एक लेखक की दास्तान …..

           प्रामाणिकता की जंग भारत देश में लेखकों की कमी है। यह बात मुझे तब पता चली, जब हूबहू मेरी ही रचना एक प्रतिष्ठित पत्रिका में किसी और के नाम से छपी। आश्चर्यमिश्रित सदमे से मैं बेहाल हो गया। सोचने-समझने की शक्ति का बुरा हाल हो गया। दिन बहुत हो चुके थे, तो मैं लगभग भूल ही चुका था कि मैंने वह रचना उस प्रतिष्ठित पत्रिका को कब भेजी थी। किन्तु पढ़ते ही आँखों के रेटीनी परदे पर स्पष्ट चित्र उभर आया। कंप्यूटर खोलकर देखा। आठ महीने पहले भेजी थी, इस आस में कि संभवतः संपादक जी को पसंद आ जाए। उन्हें पसंद भी आई। जिसकी प्रसन्नता थी, किन्तु रचनाकार के स्थान किसी और का नाम देखकर गहरा सदमा लगा। जवानी का स्वास्थ्य था, दिल का दौरा नहीं पड़ा। इस बेतरतीबी के युग में सब-कुछ उलट-पुलट हो चुका है। समय ही नहीं है किसी के पास। विशेषकर दूसरों के लिए और दूसरों की समस्याओं के लिए। फिर बड़ी और प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं और विशेषकर उनके संपादकों के पास तो और भी नहीं। पहले यानी कुछ दशक पहले तक जब कोई रचना अस्वीकार की जाती थी तो वह ‘सखेद’ वापस की प्रथा थी। इस ‘सखेदी-प्रथा’ से मेरी मुलाक़ात एक बार नहीं अनेक बार हो चुकी थी। तब दुःख होता था, किन्तु सदमा नहीं लगता था। अब इस प्रथा का निधन हो गया है। आप अपनी रचना भेजकर आराम से भूल जाइए और प्रतीक्षा करते-करते अपनी आयु बढ़ा लीजिए। छपने के आसार तो कम ही हैं, सखेद वापस आने का तो है ही नहीं, क्योंकि प्रथा ही मृत्युलोक पहुँच गई है। मैं भी इसी भूल में बैठा हुआ था कि चाहे वह वापस आए न आए, किन्तु रचना तो मेरी ही है और एक ईमानदार लेखक की भाँति आशावान् बना रहा था। कभी न कभी संपादक जी की उड़ती-उड़ती नज़र तो पड़ेगी ही। और इसी कारण अन्य पत्र-पत्रिकाओं में न भेज सका था। मेरे लिए असह्य दुर्घटना थी। क्या ऐसा भी हो सकता है? यह प्रश्न मेरे दिलो-दिमाग पर ऐसे-ऐसे प्रहार कर रहा था कि जैसे सैंकड़ों छुरियाँ बार-बार उन्हें खुरच रही हों। मैं सोचने-विचारने पर विवश था कि अब क्या किया जाए? रचना तो मेरी है, लेकिन किसी और के नाम से छपी है। तो फिर अपनी रचना को अपनी कैसे कहा जाए? समस्या गंभीर थी और अनूठी भी। वैसे इस दुर्घटना से दो बातें सर्वथा प्रमाणित थीं। एक तो अच्छी रचना की कद्र अभी भी बाकी थी। गो कि मैं एक अच्छा रचनाकार प्रमाणित हो गया था। दूसरे किसी रचना का महत्त्व नहीं होता है, बल्कि रचनाकार का होता है। रचनाकार बड़ा तो रचना बड़ी, वरना सुन्दर रचना भी अरचना। अर्थात् रचनाकार का सुरीला नाम होना चाहिए, चाहे रचना बेसुरी ही क्यों न हो। इन दोनों ही सत्य में मैं कहीं भी फिट नहीं बैठता था। अतः अपनी रचना को अपनी कहने के उपायों पर विचार करने लगा। यह निकला मेरी गहरी सोच का निष्कर्ष। किन्तु, निष्कर्ष निकालना और उसे प्रमाणित करना दो अलग बातें होती हैं। मेरी समस्या दुर्लभ थी। मेरे लिए और साहित्य जगत् के लिए भी। मैं अब अक्सर सोचों में गुम रहने लगा। घर-बार सबसे खिन्न रहने लगा। कर्ता-धर्ता परेशान तो सभी बेहाल हो ही जाते हैं। असंतोष की आग ने मेरे घर की शान्ति को भी जला डाला। अब घर की चिक-चिक और दिल की हिच-हिच में मैं पिसता जा रहा था। गहरे समुद्र-तल की भाँति गहरे मेरे संताप को देखकर एक दिन मेरे प्रिय मित्र मिलने आये। उन्हें मुझसे सहानुभूति थी। मेरे घावों पर मरहम लगाते हुए बोले – ‘मित्र, आपकी तो एक छोटी-सी रचना का अपहरण हुआ है, इतना दुःख मत करो। लोग तो ऐसे अपहरणों के बाढ़-पीडि़त हैं।’ ‘रचना का अपहरण?’ मैं चैंक गया था। पहली बार सुना था। ‘चैंको नहीं मित्र। मेरे पास तो पूरी की पूरी किताबों तक के अपहरण के मामले हंै। एक नहीं बल्कि अनेक हैं।’ ‘क्या?’ ‘अब तुमसे क्या छुपाना मित्र। तुम भी पीडि़तों में शामिल हो गए हो, तो तुम्हें इन मामलों को जानने का अधिकार भी प्राप्त हो गया है। मेरठ के एक प्रकाशक की गाथा का वर्णन करता हूँ।’ मैं अवाक् अपने प्रिय मित्र का व्याख्यान सुन रहा था। ‘इनकी विशेषता है कि ये महाशय रचनाएँ मँगवाते हैं और कई बार लोग अपनी रचना लेकर इनके पास जाते भी हैं। समय बीतता जाता है यह सुनते-सुनते कि विशेषज्ञ उनके परीक्षण कर रहे हैं। महीनों और सालों बीत जाते हैं। बेचारा रचनाकार आखि़रकार अपनी रचना के बारे में भूल जाता है और फिर ये प्रकाशक महोदय उस रचना को अपने परिवार के किसी एक सदस्य के नाम पर उसका शीर्षक बदलकर छाप लेते हैं। यह कई दशकों से चल रहा है। अब उनके परिवार के चार सदस्य स्थापित लेखक बन चुके हैं। वैसे कभी-कभार वे दूसरों की रचनाओं का प्रकाशन भी कर लेते हैं ताकि प्रकाशक के तौर पर उनकी विश्वसनीयता बरक़रार रहे।’ ‘यह तो सरासर धोखाधड़ी है।’ ‘अब इसे जो कहना चाहो कह लो। ऐसा केवल मेरठ में होता हो, कोई एक प्रकाशक करता हो, तो भी कोई बात नहीं होती। अब तो यह उद्योग की भाँति पनप चुका है। सारे देश को निगल चुका है।’ मुझे आश्चर्य भी हुआ और डर भी लगा कि मैंने भी कई रचनाएँ, कई पत्र-पत्रिकाओं को प्रेषित की हुई हैं। अगर मेरे साथ भी ऐसा हुआ, तो क्या होगा? मेरा डर सही साबित हुआ, क्योंकि उसके बाद जो कुछ हुआ वह लगभग वैसा ही था जो मेरे प्रिय मित्र ने कहा था। धड़ाधड़ मेरी कई रचनायें और छपीं। विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में उन्होंने बखूबी स्थान पाया। कभी पूरी की पूरी, तो कभी बेतरह काट-छाँटकर और कभी उसकी आत्मा का हनन कर। भाषा भी कुछ मेरी और कुछ किसी अन्य की। किन्तु, मेरे नाम का नामोनिशाँ कहीं नहीं था। संताप एवं पीड़ा के बादल फट पड़े। अपने सृजन के लिए दिल फूट-फूटकर रो पड़ा। मेरी रचना पराई होकर इठलाती तो दिल पर सैकड़ों सर्प लोटने लगते। वे जो भी थे आनंदित थे और मैं स्वयं को पहचानने के प्रयास में स्वयं को ही भूलने लगा था। फिर मैंने निश्चय किया कि नहीं, एक नवोदित और उदीयमान लेखक की पदवी से सँवरने का अवसर हाथ से न … Read more

