गुड़िया का ब्याह —

बेटों के लिए मन्नत माँगी जाती है और बेटियाँ पैदा हो जाती हैं …अनचाही सी | इसीलिए तो माता -पिता जल्दी से जल्दी इस अनचाही संतान के हाथ पीले कर उसके बोझ से मुक्त होना चाह्ते हैं | कितना भी कहा जाए कि युग बदल गया पर आज भी ये हमारे गाँवों की सच्चाई है |ऐसी ही तो थी गुड़िया …कोमल नाजुक , परी सी पर जिसके सपने घर की खिडकियों को खोल आकाश में उड़ जाना चाहते थे | पर उसके सपनों में बाधक कोई और नहीं उसके खुद के माता पिता बने … गुड़िया का ब्याह — ईश्वर की कृपा से मेरे घर में शिक्षा दीक्षा पर कोई बाधा न थी ।माता पिता शिक्षक थे ,प्रिंसिपल हो कर रिटायर हुए ।घर में बड़ा सुखद वातावरण था हमारा परिवार शिक्षा और ललित कलाओं के प्रति घोर आस्था रखता था । हमें कभी कोई बन्धन महसूस ही नहीं हुआ ।परंतु यहां उन कन्याओं की बात हो रही है जो अत्यन्त मेधावी होते हुए भी कुछ न कर सकी उनके सपने बाल्यावस्था में ही चूर चूर कर दिए गए । इस संदर्भ में मेरे बचपन की एक घटना साझा करना चाहूंगी जो मुझे आज भी वही पीड़ा देती है जो उसने तब दी थी जब घटित हुई थी । मेरे माता पिता जी का तबादला सतना से सीधी का हुआ और हम वहां पहुंचे ।सीधी एम पी का कोटा सा गांव था तब ये साठ के दशक की बात है । दो चार दिनों में हम व्यवस्थित हुए और मेरा स्कूल जाना शुरू हो गया । मै छ ठी क्लास में थी ,मेरी सबसे दोस्ती हो जाती थी पर अंतरंगता किसी किसी से ही होती थी । गुड़िया मेरी क्लास में थी और हम पड़ोसी भी थे ।हमारे स्वभाव में बड़ी समानता थी ।वो भी पढ़ने में कुशाग्र ,मित भाषी और विनम्र थी ।बस हमारी दोस्ती पक्की होती गई  हम साथ ही होमवर्क करते, खाते पीते और खेलते थे । आर्थिक रूप से कुछ कमज़ोर थे गुड़िया  के घर वाले। मां बड़े स्नेह से मेरे साथ ही उसे खिला पिला देती ,शुरू में संकोच करती थी फिर शनै:शनै: वो हमारे घर की सदस्य ही बन गई थी। हम जाने कितने सपने देखते साझा करते ।वो डॉक्टर बनना चाहती थी और मै सिंगर मैं तो बन भी गई पर वो ……. अकस्मात कुछ ऐसा घटित हुआ के सब उलट पलट हो गया ।कई दिनों से गुड़िया का बाहर निकलना ही बन्द हो गया ।मैंने मिलना चाहा तो हर बार किसी न किसी बहाने से मिलने न दिया गया । मैं परेशान और चिंतित थी ,आखिर क्या हुआ है गुड़िया को ? मां से पूछा वो बोली बेटा कुछ होगा तू पढ़ाई में मन लगा बेटा ।पर मां की उदासी से ये तो समझ गई कि कुछ तो है जो मां जानती है ।मेरा कहीं मन नहीं लगता था , मैं व्याकुल थी मेरा बाल मन छटपटा रहा था कैसे गुड़िया से मुलाकात हो जाए इसी फ़िराक में रहती थी। एक दिन अवसर मिल ही गया वो घर पे अकेली थी  मैं पहुंच गई चुपके से देखा आंगन में सिल बटे में गुड़िया टमाटर की चटनी पीस रही है ।अरे ये क्या उसने तो साड़ी पहन रखी है ।उसका चेहरा मुरझाया हुआ था ।मैंने उसके पास बैठते हुए कहा अरे तू साड़ी में ,तेरी तबियत ठीक है न,स्कूल क्यों न आई ,मुझसे भी नहीं मिली इतने दिन से ,हुआ क्या है तुझे ? गुड़िया ने भीगी पलकों से मुझे देखा ,पल भर को बिजली की तरह मुस्कान चमकी और लुप्त हो गई बोली — रंजू मै बिल्कुल ठीक हूं ,देख मैंने साड़ी पहनना सीख लिया है और घर के काम काज भी सीख गई हूं ।