आइना देखने की दूसरी पारी

अंदाज अपना देखते हैं , आईने में वो, और ये भी देखते हैं कोई देखता ना हो                        निजाम राम पूरी जी का ये शेर जब युवावस्था की दहलीज पर पढ़ा था, तो उसका असर कई दिन तक मन की किताब पर काबिज रहा था, पर जैसा कहते हैं न कि फैशन पलट कर आता है , वैसेही ये शेर भिजीँ में दुबारा पलट कर आया …पर इस बार बड़ा ही खतरनाक मालूम पड़ा | कैसे ?… आइना देखने की दूसरी पारी  ये आइना भी बड़ा अजीब है , न जाने क्या –क्या दिखाता है | बचपन में आपने भी जब पहली बार आइना देखा होगा तो लगा होगा  इसमें कोई  दूसरा बच्चा है जो आपके साथ खेलना चाहता है | दूसरे बच्चे का तो नहीं पर आईने का खेल उसी दिन शुरू हो जाता है | किशोरावस्था तक आते –आते हर आम और खास को आइना पूरी तरह गिरफ्त में ले ही लेता है |ख़ास तौर से अगर लड़कियों की बात करें तो  कौन लड़की होगी जो इस उम्र में दस बार आइना ना देखती हो | जी हाँ गौर  से आइना देखने की पहली उम्र  तब होती है जब लड़की  उम्र के  १५ वें १६ वें पायदान पर दस्तक देती है | अपने पर रीझ कर आइना देखने की उम्र के आते ही घर वाले समझ जाते है कि  बच्ची अब सयानी हो रही है | लेकिन आइना गौर से देखने की दूसरी उम्र भी आती है …पर ये बुढापे की कमसिनी यानि प्रौढ़ावस्था की दस्तक होती है | इस  भयानक अनुभव में खुद पर रीझने के स्थान पर खीझना होता है | आप भले ही हँस लें पर मेरे द्वारा ये लेख लिखने का उद्देश्य एक मासूम का प्रश्न है कि उम्र के इस दौर में आइना देखने के बाद … “मेरे दिल में होता है जो , तेरे दिल में होता है क्या ?” और अगर आप का उत्तर “होता तो है थोड़ा –थोड़ा “ है तो अभी से संभल जाइए | चलिए बात शुरू करते हैं उस दौर से जो गुज़र गया यानि कि जब  हमारी भी १५- १६ की उम्र थी | तब भैया और पिताजी से छुपकर आइना देख लिया करते थे | अलबत्ता माँ कभी –कभी ये चोरी पकड़ लेती और धीरे से मुस्कुरा देती | माँ को इस बात का तकाजा था कि लडकियां इस उम्र में आइना देखती ही है |  आइना देखते –देखते उम्र खिसकने लगी और जीवन में पतिदेव का पदार्पण हुआ , और आईने का काम उनकी आँखों से लिया जाने लगा | कभी तैयार होने के बाद उनकी आँखों में आई चमक को देखकर,  बस प्रकाश के नियमों पर चल कर परावर्तन करने वाला आइना  भाने ही नहीं लगा | बच्चों के होने के बाद घर गृहस्थी के तथाकथित जंजाल में फंसने के बाद तो आइना एक गैर जरूरी चीज सा कमरे के कोने में बैठा अपने अच्छे दिनों को रोता | कारण ये था कि सजने संवारने की फुरसत ही नहीं मिलती | बाल कढ गए हैं , बिंदी ठीक जगह लगी गई, माँग ठीक से भर गयी  … बस इतना काफी लगता  | अलबत्ता शादी ब्याह –कामकाज और तीज त्योहारों में उसके दिन बहुरते …हालांकि उसे शिकायत रहती थी और कभी –कभी बहुत प्यार से उलाहन देता ,  कि आप तो ईद का चाँद हो गयी हैं, अरे हम तो रोज दीदार करने  की चीज हैं और आप कभी तवज्जो ही नहीं देती | पर हम भी आम भारतीय नारियों की तरह  काम , काम और काम की धुन पर इस तरह नाचते रहते कि आईने की फ़रियाद अनसुनी ही रह जाती |    हालांकि कुछ हमसे कुछ बड़ी उम्र की अनुभवदार महिलाएं हमें समझाती भी थी कि, “हर समय काम के चक्कर में यूँ अपनी बेख्याली ना करो ,कुछ अपने साज श्रृंगार पर ध्यान दो, आईने का डसा पानी भी नहीं मांगता |”पर हम अपनी ही रौ में उनकी एक ना सुनते | फिर रहीम दास जी भी तो कह गए हैं कि  रहीमदास जी कह गए हैं कि,  “ तिनका  कबहूँ ना निंदिये”  … और हम तो आईने की उपेक्षा दर उपेक्षा करने पर तुले थे , उसे बदला तो लेना ही था | उसे उम्मीद थी की कभी तो ऊँट आएगा पहाड़ के नीचे और खुदा कसम उसका इंतज़ार मुक्कमल हुआ और कल वो दिन आ ही गया | कल वुधवार की बाज़ार में सस्ता सामान लेने की फिराक में ‘बिग बाज़ार’की ‘वैरी बिग’ लाइन में लगे थे कि एक महिला मेरे पास आई और बोली , “ दीदी मैं आपके पीछे खड़ी हूँ , एक सामान छूट गया है लेकर आती हूँ |”,”दीदी “ शब्द पर ध्यान गया , हमने उन्हें गौर से देखा उम्र में हमसे बड़ी ही लग रहीं थी ,शायद भीड़ में हमें ठीक से देखा नहीं होगा सोचकर हमने दिल को तसल्ली दी और लाइन में जमें रहे | तभी एक अन्य महिला आई (यकीनन वो ६० के पार होगी ) और हमें देखकर बोली , “ आंटी जी ये कैश की लाइन है या पे.टी .एम की |” “कैश की” हमने उनको उत्तर तो दे दिया पर सबसे सस्ता वार वुधवार का नशा सर से उतर गया | सामान के थैले लादे हुए हाँफते –दाफते घर आते हुए हमने इसका सारा दोष अपने बालों को दिया | उन्हीं बालों को , जिनके बारे में हम ये सोचते हुए इतराते नहीं थे कि ४५… पार करने के बाद भी हमारे सिर्फ दो-चार-दस  बाल ही सफ़ेद हुए हैं वर्ना आजकल तो लड़कियों के २८ -३० में ही बाल सफ़ेद होने लगते हैं | पर आज हमें लगा कि उस महिला ने अपने बाल डाई कर रखे थे और हम अपने आठ –दस सफ़ेद बालों के साथ आंटी नज़र आ रहे थे लिहाज़ा उसने इनका फायदा उठाया | अपने टूटे दिल पर लेप लगाने के लिए  घर आकर अपने को काम में उलझा लिया | ये दर्द भी दवा सा लगा |तभी बेटी पास आई और बोली मम्मी जरा हंस कर दिखाओं | उसकी इस बात पर हंसी स्वाभाविक रूप से आगई | मैंने हंसी रोक कर … Read more

