दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ

आज भले ही महिलाओं ने अपनी एक अलग पृष्ठभूमि तैयार कर ली है ,पर अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज मे स्त्रीयों की हालत काफी नाजुक है | समय बदला,युग बदला और नारी ने भी अपना मुकाम बनाया ,पर एक सत्य जिसे नकारा नहीं जा सकता वह यह है कि आज भी स्त्री पुरुष के अधीन है | हमारे समाज में जो एक शोर चहुंओर व्याप्त है वो यह है कि स्त्रीयों की दुनियां में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं | आज स्त्री अपनी मुकाम खुद बना रही है, उसने दहलीज के बाहर अपने कदम पूरी सख्ती से जमा लिए हैं , उसने अपना आकाश तलाश लिया है ……..बहुत हद तक यह सही भी है , पर इतना भी नहीं जितना सुनने को मिल रहा है| स्त्री संबंधी कई ऐसे मसले भी हैं जो अभी भी अनसुलझे ही हैं, जहां तक अभी हम पहुँच ही नहीं पाये हैं |  जरूरी है देखना कामकाजी स्त्रियों की सही तस्वीर  एक  सत्य जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद सबसे अधिक चर्चा नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण पर ही हुआ है ,पर बिडंबना यह है कि खुद को सशक्त और सक्षम कहने वाली स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं है, कोई पृष्टभूमि नहीं है | दरअसल अभी भी वो ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहां से उसे कोई साफ और सुदृढ़ छवि नजर नहीं आ रही है | वह कल्पनाओं और दोहरे द्वंद में फंसी है ,और आज भी वह एक दिखावटी छवि लेकर समाज के सामने खुद को प्रस्तुत करती है | कहने को तो वह पुरुष के समानांतर खड़ी है,पर नजदीक से देखने के बाद हालात कुछ और ही ब्यान करते हैं | समाज में अपनी असली भूमिका से अभी भी वह वंचित है ,  समाज में उसकी छवि शोषिता की ही है , आज भी उसकी गिनती पुरुष के बाद ही होती है | अगर हम  ईमानदारी से नजर डालें तो पाएंगे कि अभी भी स्त्री पुरुषों के अधीन समझी जानेवाली ही एक हँसती-बोलती कठपुतली है | इसलिए बाहर से नकली चमक ओढ़े इन स्त्री के हँसते चेहरे से बेहतर है हम इनके खामोशी से,जबरदस्ती के ओढ़े हुए आवरण को हटाकर परदे के पीछे की तस्वीर को भी देखें |  दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी महिलाएं    आज भले ही वो नौकरी मे अपने पति के बराबर के पोस्ट पर है या उससे ज्यादा ऊंचे ओहदे पर है पर घरेलू जिम्मेदारियों से वह बच नहीं सकती | एक बात जो हमने हमेशा महसूस किया है कि जिस घर में पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहाँ हर दिन एक सा रूटीन होता है | पति-पत्नी में आपसी संवाद बहुत ही कम या जरूरतभर  होती है , दोनों अपने-अपने काम के बोझ तले इस कदर दबे रहते हैं कि जीवन के छोटे -छोटे क्षण जिनसे मिलकर दाम्पत्य की डोर मजबूत बनती है को दरकिनार कर अपने काम और सिर्फ काम में मशगूल रहते हैं | उनके हर काम का एक निश्चित टाइम बना है और वे इस नियम के पक्के पाबंद रहते हैं ,जब दोनों काम से लौटते हैं तो जहां पत्नी अपनी बिखरी गृहस्थी को सँवारने लग जाती है वहीं पति महोदय चाय की चुस्कीयों संग टी. वी का आनंद उठाते हैं | किसी -किसी जगह पर पति भी कुछ मदद कर देता है पर ऐसा उसके मूड पर निर्भर करता वह चाहे तो काम करे या न करे कोई दबाव नहीं होता है | लेकिन स्त्री की हालत ठीक इसके विपरीत होती है वह न चाहते हुये भी अपनी उन जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकती | किचेन में जाना उसकी मजबूरी और जरूरत दोनों हो जाती है , मान लें अगर वह सहायिका या मेड रख भी ले तो वह तो घरेलू काम ही करेगी न …….