देख कितनी सुंदर साड़ी है  मै बोली  अरे ये सब छोड़ इम्तिहान सर पर है कितना होमवर्क बढ़ गया है तेरे लिए चल साथ में करते है । गुड़िया — हां  ,मुझे तो सब पता है पर तुझे कुछ नहीं पता ।सुन कल मेरी सगाई होने वाली है और चार दिन में ब्याह ।तू आएगी न मुझे बिदा करने और वो फफक कर रो पड़ी ।मै स्तब्ध थी , बड़ी देर तक हम रोते रहे फिर मैंने कहा , गुड़िया तू मना कर दे ,विरोध कर तुझे तो डॉक्टर बनना है न मै मां पापा से कहूंगी तेरे बाबा को समझाएंगे ।उसने ज़ोर से मेरा हांथ पकड़ लिया बोली …. शांत हो जा सब कर चुकी हूं ,ये देख विरोध का परिणाम पल्लू हटा कर उसने पीठ पर बेंत से पड़े नीले निशानों को दिखाया और मेरी पीठ पर मैंने असहनीय दर्द महसूस किया ,जो आज भी कभी के ही महसूस करती हूं । उस रात मां के आंचल में सिमट कर सोई और खूब रोई । मां से पूछा ,मां आप लोग मेरे साथ ऐसा कभी नहीं करेंगे न?  वादा करिए । मेरे माता पिता ने वो वादा निभाया भी । वो रात भी आ गई जब मां के आंचल से लिपटी गुड़िया को जबरदस्ती खींचते हुए बलात डोली में डाल कर एक अधेड़ पुरुष के साथ विदा कर दिया गया ।गुड़िया का ब्याह हो गया उस दिन देश एक उम्दा डॉक्टर से वंचित रह गया । एक मासूम बच्ची के सपने को कुचल दिया गया ।और वही दूसरी बच्ची मैं अंदर से टूट गई ,मुझे सामान्य होने में वक्त लगा पर उस चोट के दाग़ अब भी हरे हो जाते है जब इक्कीसवीं सदी में भी इन घटनाओं की पुनरावृत्ति देखती हूं। क्या आज भी कन्याएं मारी नहीं जा रही हैं ? उनके सपने तोड़े नहीं जा रहे है ? आज भी गुड़िया की अस्मिता को पद दलित नहीं किया जा रहा है ? क्या हमारा समाज इन कुत्सित ,ओछी मानसिकता से पूर्णतः  मुक्त हो पाया है ? क्या ये स्थिति हम बना सके हैं  यत्र नर्यास्तू  पूज्यते रमनते तत्र  देवता   यदि आज भी नहीं तो कब ?? रंजना प्रकाश , दिल्ली ,द्वारका   यह भी पढ़ें … बचपन की छुट्टियाँ और नानी का घर अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन इतना प्रैक्टिकल होना भी ठीक नहीं आपको  लेख “   गुड़िया का ब्याह — .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर … Read more

चुनाव -2019-नए वोटर

आपने वोट डाला की नहीं ? चुनाव शुरू हो गए हैं …इस महायज्ञ में एक दूसरे को उत्साहित करने वाले वाक्य अक्सर सुनाई देते रहेंगे, | सही भी है वोट डालना हमारा हक भी है और कर्तव्य भी | ज्यादातर लोग कर्तव्य समझ कर वोट डालते तो हैं पर किसी पार्टी के प्रति उनमें ख़ास लगाव या उत्साह नहीं रहता | एक उम्र आते -आते हमें नेताओं और उनके वादों पर विश्वास नहीं रह जाता , लेकिन जो पहली बार वोट डालने जाते हैं उनमें खासा उत्साह रहता है |और क्यों न हो दुनिया में हर पहली चीज ख़ास ही होती है , पहली बारिश , पहला साल , पहला स्कूल , पहला प्यार और …. पहली बार वोट डालना भी | नए -नए वोटर  जब आप ये पढ़ रहे होंगे तो जरूर आप को भी वो दिन याद आ गया होगा जब आपने पहली बार वोट डाला होगा और हाथों में नीली स्याही के निशान को दिन में कई बार गर्व से देखा होगा, कितना खास होता है ये अहसास …देश का एक नागरिक होने का अहसास , अपने हक़ का अहसास , कर्तव्य  का अहसास और साथ ही साथ इस बात का गर्व भी कि आप भी अपने सपनों के भारत के निर्माता बनने में योगदान कर सकते हैं | पहली बार वोट डालना उम्र का वो दौर होता है जब यूँ भी जिन्दगी में बहुत परिवर्तन हो रहे होते हैं | अभी कुछ साल पहले तक ही तो  फ्रॉक और बेतरतीब बालों में घूमती  लडकियाँ आइना देखना शुरू करती हैं और लड़के अपनी मूंछो की रेखा पर इतराना ….