कुछ अनकहा सा -स्त्री जीवन के कुछ अव्यक्त दस्तावेज

                            बातें , बातें और बातें …दिन भर हम सब कितना बोलते रहते हैं …पर क्या हम वो बोल पाते हैं हैं जो बोलना चाहते हैं | कई बार बार शब्दों के इन समूहों के बीच में वो दर्द छिपे रहते हैं हैं जो हमारे सीने में दबे होते हैं क्योंकि उनको सुनने वाला कोई नहीं होता या फिर कई बार उन शब्दों को कह पाना हमारी हिम्मत की परीक्षा लेता है , आसान नहीं होता अपने बाहरी समाज स्वीकृत रूप के आवरण के तले अपने मन में छुपी उस  नितांत निजी पहचान को खोलना जिसको हम खुद भी नहीं देखना चाहते …शायद इसी लिए रह जाता है बहुत कुछ अनकहा सा ..और इसी अनकहे  को शब्द देने की कोशिश की है कुसुम पालीवाल जी ने अपने कहानी संग्रह ” कुछ अनकहा सा ” में | जिसमें अनकहा केवल दर्द ही नहीं है प्रेम , समर्पण की वो भावनाएं भी हैं जिनको व्यक्त करने में शब्द बौने पड़ जाते हैं | इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ स्त्री पात्रों के इर्द -गिर्द घूमती हैं | यह संग्रह किसी स्त्री विमर्श के साहित्यिक ढांचे से प्रेरित नहीं है , लेकिन धीरे से स्त्री जीवन की समस्याओं की कई परते खोल देता है …जो ये सोचने पर विवश करती हैं कि इस दिशा में अभी बहुत काम किया जाना बाकी है |  कुसुम जी के कई काव्य संग्रह  पाठकों द्वारा पसंद किये जा चुके हैं ये उनका पहला कहानी संग्रह है | जाहिर है उनको इस पर भी पाठकों की प्रतिक्रियाएं व् स्नेह मिल रहा होगा | इस संग्रह को पढने के बाद मैंने भी इस अनकहे  पर कुछ कहने का मन बनाया है …. कुछ अनकहा सा -स्त्री जीवन के कुछ अव्यक्त दस्तावेज  “गूँज” इस संग्रह की पहली कहानी है | ये गरीब माता -पिता की उस बेटी की कहानी है  जिसकी पढाई बीच में रोक कर उसकी शादी कर दी जाती है | पिता शुरू में तो अपनी बेटी की शिक्षा में साथ देते हैं फिर उसी सामाजिक दवाब में आ जाते हैं जिसमें आकर ना जाने कितने पिता अपनी बेटियों की कच्ची उम्र  में शादी कर देते हैं कि पता नहीं कब अच्छा लड़का मिले | अपने ऋण से उऋण होने की जल्दी बेटी के सपनों पर कितनी भारी पड़ती है इसका उन्हें अंदाजा भी नहीं होता | यही हाल सरोज का भी है जो अपने सपनों को मन के बक्से में कैद करके कर्तव्यों की गठरी उठा कर ससुराल चली आती हैं | आम लड़कियों और सरोज में फर्क बस इतना है कि उसके पास माँ की शिक्षा की वो थाती है जो आम लड़कियों को नसीब नहीं होती | उसकी माँ ने विदा होते समय  चावल के दानों के साथ उसके आँचल के छोर में ये वाक्य भी बाँध दिए थे कि , ” बेटा अपना अपमान मत होने देना , मर्द जाति  का हाथ एक बार उठ जाता हैं तो बार -बार उठता हैं तो बार -बार उठता है और इस तरह औरत का समूचा अस्तित्व ही खतरे में आ जाता हैं |”  अपने आस -पास देखिये , कितनी माएं हैं जो ऐसी शिक्षा अपनी बेटी को देती हैं | ये सरोज की थाती है | शराबी पति , धीरे -धीरे बिकती जमीन , हाथ में कलम के स्थान पर गोबर कंडा पाथना और घर और बच्चों की परवरिश के लिए दूसरों के घर जाकर सफाई -बर्तन करना , सरोज हर जुल्म बर्दाश्त करती हैं | लेकिन जब एक दिन उसका पति उस पर हाथ उठाता  है, तो   ….अपने शराबी पति के लिए किये गए सारे त्याग समर्पण भूल कर एक झन्नाटेदार तमाचा उसे भी मारती है | ये गूँज उसी तमाचे की है …. जिसकी आवाज़ उसकी छोटी से झुग्गी के चारों ओर फ़ैल जाती है | ये कहानी घरेलु हिंसा के खिलाफ स्त्री के सशक्त हो कर खड़े होने की वकालत करती है | अमीर हो , गरीब हो , हमारा देश हो या अमेरिका हर जगह पुरुष द्वारा स्त्री के पिटने की काली दास्तानें हैं | कितनी सशक्त महिलाएं बरसों बाद जब अपने पति से अलग हुई तो उन्होंने भी इस राज का खुलासा किया कि वो अपने पति से रोज पिटती थीं | आखिर क्या है जो महिलाएं ऐसे रिश्ते में रहती हैं … पिटती हैं और आँसूं बहाती  हैं | हो सकता है हर स्त्री का पति सरोज के पति की तरह शराब से खोखले हुए शरीर वाला न हो और वो उस पर हाथ ना उठा सके पर पर अन्याय के खिलाफ पहले दिन से ही वो घर के बाहर आ कर खुल कर बोल सकती है | और शब्दों के इस थप्पड़ की गूँज भी कम नहीं होगी | “कुछ अनकहा सा”   कहानी एक रेप विक्टिम की कहानी है | कहानी लम्बी है और कई मोड़ों से गुज़रती है | कहीं -कहीं हल्का सा तारतम्य टूटता है जिसे कुसुम जी  फिर साध ले जाती हैं | कहानी एक अनाथ बच्ची नर्गिस की है , जिसे उसका शराबी चाचा फरजाना बी को घरेलु काम करवाने के लिए बेंच देता है | उस समय नर्गिस की उम्र मात्र नौ साल होती   है | फरजाना बी एक समाज -सेविका हैं उनके तीन बेटे हैं सलीम , कलीम और नदीम | जिन्हें नर्गिस भाईजान कहती और समझती है | अपने कार्यकौशल से सबका ल जीतते हुए नर्गिस उस घर में   है … और   साथ ही बड़ी होती है जाती है उसकी अप्रतिम सुंदरता जो तीनों बेटों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं | एक  दिन बड़ा बेटा उसे अकेले में दबोच  लेता है | अपनी लुटी हुई इज्ज़त और टूटे मन  साथ जब वो फरजाना बी का सामना करती है तो वो उसे देख कर भी अनदेखा करती है | यहीं से दूसरे भाई को भी शह मिलती है और दोनों भाई जब -तब उसका उपभोग करने लगते हैं | रोज़ -रोज़ होते इन हमलों से खौफजदा बच्ची जो कभी कश्मीरी सेब सी थी  जाती है | ऐसे में तीसरा भाई नदीम मसीहा बन कर आता है और उससे निकाह का प्रस्ताव रख देता है | नदीम सिर्फ उसके शरीर … Read more

अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार -अनकहे रिश्तों के दर्द को उकेरती कहानियाँ

