जाएँ तो जाएँ कहाँ

ज्यों ही मकान मालिक ने हमें मकान खाली करने का सुप्रीम ‘ऑर्डर दिया, हमारी तो बोलती ही बंद हो गई। नए सिरे से मकान ढूँढने की फिर से नई समस्या! उफ, नये मालिक अपना मकान किराये पर देने से पहले क्या-क्या शर्ते रखते हैं और कैसे-कैसे सवाल करते हैं। तौबा, मेरी तौबा, मैं बाज़ आया किराये के लिए खाली मकान ढूंढने से! मकान किराए पर देने से पहले यह नामुराद लोग ‘हम छड़ो’ को ऐसे देखते है जैसे ‘हम’ कोई उग्रवादी हों या फिर उनकी जवान लड़की ले उड़ेंगे! जब से मकान मालिक ने एक महीने में मकान खाली करने का ‘नोटिस’ दिया है तब से मैं तो ठीक से खाना भी नही खा पाया। सब कुछ भूल बैठा हूँ। मेरी ‘लुक’ ऐसी हो गई है जैसे मेरी गाय चोरी हो गई हो! सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि मेरे पास दो हफ्ते का समय रह गया है और अभी तक कोई मनपसंद मकान किसी मनपसंद मोहल्ले में नही दिखा। ‘रंडी के जवाई की तरह’ फिर से घूमना पड़ेगा, मकान की तलाश में! – बस यही एक सौच मुझे खाये जा रही है! मकान मालिक से थोड़ा और समय इसी मकान में रहने की मोहलत मिलने के भी आसार नही दिखते थे क्योंकि अगले माह की दस तारीख को मकान मालिक की “बिटिया रानी” की शादी थी। खुदा कसम अगर मकान ढूंढने से पहले मैं वाकिफ होता कि क्या-क्या मुश्किले झेलनी पड़ेंगी तो मकान मालिक से साफ-साफ कह देता कि मकान मिलने तक खाली नही करूंगा – उखाड़ लो जो चाहे तुम्हारे मन में आये! पर क्या करें, अब सिर पर आ ही पड़ी है तो सब-कुछ झेलना तो पड़ेगा ही। ‘नाचने लगे तो घूँघट कैसा?’ कहावत को चरितार्थ करते हुये हम मैदान में कूद पड़े, मकान की खोज में। इसी बहाने हमे अपने शहर की कई गलियाँ, चौबारे और उनमे बसने वाली कलियां ते कलहीयां (अकेलियाँ), दोनों को देखने का मौका मिला। हमने अपने दोस्त मिस्टर चोपड़ा को अपने साथ लिया और मकान ढूंढने के लिए घर से निकल पड़े। ‘मित्र वही जो मुसीबत में काम आये’ वाली कहावत को सार्थक करते हुये चोपड़ा जी ने रविवार का दिन चुना था! पहले से निर्धारित तलाश किये जाने वाले ईलाके में प्रवेश करते ही दायें हाथ की पहली गली में बाएँ हाथ पर, दूसरे घर के बाहर एक ‘टू लेट’ की पट्टी लटकती दिखायी दी। हमारी आँखों में आशा की एक लहर दौड़ गई जैसे प्यासे की आँखों में पानी की मटकी को देखकर दौड़ती है! मिस्टर चोपड़ा जो मेरी दायीं तरफ़् थे, ने गेट के दाहिनी तरफ ‘लेटर बाक्स’ के ऊपर लगी ‘काल बेल’ को दबाया। इसके बाद हम दोनों दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगे। अगले ही क्षण गैलरी में से हमारी और आती हुई एक वृद्धा दिखाई दी जो हमसे सुरक्षित दूरी आ कर रूकते हुये हमसे तशरीफ लाने का कारण पूछने लगी। जवाब देने से पहले ‘माता जी’ पर अपना ‘इम्प्रैशन’ बनाने के लिए मैंने अपनी मुस्कराहट से लिपटा हुआ उन्हें प्रणाम किया। मेरे मित्रवर चोपड़ा जी को भी विवश होकर, मेरी खातिर हाथ जोड़कर ‘माता जी’ को प्रणाम करना पड़ा, चाहे उसने अपने माता-पिता को भी इससे पहले कभी हाथ जोड़कर प्रणाम नही किया था! “छड़े हो या ‘फ़ैमिली’ वाले?” माता जी का पहला प्रश्न सुनकर ही हमारे चेहरे से मुस्कराहट विदा हो गई! मैंने हिम्मत करके जवाब दिया, “जी, अभी तो छड़े ही हैं…!” “जी लड़का बड़ा ‘हैंडसम’ है, शादी का क्या है… समय आने पर वह भी हो जाएगी।“ मेरे दोस्त चोपड़ा जी ने मेरे लिये आगे की बात संभाली। “अस्सी छड़ेया नूँ मकान नी देना, बुरा ना मनाना मेरी गल्ल दा, छ्ड़े बड़ा गंद पादें ने…!” “एक बात कहूँ, आंटी जी, यह लड़का बड़ा शरीफ है – खानदानी शरीफ – अच्छी नौकरी पेशे वाला है…!” मेरे हक में मिस्टर चोपड़ा ने माता जी को जवाबी दलील दी! “मैंने कहा न, हमारा छड़ों को किराये पर मकान देने का पिछला तजुर्बा ठीक नही रहा…!” “लेकिन आपको मैं विश्वास दिलाता हूँ, इस बार आपको निराशा नही होगी…!” चोपड़ा जी ने मेरी गारंटी लेते हुये कहा! “पड़ोस में कई मकान और भी हैं जो किराये के लिए खाली हैं…मैं चाहूँ भी तो भी मेरा मन नही मानता…” माता जी ने कहा और अपने ईरादे से उनको जरा सा भी ईधर-उधर न होते देख कर एक बार फिर हम दोनों गली में थे! “तूँ अपनी कुड़ी देनी ए?… “अस्सी छड़ेया नूँ मकान नी देना…” चोपड़ा जी ने माता जी की नकल करते हुये कहा! मेरा भी हस्ते-हस्ते बुरा हाल हो गया! एक बार फिर हम अपना-सा मुंह लिये गली में थे। दो – तीन गलियां घूम गये लेकिन किसी घर पर लगी ‘टू लेट’ की पट्टी ने हमारा स्वागत नही किया या फिर हमारा मुंह ही चिढ़ाया। सहसा, चोपड़ा जी को एक और किराये के लिए खाली मकान दिखा तो वे लगभग चिल्ला पड़े, “वह देखो…!” मैं समझा जैसे चोपड़ा जी मुझे किसी लड़की को देखने के लिए कह रहे हों (कमबख्त, मिस्टर चोपड़ा किसी कमसिन हसीना को देखकर ही ऐसा ही करता है) मेरी तो उस भूखे वाली हालत थी जो ‘दो और दो कितने होते हैं’ के जवाब में कहता है – चार रोटियाँ। इस घर के बाहर दीवार पर काले रंग की ‘काल बेल’ का सफ़ेद बटन जैसे अपने सफ़ेद दाँत निकाल कर हमारा मुंह चिढ़ा रहा था। चोपड़ा जी ने उसके दाँत पर एक घूसा दे मारा और घंटी चीख पड़ी! यह मकान मालकिन थोड़ा खुश-मिजाज सी लगी। अपने बेटे को आवाज लगाते हुये बोली, “पप्पू बेटा, जरा अंकल को उपर का कमरा-सैट दिखा दे… आजा बेटा !” उनके संदेश को सुनकर मैंने अपनी सारी ऊमीदें सँजो ली! इससे पहले कि ‘उनका पप्पू’ आता, और हमे कुछ दिखाता, उनका पहला सवाल था, “नौकरी करते हो या ‘बिजनेस’ वाले हो?” “ जी…नौकरी करता हूँ…!” जवाब में मैंने अपनी प्रतिष्ठित ‘फर्म’ के कंधे पर रख कर बंदूक चला दी और मन ही मन कहा, “तुस्सी मेरे नाल अपनी धी दा वियाह करना जां किराये ते अपना मकान देना…हद हो गई यार शराफत दी…?” फिर उन्होने कई और सवाल किये। उनका अगला प्रश्न मेरे कलेजे में तीर की भांती आ लगा, वही सवाल जो … Read more

