‘ह…ड़…ता…ल’

गाय-बैल, गधा-गधी, मुर्गा-मुर्गी, घोड़ा-हाथी, कुत्ता -बिल्ली, सभी ने एक साथ एक आवाज़ में कहा – ‘ह…ड़…ता…ल’। अखबार वाले, टी.वी. वाले, पत्रिका वाले सब के सब खचाखच भरे थे। बस नेता जी के आने की देर थी और कार्यक्रम प्रारंभ हो जाने वाला था। फटाफट फोटो उतारे जा रहे थे। कहीं मोबाइल पर प्रत्यक्ष प्रसारण का वाचन चल रहा था, तो कहीं टी.वी. पर साक्षात् प्रत्यक्ष प्रसारण। खबर बड़ी थी और अनोखी भी। अद्भुुत दृश्य था। शहर के सारे पालतू जानवरों ने हड़ताल करने का निर्णय किया था और वे सड़क पर आ गये थे। शहर बेकाबू हो रहा था। कोई कहीं न जा पा रहा था और न कहीं से आ पा रहा था। मानो सब के सब जहाँ थे, वहीं कैद हो गये थे। पालतू जानवरों को मानव जाति से बेहतर आचार-व्यवहार की उम्मीद  थी, जबकि वे उनसे अमानुषिक व्यवहार करते हैं, ऐसा उनका कहना था। बात बड़ी थी और नेताओं की सहानुभूति अवश्यसंभावी थी। राजनीतिक दलों में खलबली थी। क्रेडिट लेने की हड़बड़ी थी। आम आदमी बेहाल था। ‘वाह री दुनियाँ! अब तक तो बस की हड़ताल, ऑटो की हड़ताल, डॉक्टरों और नर्सों की हड़ताल, पानी की हड़ताल, सब्जीवाले  की हड़ताल, प्याज की हड़ताल आदि-इत्यादि की हड़ताल से दुखी थे, अब पालतू जानवरों की हड़ताल में क्या होगा भगवान् ही जाने।’ एक वृद्घ ने आशंका जताई।  जय बाबा पाखंडी ‘होना क्या है? वही होगा जो अब तक होता आया है। सब-कुछ बंद। कामकाज ठप्प। लोगों का चलना मुहाल। सब्जी , पानी और ज़रूरी सामानों की किल्लत। रेलगाड़ियों और बसों का चक्का  जाम। वी.आई.पी. खुशहाल। आम आदमी बेहाल।’ दूसरे वृद्घ ने तत्क्षण उत्तर  दिया। अब यह रटी-रटाई बात हो गयी है। भला हो गाँधी जी का जिन्होंने यह अचूक नुस्खा निकाला था और देश को एक नयी दिशा दी थी। असहयोग तब था और आज हड़ताल है। हमें अपने अतीत पर बहुत गर्व है, इसलिए उसे पकड़कर अपने अहाते में रख लेते हैं। फिर छोड़ते नहीं क्योंकि  उसके अलावा अपना कहने को कुछ है ही नहीं। अतीत के धरोहर को सहेजना ही हमारा धर्म है। धर्म का पालन करना ही हमारी संस्कृति। और नेता जी पधारे। सारा हुजूम उनकी ओर लपका, जैसे वे इंसान नहीं लड्डू हों और प्रसाद की तरह बँट रहे हों। शांत हो जाइये, शांत हो जाइये। नेता जी ने दोनों हाथ फैलाकर प्रसाद बाँटा, लेकिन न लोग मान रहे थे और न जानवर। सब के सब एक समान, अपनी-अपनी सुनने-सुनाने को बेताब थे। संगम था जानवरों और इंसानों का जिसमें हर चीज़ की समानता थी। आचार-व्यवहार, चाल-चलन और सबसे अहम् – हड़ताल। तुम्हारे पति का नाम क्या है ? किसी प्रकार नेता जी को माइक मिल ही गयी। बोले – ‘भाइयो एवं बहनो !’ और चारों ओर से तालियों की गड़गड़ाहट गूँज उठी। नेता जी विवेकानंद से भी बड़े हो गये। उन्होंने दूसरे देश के लोगों को भाई-बहन माना था और नेता जी ने पालतू जानवरों को भी मान लिया। वाह री नेताई! तेरे रंग हज़ार, तेरे रूप अनेक। टी.वी. वालों ने जुमला फेंका और फिर भाषण हुआ। कुछ खास नहीं। वही जो अकसर  होता है, माइक पर चीखना-चिल्लाना और सभी को भड़काना। दूसरे को चोर और खुद को मसीहा बताना। नेता जी ने अंतत: एकाकार होकर कहा – ‘हम आपके साथ हैं। हम जानते हैं कि आज का इंसान स्वार्थी है,दंभी  है, वह केवल अपने लिये ही जीता है, हम यह नहीं होने देंगे। हम शासन-प्रशासन को हिला देंगे। आपकी माँगों के लिये हम जनपथ तक जायेंगे। अनशन करेंगे। आपके अधिकार दिलाने के लिये हम भूख-हड़ताल करेंगे। हर प्रकार की हड़ताल करेंगे। बिल्कुल सही सुना आपने ह…ड़…ता…ल।’ और हड़ताल की शुरुआत हो गयी। सब-कुछ बन्द हो गया। नेता जी की जय-जयकार में कुत्तों  की भौं-भौं, गधे का ढेंचू-ढेंचू, मुर्गे की कुकड़ुमकू, बिल्ली की क्वयाऊँ-क्वयाऊँ भी शामिल हो गयी। नेता जी का विस्तार हो गया। मानव-जगत् के साथ पशु-जगत् पर भी एकाधिकार छा गया। नेता जी प्रसन्न हुए और बोले – ‘आज मैं सफल हुआ। इंसान तो क्या जानवरों को भी मात दे गया।’ परेशानी तब शुरू हुई जब भाषण समाप्त कर नीचे उतरने लगे। कहीं से भी रास्ता नहीं था। आदमी होते तो शायद जगह मिल जाती। जानवर जहाँ थे वहाँ से टस से मस नहीं हो रहे थे। मंच पर उठ रही गंध से बेहाल तो थे ही, भाषण जल्द समाप्त कर तेजी से भागे, लेकिन जायें तो जायें कहाँ की धुन मन में बजी। कहीं लीद थी तो कहीं गोबर। कहीं कुत्ता तो कहीं बिल्ली की…। नाक पर हाथ रखकर किसी तरह उछल-कूदकर मंच से नीचे तो आ ही गये। राम-राम अब नहीं, नेता जी ने मन ही मन में कहा। लेकिन अब क्या ? जो होना था, हो गया था – ‘ह….ड़….ता….ल’। चलने को जगह नहीं थी। चारों ओर जानवर नहीं तो टी.वी. वाले, पत्रकार, अधिकारी, भिखारी, और तरह-तरह के इंसान थे। चलने को एक सूत जगह नहीं थी। बिगड़ पड़े – ‘यह क्या मज़ाक है? हमें तो घर जाने दो!’ गधे ने अत्मीयता से कहा – ‘नेती जी, क्षमा करें। यह आदमी की नहीं, जानवरों की हड़ताल है। यहाँ सबके लिये एक-सा हाल है। वे तो न जाने क्यों तरजीह देकर निकाल देते हैं। हमारे यहाँ ऐसा नहीं होता। सब फँसे हैं आप भी लुत्फ़  उठाइये।’ विश्वजीत ‘सपन’ यह भी पढ़ें …… सूट की भूख न उम्र की सीमा हो हाय GST ( वस्तु एवं सेवाकर ) दूरदर्शी दूधवाला  आपको आपको  व्यंग लेख “‘ह…ड़…ता…ल’ “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

तुम्हारे पति का नाम क्या है ?

