होने के कारण उसका नाम राखी रख दिया गया | राखी का कहना है कि मैं घर में सबसे बड़ी हूँ इसलिए सबकी रक्षा मुझे ही तो करनी है | बच्ची का ऐसा सोचना आशा से मन को भरता है | समाज में स्त्री पुरुष का असली संतुलन तो यहीं से आएगा |  राखी की माँ आरती निरक्षर है, लेकिन राखी सरकारी स्कूल में आठवीं कक्षा में पढ़ती हैं | अभी तक हमेशा प्रथम आती रही है, जिसके लिए उसे स्कूल से ईनाम भी मिलता है | कभी –कभी मेरे पास पढ़ने  आती है, तो उसकी कुशाग्र बुद्धि देख कर ख़ुशी होती है | आसान नहीं होता गरीबी से जूझते ऐसे घर मे सपने देखने की हिम्मत करना | जब कि हम उम्र सहेलियां दूसरों के घर में सफाई बर्तन कर धन कमाने लगीं हो और उनके पास उसे खर्च करने की क्षमता भी हो | तब तमाम प्रलोभनों से मन मार कर पढाई में मन लगाना |  फिर भी राखी की आँखों में सपना है | उसका कहना है कि  बारहवीं तक की पढाई अच्छे नंबरों से कर के एक साल ब्यूटीशियन का कोर्स करके अपने इलाके में  एक पार्लर खोलेगी | पार्लर ही क्यों ? पूछने पर कहती है कि , “पार्लर   तो घर में भी खोला जा सकता है, महिलाएं ही आएँगी, माँ कहीं भी शादी कर देगीं तो इस काम के लिए कोई इनकार नहीं करेगा |” बात सही या गलत की नहीं है उसकी स्पष्ट सोच व् अपने सपने को पूरा करने की ललक है |  मैंने अपनी सहायिका  को सुकन्या व् अन्य  सरकारी, गैर सरकारी  योजनाओं के बारे में बताया है | कई बार साथ भी गयी हूँ |आरती को मैं अक्सर ताकीद देती रहती हूँ उसकी पढ़ाई  छुडवाना नहीं | वो भी अब शिक्षा के महत्व को समझने लगी है | कई बार जरूरी कागजात बनवाने के लिए वो छुट्टी भी ले लेती है , जिससे बर्तनों की सफाई का काम मेरे सर आ जाता है, पर उस दिन वो मुझे जरा भी नहीं अखरता | एक बच्ची के सपने पूरे होते हुए देखने का सुख बहुत बड़ा है |  खूब पढ़ो, मेहनत करो राखी तुम्हारे सपने पूरे हों | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  नोट – भागना एक ऐसा शब्द है जो लड़कियों के ही साथ जुड़ा है , वैसे भी इसके सारे दुष्परिणाम लड़कियों के ही हिस्से आते हैं | मामला बड़े लोगों का हो या छोटे लोगों का, मायके के साथ संबंध तुरंत टूट जाते हैं | भागते समय अबोध मन को यह समझ नहीं होती कि कोई भी रिश्ता दूसरे रिश्ते की जगह नहीं ले सकता | फिल्मे चाहे कुछ भी कहें पर वो रिश्ते बहुत उलझन भरे हो जाते हैं जहाँ एक व्यक्ति पर सारे रिश्ते निभाने का भार हो | माता -पिता भाई बहन के रिश्ते खोने की कसक जिन्दगी भर रहती है | जिसके साथ गयीं हैं उसके परिवार वाले कितना अपनाएंगे कितना नहीं इसकी गारंटी नहीं होती | जिसको जीवनसाथी के तौर पर चुना है उसके ना बदल जाने की गारंटी भी नहीं होती | ऐसे में अधूरी शिक्षा के साथ अगर लड़की ऐसा कोई कदम भावावेश में उठा लेती है और परिस्थितियाँ आगे साथ नहीं देतीं तो उसके आगे सारे दरवाजे बंद हो जाते हैं | लड़कियों के लिए बेहतर तो यही होगा पहले आत्मनिर्भर हों , अपना वजूद बनाएं फिर अपनी पसंद के जीवन साथी के बारे में सोचें | ऐसे में ज्यादातर माता -पिता की स्वीकृति मिल ही जाती है और अगर नहीं मिलती तो भी भागना जैसा शब्द नाम के आगे कभी नहीं जुड़ता | एक कैद से आज़ाद होने के ख्याल से दूसरी कैद में मत जाओ | #भागो_लड़कियों_अपने_सपने_के_पीछे_भागो  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें …. मेरा पैशन क्या है ? माँ के सपनों की पिटारी जब राहुल पर लेबिल लगा भविष्य का पुरुष आपको  लेख “ भागो लड़कियों अपने सपनों के पीछे भागो “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके email पर भेज सकें  keywords:key to success , girls, dreams, sakshi mishra, motivation