मेरा पैशन क्या है ?

                                           मेरा पैशन क्या है    पैशन यानि वो काम जिसे हम अपने दिल की ख़ुशी के लिए करते हैं | लेकिन जब हम उस काम को करते हैं तो कई बार महत्वाकांक्षाओं के कारण या अतिशय परिश्रम और दवाब के कारण हम उसके प्रति आकर्षण खो देते हैं | ऐसे में फिर एक नया पैशन खोजा जाता है फिर नया …और फिर  और नया | ये समस्या आज के बच्चों में बहुत ज्यादा है | यही उनके भटकाव का कारण भी है | आखिर कैसे समझ में आये कि हमारा पैशन क्या है और कैसे हम उस पर टिके रहे | प्रस्तुत है ‘अगला कदम’ में नुपुर की असली कहानी जो शायद आपको और आपके बच्चों को भी अपना पैशन जानने में मदद करे |      मेरा पैशन क्या है ?   धा-धिन-तिन-ता /ता धिन तिन ता  धा-धिन-तिन-ता /ता धिन तिन ता                                                 मैं अपना बैग लेकर दरवाजे के  बाहर निकल रही हूँ , पर ये आवाजें मेरा पीछा कर रही हैं | ये आवाजें जिनमें कभी मेरी जान बसती थी , आज मैं इन्हें बहुत पीछे छोड़ कर भाग जाना चाहती हूँ | फिर कभी ना आने के लिए |                                              मेरी स्मृतियाँ मुझे पांच साल की उम्र में खींच कर ले जा रही हैं |    नुपुर …बेटा नुपुर , मास्टरजी आ गए | और मैं अपनीगुड़ियाछोड़कर संगीत कक्ष में पहुँच जाती और   मास्टर जी मुझे नृत्य और संगीत की शिक्षा देना शुरू कर देते | अक्सर मास्टर जी माँ सेकहा करते, “बहुत जुनूनी है आप की बिटिया , साक्षात सरस्वती का अवतार | इसे तो नाट्य एकादमी भेजिएगा फिर देखना कहाँ से कहाँ पहुँच जायेगी |” माँ का चेहरा गर्व से भर जाता | रात को माँ खाने की मेज पर यह बात उतने ही गर्व से पिताजी को बतातीं | हर आने -जाने वालों को मेरी उपलब्द्धियों के बारे में बताया जाता | कभी -कभी उनके सामने नृत्य कर के और गा कर दिखाने को कहा जाता | सबकी तारीफ़ सुन -सुन कर मुझे बहुत ख़ुशी मिलती और मैं दुगुने उत्साह से अपनी सपने को पूरा करने में लग जाती | कितनी बार रिश्तेदारों की बातें मेरे कान से टकरातीं , ” बहुत जुनूनी है तभी तो स्कूल, ट्यूशन होमवर्क सब करके भी इतनी देर तक अभ्यास कर लेती हैं | कोई साधारण बच्चा नहीं कर सकता | धीरे -धीरे मुझे भी अहसास होने लगा कि ईश्वर ने मुझे कुछ ख़ास बना कर भेजा है | यही वो दौर था जब मैं एक अच्छी शिष्य की तरह माँ सरस्वती की आराधिका भी बन गयी | पिताजी के क्लब स्कूल, इंटर स्कूल , राज्य स्तर के जाने जाने कितनि प्रतियोगिताएं मैंने जीती | मेरे घर का शो केस मेरे द्वारा जीती हुई ट्रोफियों से भर गया | १८ साल की होते -होते संगीत और नृत्य मेरा जीवन बन गया और २० वर्ष की होते -होते मैंने एक बड़ा संगीत ग्रुप ज्वाइन कर लिया | ये मेरे सपनों का एक पड़ाव था , जहाँ से मुझे आगे बहुत आगे जाना था | परन्तु … “नुपुर  रात दस बजे तक ये नृत्य ातैयार हो जाना  चाहिए | “ ” नुपुर १२ बज गए दोपहर के और अभी तक तुमने इस स्टेप पर काम नहीं किया |” ” नुपुर ये नृत्य तुम नहीं श्रद्धा करेगी |”  ” नुपुर श्रद्धा बीमार है आज रात भर प्रक्टिस करके कल तुम्हें परफॉर्म करना है |” “नुपुर , आखिर तुम्हें हो क्या गया है ? तुम्हारी परफोर्मेंस बिगड़ क्यों रही है ?” “ओफ् ओ ! तुमसे तो इतना भी नहीं हो रहा |” ” नुपुर मुझे नहीं लगता तुम कुछ कर पाओगी |” और उस रात तंग आकर मैंने अपने पिता को फोन कर ही दिया , ” पापा , मुझसे नहीं हो हो रहा है | यहाँ आ कर मुझे समझ में आया कि नृत्य मेरा पैशन नहीं है | मैं सबसे आगे निकलना चाहती हूँ | सबसे बेहतर करना चाहती हूँ | लें मैं पिछड़ रही हूँ | “ ” अरे नहीं बेटा, तुम्हें तो बहुत शौक था नृत्यु का , बचपन में तुम कितनी  मेहनत करती थी | तुम्हें बहुत आगे जाना है |मेरा बच्चा ऐसे अपने जूनून को बीच रास्ते में नहीं छोड़ सकता |” पिताजी ने मुझे समझाने की कोशिश करी | मैंने भी समझने की कोशिश करी पर अब व्यर्थ | मुझे लगा कि मैं दूसरों से पिछड़ रहीं हूँ | मैं उनसे कमतर हूँ | मैं उन्हें बीट नहीं कर सकती | ऐसा इसलिए है कि म्यूजिक मेरा पैशन नहीं है | और मैं ऐसी जिन्दगी को नहीं ओढ़ सकती जो मेरा पैशन ना हो | मैंने अपना अंतिम निर्णय पिताजी को सुना दिया | वो भी मुझे समझा -समझा कर हार गए थे | उन्होंने मुझे लौट आने की स्वीकृति दे दी | घर आ कर मैंने हर उस चीज को स्टोर में बंद कर दिया जो मुझे याद दिलाती थी कि मैं नृत्य कर लेती हूँ | मैंने अपनी पढाई पर फोकस किया  और बी .ऐड करने के बाद मैं एक स्कूल में पढ़ाने लगी | मैं खुश थी मैंने अपना जूनून पा लिया था | समय तेजी से आगे बढ़ने लगा | ————————————– इस घटना को हुए पाँच वर्ष बीत गए | एक दिन टी. वी पर नृत्य का कार्यक्रम देखते हुए मुझे नृत्यांगना के स्टेप में कुछ गलती महसूस हुई | मैंने स्टोर से जाकर उस स्टेप को करके देखा …एक बार , दो बार , दस बार | आखिरकार मुझे समझ आ गया कि सही स्टेप क्या होगा | मुझे ऐसा करके बहुत अच्छा लगा | अगले दिन मैं फिर स्टोर में गयी और अपनी पुरानी डायरी निकाल लायी | उसमें एक नृत्य को कत्थक और कुचिपुड़ी के फ्यूजन के तौर पर स्टेप लिखने की कोशिश की थी | … Read more