उस पर ये नयी जिम्मेदारी …बड़ा होना  कितना सुखद लगता है | उनका उत्साह  देखकर मुझे उस समय की याद आ जाती है जब हमारे बड़े भैया को पहली बार वोट डालने जाना था | महीनों पहले से वो हद से ज्यादा उत्साहित थे | क्योंकि हम लोगों की उम्र में अंतर ज्यादा था , ऊपर से उनका बात -बात में चिढाने का स्वाभाव ,अक्सर हम लोगों को चिढ़ाया करते , ” हम इस देश के नागरिक हैं , हम सरकार बदल सकते हैं … और तुम लोग … तुम लोग तो अभी छोटे हो , जो सरकार होगी वो झेलनी ही पड़ेगी | यूँ तो भाई -बहन में नोक -झोंक होती ही रहती है पर इस मामले में तो ये सीधा एक तरफ़ा थी | कभी -कभी तो वो इतना चिढाते कि हम बहनों में बहुत हीन भावना आ जाती , लगता बड़े भैया ही सब कुछ है , क्योंकि वो बड़े हैं , इसलिए घर में भी उन्हीं की चलती है और अब तो देश में भी उन्हीं की चलेगी ….हम लोग तो कुछ हैं ही नहीं | कई बार रोते हुए माँ के पास पहुँचते , और माँ , अपना झगडा खुद ही सुलझाओ कह कर डांट कर भगा देतीं | और हम दोनों बहनें अपनी इज्जत का टोकरा उठा कर मुँह लटकाए हुए वापस भैया द्वारा चिढाये जाने को विवश हो जाते | वोट डालने के दो दिन पहले से तो उनका उत्साह उनके सर चढ़ कर बोलने लगा | नियत दिन सुबह जल्दी उठे , थोडा रुतबा जताने के लिए हम लोगों को भी तकिया खींच -खींच कर उठा दिया | हम अलसाई आँखों से देश के इस महान नागरिक को वोट देने जाते हुए देख रहे थे | भैया नहा – धोकर तैयार हुए , उन्होंने बालों में अच्छा खासा तेल लगाया , आखिरकार देश के संभ्रांत नागरिक की जुल्फे उडनी नहीं चाहिए , हमेशा सेंट से परहेज  करने वाले भैया ने थोडा सा से सेंट  भी लगाया , हम अधिकारविहीन लोग मुँह में रात के खाने की गंध भरे उनके इस रूप  से अभिभूत हो रहे थे |  सुबह से ही वो कई बार घडी देख कर बेचैन हो रहे थे |  एक एक पल बरसों का लग रहा था , शायद इतना इंतज़ार तो किसी प्रेमी ने अपनी प्रेमिका से मिलने का भी न किया हो | वो तो अल सुबह ही निकल जाते पर पिताजी        बार -बार रोक  रहे थे , अरे वोटिंग शुरू तो होने दो तब जाना | घर में  तो पिताजी की ही सरकार थी इसलिए उन्हें मानने की मजबूरी थी  |  फिर भी वो माँ -पिताजी के साथ ना जाकर सबसे पहले ही डालने गए | उस समय सभी पार्टी के कार्यकर्ता अपनी -अपनी टेबल लगा कर पर्ची काट कर देते थे , जिसमें टी एल सी नंबर होता था ताकि लोगों को वोट देने में आसानी हो |  अंदाजा ये लगाया जाता था कि जो जिस पार्टी से पर्ची कटवाएगा वो उसी को वोट देगा …. इसी आधार पर एग्जिट पोल का सर्वे रिपोर्ट आती थी | वो कोंग्रेस का समय था … ज्यादातर लोग उसे को वोट देते थे | भैया को भी वोट तो कोंग्रेस को ही देना था पर अपना दिमाग लगते हुए उन्होंने बीजेपी की टेबल से पर्ची कटवाई | ताकि किसी को पता ना चले कि वो वोट किसको दे रहे हैं | आपका का मत गुप्त रहना चाहिए ना ? उस समय छोटी सी लाइन थी , जल्दी नंबर  आ गया | पर ये क्या ? उनका वोट तो कोई पहले ही डाल गया था | उन्होंने बार -बार चेक करवाया पर वोट तो डल ही चुका था | भैया की मायूसी  देख कर वहां मुहल्ले के एक बुजुर्ग ने सलाह दी , तुम दुखी  ना हो, चलो तुम किसी और के नाम का वोट डाल दो  , मैं बात कर लूँगा | फिर थोडा रुक कर बोले ,” पर्ची तो तुमने बीजेपी से ही कटवाई है पर वोट तुम कोंग्रेस को ही देना … पूरा मुहल्ला दे रहा है |” भैया ने तुरंत मना  कर दिया ,” नहीं , फिर जैसे मैं दुखी हो रहा हूँ कोई और भी दुखी होगा … और क्या पता वो किसी और पार्टी को वोट देना चाहता हो | कोई बात नहीं मैं अगली बार मताधिकार का प्रयोग कर लूँगा पर देश के द्वारा दिए गए इस अधिकार का  दुरप्रयोग  नहीं करूँगा |” वो बुजुर्ग उनकी बात कर हंस कर बोले , ” नए -नए वोटर हो ना … Read more

ग्वालियर : एक यात्रा अपनेपन की तलाश में

जिस शहर में क़रीब 50 साल पहले नव वधु के रूप में आई थी  उसी शहर में हम कुछ दिन पहले,परिवार ही नहीं कुटुम्ब के साथ पर्यटक की तरह गये थे। मैं ग्वालियर का जिक्र कर रही हूँ। मेरे पति उनके भाई बहन इसी शहर में पले बढ़े हैं। मेरी बेटी का जन्म स्थान भी ग्वालियर ही है। 1992 तक यहाँ हमारा मकान था, जो बेच दिया था अब उस जगहकपड़ों का होल सेल स्टोर बन चुका है,पर वो गलियाँ सड़कें बदलने के बाद भी बहुत सी यादें ताज़ा कर गई। पुराने पड़ौसी और यहाँ तक कि घर मे काम करने वाली सहायिकाओं की अगली पीढ़ी भी मिली।छोटे शहरों की ये संस्कृति हम दिल्ली वालों के लिये अनमोल है। ग्वालियर यात्रा संस्मरण जब यहाँ घर था तब कभी पर्यटन के लिये नहीं निकले या ये कहें कि उस समय पर्यटन का रिवाज ही नहीं था। दूसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि अपने शहर की जगहों के नाम इतने सुने होते हैं कि लगता है यहाँ पर्यटन के लायक कुछ है ही नहीं!तीसरी बात कि पिछले तीस दशकों में यातायात और पर्यटन की सुविधाओं काबहुत विकास हुआ है जो पहले नहीं था। हमारे वृहद परिवार से तीन परिवारों ने पर्यटन पर, तथा पुरानी यादें ताज़ा करने के लिये ग्वालियर जाने का कार्यक्रम बनाया, चौथा परिवार रायपुर से वहाँ पहुँचा हुआ था। एक परिवार की तीन पीढ़ियाँ और बाकी परिवारों की दो पीढ़ियों का कुटुंब(15 व्यक्ति) अपने शहर पहुँचकर काफ़ी नॉस्टैलजिक महसूस कर रहे थे। हम दिल्ली से ट्रेन से गये थे, शताब्दी से साढ़े तीन घंटे का सफ़र मालूम ही नहीं पड़ा। आजकल होटल, टैक्सी सब इंटरनैट पर ही बुक हो जाते हैं तो यात्रा करना सुविधाजनक हो गया है परन्तु हर जगह भीड़ बढ़ने से कुछ असुविधाये भी होती हैं। होटल में कुछ देर विश्राम करने के बाद हम जयविलास  महल देखने गये। जयविलास महल शहर के बीच ही स्थित है।ये उन्नीसवीं सदी में सिंधिया परिवार द्वारा बनवाया गया था और आज तक इस महल का एक हिस्सा उनके वंशजों का निजी निवास स्थान है। महल के बाकी हिस्से को संग्रहालय बना कर जनता के लिये खोल दिया गया है।मुख्य सड़क से महल के द्वार तक पहुँचने के मार्ग के दोनों ओर सुन्दर रूप से तराशा हुआ बग़ीचा है जिसमें खिली बोगनवेलिया की पुष्पित लतायें मन मोह लेती हैं।महल के बीच के उद्यान भी सुंदर हैं। संग्राहलय की भूतल और पहली मंजिल पर सिंधिया राज घराने के वैभव के दर्शन होते हैं। भाँति भाँति की पालकियाँ और रथ राजघराने के यातायात के साधन मौजूद थे।