जीत भी हार भी
परिमल सिन्हा यूँ ही टेलीविजन का रिमोट पकडकर बैठे थे. कहीं से भी मतलब का कार्यक्रम नहीं आ रहा था. उकताकर वे उठने ही वाले थे कि छोटे पर्दे पर, कोईसुपरिचित सा चेहरा दिखाई पडा. न जाने क्यों इस अनजान युवक की झलक पाकर,उन्होंने फिर से टीवी पर नजर गडा ली. कोई रिएलिटी शो चल रहा था. नाम था – कड़वी सच्चाइयाँ. इस कार्यक्रम के तहत किसी लोकप्रिय हस्ती से वार्ता की जाती थी; उसके जीवन की कड़वी सच्चाइयों से रूबरू होने के लिए. साक्षात्कार, नामी एंकर सिद्धार्थ सलूजा को लेना था. परिमल जी जिज्ञासावश उस टॉक शो को देखने लगे. बातचीत शुरू करते हुए सिद्धार्थ ने कहा, “ रौनी जी, आप छोटे बजट की फिल्मों के उभरते हुए सितारे हैं. कम समय में ही आपने, ढेर सारे फैन बना लिए हैं. इसका राज?” “दिल के रिश्ते कुछ ऐसे ही होते हैं जनाब!” कहकर रौनी हंस दिया. सिन्हा जी को, झुरझुरी सी महसूस हुई. वो हंसी उनके मन के तारों को छेड गयी थी; कुछ इस तरह- मानों बरसों से उसहंसीकोजानते हों वे! सलूजा का अगला प्रश्न था, “फ़िल्मी दुनियां में आप, रौनी के नाम से मशहूर हैं पर आपका असली नाम क्या है?” “जी रोहन सिन्हा” युवक ने संक्षिप्त सा उत्तर दिया. रोहन का नाम सुनकर परिमल बेतरह चौंक उठे. तो यही चेहरा था, जो इतना अपना सा लग रहा था. उनका अपना अंश, उनका बेटा! इतने सालों के बाद….!! आगे कुछ भी न सूझा. दिमाग की नसों में खून मानों जम सा गया था. जब रोहन उनसे अलग हुआ, सात या आठ साल का रहा होगा. अब तो वे उसे, एक नौजवान के रूप में देख रहे थे. स्मृतियों का चक्र घूमता, इसके पहले ही संचालक महोदय का अगला प्रश्न, उन्हें झकझोर गया, “ रोहन जी, आपके जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना क्या थी?” “जीवन का सबसे दुखद पहलू रहा- मेरे माता पिता का एक दूसरे से सम्बन्ध- विच्छेद. मैं तब बहुत छोटा था……पिता हमारे साथ नहीं रहते. उनसे जुडी कुछ धुंधली यादें जरूर हैं. एक ऐसा इंसान…. जो मां के साथ झगडता ही रहता.” सुनकर परिमल सिन्हा के दिल में शूल सा चुभा. लगा- जैसे कि बीच- बाजार,जूतों की मार पड़ रही हो! लेकिन बेटे के मन में, वे झांकना जरूर चाहते थे. दिलको थामकर, उन्हें आगे का वार्तालाप सुनना ही पड़ा | “हाँ तो रौनी.. कम आयु में हीआप, अपने जन्मदाता से अलग रहने लगे. क्या कभी उन्होंने आपकी खोज खबर लेने की कोशिश की?” “हाँ जी, कोशिश जरूर की थी. बेइंतिहा प्यार करते थेवो मुझे. शुरु शुरू में उनके ढेरों पत्र आते, जिसमें मेरे लिए कवितायेँ भी होतीं.” “और फोन वगैरा?” “एक दो बार कॉल किया था हमें. पर मां उनकी आवाज़ सुनते ही रिसीवर पटक देतीं….मुझसे बात ही न करने देतीं. स्कूल में एक दो बार, वे मुझे चोरी- छिपे मिलने भी आये; लेकिन नानाजी के रसूख के चलते, वह भी बंद हो गया.” “फिर …?” “फिर वे भी क्या करते. हारकर उन्होंने मुझसे संपर्क साधना ही छोड़ दिया…उनकी तो दूसरी शादी भी हो गयी” “ओह…!!” सिद्धार्थ सलूजा जैसा,मंजा हुआ सूत्रधार भी असमंजस में था कि अब क्या कहे, क्या पूछे. अफ़सोस जताते हुए सलूजा ने आगे कुछ प्रश्न किये; जिनसे खुलासा हुआ कि रोहन को अभी भी परिमल सिन्हा से भावनात्मक लगाव था! वह उन्हें आज भी छुपकर देखने जाता है….