उसका जवाब

जो स्त्री अपने घर में सबकी सफलता के लिए सीढ़ी बनती है , क्यों उसके सपनों में कोई साथ नहीं देता ? क्यों घर के पुरुष अपने पर आश्रित स्त्री को तो प्रेम करते हैं परन्तु अपने वजूद के लिए संघर्ष करती स्त्री से विरक्ति ? सदियों से त्याग को ही चुनती आई किसी स्त्री को प्रेम या सम्मान में से आज भी केवल एक ही चुनने को मिले तो क्या होगा उसका जवाब ?  कहानी -उसका जवाब  ४० की उम्र कोई, एक ऐसी उम्र होती है जब हर औरत  एक हिसाब में उलझती है|  वो हिसाब होता है उसके बीते वर्षों का | जहाँ उसने बेटी, बहन पत्नी और माँ का किरदार तो तो बखूबी से निभाया होता है, अपने लिए उसकी जिंदगी की किताब के पन्ने कोरे ही रहते हैं | इसीलिए बहुधा इसी उम्र में  एक तड़प सी उठती है अपने लिए कुछ करने की | मोहिनी  भी ऐसी ही कुछ पशोपेश में थी | बरसों हो गए अपनी जिन्दगी पीछे छूटे हुए| आज अपनी पुरानी रैक साफ़ कर रही थी कि आयल पेंट्स की ट्यूब दिखाई दी | ट्यूब्स  तो   सूख गयीं थी पर उन्हें देख कर उसके सपने जिंदा हो गए| उसने खुद को जी लेने की ख्वाइश में पेंटिंग करने का मन बनाया| रात को खाने की टेबल पर उसने अपनी इच्छा को पवन को बताया|   “तो मोहतरमा पेंटिंग्स बनायेंगी” कह कर पवन इतनी जोर से हंसे  की गिलास का पानी छलक गया | फिर खुद को संयत कर के बोले “अरे भई ये क्या सूझ रहा है तुम्हे इस उम्र में | मेरी जान तुम तो मेरे जीवन में रंग भरती हो … उतना ही काफी है |” पवन के चेहरे पर तैरती मुस्कान मोहनी को कहीं गहरे चुभ गयी |   “उतना ही काफी नहीं है”, मोहिनी  ने अपनी बात पर जोर देते हुए कहा | उसका कहने का ढंग ऐसा था की पवन  सकते में आ गया  | खाना छोड़ कर मोहिनी  की तरफ देखने लगा  | मोहिनी  ने आगे बोलना शुरू किया,” मैं  इस बात में सीरियस हूँ पवन  | मैं अब अपने वजूद की तलाश करना चाहती हूँ |” “वजूद की तलाश … भूल जाओ, मत सोंचो ये बड़े-बड़े शब्द | इतने चित्रकार है, एक बस तुम्हारा ही वजूद है इस दुनिया में जिसके आते ही उन सबका धंधा-पानी बंद हो जाएगा और सब तुम्हारी आरती उतारने लगेंगे| बेकार समय बर्बाद करोगी | यूँ ही घर में कुछ रंगना चुनना है, तो किसने रोका है |” पवन  बिना रुके बोलता गया | विवाह के इतने वर्षों बाद भी पवन के इस रूप से वो   आज तक अनजान थी |  ये वो पवन हैं जिनकी एक-एक इच्छा के लिए वो  अपनी जान भी कुर्बान करने को तैयार रहती थी, और वो उसे मानसिक रूप से थोडा सा सहारा भी देने को तैयार नहीं थे | मोहिनी खाना आधा छोड़ कर कमरे में चली आई | तकिया मुँह  में दबा कर घंटों रोती रही | तभी उसका छोटा भाई श्याम आया | उसे रोता देख कर अचम्भे में पड़  गया | श्याम ने इतने सालों तक उसे हँसते–मुस्कुराते हुए ही देखा था|  उसके सुखों की मिसाल दी जाती थी | घबरा कर श्याम ने उसके सर पर हाथ रख कर पूछा , “क्या हुआ दीदी, सब ठीक तो है?” “श्याम, मैं भी अब कुछ करना चाहती हूँ | बच्चे भी तो अब हॉस्टल चले गए हैं, खाली समय काटने को दौड़ता है बस उसी को भरने के लिए मैंने पेंटिंग्स बनाने की सोची है , लेकिन सिर्फ घर के स्तर पर नहीं, मैं चित्रकारी में अपना भविष्य बनाना चाहती हूँ | पर तुम्हारे जीजाजी नहीं मान रहे हैं, ऊपर से ताना और देते हैं कि इस उम्र में चित्रकारी करोगी”  मोहिनी  ने रोते हुए कहा | “अरे दीदी ! बस इतनी सी बात, जो मन आये करो, जीजाजी अभी मना  कर रहे हैं बाद में मान जायेंगे |”  श्याम के इन शब्दों ने उसका हौसला बहुत बढ़ा दिया | उसने चित्रकारी शुरू की | पवन  ने कोई रूचि नहीं दिखाई | उसने ढेर सारे चित्र बनाए | पर इनको लोगों तक कैसे पहुँचायें |  ये उसे पता नहीं था | डरते डरते उसने एक ब्लॉग बनाया व् फेसबुक अकाउंट भी |  जहाँ वो चित्र डालने लगी | उसके चित्र पसंद किये जाने लगे , पर ये वो दिन थे जब उसे अपनी क्षमता और प्रतिभा पर विश्वास नहीं था, वो कभी कभी डरते डरते पवन  से कहती कि, “प्लीज देख लीजिये मेरे चित्रों को कितने लोग पसंद  कर रहे हैं, एक बार आपकी स्वीकृति की भी मोहर लग जाती | पवन मुंह  बना कर जवाब देता ,  “अब इन फ़ालतू कामों के लिए समय नहीं है मेरे पास | दिन भर ऑफिस में खटो फिर बीबी  के चित्रों पर वाह-वाह करो|”  उसका मन दुखी हो जाता | क्यों बनाए,  किसके लिए बनाए ये चित्र | बाहर वाले तो दिल खोलकर तारीफ कर रहे हैं पर जिसे सबसे ज्यादा खुश होना चाहिए  को तो देखना गंवारा ही नहीं है |  एक बार फिर तुलिका हाथों से छूटने लगी और सपने बेरंग होने लगे | कई दिन हो गए चित्र बनाना तो दूर एक लाइन भी नहीं खींची गयी | बहुत दिन बाद फेसबुक खोल कर देखा, मित्र उससे नए चित्र की माँग  कर रहे थे | इन बेगाने लोगों के अपनेपन ने उसे अंदर तक भिगो दिया | पर एक सच्चाई ये भी थी कि बाहर के लोगों के प्रेरणा  से चलती हुई गाड़ी  तो खिंचती पर रुकी  हुई गाड़ी नहीं स्टार्ट नहीं होती …उसके लिए किसी उसका  बल जरूरी होता है जो बहुत पास हो | पहले ख्याल आया कि थोड़ी सी प्रेरणा के लिए बेटी को फोन लगाए पर अपने ख्याल को यह सोच कर दफ़न कर दिया कि वो बेचारी  अपनी जिन्दगी के तनाव झेल ही रही है , उसकी इच्छा जानते ही उसे  समझने में देर नहीं लगेगी कि पापा ने मम्मी का साथ  नहीं दिया है | उसके मन में अपने पापा की एक आदर्श छवि है वो उसे नहीं टूटने देना चाहती थी | अपनेपन की आशा में उसने डरते डरते श्याम को फोन किया ,” हेलो, भैया मेरे चित्र मेरे ब्लॉग पर बहुत पसंद … Read more