साथ ही कई बग्घियों के बीच एक छोटी सी तिपहिया कार भी थी। महल में राजघराने के पूर्वजों के चित्रों को उनके पूरे परिचय के साथ दिखाया गया है। राजघराने में अनेकों सोफ़ासैट और डाइनिंग टेबल देखकर  मुझे उत्सुकता हो रही थी कि एक समय में वहाँ कितने लोग रहते होंगे !नीचे बैठकर खाने का प्रबंध भी था। किसी विशेष अवसर पर दावत के लिये बड़े बड़े डाइनिंग हॉल भी देखे जहाँ एक ही मेज़ पर मेरे अनुमान से सौ ड़ेढ़ सौ लोग बैठकर भोजन कर सकते हैं।यहाँ की सबसे बडी विशेषता मेज़ पर बिछी रेल की पटरियाँ है।इन रेल की पटरियों पर एक छोटी सी रेलगाड़ी खाद्य सामग्री लेकर चक्कर काटती थी। ये रेलगाड़ी एक काँच के बक्से में वहाँ रखी है। एक वीडियो वहाँ चलता रहता है जिसमें ये ट्रेन चलती हुई दिखाई गई है। एक दरबार हाल में विश्व प्रसिद्ध शैंडेलियर का जोड़ा है, जिनका वज़न साढ़ तीन तीन टन है और एक एक में ढ़ाई सौ चिराग जलाये जा सकते हैं।संभवतः यह विश्व का सबसे बड़ा शैंडेलियर है। इस दरबार हाल की दीवारों पर लाल और सुनहरी सुंदर कारीगरी की गई है। दरवाज़ो पर भारी भारी लाल सुनहरी पर्दे शोभायमान हैं।जय विलास महल सुंदर व साफ़ सुथरा संग्रहालय है, यह योरोप की विभिन्न वास्तुकला शलियों में निर्मित महल है। यहाँ पर्यटकों के लिये लॉकर के अलावा कोई  विशेष सुविधा नहीं है।तीन मंजिल के संग्रहालय में व्हीलचेयर किराये पर उपलब्ध हैं परंतु न कहीं रैम्प बनाये गये हैं न लिफ्ट है जिससे बुज़ुर्गों और दिव्यांगों को असुविधा होती है। जन–सुविधाओं का अभाव है। पर्यटकों के लिये प्राँगण में एक कैफ़िटेरिया की कमी भी महसूस हुई। यदि हर चीज़ को बहुत ध्यान से देखा जाये तो यहाँ पूरा दिन बिताया जा सकता है। हमारे साथ बुज़ुर्ग और बच्चे भी थे तो क़रीब तीन घंटे का समय लगा और कुछ हिस्सा देखने से रह भी गया।यहाँ घूमकर सब थक चुके थे, सफ़र की भी थकान थी और भूख भी लगी थी। दोपहर का भोजन करने के बाद हम महाराज बाड़ा या जिसे सिर्फ़ बाड़ा कहा जाता है,  वहाँ गये। यह स्थान शहर के बीच में है, जहाँ पहले भी  जब यहाँ घर था हम कई बार जाते रहे थे। यह ख़रीदारी का मुख्य केंद्र लगता था। घर के पीछे की गलियों से होते हुए यहाँ पैदल पहुँच जाते थे। अब यह बहुत बदला हुआ लगा। पहले दुकानों के अलावा कहीं ध्यान नहीं जाता था। अब बाड़े पर पक्की दुकाने नहीं है पर पटरी बाज़ार जम के लगा हुआ  है।अब चारों तरफ़ की इमारतें और बीच का उद्यान ध्यान खींचते है। उद्यान के बीच में सिंधिया वंश के किसी राजा की मूर्ति भी है।  बाड़े पर रीगल टॉकीज़ में कभी बहुत फिल्में देखी थी पर फिल्मी पोस्टरों के पीछे छिपी इमारत की सुंदर वास्तुकला कभी दिखी ही नहीं थी। विक्टोरिया मार्केट कुछ समय पहले जल गया था जिस पर काम चल रहा हैं। पोस्ट ऑफ़िस की इमारत और टाउनहॉल ब्रिटिश समय की योरोपीय शैली की सुंदर इमारतें हैं। बाजार अब इन इमारतों के पीछे की गलियों और सड़केों में सिमट गये हैं।बाड़े से पटरी बाज़ार को भी हटा दिया जाना चाहिये क्योंकि ट्रैफ़िक बहुत है।पास में ही सिंधिया परिवार की कुलदेवी का मंदिर है। हमें बताया गया कि महल से दशहरे पर तथा परिवार में किसी विवाह के बाद यहाँ सिंधिया परिवार अपने पूरे राजसी ठाठ बाट मे जलूस लेकर कुलदेवी के मंदिर तक आता था और पूरे रास्ते में प्रजा इस जलूस को देखती थी। इस मंदिर का रखरखाव तो अब बहुत ख़राब हो गया है।पार्किग भी यहीं पर है। इस जगह को गोरखी कहते हैं यहाँ के स्कूल मे मेरे पति और देवर की प्राथमिक पाठशाला थी। बहनों का स्कूल भी पास में था। यहाँ जिस स्थान पर पार्किंग है वहाँ ये लोग क्रिकेट खेला करते … Read more

हिन्दी के पाणिनी आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी : संस्मरण

आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी को हिंदी भाषा का पाणिनि भी कहा जाता है | उन्होंने हिंदी को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया | उससे पहले खड़ी बोली का चलन तो था पर उसका कोई व्यवस्थित व्याकरण नहीं था | इन्होने अपने अथक प्रयास से व्याकरण का एक सुव्यवस्थित रूप निर्धारित कर हिंदी भाषा का परिष्कार किया और साथ ही नए मानदंड भी स्थापित किये , जिससे भाषा को एक नया स्वरुप मिला |          हिंदी के साहित्यकार व् सुप्रसिद्ध व्याकरणाचारी आचार्य श्री किशोरी दस बाजपेयी जी का जन्म १५ दिसंबर १८९५ में कानपूर के बिठूर के पास मंधना के गाँव रामनगर में हुआ था | उन्होंने न केवल व्याकरण क्षेत्र में काम किया अपितु आलोचना के क्षेत्र में भी शास्त्रीय सिधान्तों का प्रतिपादन कर मानदंड स्थापित किये | प्रस्तुत है उनके बारे में कुछ रोचक बातें ….                                                 फोटो -विकिपीडिया से साभार हिन्दी के पाणिनी आचार्य श्री किशोरीदास  बाजपेयी : संस्मरण                           हिन्दी के पाणिनी कहे जाने वाले ‘दादाजी‘ यानी आचार्य श्री किशोरीदास जी बाजपेयी के बारे में तब पहली बार जाना जब वह हमारे घर पर अपनी छोटी बेटी (मेरी भाभी) का रिश्ता मेरे म॓झले भाई साहब के लिए लेकर आए।हमारे बड़े भाई साहब उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुए। इस सिलसिले में शादी से पूर्व उनका कई बार हमारे घर आना हुआ और हर बार वह अपने व्यक्तित्व की एक नई छाप छोड़ गए।तब हमने जाना कि वह बात के पक्के हैं और उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा खरापन है जो सभी को ऊपनी ओर आकृष्ट करता है।                           उन्ही दिनों के आस-पास ‘वैद्यनाथ‘ वालों की ओर से दादा जी का अभिनन्दन किया गया जिसमें उन्हे ग्यारह हजार रुपये प्रदान किए गए। इस अभिनन्दन के पश्चात जब वह हमारे घर आए तो उन्होने कहा कि वह यह ग्यारह हजार रुपये अपनी बेटी की शादी में खर्च करेगें और अगर यह रुपये चोरी हो गए तो कुछ भी खर्च नहीं करेगें।उनकी इस साफगोई और खरेपन को लेकर हमारे घर में कुछ दिनों खूब विनोदपूर्ण वातावरण रहा।                              उन्होने कहा,बारात कम लाई जाए लेकिन स्टेशन पर पहुँचने से लेकर वापिस स्टेशन आने तक वह हम लोगों से कुछ भी खर्च नहीं करवाएगें। बारात में कुल बीस- पच्चीस लोग ही गए।लेकिन उन्होने हरिद्वार स्टेशन पर उतरते ही सवारी से लेकर बैंड-बाजे आदि का कुछ भी खर्च हमारी ओर से नहीं होने दिया।उन्होंने शादी शानदार ढंग से निपटाई।भोजन और मिष्ठान्न सभी कुछ देशी घी में बने थे।जो मिठाई उन्होने हमारे घर भिजवाई,वह भी सब शुद्ध देशी घी में बनी थी।