दूरदर्शी दूधवाला

दूध में पानी बहुत होता है, इसके लिए अपने दूधिये को गालियां मत दें बल्कि उस का शुक्रिया करें कि उसने आपको आज तक हृदय-रोग से कुछ हद तक बचाये रखा! विकसित देशों में भी लोग स्वस्थ्या कारणो से एक प्रतिशत या दो प्रतिशत दूध का ही इस्तेमाल करते हैं, बाकी पानी ही होता है। विदेशों में खालिस दूध (100 प्रतिशत) दूध का इस्तेमाल हम देसी लोग दही बनाने या नहाने (बालों में लगाने) के लिए ही इस्तेमाल करते हैं! अब समझ में आया आपको कि हमारा ग्वाला इन गौरों से कितना ज्यादा समझदार है या था! वर्षों से वह अपनी इस सामाजिक कल्याण की ज़िम्मेवारी को बखूबी निभा रहा है! आपके पूछने पर वह दूध में पानी मिलाकर दूध बेचने की बात को हमेशा नकारता है … आपके फायदे के लिए वह झूठी कसमें खाता है…भला क्यूँ? …क्योंकि वह इस बात में विश्वास करता है — नेकी कर कूएं में डाल! विदेश में भी आजकल दूध का दूध और पानी का पानी करने की कोई जरूरत नही पड़ती क्योंकि एक प्रतिशत, दो प्रतिशत या फिर “फैट फ्री’ दूध पानी ही की तरह होता है! दो प्रतिशत फैट वाले दूध को एक प्रतिशत करने के लिए खरीद दारों को सिर्फ यह करना होता है कि घर आकर दो प्रतिशत वाले दूध के एक गेलन के दूध वाले डिब्बे के साथ एक गेलन पानी और मिला लिया जाये! लेकिन, हम वह भी नही करते। दुकानदार यह काम हमारे लिए सरेआम दूध के डिब्बों पर लिख कर करते हैं और हम उन्हें ऐसा करने के लिए खुशी खुशी उनके द्वारा निर्धारित दाम देते हैं ! यहाँ लोग (विदेश में) इस बात पर एतराज़ नही करते कि दूध में पानी है क्योंकि दूध वाली कंपनिया दूध के डिब्बों पर लिख देती हैं कि उसमे क्रीम की कितनी मात्रा है (एक प्रतिशत/दो प्रतिशत दूध) इसके विपरीत भारतियों को दुख और गिला इस बात का होता है कि ग्वाला उनसे धोखा करता है , वह उन्हे यह नही बताता कि उसने उसमे कितना पानी मिलाया है ! मैं शर्त लगा कर कहता हूँ कि अपना एक भी भारतीय एतराज़ नही करेगा अगर ग्वाला आकर उन्हे बता दे कि दूध में आधा हिस्सा पानी है और दूध-पानी के मिश्रण का रेट पचास या साथ रूपये लीटर है – दूध लेना हो तो लो नही तो अपनी भैंस रख लो या बकरी!… लोगों को स्प्रेटा दूध से भी काम चलाने का सुझाव वह दे सकता है ! आप समझदार हैं – देश में दूध पीने वालों की संख्या हर दिन बढ़ती जा रही है। उनकी अपेक्षा, दूध देने वाले जानवरों की संख्या दिन-प्रतिदिन घट रही है …ऐसी दशा में ग्वाला पानी न मिलाये तो क्या करे? दूध में आपके लिए अंगूरों का जूस तो वह मिलाने से रहा! यकीन करें आप उसे तब भी नही बॅकशेंगे! हाँ, विदेश में इतना ज़रूर है कि अगर किसी का हाजमा खालिस दूध का हो तो खालिस दूध मिल ज़रूर जाता है! वहाँ खालिस और पानी समान दूध का एक ही भाव होता है लेकिन अपनी मर्ज़ी से यहाँ का उपभोक्ता पानी वाले (कम क्रीम वाले) दूध को खरीदता है! अपने देशियों का अपने देश में ही ग्वालों के प्रति दुर्व्यवहार है, विदेशों में चूँ तक नही करते! वे अपनी मर्ज़ी से पानी वाला दूध खरीदतें हैं और दुकानदार को उसकी मर्ज़ी के दाम देतें हैं! अपने भारतियों का यह जुल्म है कि नही? विदेश में देसियों की आदतें भी बिगड़ गई हैं । आज की तारीख में बिनोले खाने वाली दूध देती भैंस का अगर मुझे एक तीन-पावा पीतल का दूध से भरा ग्लास पीने को मिल जाये तो उसे हजम करने में मुझे तकलीफ होती है ! अगर ऐसे खालिस दूध को मैं कभी पचा लूँ तो मुझे खुद को चाँदी के तगमे से ज़रूर सम्मानित करना पड़ेगा और अपने पेट की भी दाद देनी पड़ेगी! वह भी एक ज़माना था जब दादा जी को कहते सुना था, जो खाना खाने के समय संदेशा भिजवाते थे – “माँ रन्न को कहना, रोटी को मखण से अच्छी तरह चोपड़ कर दे!” यकीन करें यदि ग्वाले ने आपको ‘फैट वाला खालिस दूध पिलाया होता तो अपोलो के डाक्टरों की चाँदी अब तक प्लैटिनम हो गई होती – सुना है वहाँ के डाक्टर आप ही की टाँगो में से आपकी नाड़ियाँ निकाल कर दिल को रक्त से सींचने के लिए जो टाका-पन्ना करतें हैं, उसके पाँच से दस लाख ले लेतें हैं। मुझे कोई शक नही कि भारत में गरीब को हार्ट अटैक मारे या न मारे, इन डाक्टरों की फीस तो ज़रूर उन्हे गश खिलाकर धूल चटाती होगी! खैर, भारत में सस्ता तो आजकल मौची भी नही है! इन डाक्टरों को रोने से कोई फायदा? किसको किसको रोये, बस आवा ही खराब है! कितना दूरदर्शी था हमारा पिछले कल का ग्वाला और आज का भी है जिसने अपने इस उपकार की कभी किसी से कोई इच्छा नही की! जय हो दूधिये, तुस्सी बहुत ग्रेट हो, जी! … आपके अगले-पिछले सबों को नमन! सदियों से आपके इस परोपकार का मैं कृतज्ञ हूँ! मुझे आपके दूध में पानी मिलाने का कोई एतराज़ नही परंतु उसमें से जब कभी कोई मेंडक निकलता है तो आपका दूध मेरी हलक से नीचे नही उतरता…! अशोक परुथी “मतवाला”