पगडंडियों पर चलते हुए -समाज को दिशा देती लघुकथाएं

साहित्य जगत में डॉ .भारती वर्मा बौड़ाई एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभर रही हैं | अटूट बंधन के साहित्य सुधि पाठक उन्हें यहाँ अक्सर पढ़ते रहे हैं | कभी हिंदी अध्यापिका रही भारती जी साहित्य की  पगडंडियों पर चल कर तेजी से आगे बढती जा रहीं है | क्योंकि वो स्वयं अध्यापिका रहीं हैं इसलिए उनके सहित्य में मैंने एक खास बात देखी  हैं कि संवेदनाओं को जागते हुए भी उनके  साहित्य में समाज के लिए कोई सीख कोई दिशा छिपी रहती है | मुझे लगता है कि साहित्य का मूल उद्देश्य भी यही होना चाहिए कि समाज का केवल सच ही सामने ना लाये अपितु उसे हौले से बदलने का प्रयास भी करें | कदाचित इसी लिए जन सरोकारों से जुड़े साहित्य को हमेशा श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में रखा जाता है | 2019 में उनकी 6 लघु पुस्तिकाएं आई हैं | जिनमें चार काव्य की एक लघु कथाओं की और एक लेखों की हैं | सभी लघु पुस्तिकाएं अपने आप में विशेष है पर आज मैं  यहाँ पर उनके लघुकथा संग्रह “पगडंडियों पर चलते हुए” की बात करना चाहती हूँ |  भारती जी के इस लघु कथा संग्रह में करीब ३० लघुकथाए है | समाज को दिशा देती ये सारी  लघुकथाएं प्रशंसनीय हैं | पगडंडियों पर चलते हुए -समाज को दिशा देती लघुकथाएं  पहली लघुकथा “इस बार की बारिश” एक ऐसी स्त्री के बारे में है जिसका पति कोई काम नहीं करता | घर में बैठे -बैठे खाना और सोना उसका प्रिय शगल है | उसकी पत्नी दिविका उसे बहुत समझाती है परन्तु उस पर कोई असर नहीं होता | दिविका बाहर जा कर नौकरी कर सकती है | परन्तु वो सोचती है कि अगर वो ऐसा करेगी तो उसके पति व् ससुराल वाले और निश्चिन्त हो जायेगे  तथा वो दोहरी जिम्मेदारियाँ निभाते -निभाते परेशान  हो जायेगी | अन्तत : वो अपने पति से संबंध संपत कर  अपने जीवन की डोर अपने हाथ में लेने का संकल्प लेती है | दुर्भाग्य से आज जब मैं इस कहानी पर लिख रही हूँ तो  अखबार में दिल्ली की एक खबर है | एक व्यक्ति जो पिछले दो सालों से बेरोजगार था और पत्नी नर्स का काम कर  अपने परिवार को पाल रही थी , उसने नशे व् क्रोध में अपनी पत्नी बच्चों की हत्या कर आत्महत्या कर ली | क्या ऐसे समय में जरूरत नहीं है दिविक जैसी महिलाओं की जो सही समय में सही फैसले ले और अपनी व् बच्चों की जिन्दगी को इस तरह जाया ना होने दें | “रक्षा बंधन ” से सम्बंधित दो लघुकथाएं मुझे बहुत अच्छी लगी | इनमें से एक में “रक्षा बंधन ऐसा भी ” एक माँ जो बिमारी जूझ रही है और उसके बच्चे उसकी सेवा तन मन से करते हैं वो रक्षा बंधन के दिन अपने भाई के बाद अपने बच्चों के राखी बांधती है | वहीँ दूसरी कहानी ‘अनोखा रक्षा बंधन ” में पुत्र दोनों मामाओं की मृत्यु के बाद उदास रहती माँ  से राखी बंधवाता है | रक्षा बंधन की मूल भावना ही किसी की दर्द तकलीफ में उसका सहारा बन जाने में है | वो हर रिश्ता जो इस बात में खरा उतरता है इस बंधन का हकदार है | ये एक नयी सोच है जो बहुत उचित भी है | “नया सवेरा ” कहानी एक ऐसी बच्ची की कहानी है जो माता -पिता के दवाब में  दसवीं में विज्ञान लेती है और फेल हो जाती है | अन्तत : माता -पिता समझते हैं कि हर बच्चा कुछ कर सकता है ,कुछ बन सकता है बशर्ते उस पर अपनी इच्छाओं का बोझ ना डाला जाए | “उड़ान “में बच्ची मीना अपने  जन्मदिन केक काट कर दोस्तों व् रिश्तेदारों के साथ डिनर करके नहीं बल्कि  वृद्ध आश्रम में मनाना चाहती है | वो अपने मित्रों के साथ वहां जा कर वृद्ध लोगों में आशा का संचार करती है | तो वहीँ “नयी सोच ‘के प्रधानाध्यापक बच्चो को सफाई के सिर्फ उपदेश ना पिला कर , न सिर्फ स्वयं सफाई करते हैं वरन बचे हुए खाने से खाद बनाने व् पौधे लगाने का भी काम करते हैं | उनको इस तरह करता देख बच्चे स्वयं प्रेरित हो जाते हैं | एक अंग्रेजी कहावत है कि … “Action speaks louder than words”                  ये कहानी इस लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये  सिर्फ  कोरी शिक्षा पर जोर नहीं देती , वरन बच्चों को सिखाने के   लिए स्वयं में परिवर्तन के महत्व को रेखांकित करती है | “ विस्फोट ‘ एक ऐसी कहानी है जिस दशा से आमतौर पर महिलाएं गुजरती हैं | पुरुषों के लिए कोई बंधन नहीं हैं पर घर की बहु , कहाँ जारही है ? , कब जा रही है ? और कब तक लौटेगी ? के सवालों से झूझती ही रहती है | खासकर जब वो अपने मायके जा रही हो | ऐसे ही एक लड़की गौरी अपने माता -पिता के पास मिलने जाती है ,बारिश होने लगती है तो वो फोन कर के ससुराल में बता देती है , उधर बारिश ना रुकते देख माँ कहती हैं कि खानाबन ही गया है खा के जा ” माँ का दिल ना टूटे इसलिए वो खाना खा कर ससुराल जाती है | वहां सब नाराज बैठे हैं | आते ही ताने -उलाह्नेशुरु हो जाते हैं , ” आ गयीं मायके से पार्टी जीम कर , भले ही ससुराल में सब भूखे बैठे हो ?” आहत गौरी पहली बार अपनी जुबान खोलती है कि, ” क्या वो मायके भी नहीं जा सकती ? अगर इस पर भी ऐतराज़ है तो अब वो जब चाहे , जहाँ चाहे जायेगी | गौरी का प्रश्न हर आम महिला का प्रश्न है | बहुधा ससुराल वाले विवाह के बाद  महिला के उसके माता -पिता के प्रति प्रेम पर ऐतराज़ करने लगते हैं …….तब उनके यहाँ भी गौरी की तरह ही विस्फोट होता है | “बहु कभी बेटी के बराबर नहीं हो सकती ये कहने से पहले खुद का व्यवहार भी देखना होता है |” इसके अतिरिक्त शोर , अचानक , नयी पहचान व् अपने हिस्से का काम भी,  उल्लेखनीय लघु कथाएँ हैं | … Read more