                                           आज सुबह सुबह श्रीमती जुनेजा से मुलाक़ात हो गयी | थोड़ी – थोड़ी देर में कहती जा रही थीं | रमेश की ये बात रमेश की वो बात | दरसल रमेश उनके पति हैं | वैसे भी आजकल पत्नियों द्वारा  पति का नाम लेना बहुत आम बात है | और क्यों न लें अब पति स्वामी नहीं बेस्ट फ्रेंड जो है | लेकिन श्रीमती जुनेजा जी ने मुझे अपनी प्यारी रिश्ते की भाभी जी का किस्सा याद याद दिला दिया | उनकी तकलीफ का महिलाएं आसानी से अनुमान लगा सकती हैं | ये उस समय की बात है जब पत्नियों द्वारा पति का नाम लेना सिर्फ गलत ही नहीं अशुभ मानते थे | तो भाभी  की कहानी उन्हीं की जुबानी … क्या – क्या न सहे सितम … पति के नाम की खातिर   भारतीय संस्कृति में पत्नियों  द्वारा पति का नाम लेना वर्जित है।मान्यता है नाम लेने से पति की आयु घटती है। ,अब कौन पत्नी इतना बड़ा जोखिम लेना चाहेगी ?इसलिए  ज्यादातर पत्नियाँ पति  का नाम पूछे जाने पर बच्चों को आगे कर देती हैं “बेटा  बताओं तुम्हारे पापा का नाम क्या है ?”या आस -पास खड़े किसी व्यक्ति की तरफ बहुत  याचक दृष्टि से देखती हैं, वैसे ही जैसे गज़ ,ग्राह  के शिकंजे में आने पर श्री हरी विष्णु की तरफ देखता है “अब तो तार लियो नाथ “.  इस लाचारी को देखते हुए कभी -कभी इनीसिअल्स से काम चलाने के अनुमति धर्म संविधान में दी गयी है। परंतु जरा सोचिये .. आप नयी -नयी बहू हो ,सर पर लम्बा सा घूंघट हो , और आपके साथ मीलों दूर -दूर तक कोई न हो ,ऐसे में परिवार का कोई बुजुर्ग आपसे ,आपके पति का नाम पूँछ दे तो क्या दुर्गति या सद्गति होती हैं इसका अंदाज़ा हमारी बहने आसानी से लगा सकती हैं।  आज हम अपने साथ हुए ऐसे ही हादसे को साझा करने जा रहे है। जब मुझसे पति का नाम पूंछा गया                                                          जाहिर है बात तब की जब हमारी नयी -नयी शादी हुई थी।  हमारे यहाँ लडकियाँ मायके में किसी के पैर नहीं छूती ,पैर छूने का सिलसिला शादी के बाद ही शुरू होता है। नया -नया जोश था , लगता था दौड़ -दौड़ कर सबके पैर छू  ले कितना मजा आता था जब आशीर्वाद मिलता था।  लड़कपन में में तो नमस्ते  के जवाब में हाँ, हाँ नमस्ते ही मिलता था।  हमारी भाभी ने शादी से पहले हमें बहुत सारी  जरूरी हिदायतें दी बहुत कुछ समझाया पर ये बात नहीं समझायी की पारिवारिक समारोह में किसी बुजुर्ग के पैर छूने अकेले मत जाना।अब इसे भाभी की गलती कहें या हमारी किस्मत… शादी के बाद हम एक पारिवारिक समारोह में पति के गाँव गए, तो हमने घर के बाहर चबूतरे पर बैठे एक बुजुर्ग के पाँव छू  लिए। पाँव छूते ही उन्होंने पहला प्रश्न दागा  “किसकी दुल्हन हो “? जाहिर सी बात है गर्दन तक घूँघट होने के कारण वो हमारा चेहरा तो देख नहीं सकते थे |हम  पति का नाम तो ले नहीं सकते और हमारी सहायता करने के लिए मीलों दूर -दूर तक खेत -खलिहानों और उस पर बोलते कौवों के अलावा कोई नहीं था ,लिहाज़ा हमारे पास एक ही रास्ता था की वो नाम ले और हम सर हिला कर हाँ या ना में जवाब दे। उन्होंने पूछना शुरू किया ………….                            पप्पू की दुल्हन हो ?हमने ना में सर हिला दिया।                          गुड्डू की ?                          बंटू की ?                         बबलू की ?                                         मैं ना में गर्दन हिलाती जा रही थी ,और सोच रही थी की वो जल्दी से मेरे पति का नाम ले और मैं चलती बनू। पर उस दिन सारे ग्रह -नक्षत्र मेरे खिलाफ थे। वो नाम लेते जा रहे थे मैं ना कहती जा रही थी , घडी की सुइयां आगे बढ़ती जा रही थी ,मैं पूरी तरह शिकंजे में फसी  मन ही मन  पति पर बड़बड़ा रही थी “क्या जरूरत थी इतना ख़ास नाम रखने की ,पहला वाला क्या बुरा था ?  पर वो बुजुर्ग भी हार मानने को तैयार नहीं थे| उनकी यह जानने की अदम्य इक्षा  थी की उनके सामने खड़ी जिस निरीह अबला नारी ने अकेले में उनके पैर छूने का दुस्साहस किया है वो आखिर है किसकी दुल्हन ?असली घी खाए वो पूजनीय एक के बाद एक गलत नामों की सूची बोले जा रहे थे और मैं ना में गर्दन हिलाये जा रही थी। पति के नाम के अतरिक्त ले डाले सारे नाम                                                   धीरे -धीरे स्तिथि यह हो गयी की उन्होंने मेरे पति के अतिरिक्त अखिल ब्रह्माण्ड के सारे पुरुषों के नाम उच्चारित कर दिए। जून का महीना ,दोपहर का समय ,भारी कामदार साड़ी सर पर लंबा घूँघट ,ढेर सारे जेवर पहने होने की वजह से मुझे चक्कर आने लगे। अब मैंने मन ही मन दुर्गा कवच का पाठ शुरू कर दिया “हे माँ ! अब आप ही कुछ कर सकती हैं ,त्राहि मांम ,त्राहि माम ,रक्षि माम रक्षि माम।                                                             और  अंत में जब माँ जगदम्बा की कृपा से उन्हें मेरे पति का नाम याद आया तो मेरी गर्दन इतनी अकड़ गयी थी  की न हाँ में हिल सकती थी ना ,ना में ………                             … Read more

आज मै शर्मिंदा हूँ?