दैनिक जागरण बेस्ट सेलर की सूची में शामिल “अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ” के बारे में में जब मुझे पता चला तो मेरी पहली प्रतिक्रिया यही रही कि ये भी कोई नाम है रखने के लिए , ये तो प्रेम की शुचिता के खिलाफ है | फिर लगा शायद नाम कुछ अलग हट कर है , युवाओं को आकर्षित कर सकता है , आजकल ऐसे बड़े -बड़े नामों का चलन है , इसलिए रखा होगा | लेकिन जब मैं किताब पढना शुरू किया तो मुझे पता चला कि लेखिका विजयश्री तनवीर जी भी इस  कहानी संग्रह का नाम रखते समय ऐसी ही उलझन  से गुजरी थीं | वो लिखती हैं , “मैंने सोचा और खूब सोचा और पाया कि बार -बार हो जाना ही तो प्यार का दस्तूर है | यह चौथी , बारहवीं , बीसवीं और चालीसवीं बार भी हो सकता है …प्रेम की क्षुधा पेट की क्षुधा से किसी दर्जा कम नहीं है |” जैसे -जैसे संग्रह की कहानियाँ पढ़ते जाते हैं उनकी बात और स्पष्ट , और गहरी और प्रासंगिक लगने लगती है , और अन्तत:पाठक भी इस नाम पर सहमत हो ही जाता है | इस संग्रह में नौ कहानियाँ हैं | ज्यादातर कहानियाँ विवाहेतर रिश्तों पर हैं | जहाँ प्यार में पड़ने , टूटने बिखरने और दोबारा प्यार में पड़ जाने पर हैं | देखा जाए तो ये आज के युवाओं की कहानियाँ हैं , जो आज के जीवन का प्रतिनिधित्व करती हैं | अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार -अनकहे रिश्तों के दर्द को उकेरती कहानियाँ  “ अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार “ भी एक ऐसी ही कहानी है | अनुपमा गांगुली  अपने दुधमुहे बच्चे के साथ रोज  कोलकाता  लोकल का लंबा  सफ़र तय कर उस दुकान पर पहुँचती है जहाँ वो सेल्स गर्ल है | कोलकाता  की महंगाई से निपटने के लिए उसका पति एक वर्ष के लिए पैसे कमाने बाहर चला जाता है | अकेली अनुपमा इस बीच बच्चे को जन्म देती है , उसे पालती है और अपनी नौकरी भी संभालती है | इसी बीच उसके जीवन में एक ऐसे युवक का प्रवेश होता है जो कोलकाता    की लोकल की भरी भीड़ के बीच अपने बच्चे को संभालती उस हैरान -परेशां माँ की थोड़ी मदद कर देता है | अनुपमा उस मदद को प्रेम  या आकर्षण समझने लगती है | उसके जीवन में एक नयी उमंग आती है , काम पर जाने की बोरियत आकर्षण में बदलती है , कपड़े -लत्तों और श्रृंगार पर ध्यान जाने लगता है , उदास मन को एक मासूम  सा झुनझुना मिल जाता है , जिसके बजने से जिन्दगी की लोकल तमाम परेशानियों के बीच सरपट भागने लगती है | जैसा कि पाठकों को उम्मीद थी ( अनुपमा को नहीं ) उसका ये प्यार …यहाँ पर सुंदर सपना कहना ज्यादा मुफीद होगा टूट जाता है | ये अनुपमा का चौथा प्यार था और इसका हश्र भी वही हुआ जो उसके पति के मिलने से पहले हुए दो प्रेम प्रसंगों का हुआ था | जाहिर है अनुपमा खुद को संभाल लेगी और किसी पाँचवे प्यार् को ढूंढ ही लेगी ….कुछ दिनों तक के  लिए ही सही | वैसे जीवन में घटने छोटे -छोटे आकर्षणों को प्यार ना कह कर क्रश के तौर पर भी देखा जा सकता है , हालांकि क्रश में अगले के द्वारा पसंद किये जाने न किये जाने का ना तो कोई भ्रम होता है न इच्छा | इस हिसाब से ” अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ” नाम सही ही है | इस मासूम सी कहानी में मानव मन का एक गहरा मनोविज्ञान छिपा है | पहला तो ये कि व्यक्ति की नज़र में खुद की कीमत तब बढती है जब उसे लगता है कि वो किसी के लिए खास है | जब ये खास होने का अहसास वैवाहिक रिश्ते में नहीं मिलने लगता है तो मन का पंछी इसे किसी और डाल पर तलाशने लगता है | भले ही वो इस अहसास की परिणिति विवाह या किसी अन्य  रिश्ते में ना चाहता हो पर ये अहसास उसे खुद पर नाज़ करने की एक बड़ी वजह बनता है | कई बार तो ऐसे रिश्तों में ठीक से चेहरा भी नहीं देखा जाता है , बस कोई हमें खास समझता है का अहसास ही काफी होता है | ये एक झुनझुना है जो जीवन की तमाम परेशानियों से जूझते मन रूपी बच्चे के  थोड़ी देर मुस्कुराने का सबब बनता है | ऐसे रिश्तों की उम्र छोटी होती है और अंत दुखद फिर भी ये रिश्ते  मन के आकाश में बादलों की तरह बार -बार बनते बिगड़ते रहते हैं | आज की भागम भाग जिंदगी और सिकुड़ते रिश्तों के दरम्यान जीवन की परेशानियों से जूझती हजारों -लाखों अनुपमा गांगुली बार बार प्यार में पड़ेंगी … निकलेंगी और फिर पड़ेंगी | कहानी की सबसे खास बात है उसकी शैली …. अनुपमा गांगुली के साथ ही पाठक लोकल पकड़ने के लिए भागता है …पकड़ता , आसपास के लोगों से रूबरू होता है | एक तरह से ये कहानी एक ऐसी यात्रा है जिसमें पाठक  को भी वहीं आस -पास होने का अहसास होता है | “पहले प्रेम की दूसरी पारी “ संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी उन दो प्रेमियों के बारे में है जो एक दूसरे से बिछड़ने , विवाह व् बच्चों की जिम्मेदारियों को निभाते हुए कहीं ना कहीं एक दूसरे के प्रति प्रेम की उस लौ को जलाये हुए भी हैं और छिपाए हुए भी हैं | कहा भी जाता है कि पहला प्यार कोई नहीं भूलता | खैर आठ साल बाद दोनों एक दूसरे से मिलते हैं | दोनों ये दिखाना चाहते हैं कि वो अपनी आज की जिन्दगी में रम गए हैं खुश हैं , पर कहीं न कहीं उस सूत्र को ढूंढते  रहते हैं जिससे उनके दिल को तसल्ली हो जाए …कि वो अगले के दिल में कहीं न कहीं वो  अब भी मौजूद हैं … कतरा भर ही सही , साथ बिताये  गए कुछ घंटे जो अपने पहले प्यार के अहसास को फिर से एक बार जी लेना चाहते थे , दोतरफा अभिनय की भेंट चढ़ गए | सही भी तो है विवाह के बाद उस … Read more