देश पी. एल . वी ( पुरुस्कार लौटाओ वायरस )की चपेट में

सर्दी का मौसम दस्तक दे चूका है पर अभी भी देश का राजनैतिक तापमान बहुत गर्म है | हमारे विशेष संवाददाता के अनुसार ये जो पुरूस्कार लौटाने का नया चलन चला है | उसने सबको अपनी चपेट में ले लिया है | रोज़ -रोज़ पुरूस्कार लौटाने की ख़बरों से देश के अलग -अलग वर्गों के लोगों पर क्या असर पड़ा है | यह देखने के लिए राष्ट्रीय दैनिक समाचार पात्र “सच का हौसला” की टीम ने देश के हर उम्र , वर्ग के लोगों से बातचीत की | नतीजे चौकाने वाले हैं | आइये आप को भी इस अभूतपूर्व सर्वे की जानकारी दे दे | सबसे पहले सच का हौसला की टीम बच्चों के स्कूल में गयी | अधिकतर छोटे बच्चे रोते नज़र आये | बच्चों को टॉफ़ी चोकलेट से बहला कर पूंछा तो बच्चे बोले , ” आंटी ये पुरूस्कार लौटने वाले लोग अच्छे नहीं हैं | क्यों के उत्तर में बच्चे सुबकते हुए बोले ,” पहले तो हमें केवल उन्ही लोगों के नाम याद करने पड़ते थे जिन्हें पुरूस्कार मिला था अब उनके भी रटने पड़ेंगे जिन्होंने लौटाए | जब सच का हौसला की टीम ब्यूटी कांटेस्ट के दफ्तर गयी तो पता चला , फमिना मिस इंडिया की टीम यह प्रयास कर रही हैं की सुंदरियाँ पुरूस्कार लेने के अगले दिन पुरूस्कार लौटाए | इससे प्रतियोगिता को दो बार कॉवेरेज मिलेगा | साथ ही विजेताओ के नए कॉस्टयूम व् मेक अप में दुबारा स्टेज पर आने से फैशन ओर ब्यूटी इंडस्ट्री को लाखों का फायदा होगा | कानपुर में आई . आई .टी की कोचिंग कराने वाले देशमुख सर एक नया कोचिंग इंस्टीट्युट खोल रहे हैं ” पुरूस्कार लौटाने की तैयारी कैसे करे “इसमें आपके पुरूस्कार लौटाते समय के भाषण, उठने , बैठने बोलने के तरीके व् ज्यादा देर तक मीडिया में छाए रहने तरीके सिखाये जायेंगे | उनके अनुसार इस बिजनिस में ज्यादा फायदा है | आई . आई . टी में आने वाला बंदा तो चार साल बाद हीरो बनता है | यहाँ तो पुरुस्कार लौटाने की घोषणा करने वाला भी अगले पल शाहरुख़ खान के समकक्ष नज़र आता है | प्रसिद्ध फैशन डिजाइनर रितेश कुमार जी ऐसे कपडे डिजाइन कर रहें हैं जिसमें पुरूस्कार कच्चे धागे से टंके होंगे | सुदर बालाओं के रैंप पर चलते ही ये कपडे फटेंगे और पुरूस्कार चट -चट कर गिरेंगे | अपने नए कलेक्शन की लौन्चिंग से काफी उत्साहित रितेश जी के अनुसार उन्होंने पूरी थीम तैयार कर ली है | वार्डरोप मेलफंकशनिंग के स्थान पर पुरूस्कार मेलफंकशनिंग के नाम से उनका यह शो खासा लोकप्रिय होगा | आम जनता में खासा उत्साह है | लोग अपने पुराने से पुराने पुरूस्कार ढूंढ रहे हैं | जिससे वो भी उसे लौटा कर बहती गंगा में हाथ धो ले | पुरूस्कार लौटाया , पुरूस्कार लौटाया के शोर के बीच में कौन पूंछता है कौन सा लौटाया | पेज ३ , ४ ,५ ,६ में शामिल होनेका इससे बढ़िया अवसर नहीं मिलेगा | सबसे खतरनाक रहा स्वास्थ्य विभाग का सर्वे | स्वास्थ्य विभाग के अनुसार देश में एक नया वायरल इन्फेक्शन फैला है | इसके वायरस का नाम है पी . एल . वी . ( पुरूस्कार लौटाओ वायरस ) जो डेंगू से भी ज्यादा खतरनाक है | डेंगू पीड़ित व्यक्ति को तो प्लेटलेट्स चढाने पर बचाया जा सकता है पर पी एल . वी का शिकार व्यक्ति न केवल कई दिनों तक स्वयं मीडिया के सामने चिल्लाता है बल्कि उसके चिल्ल्लाने से कई और लोग चिल्लाने लगते हैं | इसमें व्यक्ति की आँखे लाल और जुबान तेज हो जाती है | यह बहुत ही संक्रामक है और तेजी से दूसरों को गिरफ्त में लेता है | यहाँ तक की जो गिरफ्त में नहीं आते उनके भी दिल और दिमाग को प्रभावित करता है | विभिन्न टी . वी चैनलों द्वरा जगह – जगह माइक व् टी . वी कैमरे लिए पत्रकार तैनात मिल जायेंगे | जो आम लोगों को रोकते हैं और पूंछते हैं ” अगर आप को पुरूस्कार मिला होता तो आप क्या करते , लौटाते या नहीं | थोड़ी देर के कलिए ही सही पर आम आदमी को ख़ास होने का अहसास होता है | हमारे सर्वे के मुताबिक़ आजकल आम लोग सड़कों पर बहुत खास कपडे पहन कर चल रहे हैं | क्या पता कब कोई पत्रकार टकरा जाए कब टी .वी पर आ जाए | अंत में सच का हौसला टीम चौराहे पर बस की प्रतीक्षा कर रही थी तभी वहां पर एक भिखारी भीख मांग रहा था ” जो दे उसका भी भला जो न दे उसका भी भला ” जब टीम ने उसे १० का नोट दिया तो बोला , ” पुरूस्कार , नहीं है कोई देने को | जब सच का हौसला टीम ने पूंछा , ” श्रीमान भिखारी जी आप ऐसा क्यों कह रहे हैं | तो उसने कहा , बाबूजी मोटी बुद्धि की बात है , १० रुपये की कीमत तो १० रुपये ही रहेगी पर जिन्होंने भी ( सबने नहीं ) छोटा या बड़ा कोई भी पुरूस्कार जुगाड़ और चरण वंदना से प्राप्त किया है , और देखा देखि में खामखाँ हीरो बनने के लिए लौटा रहे हैं | वो जब देखेंगे की उनको कोई तवज्जों नहीं दी जा रही है तो चौगुने दामों में हम से खरीदेंगे | जो नहीं खरीदेंगे तो भी कोई बात नहीं हम ही ये सोच कर खुश हो लेंगे की एस जन्म में इक्षा या अनिक्षा से एक पुरूस्कार तो हमारे पास भी आ गया | तभी तो जो दे उसका भी भला , जो न दे उसका भी भला | खैर सबकी अपनी -अपनी सोंच अपनी अपनी समझ | हमारी बस आ गयी | हमारा सर्वे पूरा हो चुका था | अगर आप भी इस सर्वे में शामिल होना चाहते हैं तो आप का स्वागत है | हमारा पता है ……. sachkahausla@gmail.com या editor.atootbandhan@gmail.com | अपने विचार भेजिए और इस सर्वे को महा सर्वे बनाइये | व्यंग : वंदना बाजपेयी कार्यकारी संपादक -अटूट बंधन ग्रुप