बस उनके सामने नहीं पड़ता!! बचपन में पापा ही, उसका बस्ता और किताबें जमाते. उसका होमवर्क करवाते. मां तो बड़े घर की बेटी थी. लिहाजा;ठीक वैसे लक्षणभी थेउनके! किटी पार्टी, मेकअप, शॉपिंग वगैरा से,उन्हें फुर्सत नहीं मिलती थी. एक पापा ही थे- जो अपने बच्चे की प्यार की भूख को, जानते –समझते थे. परिमल की आँखें गीली हो चली थीं. रौनी ने तो यहाँ तक कह डाला कि पति- पत्नी के दिल न मिलते हों तो किसी तीसरे को दुनियां में लाना, उनकी भूल बन जाती है. आगे वे नहीं सुन सके और स्विच ऑफ कर दिया. विचलित मनःस्थिति में परिमल, आरामकुर्सी में सर टिकाकर बैठ गए. तभी किसी ने पीछे से आकर गलबहियां डाल दीं. सिन्हा जी चौंक उठे. “डैड!” अरे यह तो नेहा थी! “बिटिया, तुम बोर्डिंग से कब आयीं?” बेटी को अचानक आया देखकर, वे अचम्भित हुए, “स्कूल में छुट्टी हो गयी क्या?” “नहीं डैड…आपको एक सरप्राइज़ देना था; इसलिए.” “क्या है वो सरप्राइज़? आखिर हम भी तो जाने!” परिमल जी अब कुछ हल्का महसूस कर रहे थे. “इतनी जल्दी भी क्या है! मम्मा हैज़ आलमोस्ट फिनिश्ड हर कुकिंग. उन्हें भी आने दीजिए….फिर बताऊंगी” “एज़ यू विश- माई स्वीट लिटिल प्रिंसेस” उन्होंने कहा और हंस दिए. “देट्स लाइक ए गुड डैड”नेहा ने कहा और फ्रेश होनेबाथरूम चली गयी. इधर परिमल विचारों में घिर गए. उनकी पहली पत्नी श्यामा गजब की सुन्दरी थी. दोनों लम्बे समय तक सहपाठी रहे. श्यामा उनकी अभूतपूर्व शैक्षणिक प्रतिभा पर मर मिटी. उसने अपने डैडी को, परिमल के घर भेज दिया; ताकि उन दोनों के रिश्ते की बात चलाई जा सके. श्यामा के डैडी सोमेशचन्द्र, उसकी हर मांग पूरी करते आये थे. उनकी दिवंगत पत्नी की इकलौती निशानी जो थी वह! पर परिमल को श्यामा सरीखी अकडू रईसजादियाँ भाती नहीं थीं. होनी फिर भी होके रही. उसके बाऊजी विश्वेश्वरनाथ, सोमेश जी के करोड़ों के कारोबार को देखकर ललचा गए. तीन तीन कुंवारी लड़कियों की बढती आयु, उनकी प्रतिष्ठा पर प्रश्नचिन्ह लगा रही थी. लड़के की शादी से जो दान दहेज मिलता, उससे तीनों को आराम से ‘निपटाया’ जा सकता था. नतीजा- विश्वेश्वर जी के इस बेटे को, जीवन का वह दांव; खेलना ही पड़ा. जिस सम्बंध की नींव ही खोखली हो, भला कितने दिन चलता! दोनों घरों के सामाजिक स्तर में, जमीन आसमान का अंतर था; पृथ्वी के विपरीत ध्रुवों जैसा! एक तरफ लक्ष्मी की विशेष अनुकम्पा तो दूसरी ओर संयुक्त परिवार की समझौतावादी सोच. तिस पर- खोखली नैतिकता की वकालत करने वाली पाबंदियां और बात बात पर पैसे का रोना. किसी आम मध्यमवर्गीय कुनबे की कहानी! उकताकर श्यामा ने, पति पर दबाव बनाया, “परू मेरा यहाँ दम घुटता है. किसी बात की आज़ादी नहीं! कैदी बनकर रह गयी हूँ. क्यों ना…हम डैडी के पास जाकर रहें. लेकिन परू को घरजंवाई बनना गवारा न हुआ. उसे अपना वजूद कायम रखना था. श्यामा ने भी कभी झुकना … Read more