व्यंग :तीन बन्दर -अरविन्द कुमार खेड़े

बंदरों के सरदार ने आपात बैठक बुलाई थी । जंगल के सारे बंदर अपने-अपने हाथों का काम छोड़कर दौड़े-दौड़े चले आ रहे थे । सभी चिंता में, ऐसी क्या बात हो गयी कि, आपात बैठक बुलानी पड़ी ? कहीं भगवान श्रीराम ने फिर से जन्म तो नहीं ले लिया ? कहीं श्री राम को फिर से वनवास तो नहीं हो गया ? कहीं रावण ने फिर से सीताजी का हरण तो नहीं कर लिया ? कहीं फिर से श्रीराम को बंदरों की जरूरत तो नहीं पड़ गयी ? मन में कईं तरह की आषंकाएं/कुषंकाएं लेकर चले आ रहे थे । बंदरों का सरदार चिंताग्रस्त होकर चहल-कदमी कर रहा था । इधर मंच की ओर षिलाखंडों पर बूढ़े बंदर विराजमान थे, जो सरदारी करते हुए रिटायर्ड हुए थे । सामने बंदरों का विषाल समुदाय बैठा था, जो सरदार के बोलने का इंतजार कर रहा था । सरदार ने आष्वस्त होकर कि, अब सारे बंदर आ चुके होगें, और जो नहीं आये होगे, उन्हें बंदरियों ने परमिषन नहीं दी होगी । सरदार को ऐसे कायर बंदरों की कोई परवाह नहीं जिनका अपनी जाति की अस्मिता के सवार पर खून न खौले । प्रारंभिक उद्बोधन के बाद सरदार ने कहना प्रारंभ किया, ‘‘आज भले ही मनुष्य सृष्टि का सिरमौर हो, लेकिन वह भूल रहा है कि हम उनके पूर्वज रहे हैं । ’’ सरदार के उद्बोधन में मनुष्य का जिक्र आते ही बंदरों मे खलबली मच गयी । मतलब मामला मनुष्य से संबंधित है । मतलब मनुष्यों की गलती की सजा हमें फिर भुगतनी पड़ेगी । हमे फिर मनुष्यों के लिए लड़ाई लड़नी होगी । षोर बढ़ गया था । वरिष्ठ बंदरों ने खड़े होकर ‘‘षांत हो जाओ’’ की अपील की, फिर सरदार से समवेत स्वरों मे पूछा, ‘‘क्या बात है सरदार ? ’’ ‘‘बात हमारी वानर जाति की गरिमा और अस्मिता की है । आखिर कब तक हमारा मजाक उड़ाया जायेगा ? कब तक हम उपहास के पात्र बने रहेगें ? ’’ फिर षोर मच गया । वरिष्ठ सरदारों को एक बार फिर षांत रहने की अपील करनी पड़ी । सरदार से खुलकर मामला बताने को कहा । ‘‘बापू के तीन बंदर । हमने सोचा था कि, बापू के साथ ही बापू के तीन बंदरों का किस्सा खत्म हो जायेगा । लेकिन ऐसा नहीं हुआ । बापू के तीन बंदरों के नाम पर आज भी हमें षर्मिन्दगी झेलनी पड़ रही है । ’’ वरिष्ठ बंदरों को बीच में टोकना पड़ा, ‘‘साफ-साफ कहो, क्या कहना चाहते हो ? ’’ ‘‘जब भी मनुष्य को कोई नैतिक षिक्षा देनी हो, नैतिक पाठ पढ़ाना हो, नैतिक सबक देना हो, बात हमसे षुरू की जाती है-बापू के तीन बंदर, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत कहो । आज हम तीन बंदर बापू के संदेष के ट्रेडमार्क बन गये हैं । मेरा सवाल है, बंदर ही क्यों ? जंगल में और भी तो जानवर है , फिर हमें  ही क्योें मजाक बनाया जा रहा है ? ’’ कुछ पल रूककर सरदार ने फिर कहना प्रारंभ किया, ‘‘ये सरासर हमारा अपमान है । नैतिकता की व्याख्या और उदाहरण के लिए ढेरों किस्से हैं, ढेरों कहानियां हैं । फिर हम ही क्यों ? ये चलन बदलना होगा, नहीं तो हमारी आने वाली पीढि़यां इसी तरह अपमानित होती रहेगी । ’’ सरदार कहते-कहते रूक गये थे । सभा में सन्नाटा छा गया था । सरदार सही कह रहा है । बात धीरे-धीरे समझ में आ रही है । अचानक एक साथ आवाजे आयी, ‘‘अब क्या होगा ? हमें क्या करना होगा ? ’’ ‘‘सरकार के खिलाफ विद्रोह ।’’ सरदार ने कहा । सभा में फिर से सन्नाटा छा गया । विद्रोह ? सरकार के खिलाफ ? ‘‘हां, विद्रोह’’ सरदार ने अपनी बात दृढ़तापूर्वक दोहराई थी । एक वृद्ध बंदर ने कहा,‘‘चूंकि, हम बापू के अनुयायी रहे हैं । यह बात बापू के आदर्षो के खिलाफ होगी । ’’ एक साथ कई बंदरों ने इस वृद्ध बंदर के पक्ष में अपनी गर्दने हिलाई । देर तक मंत्रणा चलती रही । निर्णय हुआ कि, बुजुर्ग बंदरों के साथ सरदार के प्रतिनिधित्व में एक प्रतिनिधि मंडल सरकार से मिलने जाएगा । इस बारे में सरकार से चर्चा की जाएगी । और इस श्राप से बंदरों को मुक्ति दिलाई जाएगी । अगले दिन सरदार के नेतृत्व में बंदरों का प्रतिनिधि मंडल सरकार से मिला । पूरी वस्तुस्थिति बतायी और और इस अभिषाप से मुक्त करने के लिए अनुरोध किया । सरकार ने अकेले-अकेले विचार करना और निर्णय लेना उचित नहीं समझा । सरकार ने कहा था कि, इस संबंध में अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलाई जाएगी । गहराई से विचार किया जाएगा । और उम्मींद करते हैं कि, समस्या का सकारात्मक हल निकलेगा । साझा निर्णय लेने का यह ज्ञान मुझे सरकार से मिला । जब सिर फुड़वाने का मौका आये तो, हम अकेले ही क्यों ? इसलिए सरकार अकेले-अकेले निर्णय नहीं लेती है । निर्णय लेने के लिए मसले को सदन में रखा जाता है । सरकार आंकलन करना चाहती है कि, कितने सिर फूटेगें ? सिर फूटना अब सर्वसम्मति का प्रतीक बन गया है । नियत तिथि पर मंत्रिमंडल की बैठक आहूत हुई, जिसमें एक बार फिर बंदरों का प्रतिनिधिमंडल भी उपस्थित हुआ । सरदार ने अपनी बात रखी । अपना पक्ष रखा, अपना मत रखा । सरकार ने ध्यान से सुना, मंत्रिमंडल में इस मुद्दे के हर पहलू पर बहस की । गहन विचार विमर्ष के बाद सरकार ने कहा, ‘‘बापू के तीन बंदर, लोग इस जुमले के अभ्यस्त हो चुके हैं । एकदम से बंदर के स्थान पर किसी दूसरे को प्रतिस्थापित किया तो समझिए, समस्या सुलझने के बजाए और उलझ जाएगी । ’’ सरकार ने ‘‘जो जैसा है, वैसा ही चलने दे’’ का अनुरोध किया । लेकिन सरदार टस से मस नहीं हुआ । फिर सरकार ने लालच देनी चाही । सरदार ने अस्वीकार कर दी । मामला संगीन हो गया था । और अंततः सरकार ने अपने मंत्रिमंडल से सलाह-मषविरा करने के बाद कहा, ‘‘देखिए, एकदम से बदलाव संभव नहीे, एक-एक करके तीनों बंदरों को मुक्त किया जाएगा । इसमें समय लग सकता है । यदि प्रतिकूल परिस्थतियां निर्मित नहीं होती है तो, एक-एक करके तीनों … Read more

मूर्खता दिवस पर अक्लमंदी भरी बात

                                            वैसे तो आज मूर्खता दिवस है पर लोग एक दूसरे को शुभकामनायें देने से बाज नहीं आ रहे |क्योकि हमें तो दिवस मानाने से मतलब कोई भी दिवस हो हम मना  ही लेते हैं ….. वैसे ये आयातित दिवस हैं …. पर हम भारतीय इसे ख़ुशी -ख़ुशी मानते हैं क्योंकि हम जानते हैं कि भले ही इस दिवस का आविष्कार  हमने न किया हो पर मूर्ख बनने  का तजुर्बा हमे ज्यादा है …. तभी तो हमारे नेता हमें हर बार  गरीबी मिटाओ के नारे के साथ हमे मूर्ख बना कर अपनी गरीबी मिटाते हैं और हम ख़ुशी -ख़ुशी हर ५ साल बाद मूर्ख  बनने  को तैयार हो जाते हैं खैर ये लेख राजनीतिक ,धर्मिक ,अध्यात्मिक लोगो द्वारा मूर्ख बनाने के  ऊपर नहीं है |                             आज मूर्ख दिवस पर हमारे दिमाग में एक अक्लमंदी भरी बात आ रही है ….. ये मूर्ख दिवस अक्लमंद लोग मनाते  है …. स्वाद परिवर्तन हेतु …. वैसे भी मूर्खों के पास इतना समय नहीं होता कि रोज -रोज नयी  मूर्खताएं भी करे और किसी एक  दिन उस पर हँसे भी |वो तो हर रोज हँसते हैं | हंसने कि कमी बुद्धिमानो में पाई जाती है एक सर्वेक्षण में पाया गया है कि जो जितना कम हँसे वो उतना ही ज्ञानी होता है …..जिन लोगो  के होठों का  हँसते समय  पूरा वृत्त बनता हैं उनके दिमाग का स्तर भी अंडाकार होता है|जिनका मुँह एक स्लिट कि तरह खुलता है उनके दिमाग का स्तर ऊँचा होता है |  जो बड़ी से बड़ी बात पर बस मुस्कुरा कर रह जाए वो महा ज्ञानी  होता है |ऐसे लोग जब कभी अचानक से हंस पड़ते हैं तो आस -पास के लोग हँसना छोड़ कर  सोचने  लगते हैं कि आखिर कार ऐसी क्या बात है इस बात में |ऐसे ही लोग पार्क में हंस योग करते हैं जो बिना बात हाथ ऊपर उठा कर हँसते हैं “हा हा हा हा “हँसते  समय उनका चेहरा भले ही तनाव से भरा हो पर उनको देखने वाले खुलकर हँसते  हैं| एक बार उनको हँसते हुए देख कर एक छोटा बच्चा अपने बड़े भाई से पूँछ बैठा “भैया ,भैया ये क्यों हंस रहे हैं ?बड़ा भाई  ने विद्वता पूर्ण उत्तर दिया “इनमें हंसी के विटामिन कि कमी हो गयी है ठीक से हँसते जो नहीं हैं “                        इन मूर्खों का अक्लमंदो कि दुनिया में विशेष स्थान है  चार्ली चैपलिन और शेखचिल्ली के मुर्खता पूर्ण किस्से हमें  सदा से हंसाते आये हैं |बचपन में रेडिओ में एक कार्यक्रम आता था “मूर्खाधिपति महाराज मंद -बुद्धि सिंह  जिसको सुनने के लिए हम पूरे  हफ्ते इंतज़ार करते थे | वैसे मूर्ख होना कोई बुरी बात नहीं है ,सुनते हैं कालिदास भी कभी मूर्ख हुआ करते थे.। आज भी ऐसे मूर्खों कि कमी नहीं है जो जिस डाल  पर बैठते हैं ( आश्रयदाता ) उसे ही काटने में लगे रहते हैं। कालिदास जी को तो उनकी  पत्नी  ने उन्हें बुद्धिमानों कि श्रेणियों में ला कर खड़ा कर दिया | तबसे सभी भारतीय पत्नियों के ऊपर यह दायित्व आ गया कि अपने -अपने पतियों की मूर्खताओं को कम करके उन्हें महान बनाए । एक आम भारतीय नारी “बुद्धू पड़  गया पल्ले ” गाते हुए ससुराल में प्रवेश करती है ।  आमतौर पर मूर्ख पति जिसे पत्नियों का अत्याचार कहते हैं वह पत्नियों का पतियों को विद्वान् बनाने में किया गया अंश दान हैं।                                    सुना तो ये भी गया  हैं बिजली का आविष्कार करने वाले एडिसन साहब भी  बचपन में बड़े मूर्ख थे |वे एक बार अण्डों के ऊपर जा बैठे  …. कि जब मुर्गी के बैठने से चूजा निकल सकता है तो मेरे बैठने से क्यों नहीं |आइन्स्टीन तो अपनी बचपन कि  मूर्खताओं के  कारण स्कूल से निकाले गए थे ।  दर्शिनिकों की मूर्खताएं विश्व -प्रसिद्ध हैं ।  सुनने में तो यह भी आया है मुर्खता और दार्शनिकता समानुपात में बढती है.।  मेरे विचार से मुर्खता दिवस मनाने  के पीछे एक गहरी मंशा है। आज जिसे मुर्ख सिद्ध किया जा रहा है पता नहीं उनमे से कब कौन महाकवि बन जाए ,कौन वैज्ञानिक बन जाए कौन दार्शनिक बन जाए  ।  इसी भावना के तहत अनेकों स्कूल पहली अप्रैल को खुलते हैं ।    छोटी मोटी मूर्खताओ पर हंसने हसाने के लिए ये दिन बुरा नहीं हैं |तो हसिये -हंसाइये और शान से मुर्खता दिवस मानिए | वंदना बाजपेई सभी अक्लमंदों को मुर्खता दिवस कि शुभकामनाएं अटूट बंधन   …हमारा फेस बुक पेज                         

जस्ट लाइक &कमेंट

                           फेस बुक पर आने के बाद देखा तो हमने भी था कि कुछ लोग इसे विचारों की अभिव्यक्ति का माध्यम समझते हैं और कुछ अपनी तस्वीरों की |खैर जिसकी जैसी इक्षा सोच कर हमने तो चुप रहने में ही भलाई समझी पर  आज शाम को घर आते वक्त मिसेज चावला मिल गयी |बड़ा उदास सा मुँह बना रखा था |हम तो टमाटर और भिन्डी खरीदने के बाद उनके  दामों में हुई वृद्धि और उससे घर के  बजट बिगड़ने कि गणित में उलझे हुए थे तभी मिसेज चावला हमारी आँखों के आगे आ गयी उनका चेहरा तो हमारी सस्ती भिन्डियों  से भी ज्यादा मुरझाया हुआ था |घबरा कर हमने पूंछा क्या हुआ ,बीमार हो क्या ? ये क्या हाल बना रखा है ,कुछ लेती क्यों नहीं? हमारे इतने सारे प्रश्नो के उत्तर में बुरा सा  मुँह बना कर बोली “क्या बताएं मेरे तो ५००० रुपये पर पानी फिर गया | ५००० रुपये  सुन कर हमारा तो कलेजा मुँह को आगया |कितना कुछ आ सकता है ५००० रुपये में ४ किलो चावल ,३ किलो अरहर दाल ,आशीर्वाद का आटा ,जो गेंहू की एक -एक बाली चुन -चुन कर पीसा जाता हैं …. पंसारी का बिल …. हां ! सच में बात तो दुखी होने कि ही है |फिर भी हिम्मत करके हमने पूँछ ही लिया “कैसे हुआ ये गजब “ मिसेज चावला आँखों में आंसू भर कर बोली “अरे वो ५००० की साड़ी पहन कर जो फोटो एफ बी पर डाला था उस पर केवल ७०० लाइक और ५० कमेंट आये इससे  पहले  जो ५७५ रुपये कि साड़ी पहन कर फोटो डाली थी उस पर तो पुरे २००० लाइक आये थे और कमेंट तो पूछो मत | मैं हतप्रभ थी |सुना तो मैंने भी था की अब वो जमाने लद  गए  जब औरतें नयी साडी पहन कर अपने पति को दिखाते हुए पूछती  थी “सुनो जी कैसी लग रही हूँ “|अब शाम तक पति का इंतज़ार कौन करे |फोटो खीचा डाला …. राय हाज़िर | इंस्टेंट राय का जमाना है | कहते हैं परिवर्तन समाज का नियम है “ओनली चेंज इस अनचेंजेबल |                  उस दिन तो बड़ा दुःख लगा कि बेचारी …………. पर मिसेज चावला जरा कम समझदार थी ये पता हमे उस दिन चला जब अपनी सहेली मीता   से मिले| मीता चहक कर बोली अरे मैं तो इतने पैसे वेस्ट करती ही नहीं….. सीधे दुकानदार से कह देती हूँ  एक घंटे के लिए साड़ी ले जा रही हूँ एफ बी पर फोटो डाल कर लोगों का रिस्पोंन्स देखूंगी |अगर ज्यादा लाइक ,कमेंट मिले तो ठीक वर्ना साडी वापस |अब तुम ही बताओ ५००० फ्रेंड्स और १०,००० फोल्लोवर्स इतनी सटीक राय और कहाँ मिलेगी | और तो और कई  बार दुकानदार डिस्काउंट भी दे देता है आखिर कार लोकल सहेलियां पूछेंगी “कहाँ से ली,तो उसकी दूकान का मुफ्त में प्रचार होगा | मैं बड़े श्रधा भाव से  मीता कि बातें सुन रही थी ,कितनी ज्ञानी हो गयी है ये |                                   मेरी एक और सखी मधु  हर समय किसी रीता के बारे में बताती रहती है ….. रीता का ये ,रीता का वो ,एक दिन हमने पूछ ही लिया कि आखिरकार ये रीता है कौन ?प्रश्न सुन कर कंधे उचकाते हुए बोली  रीता मेरी परिचित नहीं है पर मैं उन्हें अच्छे से जानती हूँ क्या है कि वो रोज  अपनी ४-६ फोटो तो डालती ही हैं। ये खाना बनाते हुए ,ये पानी भरते हुए ,ये सोफे का कवर बदलते हुए….. और कभी कभी तो यह पहला कौर खाते हुए ,ये दूसरा कौर खाते हुए ,ये तीसरा ….. |रीता के घर में क्या –क्या है सबको  पता है | वो क्या खाती है सबको पता है,उसके घर का कुत्ता क्या खाता है सबको पता है ,उसके वार्ड रोप में कितनी साडियाँ  हैं सबको पता है |लोग सुबह ४ बजे से रात के पौने चार बजे तक रीता के घर में दिलचस्पी लेते हैं |रीता को जरा भी फुर्सत नहीं हैं अपने बच्चों से बात करने की ,पति का हाल –चाल पूछने ने की |और मुहल्ले वाले…..उनसे तो रीता कभी सीधे मुँह बात ही नहीं करती ………….. पेज-३ कि सेलीब्रेटी जो हो गयी है|                        पर आप ये मत समझिएगा की इस मामले में औरतों कि मोनो पोली है |मिस्टर जुनेजा ने कल बताया  कि अक्सर वो भीड़ भरे स्थानों पर जाने से घबराते हैं |क्यों भला ,कहीं दिल का रोग तो नहीं हो गया अब ६५ कि उम्र में धमनियों में कोलेस्ट्रोल तो जम ही जाता है |छूटते ही बोले “अरे नहीं ,वो फेस बुक पर जवानी कि तस्वीर जो डाल रखी है |क्यों भला ?न चाहते हुए भी हम पूछ ही बैठे। अब इस उम्र की तस्वीर पर कोई लाइक -कमेंट तो देगा नहीं ,बड़ा ईगो हर्ट होता है हम दिन भर सब पर लाइक कमेंट करते रहे और हमारी फोटो पर ……ऐसा लगता है किसी भिखारी के कटोरे में रेजगारी पड़ी हो। आखिरकार फेसबुक पर लाइक कमेंट स्टेटस सिंबल जो होता है। हमने बमुश्किल अपनी हंसी रोकते हुए कहा “तो फिर डर कैसा ? डर तो सारी  मेहनत  पर पानी फिरने का ही है। अब लड़कियों का सिक्स्थ सेन्स तो मजबूत होता ही है कहीं उनकी पुलिसिया निगाहें सारा भेद न जान ले |फिर तो …………               उस दिन बातों -बातों में हमारी सखी रेहाना  ने बड़ी  ज्ञान कि बात बतायी अगर पति –पत्नी दोनों फेस बुक पर हैं तो एक –दूसरे कि तस्वीर को कभी लाइक नहीं करते |उस पर तुर्रा यह कि घर पर तो लाइक करते ही हैं और दो बार लाइक करने से अनलाइक हो जाता है                अभी कल ही की तो बात है सड़क पर दो बच्चे झगड़ रहे थे। एक ने दूसरे का कॉलर पकड़ कर कहा “अरे ! १० लाइक  पाने वाले तेरी हिम्मत कैसे हुई ५० लाइक पाने वाले के सामने अपना मुंह खोलने की।  इतना सुनने के बाद हमारी तो बोलती ही बंद हो गयी अब तो … Read more

होली पर इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स मुफ्त :स्टॉक सीमित

होली केवल रंगों का त्यौहार ही नहीं है , हंसने खिलखिलाने का भी त्यौहार है | हँसने –हँसाने का ये सिलसिला जारी रहने के लिए लाये हैं एक हास्य रचना  होली पर इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स मुफ्त :स्टॉक सीमित होली और गुझियाँ का चोली दामन का साथ है |”सारे तीरथ बार –बार और गंगा सागर एक बार “की की तर्ज पर गुझियाँ ही वो मिठाई है जो साल में बस एक बार होली पर बनती है |जाहिर है घर में बच्चों –बड़ों सबको इसका इंतज़ार रहता है,और गुझियाँ का नाम सुनते ही बच्चों के मुँह में व् महिलाओं के माथे पर पानी आ जाता है |    कारण  यह है कि गुझियाँ खाने में जितनी स्वादिष्ट लगती है पकाने में उतनी ही बोरिंग| एक –एक लोई बेलो ,भरो ,तलो …. बिलकुल चिड़िमार काम |अकसर होली के आस –पास महिलाएं जब एक दुसरे से मिलती हैं तो पहला प्रश्न यही होता है “आप की गुझियाँ बन गयी? और अगर उत्तर न में मिला तो तसल्ली की गहरी साँस लेती है “एक हम ही नहीं तन्हाँ न बना पाने में तुझको रुसवा“ पर बकरे की माँ कब तक खैर बनाएगी ,बनाना तो सबको पड़ेगा ही ….. शगुन जो ठहरा |          एक सवाल मेरे मन में अक्सर आता है कि पिट्स,,वी टी आर , फादर्स  रेसेपी … जैसी तमाम कंपनियों ने जब रसगुल्ले ,ढोकले ,दहीबड़े यहाँ तक की जलेबी के इंस्टेंट मिक्स बना कर हम हम महिलाओं को पकाने के काम से इतनी आज़ादी दी कि हम आराम से पड़ोस में किसकी बेटी का ,बेटे का ,सास –बहु ,नन्द –भौजाई का आपस में क्या पक रहा है जान सके ,तो किसी को यह ख़याल क्यों नहीं आया कि इंस्टेंट गुझिया मिक्स बनाया जाए |ऐसी निराशा के आलम में जब होली  से ठीक एक दिन पहले “आज गुझियाँ बना ही लेंगे की भीष्म प्रतिज्ञा करते हुए हमने अखबार खोला, तो हमारी तो ख़ुशी के मारे चीख निकल गयी | साफ़ –साफ़ मोटे –मोटे अक्षरों में लिखा था “ हमारी माताओं –बहनों की तकलीफ को देखते हुए होली पर महिलाओं के लिए इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स बिकुल फ्री| जल्दी करिए स्टॉक सीमित है |केवल महिलाएं अपने एरिया की अधिकृत दुकान तक पहुंचे |विज्ञापन सरकारी था |शक करने का कोई सवाल ही नहीं था |वैसे भी हम दिल्ली वालों  फ्री चीजों की आदत हो चुकी है | और अब तो फ्री -फ्री के खेल को एन्जॉय करना भी शुरू कर दिया है | हमने तुरंत अपना मोबाइल उठाया और अपनी सहेलियों को फ्री की यह शुभ सूचना देने के में २०० रूपये खर्च कर दिए | मीना ,रीना ,टीना  ,मुन्नी ,दिव्या सुधा सब दस मिनट में तैयार हो कर हमारे घर आ गयी |हमने दुकान की तरफ  कदम बढ़ाये |रास्ते भर हम यही गुणगान करते रहे “क्या सरकार है जिसने हम महिलाओ  के दर्द को समझा ,इतना तो हमारे पतियों नें नहीं समझा | दुकान पर पहुँच कर देखा करीब ५ -७ सौ महिलाओं की भीड़ है| खैर हम सभी सभ्य  जनता की तरह लाइन में लग गए और अपनी –अपनी सास –बहुओं की बुराई कर सहृदयता पूर्वक  टाइम काटने लगे| तभी अचानक से खबर आई इस ईलाके के लिए पैकेट केवल ५० हैं |कहीं हम ही न रह जाए यह सोच कर महिलाओं में भगदड़ मच गयी |सब  अपनी –अपनी साडी के पल्ले कमर पर बाँध  योद्धा की तरह आगे बढ़ने लगी |कुछ  ने दूसरों को गिराया, कुछ स्वयं ही गिरी  , सास –बहु की बुराई की जगह एक दूसरे की बुराई होने लगी |कैसी सहेली हैं रे तू (दिल्ली में तू भाषा में आम चलन में  है)मेरी जॉइंट फैमिली है तुझे दया नहीं आती |दूसरी आवाज़ आई अरे मैं तो काम पर जाती हूँ ,मुझे मिलना चाहिए |तभी कुछ आवाज़े आई “सीनियर सिटीजन का पहला हक है | मौके की नाजुक हालत देख कर दुकान दार भाग गया | विकराल छीना –झपटी मच गयी |             इसी छीना – झपटी में सारे के सारे पैकेट फट गए,पर ये क्या उसमें गुझियाँ मिक्स की जगह अबीर –गुलाल निकला| हम सारी महिलाएं रंगों से सराबोर थी |एक –दूसरे की हालत देखकर हमें हंसी आने लगी |सारा गुस्सा काफूर हो गया | फटे हुए पैकेट को खंगाला गया तो उसमें मिली पर्चियों पर बड़ा –बड़ा लिखा था  “बुरा न मानो होली है”  हम लोगो कि हंसी छूट गयी…होलीके माहौल में बुरा क्या मानना।हम सब हँसते –मुस्कुराते घर की तरफ चल पड़े। इस बात का अफ़सोस तो जरूर था की घर जा कर गुझियाँ बनानी पड़ेगी। पर इस बात का संतोष भी था पहली बार सरकार ने जनता के साथ होली खेली। जनता रंगों से सराबोर हुई और अबीर -गुलाल तो मिला ही बिलकुल मुफ्त।  खैर हमने तो होली खेल ली अब गुझियाँ भी बना ही लेंगे पर अगर आप के शहर में ऐसा कोई विज्ञापन आता है .तो जरा संभल कर ….बड़े धोखे हैं इस राह हैं …..फिर भी अगर मुफ्त के चक्कर  में आप भी फंस जाए और होली के रंगों में रंग जाए तो भी कोई गम नहीं क्योंकि…………….. “बुरा न मानो होली है” वंदना बाजपेयी  अटूट बंधन परिवार की ओर से आप सभी को होली की हार्दिक शुभ कामनाएं  यह भी पढ़ें ..                             सूट की भूख न उम्र की सीमा हो … किरण आर्य हमने भी करी डाई – ईटिंग एक लेखक की दास्ताँ       आपको  व्यंग लेख “ होली पर इंस्टेंट गुझियाँ मिक्स मुफ्त :स्टॉक सीमित “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |        