दहेज़ नहीं बेटी को दीजिये सम्पत्ति में हक

                    हमारी तरफ एक कहावत है , “ विदा करके माता उऋण हुई, सासुरे की मुसीबत क्या जाने” अक्सर माता –पिता को ये लगता है कि हमने लड़के को सम्पत्ति दी और लड़की को दहेज़ न्याय बराबर , पर क्या ये सही न्याय है ?  दूसरी कहावत है भगवान् बिटिया ना दे, दे तो भागशाली दे |” यहाँ भाग्यशाली का अर्थ है , भरी पूरी ससुराल और प्यार करने वाला पति | निश्चित तौर पर ये सुखद है , हम हर बच्ची के लिए यही कामना करते आये हैं करते रहेंगे , पर क्या सिर्फ कामना करने से सब को ऐसा घर मिल जाता है ?   विवाह क्या बेटी के प्रति माता पिता की जिम्मेदारी का अंत हो जाता है | क्या ससुराल में कुटटी -पिटती बेटियों को हर बार ,अब वो घर ही तुम्हारा है की घुट्टी उनके संघर्ष को कम कर देती है ? क्या विवाह के बाद बेटी के लिए मायके से मदद के सब दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो जाने चाहिए ?  दहेज़ नहीं  बेटी को दीजिये  सम्पत्ति में हक  आंकड़े कहते हैं  घरेलु महिलाओं द्वारा की गयी आत्महत्या , किसानों द्वारा की गयी आत्महत्या के मामलों से चार गुना ज्यादा हैं | फिर भी ये कभी चर्चा का विषय नहीं बनती न ही नियम-कानून  बनाने वाले कभी इस पर खास तवज्जो देते हैं | उनमें से ज्यादातर 15 -39 साल की महिलाएं हैं , जिनमें विवाहित महिलाओं की संख्या 71% है | ये सवाल हम सब को पूछना होगा कि ऐसी स्थिति क्यों बनती है कि महिलाएं मायका होते हुए भी इतनी असहाय क्यों हो जाती हैं कि विपरीत परिस्थितियों में मृत्यु को गले लगाना ( या घुट –घुट कर जीना ) बेहतर समझती हैं ? बेटियों को दें शिक्षा    मेरे ख्याल से बेटियों को कई स्तरों पर मजबूत करना होगा | पहला उनको शिक्षित करें , ताकि वो अपने पैरों पर खड़ी हो सकें | इस लेख को पढने वाले तुरंत कह सकते हैं अरे अब तो हर लड़की को पढ़ाया जाता है | लेकिन ऐसा कहने वाले दिल्ली , मुंबई , कानपुर , कलकत्ता आदि बड़े शहरों के लोग होंगे | MHRD की रिपोर्ट के मुताबिक़ हमारे देश में केवल ३३ % लडकियां ही 12th का मुँह देख पाती हैं | दिल्ली जैसे शहर में किसी पब्लिक स्कूल में देखे तो ग्यारहवीं में लड़कियों की संख्या लड़कों की तुलना नें एक तिहाई ही रह जाती है | गाँवों की सच्चाई तो ये हैं कि 100 में से एक लड़की ही बारहवीं का मुँह देख पाती है | इसकी वजह है कि माता -पिता सोचते हैं कि लड़कियों को पहले पढ़ने में खर्च करो फिर दहेज़ में खर्च करो इससे अच्छा है जल्दी शादी कर के ससुराल भेज दो , आखिर करनी तो शादी ही है , कौन सी नौकरी करानी है ? अगर नौकरी करेगी भी तो कौन सा पैसा हमें मिलेगा ? ये दोनों ही सोच बहुत खतरनाक हैं क्योंकि अगर बेटी की ससुराल व् पति इस लायक नहीं हुआ कि उनसे निभाया जा सके तो वो उसे छोड़कर अकेले रहने का फैसला भी नहीं ले पाएंगी | एक अशिक्षित लड़की अपना और बच्चों का खर्च नहीं उठा पाएगी, मजबूरन या तो उस घुटन भरे माहौल में सिसक -सिसक कर रहेगी या इस दुनिया के पार चले जाने का निर्णय लेगी |  बेटी में विकसित करें आत्मसम्मान की भावना   घर में भाई –बहनों में भेद न हो , क्योंकि ये छोटे –बड़े भेद एक बच्ची के मन में शुरू से ही ये भावना भरने लगते हैं कि वो कमतर है | कितने घर है जहाँ आज भी बेटे को प्राइवेट व् बेटी को सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया जाता है , बेटे को दूध बादाम दिया जाता है , बेटियों को नहीं | कई जगह मैंने ये हास्यास्पद तर्क सुना कि इससे बेटियाँ जल्दी बड़ी हो जाती हैं , क्या बेटे जल्दी बड़े नहीं हो जाते ? कई बार आम मध्यम वर्गीय घरों में बेटे की इच्छाएं पूरी करने के लिए बेटियों की आवश्यकताएं मार दी जाती हैं | धीरे -धीरे बच्ची के मन में ये भाव आने लगता है कि वो कुछ कम है |  जिसके अंदर कमतर का भाव आ गया उसको दबाना आसान है ,मायके में शुरू हुआ ये सिलसिला ससुराल में गंभीर शोषण का रूप ले लेता है तो भी लड़की सहती रहती है क्योंकि उसे लगता है वो तो सहने के लिए ही जन्मी है |  पूरे समाज को तो हम नहीं  बदल सकते पर कम से कम अपने घर में तो ऐसा कर सकते हैं | बेटी को दें सम्पत्ति में हिस्सा   जहाँ तक सम्पत्ति की बात है तो मेरे विचार से को सम्पत्ति में हिस्सा मिलना चाहिए , उसके लिए ये भी जरूरी है कि दहेज़ ना दिया जाए | ऐसा मैं उन शिक्षित लड़कियों को भी ध्यान में रख कर कह रही हूँ जो कल को अपने व् बच्चों के जीविकोपार्जन कर सकती हैं | कारण ये है कि जब कोई लड़की लम्बे समय तक शोषण का शिकार  रही होती है , तो पति का घर छोड़ देने के बाद भी उस भय  से निकलने में उसे समय लगता है , हिम्मत इतनी टूटी हुई होती है कि उसे लगता है वो नहीं कर पाएगी … इसी डर के कारण वो अत्याचार सहती रहती है |  जहाँ तक दहेज़ की बात है तो अक्सर माता –पिता को ये लगता है कि हमने लड़के को सम्पत्ति दी और लड़की को दहेज़ न्याय बराबर , पर क्या ये सही न्याय है ? जब कोई लड़की अधिकांशत : घरों में जो दहेज़ लड़की को दिया जाता है उसमें उसे कुछ मिलता नहीं है | माता –पिता जो दहेज़ देते हैं उसमें 60: 40 का अनुपात होता है यानि तय रकम में से 60% रकम ( सामान , साड़ी , कपड़ा , जेवर केरूप में ) लड़की के ससुराल जायेगी और 40 % विवाह समारोह में खर्च होगी | सवाल ये है कि जो पैसे विवाह समारोह में खर्च हुए उनमें लड़की को क्या मिला ? यही पैसे जब माता –पिता अपने लड़के की शादी के रिसेप्शन … Read more