खाना निकालना, बच्चों के होमवर्क कराना, घर के कई छोटे-मोटे काम जैसे,चाय बनाना ,घर को व्यवस्थित करना आदि अनगिनत काम ऐसे हैं जो हर महिला को करना ही पड़ता है |  पहले स्त्री खाना बनाती  थी ,बच्चों को संभालती थी तथा घर के तमाम काम करती थी और पुरुष बाहरी काम संभालता था | पहले बच्चे की ज़िम्मेदारी भी उतनी कठिन नहीं थी ,तब संयुक्त परिवार होता था और हर घर में चार-पाँच या फिर उससे भी अधिक बच्चे होते थे जिनकी पढ़ाने-लिखने की ज़िम्मेदारी घर का कोई सदस्य समूहिक रूप से कर देता था | तब पढ़ाई भी उतना जटिल नहीं था ,एक सामान्य पढ़ाई थी जो बच्चे की माँ भी बैठे-बैठे कर सकती थी पर आज तो बच्चों की किताबें देखकर ऐसा लगता है कि पता नहीं कौन सा कठिन प्रश्न बच्चे कर दें और उसका उतर न देने की स्थिति में क्या होगा ??? इन्हीं समस्याओं से निजात हेतु आज ट्यूटर एक जरूरत सी बन गई है |  बच्चों की असफलता का दोष आता है माँ के हिस्से  आज परवरिश एक कठिन कार्य बन गया है इन सबके वावजूद अगर आपका बच्चा अच्छा निकाल गया तो इसका सारा श्रेय पति महोदय ले जाते हैं और अगर दुर्भाग्य से बच्चा नालायक निकल  गया तो , स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है उसके हाथ सिर्फ बच्चों के बिगाड़ने का आरोप लगता है | इस स्थिति में स्त्री का मानसिक पतन होता है और वह खुद में आत्मविश्वास की कमी महसूस करती है | आज एकल परिवार का जमाना है ,स्त्री भी नौकरी करने लगी है , इससे जो गृहस्थी है वो डगमगाने लगी है | मेरी समझ से होना तो यह चाहिए था कि स्त्री जब बाहर से काम करके लौटे तो उसे घर में सुकून के कुछ पल मिलने चाहिए था पर ठीक इसके विपरीत उसके कार्यों में दोगुना इजाफा हो गया है | आज तो हालत यह है कि आज जब स्त्री काम से वापस लौटती है तो बच्चों को क्रेश से लेती है घर के लिए जरूरत का समान खरीदती है और तो और जब से फोन का जमाना आ गया है उसके एक-दो काम और बढ़ गए है …..टेलीफोन बिल भरना, बिजली बिल भरना ,गैस का नंबर लगाना आदि | कहने का मतलब यह है कि जिन चीजों का वह फायदा उठाती है उसकी भरपाई भी स्त्री को ही करना पड़ता है | घरेलू कामों के … Read more

दीपावली पर मिटाए भीतरी अन्धकार

 दीपावली पर मिटाए भीतरी अन्धकार  हम हर वर्ष दीपावली मनाते हैं | हर घर ,हर आंगन,हर गाँव ,हर बस्ती एक जगमग रौशनी से नहा उठती है | यूँ लगता है जैसे सारा संसार एक अलग ही पोशाक धारण कर लिया है | इस दिन मिट्टी के दिये में दीप जलाने की मान्यता है | क्योंकि मिट्टी के दिये में हमारी मिट्टी की खुश्बू है,मिट्टी का दिया हमारा आदर्श है,हमारे जीवन की दिशा है,संस्कारों की सीख है,संकल्प की प्रेरणा है और लक्ष्य तक पहुँचने का सबसे अच्छा माध्यम है | दीपावली अपने आप में बेहद ही रौशनी से परिपूर्ण आस्था का त्यौहार है पर इसकी सार्थकता तभी पूर्ण है जब हमारे मन के भीतर का अंधकार भी दूर हो | यह त्यौहार भले ही सांस्कृतिक त्यौहार है पर ऐतिहासिक महापुरुषों के प्रसंग से भी इस पर्व की महता जुडी