दिल्ली:जहाँ हर आम आदमी है ख़ास

                                        बचपन की याद आती है जब माँ सुबह -सुबह हमें उठाते हुए कह रहीं थी “जरा  जल्दी उठ कर ठीक -ठाक कपडे पहन लो दिल्ली वाली चाची आने वाली हैं “वैसे तो हमारे घर मेहमानों का आना .-जाना लगा रहता था। उसमें कुछ ठीक -ठाक करने जैसा नहीं था ,पर चाची दिल्ली की थी।  चाची  पर इम्प्रैशन डालने का अर्थ सीधे संसद तक खबर।  हालाँकि   हम उत्तर प्रदेश के एक महानगर में रहते थे पर दिल्ली हमारे लिए दूर थी।  दिल्ली वो थी जहाँ की ख़बरों से अखबार पटे रहते थे। हमें अपने शह र की जानकारी हों न हो पर दिल्ली की हर घटना की जानकारी रहती थी गोया की हमारा शहर  दीवाने आम हो  और दिल्ली दीवाने ख़ास।  दिल्ली ,दिल्ली का विकास और दिल्ली के लोग हमारी कल्पना का आयाम थी।  बरसों बीते हम बड़े हुए ,हमारा विवाह हुआ और पति के साथ तबादले का शिकार होते हुए देश के कई शहरों का पानी पीते हुए आखिर कार दिल्ली पहुँच  ही गए। और दिल्ली आकर हमें पता चला की कितने भी आम हो अब हम आम आदमी /औरत नहीं रहे हैं। अब हम भी उन लोगों में शुमार हो गए हैं जो खबरे पढ़ते ही नहीं बल्कि ख़बरों का हिस्सा हैं।                                                  पहला अनुभव हमें दिल्ली प्रवास के  दूसरे दिन ही हो गया जब हमारी प्रिय सखी का फोन दिल्ली पहुँचने की बधाई देने का आया।  बधाई  देने के बाद बोली ”  बड़ी परेशानी होगी ,पानी नहीं आ रहा न तुम्हारे घर “अच्छा हमने सकपकाते हुए कहा ,पता नहीं नल खोल कर देखते हैं ,तुम्हें कैसे पता चला ? अरे सुबह से क क क  चैनल पर दिखा रहे हैं  , दिल्ली में तुम्हारे एरिया में पानी नहीं आ रहा हैं लोग खाली बोतलें लेकर सड़कों पर हैं … टी वी नहीं देखा क्या तुमने ? पहली बार हमें बड़ा अटपटा लगा हमारे घर में पानी नहीं आ रहा है इसका पता हमसे पहले पूरे देश को है। हमारी निजी स्वतंत्रता का  कोई स्थान नहीं ? फिर तो यह रोज का सिलसिला हो गया।  हमने भी आपने आस -पास की बातों  पर ध्यान देना शुरू कर दिया क्योकि ,अडोस -पड़ोस में क्या हो रहा है इसकी खबर जाते ही सुदूर बसे परिवार के सदस्यों के लिए घटना की  आधिकारिक पुष्टि हमें ही करनी होती थी अन्यथा हमारे समान्य ज्ञान पर प्रश्न चिन्ह लगने का पूरा ख़तरा था।                                                                     एक बार तो हमारी कश्मीर वाली बहन हमसे  कई दिन तक इस बात पर नाराज रही कि सर्दियाँ होते ही सारे रिश्ते दारों के हमारे घर में “अपना और बच्चों का धयान रखना “के हिदायत भरे फोन आने लगते  जबकि वो -१० डिग्री से नीचे जम रही होती पर  उसके यहाँ कोई फोन नहीं पहुँचता, इस पारिवारिक भेदभाव में हमारा कोई हाथ नहीं था। ये तो टी वी  चैनल वाले २४ घंटे दिल्ली की सर्दी का आँखों देखा हाल बताते रहते ,,सर्दी की भयावता को देख दूसरे शहरों के लोग रजाई में किटकिटाते हुए भाग्य को सराहते “भैया दिल्ली की सर्दी से राम बचाए “.|  एक बार कानपुर  में एक रिश्तेदार की शादी में जाने पर हम चर्चा का केंद्र बन गए”बताओ क्या दिन आ गए हैं  दिल्ली में अबकी गर्मी में दो -दो घंटे बिजली काट रहे हैं।  जब सुनते -सुनते हम हम थक गए तो पूँछ ही लिया “कानपुर में कितने घंटे आती है  ?कोई ठीक नहीं पर २४ घंटे में १० -११  घंटे तो आ ही जाती है।  उत्तर प्रदेश की औद्यौगिक राजधानी बिजली की किल्लत से बुरी तरह जूझ रहीं है ,उद्योग -धंधे चौपट हैं ,भीषण बेरोजगारी  ने लूट पाट  को बढ़ा दिया है. पर दिल्ली में २ घंटे बिजली गुल होना खबरों का शहंशाह  बन कर तख्ते  ताऊस पर बैठा है।                                               एक बार तो हद हो गयी रात को ११ बजे माँ का फोन आया। उन्होंने कांपती आवाज़ में कहा “बिटिया अपना ,दामाद  जी का बच्चों का ध्यान रखना “क्यों माँ क्या हुआ इतनी घबराई हुई क्यों हो ?मैं उल्टा प्रश्न दागा। अभी -अभी टी वी चैनल में दिखा रहे हैं दिल्ली भूकंप से ज्यादा प्रभावित होने वाली जोंन  में आता हैं  ,हम तो घबरा गए। देखो ज्यादा बेख्याली में मत सोना। टंकी पूरी ना भरना … गमले………… माँ ने हिदायतों की पूरी लम्बी लिस्ट सुनानी शुरू कर दी। हमने बीच में ही माँ को रोकते हुए कहा माँ ठहरों जिस सेस्मिक जोंन  में दिल्ली  है उसी में आप का शहर भी है। चिंता न करिए।   माँ ने लगभग डांटते  हुए कहा “हमारा जी इतना घबरा रहा है ,और तुम्हे मजाक सूझ रहा है ,तुम्हे ज्यादा पता है या चैनल वालों  को.…  हम निरुत्तर हो गए हम बचपन में सुना चुटकुला याद आ गया “एक आदमी का परिक्षण कर रहे डॉक्टर ने नर्स से कहा ,ये मर चुका है तभी आदमी उठ कर बोला मैं जिन्दा हूँ ,मैं ज़िंदा हूँ , नर्स उसे टोंकते हुए बोली चुप राहों तुम्हें ज्यादा पता है या डॉक्टर को  “                                  खैर अब तो हमें  ख़बरों में रहने की आदत हो गयी है दूसरे शहर तकलीफे आपदाए झेते रहे ,…………पर.  खबर है तो दिल्ली की , …………  यहाँ हर आम घटना ,हर आम आदमी खबर का हिस्सा है चर्चा का विषय है इसीलिये यहाँ का हर आम आदमी ख़ास है।  और देखिये तो अब तो आम आदमी पार्टी भी चुनाव जीत कर ख़ास हो गयी है।  वंदना बाजपेयी                        

