‘ह…ड़…ता…ल’
गाय-बैल, गधा-गधी, मुर्गा-मुर्गी, घोड़ा-हाथी, कुत्ता -बिल्ली, सभी ने एक साथ एक आवाज़ में कहा – ‘ह…ड़…ता…ल’। अखबार वाले, टी.वी. वाले, पत्रिका वाले सब के सब खचाखच भरे थे। बस नेता जी के आने की देर थी और कार्यक्रम प्रारंभ हो जाने वाला था। फटाफट फोटो उतारे जा रहे थे। कहीं मोबाइल पर प्रत्यक्ष प्रसारण का वाचन चल रहा था, तो कहीं टी.वी. पर साक्षात् प्रत्यक्ष प्रसारण। खबर बड़ी थी और अनोखी भी। अद्भुुत दृश्य था। शहर के सारे पालतू जानवरों ने हड़ताल करने का निर्णय किया था और वे सड़क पर आ गये थे। शहर बेकाबू हो रहा था। कोई कहीं न जा पा रहा था और न कहीं से आ पा रहा था। मानो सब के सब जहाँ थे, वहीं कैद हो गये थे। पालतू जानवरों को मानव जाति से बेहतर आचार-व्यवहार की उम्मीद थी, जबकि वे उनसे अमानुषिक व्यवहार करते हैं, ऐसा उनका कहना था। बात बड़ी थी और नेताओं की सहानुभूति अवश्यसंभावी थी। राजनीतिक दलों में खलबली थी। क्रेडिट लेने की हड़बड़ी थी। आम आदमी बेहाल था। ‘वाह री दुनियाँ! अब तक तो बस की हड़ताल, ऑटो की हड़ताल, डॉक्टरों और नर्सों की हड़ताल, पानी की हड़ताल, सब्जीवाले की हड़ताल, प्याज की हड़ताल आदि-इत्यादि की हड़ताल से दुखी थे, अब पालतू जानवरों की हड़ताल में क्या होगा भगवान् ही जाने।’ एक वृद्घ ने आशंका जताई। जय बाबा पाखंडी ‘होना क्या है? वही होगा जो अब तक होता आया है। सब-कुछ बंद। कामकाज ठप्प। लोगों का चलना मुहाल। सब्जी , पानी और ज़रूरी सामानों की किल्लत। रेलगाड़ियों और बसों का चक्का जाम। वी.आई.पी. खुशहाल। आम आदमी बेहाल।’ दूसरे वृद्घ ने तत्क्षण उत्तर दिया। अब यह रटी-रटाई बात हो गयी है। भला हो गाँधी जी का जिन्होंने यह अचूक नुस्खा निकाला था और देश को एक नयी दिशा दी थी। असहयोग तब था और आज हड़ताल है। हमें अपने अतीत पर बहुत गर्व है, इसलिए उसे पकड़कर अपने अहाते में रख लेते हैं। फिर छोड़ते नहीं क्योंकि उसके अलावा अपना कहने को कुछ है ही नहीं। अतीत के धरोहर को सहेजना ही हमारा धर्म है। धर्म का पालन करना ही हमारी संस्कृति। और नेता जी पधारे। सारा हुजूम उनकी ओर लपका, जैसे वे इंसान नहीं लड्डू हों और प्रसाद की तरह बँट रहे हों। शांत हो जाइये, शांत हो जाइये। नेता जी ने दोनों हाथ फैलाकर प्रसाद बाँटा, लेकिन न लोग मान रहे थे और न जानवर। सब के सब एक समान, अपनी-अपनी सुनने-सुनाने को बेताब थे। संगम था जानवरों और इंसानों का जिसमें हर चीज़ की समानता थी। आचार-व्यवहार, चाल-चलन और सबसे अहम् – हड़ताल। तुम्हारे पति का नाम क्या है ? किसी प्रकार नेता जी को माइक मिल ही गयी। बोले – ‘भाइयो एवं बहनो !’ और चारों ओर से तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। नेता जी विवेकानंद से भी बड़े हो गये। उन्होंने दूसरे देश के लोगों को भाई-बहन माना था और नेता जी ने पालतू जानवरों को भी मान लिया। वाह री नेताई! तेरे रंग हज़ार, तेरे रूप अनेक। टी.वी. वालों ने जुमला फेंका और फिर भाषण हुआ। कुछ खास नहीं। वही जो अकसर होता है, माइक पर चीखना-चिल्लाना और सभी को भड़काना। दूसरे को चोर और खुद को मसीहा बताना। नेता जी ने अंतत: एकाकार होकर कहा – ‘हम आपके साथ हैं। हम जानते हैं कि आज का इंसान स्वार्थी है,दंभी है, वह केवल अपने लिये ही जीता है, हम यह नहीं होने देंगे। हम शासन-प्रशासन को हिला देंगे। आपकी माँगों के लिये हम जनपथ तक जायेंगे। अनशन करेंगे। आपके अधिकार दिलाने के लिये हम भूख-हड़ताल करेंगे। हर प्रकार की हड़ताल करेंगे। बिल्कुल सही सुना आपने ह…ड़…ता…ल।’ और हड़ताल की शुरुआत हो गयी। सब-कुछ बन्द हो गया। नेता जी की जय-जयकार में कुत्तों की भौं-भौं, गधे का ढेंचू-ढेंचू, मुर्गे की कुकड़ुमकू, बिल्ली की क्वयाऊँ-क्वयाऊँ भी शामिल हो गयी। नेता जी का विस्तार हो गया। मानव-जगत् के साथ पशु-जगत् पर भी एकाधिकार छा गया। नेता जी प्रसन्न हुए और बोले – ‘आज मैं सफल हुआ। इंसान तो क्या जानवरों को भी मात दे गया।’ परेशानी तब शुरू हुई जब भाषण समाप्त कर नीचे उतरने लगे। कहीं से भी रास्ता नहीं था। आदमी होते तो शायद जगह मिल जाती। जानवर जहाँ थे वहाँ से टस से मस नहीं हो रहे थे। मंच पर उठ रही गंध से बेहाल तो थे ही, भाषण जल्द समाप्त कर तेजी से भागे, लेकिन जायें तो जायें कहाँ की धुन मन में बजी। कहीं लीद थी तो कहीं गोबर। कहीं कुत्ता तो कहीं बिल्ली की…। नाक पर हाथ रखकर किसी तरह उछल-कूदकर मंच से नीचे तो आ ही गये। राम-राम अब नहीं, नेता जी ने मन ही मन में कहा। लेकिन अब क्या ? जो होना था, हो गया था – ‘ह….ड़….ता….ल’। चलने को जगह नहीं थी। चारों ओर जानवर नहीं तो टी.वी. वाले, पत्रकार, अधिकारी, भिखारी, और तरह-तरह के इंसान थे। चलने को एक सूत जगह नहीं थी। बिगड़ पड़े – ‘यह क्या मज़ाक है? हमें तो घर जाने दो!’ गधे ने अत्मीयता से कहा – ‘नेती जी, क्षमा करें। यह आदमी की नहीं, जानवरों की हड़ताल है। यहाँ सबके लिये एक-सा हाल है। वे तो न जाने क्यों तरजीह देकर निकाल देते हैं। हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता। सब फँसे हैं आप भी लुत्फ़ उठाइये।’ विश्वजीत ‘सपन’ यह भी पढ़ें …… सूट की भूख न उम्र की सीमा हो हाय GST ( वस्तु एवं सेवाकर ) दूरदर्शी दूधवाला आपको आपको व्यंग लेख “‘ह…ड़…ता…ल’ “ कैसा लगा | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |