जाएँ तो जाएँ कहाँ
ज्यों ही मकान मालिक ने हमें मकान खाली करने का सुप्रीम ‘ऑर्डर दिया, हमारी तो बोलती ही बंद हो गई। नए सिरे से मकान ढूँढने की फिर से नई समस्या! उफ, नये मालिक अपना मकान किराये पर देने से पहले क्या-क्या शर्ते रखते हैं और कैसे-कैसे सवाल करते हैं। तौबा, मेरी तौबा, मैं बाज़ आया किराये के लिए खाली मकान ढूंढने से! मकान किराए पर देने से पहले यह नामुराद लोग ‘हम छड़ो’ को ऐसे देखते है जैसे ‘हम’ कोई उग्रवादी हों या फिर उनकी जवान लड़की ले उड़ेंगे! जब से मकान मालिक ने एक महीने में मकान खाली करने का ‘नोटिस’ दिया है तब से मैं तो ठीक से खाना भी नही खा पाया। सब कुछ भूल बैठा हूँ। मेरी ‘लुक’ ऐसी हो गई है जैसे मेरी गाय चोरी हो गई हो! सबसे बड़ी मुश्किल यह है कि मेरे पास दो हफ्ते का समय रह गया है और अभी तक कोई मनपसंद मकान किसी मनपसंद मोहल्ले में नही दिखा। ‘रंडी के जवाई की तरह’ फिर से घूमना पड़ेगा, मकान की तलाश में! – बस यही एक सौच मुझे खाये जा रही है! मकान मालिक से थोड़ा और समय इसी मकान में रहने की मोहलत मिलने के भी आसार नही दिखते थे क्योंकि अगले माह की दस तारीख को मकान मालिक की “बिटिया रानी” की शादी थी। खुदा कसम अगर मकान ढूंढने से पहले मैं वाकिफ होता कि क्या-क्या मुश्किले झेलनी पड़ेंगी तो मकान मालिक से साफ-साफ कह देता कि मकान मिलने तक खाली नही करूंगा – उखाड़ लो जो चाहे तुम्हारे मन में आये! पर क्या करें, अब सिर पर आ ही पड़ी है तो सब-कुछ झेलना तो पड़ेगा ही। ‘नाचने लगे तो घूँघट कैसा?’ कहावत को चरितार्थ करते हुये हम मैदान में कूद पड़े, मकान की खोज में। इसी बहाने हमे अपने शहर की कई गलियाँ, चौबारे और उनमे बसने वाली कलियां ते कलहीयां (अकेलियाँ), दोनों को देखने का मौका मिला। हमने अपने दोस्त मिस्टर चोपड़ा को अपने साथ लिया और मकान ढूंढने के लिए घर से निकल पड़े। ‘मित्र वही जो मुसीबत में काम आये’ वाली कहावत को सार्थक करते हुये चोपड़ा जी ने रविवार का दिन चुना था! पहले से निर्धारित तलाश किये जाने वाले ईलाके में प्रवेश करते ही दायें हाथ की पहली गली में बाएँ हाथ पर, दूसरे घर के बाहर एक ‘टू लेट’ की पट्टी लटकती दिखायी दी। हमारी आँखों में आशा की एक लहर दौड़ गई जैसे प्यासे की आँखों में पानी की मटकी को देखकर दौड़ती है! मिस्टर चोपड़ा जो मेरी दायीं तरफ़् थे, ने गेट के दाहिनी तरफ ‘लेटर बाक्स’ के ऊपर लगी ‘काल बेल’ को दबाया। इसके बाद हम दोनों दरवाजा खुलने की प्रतीक्षा करने लगे। अगले ही क्षण गैलरी में से हमारी और आती हुई एक वृद्धा दिखाई दी जो हमसे सुरक्षित दूरी आ कर रूकते हुये हमसे तशरीफ लाने का कारण पूछने लगी। जवाब देने से पहले ‘माता जी’ पर अपना ‘इम्प्रैशन’ बनाने के लिए मैंने अपनी मुस्कराहट से लिपटा हुआ उन्हें प्रणाम किया। मेरे मित्रवर चोपड़ा जी को भी विवश होकर, मेरी खातिर हाथ जोड़कर ‘माता जी’ को प्रणाम करना पड़ा, चाहे उसने अपने माता-पिता को भी इससे पहले कभी हाथ जोड़कर प्रणाम नही किया था! “छड़े हो या ‘फ़ैमिली’ वाले?” माता जी का पहला प्रश्न सुनकर ही हमारे चेहरे से मुस्कराहट विदा हो गई! मैंने हिम्मत करके जवाब दिया, “जी, अभी तो छड़े ही हैं…!” “जी लड़का बड़ा ‘हैंडसम’ है, शादी का क्या है… समय आने पर वह भी हो जाएगी।