गुझिया -अपनेपन की मिठास व् परंपरा का संगम

फोटो क्रेडिट –www.shutterstock.com रंगों के त्यौहार होली से रंगों के बाद जो चीज सबसे ज्यादा जुडी है , वो है गुझिया | बच्चों को जितना इंतज़ार रंगों से खेलने का रहता है उतना ही गुझिया का भी | एक समय था जब होली की तैयारी कई दिनों पहले से शुरू हो जाती थी | आलू के चिप्स , साबूदाने व् आलू , चावल के पापड़ , बरी आदि  महीने भर पहले से बनाना और धूप  में सुखाना शुरू हो जाता था | हर घर की छत , आँगन , बरामदे में में पन्नी पर पापड़ चिप्स सूखते और उनकी निगरानी करते बच्चे नज़र आते | तभी से बच्चों में कहाँ किसको कैसे रंग डालना है कि योजनायें बनने लगतीं | गुझिया -अपनेपन की मिठास व् परंपरा का संगम  संयुक्त परिवार थे , महिलाए आपस में बतियाते हुए ये सब काम कर लेती थीं , तब इन्हें करते हुए बोरियत का अहसास नहीं होता था | हाँ ! गुझिया जरूर होलाष्टक लगने केर बाद ही बनती थी | पहली बार गुझिया बनने को समय गांठने का नाम दिया जाता | कई महिलाएं इकट्ठी हो जाती फाग गाते हुए कोई लोई काटती , कोई बेलती , कोई भरती  और कोई सेंकती, पूरे दिन का भारी काम एक उत्सव की तरह निपट जाता | तब गुझियाँ भी बहुत ज्यादा  संख्या में बनती थीं ….घर के खाने के लिए , मेह्मानों के लिए और बांटने के लिए | फ़ालतू बची मैदा से शक्कर पारे नामक पारे और चन्द्र कला आदि बन जाती | इस सामूहिक गुझिया निर्माण में केवल घर की औरतें ही नहीं पड़ोस की भी औरतें शामिल होतीं , वादा ये होता कि आज हम आपके घर सहयोग को आयें हैं और कल आप आइयेगा , और देखते ही देखते मुहल्ले भर में हजारों गुझियाँ तैयार हो जातीं | बच्चों की मौज रहती , त्यौहार पर कोई रोकने वाला नहीं , खायी गयी गुझियाओं की कोई गिनती नहीं , बड़े लोग भी आज की तरह कैलोरी गिन कर गुझिया नहीं खाते थे | रंग खेलने आये होली के रेले के लिए हर घर से गुझियों के थाल के थाल निकलते … ना खाने में कंजूसी ना खिलाने में | हालांकि बड़े शहरों में अब वो पहले सा अपनापन नहीं रहा | संयुक्त परिवार एकल परिवारों में बदल गए | अब सबको अपनी –अपनी रसोई में अकेले –अकेले गुझिया बनानी पड़ती है | एक उत्सव  की उमंग एक काम में बदलने लगी | गुझिया की संख्या भी कम  होने लगी, अब ना तो उतने बड़े परिवार हैं ना ही कोई उस तरह से बिना गिने गुझिया खाने वाले लोग ही हैं , अब तो बहुत कहने पर ही लोग गुझिया की प्लेट की तरफ हाथ बढ़ाते हैं , वो भी ये कहने पर ले लीजिये , ले लीजिये खोया घर पर ही बनाया है,सवाल सेहत का है, जितनी मिलावट रिश्तों में हुई है उतनी ही खोये में भी हो गयी हैं  …  फिर भी शुक्र  है कि गुझिया अभी भी पूरी शान से अपने को बचाए हुए हैं | इसका कारण इसका परंपरा से जुड़ा  होना है |  यूँ तो मिठाई की दुकानों पर अब होली के आस -पास से ही गुझिया बिकनी शुरू हो जाती है … जिनको गिफ्ट में देनी है या घर में ज्यादा खाने वाले हैं वहां लोग खरीदते भी हैं , फिर भी शगुन के नाम पर ही सही गुझिया अभी भी घरों में बनायीं जा रही है … ये अभी भी परंपरा  और अपनेपन मिठास को सहेजे हुए हैं | लेकिन जिस तेजी से नयी पीढ़ी में देशी त्योहारों को विदेशी तरीके से मनाने का प्रचलन बढ़ रहा है …उसने घरों में रिश्तों की मिठास सहेजती गुझिया  पर भी संकट खड़ा कर दिया है | अंकल चिप्स , कुरकुरे आदि आदि … घर के बने आलू के पापड और चिप्स को पहले ही चट कर चुके हैं, अब ये सब घर –घर में ना बनते दिखाई देते हैं ना सूखते फिर भी गनीमत है कि अभी कैडबरी की चॉकलेटी गुझिया इस पोस्ट के लिखे जाने तक प्रचलन में नहीं आई है ) , वर्ना दीपावली , रक्षाबंधन और द्युज पर मिठाई की जगह कैडबरी का गिफ्ट पैक देना  ही आजकल प्रचलन में है |  परिवर्तन समय की मांग है … पर परिवर्तन जड़ों में नहीं तनों व् शाखों में होना चाहिए …ताकि वो अपनेपन की मिठास कायम रहे | आइये सहेजे इस मिठास को … होली की हार्दिक शुभकामनायें  वंदना बाजपेयी  होली और समाजवादी कवि सम्मलेन होली के रंग कविताओं के संग फिर से रंग लो जीवन फागुन है होली की ठिठोली आपको “गुझिया -अपनेपन की मिठास व् परंपरा का संगम  “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | keywords- happy holi , holi, holi festival, color, festival of colors, gujhiya

सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन – एक पड़ताल

फोटो क्रेडिट -thelallantop.com सर्फ एक्सेल वर्षों से जो विज्ञापन बना रही है उसका मुख्य बिंदु रहता है “दाग अच्छे है | ” ये विज्ञापन खासे लोकप्रिय भी होते हैं | लेकिन इसी कंपनी के हाल ही में जारी किये गए  होली के विज्ञापन का बहुत विरोध हो रहा है | कहीं इसे परंपरा पर प्रहार माना जा रहा है तो कहीं लव जिहाद से जोड़ कर देखा जा रहा है |प्रस्तुत है इसी विषय पर एक पड़ताल  सर्फ एक्सेल होली का विज्ञापन – एक पड़ताल   मोटे तौर पर देखा जाए तो कम्पनियां व्यावसायिक  उद्देश्य के लिए विज्ञापन बनाती है , ना उन्हें धर्मिक सौहार्द से कोई लेना देना होता है न इसके बनने –बिगड़ने के राजनैतिक फायदे से,इस नाते इसे संदेह का लाभ दे भी दिया जाए , तो  भी ये विज्ञापन अति रचनात्मकता का मारा हुआ होने के कारण कठघरे में खड़ा हुआ है | इसे देखकर  लोगों को सद्भावना की जगह ये संदेश  समझ में आ रहा है कि एक हिन्दू त्यौहार दूसरे धर्मावलम्बियों की राह में मुश्किल खड़ी कर रहा है | अगर लोग ऐसा संदेश समझ रहे हैं तो उन्हें पूरी तरह गलत भी नहीं कहा जा सकता |  होली से मिलते-जुलते बहुत से त्यौहार हैं जहाँ लोग रंग के स्थान पर पानी , टमाटर , तरबूज के छिलके में पैर डालकर आनंद लेते हैं ,कई देखों में होली की ही तर्ज पर नए त्यौहार चलन में आये हैं,  जाहिर है वहाँ भी आम जीवन बाधित होता है , फिर भी परंपरा  के नाम पर मनाये जा रहे हैं | हमारे देश में बहुत से धर्मों और पर्वों को मानने वाले लोग हैं और सब आपस में सामंजस्य बना कर चलते हैं , एक दूसरे के लिए थोड़ी दिक्कतें सह कर भी ख़ुशी और दुःख , रीति –रिवाज , त्योहारों में शरीक होते हैं | कौन है जो कह सकता है कि उसके मुहल्ले में होली गुझियों और ईद की सिवइयों का आस –पड़ोस में आदान –प्रदान नहीं होता |ऐसे सभी मौकों पर हम एक होना बखूबी जानते हैं | जहां  तक इस विज्ञापन की बात है जिसमें दिखाया गया है कि एक बच्ची अपने सभी दोस्तों के रंग तब तक अपने ऊपर झेलती है जब तक उन के सारे रंग खत्म ना हो जाएँ ताकि वो साफ़ कपड़ों में अपने दोस्त को मस्जिद तक छोड़ सके और उसके बाद उसके साथ रंग खेले |साथी तौर पर भले ही कुछ गलत ना दिखे पर लेकिन जरा ध्यान देने पर समझ आएगा कि इसमें बहुत सारी सारी  खामियाँ हैं जिस कारण इसका विरोध हो रहा है | विरोध का लव जिहाद का एंगल तो मुझे उचित नहीं लगा क्योंकि बच्चे बहुत छोटे व मासूम  उम्र के हैं, इसे इस तरीके से नहीं देखा जा सकता | पर जैसा की मैंने पहले कहा अति रचनात्मकता का मारा,  तो हम सब जानते हैं कि आम तौर पर इतने छोटे बच्चे धर्म के आधार पर त्यौहार मनाने में भेद –भाव नहीं करते , ना ही उन्हें धर्म के प्रति नियम की इतनी समझ होती है | क्या आप और हम दस बार खेलते हुए बच्चों को नहीं बुलाते कि आओ और आ कर प्रशाद ले जाओ, तब भी वो बस एक मिनट मम्मी की गुहार लगाते रहते हैं | हमारी साझी संस्कृति की यही तो खासियत है कि जब मुहल्ले के बच्चे होली , दिवाली और ईद साथ –साथ मनाते हैं तो भेद महसूस ही नहीं होता कि कौन हिन्दू , मुस्लिम या इसाई है | जबकि  ये विज्ञापन बच्चों की ये कुदरती मासूमियत का प्रभाव दिखाने के स्थान पर बच्चों के अंदर हम अलग, तुम अलग की बड़ों वाली सोच प्रदर्शित कर रहा है, इस कारण सद्भावना दिखाने में विफल है (जैसा की विज्ञापन के समर्थक कह रहे हैं) वैसे भी हिन्दुओं द्वारा मनाये जाने बावजूद भी होली कोई धार्मिक  त्यौहार नहीं है, इसलिए धर्म का एंगल लाना उचित प्रतीत नहीं होता |हम बच्चों को एक दूसरे के धर्म की इज्ज़त सिखाते हैं और ये भी सिखाते हैं कि जिस समय दूसरे धर्म का कोई त्यौहार मन रहा हो , लोग उल्लास में हो तो उनसे जुडो … अलग होने के अहसास के साथ नहीं |  मसला होली का हो ,ईद का,  क्रिसमस का या किसी अन्य धर्म के त्यौहार का … हम अलग , तुम अलग की छवियाँ प्रस्तुत करते विज्ञापन  आम लोगों में लोकप्रिय नहीं हो सकते …  ये अलग बात हो सकती है कि हमेशा लोकप्रिय विज्ञपन देने वाली कम्पनी विरोध करवा कर अपना प्रचार करना चाहती हो | जो लोग विज्ञापन के मनोविज्ञान की पकड़ रखते हैं वो ये बात जानते होंगे | विज्ञापन में बहुत सारी तकनीकी खामी हैं | ऐसा मैं इस लिए कह रही हूँ क्योंकि कम्पनी को होली के त्यौहार की समझ ही नहीं है …जरा गौर करिए – 1) होली पर रंग कभी खत्म होने जैसे बात नहीं होती हैं , क्योंकि रंग सस्ते होते हैं और अगर खत्म हो भी जाएँ तो बच्चे पानी से , मिटटी से , कीचड़ से होली खेलते हैं | 2) जो बच्ची अपनी साइकिल से बच्चे को ले जा रही है वो इतना रंगी हुई है उसके बावजूद  छोटा बच्चा उसके कंधे पकड़ता है और उस पर रंग नहीं  लगते | 3) बिना सीट की साइकिल पर खड़े हुए लगभग अपने उम्र के बच्चे को ले जाते समय  पानी और रंगों से तर सड़क पर बच्ची की साइकिल नहीं फिसलती या रंग के छींटे  बच्चों के कपड़ों पर नहीं लगते |  4) सबसे अहम् बात जिससे पता चलता है कि कम्पनी को होली के त्यौहार की ज्यादा जानकारी ही नहीं है …. क्योंकि होली के कपड़े दाग छुड़ाने के लिए धोये ही नहीं जाते | होली के दिन पहनने के लिए खास तौर पर पुराने कपडे रखे जाते हैं | अगर कोई गरीब व्यक्ति उन्हें धो कर दुबारा मजबूरीवश पहनता भी है तो बी उसकी हैसियत इतनी नहीं होती कि वो सर्फ एक्सेल से धो सके | 5) होली किसी को पसंद हो या न हो इस पर बात हो सकती है , लम्बे लेख लिखे जा सकते हैं पर होली के साथ जुड़ा नारा ” बुरा न मानों होली है ” … Read more