कवि और कल्पना

कविता भी क्या चीज़ है! कल्पना की उड़ान कवि को किसी दूसरी ही दुनियाँ मे पंहुचा देती है। एक कवि की दुनियाँ और एक उस व्यक्ति की दुनियाँ! यह इंसान कभी भी एक दुनियाँ से निकल कर दूसरी दुनियाँ मे ऐसे आता जाता रहता है, जैसे कोई एक कमरे से दूसरे कमरे मे जाता हो। मनोविज्ञान की कुछ अधकचरी जानकारी होने से मुझे कभी कभी लगता है कि कंहीं कुछ कवि स्प्लिट पर्सनैलिटी के विकार से तो ग्रसित नहीं होते। ठहरिये, मै उदाहरण देकर समझाती हूँ। हमारे एक भाई समान कवि मित्र हैं ,बहुत ही सुन्दर मर्मस्पर्शी कविता लिखते हैं। शब्दों का ऐसा जाल बुनते हैं कि पढ़ते ही वाह! क्या ख़ूब लिखा है, ज़बान पर आ जाता है। श्रंगार के वियोग पक्ष मे उन्हे महारथ हासिल है। दअरसल वो कभी किसी चौराहे पर किसी से बिछड गये थे, कई दशक पहले, पर कविता भाई साहब अभी तक उनही पर लिख रहें हैं। अरे भई, जिसके साथ आप ख़ुशहाल ज़िन्दगी बिता रहे, जो आपकी पत्नी है, आपके बच्चों की माँ है उस पर क्यो कुछ नहीं लिखते तो वो कहते हैं। – ‘’वो विषय हास्य कवियों का है। हास्य कवियों के पास विषय बहुत कम होते हैं ,हास्य लिखना बहुत कठिन होता है, इसलियें अन्य किसी भी रस मे कोई व्यक्ति पत्नी के विषय मे नहीं लिखेगा , यह प्रस्ताव अखिल भारतीय कवि परिषद सर्वसम्मति से अनुमोदित कर चुकी है।‘’ कवि भाई साहब को कभी ‘वो’ पहेली सी लगती हैं, कभी उनके साथ बिताये पल एक आध्यात्मिक यात्रा से लगते हैं,उनका आना सूर्योदय सा और जाना अमावस की रात जैसा लगता है।ये कवितायें पढकर मुझे लगता है कि ये कोई है भी या नहीं .. कभी थीं ही नही शायद, फिर मन का मनोवैज्ञानिक कहता है कवि महोदय को कहीं हैल्यूसिनेशन तो नहीं होने लगे हैं, क्योंकि कभी कभी इन्हे अपने शानदार सुसज्जित घर के पलस्तर उखड़ते दिखने लगते है, एकान्त का सूनापन महसूस होता है। कभी उनकी भीगी यादों मे डूब जाते हैं। कभी भाई उनके ख़्यालों मे जलप्रलय भी महसूस कर चुके हैं। कभी कभी किसी कविता के मेढ़ मेढे़ रास्तों मे भटकते हुए सवाल करते हैं कि तुम कैसी हो ? अरे, भाई साहब चौराहे पर छोड़ने से पहले उनका फोन नम्बर ले लिया होता! अगर वो हैं तो अच्छी ही होंगी, जब आप ज़िन्दगी मे आगे बढ गये तो वो भी अपने बच्चों की शादी की तैयारी कर रही होगी, अपने पति के साथ शैपिंग कर रही होंगी , यकीन मानिये आपको बिलकुल याद नहीं करती होंगी। कविता लिखने के चक्कर मे आप अब तक उन्हीं के विचारों मे गोते खा रहे हैं। ‘’भाई साहब मै आपके लियें बहुत चिंतित हूँ’’ मैने कहा। “ मेरी प्यारी बहन,कवि की यही तो खूबी है कि वह कल्पना के माध्यम एक ही समय एक से अधिक जीवन जी लेता है । वह एक जीवन से दूसरे जीवन विचरता है जैसे कोई एक कमरे से दूसरे कमरे जाता है और फिर पहले कमरे में लौट आता है ।‘’ मैने कहा ‘’मैने तो सुना था वियोगी होगा पहला कवि आह से निकला होगा गान।‘’ ‘’अरे बहना ये बीते वख्त की बात हैं आजकल जो दिखता है सब असली नहीं होता है बनावटी भी हो सकता है।‘’ ‘ भाई साहब बोले। मैने कहा ‘’क्या कविता भी बनावटी होती है ?’’ ‘’इसे बनावटी नहीं कहते कवि की कल्पना कहते हैं।तुम्हारी तरह नहीं जो सामने दिखा उस पर कविता लिख दी।अभी कछ दिन पहले तुमने तो ‘चींटी’ पर कविता लिखी थी कल को ‘कौकरोच’ पर लिख दोगी। कविता मे थोड़ा रोमांस होना चाहिये।‘’ भाई साहब ने समझाया। ‘’भाई, जीवन मे ही रोमांस नहीं है, कविता मे कैसे लाऊँ, घरवालों ने जिनसे शादी करदी उनके साथ ख़ुश हूँ । कोई चौराहे पर भी नहीं छूटा था।‘’ मैने कहा। ‘’कल्पना करो, नहीं तो लिखती रहो चींटी और मक्खी मच्छर पर कविता’’ भाई साहब ने जवाब दिया। कवि और कल्पना का अटूट साथ है। मैं कविता लिखती हूँ पर कल्पना में शून्य पर अटकी हूँ, इसलियें मैं कवियत्री हूँ ही नहीं, ऋतुओं का वर्णन, चाय, चींटी, किसान, कमल और प्रदूषण जैसे नीरस विषय तो कविता के लियें अनुकूल ही नहीं हैं। केवल यथार्थ से कविता नहीं बनती, उसमें कल्पना की ऊँची उड़ान होना ज़रूरी है, जैसे दाल में नमक होना ज़रूरी है, उसी तरह कविता मे कल्पना होना ज़रूरी है ,इसलिय ख़ुद को मैं कवियत्री मान ही नहीं सकती। कवि वह होता है जो किसी और ही दुनियाँ में विचरता है। अभी कुछ दिन पहले एक कवि मित्र की कविता पढ़ी ये कवि मित्र श्रंगार के मिलन पक्ष के विशेषज्ञ हैं ,उनके शब्द तो याद नहीं हैं पर उसका अर्थ कुछ इस प्रकार था ‘’तुम रोज़ सुबह सुबह सूखे पत्तो के साथ चली आती हो…’ इत्यादि। मैं बड़ी हैरान हुई कि ये कौन हैं, जो भाई साहब के घर रोज़ सुबह सुबह चली आती हैं। सुबह का समय तो सब व्यस्त रहते हैं, घर भी बिखरा सा रहता है। मैंने भाई साहब से कहा कि ‘’कविता तो आपकी अच्छी है पर ये सुबह सुबह कौन आ जाती हैं आपके घर? फोन करके आना चाहिये।‘’ कविवर ने मुझसे कहा कि ‘’आप कविता लिखना छोड़ दीजिये और व्यंग्य लिखना शुरू कर दीजिये।कविता लिखना आपके बस की बात नहीं है आप कल्पना को तो जानती ही नहीं हैं।’’ मैंने ट्यूबलाइट की तरह बात देर से समझी कि ये भाईसाहब की ‘कल्पना’ हैं। किशोरावस्था में तो एसी कल्पनायें लोग करते हैं, पर कविवर तो किशोरावस्था को काफ़ी पीछे छोड़ आये है अब इस उम्र में भी.. बच्चे क्या सोचते होंगे! कवियों में एक और बड़ी अच्छी बात होती है कि वो कल्पना जगत और यथार्थ के बीच का दरवाज़ा हमेशा खुला रखते हैं। कल्पना में प्रेयसी के लम्बे घने बादलों के नीचे बरसात (जब सिर धोकर तौलिये से बाल झटकती हैं) में भीगकर शब्दों को संजो रहे हैं, कविता रूप ले रही है, अचानक आवाज़ आती है ‘’सुनिये शाम को मेंरी बहन आने वाली है ज़रा सब्जी ले आइये एक किलो आलू…….’’ कविवर तुरन्त यथार्थ में आजाते हैं आलू, प्याज, टमाटर, पनीर गोभी… लेने थैला लेकर चल पड़ते हैं। वापिस आकर फिर जु्ल्फों मे उलझ जाते हैं। दरअसल कवि भी … Read more

मेरी बत्तीसी

चौराहे पर दो लड़के लड़ रहे थे। एक ने दूसरे को धमकी दी , “ओये, चुप कर जा…नही तां इक ऐसा घुसुन्न दऊँ कि तेरे छती-दे-छ्ती दंद बाहर आ डिगन गे!” वही खड़े एक तमाशखोर ने जब यह सुना तो उसने आग में घी डाला, “ओये मुरखा तेनु एह वी नही पता कि साडे बती दंद होनदे ने, छत्ती नही …!” तो पहला बोला, “मेनू एह पता है…नाले मैनू पता सी, तू वी मेरे नाल पंगा लेंगा…एस करके मैं ‘चार दंद तेरे वी गिन के उसनू दस्से ने!” दाँतो के डाक्टर के पास जाने का समय बेगम ने ही लिया था। डॉक्टर ईलाज के लिए चार सौ डालर मांग रहा था लेकिन रामदुलारी फीस कम करवाने के लिये उससे सक्रिय रूप से बातचीत कर रही थी! वह उसे पचास डालर लेने के लिये रज़ामंद कर रही थी। लेकिन डाक्टर 75 डालर पर अटका पड़ा था। डाक्टर का कहना था,” मेम, एक शर्त पर मैं पचास डालर ले सकता हूँ …दाँत निकालने से पहले दर्द की कोई दवा नही दूँगा …फिर उसने व्याख्या की – दर्द की दवा बहुत महंगी है, इतने पैसों में तो मैं मरीज को दाँतो को सुण करने वाली दवा की एक बूंद भी नही दे सकता। मरीज दर्द से चीखेगा, चिलायेगा, तड़फेगा, पीड़ा के मारे ‘डेंटल चेयर’ से उठ उठ कर बाहर आयेगा, बिना धड़ वाले मुर्गे की तरह छटपटायेगा… यह तो मरीज के साथ ज़ुल्म होगा और हाँ मेरी सेक्रेटरी मंजु दाँत निकालेगी जिसने इससे पहले कभी किसी का दांत नही निकाला …अब पीड़ा का आप खुद अंदाज़ा लगा लें!” “मंजूर है, दर्द की बिल्कुल परवाह नही…. क्या आप मेरे पति को कल सुबह आठ बजे का टाईम दे सकते है?” यह तो था मज़ाक… और अब यह वास्तविकता। सुनयार, वकील और पुलिस वाले, यह ऐसे तीन पेशे वाले है जो किसी को नही बकशते। कहते हैं जब धंधे की बात आती है तो अपने बाप को भी नही छोडते और उन्हे भी थूक या चूना लगा देते हैं! इनकी श्रेणी में मैं अपने तजुर्बे के आधार पर ‘डेंटिस्ट्स’ को भी जोड़ना चाहूँगा! सन 1987-88 की बात है! उस वक़्त मैं यहाँ के (अमेरिका) के एक दूसरे शहर में रहता था। अभी नया नया ही भारत से यहाँ आया था! अपनी नौकरी वाली कंपनी से मैंने दांतों की बीमा-योजना खरीद ली थी जिसके तहत मैं साल में दो बार जाकर,अपनी जेब से बिना एक पैसा दिये अपने दाँत साफ करवा सकता था! राम दुलारी की कसम इससे पहले तो मैं भी आपकी तरह किसी डेन्टिस्ट के पास नही गया था! उन दिनो सुबह के वक़्त खुले में ही जंगल-पानी जाने का रिवाज़ और नियम हुआ करता था और आदत भी! लोग रास्ते में से किसी एक कीकर की एक टहनी से दातुन बना कर अपने दांत चमका लिया करते थे! उस वक़्त मेरी बत्तीसी ऐसी चमकती थी जैसे अनार के दाने हो! नही तो घर में नीम का एक बड़ा पेड़ भी था जो छाया और निमोलियां देने के ईलावा हमे दाँतो के डाक्टरों से भी दूर रखता था! लेकिन इनके पास जाना तो आजकल ‘स्टेटस सिंबल’ सा हो गया है। मेरी बाली-उमरिया में न तो यह डेंटिस्ट्स ही होते थे ओर न ही उनकी जात! हाँ, नाई, हलवाई, मौची और पंसारी आदि तो आम हुआ करते थे लेकिन इन दांत साफ करने वालों के बारे में मैंने तो कभी नही सुना था! जब अपने हाथ-पाँव मौजूद हैं तो किसी से दाँत साफ करवाने की क्या ज़रूरत? और हाँ, लोग शेर होते थे, उनके दाँत बहुत मजबूत होते थे। मैंने भी अपने जमाने में बांस और काने अपने दाँतो से गन्ने की तरह छीले हैं! …और फिर शेरां दे दंद किन्हे धोते? बस, यही तो होता था न? मर्द कीकर या नीम के दातुन से और औरतें रँगीले दातुन से (क्योंकि वह दाँतो को साफ करने के ईलावा उनके होंठो को भी रंग देता था) अपने दांत साफ करते थे। किसी दिन कुछ न मिला तो हैंड-पम्प के पानी के साथ खाली उंगली से भी दाँत साफ करने का काम चला लिया जाता था ! अगर यह बात सच है और आपने भी इस हकीकत का समय देखा और झेला है तो ईमानदारी से अपने हाथ खड़े करें! खैर, मेरा दाँतो का डाक्टर बड़ा हैरत में पड़ गया जब मैंने उसे 29 साल की उम्र में बताया कि मैं उससे पहले किसी दूसरे, मेरा मतलब पहले, डाक्टर के पास नही गया। इसके बावजूद भी उसे मेरे मुंह में एक ‘केविटी’ नही मिली। जब मैंने उसे बताया कि मैं पेड़ की एक लक्कड़ से अपने दांत साफ करता था तो वह विस्मित हो उठा! बाज़ार में ब्रुश और पेस्ट होती होगी लेकिन मुझे इसका इल्म नही क्योंकि मेरे पास यह सब कुछ नही था! मैंने अपने दौर में दूसरों को कच्चे कोयले में थोड़ा सा नमक मिलाकर और फिर उसे पीस कर ‘होम-मेड’ मंजन से भी अपने दाँत साफ करते देखा है। छह महीने के बाद मैं फिर अपने डेन्टिस्ट के पास अपनी दूसरी ‘विजिट’ के लिए गया तो उसे फिर मेरे मुंह में थूक के इलावा कुछ नही मिला, मेरा मतलब दाँतो में कोई ‘कीड़ा-वीड़ा’ नही मिला जिसे यह अंग्रेज़ लोग ‘केविटी’ कहते हैं। पहली बार यह शब्द सुना था लेकिन इससे पहले खड्डे और खाई तो बहुत बार मैंने सुन रखे थे क्योंकि बचपन में मेरा आधा दिन इन्ही में बितता था। मिट्टी के ढेले, टूटे घड़े के ठीकरे, ईंट, रोड़े और पत्थर मेरे खिलौने हुआ करते थे! गुल्ली डंडा, लुक्कन मिटी, गली मोहल्ले में बंदरों की तरह पेड़ो से ऊपर-नीचे लपकना तो कभी स्टापू की गेम जो लड़कियां खेलती थी, मेरे पसंदीदा खेल हुआ करते थे! इन डाक्टरों से भी मेरा अल्हा ही बचाये! शायद इनको भी हमारी तरह अपने बिल देने पड़ते हैं। मेरा डेन्टिस्ट एक्सरे को देखते हुये कहने लगा, “मुझे तुम्हारा ‘विज़डम टूथ’ निकालना पड़ेगा…!” “वह क्यूँ, भाई?” “मेरा भी नही है…!” “आपकी अक्कल…जाड़ नही है लेकिन मेरी भी बाहर निकालने का यह कोई अच्छा तर्क नही है!” मैंने उसे जवाबी तर्क दिया था! अपनी ‘विज़डम’ …टूथ ….निकालने के बाद मेरी भी निकालने पर लगे हो …पहले पूरी तरह अक्कल ……की जाड़ .. आने तो दो…!” मैंने अपने मन … Read more