आज मैं शर्मशार हूँ …लानत है, नेताओं को … एक सर्वे के मुताबिक भ्रष्टाचार के क्षेत्र में भी मेरा भारत चीन से पिछड़ गया है। आबादी में तो हम चीन से पीछे थे ही …लेकिन अब भ्रष्टाचार के क्षेत्र में भी चीन ने भारत को खदेड़ दिया है! रिपोर्ट के मुताबिक पिछले 18 वर्षों में पहली बार भारत चीन से कम भ्रष्टाचारी है, लेकिन इसका यह अभिप्राय नही कि भारत से भ्रष्टाचार का विनाश हो गया है बल्कि इसका मतलब यह है कि चोर तो दोनों देश हैं बस इस मामले में चीन थोड़ा ज्यादा लुच्चा  है! सन 2006 और 2007 में दोनों देशों का इस क्षेत्र में एक ही दर्जा था। दोनों बड़ी टक्कर के खिलाड़ी थे लेकिन अब हमारे हलक से यह बात नही उतर रही कि चीन हमसे आगे कैसे निकल गया है! क्या हो गया है हमारे निकम्मे राजनीतिज्ञों को? विश्व में कम से कम भ्रष्टाचार वाले देशों में आस्ट्रेलिया, कनाडा, सिंगापुर और डेन्मार्क जैसे देशो के नाम मुख्यता हैं!  भ्रष्टाचार में चीन से पिछड़ने के लिए भारतीय जनता में जागरूकता के आने और अन्ना-हज़ारे के जन आंदोलन को मुख्यता रूप से दोषी ठहराया जा रहा है ! मोदी जी ने भ्रष्टाचार को दाल समझकर अपने चुनाव के बाद झट से नारा लगा दिया है ‘न खाऊँगा और न किसी को खाने दूँगा!‘ मोदी जी की नीतियाँ उन्ही की अपनी बनाई नीतियों का प्रतिरोध करती है. मोदी जी अगर लोगों को खाने नहीं देंगे तो भला शोचालय क्या ‘शो” के लिए बनवाये जा रहे हैं!  बाज़ार में ऐसी दाले जिसे खाने से बकरी भी अपना मुंह बनाती है के भाव आजकल आसमां छू रहे हैं ! बेचारा, गरीब बाज़ार जाता तो दाल लेने के लिए है लेकिन उससे उसकी हैसियत से बाहर -महंगी दाल खरीदने की हिम्मत नहीं हो पाती. बस, दाल को सूंघकर ही वह अपने मन को तसल्ली दे लेता है! पति को हाथ में खाली झोले के साथ मुंह लटकाए देख कर पत्नी भी यह कहकर सब्र कर लेती है …आप भी न …! सुना है, आजकल भारत में प्याज़ का भी यही हाल है और लोगों ने उसे ओषधि की तरह इस्तेमाल करना शुरू कर दिया है।  हरेक चीज़ के भाव को आग लगी हुई है। लोगों ने मिर्च – मसालों का इस्तेमाल करना कम कर दिया है या छोड़ दिया है. मेरे इस कथन की पुष्टि फ़ेस-बूक पर आए दिन हल्दी, अदरक, अजवाइन, लस्सन, प्याज़ आदि के फ़ायदे बताने वाले नुसखों से होती है।  सोशल मीडिया और पत्र-पत्रिकाओं में आजकल पाक-विद्या (तरह – तरह के भोजन बनाने की कला) की कोई बात करता नही दिखता, लेकिन खाली पेट में मरोड़ पड़ने से बचने के लिये घरेलू नुसख़ों की भरमार लगी दिखती है। हरेक ऐरा – गेरा हकीम और पंसारी बना लगता है! तरह तरह के जानलेवा सुझाव दिए जाते हैं जैसे हार्ट-अटैक हो रहा हो तो पीपल का पत्ता  खाओ, अस्पताल नहीं जाओ …अपनी मौत घर पर ही बुलाओ !  उम्मीद तो नहीं लेकिन, मैं भी मरने के लिये अगर भारत लौटा तो उससे पहले ‘टाइम -पास ‘ के लिये पंसारी की एक दुकान खोलने की तमन्ना रखता हूँ क्योंकि अमेरिका में जीने के लिये अमेरिका के एक-दो डालरों में एक किलो दाल का मिलना सस्ता तो लगता है, मगर यकीन करें यहाँ मरना बहुत महंगा है और मरने से पहले इलाज भी बहुत महंगा है! दवाईयों की भारी कीमतें भरकर गोलियां हलक से नीचे नहीं उतरती ! (व्यंग्य -लेख) अशोक परूथी ‘मतवाला’ यह भी पढ़ें …….. सूट की भूख न उम्र की सीमा हो हाय GST ( वस्तु एवं सेवाकर ) दूरदर्शी दूधवाला  आपको आपको  व्यंग लेख “आज मै शर्मिंदा हूँ? “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

हाय GST (वस्तु एंव सेवा कर)

(हास्य-व्यंग्य) अशोक परूथी ‘मतवाला’ आजकल जी. एस. टी.  यानि वस्तु एंव सेवा कर को लेकर भारत में जनता ने दंगा-फसाद किया हुआ है औरकुछ लोग  समाज में तरह-तरह की भ्रांतियां फैला रहे हैं! इस कर को लेकर पानी के गिलास के साथ भी लोगों की रोटी इनके हलक से नीचे नहीं उतर रही ! सरकार ने इस कर का नाम सोच समझ कर रखा है – वस्तु एंव सेवा कर. वस्तु श्रेणी में कफ़न आता है और सेवा की श्रेणी में कफन को कन्धा देने वाले सब! इसलिए तो सयानो ने कहा है – आजकल किसी की कोई सेवा, मदद या भला करना भी जुर्म है!  मोदी जी को भी पता था कि इस कर को लेकर लोग रोष व्यक्त करेंगे और हो सकता है देश-भर में दंगा फसाद और तरह तरह के आन्दोलन शुरू हो जायें। लेकिन, लगता है आजकल मेरे भारत- वासी सभ्य हो गये है। अभी तक भारत के किसी कौने से बसों, रेलगाड़ियों या इमारतों के जलने की कोई खबर ‘इस-पार‘ नहीं आई है! मोदी जी को इस बात का पूरा डर था कि ‘कुछ ‘बावली-बूच‘ कुछ न कुछ तो तहस -नहस करेंगे। राष्ट्रीय सम्पति की पवित्र -अग्नी को आहूति देंगे, इसीलिये वे अपना ‘कटोरा‘ लेकर अमेरिका के दौरे पर निकल आये हैं! लोग तरह तरह के भड़काऊ सवाल किये जा रहे हैं! नये कर को लेकर किसे मुर्दे ने अभी तक कोई गिला नहीं किया लेकिन,.उसे कन्धा देने वालों की नींद कई दिनों से उडी पडी है !  सभी लोग तरह तरह की सुविधाएं चाहते है लेकिन कर कोई भरना नहीं चाहता! कर भरने की लोगों को आदत नहीं है इसलिए इस नये कर ककी खबर उनसे सही नहीं जा रही! विकसित देशों में भी ऐसे टैक्स हैं, भारत में भी था लेकिन अब उसमे कुछ बदलाव किया गया है ताकि कर न देने वाले या कर-चोर व्यापारी अपने हिस्से का टैक्स अदा करें! उन्होंने टैक्स कभी नहीं भरा उन्हें नियमों के अनुसार अब देना पड़ेगा इसलिए थोडा मुश्किल हो रही है! ऐसा होना स्वाभाविक ही है! कुछ साल पहले क्या हम आयकर देते थे? उस वक्त भी टेक्स-भरने पर दम घुटता था अब शायद सबको आदत हो गयी है! कोई ‘खाट‘ नहीं खड़ी करता अपनी या किसी दुसरे की क्यूंकि इससे देश का निर्माण हुआ है, देश का विकास हुआ है! जन-साधन और सुविधाओ में बढोतरी हुयी है! हुयी है कि नहीं? देश की ज़रूरते बड़ी हैं तो खर्चे के लिए सरकारों को भी समय समय पर नये कर लगाने पढ़ते हैं! ‘आप मरा जग परलो होई!‘ इसके अर्थ आप सब जानते हैं – जब आप इस संसार के लिए मर जायेंगे तो यह सारे संसार वाले भी आप के लिए मर जायेंगे! फिर काहे की टेंशन लेते हो, बंधू? गीता में लिखा है – “क्या लेकर आये थे जो खो दिया है। ..काहे को रोते हो…?”  जो हो अपने माता-पिता की बदोलत ही हो, उन्होंने ही आपको पाल-पोस कर बड़ा किया और अपना पेट काट कर भी आपको अच्छी शिक्षा और अन्य सुविधाएँ दी, आपके उज्जवल भविष्य के लिए अपना सुख-चैन तक गवायाँ! आपके पास जो है उनकी वजह से ही है! अब अगर उनके लिए कुछ करना पड़ रहा है तो काहे को रोते हो? हाँ, एक बात यह भी याद रखें, बड़ा पैसे से नही बनता, उड़द की दाल से बनता है! इसलिए जब तक आप में सांस हैं और आपके हाँथ-पांव और दिमाग चलता है तब तक अपनी ज़िन्दगी का खूब आनंद लें ! अपनी कमाई और बचाई हुयी बचत से देश भ्रमण करें या वह गतिविधियाँ करें जो आपको स्वस्थ्य और आनंद देती हों! अपनी सेहत और खुशी का सबसे पहले ख्याल करें उसके बाद ही ‘दूजी‘ चीजें और रिश्ते आते हैं! इश्वर ने इसीलिये सबको दो हाथ देकर इस धरती पर भेजा है ! क्या आप नही चाहते कि आप की संतान आप के जाने के बाद शांति और अमन के साथ अपनों के साथ मिलजुलकर स्नेह-प्यार से रहेे या कि आप चाहते है कि वे आपकी पूंजी के लिए एक दुसरे से “डांगो-सोटा” करती रहे और एक-दुसरे से बोल-चाल भी बंद कर बैठे! अगर आपके किर्या -क्रम का भी कोई जिम्मा लेने वाला नहीं तो अभी से किसी शमशान घर से प्रबंध करवा लें (अगर ऐसी आजकल भारत में ऐसी व्यवस्था है तो? विदेशों में तो यह सुविधा है, भारत में भी हो जायेगी) अन्यथा, अपने ‘आत्मा राम ‘ की शांति के लिए पूरे खर्चे की राशी अपने किसी विश्वशनीय रिश्तेदार या किसी मित्र को थमा दें! हाँ, अपनी पसंद के फूलों और संगमरमर के पत्थर जड्वाने की तमन्ना रखते हों तो इस खर्चे की भी अभी से कीमत उन्हें थमा दें! अब उपरलिखित प्रश्न का उतर सीधा-सा है ! १८ प्रतिशत का कर ‘लाश को कन्धा देने वाला‘ क्यूं देगा। ..वही देगा जो मृतक की पूँजी का अपने आप को हकदार मान रहा है ! हाँ , आपकी तरह बस मेरा भी एक डर है, उस शराबी की तरह जिसे उसके एक मित्र ने सुझाव दिया – ” यार, तूं शराब छोड़ने की बात कर रहा है। …ऐसा कर तूं बची हुयी अपनी सारी शराब की बोतलें अपने दोस्तों को दे दे !” शराबी का जवाब था – “अपने दोस्तों को मैं शराब दे तो दूं, मगर उन पर मुझे विश्वास नहीं….साले पी जायेंगे !” हाँ , इस साली सरकार और राजनीतिज्ञों का भी कोई भरोसा नहीं कि इस कर को जनता के भले के लिए लगायेंगे या अपने पौते -पौतियों या रिश्ते -नातियों पर! दोस्तों है क्या , मरने वाले ने भी कौनसा रोज़-रोज़ मरना है, एक बार ही तो मरना है उसने ! फिर आपने कौनसा अपनी जेब से कर भरना है. उसी की पूंजी से तो भरना है…आपके बाप का क्या जाता है… एक बार ‘टैक्स/‘ भरके ‘पासे‘ करो! यह भी पढ़ें …….. सूट की भूख न उम्र की सीमा हो आइये हम लंठों को पास  करते हैं दूरदर्शी दूधवाला 