है | दीपावली लौकिकता के साथ-साथ आध्यात्मिकता का भी अनूठा पर्व है | ‘अंधकार से प्रकाश की ओर प्रशस्त’ ही  इस पर्व का मूल मतलब है  ज्ञान ही मिटाता है भीतरी अन्धकार  ज्ञान की प्रकाश ही असली प्रकाश है | हमारे भीतर अज्ञान का तमस छाया हुआ है ,वह ज्ञान के प्रकाश से ही मिट सकता हैं | ज्ञान दुनिया का सबसे बड़ा प्रकाश दीप है, जब ज्ञान का दीप प्रकाशित होता है  तो भीतर और बाहर दोनों आलोकित करता है | ज्ञान के प्रकाश की हमें हर पल हर क्षण जरुरत है | जहाँ ज्ञान का सूर्य उदित हो गया वहां अंधकार टिक ही नहीं सकता | प्रयास हो की दीपावली पर ज्ञान के प्रकाश से भीतरी अंधकार मिटे  हलांकि दीपावली एक लौकिक पर्व है ,फिर भी यह केवल बाहरी  अंधकार को ही नहीं,बल्कि भीतरी अंधकार को भी मिटाने का पर्व बने ऐसी हमारी कोशिश होनी चाहिए | हम अपने भीतर धर्म और ज्ञान का दीप जलाकर मोह और लालच के अंधकार को दूर कर सकते हैं | हमें  अपने भीतर के सारे दुर्गुणों को मिटाकर उसमें आत्मा रूपी दीपक की अखंड ज्योति को प्रज्वलित करना होगा तभी हमारा मनुष्य जीवन सार्थक और समृद्ध होगा | अगर हम  कभी अपनी सारी इन्द्रियों को विराम देकर एकाग्र मन से अपने अन्दर झांकना शुरू कर  दें तो यक़ीनन हमें एक दिन ऐसी झलक मिल जाएगी कि हमारा अंतर्मन रोमांचित एवं प्रफुलित हो जायेगा ,इसमें कोई संदेह नहीं ……! भीतर का जगत बहुत ही विशाल है ,यहाँ प्रकाश की लौ हमेशा प्रकाशित रहती है| यहाँ हर पल एक दिव्य ज्योत जलते रहती है | बस जरुरत है इसे अपने अन्दर प्रज्वलित करने का | दीपावली पर्व की सार्थकता ही है प्रकाशित करना   दीपावली पर्व की सार्थकता के लिए हमें अपने अन्दर एक लौ प्रकाशित करना होगा क्योंकि दिया चाहे मन के अन्दर जले  या मन के बाहर उसका काम तो उजाला देना ही है ,सो वह अवश्य देगा | दीपावली का सन्देश है, हम जीवन से कभी विचलीत न हों और न ही कभी पलायन की सोंचें ,उन सबसे अलग हटकर जीवन को परिवर्तन दें क्योंकि पलायन किसी भी समस्या का हल नहीं बल्कि बुजदिली की निशानी है |                                                        संगीता सिंह ‘भावना’                                                सह-संपादक –त्रैमासिक पत्रिका                               करुणावती साहित्य धारा यही भी पढ़ें ……… आओ मिलकर दिए जलायें दीपावली पर 11 नयें शुभकामना संदेश धनतेरस दीपोत्सव का प्रथम दिन मनाएं इकोफ्रेंडली दीपावली

एक पाती भाई /बहन के नाम ( संगीता सिंह भावना )

मेरे भाई,,  आज मैं तुमसे शादी के करीब इक्कीस साल बाद कुछ कहना चाहती हूँ | कहने का मन तो कई बार हुआ पर लगा यह उचित अवसर नहीं है | भाई,,मैं जब-जब मायके आई तुमने मुझे बहुत मान  दिया | वैसे तो मैं तुमसे पाँच साल बड़ी हूँ पर तुमने हमेशा बड़े भाई का फर्ज निभाया ,,मेरी हर परेशानियों पर तुम्हें खुद से ज्यादा परेशान होते देखा और मेरी खुशी के हर क्षण मे तुम साथ रहे | मुझे आज भी अच्छी तरह से याद है ,जब मैं एक बार विदा होकर अपने पिया के घर को आ रही थी ,तुम मलेरिया-टाइफाइड दोनों से बुरी तरह से त्रस्त थे,तुम्हारा बुखार उतरता ही नहीं था और मेरे जाने का समय हो गया ,जब मैं तुमसे मिलने गई तो तुम चादर ओढ़कर सो रहे थे मैंने जैसे ही चादर उठाया तुम रो पड़े ,,मैं भी फफक पड़ी और सोचने लगी कि बेटियाँ इतनी मजबूर क्यों होती हैं …….??? मैं चाहकर भी तुम्हारे पास नहीं रूक पाई क्योंकि मेरी सास बीमार थी और मेरा वहाँ होना ज्यादा जरूरी था |  भाई ,तुम्हें शायद याद होगा जब ” माँ” बीमार थी ,तुमने मुझे फोन से बताया कि माँ बहुत बीमार है और मैं वाराणसी लेकर आ रहा हूँ | माँ जो कि मौत के बहुत करीब पहुँच गई थी ,ऐसा डाक्टरों का कहना था ,पर तुम तन-मन -धन से लगे रहे ,हम दोनों की ड्यूटी हॉस्पिटल में लगी थी पर तुम दोनों ड्यूटी निभाते और मुझे जबरन घर भेज देते | मैं घर आ तो जाती लेकिन मेरा मन मुझे अंदर ही अंदर परेशान करता क्योंकि तुम छोटे जो थे | मैं कभी-कभी सोचती कि भगवान न करे अगर माँ को कुछ हो गया तो तुम अकेले उस अंतहीन पीड़ा को कैसे संभालोगे पर मैं कर भी क्या सकती थी तुम तो मुझे वहाँ रुकने ही नहीं देते थे   और अंत में तुम्हारे हौसले की जीत हुई ,जिसका नतीजा है कि आज माँ हमारे साथ है | कहने को तो कई ऐसे मंजर आए जब तुमने बड़े भाई जैसा फर्ज अदा किया पर मैं शायद वह सब कहकर या याद दिलाकर तुम्हारे मन को दुखी नहीं करना चाहती क्योंकि मैं जानती हूँ जब तुम यह पत्र पढ़ रहे होगे तुम्हारे आँखों में आँसुओं की नमी तैर रही होगी | जल्द ही रक्षा-बंधन आने वाला है ,मेरे भाई तुम सदा सलामत रहो और हाँ जो बात कहनी थी वो ये है कि तुम हर जन्म में मेरे भैया बनकर आना |                                                                   तुम्हारी बहना                                                                      संगीता  अटूट बंधन

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (संगीता सिंह ‘भावना ‘)

दोहरी जिन्दगी की मार  आज भले ही स्त्री ने अपनी एक अलग पृष्ठभूमि तैयार कर ली है ,पर अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज मे स्त्रीयों की हालत काफी नाजुक है | समय बदला,युग बदला और नारी ने भी अपना मुकाम बनाया ,पर एक सत्य जिसे नकारा नहीं जा सकता वह यह है कि आज भी स्त्री पुरुष के अधीन है | हमारे समाज में जो एक शोर चहुंओर व्याप्त है वो यह है कि स्त्रीयों की दुनियां में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं | आज स्त्री अपनी मुकाम खुद बना रही है, उसने दहलीज के बाहर अपने कदम पूरी सख्ती से जमा लिए हैं , उसने अपना आकाश तलाश लिया है ……..बहुत हद तक यह सही भी है , पर इतना भी नहीं जितना सुनने को मिल रहा है| स्त्री संबंधी कई ऐसे मसले भी हैं जो अभी भी अनसुलझे ही हैं, जहां तक अभी हम पहुँच ही नहीं पाये हैं | यक सत्य जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद सबसे अधिक चर्चा नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण पर ही हुआ है ,पर बिडंबना यह है कि खुद को सशक्त और सक्षम कहने वाली स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं है, कोई पृष्टभूमि नहीं है | दरअसल अभी भी वो ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहां से उसे कोई साफ और सुदृढ़ छवि नजर नहीं आ रही है | वह कल्पनाओं और दोहरे द्वंद में फंसी है ,और आज भी वह एक दिखावटी छवि लेकर समाज के सामने खुद को प्रस्तुत करती है | कहने को तो वह पुरुष के समानांतर खड़ी है,पर नजदीक से देखने के बाद हालात कुछ और ही ब्यान करते हैं | समाज में अपनी असली