वैलेंटाइन डे स्पेशल – आई लव यू “यानी जादू की झप्पी

अरे भाई ! वेलेंटाइन डे आ गया | प्यार भरे दिलों की धड़कने तेज़ हो गयीं | आई लव यू “ थोडा सा सकुचाई सी शरमाई सी मन ही मन मुस्कुराते हुए सोचने लगी , “ लो वो दिन भी आ गया जब सब अपने अपने वैलेंटाइन से मनुहार करते हुए मेरा इस्तेमाल करेंगे | मैं इस मुँह से उस मुँह तक सैर करती नज़र आऊँगी | “ बात भी सही है जादू की झप्पी का बुखार एक न उतरने वाला बुखार है | आई लव यू डेंगू की तरह फैलता जा रहा है | यह वाक्य अपने आप में बड़ा मीठा और वजनी है | “ तीन शब्दों से बना ये वाक्य है कमाल काजिसे भी कह दो वो हो जाए आपका “ सही में इस वाक्य का चमत्कार देखिये | दूर बैठे लोग भी आप के हो जायेंगे | पर इस चमत्कारी वाक्य को ले कर लोगों में अलग –अलग धारणाएं और भ्रांतियाँ हैं | कुछ लोग आई लव यू का केवल एक ही मतलब निकालते हैं | वो है पति –पत्नी या प्रेमी प्रेमिका के बीच बोला जाने वाला | अरे भाई ये वो मिठाई है जो हम अपने माता –पिता , भाई बंधू सभी को खिला सकते हैं | आपका वैलेंटाइन कोई भी हो सकता है जिसे आप दिल से चाहते हैं | चाहे वो छोटा हो या बड़ा , रिश्तेदार हो या मित्र | माँ थोड़ी सी रूठ गयी है तो उन्हें जादू की झप्पी डे कर कान में धीरे से कह दो ,” आई लव यू मम्मा “ | माँ प्यार से एक मीठी चपत लगाते हुए कहेगी ,” हट पगले मैं तो यूं ही कह रही थी | नाराज़ थोड़े ही थी | “ पापा के लाल –पीले गुस्से से बचना है झट से कह दो ,” पापा नाराज़ क्यों होते हैं , आई रियली लव यू “| जरा आजमाकर तो देखिये ये वो हथियार है जिसे जहाँ चाहे निकालकर चला दो | इससे लोग मरेंगे नहीं अपितु आप पर जी जान से मरने लगेंगे | आपको इतना चाहने लगेंगे की पूंछो मत |किसी को वशीकरण करना हो तो ये रामबाण वाक्य गुनगुना दो | ये ऐसा जादुई तीर है जो सीधा दिल को भेद दे | कुछ दिन पहले की बात है | कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे थे | अचानक उनकी बल घर के शीशे में आकर लगी और शीशा टूट गया | मैं लाल –पीली हो कर दनदनाती हुई नीचे पहुंची और बच्चों को डांटते हुए बोली की वे सामने पार्क में जा कर खेलें | तभी एक बच्चा जो गाडी के पीछे छिपा बैठा था आकर बड़े भोलेपन से बोला ,” नाराज़ क्यों होती हो आंटी जी “| परेशां तो मैं थी ही | उसकी यह बात सुन कर मुझे और गुस्सा आ गया | मैं चिल्लाई ,” बड़ों से ऐसे बात करते हैं ? वह मुस्कुरा कर फ्लाइंग किस देते हुए बोला ,” आंटी आई लव यू “| उसकी इस बात पर मुझे हंसी आ गयी और गुस्सा कपूर की तरह उड़ गया | और मैं ‘ठीक है ,ठीक है कहती हुई ऊपर आ गयी | यह जुमला किसी का मोहताज़ नहीं है | इसे छ : साल के बच्चे से लेकर ७६ साल के बुजुर्ग तक इस्तेमाल करते हैं | मीरा मॉर्निंग वाक पर निकली तो पार्क में बेंच पर बैठे एक दादू जी (बुजुर्ग ) जिनकी उम्र कोई ७० -७५ साल होगी , अपनी धर्मपत्नी से बार –बार आई लव यू कह रहे थे | ऐसा लग रहा था की उनकी श्रीमती जी उनसे अच्छी खासी नाराज़ थी|  श्रीमान जी की मनुहार देख –देख कर मीरा को हंसी आ गयी वो मंद –मंद मुस्कुराते हुए उन लोंगों के पास पहुंची | उसने कहा ,” अब तो मान जाइए आंटी जी , देखिये अंकल कब से मन रहे हैं “| आंटी जी ने जोर का ठहाका लगाया और बोली ,” अरे बेटी मैं तो कबसे माने बैठी हूँ | आज वैलेंटाइन डे है | जरा इन्हें परेशां तो कर लूं |फिर इनको “ दिल धडकने दो” मूवी देखने ले जाउंगी | फिर उन्होंने झट से अपने पति ( दद्दू ) को आई लव यू कहते हुए झप्पी दे दी | मीरा को बड़ा मजा आया और वो मन ही मन यह सोंचती हुई घर चल दी की वाह ! अँगरेज़ भी खूब थे जो इस प्यार भरे जुमले को छोड़ गए | जो आज सभी मौके बेमौके इस्तेमाल कर रहे हैं | आज की युवा पीढ़ी तो इसका ज्वलंत उदाहरण है | इस जुमले का प्रयोग यदि गलत समय गलत जगह या गलत व्यक्ति के साथ किया जाए तो इसका उल्टा असर भी पद सकता है | पर ऐसा कोई बेवकूफ ही कर सकता है | अपनी दिमागी हालत को ठीक –ठाक रखते हुए जिंदगी गुलज़ार करें | जिसे भी आप आई लव यू बोले दिल की गहराई से बोलें और हर दिन को वैलेंटाइन डे बना डाले न की विलेन टाई डे बनाएं | सभी से प्रेम करें | प्रेम न जाने कोई रात –दिनप्रेम न जाने सुबह –शाम‘आई लव यू” की पींग बढाओपूरे होने चारों धाम लेखिका – श्रीमती सरबानी सेनगुप्ता निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत                                              नगर ढिढोरा पीटती कि प्रीत न करियो कोय प्रेम के रंग हज़ार -जो डूबे  सो हो पार                                                         आई लव यू -यानी जादू की झप्पी आपको  लेख   “वैलेंटाइन डे स्पेशल – आई लव यू “यानी जादू की झप्पी ” कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