उनके द्वारा भिजवाई गई मिठाइयों में पूड़ी के बराबर की चन्द्रकला का स्वाद तो मुझे आज भी याद है।गर्मियों के दिन थे।उन्होने हमारे घर पर बहुत अधिक पकवान व मिठाइयाँ भिजवा दी थीं।माँ ने तुरन्त ही सब बँटवा दीं।आज भी सब रिश्तेदार और मुहल्ले वाले उन मिठाइयों की याद कर लेते हैं।                            गर्मियों की छुट्टियों मैं मैं एक महिने भाभी के साथ कनखल में रही। दादाजी सुबह चार बजे उठ जाते और भगोने में चाय चढ़ा देते। वह चाय पीकर मुझे जगा देते और अपने साथ टहलने ले जाते। हम ज्वालापुर तक टहलने जाते। टहलते समय दादा जी मुझे खूब मजेदार बातें बताते। वह कहते , ‘जाको मारा चाहिए बिन लाठी बिन घाव, वाको यही सिखाइए भइया घुइयाँ पूड़ी खाव।‘ फिर हँस कर कहते कि उन्हे घुइयाँ पूड़ी बहुत पसंद हैं।                                   एक बार जब वे अंग्रेजों के समय जेल में बन्द थे, उनकी कचेहरी में पेशी हुई। पेशी के लिए जज के समक्ष जाते समय पेशकार ने पैसों के लिए अपनी पीठ के पीछे हाथ पसार दिए। दादा जी ने उसकी गदेली पर थूक दिया। वह तुरन्त अपना हाथ पोंछकर जज के सामने खड़ा हो गया।                                     जब हम टहल कर आते , दादा जी नाश्ते में पंजीरी (भुना आटा और बूरा ) में देशी घी डलवा कर लड्डू बनवाते जो एक गिलास ताजे दूध के साथ मुझे नाश्ते में मिलता। यह रोज का नियम था। वह मेरा विशेष ख्याल रखते। जब तक मैं कनखल में रही, दादा जी मेरे लिए मिठाई लाते और मिठाई में अक्सर चन्द्रकला होती।फलों में उन्हे खरबूजा , ककड़ी और देशी आम पसन्द थे। किन्तु हम सबके लिए केला, सन्तरा आदि मौसमी फल भी लाते। आम को वह आम जनता का फल बताते थे।खाने के साथ उन्हे अनारदाने की चटनी बहुत पसंद थी।                                     टहल कर आने के पश्चात दादा जी लिखने का कार्य करते। भोजन करके वह कुछ देर विश्राम करते।तत्पश्चात वह हरिद्वार,श्रवणनाथ ज्ञान म॓दिर पुस्तकालय जाते।यह उनका प्रतिदिन का नियम था। रात में वह कहीं नहीं जाते थे। वह कहते,’दिया बाती जले मद्द (मर्द) मानस घर में भले।‘                                      जब वह हमारे घर कानपुर आते, हम सब उनसे मजेदार किस्से सुनने के लिए उन्हे घेर कर बैठ जाते। ऐसे ही एक समय उन्होने बताया कि एक बार जब वह ट्रेन से जा रहे थे तो उन्होने अपने सामने की सीट पर बैठे व्यक्ति से बात करने की गरज से पूछा कि वह कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा तीन बार हुआ। अवश्य ही इस व्यक्ति ने धोती कुरता पहने हुए दादा जी को गाँव का कोई साधारण गँवार समझा होगा। जब उन्होने देखा कि यह व्यक्ति बात नहीं करना चाहता तो वह अपनी सीट पर बिस्तर बिछा कर सो गए। सुबह होने पर उन्होने एक केतली चाय, टोस्ट, मक्खन मँगाया और नाश्ता करने लगे।इसी बीच यह व्यक्ति दादा जी से पूछने लगा कि उन्हे कहाँ जाना है? दादा जी ने कोई जवाब नहीं दिया तथा उसकी ओर अपनी पीठ कर ली। ऐसा दो बार हुआ। तीसरी बार वह व्यक्ति जरा जोर से बोला, ‘क्या आप ऊँचा सुनते हैं? ‘अब दादा जी उसकी ओर मुँह घुमा कर बोले, ‘आप मुझसे कहाँ बात कर रहे हैं? आप तो मेरे टोस्ट मक्खन सै बात कर रहे हैं।‘ रात को जब मैंने आपसे बात करने की कोशिश की, आपने कोई जवाब नहीं दिया। ‘ वह व्यक्ति बड़ा शर्मिन्दा हुआ।किन्तु पीछे की सीट पर बैठे हुए शुक्ला … Read more