भूमिका से अभी भी वह वंचित है ,  समाज में उसकी छवि शोषिता की ही है , आज भी उसकी गिनती पुरुष के बाद ही होती है | अगर हम  ईमानदारी से नजर डालें तो पाएंगे कि अभी भी स्त्री पुरुषों के अधीन समझी जानेवाली ही एक हँसती-बोलती कठपुतली है | इसलिए बाहर से नकली चमक ओढ़े इन स्त्री के हँसते चेहरे से बेहतर है हम इनके खामोशी से,जबरदस्ती के ओढ़े हुए आवरण को हटाकर परदे के पीछे की तस्वीर को भी देखें |   आज भले ही वो नौकरी मे अपने पति के बराबर के पोस्ट पर है या उससे ज्यादा ऊंचे ओहदे पर है पर घरेलू जिम्मेदारियों से वह बच नहीं सकती | एक बात जो हमने हमेशा महसूस किया है कि जिस घर में पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहाँ हर दिन एक सा रूटीन होता है | पति-पत्नी में आपसी संवाद बहुत ही कम या जरूरतभर  होती है , दोनों अपने-अपने काम के बोझ तले इस कदर दबे रहते हैं कि जीवन के छोटे -छोटे क्षण जिनसे मिलकर दाम्पत्य की डोर मजबूत बनती है को दरकिनार कर अपने काम और सिर्फ काम में मशगूल रहते हैं | उनके हर काम का एक निश्चित टाइम बना है और वे इस नियम के पक्के पाबंद रहते हैं ,जब दोनों काम से लौटते हैं तो जहां पत्नी अपनी बिखरी गृहस्थी को सँवारने लग जाती है वहीं पति महोदय चाय की चुस्कीयों संग टी. वी का आनंद उठाते हैं | किसी -किसी जगह पर पति भी कुछ मदद कर देता है पर ऐसा उसके मूड पर निर्भर करता वह चाहे तो काम करे या न करे कोई दबाव नहीं होता है | लेकिन स्त्री की हालत ठीक इसके विपरीत होती है वह न चाहते हुये भी अपनी उन जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकती | किचेन में जाना उसकी मजबूरी और जरूरत दोनों हो जाती है , मान लें अगर वह सहायिका या मेड रख भी ले तो वह तो घरेलू काम ही करेगी न …….खाना निकालना, बच्चों के होमवर्क कराना, घर के कई छोटे-मोटे काम जैसे,चाय बनाना ,घर को व्यवस्थित करना आदि अनगिनत काम ऐसे हैं जो हर महिला को करना ही पड़ता है | पहले स्त्री खाना बनाती  थी ,बच्चों को संभालती थी तथा घर के तमाम काम करती थी और पुरुष बाहरी काम संभालता था | पहले बच्चे की ज़िम्मेदारी भी उतनी कठिन नहीं थी ,तब संयुक्त परिवार होता था और हर घर में चार-पाँच या फिर उससे भी अधिक बच्चे होते थे जिनकी पढ़ाने-लिखने की ज़िम्मेदारी घर का कोई सदस्य समूहिक रूप से कर देता था | तब पढ़ाई भी उतना जटिल नहीं था ,एक सामान्य पढ़ाई थी जो बच्चे की माँ भी बैठे-बैठे कर सकती थी पर आज तो बच्चों की किताबें देखकर ऐसा लगता है कि पता नहीं कौन सा कठिन प्रश्न बच्चे कर दें और उसका उतर न देने की स्थिति में क्या होगा ??? इन्हीं समस्याओं से निजात हेतु आज ट्यूटर एक जरूरत सी बन गई है | आज परवरिश एक कठिन कार्य बन गया है इन सबके वावजूद अगर आपका बच्चा अच्छा निकाल गया तो इसका सारा श्रेय पति महोदय ले जाते हैं और अगर दुर्भाग्य से बच्चा नालायक निकल  गया तो , स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है उसके हाथ सिर्फ बच्चों के बिगाड़ने का आरोप लगता है | इस स्थिति में स्त्री का मानसिक पतन होता है और वह खुद में आत्मविश्वास की कमी महसूस करती है | आज एकल परिवार का जमाना है ,स्त्री भी नौकरी करने लगी है , इससे जो गृहस्थी है वो डगमगाने लगी है | मेरी समझ से होना तो यह चाहिए था कि स्त्री जब बाहर से काम करके लौटे तो उसे घर में सुकून के कुछ पल मिलने चाहिए था पर ठीक इसके विपरीत उसके कार्यों में दोगुना इजाफा हो गया है | आज तो हालत यह है कि आज जब स्त्री काम से वापस लौटती है तो बच्चों को क्रेश से लेती है घर के लिए जरूरत का समान खरीदती है और तो और जब से फोन का जमाना आ गया है उसके एक-दो काम और बढ़ गए है …..