सूट की भूख

 सरबानी सेनगुप्ता   आज जहाँ भी जाओ लेडीज सूट और कुर्तों का बोलबाला है | चाहे वो मॉल  हो या पटरी पर लगी दुकानें | सूट की भूख दिन को ही नहीं रात को भी औरतों को जगाये रखती है | यहाँ मैं अपने मोहल्ले का जिक्र कर रही हूँ |             सूट … लेडीज सूट ! नए डिजाइन के सूट ….साइकिल पर सवार वो सूट वाला  गज़ब का सेल्समैन था वह हर हफ्ते रंग –बिरंगे सूट अपने साइकिल के पीछे बनी सीट सामने डंडे और हैंडिल  पर लाद  कर लाता | उसकी गठरी इतनी ऊंची होती थी की उस दुबले –पतले सूट वाले का आधे से ज्यादा शरीर उस  गठरी के पीछे छिपा होता था | उसका सर और दो हाथ ही नज़र आते थे | जैसा भी था …. वो सूट वाला पुराने ज़माने के किसी हीरो ( पचास के दशक ) से कम नहीं था | सर पर चमेली का तेल , बीच में सीढ़ी कढ़ी  हुई मांग और मुँह से बड़ी उसकी मूंछे | बाप रे बाप ! क्या पर्सनालिटी ! उसके मुँह पर सदा एक चतुर मुस्कान रहती | गली मोहल्ले की सभी औरतें उस पर फ़िदा थी | अरे भाई ! हो भी क्यों ना ? सूट  की भूख तो औरतों को युगों युगों से चली आ रही  है | महीने में दो –तीन सूट खरीदना तो उनका जन्मसिद्ध अधिकार है | और जो नहीं खरीद पाती वो मन मसोस कर सब्र कर लेती , अपने घर की अर्थ व्यवस्था का ध्यान रखती |            तो अब जब भी सूट वाला गली में आता तो आगे आगे सूट वाला और छोटी लडकियां पीछे –पीछे | जैसे बैग पाइपर की कहानी में बैग पाइपर आगे आगे और गली के सारे चूहे उसके पीछे –पीछे चलने लगते थे |बच्चे  दौड़ –दौड़ कर अपनी मम्मियों  को सूट वाले के आने की खबर देते | गर्मी की छुट्टियों  में बच्चों को मम्मियों  की तरफ से यह असाइनमेंट दिया जाता की जैसे ही सूट वाला आये उसकी खबर उन्हें दी जाए | सामने रहने वाली आंटी सूट वाले को बड़े चाव से बैठाती | ठंडा पानी पिलाती और उसकी गठरी की तरफ बड़ी ललचाई नज़रों से देखती | जैसे मिठाई का डिब्बा अभी खुलेगा और खाने को मिलेगा | वह आंटी आस –पास के घरों में रहने वाली औरतों को जोर –जोर से आवाज़ लगाती | फिर क्या था एक औरत दो औरत और तीन –चार और पूरा मुहल्ला वहाँ इकठ्ठा हो जाता | सूटवाला  तरह –तरह के सूट निकालता जाता | सूती , रेशमी , सिंथेटिक , कॉम्बिनेशन | वह भी कहाँ कम था , भीड़ को देखते हुए मनमाने रेट लगाता | औरतों में छीना – झपटी शुरू हो जाती | बेचारे सूट के कपडे , इस हाथ से उस हाथ और उस हाथ से सीधा जमीन  पर !!! कपड़ों को खोल –खोलकर ढेर लागाती औरतें यूँ लगती जैसे उन्हें कितने दिनों बाद खाना –खाने को मिला हो | सुबह ११ बजे गली की सभी औरतें अपना घर –बार छोड़ कर सूटों  की छटाई में लग जाती | उनके पति “ बेचारे “ से बने खिड़की से टाक –झाँक करने लगते | कुछ के पति तो झल्लाकर ऑफिस चले जाते | और कुछ के व्यापारी पति अपने अधखुले टिफिन के डिब्बे को ललचाई निगाहों से देखते | जिसमें उनकी धर्म पत्नियाँ स्वादिष्ट भोजन भरते –भरते सूट खरीदने चली गयी थी | जो भी है भाई , बीबी अगर सूट से खुश है तो कम्प्रोमाइज़ तो करना ही पड़ेगा |              बरहाल ये तो चलता ही रहता है | औरतों में जो हमारी हेड आंटी थी वो एक दिन मिसेज मल्होत्रा की बेटी से बोली , “ जा शर्मा आंटी को बुला ला |” वह दौड़ती हुई गयी और बैरंग वापस आ गयी और बोली ,” शर्मा आंटी बुखार से बेहाल हैं और बेहोश सी पड़ी हैं | “ अचानक निधि आंटी बोली चल मैं बुला कर लाती हूँ | “ थोड़ी ही देर में वह शर्मा आंटी को लेकर वापस आ गयी | कांता जी ने निधि के कान में फुसफुसाकर कहा , “ अरे ये तो बीमार थी , ये कैसे आ गई ? तूने ऐसा क्या कह दिया | निधि हँस कर बोली , “ मैंने कुछ ख़ास नहीं कहा | मैंने तो बस इतना कहा की सूट वाला आया है और उसने सूटों की सेल  लगा दी है | “ फिर क्या था वह झट से उठीं और पट  से आ गयीं | सूट वाला न हुआ कृष्ण कन्हैया हो गया | कृष्ण जी की बंसी की आवाज़ सुनकर सारी  गोपियाँ दौड़कर आती थीं | ऐसे ही “ सूट ले लो “ की आवाज़ सुन कर मोहल्ले की सभी औरतें अपने अपने घरों से बाहर आ जातीं | सूटों  के कपड़ों के ऊपर गिरी पड़ी औरतें तेरा सूट , मेरा सूट करते –करते न जाने कितने सूट खरीद  लेती |  ऐसी भी क्या सूट की भूंख , पर क्यों नहीं , कभी ऊँची कमीज तो कभी पाँव को छूती लम्बी कमीज | फैशन भी तो गिरगिट की तरह रंग बदलते हैं | आज आलम यह है की पतियों की गाढ़ी कमाई  का एक बड़ा हिस्सा सूटों  की भेंट चढ़ जाता है |                 देश में सूखा पड़े या बाढ़ आये | खाने –पीने की चीजों की कमी की आशंका टी . वी पर जरूर दिखाई जाती है | पर कभी लेडीज सूट की कमी कहीं नज़र नहीं आती | पर क्या करें ! भाई , सूट पहनना तो कोई बंद नहीं कर सकता ना | तो आज की नारी का नारा है “ जब तक सूरज चाँद रहेगा , सूटों  का काफिला यूँ ही आगे बढेगा …………… यह भी पढ़ें ……. आई लव यू ~ यानी जादू की झप्पी -शर्बानी सेनगुप्ता  न उम्र की सीमा हो … किरण आर्य हमने भी करी डाई – ईटिंग एक लेखक की दास्ताँ