“ मेरे दोस्त चोपड़ा जी ने मेरे लिये आगे की बात संभाली। “अस्सी छड़ेया नूँ मकान नी देना, बुरा ना मनाना मेरी गल्ल दा, छ्ड़े बड़ा गंद पादें ने…!” “एक बात कहूँ, आंटी जी, यह लड़का बड़ा शरीफ है – खानदानी शरीफ – अच्छी नौकरी पेशे वाला है…!” मेरे हक में मिस्टर चोपड़ा ने माता जी को जवाबी दलील दी! “मैंने कहा न, हमारा छड़ों को किराये पर मकान देने का पिछला तजुर्बा ठीक नही रहा…!” “लेकिन आपको मैं विश्वास दिलाता हूँ, इस बार आपको निराशा नही होगी…!” चोपड़ा जी ने मेरी गारंटी लेते हुये कहा! “पड़ोस में कई मकान और भी हैं जो किराये के लिए खाली हैं…मैं चाहूँ भी तो भी मेरा मन नही मानता…” माता जी ने कहा और अपने ईरादे से उनको जरा सा भी ईधर-उधर न होते देख कर एक बार फिर हम दोनों गली में थे! “तूँ अपनी कुड़ी देनी ए?… “अस्सी छड़ेया नूँ मकान नी देना…” चोपड़ा जी ने माता जी की नकल करते हुये कहा! मेरा भी हस्ते-हस्ते बुरा हाल हो गया! एक बार फिर हम अपना-सा मुंह लिये गली में थे। दो – तीन गलियां घूम गये लेकिन किसी घर पर लगी ‘टू लेट’ की पट्टी ने हमारा स्वागत नही किया या फिर हमारा मुंह ही चिढ़ाया। सहसा, चोपड़ा जी को एक और किराये के लिए खाली मकान दिखा तो वे लगभग चिल्ला पड़े, “वह देखो…!” मैं समझा जैसे चोपड़ा जी मुझे किसी लड़की को देखने के लिए कह रहे हों (कमबख्त, मिस्टर चोपड़ा किसी कमसिन हसीना को देखकर ही ऐसा ही करता है) मेरी तो उस भूखे वाली हालत थी जो ‘दो और दो कितने होते हैं’ के जवाब में कहता है – चार रोटियाँ। इस घर के बाहर दीवार पर काले रंग की ‘काल बेल’ का सफ़ेद बटन जैसे अपने सफ़ेद दाँत निकाल कर हमारा मुंह चिढ़ा रहा था। चोपड़ा जी ने उसके दाँत पर एक घूसा दे मारा और घंटी चीख पड़ी! यह मकान मालकिन थोड़ा खुश-मिजाज सी लगी। अपने बेटे को आवाज लगाते हुये बोली, “पप्पू बेटा, जरा अंकल को उपर का कमरा-सैट दिखा दे… आजा बेटा !” उनके संदेश को सुनकर मैंने अपनी सारी ऊमीदें सँजो ली! इससे पहले कि ‘उनका पप्पू’ आता, और हमे कुछ दिखाता, उनका पहला सवाल था, “नौकरी करते हो या ‘बिजनेस’ वाले हो?” “ जी…नौकरी करता हूँ…!” जवाब में मैंने अपनी प्रतिष्ठित ‘फर्म’ के कंधे पर रख कर बंदूक चला दी और मन ही मन कहा, “तुस्सी मेरे नाल अपनी धी दा वियाह करना जां किराये ते अपना मकान देना…हद हो गई यार शराफत दी…?” फिर उन्होने कई और सवाल किये। उनका अगला प्रश्न मेरे कलेजे में तीर की भांती आ लगा, वही सवाल जो … Read more