व्यंग्य लेख -चुनावी घोषणापत्र

मै आज कई वर्षो से हर पार्टी के चुनावी घोषणापत्र को—काफी भावुक तरीके से पढ़ता व सुनता हु लेकिन हर मर्तबा मेरे हिस्से “एक ना खत्म होने वाला विस्फोटक दुख हाथ आता है,और वे दुख मेरे लिये विश्व के प्रथम दुख की तरह है” अर्थात–घोषणापत्र के किसी भी क्रम मे वे लाइन आज तक नही दिखी कि इस देश अर्थात प्रदेश के कुँवारो के लिये,खासकर जो विषम आर्थिक तंगी की वजह से”स्त्री-पुरुष के अश्वमेध मिलन से वंचित है -उन पिड़ित कुँवारो को हमारी सरकार बनते ही,सर्वप्रथम उन्हे एक योग्य व सुशील कन्या की व्यवस्था कर वैवाहिक जीवन से आहलादित किया जायेगा”। अगर एैसा संभव न हुआ तो जनपद स्तर पर किन्ही अन्य देशो से या यहां न मिलने की सुरत मे बाहरी गरीब देशो की कुँवारी लड़कियो का आयात कर उनकी गरीबी दुर करने के साथ ही समुचित सरकारी अनुदान की व्यवस्था के साथ ही एक हफ्ते का निःशुल्क हनिमून पैकेज दे उन्हे पती-पत्नी की मुख्यधारा मे लाने का अलौकिक प्रयास करेगी। अब इस बार तो किसी तरह बस दुखी मन से मतदान कर फिर किसी अगले चुनाव में “ये राष्ट्रीय दुख लिये इंतजार करुंगा-—शायद किसी पार्टी या नेता को हमारे इस बड़े विकराल और असह्य कुँवारेपन के दुख का आभास हो और वे इस क्रांतिकारी पिड़ा को अपने चुनावी घोषणापत्र में जगह दे हमारे इस विशाल बंजर हृदय में दुल्हन रुपी सुरत की हरितक्रांति ला इस पिड़ा का नैसर्गिक निदान करे”। रंगनाथ द्विवेदी। जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर।

व्यंग – हमने भी करी डाई-ईटिंग

लेख का शीर्षक देख कर ही आप हमरी सेहत और उससे उत्पन्न परेशानियों के बारे में अंदाजा लगा सकते हैं |आज के ज़माने में मोटा होना न बाबा न ,ये तो करीना कपूर ब्रांड जीरो फीगर का युग है ,यहाँ मोटे लोगों को आलसी लोगों की कतार में बिठाते देर नहीं लगती|यह सब आधुनिक संस्कृति का दोष है हमें आज भी याद है कि हमारी दादी अपने ८० किलो वज़न के साथ पूरे शान से चलती थी और लोग उन्हें खाते –पीते घर वाली कह कर बात –बात पर भारत रत्न से सम्मानित किया करते थे |पर आज के जामने में पतला होना स्टेटस सिम्बल बन गया है ,आज जो महिला जितने खाते –पीते घर की होती है वो उतनी ही कम वजन की होती है ,क्योकि उसी के पास ट्रेड मिल पर दौड़ने हेतु जिम की महंगी फीस चुकाने की औकात होती है या उसके पास ही ब्रेकफास्ट और सुबह के नाश्ते की जिम्मेदारी नौकरों पर छोड़ कर मोर्निग वाक पर जाने का समय होता है ….. बड़े शहरों में तो महिला का वजन देख कर उसके पति की तनख्वाह का अंदाजा लगाया जाता है,कई ब्यूटी पार्लर में महिलाओं का वजन देख कर पति की तनख्वाह बताने वाला चार्ट लगा रहता है,इसी आधार पर उनके सिंपल ,गोल्डन या डाएमंड फेसियल किया जाता है ….. १ )महिला का वजन ६० किलो से ऊपर …. पति की तनख्वाह ५० ,००० से एक लाख …. सिंपल फेसियल २ ) महिला का वजन ५० किलो से कम … पति की तनख्वाह लाख से डेढ़ लाख रूपये … गोल्ड फेसियल ३ )महिला का वजन ४० किलो से कम … पति करोडपति … डाएमंड फेसिअल खैर ये तो हो गयी ज़माने की बात अब अपनी बात पर आते हैं |ऐसा नहीं है की हम शुरू से ही टुनटुन केटेगिरी को बिलोंग करते हो एक समय ऐसा भी था जब हमारी २२ इंची कमर को देख कर सखियाँ –सहेलियां रश्क किया करती थी अक्सर उलाहने मिलते “पतली कमर है,तिरछी नजर है श्रीमती बनने में थोड़ी कसर है ….. शादी भी हुई ,श्रीमती भी बने पर हमने अपने आप को अब तक मेन्टेन रखा |बढती उम्र इस कदर धोखा देगी ये हमने सोचा नहीं था …. ४० पार जब तन थक जाता है ,मन करता है जिंदगी की भाग –दौड़ के बीच अब कुछ पल आराम से गुज़ार लिए जाए , भाग –दौड़ को विराम देते हुए मन कहता है हर पल काम में लगे रहने से अच्छा है थोड़ी देर पॉपकॉर्न खाते हुए सास बहु के सीरीयल देखे जाए | पर विधि की कितनी विडम्बना है जब जब शरीर बार –बार सीढियां चढ़ने –उतरने से कतराने लगता है तो हारमोन नीचे ऊपर ,ऊपर –नीचे चढ़ना उतरना शुरू कर देते हैं और २४ इंची कमर को ३६ इंची बनते देर नहीं लगती |दुर्भाग्य से हमारे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ |हमें अपनी सेहत की चिंता सताती इससे पहले पति को अपने स्टेटस सिम्बल की चिंता सताने लगी दोस्तों की नज़र में वो सीधे फेसियल की तीसरी श्रेणी से पहली में पहुच गए |उन्होंने हमे ईशारों में समझाने की बहुत कोशिश की पर हमने भी नज़र अंदाज़ किया “अब भला ये भी कोई उम्र है ईशारा समझने की , पति ने दिव्यास्त्र छोड़ते हुए करीना कपूर का बड़ा सा पोस्टर अपनी स्टडी टेबल के सामने लगा लिया ,हमने तब भी उदारवादी दृष्टिकोण अपनाया वैसे भी कौन सी करीना कपूर हमारे घर आई जा रही थी |पति ने फिर ब्रहमास्त्र छोड़ा ऑफिस से घर देर से आने लगे , हमारे लिए खरीदी जाने वाली साड़ियों ,बिंदी ,चूड़ी आदि में बिलकुल दिलचस्पी नहीं लेने लगे ,और तो और मोबाइल के बिल बेतहाशा बढ़ने लगे तो हमे खतरे की घंटी सुनाई देने लगी … हमने अपनी समस्या अपनी सखियों को सुनाई |हमारी सखियों ने इस समस्या का श्रेय हमारी कमर के घरे को देते हुए सर्वसम्मति से हमारे लिए डाईटिंग का प्रस्ताव पारित कर दिया |हमने भी आज्ञा का पालन करते हुए अगले दिन से डाईटिंग की शुरुआत की घोषणा कर दी | भोजन के चार्ट बनाये जाने लगे ….हमें अपने प्रिय चावल आलूको सबसे पहले टा –टा बाय बाय करना पड़ा , भोजन में तेल ,घी रिफाइंड दाल में नमक के बराबर रह गए , यहाँ तक तो गनीमत थी पर भोजन में शक्कर के चले जाने के कारण सब कुछ फीका व् बेरौनक लगने लगा |खैर हमने डाइटिंग की शुरुआत की …. सुबह –सुबह बिना शक्कर की चाय जैसे तैसे हलक से उतारी , नाश्ते में मुरमुरे से काम चलाया ,सारी दोपहर एक रोटी और दही पर कुर्बान कर दी …. पर कहते हैं न जिस चीज के बारे में न सोचना चाहो उसी के ख़याल आते हैं हमें भी सारे दिन खाने के ही ख़याल आते रहे कभी राज़ –कचौड़ी ,कभी रसगुल्ला कभी ईमरती ,हमारे दिवा स्वप्नों में आ –आ कर हमे सताने लगी |शाम तक हालत बहुत बिगड़ गयी और मन हल्का करने के लिए हम पड़ोस की रीता के घर चले गए | समोसे और रसगुल्ले की खशबू ने हमारे नथुने फाड़ दिए |रीता ने चाय के साथ परोसते हुए कहा “इतने से कुछ नहीं होता वैसे भी अब तो तुम्हे रोज ही डाईटिंग करनी है ,एक दिन खाने से भी क्या फर्क पड़ता है “हमें भी बात सही लगी ,डाई टिंग तो रोज़ करनी है ,फिर हमने प्लेट भर चावल ,चाय की शक्कर,गेंहू की रोटी का तो त्याग किया ही है ये नन्हे –मुन्ने रसगुल्ले , समोसे हमारा क्या बिगाड़ लेंगे …. सच में इतने से कुछ नहीं होता ,सोच कर हमने सारे तकल्लुफ छोड़ दिए |अब तो हमारा रोज़ का नियम हो गया ,दिन भर खाने का त्याग और शाम को किसी सहेली के घर जा कर “इतने से कुछ नहीं होता के नियम पर चलना |करते –करते दो महीने बीत गए |हम बड़ी ख़ुशी –ख़ुशी वजन लेने वाली मशीन पर चढ़े …. अच्छे परिणाम की उम्मीद थी …पर ये क्या वज़न तो सीधे ६० से ७० पर पहुच गया |हमारी चीख निकल गयी |शाम को पतिदेव को रो रो कर सारा किस्सा सुनाया कि किस तरह हमारा सारा त्याग बेकार गया |लोग झूठ ही कहते हैं कि डाइटिंग से वजन घटता … Read more