टेलीफोन बिल भरना, बिजली बिल भरना ,गैस का नंबर लगाना आदि | कहने का मतलब यह है कि जिन चीजों का वह फायदा उठाती है उसकी भरपाई भी स्त्री को ही करना पड़ता है | घरेलू कामों के साथ-साथ स्त्री को परिवार के लोगों को भी समय -समय पर फोन द्वारा ही सही पर यह एहसास दिलाना होता … Read more

मजबूत हैं हौसले ……….. की मंजिल अब दूर नहीं

आधुनिक और बदलते दौर ने जहाँ एक ओर हमें कई विसंगतियां दी है ,वहीँ हमें अपने तरीके से जीवन जीने की आजादी भी दी है | हमारे इसी बदलाव और लाइफस्टाइल से हमें कई सुविधाएँ भी मिली हैं ,इसमें कोई संशय नहीं | आज हमारे समाज में अगर सबसे ज्यादा बदलाव या क्रांति आई है तो वो है महिलाओं की स्थिति में ,जिसे नकारा नहीं जा सकता | इस अचानक हुए परिवर्तन से महिलाओं में एक सुखद अनुभूति का एहसास हुआ है , साथ ही समाज की सोच में हुए सकारात्मक बदलाव से उनकी छवि में निखार व् स्पष्टता दिखाई देती है | आज हमारे समाज में स्त्री व् पुरुष दोनों को सामान अधिकार मिले हैं | अब महिलाएं भी उच्च शिक्षा की अधिकारी हो गई हैं ,उन्हें भी वोट देने का अधिकार प्राप्त है | सबसे ज्यादा जो परिवर्तन देखने में आया है वो यह है कि आज लड़का-लड़की दोनों को पैतृक सम्पति में बराबर का हक है | लड़की जब चाहे अपने संपति के लिए दावा कर सकती है | आज स्त्री किसी पर बोझ नहीं है ,उसे नौकरी करने की पूरी आजादी है और वह अपने पसंद का कैरियर चुनकर एक बेहतर जिन्दगी बसर कर रही है | मजबूत हैं हौसले ……….. की मंजिल अब दूर नहीं                                              पहले जब किसी लड़की की शादी होती थी तो उसके सारे निर्णय उसका पति और उसके ससुराल वाले लेते थे नतीजा क्या होता था एक औरत बेटे की उम्मीद में कई -कई बच्चे की माँ बन जाती थी जिससे उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता था और बेहतर स्वास्थ्य सेवा के आभाव में कभी-कभी उसकी मौत तक हो जाती थी | पर अब ऐसा नहीं है ,अब उसके पास कम बच्चे पैदा करने का निर्णय लेने का भी अधिकार है | हालाँकि यह सारे अधिकार उन्हें पहले ही मिल चुके थे , लेकिन आज जो सबसे बड़ा परिवर्तन महिलाओं के जीवन में हुआ है वह है ,उनके खुद के सोच में आया व्यापक एवं परिपक्व  बदलाव |अब हर महिला अपने प्रति बेहद सजग एवं दृढ प्रतिज्ञ हो गई है जो उनके आत्मविश्वासी होने को दर्शाता है | अगर दिल में एक जोश हो ,कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो आपके आगे बढ़ने के सारे रास्ते साफ़ नजर आते हैं ,फिर वो कोई भी क्षेत्र हो खुद-बखुद रस्ते बनते जाते हैं और उपलब्धियां मिलती जाती है | बस जरुरत है एक जुनून की,एक संकल्प की फिर सारे अरमानों ,सारे हौसलों को उड़ान मिलने लगती है |                                 दृढ प्रतिज्ञ की एक अलख अपने अन्दर जन जग जाता है तो पूरी कायनात उसे हासिल करवाने में जुट जाती है | आज महिलाएं भारत के शहरों से ही नहीं