आईये हम लंठो को पास करते है ( व्यंग्य )

-रंगनाथ द्विवेदी अब इस देश मे वे दिन नही जब हम अन्य विज्ञापनो की भांति ही ये विज्ञापन भी अपने टेलीविजन या अखबारो मे लिखा हुआ देखेंगे कि “आईये हम अपनी शिक्षण संस्था से लंठो को पास करते है”। योग्यता बाधा नही परसेंटेज के हिसाब से सुविधाएँ उपलब्ध,हमारी विशेष उपलब्धि व आकर्षण है कि “हम अपना नाम न लिख पाने वाले छात्र को भी पूरे प्रदेश या राज्य मे टाप करवाते है”। इस तरह के तमाम पीड़ित व कमजोर छात्र मौके का लाभ उठा आज तमाम बड़ी नौकरियो में अपनी सफलता पूर्वक सेवाये दे रहे है। इन लोगो के जीवन कौशल व उपलब्धि की छटा अद्भूत है,कल हमारे ही कुछ सफल तथाकथित छात्रो को ये समाज नकारा और बेकार कहता था,आस-पास के लोग अपने बेटो को इनसे दूर रहने की सलाह देते थे। आज उन्हीं के वे तमाम उज्ज्वल बेटे स्याह से भी ज्यादा स्याह हो गये है”बेरोजगारी ने चेहरे का सारा लालित्य छिन लिया है”। जबकि हमारी संस्थान से निकले छात्र–“हृष्ट-पुष्ट गेहूँ की तरह लाल हो गये है रेमंड की शर्ट,रेडचीफ की सैंडल और कार से उतरती उनकी सुदंर पत्नियाँ एैसे उतरती है कि देखते बनता है”।उन्हीं के गाँव-गिराव के वे मित्र जो कभी इनसे दूर रहने के लिये अपने पिता के फरमानो का अक्षरशः पालन करते थे आज अपने उसी सफल मित्र के इस जीवन शैली को देख आह!भरते है और उनके मन की सड़क पे पीड़ा के बुलडोज़र के गुजर जाने का सा ऐहसास होता है। तमाम कार्यालय,आफिस कुकुरमुत्ते की तरह खुले पड़े है बस लेकिन हमारे कार्य करने का तरिका “फ्राड के श्रेष्ठ नासा के वैज्ञानिक की तरह है”।”यहाँ तमाम तरह की शैक्षणिक खरिदारी की जा सकती है”।हर रेट वय मे सुविधाएँ उपलब्ध है हम अपने ग्राहक की सुविधा का ध्यान रखते है।हमारा ये रैकेट विश्वसनीय व खरा है,हमारे यहाँ तमाम तरह के वर्कर हर जगह जुगाड़ बिठाने मे लगे रहते है अर्थात ये फिल्ड वर्क देखते है।इस फिल्डवर्क करने वालो को साम-दाम-दंड-भेद जैसे भी अपना काम निकलवाने के लिये,किसी भी तरह के हथकंडे अपनाने की सुविधा इन्हें होती है। इस तरह की सुविधाओ से उन नियुक्त करने वाले अधिकारियो व मंत्रियो की सटीक विश्वस्त गोपनीय सुविधा मुहैया करा पैसे के साथ “उनकी पचास साल की उम्र मे हफ्ते-पन्द्रह दिन पे एक खूबसूरत बीस-पच्चीस साल की लड़की उनके आवास या कमरे पे भेज इनके अंग-प्रत्यंग की थिरैपी व मसाज के साथ कामासन कराते है” जिसका परोक्ष लाभ हमारी संस्था पाती है। “इतने सारे कलात्मक पापड़ बेलने के बाद तब हमारी ये संस्था चल व निखर रही है”।बस हमे और हमारी इस संस्था को उस कालजई निर्णय का राष्ट्रीय इंतजार है,जब सरकार हमें बाकायदा इस तरह के विज्ञापन करने का लाइसेंस दे देगी और हम बाईज्जत टेलीविजन या अखबार मे इस तरह हेडिंग के साथ ये विज्ञापन लगा सकेंगे कि………. “आईये ये शैक्षिक संस्था लंठो को पास करती है “ रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर(उत्तर-प्रदेश)। रिलेटेड पोस्ट  सादे नाल रहोगे ते योग करोगे जय पाखंडी बाबा न उम्र की सीमा हो इंजिनीयर का वीकेंड और खुद्दार छोटू

हाँ, उस युग का वासी हूँ मैं

व्यंग्य –लेख अशोक परूथी “मतवाला“ मेरे युग में, {व्हट्सअप ओर सोशल मिडिया के जन्म से पहले), भी खबरें ‘वेरी फ़ास्ट‘ मिलती और पहुँचती थी. अंतर बस इतना है कि उस समय जीवन और लोग दोनों बड़े साधारण, सरल-से और खुश-मिजाज़ हुआ करते थे. जनसंचार सुविधा के कोई बिल-विल नहीं होते थे. अब तो किसी के पास अपने मरने का भी समय नहीं है. जिन्दगी और जिन्दगी के मसले जटिल हो गये हैं. दूसरों की कुछ मदद करने की तो आप बात ही न छेड़े. ऐसा करना, मधुमखियों के छते को छेड़ने जैसी बात ही होगी. आज लोग और जिंदगियां व्यस्त ही नही बल्कि बहुत ही अस्त-व्यस्त भी हैं! है,ना? सहमत हो तो अपने हाथ खड़े करो या फिर अपना सर ऊपर-नीचे करके मेरे साथ अपनी सहमती दर्शाओ, बस,इतना करने का तो आपका कर्तव्य बनता ही है ! “सरला, भैन जी, मेरा दिल ते बड़ा करदा कि तुहानू मिलन आवां पर कि करां मरनेजोगी, हब्बे-मोई फेसबुक ते व्हट्सअप तू व्हेल ही नहीं मिलदा!“ हालाँकि, उन दिनों जन-संचार के गिने चुने ही साधन होते थे. जैसे, गाँव का नाई, मोहल्ले की पंडिताइन (जो जलती दोपहरी में भी बिना नागा किये घर से हंदा लेने आती थी और यह बता जाती कि कब संग्रांद है या पूर्णमासी होगी, या फलां फलां के बेटे की कब शादी है या मोहल्ले में किसकी बिटिया के पाँव भारी हो गये है – सब की सब सूचना रूंगे में घर बैठे-बिठाये मिलती थी, मुफ्त, बिलकुल मुफ्त). दूर-दराज़ की ख़बरों के लिये पास के गाँव में बसी फूफो सुमित्रा होती थी जो मिलने समय–असमय घर पर आती-जाती रहती थी. इस सब के ईलावा ख़बरों का एक अन्य साधन भी होता था – रेडियो. उन दिनों रेडियो तो आम थे, मगर ट्रांसिस्टर (बैटरी वाले चलते-फिरते) विरले-विरले के पास ही होते थे! दादी मां का कहना था डिब्बे में भूत बंद है जो गाने गाता है और आवाजे बदल बदलकर बोलता है (विभिन्न कार्यक्रम पेश करने वाले) गुल्ली-डंडा या क्रिकेट लडको के, स्टापू या रस्सी -टपना लड़कियों के और लूकन-मिटी (हाईड एंड सीक) दोनों के सांझे ‘गेम‘ हुआ करते थे! गर्मियों में तंदूर की गर्मा-गर्म रोटी और लस्सी के बड़े गिलास का अपना ही लुत्फ़ होता था. पंखे और वातानुकूलित कमरों के न होने का कोई गिला नहीं करता था. अपने घर की ड्योढी या घने पीपल पेड़ तले ही निंदिया रानी आ जाती थी और अपने आगोश में ले लेती थी! चौमासे में कभी जब बारिश की झाड़ी लगी होती थी तो तले हुये पकोड़े या फिर बेसन के पूड़े महबूब की तरह प्रिय हुआ करते थे. फिर सर्दियां जब आती थी तो मक्की की रोटी और सरसों का साग या फिर मक्खन के पेड़े के साथ उंगलियाँ चाटने का भी अपना ही मज़ा होता था. सोने के समय ठंडी रजाई में, सिरहानो के साथ ऐसे लिपटते थे जैसे शादी की पहली रात नई-नवेली दुल्हन संग हो! पुरुषों के लिये कीकर, नीम और महिलाओं के लिये रंगीले दातुन आम हुआ करते थे जिससे हम-सब अनार के दानो की तरह अपने दांतों को चमकाते थे, दांतों के डाक्टर और टूथपेस्ट कहाँ होते थे, उन दिनों? घर के काम – रोटी पकाना, कपडे धोना, बर्तन मांजना, कढ़ाई -सिलाई करना और घर में चक्की -चलाकर जो अनाज या आते पीसे जाते थे, उसी से लड़कियों का स्वास्थ्य बरक़रार और चेहरा खूबसूरत रहता था, उन दिनों स्लिमिंग सेंटर या “जिम‘ भला कहाँ होते थे. यह नहीं खाना, वह नहीं खाना के कब टंटे होते थे, एक बार तो पहले खा लेते थे, बाद में ही जो भी होता था उससे निपटते थे लेकिन,आज हम सब ‘लेबल‘ पढ-पढ़कर ही परेशान और हैरान हैं. अम्मी जान इतनी निपुण होती थी कि घर में ही बड़े भाईयों की फटी-पुरानी पेंटो को काट-छांट कर मेरी नयी पेंटे और निक्करें तैयार कर लेती थी. याद है, ऐसी भी पेंटे खुशी-खुशी डाली जिसमे नाला होता था और ‘फ्लाई‘ होती थी! स्वेटर का डिजाइन तो अम्मी-जान बस में सफ़र करते हुये या स्कूल में बच्चों को पढाते हुये ही डाल लेती थी. और हैं, गली के कोने पर भट्टी वाली और तंदूर वाली एक ‘एक्स्ट्रा’ मासी हुआ करती थी जो पंक्ति काट कर पहले दाने भून देती थी या फिर चपातियां लगा देती थी. हाँ, मैं बहुत पुराना हूँ, हाँ मैं उसी युग का हूँ, जब यह सब चीज़े होती थी. हाँ, वह युग जिसमे भाई-बहिन, मां-बाप, गली-मोहल्ले वाले सब, अपने होते थे, लोग कितने इश्वर के शुक्रे (शुक्रगुज़ार) होते थे. हाँ, कोई लौटा दे मुझे – मेरी वो गलियां, मेरा मोहल्ला, मेरा गाँव, मेरा बचपना और मेरे वो दिन! यह भी पढ़ें … राम नाम सत्य है दूरदर्शी दूधवाला मेरी बत्तीसी जाएँ तो जाएँ कहाँ