फेसबुक एप – ये फेसबुक है ये सब जानती है

आपको एक पुरानी फिल्म जरूर याद होगी | नाम था शतरंज के खिलाड़ी | वो नवाबों के ज़माने की फिल्म थी | पर यहाँ मैं फिल्म की बात नहीं करना चाहता | मैं बात करना चाहता हूँ खेल शतरंज की | काफी नवाबी खेल हुआ करता था | उस समय लोग जिनके पास समय होता था वह इसे खेला करते थे | एक एक चाल सोचने में मिया चार – पांच घंटे लग जाते | वजीर तो वजीर पैदल भी २ २ घंटे टस से मस नहीं होता | गोया पान खाते रहो और पीक थूकते -थूकते सुबह से शाम हो जायेगी | वो जमाना गया , फिर आया ताश का जमाना , नहले पर दहला डालते घंटे चुटकियों में कट जाते | पान खाने और पीक थूकने की आदत ने यहाँ भी खूब साथ निभाया | हम भारतीय तो उसी में खुश थे | तभी मार्क जुकरबर्ग फेसबुक लेकर आ गए | कहा रिश्ते नातेदारों को एक सूत्र में बाँध कर रखेंगे | दूर रह कर भी पास रहेंगे | बस सब दौड़ पड़े … कोई एक आई डी से, २ -४ कोई फेक आई डी से | ५ रिश्तेदारों के नाम भी न जानने वालों ने ५००० मित्र बनाये | सब सेलेब्रेटी स्टेटस हो वाले हो गए | पर पान खाने और पीक थूकने की आदत गयी नहीं | बस फर्क इतना आया की ये सारी की सारी पीक आभासी होती जो एक दूसरों की पोस्ट पर थूंकते फिरते | बातों के फ़साने बनते | देश में कोई भी मुद्दा चल रहा हो | यहाँ फ़साना बनते देर नहीं लगती | देश में कहीं असहिष्णुता हो न हो फेसबुक पर जम कर दिखती | शायद मार्क जुकरबर्ग इस थूकां थाकी से परेशां हो गए और बड़े बच्चों को व्यस्त करने के लिए एप पर एप बनाने शुरू कर दिए | फार्मूला काम, कर गया कुछ लोग थूका थाकी छोड़ कर एपा एपी में व्यस्त हो गए | और क्यों न हो ? ये एप आपके बारे में सब कुछ जानते हैं | शुरू -शुरू तो फेस बुक ने कम हिम्मत दिखाई | तब एप ऐसे आते थे …. आपके दोस्त आपके बारे में क्या सोचते हैं , आपके क्लोज फ्रेंड कौन हैं | बस पब्लिक इसमें जरा सा उलझी नहीं की फेसबुक के तो पर लग गए | सीधा हमारे मन के बारे मैं भविष्यवाणियाँ करने लगे | आप कितने प्रतिशत अच्छे हैं | आप के दिल का रंग कौन सा हैं | हमें पक्का याद है इतना रट के गए थे क्लास २ में की दिल का रंग चौक्लेटी लाल होता है | पर क्लास में जाते जाते वो लाल कब हरे में बदल गया पता ही नहीं चला | हां ! इतना जरूर याद है टीचर ने मार -मार कर हाथ लाल कर दिया था | खुदा गवाह है सारी दुनिया के अध्यापकों में क्रीऐतिविटी बिलकुल नहीं होती | बस जो कह दिया सो कह दिया | काश तब फेस बुक होता तो रटने की जरूरत ही नहीं पड़ती लाल , हरा नीला , पीला गुलाबी जो भी मन में आया लिख देते | पास तो होना ही था |टीचर कुछ कहती तो झट से मोबाइल पर फेस बुक खोल दिखा देते | अभी ऐसे ही एक दिन एक एप बता रहा था | आप किसे जैसे दिखते हैं | झट दबा दिया | खुदा की कसम हम तो ख़ुशी से झूम उठे जब फेस बुक ने बताया आप धर्मेन्द्र की तरह दिखते है | क्या जमाना हुआ करता था धर्मेन्द्र का | बॉडी – शोडी , डोले -शोले | हमारे तो पैर जमीन पर नहीं टिक रहे थे | लोग लाइक पर लाइक लगा रहे थे | और हम तुरंत ये खुशखबरी उसे बताने पहुँच गए जिसे हम लाइक करते हैं | उल्टा सीधा न सोचिये | हम गए हमारी एक मात्र धर्मपत्नी के पास | पहले तो हमें देख कर बुरा सा मुह बना कर बोली ,” अभी तक नहाए नहीं , ऑफिस नहीं जाना है क्या ? कह कर वो बर्तन धोने में जुट गयी | हमने तरह -तरह के मुँह बना कर दिखाने की कोशिश की की वो हमारी तरफ देखे पर उन्हें नहीं देखना था तो नहीं देखा | आखिरकार हमने खुद ही बता दिया , ” जरा ध्यान से देखो फेस बुक बता रहा है हमारी शक्ल धर्मेन्द्र से मिलती है | पत्नी के हाथ से बर्तन छूट गया | थोड़ी देर तक हमें निर्विकार भाव से देखती रहीं फिर बोली ,” हां सच्ची ! मिलती तो है | पर तब के धर्मेन्द्र से नहीं अब के धर्मेन्द्र से | खुदा गवाह है ४४० वोल्ट का झटका लगा | हम आसमान से गिरे और खजूर पर भी अटकने को नहीं मिला | जैसे दिल का गम मिटाने के लिए शराबी शराब के पास दौड़ता है वैसे ही फेस्बुकिया फेसबुक के पास | हम भी तुरंत फेस बुक क शरण में गए | फेस बुक ने हमें एप की बदौलत टाइम मैगजीन के कवर पर छापा , अखबार के पहले पन्ने पर छापा , मोदी हमारे बारे में क्या सोचते हैं बताया | पर मन का जख्म भरा नहीं | तभी हमारी नज़र एक और एप पर पड़ी | आप पिछले जन्म में क्या थे ? अब इस जन्म में तो धर्मेन्द्र (अभी वाले ) से शक्ल मिला कर कोई इज्ज़त रही नहीं पिछला ही जान लें | बटन दबाते ही हम बल्लियों उछ ल पड़े | मतलब ये की हम अपने मरने से १० साल पहले ही पैदा हो गए थे | हम क्लास में थे जब हमारे मरने की खबर आई थी | तब पता होता तो सारे स्कूल को बताते , की अदब से बात करो हम वो महा पुरुष हैं जिनकी इस समय सब शौर्य गाथाएं गाने में लगे हैं | खैर वो तो अतीत हो गया | पर अगर फेस बुक की माने तो हम अभी कहीं पैदा भी हो गए होंगे | और हो सकता है जवान और खूबसूरत भी दिखते हों | अगर ऐसा एप आया तब बात करेंगे पत्नी जी से | देखो अभी हम ऐसे दिखते हैं | हमें विश्वास है … Read more