लो भैया ! हम भी बन गये साहित्यकार

कहते हैं की दिल की बात अगर बांटी न जाए तो दिल की बीमारी बन जाती है और हम दिल की बीमारी से बहुत डरते हैं ,लम्बी -छोटी ढेर सारी  गोलिया ,इंजेक्शन ,ई सी  जी ,टी ऍम टी और भी न जाने क्या क्या ऊपर से यमराज जी तो एकदम तैयार रहते हैं ईधर दिल जरा सा चूका उधर प्राण लपके ,जैसे यमराज न हुए विकेट  कीपर हो गए….. तो इसलिए आज हम अपने साहित्यकार बनने  का सच सबको बना ही देंगे।ईश्वर को हाज़िर नाजिर मान कर कहते है हम जो भी कहेंगे सच कहेंगे अब उसमें से कितना आपको सच मानना है कितन झूठ ये आप के ऊपर निर्भर है।                    बात पिछले साल की है ,हम नए -नए साठ  साल के हुए थे , सठियाना तो बनता ही था। बात ये हुई कि एक दिन चार घर छोड़ के रहने वाली मिन्नी की मम्मी आई ,उन्होंने हमें बताया की कि इस पुस्तक मेले में उनके काव्य संग्रह ( रात रोई सुबह तक ) का विमोचन है …. उन्होंने  इतनी  देर तक अपनी कवितायें सुनाई कि पूछिए  मत, ऊपर से एक प्रति हमारे लिए एक हमारे पति के लिए ,एक बेटे के लिए ,एक बहु के लिए उपहार स्वरुप दे गयी।इस उम्र में वो अचानक से  इतनी महान  बन गयी और हम हम अभी तक करछुल ही चला रहे हैं.हमारे अहंकार की इतनी दर्दनाक हत्या  तरह से हत्या हो गयी  कि खून भी नहीं निकला। हमें अपने जवानी के दिन याद आने लगे जब हम भी कविता लिखते थे। आह !क्या कविता होती थी।  क्लास के सब सहपाठी वाह -वाह करते नहीं अघाते थे ,वो तो घर -गृहस्थी में ऐसे उलझे कि … खैर आप भी मुलायजा  फरमाइए …… “तेरी याद में हम दो मिनट में ऐसे सूख गए जैसे जेठ की दोपहर में कपडे सूख जाते  हैं “ और जैसे दोपहर  के बाद शाम का मंजर नज़र आया हमें तेरे मिलने के बाद जुदाई का भय सताया                                             अब मोहल्ले की मीटिंगों  में  मिन्नी की मम्मी साहित्यकार कहलाये और हम.……… हमारे जैसी  प्रतिभाशाली नारी सिर्फ मुन्ना की मम्मी कहलाये ये बात हमें बिलकुल हज़म नहीं हुई। हमने आनन -फानन में मुन्ना को अल्टीमेटम दे दिया “मुन्ना अगले पुस्तक मेले में हमारी भी कविताओ की किताब आनी  चाहिए।हमने जान बूझ कर मुन्ना के बाबूजी से कुछ नहीं कहा ,क्योंकि इस उम्र तक आते -आते पति इतने अनुभवी हो जाते हैं कि उन पर पत्नी के साम -दाम ,दंड ,भेद कुछ भी काम नहीं करते। पर हमारे मुन्ना ने तो एक मिनट में इनकार कर दिया ” माँ कहाँ इन सब चक्करों में पड़ी हो। पर इस बार हमने भी हथियार नहीं डाले मुन्ना से कह दिया “देखो बेटा ,अगर तुम नहीं छपवा सकते हो तो हम खुद छपवा लेंगे ,पर हमने भी तय कर लिया है अपना काव्य संग्रह लाये बिना हम मरेंगे नहीं।हमारी इस घोषणा को बहु ने बहुत सीरियसली लिया ( पता नहीं सास कितना जीएगी )तुरंत मुन्ना के पास जा कर बोली देखिये ,आप चाहे मेरे जेवर बेंच दीजिये पर माँ का काव्य संग्रह अगले पुस्तक मेले तक आना ही चाहिए।                                                    काव्य संग्रह की तैयारी शुरू हो गयी एक प्रकाशक से बात हुई ,उसने रेट बता दिया ,बोला देखिये नए कवियों के काव्य संग्रह ज्यादा बिकते तो नहीं हैं ,आप उतनी ही प्रति छपवाईए जितनी बाँटनी हो। हमने घर आकर गिनना शुरू किया पहले नियर एंड डिअर फिर ,एक बिट्टू ,बिट्टू की मम्मी ,उसके पापा ,गाँव वाला ननकू , मिश्राइन चाची ,मंदिर के पंडित जी ,दूध वाला ………अरे काम वाली को कैसे भूल सकते हैं वो भले ही पढ़ न पाए पर चार घरों में चर्चा  तो जरूर करेगी  …………कुल मिला कर १०० लोग हुए ,उस दिन हमें अंदाजा लगा कि एक आम आदमी कितना आम होता है की उसे फ्री में देने के लिए भी १०० -१५० से ज्यादा लोग नहीं मिलते। खैर वो शुभ दिन भी आया जब हमारा काव्य संग्रह (घास का दिल ) छप  कर आया।  हमारा दिल ख़ुशी से हाई जम्प लगाने लगा।                                 हम अपने मित्रों ,रिश्तेदारों को लेकर पुस्तक मेले पहुचे। वहां पहुच कर पता चला कि अगर कोई बड़ा साहित्यकार विमोचन करे तो हम जल्दी महान  बन सकते हैं।  हमने लोगों से कुछ बड़े साहित्यकारों  के नाम पूंछे ,पता लगाने पर मालूम हुआ कि एक बड़े साहित्यकार पुस्तक मेले में आये हुए थे। बहु ने मोर्चा संभाला तुरंत उनके पास पहुची “सर मेरी सासु माँ की अंतिम ईक्षा है आप जैसे महान  व्यक्ति के हाथो उनके संग्रह का  विमोचन हो ,अगर आप कृपा करे तो मैं आपकी आभारी रहूंगी। एक खूबसूरत स्त्री का आग्रह तो ब्रह्मा भी न ठुकराए तो वो तो बस साहित्यकार थे।  तुरंत मंच पर आ गए ,एक के बाद एक पुस्तकों का विमोचन हो रहा था ,जिनका विमोचन चल रहा था वो मंच पर थे , नीचे नन्ही सी भीड़ में कुछ वो थे जिनका कुछ समय पहले विमोचन हुआ था ,वो बधाईयाँ व् पुस्तके समेत रहे थे ,कुछ वो थे जिनका अगला विमोचन था। हमारी भी पुस्तक का विमोचन। …………… लाइट ,कैमरा एक्शन ,कट की तर्ज़ पर हुआ। मिनटों में हम अरबों की जन्संसंख्या वाले भारत वर्ष में उन लाखों लोगो में शामिल हो गए जिनके काव्य संग्रह छप चुके  है।                                                    खुशी से हमारे पैर जमीन पर नही  पड  रहे थे ,अब मिन्नी की मम्मी ,चिंटू की दादी , दीपा की मौसी के सामने हमारी कितनी शान हो जाएगी। दूसरे दिन बहु  ने अपना फेस बुक प्रोफाइल खोला “हमारी तो ख़ुशी के मारे चीख निकल गयी बहु  ने हमारी विमोचन की पिक डाली थी ,५७ लोगों को टैग किया … Read more