अनमोल है पिता का प्यार

आज का दिन पिता के नाम है | माँ हो या पिता ये दोनों ही रिश्ते किसी भी व्यक्ति के लिए बहुत महत्वपूर्ण हैं , जो ना सिर्फ जन्म का कारक हैं बल्कि उसको  एक व्यक्तित्व को सही आकार में ढालने में भी सहायक | पिछले एक हफ्ते से अख़बारों मैगजींस में पिता से सम्बंधित ढेरों लेख  पढ़ने को मिले , जिनमें से ज्यादातर के शीर्षक रहे …”बदल रहे हैं आज के पापा’, ‘माँ की जगह ले रहे हैं पापा’ , ‘नया जमाना नये पापा’, ‘पापा और बच्चों का रिश्ता हो गया है बेहतर’  आदि-आदि | ये सच है कि आज के समय की जरूरतों को देखते हुए पिता की भूमिका में परिवर्तन आया है, लेकिन आज के पिता को पुराने पिता से बेहतर सिद्ध करने की जो एक तरफा कोशिश हो रही है वो मुझे कुछ उचित नहीं लगी | अनमोल था है और रहेगा पिता का प्यार   ये सच है की फादर्स  डे मनाना हमने अभी हाल ही में सीखा है …लेकिन संतान और पिता का एक खूबसूरत रिश्ता हमेशा से था | प्रेम तब भी था अभिव्यक्ति के तरीके दूसरे थे …और उनको उसी तरह से समझ भी लिया जाता था | दादी के ज़माने में संयुक्त परिवारों में पिता अपने बच्चों को नहीं खिलाते थे …भाई के बच्चों को खिलाते थे , प्यार दुलार देते थे | इस तरह से हर बच्चे को चाचा ताऊ से पिता का प्यार मिल ही जाता था | अपने बच्चे ही क्या तब गाँव की बेटी भी अपनी बेटी होती थी | कर्तव्य और पारिवारिक एकता के लिए निजी भावनाओं का त्याग आसान नहीं है | छोटे पर बच्चों को समझ भले ही ना आये पर बड़े होते ही उन्हें समझ में आने लगता था कि उनके पिता , चाचा , ताऊ परिवार को बाँधे रखने के लिए ये त्याग कर रहे हैं , तब पिता उनकी आँखों में एक आदर्श के रूप में उभरते थे | लोकगीत तब भी बाबुल के लिए ही बनते थे | बच्चे जानते थे कि उनके पिता उन्हें बहुत प्यार करते थे | अगर अपने ज़माने के पिताओं की बात करूँ तो उस समय पिता ज्यादातर कठोर दिखा करते थे , जिसका कारण घर में अनुशासन रखना होता था | उस समय माताएं शरारत करते समय बच्चों को डराया करतीं , ” आने दो बाबूजी को  , जब ठुकाई करेंगे तब सुधरोगे ” और बच्चे शैतानी छोड़  कर किताबें उठा लेते | ये डर जानबूझ कर बनाया जाता था | कई बार पिता पसीजते भी तो माँ अकेले में समझा देती, “देखो आप कठोर ही रहना , नहीं तो किसी की बात नहीं सुनेगा ‘, और पिता अनुशासन की लगाम फिर से थाम लेते | पिता के अनुशासन बनाये रखने वाले कठोर रूप में माँ की मिली भगत रहती थी इसका पता बड़े होकर लगता था | माँ के मार्फ़त ही बच्चों समस्याएं पिता तक पहुँच जाती थीं और माँ के मार्फ़त ही पिता की राय बच्चों को मिल जाती थी | आज अक्सर माता -पिता दोनों परेशान  दिखते हैं , ” ये तो किसी से नहीं डरता | “अनुशासन भी जीवन का अहम् अंग है , जिसकी पहली पाठशाला घर ही होती है, ये हम पिता से सीखते थे  | मैंने स्वयं अपने पिता के कठोर और मुलायम दोनों रूप देखे | जिन पिता की एक कड़क आवाज से हम भाई -बहन बिलों में दुबक जाते उन्हें कई बार माँ से ज्यादा भावुक और ममता मयी देखा | तब सोचा करती कि घर में अनुसाशन बनाए रखने के लिए वो कितना मुखौटा ओढ़े रखते थे , आसान तो ये भी नहीं होगा | इस आवरण के बावजूद ऐसा कभी नहीं हुआ कि उनका प्रेम महसूस नहीं हुआ हो | वो ह्म लोगों के साथ खेलते नहीं थे , लोरी भी नहीं गाते थे , शायद पोतड़े भी नहीं बदले होंगें पर मैंने उन्हें कभी अपने लिए कुछ करते नहीं देखा हम सब सब की इच्छाएं पूरी करने के लिए वो सारी कटौती खुद पर करते | कितनी बार मन मार लेते कि बच्चों के लिए जुड़ जाएगा कितने भी बीमार हों हम सब की चिंता फ़िक्र अपने सर ओढ़ कर कहते , ” तुम लोग फ़िक्र ना करो अभी हम हैं | उन्होंने कभी नहीं कहा कि हम तुम लोगों से बहुत प्यार करते हैं पर उनके अव्यक्त प्रेम को समझने की दृष्टि हमारे पास थी | अब आते हैं आज के पिता पर ….आज एकल परिवारों में , खासकर वहाँ जहाँ पति -पत्नी दोनों काम पर जाते हों , पिता की छवि में स्पष्ट परिवर्तन दिखता है | बच्चों को अकेले सही से पालना है तो माता -पिता दोनों को पचास प्रतिशत माँ और पचास प्रतिशत पिता होना ही होगा | पिताओं ने इस नए दायित्व को बखूबी निभाना शुरू किया है | अनुशासन का मुखौटा उतार कर वो बच्चों के दोस्त बन कर उनके सामने आये हैं | माँ का बच्चों और पिता के बीच सेतु बनने का रोल खत्म हुआ है | बच्चे सीधे पिता से संवाद कर रहे हैं और हल पा रहे हैं | ये रिश्ता बहुत ही खूबसूरत तरीके से अभिव्यक्त हो रहा है | जैसे पहले पिता और बच्चों के रिश्ते के बीच संवाद की कमी थी आज इस रिश्ते में दोस्ती के इस रिश्ते में बच्चे पिता का आदर करना नहीं सीख रहे हैं | जब पिता का आदर नहीं करते तो किसी बड़े का आदर नहीं करते | हम सब में से कौन ऐसा होगा जिसने ये संवाद अपने आस -पास ना सुना हो , ” चुप बैठिये अंकल , पापा !आपको तो कुछ आता ही नहीं , और सड़क पर , ” ए  बुड्ढे तू  होता कौन है हमरे बीच में बोलने वाला ” |एक कड़वी  सच्चाई ये भी है कि आज जितने माता -पिता बच्चों के मित्र बन रहे हैं उतने ही तेजी से वृद्धाश्रम खुल रहते | दोस्ती का ये रिश्ता दोस्ती में नो सॉरी नो थैंक यू की जगह … “थैंक यू पापा ” और समय आने “सॉरी पापा ‘में बदल रहा है | जो भी हो पिता और बच्चे का रिश्ता एक महत्वपूर्ण रिश्ता है , जिसमें हमेशा … Read more

प्रत्यंचा -समसामयिक विषयों की गहन पड़ताल करती रचनाएँ

कविता भावो  की भाषा है वो जबरदस्ती नहीं लिखी जा सकती , उसे जब हृदय के कपाट खोल कर भावों के निर्झर सी निकलना होता है, वो तभी निकलती है | कई बार लिखने वाला और पढने वाला अपने -अपने भाव जगत के आधार पर उसे ग्रहण करता है | समीक्षक का धर्म होता है कि वो कवि के भाव स्थल पर उतर कर रचना की व्याख्या करे |  हालंकि जब विश्व पुस्तक मेले में पंखुरी जी ने बड़े ही स्नेह के साथ अपना नया कविता संग्रह ‘ प्रत्यंचा ‘ मुझे भेंट किया था तो मैं उस पर तुरंत ही कुछ लिखना चाहती थी , पर दुनियावी जिम्मेदारियों ने भावनाओं के उस सफ़र से मुझे वंचित रखा | खैर हर चीज का वक्त मुकर्रर होता है तो अब सही ….और पंखुरी जी के शब्दों में कहें तो … बिम्ब ऐसे हों जो दिखें ना कविता वो जो  मुट्ठी में ना आये इसलिए नहीं कि मेरे तुम्हारे प्रेम की कविता है और उनके हाथों में इसलिए कि कविता से भी मुझे प्रेम है ….| प्रत्यंचा -समसामयिक विषयों की गहन पड़ताल करती रचनाएँ  यूँ तो प्रत्यंचा नाम पढ़ कर किसी युद्ध का अहसास होता होता है | जहाँ तीर हो कमान हो और निशाना साध  कर सीधे ह्रदय को बेध दिया जाए | लेकिन ये प्रत्यंचा अगर कोई कवि भी  ताने तो भी उससे निकले भावनाओं के तीर भी ह्रदय को बेधते  ही हैं , पर ये बिना रक्तपात किये उसके भाव जगत में उथल -पुथल मचा कर मनुष्य को पहले से ज्यादा परिमार्जित कर देते हैं | ऐसी ही एक प्रत्यंचा चढ़ाई है पंखुरी सिन्हा जी ने अपने कविता संग्रह ‘प्रत्यंचा” में| क्योंकि बात पंखुरी  जी की कविताओं की है तो पुष्पों की उपमा देना मुझे ज्यादा उचित लग रहा है | सच कहूँ तो इस काव्य संग्रह से गुज़रते हुए मुझे लगा कि मैं लैंटाना के फूलों के किसी उपवन से गुँजार रही हूँ  विभिन्न रंगों और आकारों के छोटे -छोटे फूलों के गुच्छे , जो सहज ही आपका ध्यान अपनी और आकर्षित कर लेते हैं | साहित्य जगत में पंखुरी सिन्हा जी के नाम से कोई अनभिज्ञ नहीं है | दो कहानी संग्रहों, दो हिंदी कविता संग्रहों और दो अंग्रेजी कविता संग्रहों की रचियता व साहित्य के अनेकों पुरुस्कारों द्वारा सम्मानित पंखुरी जी के  नवीनतम काव्य संग्रह ‘प्रत्यंचा ‘ से गुजरने की मेरी यात्रा बहुत सुखद रही | ये अलग बात है कि पंखुरी जी का पहला संग्रह कहानियों का था पर उन्हें पहला सम्मान कविता पर मिला | मैं जब से पंखुरी जी से जुडी हूँ मैंने ज्यादातर उनकी कवितायें ही पढ़ी हैं | कभी -कभी लगता है कि कहानी लिखी जाती है और कवितायें लिख जाती हैं ,खुद ब खुद क्योंकि वो दिल के बहुत पास होती हैं …और पाठक को भी उतनी ही अपनी सी महसूस होती हैं | पंखुरी जी की कविताओं की बात करें तो वो बहुत सहज हैं , जो उनका देखा , सुना अनुभव किया है , उसे वो बिना लाग -लपेट के पाठकों के सामने रख देती हैं , और पाठक को भी वो अपना अनुभव लगने लगता है | अब उनकी पहली कविता किस्से को ही देखिये | हम भारतीयों की किस्से सुनाने की बहुत आदत है | जहाँ चार लोग बैठ जाते हैं वहां किस्सागोई  शुरू हो जाती है …पर ये किस्सा है जमे हुए दही का | गाँवों और छोटे शहरों में आज भी मिटटी की हांडी में दही बेचा जाता है | अच्छे दही की पहचान हांडी की ठक -ठक की आवाज़ से होती है | पूरी तरह जम जाने और पत्थर हो जाने वाला दही ग्राह्य है | जब आप इस कविता में डूबेंगे तो ये किस्सा एक अलग ही किस्सा कहता है  इंसान के समाज द्वारा स्वीकृत होने का ,जीवन की विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में पत्थर सा मजबूत हुआ इंसान , जब बार -बार ठोंक पीट कर आजामाया जाता है तभी उसे सर आँखों पर बिठाया जाता है | दही अच्छा बताया जाता है स्वाद से नहीं ठक -ठक की आवाज़ से यानि उस खटखटाहट की आवाज़ से जो प्रतीकों में बताती है दही का जमना स्त्री विमर्श पर .. किसी स्त्री की कविताओं में स्त्री विमर्श के स्वर ना गूँजे ऐसा तो हो ही नहीं सकता | पंखुरी जी की  कविताओं में भी स्त्री सवाल उठाती है | वो साफ़ -साफ़ कहतीं हैं कि स्त्री के लिए चूडियाँ पहनना या उतारना उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता | ये समाज के आदेश से होता है | समाज ने तय कर रखा है को वो चूड़ी ना उतारे |आपने गाँवों में देखा होगा कि मनिहारिन से चूड़ी पहनने के समय औरते एक पुरानी चूड़ी डाले रहती है क्योंकि कलाई  पूरी तरह से खाली करने की इजाज़त नहीं होती | स्त्री की कलाई और स्त्री की ही चूड़ियाँ पर अफ़सोस कि उनको पहनने -उतारने का हक़ स्त्री को नहीं है | ज्यादातर इस किस्म की होती हैं स्त्री मुक्ति की बातें कि चूड़ी उतारने की इजाजत नहीं होती या फिर पहनने की दुबारा विधापीठ -दो —————- स्त्री जीवन का एक बड़ा सच ये है कि स्त्रियाँ अपनी उम्र छिपाती है , क्यों छिपाती हैं इसके अलग अलग कारण हो सकते हैं और एक कारण पंखुरी जी भी ढूंढ कर लायी हैं … स्त्रियों के साथ भी बिलकुल स्त्री अस्मिता का पहला कदम मन की बातें कुछ मन में ही रख लेना भी एक अदा है और जैसे उम्र भी हो मन ही की बात फॉर्म की लिखाई से बाहर विधापीठ -1 ————— कौन सी स्त्री होगी जिसका हृदय सीता माता के दुःख पर चीत्कार ना कर उठे | उनका दुखी हृदय रामराज्य पर सवाल करता है कि जिस राज्य में एक निर्दोष स्त्री बिना अपनी सफाई का अवसर दिए वन में छोड़ दिए जाने की सजा पाती है वो राम राज्य कैसा है ? वहीँ उनके अंदर आशा भी है कि वह  स्त्रियों को सम्मान  दिलाने वाले श्री कृष्ण तक एक पुल बना देने में गिलहरी की तरह इंटें ढोंगी |  ये बहुत गंभीर बात है कि उस पुल के बन जाने से ही सीता का उद्धार है | हम सब स्त्रियाँ वो गिलहरी हैं … Read more