नाम में क्या रखा है : व्यंग -बीनू भटनागर

नाम की बड़ी महिमा है, नाम पहचान है, ज़िन्दगी भर साथ रहता है। लोग शर्त तक लगा लेते हैं कि ‘’भई, ऐसा न हुआ या वैसा न हुआ तो मेरा नाम बदल देना।‘’ ग़लत कहा था शेक्सपीयर ने कि नाम मे क्या रखा है! नाम बडी अभूतपूर्व चीज़ है! उसके महत्व को नकारा ही नहीं जा सकता। माता पिता ने नाम रखने मे कुछ ग़लती कर दी तो संतान को वो आजीवन भुगतनी पड़ती है। आज कल माता पिता बहुत सचेत हो गये हैं और वो कभी नहीं चाहते कि बच्चे बड़े होकर उनसे कहें ‘’ये क्या नाम रख दिया आपने मेरा!‘’ पुराने ज़माने मे लोग नाम रखने के लियें ज्यादा परिश्रम नहीं करते थे या तो किसी भगवान के नाम पर नाम रख दिया या फिर वही उषा, आशा, पुष्पा, शीला, रमेश, दिनेश, अजय और विजय जैसे प्रचिलित नामो मे से कोई चुन लिया। गाँव के लोग तो मिठाई या बर्तन के नाम पर भी नाम रख देते थे, जैसे रबड़ी देवी, इमरती देवी या कटोरी देवी आदि। दक्षिण भारत से हमारे एक मित्र हैं जिनका नाम जे. महादेवन है। जे. से जनार्दन उनके पिता का नाम था। जब महादेवन जी का पहला पुत्र हुआ तो उन्होंने उसका नाम जनार्दन रख दिया और पुत्र ऐम. जनार्दन हो गये, इस प्रकार उनके कुल का पहला पुत्र या तो एम. जनार्दन या जे. महादेवन ही होगा। दूसरे पुत्र का नाम नाना का होता है। पहली पुत्री का नाम दादी का और दूसरी पुत्री का नानी का नाम ही होता है। यदि इससे अधिक बच्चे होते हैं तभी नया नाम खोजना पड़ता है।कितना अच्छा तरीका है, नाम भी ख़ानदानी हो गया ! दक्षिण भारत मे नाम से पहले वर्णमाला के कई अक्षर भी लगाने की प्रथा है, इन अक्षरों से पिता का नाम, गाँव का नाम, ज़िला तक पता चल जाता है। यहाँ नाम मे पूरा पहचान पत्र छिपा होता है। महाराषट्र और कुछ अन्य प्रदेशों मे महिलाओं के लियें पति या पिता का नाम सरनेम से पहले लगाने का प्रचलन है, पुरुष भी पिता का नाम लगाते हैं, यानि संरक्षक के नाम से पहचान और भी पक्की कर दी जाती है। उत्तर भारत मे पहचान से ज्यादा नये नाम की खोज करने का अभियान महत्वपूर्ण है। नये बच्चे का नाम रखना भी आजकल बड़ी महनत का काम हो गया है। अधिकतर पहली बार बनने वाले माता पिता बच्चे के नाम की खोज जन्म से पहले ही शुरू कर देते हैं। ऐसे अति उत्साहित माता पिता को दो नाम खोजने पड़ते हैं, एक लड़की का और दूसर लड़के का। पहले बच्चे का नाम खोजते खोजते कभी दूसरे बच्चे का नाम भी सूझ जाता है। अतः महनत 2 बेकार नहीं जाती, जो इस दोहरी महनत से बचना चाहते हैं, उन्हे बच्चे के जन्म तक प्रतीक्षा करनी पड़ती है। बच्चे का नाम कुछ नया….. कुछ नहीं, एकदम नया होना चाहिये, जो कभी किसी ने सुना ही न हो। नया नाम रखने की इस धुन मे जो लोग हिन्दी बोलने मे हकलाते हैं या हकलाने का नाटक करते हैं, उनका हिन्दी क्या, संसकृत से भी मोह हो जाता है। हिन्दी संसकृत के अलावा बंगला, गुजराती, मराठी व अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का अध्ययन करके वहाँ के साहित्य से या पौराणिक गाथाओं से नाम लेने के लियें भी लोग बड़ी माथापच्ची करते हैं। कोई नाम इतने जतन से ढूँढ कर रक्खा जाता है, तो उसके उद्गम और अर्थ की जानकारी माता पिता को होती ही है ,जब कोई उनसे बच्चे का नाम पूँछता है तो वे बड़े गर्व से बताते हैं । वे अपने पूरे ‘नाम अनुसंधान कार्यक्रम’ की जानकरी ऐसे देते हैं मानो सीधे भाषाविज्ञान मे पी. एच. डी. कर के आ रहे हैं।  हमारे एक परिचित युवा दम्पति ने अपनी पहली संतान जो कि पुत्र है उसका नाम रक्खा ‘’स्तव्य ’’ पहली बार मे किसी के समझ मे ही नहीं आया, किसी ने समझा ‘’स्तब्ध’’ किसी ने ‘’तव्य’’। माता पिता ने बताया कि ‘स्तव्य’ का अर्थ ‘विष्णु भगवान’ होता है। हम तो पूरी तरह अभिभूत हो गये उनके ज्ञान पर! ‘विष्णु’ के पर्यायवाची शब्द कभी अपने बच्चों को रटाये अवश्य थे, पर स्तव्य तो याद नहीं आ रहा। हिन्दी मे थोड़ा बहुत लिख लेते है इसका यह मतलब नहीं कि हमने हिन्दी का शब्द कोष कंठस्त किया हुआ है, सोच कर ख़ुद को दिलासा दिया। अब ये ‘स्तव्य’ थोड़े बड़े हुए तो किसी ने पूछा ‘’बेटा तुम्हारा नाम क्या है ?’’ वह तोतली ज़बान मे कहते ‘’तब’’, तब माता पिता को ‘’स्तव्य’’ शब्द के बारे मे अपना ज्ञान बाँचने का एक और अवसर मिल जाता है! इस संदर्भ मे एक और नाम याद आरहा है ‘’हिरल’’ जी हाँ, आपने सही सुना ‘’हिरल’’ यह नाम एक उत्साही मातापिता ने गुजरात से आयात किया है। गुजराती मे इसका क्या अर्थ होता है, उन्होंने बताया तो था, मुझे याद ही नहीं आ रहा। किसी भी भाषा को बोलने वाले दूसरे प्रदेश की भाषा के नाम रख रहे हैं, इससे अच्छा देश की भाषाई एकता का और क्या सबूत होगा! साथ ही साथ आपका एकदम नया नाम खोजने का अभियान भी सफल हो गया। वाह क्या बात है ! एक पंथ दो काज ! सिक्खों को नाम रखने मे एक बड़ी अच्छी सुविधा है , लड़की लड़के के लियें अलग अलग नाम नहीं ढूँढने पड़ते, बेटी के लियें ‘कौर’ लगा दिया, बेटे के लियें ‘सिंह’, बस हो गया अन्तर।   3 कभी कभी एक असुविधा या सुविधा भी कह सकते हैं, हो सकती है , यदि लड़का लड़की एक ही नाम वाले मिल जायें तब ‘’मनदीप सँग मनदीप’’ शादी के निमंत्रण पत्र मे छपवाना पड़ेगा। यह तो अच्छा ही लगेगा, ऐसा संयोग किसी को मुश्किल से ही मिलता होगा। पति-पत्नी अपने ही नाम से एक दूसरे को पुकारेंगे । पुकारने से याद आया कि कभी कभी माता पिता ऐसे नाम रख देते हैं जिसके कारण बच्चों को एक अजीब स्थिति का सामना करना पड़ सकता है, जैसे ‘प्रिया’ नाम अच्छा है पर राह चलते हर व्यक्ति बेटी को प्रिया पुकारे तो क्या अच्छा लगेगा ! ‘हनी’ या ‘स्वीटी’ भी बेटियों के नाम रखने मे यही ख़तरा है। लोग बेटों के नाम ‘सनम’ या ‘साजन’ तक रख देते है … Read more