राम नाम सत्य है

मेरी मौत 9 जून 2051 को होगी? यह तारीख एक ‘वेब-साइट’ वालों ने मेरे लिये निकाली है! है, भगवान, तेरे घर में भी आज इन ‘आईडेंटिटी थेफ्ट’ वालों ने कुछ सुरक्षित नही छोड़ा! साँठ-गांठ करके अब यह लोग हमारी मौत का रिकॉर्ड भी तुम्हारे यहाँ से ले आये हैं! एक रहस्य था और उसमे भी कितना रोमांच था कि एक दिन मेरी डार्लिंग, मेरे सपनो की रानी, मेरी मौत, मेरे पास आएगी और मुझे सजनी की तरह आकर अपने आगोश में भर लेगी और मैं आनंदित होकर सदा के लिए अपनी आँखें मूँद लूँगा। अब कर लों बात…यह रहस्य और रोमांस भी गया! सन दो हज़ार इक्वञ्जा के जून महीने के नौवें दिन 24 घंटे के अंदर किसी भी वक्त मुझे मौत आ सकती है! अगर यह कमबख्त मेरे मरने का समय भी बता देते तो मैं उस दिन थोड़ा और सकून से मर जाता..। नहा-धोकर धूप-बती कर लेता .अपनी दाढ़ी-शेव बनाकर समय पर तैयार हो जाता। मेरे घर वाले भी चैन से अपना नाश्ता-लंच कर लेते या फिर अपना खाना-पीना उस घड़ी से कुछ आगे-पीछे कर लेते जब यमदूत अपना वाहन मुझे ढोने के लिए लाने वाले थे! अपने घर वालों से सफर में भूख लगने पर खाने के लिए कुछ ‘टिफन’ में ‘पेक’ करने का आग्रह कर लेता …न जाने कितना लंबा सफर हो…और न जाने कब जाकर किस पहर मुंह के रास्ते पेट में कोई निवाला जाये? कौन जानता है की ऊपर वाले के उधर भी कोर्ट-कचहरी जैसा ही होता हो और घर से अपनी रोटी बांध कर ले जानी होती हो? या फिर क्या उधर भी कचहरी की तरह अहाते में पीपल के पेड़ के नीचे कोई कुल्चे-छोले वाला मिल जाता है? भई, इन ‘वेब-साइट’ वालों पर अब मेरा पूरा विश्वास हो चला है, उन्होने मेरी मौत का कारण हृदय-रोग बताया है। पता नही इनको मेरे इतिहास और ‘सेहत -रेकॉर्ड’ के बारे मैं कैसे पता चला है…मुझे यह जानकार ताज्जुब हो रहा है…हाँ, मुझे अपनी इकलोती जवानी में ही शिमला की एक मृग-नयनी, कमसिन और बाली-उमरिया की एक छोकरिया से… हो गया था ! खुदा की मर्ज़ी थी या संजोगों की बात… हमारी नही हुई… और हो सकता है वह आज भी कहीं गोलगप्पों और चाट का मज़ा ले रही हो और हम समझदार आज भी उसके लिए अपना खाना छोड़े बैठे हैं! खैर, जो भी जानकारी उपलब्ध है उसके मुताबिक तब मेरी उम्र 93 वर्ष से कुछ दिन कम होगी। पता नही इतने साल और जिंदा रहकर मैंने किस के बाप का कर्ज़ चुकाना है जो अब तक मैं चुका नही पाया! उस दिन शुक्रवार होगा, जुम्मे का दिन ! अल्हा के कर्म से आप में से तब तक कोई बाकी बचा (जीवित रहा) तो सप्ताहांत के कारण आपको आने जाने में सुविधा रहेगी। यह दिन 2051 वर्ष का 160वां दिन होगा और और लुट्टीयां डालने के लिए आपके पास साल में अभी भी 205 दिन शेष बचेंगे! याद रहे, 2051 का वर्ष लीप वर्ष नही है, इसलिये लुट्टीयां डालने के लिये आपका एक दिन और कम हो गया ! यह पूर्व जानकारी इसलिये तांकि आप कोई बहाना न बनाये कि आपको समय पर सूचना नही दी, अभी से अपनी ‘स्मार्ट वाच’ को बता दें, पता नही इस कागची कलेंडर का प्रचलन उस समय हो या न हो ! पता नही आपको याद भी रहे या न रहे, आपके पास भी तो ‘टाइम नही है…टाइम नही है…मरने का भी टाइम नही है …!’ हमारी ‘सोशल सेकुरिटी’ तब तक रहे या न रहे, हम भी रहे या न रहे लेकिन यह बात तो निश्चत हो गई है कि उस दिन तक दुनिया रहेगी। उसके बाद क्या होगा आपमें से ही कोई बता सकता है ! कहते हैं, आप मरा, जग परलो होई, अर्थात जब मैं मरा तो…मेरी ब्लाँ से…यानि जब मैं आपके लिये मरा तो आप सब भी, सब के-सब, मेरे लिये मर जायेंगे…’चैप्टर क्लोज्ड’ ! तब, ‘न काहू से दोस्ती, न काहू से वैर।’ खैर, जो भी होगा, ठीक ही होग, ऐसा मेरी पवित्र धार्मिक पुस्तक गीता कहती है! हाँ, मेरी एक ख्वाईश । मुझे ‘चमेली’ और उसकी सुगंध से काफी लगाव है । अपने पैसों से खरीद कर लाना क्योंकि मेरे मरने के बाद किसी ने मुझ पर एक पैसे के उधार का भी विश्वास नही करना! अपनी मौत का दिन जानकार एक बात की खुशी कि मैं अब तब तक चाहे जो मर्ज़ी आए करता फिरूँ …मुझे लाइसेंस मिल गया है… किसी का बाप भी अब मेरा कुछ नही उखाड़ सकता मेरा मतलब बिगाड़ सकता, चाहे मैं किसी ईमारत की पाँचवी मंज़िल से भी नीचे क्यों न कूद पड़ूँ । मुझे, कोई आंच नही आ सकती! लेकिन, यह सब जानते हुए भी मेरा मन डरता है और प्रभु से मेरी यह विनम्र प्रार्थना है, “बस, उतने ही दिन देना, भगवन, जो मैं किसी अपने या पराये पर निर्भर हुए बगैर चलते-फिरते, खुशी-वुशी के साथ बिता सकूँ, नही तो इस विदेश में एक भी नही सगा मेरा जो बिना मतलब के एक पानी का ग्लास भी पीने को दे दे …! ए खुदा, मुझे किसी से ऐसी कोई उम्मीद न रखने के लिए समर्थ बनाये रखना! तूँ सब की देखभाल करने वाला है, और बड़ी रहमतों वाला है, मुझे भी अपनी छत्रछाया में रखना! जय बजरंग बली, करना सब की भली, लेकिन मेरा बुरा चाहने वालों की तोड़ना गर्दन की नली ! अशोक  के  परुथी “मतवाला”