श्रम का सम्मान

अक्सर शारीरिक श्रम को मानसिक श्रम की तुलना में कमतर आँका जाता है पर क्या पेट भरा ना हो तो  चाँद पर जाने के ख्वाब पाले जा सकते हैं या फिर सड़कों पर लगे कूड़े के ढेर हमारे घरों को साफ़ रखने की तमाम कोशिश के बावजूद हमारे शरीर को बीमार बना ही देंगे | और इन सबसे बढ़कर हम महिलाएं जो कुछ घर के बाहर निकल कर काम कर पा रही हैं उनके पीछे हमारी  घरेलु सहायिकाओं की अहम् भूमिका से भला कौन इंकार कर सकता है | तो क्या क्या जरूरी नहीं है कि हम शारीरिक श्रम का भी सम्मान करना सीखें |  श्रम का सम्मान  आज जब सुबह घरेलु सहायिका कमला के लिए दरवाजा खोला तो रोज की तरह ना वो मुस्कुराई , ना दुआ , ना सलाम | चेहरा देख कर लगने लगा कि का मूड बहुत ख़राब है |  पूछने पर कहने लगी , ” सरू भाभी के कल रूपये चोरी हो गए …कल शाम को ही घर फोन पहुँच गया ,बात नहीं बताई , बस  तुरंत ही बुलाया | हम भी आनन -फानन में रिक्शा कर के उनके घर गए | घर पहुँचते ही मुझसे पूछने लगीं , मेरे रुपये खो गए हैं , बड़ी रकम थी , तुम ने ही लिए हैं , तुम्हीं कपड़े धोती हो , बता दो ? दे दो ?  मैं तो एकदम सकते में आ गयी | कितने रुपये थे , पूछने पर बताया भी नहीं | फिर थोड़ी देर बाद दूसरे कमरे में जाकर बेटे से बात की फिर आ कर खुद ही कहने लगीं ठीक है घर जाओ , साथ में ताकीद दी कि किसी को बताना नहीं | शायद मिल गए …पर वो भी बताया नहीं | बस जी में आया तो इल्जाम लगा कर गरीब की इज्जत उछाल दी |  बताइये भाभी , दस साल से काम कर रहे हैं , हमेशा इधर -उधर पड़े पैसे उठा -उठा कर देते रहे , वो सब भूल गयीं | उनके घर में इतने मेहमान आये हुए हैं , उनमें से किसी से नहीं कहा , क्या उनका ईमान नहीं डोल सकता ? लेकिन उनसे कहने की हिम्मत नहीं पड़ी | सारे दोष गरीब में ही नज़र आते हैं … अमीर क्या कम पैसा मारते हैं | भाभी, मैंने काम छोड़ दिया , साथ ही उन्हें सुना भी आई, ” आप को काम वालों की इज्ज़त करना सीखना चाहिए | हम भीख नहीं मांग रहे हैं , मेहनत कर के पैसे कमा रहे हैं , वैसे ही जैसे आप पढ़े लिखे हैं आप लिखाई -पढाई वाली   नौकरी कर के पैसे कमा रहे हैं …. इज्ज़त दोनों की बराबर है … और अगर आप कुछ तीज – त्यौहार पर कुछ दे देती हैं तो आप को जहाँ आप काम कर रही हैं वहाँ बोनस मिलता हैं…. दुनिया को दिमाग के काम की जरूरत है तो हाथ के काम की भी जरूरत है |हम लोगों को काम की कमी नहीं है , काम की कमी पढ़े -लिखों को हैं …. वो बोले जा रही थी , बोले जा रही थी … और मैं अपनी मेहनत पर भरोसा रखने वाली उस स्वाभिमानी स्त्री के आत्मसम्मान पर गर्व के आगे नतमस्तक हुई जा रही थी |  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … तन्हाँ सुरक्षित छुटकारा चॉकलेट केक आपको  लघु कथा   “श्रम का सम्मान “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें  filed under – hindi story, emotional story in hindi, unskilled labour, mental work vs physical work, Domestic help, maid

फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा

कहते हैं शक की दवा को हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी | यूँ  तो ये भी कहा जाता है कि रिश्ते वही सच्चे और दूर तक साथ चलने वाले होते हैं जहाँ आपस में विश्वास हो और रिश्ते की जमीन पर शक का कीड़ा दूर -दूर तक ना रेंग रहा हो , पर रिश्तों में कभी न कभी शक आ ही जाता है ,खासकर पति -पत्नी के रिश्ते में | लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि कोई जबरदस्ती शक आपके दिमाग में घुसा दे ? ये काम करने वाला कोई जान -पहचान वाला नहीं हो , बल्कि ऐसा हो जिससे आपका दूर -दूर तक नाता ही ना हो , और आप की शक मिजाजी में उसका फायदा हो | इंटरनेट की दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं  हैं | ऐसी ही एक साईट है फिडेलिटी डॉट कॉम और यही है सशक्त कथाकार प्रज्ञा जी की ‘नया ज्ञानोदय’ मई अंक में प्रकाशित कहानी का विषय | हमेशा नए विषय लाने और अपनी कहानियों में आस -पास के जीवन का खाका खींच देने में प्रज्ञा जी सिद्धहस्त हैं | उनकी लंबी -लंबी कहानियाँ पढने के बाद भी लगता है की काश थोड़ा  और पढ़ें | उनके हाल में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘मन्नत टेलर्स ‘में ‘उलझी यादों के रेशम ‘, ‘ मन्नत टेलर्स ‘व् कुछ अन्य कहानियाँ पाठक को अपने भाव जगत में डूब जाने को विवश कर ती हैं | उसके बारे में कभी विस्तार से चर्चा करुँगी , फिलहाल फिडेलिटी डॉट कॉम के बारे में … फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा  ये कहानी एक ऐसी लड़की विनीता के बारे में हैं , जो अपने कड़क मामाजी के अनुशासन में पली है | घर के अतरिक्त कहीं जाना , नौकरी करना उसे रास ही नहीं आता | विवाह के बाद उसके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन होता है , जब उसे अपने पति सुबोध के साथ कोच्चि में रहना पड़ता | अनजान प्रदेश , अजनबी भाषा ऊपर से सुबोध के मार्केटिंग में होने के कारण बार -बार लगने वाले टूर | अकेलापन उसे घेरने लगता है , लोगों से संवाद मुस्कुराहट से ऊपर जा नहीं पाता , और टीवी अब सुहाता नहीं | ऐसे में सुबोध उसे टैबलेट  पर फेसबुक और इन्टरनेट की दुनिया से जोड़ देता है | उसके हाथ में तो जैसे खजाना लग जाता है …रिश्तों के विस्तृत संसार के बीच अब अकेलापन जैसे गुज़रे ज़माने की बात लगने लगती है  | इन्टरनेट की दुनिया में इस साईट से उस साईट को खंगालते हुए एक पॉप अप विज्ञापन पर उसकी निगाह टिकती है, ” क्या आपको अपने साथी पर पूरा भरोसा है ? क्या करते हैं आप के पति जब काम पर बाहर जाते हैं ? क्या आप जानना चाहती हैं ? ना चाहते हुए भी वो उस पर क्लिक कर देती है | फिडेलिटी डॉट कॉम वेबसाईट का एक नया संसार उसके सामने खुलता है | जहाँ फरेबी पति -पत्नियों के अनेकों किस्से हैं , घबरा देने वाले आँकड़े हैं और खुद को आश्वस्त करने के लिए अपने जीवनसाथी की जासूसी करने के तरीके भी | दिमाग में शक का एक कीड़ा रेंग जाता है | जो चीजे अभी तक सामान्य थी असमान्य लगने लगतीं हैं | छोटे -छोटे ऊलजलूल प्रश्नों के हाँ में आने वाले उत्तरों से मन की  जमीन पर पड़े शक की नीव के ऊपर अट्टालिकाएं खड़ी होने लगतीं है और विज्ञापन की चपेट में आ कर वो , वो करने को  हामी बोल देती है जो उसका दिल नहीं चाहता | यानि की फिडेलिटी डॉट कॉम पर क्लिक करके अपनी पति की जासूसी करने का उपकरण खरीदने को तैयार हो जाती है और एक बेल्ट के लिए ओके कर देती है | ये वो जासूसी उपकरण होते है जो ऐसे कपड़ों पर लागाये जाते हैं जो उस व्यक्ति के हमेशा पास रहे | जिससे वो कहाँ जाता है , क्या करता है इसकी पूरी भनक उसके जीवन साथी को मिलती रहे |  हालाँकि बाद में खुद ही उसे इस बात का अफ़सोस होने लगता है कि उसने ये क्यों किया | कहानी में उसके मन का अंतर्द्वंद बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है | जैसे -जैसे कहानी आगे बढती है , पाठक आगे क्या होगा जानने के लिए दिल थाम कर पढता जाता  है | कहानी सकारात्मक और हलके से चुटीले अंत के साथ समाप्त होती है परन्तु ये बहुत सारे प्रश्न पाठक के मन में उठा देती है कि इन्टरनेट किस तरह से हमारे निजी जीवन व् रिश्तों में शामिल हो गया है और एक जहर घोलने में कामयाब भी हो रहा है | ऐसी तमाम साइट्स पर हमारी निजता को दांव पर लगाने वाला हमारा अपना ही जीवन साथी हो सकता है | लोगों से जोड़ने वाला हमें अपनों से दूर कर देने का तिलिस्म भी रच रहा है , जिसमें जाने अनजाने हम सब फँस रहे हैं | एक नए रोचक व् जरूरी कथ्य , सधे हुए शिल्प व् प्रस्तुतीकरण के लिए प्रज्ञा जी को बधाई वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … रहो कंत होशियार -सिनीवाली शर्मा की कहानी की समीक्षा भूख का पता -मंजुला बिष्ट की कहानी समीक्षा आपको समीक्षात्मक  लेख “फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- Book Review, kahani sangrah, story  in hindi , review, story review

एक नींद हज़ार सपने –आस -पास के जीवन को खूबसूरती से उकेरती कहानियाँ

सपने ईश्वर द्वारा मानव को दिया हुआ वो वरदान है, जो उसमें जीने की उम्मीद जगाये रखते हैं  | यहाँ पर मैं रात में आने वाले सपनों की बात नहीं कर रही हूँ बल्कि उन सपनों की बात कर रही हूँ जो हम जागती आँखों से देखते हैं और उनको पाने के लिए नींदे कुर्बान कर देते हैं | “एक नींद हज़ार सपने” अंजू शर्मा जी का ऐसा ही सपना है जिसे उन्होंने जागती आँखों से देखा है, और पन्ने दर पन्ने ना जाने कितने पात्रों के सपनों को समाहित करती गयी हैं | एक पाठक के तौर पर अगर मैं ये कहूँ कि इस कहानी संग्रह को पढ़ते हुए मेरे लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा था कि मैं सिर्फ कहानियाँ पढ़ रही हूँ या शब्दों और भावों की अनुपम चित्रकारी में डूब  रही हूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी | अंजू जी, कहानी कला के उन सशक्त हस्ताक्षरों में से हैं जिन्होंने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो भावों की तूलिका से कागज़ के कैनवास से शब्दों के रंग भरती हैं …कहीं कोई जल्दबाजी नहीं, भागमभाग नहीं और पाठक उस भाव समुद्र में  डूबता जाता है…डूबता जाता है |  एक नींद हज़ार सपने –आस -पास के जीवन को खूबसूरती से  उकेरती कहानियाँ  ‘गली नंबर दो’  इस संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी एक ऐसे युवक भूपी के दर्द का दस्तावेज है जो लम्बाई कम होने के कारण हीन भावना का शिकार है | भूपी मूर्तियाँ बनाता  है , उनमें रंग भरता है , उनकी आँखें जीवंत कर देता है , पर उसकी दुनिया बेरंग है , बेनूर है … वो अपने मन के एक तहखाने में बंद है , जहाँ एकांत है , अँधेरा है और इस अँधेरे में गड़ती  हुई एक टीस  है जो उसे हर ऊँची चीज को देखकर होती है | किसी की भी साइकोलॉजी  यूँ ही नहीं बनती, उसके पीछे पूरा समाज दोषी होता है | बचपन से लेकर बड़े होने तक कितनी बार ठिगने कद के लिए उसे दोस्तों के समाज के ताने सुनने पड़े हैं | एक नज़ारा देखिये … “ओय होय, अबे तू जमीन से बाहर आएगा या नहीं ?” ‘भूपी तू तो बौना लगता है यार !!! ही, ही ही !!’ “अबे, तू सर्कस में भरती क्यों नहीं हो जाता, चार पैसे कम लेगा|” “साले तेरी कमीज में तो अद्धा कपडा लगता होयेगा, और देख तेरी पेंट तो चार बिलांद की भी नहीं होयेगी |”                                          किसी इंसान का लम्बा होना, नाटा  होना , गोरा या काला होना उसके हाथ में कहाँ होता है | फिर भी हम सब ऐसे किसी ना किसी व्यक्ति का उपहास उड़ाते रहते हैं या दूसरों को उड़ाते देखते रहते हैं ….इस बात की बिना परवाह किये कि ये व्यक्ति के अंदर कितनी हीन भावना भर देगा | भूपी के अंदर भी ऐसी ही हीन ग्रंथि बन गयी जो उसे मौन में के गहरे कुए में धकेल देती है | ग्लैडिस से लक्ष्मी बन कर पूरी तरह से भारतीय संस्कृति में रची बसी भूपी की भाभी , उसके काम में उसकी मदद करती | लक्ष्मी का चरित्र अंजू जी ने बहुत खूबसूरती से गढ़ा है ,ये  आपको अपने आस –पास की उन महिलाओं की याद दिला देगा जो विवाह के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसी रची कि यहीं की हो के रह गयीं | खैर, भूपी के लिए सोहणी का विवाह प्रस्ताव आता है जिसके पिता की ८४ के दंगों में हत्या  हो चुकी है और रिश्तेदारों के आसरे जीने वाली उसकी माँ किसी तरह अपनी बेटी के हाथ पीले कर देन चाहती हैं | भूपी के विपरीत सोहणी खूब –बोलने वाली, बेपरवाह –अल्हड़ किशोरी है जिसके पास रूप –रंग व् लंबाई भी है …वही लम्बाई जो भूपी को डराती है | भूपी और सोहणी का विवाह हो जाता है पर उसकी लंबाई भूपी को अपने को और बौना महसूस  कराने लगती है| सोहणी को कोई दिक्कत नहीं है पर ये हीन ग्रंथि, ये भय जो भूपी ने पाला है वो उनके विवाहित जीवन में बाधक है … कहानी में पंजाबी शब्दों का प्रयोग पात्रों को समझने और उनके साथ जुड़ने की राह आसान करता है | कहानी बहुत ही कलात्मकता से बुनी गयी है | जिसके फंदे-फंदे में पाठक उस कसाव को मह्सूस करता  है जो कहानी की जान है | एक उदाहरण देखिये … भूपी को दूर –दूर तक कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा , एक कालासाया उसके करीब नुमदार  हुआ और धीरे –धीरे उसे जकड़ने लगा | भूपी घबराकर उस साए से खुद को छुडाना चाहता है | वह लगभग जाम हो चुके हाथ –पैरों को झटकना चाहता है , पर बेबस है , लाचार है | “ समय रेखा “  संग्रह की दूसरी कहानी है | ये कहानी मेरी सबसे पसंदीदा दो कहानियों में से एक है, कारण है इसका शिल्प …जो बहुत ही परिपक्व लेखन  का सबूत है | अंजू जी के लेखन की यह तिलस्मी, रहस्यमयी शैली मुझे बहुत आकर्षित करती है, साथ ही इस कहानी दार्शनिकता इसकी जान है |  कहानी का सब्जेक्ट थोड़ा बोल्ड है और वो आज की पीढ़ी को  परिभाषित करता है | ये कहानी अटूट बंधन पत्रिका में भी प्रकाशित हुई है और  आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं | वैसे तो ये कहानी बेमेल रिश्तों पर आधारित है  | आज हम देखते हैं कि बेमेल रिश्ते ही नहीं प्रेम विवाह भी टूटते हैं …इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि प्रेम होना और प्रेम में पड़ जाना दो अलग-अलग चीजें हैं | प्रेम में पड़ जाने के पीछे कई मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं , जो उस समय समझ नहीं आते पर साथ रहने , या ज्यादा समय साथ गुज़ारने से मन की पर्ते खुलती हैं , प्रेम में पड़ जाने का कारण समझ में आता है , फिर होता है अंतर्द्वंद … कहानी की शुरुआत ही खलील जिब्रान के एक कोटेशन से होती है .. . “प्रेम के अलावा प्रेम में और कोई इच्छा नहीं होती |पर अगर तुम प्रेम करो और तुमसे इच्छा किये बिना रहा ना जाए तो यही इच्छा करो कि तुम पिघल जाओ प्रेम के रस में और प्रेम के इस पवित्र … Read more

प्रो लाइफ या प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून

माँ बनना दुनिया के सबसे खूबसूरत अनुभवों में से एक है | किसी कली  को अपने अंदर फूल के रूप में विकसित होते हुए महसूस करने का अहसास बहुत सुखद है | कौन स्त्री है जो माँ नहीं बनना चाहती | फिर भी कई बार उसे ग्राभ्पात करवाना पड़ता है | गर्भपात का दर्द बच्चे को जन्म देने के दर्द से कई गुना ज्यादा पीड़ा दायक है …फिर भी स्त्री इससे गुजरने के पक्ष में निर्णय लेती है… तो यकीनन कोई बड़ा मसला ही होगा | ( यहाँ केवल लिंग परिक्षण के बाद हुए गर्भपातों को सन्दर्भ में ना लें , वो गैर कानूनी हैं )परन्तु अब ये बात फिरसे उठने लगी है कि गर्भपात को पूरी तरह से गैर कानूनी करार दे दिया जाए | खास बात ये है कि ये मान किसे विकासशील देश नहीं विकसित देश अमेरिका से उठ रही है | प्रो लाइफ या  प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून  प्रो लाइफ और प्रो चॉइस  के पक्ष और विपक्ष का वैचारिक विरोध कोई नयी बात नहीं है | हम सब जीवन के पक्ष में है | फिर भी अगर इन परिस्थितियों पर गौर करा जाए जहाँ स्त्री गर्भपात के अधिकार की मांग करती है … बालात्कार से उत्पन्न बच्चे धोखा देकर भागे प्रेमी से उत्पन्न बच्चे ऐसा भ्रूण जिसे कोई ऐसा रोग हो जो उसे जीवन भर असहाय बना दे | ऐसा भ्रूण जिसका गर्भ में पलना माँ के जीवन को खतरा हो | या स्त्री मानसिक रूप से इसके लिए तैयार ना हो | चाहे इसका कारण उसका कैरियर हो या बच्चा पालने की अनिच्छा | प्रो चॉइस महिलाओं को ये अधिकार देता है कि ये शरीर उनका है और उसमें बच्चे को पालने या जन्म देने का अधिकार  उनका है | जबकी प्रो लाइफ का कहना है कि किसी भी जीव चाहें वो भ्रूण अवस्था में ही क्यों ना हो उसका जीवन खत्म करने का अधिकार किसी को नहीं है | यूँ तो प्रो लाइफ के तर्क बहुत सही लगते हैं ,क्योंकि वो जीवन के पक्ष में है , लेकिन प्रो चॉइस के अधिकार पाने के लिए महिलाओं को बहुत संघर्ष करना पड़ा , क्योंकि गर्भपात हमेशा से कानूनी रूप से गलत माना जाता रहा है |  अभी हाल में अमेरिका के ओकलाहोमा में प्रो लाइफ के पक्ष में निर्णय देते हुए गर्भपात को पूरी तरह से गैर कानूनी बना दिया जिसमें गर्भपात करने वाले डॉक्टर को भी 99 वर्ष के लिए जेल जाना पड़ेगा | जाहिर है कोई डॉक्टर ये खतरा नहीं उठाएगा | ऐसा करने वाला ये राज्य अमेरिका का पांचवां राज्य है | तो क्या महिलाएं गर्भपात नहीं करवाएगी ? जहाँ विवाहित दंपत्ति  प्रेम पूर्ण साथ -साथ रहते हैं वहां वो वैसे भी भी बच्चे को लाने या नहीं लाने का निर्णय साथ –साथ करते हैं और अगर बिना मर्जी के बच्चा आ ही गया तो उसे सहर्ष पाल ही लेते हैं |( फिल्म –बधाई हो जो असली जिंदगी की ही कहानी है  ) परन्तु ऊपर लिखे सभी कारणों में अगर स्त्री  गर्भपात नहीं करवा पाएगीं तो वो क्या करेगी … उन बच्चों ओ जन्म देकर कूड़े में फेंकेंगी , या अनाथालयों मे भेजेंगी ,क्योंकि रेप चाइल्ड या धोखेबाज प्रेमी से उत्पन्न बच्चों को पालने, उस बच्चे को देखकर उस सदमे के साथ हमेशा जीने के लिए विवश करता है , जबकि बच्चे का पिता पूर्ण रूप से उस बच्चे और अपने कर्तव्यों के प्रति आज़ाद रहता है | प्रो चॉइस स्त्री को ये अधिकार देता है कि केवल वो ही दंडित ना हो | या फिर खराब भ्रूण के कारण अल्प मृत्यु का शिकार होंगी | जैसे की भारतीय मूल की सविता की २०१२ में आयरलैंड में मृत्यु हो गयी थी | जिसके गर्भ में पलने वाला भ्रूण खराब था और उससे माँ की जान को खतरा था | परन्तु कोई डॉक्टर गर्भपात  के लिए तैयार नहीं हुआ क्योंकि उस समय वहाँ का कानून यही था कि  किसी भी तरह का गर्भपात गैर कानूनी है | उनके पति द्वारा अदालत में गुहार लगाने के बावजूद सविता को नहीं बचाया जा सका और वो मृत्यु का शिकार हुई |उसके बाद वहां हुए विरोध प्रदर्शनों के मद्देनज़र वहां की सरकार को कानून में बदलाव करना पड़ा कि स्त्री की अगर जान को खतरा हो तो उस भ्रूण का गर्भपात  करवाया जा सकता है | कानून बनने के बाद भी बहुत सी स्त्रियाँ गर्भपात करवाएंगी पर वो अप्रशिक्षित व् अकुशल दाइयों और झोला छाप डॉक्टरों द्वारा होगा …जिसमें स्त्री के जीवन को खतरा है |                             जीवन का अंत करना भले ही सही ना हो परन्तु ख़ास परिस्थितियों में किसी स्त्री , किसी भावी माँ के शारीरिक , मानसिक स्थिति को देखते हुए ये जरूरी हो जाता है कि महिलाओं के पास ये अधिकार रहे कि वो बच्चे को जन्म दे या नहीं | आप क्या कहते हैं ? वंदना बाजपेयी  फेसबुक और महिला लेखन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती करवाचौथ के बहाने एक विमर्श आपको आपको  लेख “  प्रो लाइफ या  प्रो चॉइस …स्त्री के हक़ में नहीं हैं कठोर कानून “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |     filed under-pro-life, pro-choice, abortion, laws for abortion,women issues