बल्कि गाँव और छोटे शहरों से भी बड़ी भारी तादाद में मल्टीनेशनल कंपनियों से जुड़ रही हैं | आज पूरे  विश्व में महिलाओं की भूमिका में  एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है | आज हर क्षेत्र में महिला पुरुष समकक्ष खड़ी है , फिर वो किचेन हो या राजनीति ,हर जगह अपने जीत का पताका फहरा रही हैं | आज बड़ी भारी संख्या में महिलाएं राजनीति की ओर भी रूख कर रही हैं जबकि पहले कोई दिग्गज महिला ही राजनीति में कदम बढाती थी | पहली महिला आईपीएस ‘किरण वेदी ‘जी आज अनगिनत महिलाओं की आदर्श हैं | हालाँकि यहाँ तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है , पर पहुँच जाने के बाद का आनंद ही कुछ और है | ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिलाओं की सक्रियता को देखकर लगता है जैसे आत्मविश्वास की लहर वहां भी चल चुकी है | आज महिलाएं एक ओर तो आत्मनिर्भर बन गई पर उन्हें नित् नये भावनात्मक एवं  शारीरिक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है , इसके बावजूद भी वे निरंतर अपनी पहचान को बुलंद कर रही हैं | घर बाहर दोनों के बीच तालमेल बैठाकर  अपने सपनों को एक नया उड़ान देना ,वास्तव में एक महिला के लिए ही संभव है | कहते हैं किसी के दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते पर स्त्री ने अपनी इक्षा शक्ति से सिद्ध कर दिया है की वो दोनों मोर्चों पर सफल है |एक माँ जल्द्दी –जल्दी बच्चे का लंच पैक कर रसोई के बर्तन निपटा कर कार्यालय जाती है ………. वहां एक बॉस बन कर फैसले लेती है पुनः घर आ कर एक प्रिय पत्नी ,माँ और बहू में परिवर्तित हो जाती है |हां ! कठिन जरूर है पर असंभव नहीं ,आज की कामकाजी महिला के पैरों के नीचे जमीन भी है और मुट्ठी में सपनों का आसमान भी |ऊपर से जब महिलाएं अपने कर्म के क्षेत्रों में तरक्की करती हैं तो उनके अन्दर गजब का आत्मविश्वास बढ़ता है और यही आत्मविश्वास उन्हें सतत कर्मशील बनाता है | महिलाओं के प्रति आए इसी परिवर्तन ने उनके हाथों में नेतृत्व की कमान थमाई है ,जिसके कारण वे एक नई दुनियां में कदम बढ़ा रही हैं ,जहाँ सफलताएँ उनका बाहें फैलाकर इन्तजार कर रही है | आज उनके पास आजादी है,नाम है,शोहरत है तथा हसरतों की ऊँची उड़ान है |     आज महिलाएं अपने तथा अपने परिवार के प्रति ज्यादा सजग एवं प्रयत्नशील है ताकि उन्हें किसी किस्म की दिक्कत व् परेशानी का सामना न करना पड़े | महिलाओं के अन्दर ईश्वर प्रदत जबरदस्त संतुलन है जिसकी वजह से वह अपने परिवार तथा करियर के बीच सामंजस्य बिठाकर अपने सपनों को साकार कर रही है | बीते कुछ वर्षों में महिलाओं ने जिस तेजी से अपनी कामयाबी का परचम लहराया है उसका सीधा असर उनके कार्यक्षेत्र एवं जीवनशैली में दिख रहा है | आज महिलाएं इंटरनेट के जरिये पूरी दुनियां से अपना जुड़ाव बनाई हैं ,जिसका शाश्वत रूप फेसबुक जैसे सोशल साईट पर बखूबी देखा जा सकता है | महिलाओं की जिन्दगी में बढ़ता हुआ सकारात्मक बदलाव ने मुझे एक कविता लिखने पर बाध्य कर दिया …… आँखों में असंख्य हसरतें हैं  ख्वाब भी अब हकीकत में बदलें हैं  हौसलों की उड़ान है,और है एक ऐसा जहान, जहाँ अरमानों की एक अलग दुनियां अंगड़ाई लेती है  बांहें फैलाए हैं मेरी अनगिनत चाहतों का आसमान जहाँ न बंदिशें हैं और न ही कोई … Read more