जय बाबा पाखंडी

ऐशो आराम बाबा बड़े बड़े दावे किया करते थे कि वह ईश्वर से साक्षात्कार करते है.भक्तों को भगवान् की कृपा मुहैया करते हैं .लेकिन वह भक्त का किस भगवान् से साक्षात्कार करवाते हैं इसका भंडाफोड़ उन्ही के जब एक भक्त ने किया तो वह सारे इलेक्ट्रोनिक एवं प्रिंट मीडिया वाले जो कभी उनके प्रोग्राम पीक टाइम में टेलीकास्ट करते थे और वर्गीकृत पेज पर उनके विज्ञापन छाप मोटी कमाई करते थे .उनके पीछे पूरी तरह नहा धोकर पड गए .पुलिस ने भी फ़िल्मी पुलिस के ढील का पेंच वाला आवरण उतार पूरी मुस्तैदी से उन्हें व् उनके रंगरसिया पुत्र उर्फ़ लगभग पूरे देश का इल्लीगल जमाई माफ़ करें छेडछाड साईं को तुरंत गिरफ्तार कर लिया छेड़छाड़ साईं तो अपनी घटिया बुद्धि से छेड़छाड़ कर भाग निकलने में कामयाब हो गया मगर भागते चोर की लंगोटी की तरह ऐशो आराम लपेटे में आ गया .बाबा गिडगिडाते हुए अपनी मिमियाती आबाज में अपने भक्तों को भरोसा बनाये रखने की अपील करते हुए यह तर्क दे रहा था “भक्तो बाबा ने तुम्हे परम साक्षात्कार (बलात्कार)करवाया ,निस्संतानो की गोद हरी (या भरी)आपके नीरस जीवन में आत्मिक आनंद का रस प्रदान किया (कौनसा रस?)आप अपने बाबा पर भरोसा रखिये इश्वर जानता है सब देख रहा है (इश्वर से देखा नहीं गया तभी तो तुम्हे जेल पहुँचाया बाबा )” बाबा की इन दलीलों और गौरव गाथाओं को सुन वो भक्त भी सकते में आ गए जो बाबा की शरण में आने से पूर्व निस्संतान हुआ करते थे .और अब उन पड़ोसियों और मसखरे मित्रों ने उनका जीना हराम किया हुआ था .ऐसे ही हमारे एक रिश्तेदार थे जिनके पुत्र का नाम आनंद था और पूरा परिवार बाबा को भगवान् की तरह पूजता था .लोग विनम्रता से उनसे पूछते “क्यों भाई हमें तो पता ही नहीं चला वैसे कब प्राप्त कर आये आत्मिक आनंद ?पहले जो भक्त ऐशो आराम बाबा की तस्वीर अपने घर और कार्यालय में शान से लगाते थे अब अपमान से डरकर धडाधड फाड़ने और उतारने लग गए . इधर जेल का सूनापन बाबा को काटने को दौड़ रहा था वजह थी की अराध्य की सेवा के लिए सेविकाएँ उपलब्ध नहीं थी .उन्हें यह भी डर था कि परम साक्षात्कार की प्रेक्टिस कमजोर ना पड जाए वर्ना बाहर निकलकर क्या करेंगे ?.बाबा के साक्षात्कार का किस्सा जब बाबा आमदेव ने सुना तो भोचक्के रह गए क्योंकि उनका आन्तजली दवाखाना यूँ तो हर प्रकार की दवाई बनाने का दावा करता था. मगर आज तक ऐसी कोई दवाई नहीं बना सका जिसे खाकर अस्सी वर्ष के बुढ्ढे परम साक्षात्कार कर सके .उसने अपने सहयोगी बाबा लालकिशन को बुलाकर फटकारा कि “लालकिशन दिनभर पेड़ों पर कोयला बियर की तरह टंगे दीखते हो इस सक्रियता की कोई जड़ी बूटी क्यों नहीं खोजी तुमने.यहाँ हम स्विस खतों से धन निकलवाने की युक्ति फ्री में बाँट रहे हैं नेताओं की बेलेंस शीत बनाबनाकर दिमाग का दही कर रहे है .तुमने ऐसी दवा खोजी होती तो हमारा भी स्विस बेंक में अकाउंट होता ?”बाबा लालकिशन “आमदेव के बच्चे जड़ी बूटियों को प्रयोग करके परखा जाता है .मगर तुम तो एक आँख से पूरे देश विदेश पर नजर रखे हो कोई प्रयोग करे तो कहाँ ससुरे कपालभांति कराकराकर कुछ और करने लायक छोड़ा ही नहीं “इधर एक और बाबा कामपाल जो कि एशो आराम बाबा पर वर्षों से नजर रखे हुए थे उन्हें तरक्की यानि तरी बिद दरी का फार्मूला मिल चूका था .एशोआराम के जेल पहुँचते ही उनका धंधा और जोरों से चल निकला .उन्होंने जान लिया था कि (प्रेक्टिस मेक्स ऐ मैन परफेक्ट)अत: वह भी पूरी मेहनत कर रहे थे ऐशो आराम का रिकॉर्ड तोड़ने की .लेकिन अभी तो भक्ति की धारा प्रवाहित ही हुई थी गाड़ियों का काफिला मात्र 190 तक ही पहुँच पाया था कि बाबा काम्पल भी अपनी ससुराल पहुँच गए .हैरान परेशान बाबा आमदेव और लालकिशन ने इस समाचार को देख राहत की साँस ली .और आपस में बतियाने लगे – बाबा आमदेव –लालकिशन कामपाल के जेल जाने पर राहत तो मिली पर मैन में एक फांस रह गयी .भाई हम इस स्टार तक नहीं जा सके .लालकिशन-“ कैसे जाते ?स्टेमिना चाहिए इस सबके लिए तुम्हारी आंख तो माँ बहनों को योग सिखाते ही छोटी हो गयी परम साक्षात्कार क्या ख़ाक करवाते “. बाबा आमदेव-लालकिशन तू मेरा शिष्य होकर मेरी ही उतार रहा है .मत भूल आयुर्वेदाचार्य की तमाम झूठी डिग्रियां मैंने ही तुझे दिलवायीं हैं .” लालकिशन-“आमदेव जयादा अहसान मत जाता मैं भी तेरे हर प्रोग्राम में बन्दर की तरह पेड़ पर लटका हुईं में अगर जड़ी बूटियों के फायदे ना गिनाऊं तो तेरा आन्तजली दवाखाना तेरी ही आंत जलने पर उतारू हो जायगा समझा ? आमदेव-“तो मैं भी कौन चैन की बैठकर खा रहा हूँ भीषण ठण्ड में लुगाइयों का सा दुपट्टा ओड़कर कपालभांति करवाता हूँ और अंतड़ियों की चक्की घुमाता हूँ “बहुत दुखती हैं रे मेरी अंतड़ियाँ . लालकिशन –“यही तो आमदेव हम कपालभांति करते रह गए और हमारी कपाल पर जूते मारकर यह ऐशोआराम,कामपाल,निरमा बाबा जैसे लोग सात पुश्तों के लिए इकठ्ठा कर ले गए .वो तो भाल हो कुछ जागरूक युवाओं का और मिडिया कर्मियों का जो इनका भंडाफोड़ एक एक करके करते जा रहे हैं .वर्ना तो समाज में बदनामी का डर ही भक्तों को उनके प्रिय बाबा का भंडाफोड़ नहीं करने देता .”: साहित्यकार सपना मांगलिक