चाँद पिता की लाडली

 चाँद पिता की लाडली दोहों में लिखी कविता है | दोहे हिंदी साहित्य की एक लोकप्रिय विधा है |यह मात्रिक छन्द में आता है | दोहे की प्रत्येक पंक्ति में २४ और कुल ४८ मात्राएँ होती हैं |  हर पंक्ति में १३ /११ की मात्रा होते ही यति होती है  १३ मात्र वाली पंक्ति का अंत गुरु -लघु -गुरु या २१२ होता है व ११ मात्रा वाली पंक्ति का अंत गुरु लघु या २१ होना आवश्यक है |दोहे का अंत तुकांत होना आवश्यक है | दोहे में लिखी गयी पस्तुत कविता में सूर्योदय का वर्णन है ….  कविता -चाँद पिता की लाडली डोली किरणों की लिए , आया नवल प्रभात कलरव करती डोलती, चिड़ियों की बरात   तारों की है पालकी, विदा करे है मात सुता निशा की देख तो, चल दी पी के साथ सुता को करके विदा , तड़पती बार –बार पाती –पाती पे  सजे  , माँ के अश्रु हज़ार चाँद पिता की लाडली , चली भानु के साथ शीतलता में पली हुई , ताप ने पकड़ा हाथ दुविधा देखो सुता की, किसे बताये हाल  मैके से विपरीत क्यों, मिलती है ससुराल  सीखे सहना ताप को, बाँध नेह की डोर  दुनिया देखे भोर वो,  देखे पी की ओर  युग- युग से नारी सदा, करती है ये काज  होती दोनों कुलों की , इसीलिये वो लाज  वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें …. मंगत्लाल की दीवाली रिश्ते तो कपड़े हैं सखी देखो वसंत आया नींव आपको  कविता   “चाँद पिता की लाडली “   लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    filed under-poem, hindi poem, moon, sun, daughter of moon, sunrise, night

सिनीवाली शर्मा रहौ कंत होशियार की समीक्षा

रहौ कंत होशियार

समकालीन कथाकाओं में सिनीवाली शर्मा किसी परिचय की मोहताज नहीं हैl  ये बात वो अपनी हर कहानी में सिद्ध करती चलती हैं | उनकी ज्यादातर कहानियाँ ग्रामीण जीवन के ऊपर हैं | गाँवों की समस्याएं, वहां की राजनीति और वहां के लोक जीवन की मिठास उनकी कहानियों में शब्दश: उतर आते हैं | पर उनकी कहानी “रहौं कंत होशियार”  पढ़ते हुए मुझे तुलसीदास जी की एक चौपाई याद आ रही है l  छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा तुलसीदास जी की इस चौपाई में अधम शब्द मेरा ध्यान बार- बार खींच रहा है l हालंकी उनका अभिप्राय नाशवान शरीर से है पर मुझे अधमता इस बात में नजर आ रही है कि वो उन पाँच तत्वों को ही नष्ट और भृष्ट करने में लगा है जिससे उसका शरीर निर्मित हुआ है l आत्मा के पुनर्जन्म और मोक्ष की आध्यात्मिक बातें तो तब हों जब धरती पर जीवन बचा रहे l आश्चर्य ये है कि जिस डाल पर बैठे उसे को काटने वाले कालीदास को तो अतीत में मूर्ख कहा गया पर आज के मानव को विकासोन्मुख l आज विश्व की सबसे बडी समस्याओं में से एक है प्रदूषण की समस्या l विश्व युद्ध की कल्पना भी हमें डराती है लेकिन विकास के नाम पर हम खुद ही धरती को खत्म कर देने पर उतारू हैं l हम वो पाही पीढ़ी हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के एफ़ेक्ट को देख रही है और हम ही वो आखिरी पीढ़ी हैं जो खौफ नाक दिशा में आगे बढ़ते इस क्रम को कुछ हद तक पीछे ले जा सकते हैं l  आगे की पीढ़ियों के हाथ में ये बही नहीं रहेगा l स्मॉग से साँस लेने में दिक्कत महसूस करते दिल्ली वासियों की खबरों से अखबार पटे रहे हैं l छोटे शहरों और और गाँव के लॉग  दिल्ली पर तरस खाते हुए ये नहीं देखते हैं कि वो भी उसी दिशा में आगे बढ़ चुके हैं l जबकि पहली आवाज वहीं से उठनी चाहिए ताकि इसए शुरू में ही रोका जा सके l एक ऐसी ही आवाज उठाई है सिनीवाली शर्मा की कहानी रहौं कंत होशियार के नायक तेजो ने l ये कहानी एक प्रदूषण की समस्या उठाती और समाधान प्रस्तुत करतीएक ऐसी कहानी है जिस की आवाज को जरूर सुना जाना चाहिए l  सिनीवाली शर्मा रहौ कंत होशियार की समीक्षा  आज हमारे शहरों की हवा तो इस कदर प्रदूषित हो चुकी है कि एक आम आदमी /औरत दिन भर में करीब दस सिगरेट के बराबर धुँआ पी लेता है , लेकिन गाँव अभी तक आम की बौर की खुशबु से महक रहे थे, लेकिन विकास के नाम पर स्वार्थ की लपलपाती जीभ तेजी से गाँवोंके इस प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ देने को तत्पर है | ऐसा ही एक गाँव है जहाँ की मिटटी उपजाऊ है | लोग आजीविका के लिए खेती करते हैं, अभी तक किसान धरती को अपनी माँ मानते रहे हैं, उसकी खूब सेवा करके बदले में जो मिल जाता है उससे संतुष्ट रहते हैं| उनके सपने छोटे हैं और आसमान बहुत पास | लेकिन शहरों की तरह वहां का समय भी करवट बदलता है | वो समय जब स्वार्थ प्रेम पर हावी होने लगता है |    विकास के ठेकेदार बन कर रघुबंशी बाबू वहां आते हैं और ईट का भट्टा लगाने की सोचते हैं | इसके लिए उन्हें १५ -१६ बीघा जमीन एक स्थान पर चाहिए | वो गाँव वालों को लालच देते हैं की जिसके पास जितनी जमीन हो वो उसके हिसाब से वो उन्हें हर साल रूपये देंगे | बस उन्हें कागज़ पर अंगूठा लगाना है | ये जानते हुए भी कि भट्ठा को गाँव यानि उपजाऊ मिटटी से कम से कम इतना दूर होना चाहिए , बीच गाँव में उनके भट्टा लगाने की मंशा पर सब अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं |  समीक्षा -अनुभूतियों के दंश (लघुकथा संग्रह ) कहानी की शुरुआत ही तेजो और रासो की जमीन गिरवी रखने की बात से होती है | तेजो इसका विरोध करता है | वो अपनी जमीन नहीं देता | वो बस इतना ही तो कर सकता है पर उसको दुःख है तो उपजाऊ मिटटी के लिए जो भट्टा लगाने से बंजर हो जायेगी | धरती के लिए उसका दर्द देखिये … ओसारे पर बैठे –बैठे सोचता रहा | धरती के तरह –तरह के सौदागर होते हैं | वो सबका पेट तो भरती है पर सुलगाती अपनी ही देह है | कहीं छाती फाड़कर जान क्या–क्या निकाला जाता है तो कहीं देह जलाकर ईंट बनाया जाता है | पर उसकी चिंता गाँव वालों की चिंता नहीं है | उनके सर पर तो पैसा सवार है | विकास के दूत रघुवंशी बाबू कहाँ से आये हैं इसकी भी कोई तहकीकात नहीं करता | बस एक उडी –उड़ी खबर है कि भागलपुर के पास उनकी ६ कट्टा जमीन है जिसका मूल्य करीब ४० -४५ लाख है | इतना बड़ा आदमी उनके गाँव में भट्ठा लगाये सब इस सोच में ही मगन हैं | तेजो भी सबके कहने पर जाता तो है पर ऐन अंगूठा लगाने के समय वो लौट आता है | इस बीच गाँव की राजनीति व् रघुवंशी बाबू को गाँव लाने का श्रेयलेने की होड़ बहुत खूबसूरती से दर्शाई गयी है | जिन्होंने ग्राम्य जीवन का अनुभव किया है वो इन वाक्यों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे …… “जिसको देना था, दे चुके ! वे रघुवंशी बाबू की चरण धूलि को चन्नन बना कर माथे पर लगा चुके हैं | अपने कपार पर तो हम अपने खेत की माटी ही लागयेंगे | एक और किसान दयाल भी तेजो के साथ आ मिलता है | केवल उन दोनों  के खेत छोड़ कर सबने अपनी जमीन पैसों के लालच में दे दी | इसमें से कई पढ़े लिखे थे | पर स्वार्थ धरती माँ के स्नेह पर हावी हो गया | इतना ही नहीं लोगों ने अपने पास रखा पैसा भी बेहतर ब्याज के लाच में रघुवंशी बाबू को दे दिया | मास्टर साहब ने रिटायरमेंट से मिलने वाले रुपये से आठ लाख लगाये , प्रोफ़ेसर साहब ने अपनी बचत से तीन लाख, किसी ने बेटे के दहेज़ का रुपया लगाया तो … Read more