माँ के सपनों की पिटारी

सूती धोती उस पर तेल -हल्दी के दाग , माथे पर पसीना और मन में सबकी चिंता -फ़िक्र | माँ तो व्रत भी कभी अपने लिए नहीं करती | हम ऐसी ही माँ की कल्पना करते हैं , उसका गुणगान करते हैं …पर क्या वो इंसान नहीं होती या माँ का किरदार निभाते -निभाते वो कुछ और रह ही नहीं जाती , ना रह जाते हैं माँ के सपने  माँ के सपनों की पिटारी  कल मदर्स डे था और सब अपने माँ के प्यार व् त्याग को याद कर रहे थे | करना भी चाहिए ….आखिर माँ होती ही ऐसी हैं | मैंने भी माँ को ऐसे ही देखा | घर के हज़ारों कामों में डूबी, कभी रसोई , कभी कपड़े कभी बर्तनों से जूझती, कभी हम लोगों के बुखार बिमारी में रात –रात भर सर पर पट्टी रखती, आने जाने वालों की तीमारदारी करती | मैंने माँ को कहीं अकेले जाते देखा ही नहीं , पिताजी के साथ जाना सामान खरीदना , और घर आ कर फिर काम में लग जाना |अपने लिए उनकी कोई फरमाइश नहीं , हमने माँ को ऐसी ही देखा था …बिलकुल संतुलित, ना जरा सा भी दायें, ना जरा सा भी बायें |  उम्र का एक हिस्सा निकल गया | हम बड़े होने लगे थे | ऐसे ही किसी समय में माँ मेरे व् दीदी के साथ बाज़ार जाने लगीं | मुझे सब्जी –तरकारी के लिए खुद मोल –भाव करती माँ बहुत अच्छी लगतीं | कभी –कभी कुछ छोटा-मोटा सामान घर –गृहस्थी से सम्बंधित खुद के लिए भी खरीद लेती , और बड़ी ख़ुशी से दिखातीं | उस समय उनकी आँखों की चमक देखते ही बनती थी | मुझे अभी भी याद है कि हम कानपुर में शास्त्री नगर बाज़ार में सब्जियां लेने गए थे , वहाँ  एक ठेले पर कुछ मिटटी के खिलौने मिल रहे थे | माँ उन्हें देखने लगीं | मैं थोड़ा पीछे हट गयी | बड़े मोल –तोल से उन्होंने दो छोटे –छोटे मिटटी के हाथी खरीदे और मुझे देख कर चहक कर पूछा ,” क्यों अच्छे हैं ना ?” मेरी आँखें नम हो गयीं |  घर आने के बाद पिताजी व् बड़े भैया बहुत हँसे कि , “ तुम तो बच्चा बन गयीं , ये क्या खरीद लायी, फ़ालतू के पैसे खर्च कर दिए | माँ का मुँह उतर गया | मैंने माँ का हाथ पकड़ कर सब से कहा, “ माँ ने पहली बार कुछ खरीदा है , ऐसा जो उन्हें अच्छा लगा , इस बात की परवाह किये बिना कि कोई क्या कहेगा,ये बहुत ख़ुशी का समय है कि वो एक माँ की तरह नहीं थोड़ा सा इंसान की तरह जी हैं |”  लेकिन जब मैं खुद माँ बनी , तो बच्चों के प्रेम और स्नेह में भूल ही गयी कि माँ के अतिरिक्त मैं कुछ और हूँ | हालांकि मैं पूरी तरह से अपनी माँ की तरह नहीं थी , पर अपने लिए कुछ करना बहुत अजीब लगता था | एक अपराध बोध सा महसूस होता |  तब मेरे बच्चों ने मुझे अपने लिए जीना सिखाया | अपराधबोध कुछ कम हुआ | कभी -कभी लगता है मैं आज जो कुछ भी कर पा रही हूँ , ये वही छोटे-छोटे मिटटी के हाथी है ,जो माँ के सपनों से निकलकर मेरे हाथ आ गए हैं |   ये सच है कि बच्चे जब बहुत छोटे होते हैं तब उन्हें २४ घंटे माँ की जरूरत होती है , लेकिन एक बार माँ बनने के बाद स्त्री उसी में कैद हो जाती है , किशोर होते बच्चों की डांट खाती है, युवा बच्चे उसको झिडकते, बहुत कुछ छिपाने लगते हैं ,और विवाह के बाद अक्सर माँ खलनायिका भी नज़र आने लगती है | तमाम बातें सुनती है , मन को दिलासा देती है ,  पर वो माँ की भूमिका से निकल कर एक स्त्री , इक इंसान बन ही नहीं पाती | क्या ये सोचने की जरूरत नहीं कि माँ के लिए दुनिया इतनी छोटी किसने कर दी है ?   माँ के त्याग और स्नेह का कोई मुकाबला नहीं हो सकता, लेकिन जब बच्चे बड़े हो जाए तो उनका भी फर्ज है कि खूबसूरत शब्दों , कार्ड्स , गिफ्ट की जगह उन्हें , उनके लिए जीवन जीना भी सिखाये | घर की हथेली पर बूँद भर ही सही पर उसके भी कुछ सपने हैं , या किसी ख़ास तरह से जीने की इच्छा ,बस थोडा सा दरवाजा खोल देना है , खुद ही वाष्पीकृत हो कर अपना रास्ता खोज लेंगे |  मेरी नानी ने एक पिटारी दी थी मेरी माँ को, उसमें बहुत ही मामूली चीजें थी , कुछ कपड़ों की कतरने , कुछ मालाएं , कुछ सीप , जिसे खोल कर अक्सर माँ रो लिया करती | सदियों से औरतें अपनी बेटियों को ऐसी ही पिटारी सौंपती आयीं है, जो उन्होंने खोली ही नहीं होती है …उनके सपनों की पिटारी | कोशिश बस इतनी होनी चाहिए कि कोई भी माँ ये पिटारी बच्चों को ना सौंप कर अपने जीवन काल में ही खोल सके | मदर्स डे का इससे खूबसूरत तोहफा और क्या हो सकता है | क्या आप अपनी माँ को ये तोहफा नहीं देना चाहेंगे |  यह भी पढ़ें … महिला सशक्तिकरण –नव सन्दर्भ , नव चुनौतियाँ विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों ? पुलवामा हमला -शर्मनाक है सोशल मीडिया का गैर जिम्मेदाराना व्यव्हार बदलाव किस हद तक अहसासों का स्वाद आपको लेख    “माँ के सपनों की पिटारी  “  कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords-mother’s day, mother, mother-child, daughter