न उम्र की सीमा हो

आज फिर दिमागी केंचुए कुछ सक्रिय हुए जब नज़र पड़ोस में रहने वाले चुकुंदीलाल जी पर पड़ी, 85 साल के श्री चुकुंदीलाल पुरातत्व विभाग में रखे किसी स्मृति चिन्ह से प्रतीत होते है, 85 साल की बांकी उम्र में नकली दांतों के साथ दन्तुरित मुस्कान बिखेरते अपनी आधी चाँद को जब सहलाते है तो पुराने हीरो बारी बारी मानस पटल पर आकर अपने स्टाइल में मुस्कुराते है ! अभी कुछ महीने पहले ही इस बांकी उम्र में श्री चुकुंदीलाल 26 साल की डॉली (जो अपनी जीरों साइज़ फिगर से सभी के आकर्षण का केंद्र बनी हुई है, यानी बोले तो पूरे मुहल्ले की आँखों का नूर )….के साथ विवाह के अटूट बंधन में बंधे है, डॉली के शुभ चरण चुकुंदीलाल के उजाड़ जीवन में क्या पड़े चहुँ तरफ हरियाली छा गई है, और उनका बांकपन और निखर आया है, आजकल जनाब डेनिम जीन्स और टी शर्ट में घूमते नज़र आते है, और अपनी हर अदा पर इतराते है, उन्हें देख बेमेल विवाह पर बहुत से प्रश्न हमारे जेहन में मंडराने लगे काले बादलों से …..हमने जब डॉली को देखा तो तपाक से पूछा कि छोटी उम्र के सभी पुरुष क्या वनवास वासी हो गए है ? या कुंवारे कम उम्र युवकों का अकाल पड़ा है ? जो तुमने इतनी उम्र के पुरुष से विवाह किया और उसके बाद कैसे इतनी खुश नज़र आती हो ? तुम्हारी ख़ुशी नज़रों का छलावा या सच है ? तो डॉली ने खिलखिलाते हुए नैन मटकाकर कहा मिसेज आर्य मुझे बताये बेजोड़ विवाह की परिभाषा क्या है ? उसने अदा से सवाल मेरी तरफ उछाला और मेरी बड़ी बड़ी आँखों में झाँकने लगी, मैंने अपनी सोच के घोड़ो को दौड़ाया तो दिमाग ने सिंपल सा उत्तर चिपकाया बेजोड़ विवाह यानी जिसमे स्त्री पुरुष की आयु में अधिक अंतर ना हो, जोड़ी ऐसी हो जिसे देख सब आहें भरे, और उस जोड़े के पूरे 36 गुण मिले, लेकिन एक असमंजस ने ली जम्हाई और सामने हो खड़ा मुस्कुराया, बेजोड़ विवाह में पत्नी शुरुवाती दिनों में मृगनयनी चंद्रमुखी सी है लगती, पति उसके कदमो तले बिछा है जाता उसकी हर अदा पर वारि वारि जाता, उसके कुछ साल बाद जब चंद्रमुखी होने लगती है पुरानी तो हर घर की होती लगभग एक सी कहानी….उसकी शीतलता तपिश में होने लगती है तब्दील और चंद्रमुखी हो जाती है सूरजमुखी, उसका आकर्षण होने लगता है कम और फिर साल दर साल है बीतते और फिर एक दिन वो हो जाती है ज्वालामुखी, जिसका स्वर हो जाता कर्कश, फीगर जाता है बिगड़ और उसकी सूरत देख पति गाता मन ही मन ” जाने कहाँ गए वो दिन ” यहाँ पर ” घर की मुर्गी दाल बराबर ” कहावत पूरी तरह चरितार्थ होती नज़र है आती, और वो मृगनयनी गले का फंदा है बन जाती ! फिर बेजोड़ विवाह का औचित्य क्या रह जाता ? जब रिजल्ट उसका ज्वालामुखी रूप में सामने है आता, और रिश्ते के सभी जोड़ है ढीले पड़ जाते ……..अभी हम सोच के समुन्दर में गोते लगा ही रहे थे कि क्या पता तलहटी में विचरते हुए कुछ ज्ञान रुपी मोती हाथ लग जाए, डॉली की मदमाती आवाज़ ने हमारी तंद्रा को कर दिया भंग, बोली कहाँ हो गई आप गुम मिसेज आर्य ? बोली सुनिए मैं बताती हूँ आपको आज ज्ञान की बात……एक स्त्री को शादी के बाद क्या चाहिए ? एक पति जो उसपर जान न्योछावर करने को तत्पर रहे, उसके मूह से निकली हर फरमाइश को आनन् फानन में पूरा करे, उसके सभी शौक पूरे करे जान पर खेलकर, और उसे गृहलक्ष्मी मान लक्ष्मी की कुंजी उसके हाथ में रख कहे तुम रानी हो घर की राज करो घर पर और मुझपर भी ……….चुकुंदीलाल अमीर इंसान है, और उम्र अधिक होने के कारन मुझपर दिलो जान से मर मिटने को अमादा है, मेरे मूह से कुछ निकलने से पहले ही हाथों में थाल सजाये मेरी हर फरमाइश पूरी करने को तत्पर रहते है, और मुझे जीवन संगनी के रूप में पाकर धन्य हुए जाते है, अब इससे ज्यादा और क्या चाहिए एक पत्नी को जीवन में ? हमने मुस्कुराकर उसकी बात का अनुमोदन ठीक उसी प्रकार किया जैसे किसी बाबा के प्रवचन पर उसके शिष्य धन्य हुए जाते है, सच ही तो कहा डॉली ने अब उनके विवाह की हम बात करे तो चुकुंदीलाल इस उम्र में ये सोचकर इठलाते है कि हाय इस उम्र में भी हमारा बांकपन कुछ ऐसे बरक़रार है की डॉली जैसी कमसिन बाला हमसे शादी करने को तत्पर हो गई, हमारे प्रेम में आज भी इतनी गर्मी है यानी की हमारा “हॉटपन” आज भी बरक़रार है, यहीं सोच दिन में कई बार आईने को कृतार्थ करते है ! और दूसरी और डॉली ये सोचकर खुश है कि ये बुढाऊ ज्यादा दिन छाती पर मूंग ना दलने वाले है, जैसे ही कूंच कर जायेंगे, इनकी सारी संपति की स्वामिनी बन इठलाऊंगी, और जब तक ये जिन्दा है, तब भी मेरे ही आगे पीछे मंडराएंगे, मेरी हर फरमाइश पर दिलो जान लुटाएंगे, तो कुल मिलाकर हमें ये बात समझ में आई, कि इस ब्रह्माण्ड में बेजोड़ विवाह वहीँ है जहाँ पर मुगालते मन के रहे ताउम्र बरक़रार और खुशियों के भ्रम रूपी फूल खिलते रहे और चेहरे बहुत सारे मेकअप के साथ खिलखिलाते रहे, और दिल गीत मिलन के गाते रहे, और साथ ही बेमेल विवाह मन में पनपी गलत धारणा मात्र है जिसका यथार्थ जीवन में कोई स्थान नहीं है, वो सुना है आपने दिल मिले का मेला है वर्ना तो यहाँ हर इंसान अकेला है, कागज़ के फूलों से खुशबू की दरकार के स्थान पर फूल चाहे हिंदी का हो या अंग्रेजी का बस खुशबू से सरोकार रहे तो जीवन सफल है किरण आर्य