भूख का पता –मंजुला बिष्ट

आदमी की भूख भी बड़ी अजीब होती है रोज जग जाती है, और कई बार तो मनपसंद चीज सामने हो तो बिना भूख के भी भूख जग जाती है | खाने -पीने के मामले में तो भूख नियम मानती ही नहीं ….लेकिन जब ये और क्षेत्रों में भी जागने लगती है तो स्थिति बड़ी गंभीर हो जाती है…प्रस्तुत है मंजुला बिष्ट की कहानी की समीक्षा   भूख का पता –मंजुला विष्ट हंस मार्च 2019 में प्रकाशित मंजुला विष्ट की कहानी भूख का पता जानवर की भूख और इंसान की भूख में तुलना करते हुए जानवर की भूख को इंसान की भूख से उचित ठहराती है …. क्योंकि उन्हें आज भी पता है कि उन्हें कब और कितना खाना है , उनकी भूख आज भी प्राकर्तिक और संतुलित ही है | जब इंसान की भूख उत्तेजक हिंसक मनोरंजन को जोड़ दिए जाने पर भूख के सही पते खोने लगी है | ये भूख कहीं स्वाद में ज्यादा खा लेने में है , कहीं बेवजह हिंसा में है , कहीं वहशीपन में है … ये भूख बिलकुल भी संतुलित नहीं है | मानवता के गिरने में इसी असंतुलित भूख का हाथ है | कहानी थोड़ा रहस्यमय शैली में लिखी गयी है , जिस कारण वो आगे क्या हो कि उत्सुकता जगाती है | मुख्य पात्र एक बच्ची आभा है जो अपने संयुक्त परिवार के साथ रह रही है | बारिश है … दादाजी सो रहे हैं | आभा चाहती है वो चैन से सोते रहे परन्तु खेतों में भरा पानी , बिजली का कड़्कना , पेड़ों का गिरना उनकी नींद तोड़ रहा है | वो दादाजी की नींद की चिंता करते हुए बीच -बीच में अपनी विचार श्रृंखला से उलझ रही है | आभा के मन में दस साल की बच्ची के बलात्कार की खबर का दंश है | कैसे वो एक चॉकलेट के लिए किसी विश्वासपात्र के साथ चल दी जिसने अपनी भूख मिटा कर न सिर्फ उसके विश्वास का कत्ल किया बल्कि उसे जिन्दगी भर का दर्द भी दे दिया | कैसे है यो भूख जो छल से किसी को मिटा के मिटती है ? आभा के मन में अपने भाई सलिल के प्रति हमदर्दी है , क्योंकि रिश्ते के जीजाजी के कहने पर उनके पालतू खरगोश के बच्चे को चाचाजी के लिए पका दिया गया है | चाचाजी व् जीजाजी को आज निकलना था पर बरसात होने के कारण बाजार से ताज़ा मांस नहीं लाया जा सका | सलिल इस भूख को बर्दाश्त नहीं पाया जो स्वाद के लिए किसी अपने की बलि चढ़ा दे … देर तक वो रोता रहा , मांस के शौक़ीन सलिल ने उस दिन शाकाहारी खाना ही खाया | घर के कुत्ते भाटी ने भी उस बोटी को नहीं खाया … शायद उसे भी परिचित गंध आ रही थी | जबकि घर के बाकी लोग उसे स्वाद ले –लेकर खाते रहे | जीजाजी ने तो पेट भर जाने के बाद भी इतना खाया कि देर तक उन्हें डकार आती रही | पढ़ें -देहरी के अक्षांश पर -गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें इन सब के बीच आभा को इंतज़ार है खरगोश के नए फाहों के जन्म का … जो शायद सलिल का दर्द कम कर सकें | खरगोश के पिंजड़े से आती आवाजें उसे आश्वस्त कर रहीं हैं कि आज सलिल का दर्द कम हो ही जाएगा … नए फाहों को देखकर वो पुराने बच्चे को भूल जाएगा | परन्तु जब आवाज़ बंद नहीं हुई तो सबका शक गया | पिंजड़ा खाली था , माँ अपने बच्चों के लिए तड़फ रही थी | उसकी चीखें सबको आहत कर रहीं थीं पर सवाल था आखिर बच्चे गए कहाँ ? सब का शक पालतू कुत्ते की तरफ चला गया | वो आज कब से बिस्तर पर ही बैठा था …शायद उसका पेट जरूरत से ज्यादा भर गया होगा |तभी आलस दिखा रहा है | अवश्य ही पिंजरे का दरवाजा ठीक से बंद ना होने के कारण पानी में गिरे बच्चे पालतू कुत्ते भाटी ने खा लिए होंगे | उसका आलस यही तो बता रहा है , फिर क्यों न खाता , आखिर उसकी जुबान पर अपनों के मांस का स्वाद जो लग गया था | जानवर जो ठहरा | परन्तु नहीं बेहद मार्मिक तरीके से कहानी बताती है कि भाटी ने उस बच्चों को खाया नहीं बल्कि पानी में डूब कर मर जाने से ना सिर्फ बचाया बल्कि सारी रात बिस्तर पर अपनी पूछ के नीचे छिपा कर उन्हें अपने बदन की गर्मी भी दी | जानवर होंने पर भी उसकी भूख गलत दिशा में नहीं बढ़ी | कहानी इसी नोट के साथ समाप्त होती है कि कुत्ता … एक ऐसा शब्द जो गाली के रूप में इस्तेमाल होता है वो इंसानों से कहीं बेहतर है …. उसकी भूख संतुलित है , वो अपनों का मांस नहीं चूसती , कब क्या खाना है कितना खाना है उसे पता है … स्वाद उसकी भूख को पथभ्रमित नहीं कर रहा , उसकी भूख हवस में नहीं बदल रही … कभी सुना है किसी जानवर ने किसी का बालात्कार किया हो ? इंसानी भूख ने अपना पता बदल लिया है वो जीभ लपलपाते हुए हर तरफ बढ़ रही है … बेरोकटोक , बेलगाम वंदना बाजपेयी फेसबुक पोस्ट से यह भी पढ़ें … अदृश्य हमसफ़र -अव्यक्त  प्रेम की कथा अँधेरे का मध्य बिंदु -लिव इन को आधार बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता उपन्यास देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें   अनुभूतियों के दंश -लघुकथा संग्रह आपको समीक्षात्मक  लेख “भूख का पता –मंजुला विष्ट“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-  REVIEW, story review, published in Hans Magazine

असली महिला दिवस

—————– दादी ने आँगन की धुप नहीं देखी और पोती को आँगन की धप्प देखने का अवसर ही नहीं मिलता | दोनों के कारण अलग -अलग हैं | एक पर पितृसत्ता के पहरे हैं जो उसे रोकते हैं दूजी को  मुट्ठी भर आसमान के लिए दोगुना, तीन गुना काम करन पड़ रहा है | ये जो सुपर वीमेन की परिभाषा समाज गढ़ रहा है उसके पीछे मंशा यही है है कि बाहर निकली हो तो दो तीन गुना काम करो …बराबरी की आशा में स्त्री करती जा रही है कहीं टूटती कहीं दरकती | महिला दिवस मनना शुरू हो गया है पर असली महिला दिवस अभी कोसों दूर है ………  असली महिला दिवस वो जल्दी ही उठेगी रोज से थोड़ा और जल्दी जल्दी ही करेगी , बच्चों का टिफिन तैयार , नीतू के लिए आलू के पराठे और बंटू के लिए सैंडविच पतिदेव के लिए पोहा , लो कैलोरी वाला ससुरजी के लिए पूड़ी तर माल जो पसंद है उन्हें अभी भी सासू माँ का है  पेट खराब उनके लिए बानाएगी खिचड़ी वो देर से ही बनेगी उनके पूजा -पाठ के निपट जाने के बाद गर्म –गर्म जो परोसनी है उतनी देर में वो निबटा लेगी कपडे -बर्तन और घर की सफाई फिर अलमारी से कलफ लगी साडी निकाल कर लपेटते हुए हर बार की तरह नज़रअंदाज करेगी ताने जल्दी क्यों जाना है ? किसलिए जाना हैं ? उफ़ !ये आजकल की औरतों ? और दफ्तर जाने से पहले निकल जायेगी ‘महिला दिवस ‘पर महिला सशक्तिकरण के लिए आयोजित सभा को संबोधित करने के लिए जहाँ इकट्ठी होंगी वो सशक्त महिलाएं जिन्होंने ओढ़ रखे हैं अपनी क्षमता से दो गुने , तीन गुने काम महिला सशक्तिकरण की बात करते हुए वो नहीं बातायेंगी कि    मारा है रोज नींद का कितना हिस्सा रोज याद आती है फिर  भी  माँ से बात करे भी हो जाते कितने दिन बीमार बच्चे को छोड़ कर काम पर जाने में कसमसाता है दिल पूरी तनख्वाह ले कर भी पीना पड़ता है विष अपनों से मिले ये काम, वो काम, ना जाने कितने काम ना कर पाने के तानों के दंश का कभी पूछा है कि अपनी माँ , बहन पत्नी से कि सपनों को पूरा करने की कितनी कीमत अदा कर रही हैं ये औरतें ? चुपचाप इस आशा में कि कभी तो बदलेगा समाज जब मरे हुए सपनों और दोहरे काम के बोझ से दबी मशीनी जिन्दगी में से नहीं करना पड़ेगा किसी एक का चयन वो दिन … हाँ वो दिन ही होगा असली महिला दिवस वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें …….. बालात्कार का मनोविज्ञान और सामाजिक पहलू  #Metoo से डरें नहीं साथ दें  महिला सशक्तिकरण :नव सन्दर्भ नव चुनौतियाँ  मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं आपको “असली महिला दिवस “कैसे लगी अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-hindi poem women issues, international women’s day, 8 march, women empowerment, women