तौबा इस संसार में …… भांति- भांति के प्रेम

                    वसन्त ऋतु तो अपनी दस्तक दे चुकी है , वातावरण खुशनुमा है ,पीली सरसों से खेत भर गए है, कोयले कूक रहीं हैं पूरा वातावरण सुगन्धित और मादक हो गया है ….उस पर १४ फरवरी भी आने वाली है …. जोश खरोश पूरे जोर –शोर पर है ,सभी बच्चे बच्चियाँ ,नव युवक –युवतियाँ नव प्रौढ़ –प्रौढ़ाये ,बाज़ार ,टी .वी चैनल ,पत्र –पत्रिकाएँ आदि –आदि प्रेम प्रेम चिल्लाने में मगन हैं | हमारे मन में यह जानने  की तीव्र इक्षा हो रही है कि ये प्रेम आखिर कितने प्रकार होते  है ,दरसल जब हम १७ ,१८ के हुए तभी चोटी पकड़ कर मंडप में बिठा दिए गए …. बाई गॉड की कसम जब तक समझते कि प्रेम क्या है तब तक नन्हे बबलू के पोतड़े बदलने के दिन आ गए फिर तो बेलन और प्रेम साथ –साथ चलता रहा ….( समझदार को ईशारा काफी है ) हां तो मुद्दे की बात यह है  रोमांटिक  फिल्मे देख –देख कर और प्रेम –प्रेम सुन कर हमारे कान पक गए हैं और हमने सोचा की मरने से पहले हम भी जान ले की ये प्रेम आखिर कितने प्रकार का  होता है इसीलिए अपना आधुनिक इकतारा (  मोबाइल )उठा कर निकल पड़े सड़क पर (आखिर साठ  की उम्र में सठियाना तो बनता ही है) |सड़कों पर हमें तरह –तरह के प्रेम देखने को मिले ,प्रेम के यह अनेकों रंग हमें मोबाईल की बदलती रिंग टोन  की तरह कंफ्यूज करने वाले लगे …. सब वैसे का वैसा आप के सामने परोस रही हूँ ……………… १ )छुपाना भी नहीं आता ,जताना भी नहीं आता  :–                                        ये थोडा शर्मीले किस्म का प्रेम होता है इसमें प्रेमी ,प्रेमिका प्यार तो करते पर इजहार करने में कतराते हैं पहले आप ,पहले आप की लखनवी गाडी में सवारी करने की कोशिश में अक्सर वो प्लेटफार्म पर ही रह जाते हैं |ये तो बिहारी के नायक –नायिका से भी ज्यादा कच्चे दिल के होते हैं “जो कम से कम भरे भवन में नैनों से तो बात कर लेते थे “खैर आपको ज्यादा निराश होने की जरूरत नहीं है ….आजकल ऐसा प्रेम ढूढना दुलभ है आप चाहे तो www.google.प्रेम आर्काइव पर जा कर इसके बारे में अधिक जानकारी प्राप्त कर सकते हैं | २ )हमारे सिवा तुम्हारे और कितने दीवाने हैं :-                       ये कुछ ज्यादा समझदार  वाले प्रेमी /प्रेमिका होते हैं …  इनको इस बात की इतनी खबर  रहती है कि भगवन न करे कोई दिन ऐसा आजाये की इन्हें बिना पार्टनर के रहना पड़े  इसलिए ये सेफ गेम खलने में विश्वास करते हैं …. इनकी इन्वोल्वमेंट  इक साथ कई के साथ रहती है तू नहीं तो तू सही  की तर्ज पर |इसके लिए ये काफी मेहनत  भी करते हैं इनके खर्चे भी बढ़ जाते हैं …. पर अपनी घबराहट दूर करने के लिए ये हर जोखिम उठाने को तैयार रहते हैं |पर बहुधा इनके मोबाईल व् खर्चों के बिल देखकर इनके माता –पिता का दिल साथ देना छोड़ देता  है |सुलभ दैनिक द्वारा कराये गए सर्वे के अनुसार युवा बच्चों के माता –पिता को हार्ट अटैक आने का कारण अक्सर यही पाया गया है | ३ )तुम्हारा चाहने वाला खुदा की दुनियाँ में मेरे सिवा भी कोई और हो खुदा न करे :-                                 ये थोडा पजेसिव टाइप के होते हैं “अग्निसाक्षी के नाना पाटेकर की तरह “इन्हें बिलकुल भी बर्दास्त  नहीं होता कि उनके साथी को कोई दूसरा पसंद करे … इन्हें दोस्त तो दोस्त माता –पिता भाई –बहन भी अखरते हैं किसी ने भी अगर साथी की जरा सी भी तारीफ कर दी तो हो गए आग –बबूला और शुरू हो गयी ढिशुम –ढिशुम |ये अपने साथी को डिब्बे में बंद करने में यकीन करते हैं ,सुविधानुसार निकाला ,प्रेम –व्रेम किया वापस फिर डब्बे में बंद |अफ़सोस यह है कि इतना प्यार करने के बाद भी इन प्रेम कहानियों का अंत ,हत्या ,आत्महत्या या अलगाव से ही होता है ४ )मिलो न तुम तो हम घबराए :-                     ये थोडा शक्की किस्म का प्रेम होता है |इसमें बार –बार मोबाइल से फोन कर इनफार्मेशन ली जाती है अब कहाँ हो ,अब कहाँ हो ?मिलने पर कपडे चेक किये जाते हैं कपड़ों पर पाए जाने वाले बाल ,बालों की लम्बाई उनका द्रव्यमान ,घनत्व आदि शोध के विषय होते हैं …. तकरार ,मनुहार और  प्यार इसका मुख्य हिस्सा होते हैं ,साथ ही साथ इस प्रकार प्रेम करने वाले इंटेलिजेंट  भी होते हैं कभी –कभी अपने साथी पर नज़र रखने के लिए अपनी सहेलियों ,दोस्तों आदि का सहारा भी लेता हैं आजकल तमाम जासूसी संस्थाएं यह सेवा उपलब्ध  करा रही हैं ………जैसे महानगर साथी जासूसी निगम  आदि कुछ मोबाइल कम्पनियां साल में दो बार जासूसी करवाने पर तीसरी सेवा मुफ्त देती हैं                           ५ )जो मैं कहूंगा करेगी …. राईट :-                           ये थोडा डिक्टेटर टाइप के होते हैं |इन्हें लगता है की ये सही हैं और अगला गलत ,इनसे कितनी भी बहस कर लो अंत में अपनी ही बात मनवा लेते हैं ,उस पर तुर्रा यह कि कहते हैं कि प्रस्ताव सर्वसम्मति से पारित हुआ है |प्रेमी –प्रेमिका का रिश्ता बिलकुल ग्रेगर जॉन  मेंडल (पहला नियम ) की पीज (मटर ) की तरह डोमिनेंट व् रेसिसिव की तरह चलता है और खुदा न खास्ता इनकी शादी करवा दी जाए तो इनके बच्चे भी ३ :१ के अनुपात में डोमिनेंट व् दब्बू पाए जाते हैं | ६ )खुल्लम खुल्ला प्यार करेंगे हम दोनों :                            यह नए ज़माने का प्यार आजकल बहुतायत से पाया जाता है |महानगरों में पार्कों ,सडको के किनारे ,माल्स ,रेस्त्रों आदि में आप यह आम नज़ारा देख सकते है |आप की वहां से गुजरते समय भले शर्म  से आँखें झुक जाए पर यह निर्भीक  युगल अपने सार्वजानिक  प्रेम प्रदर्शन में व्यस्त ही रहते हैं | वैधानिक चेतावनी :ऐसे प्रेमी युगलों को देख कर पुराने ज़माने के बुजुर्गों की सचेत करने वाली खांसी की तरह खासने का प्रयास न करे ….. ईश्वर गवाह है खांसते –खांसते टेटुआ बाहर निकल आएगा पर इनकी कान पर जूं भी न रेंगेगा | ७ )ना उम्र की सीमा हो ना … Read more