वो कन्नौज की यादगार दीपावली

यूँ तो हर बार दिवाली बहुत खास होती है पर उनमें से कुछ होती हैं जो स्मृतियों के आँगन में किसी खूबसूरत रंगोली की तरह ऐसे सज जाती हैं कि हर दीवाली पर मन एक बार जाकर उन्हें निहार ही लेता है | ऐसी ही दीवालियों में एक थी मेरे बचपन में मनाई गयी कन्नौज की दीपावली | वो कन्नौज की यादगार  दीपावली कन्नौज यूँ तो कानपुर के पास बसा एक छोटा शहर है पर इतिहास में दर्ज है कि वो कभी सत्ता का प्रतीक रहा था | राजा हर्षवर्धन के जमाने में कन्नौज की बहुत शान हुआ करती थी | शायद उस समय लडकियां चाहती थी कि हमारी शादी कन्नौज में ही हो , तभी तो, “कन्नौज –कन्नौज मत करो बिटिया कन्नौज है बड़े मोल “जैसे लोक गीत प्रचलित हुए , जो आज भी विवाह में ढोलक की थाप पर खूब गाये जाते हैं | खैर हमारी दोनों बुआयें  इस मामले में भाग्यशाली रहीं कि वो कन्नौज ही बयाही गयीं | तो अब स्मृति एक्सप्रेस को दौडाते हुए  आते हैं कन्नौज की दीवाली पर … बात तब की है जब मैं कक्षा पाँच में पढ़ती थी | दीपावली पर हमारी बड़ी बुआ , जो की लखनऊ में रहती थीं अपने परिवार के साथ कन्नौज अपने पैतृक घर में दीपावली मनाने जाती थी | उस बार वो जाते समय हमारे घर कुछ दिन के लिए ठहरीं, आगे कन्नौज जाने का विचार था |बड़ी बुआ की बेटियाँ मेरी व् मेरी दीदी की हम उम्र थीं | हम लोगों में बहुत बनती थीं | हम लोग साथ –साथ खेलते , खाते –पीते और लड़ते थे |वो दोनों अक्सर कन्नौज की दीवाली की तारीफ़ किया करती थीं | जैसी दीवाली वहां मनती है कहीं नहीं मनती |फिर वो दोनों जिद करने लगीं कि हम भी वहां चल कर वैसी ही दीपावली मनाएं | हमारा बाल मन जाने को उत्सुक हो गया परन्तु हमें माँ को छोड़ कर जाना अच्छा नहीं लग रहा था | इससे पहले हम बिना माँ के कभी रहे ही नहीं थे , पर बुआ ने लाड –दुलार से हमें राजी कर ही लिया | जैसे ही हमारी कार घर से थोडा आगे बढ़ी मैंने रोना शुरू कर दिया , मम्मी छूटी जा रहीं हैं | दीदी ने समझाया , बुआ ने समझाया फिर जा कर मन शांत हुआ | उस दिन मुझे पहली बार लगा कि लडकियाँ  विदाई में रोती क्यों हैं | खैर हँसते -रोते हम कन्नौज पहुचे | बुआ की बेटी ने बड़े शान से बताया ,” यहाँ तो मेरे बाबा का नाम भी किसी रिक्शेवाले के सामने ले दोगी   तो वो सीधे मेरे घर छोड़ कर आएगा , इतने फेमस हैं हम लोग यहाँ “| मन में सुखद  आश्चर्य हुआ ,ये तो पता था की बुआ बहुत अमीर हैं पर उस समय  लगा किसी राजा के राजमहल में जा रहे हैं, जहाँ दरवाजे पर संतरी खड़े होंगें जो पिपहरी बजा रहे होंगे और फूलों से लदे हाथी हमारे ऊपर पुष्प वर्षा करेंगे | बाल मन की सुखद कल्पना के विपरीत , वहां संतरी तो नहीं पर कारखाने के कई कर्मचारी जरूर खड़े  थे | तभी दादी ( बुआ की सासु माँ )लाठी टेकती आयीं |  दादी ने हम लोगों का बहुत स्वागत व दुलार किया  और हम लोग खेल में मगन हो गए |  क्योंकि मेरी बुआ काफी सम्पन्न परिवार की थीं | उनका इत्र  का कारोबार था | वहां का इत्र  देश के कोने -कोने में जाता था | इसलिए वहाँ की दीपावली हमारे घर की दीपावली से भिन्न थी | पकवान बनाने के लिए कई महराजिन लगीं  हुई थी , बुआ बस इंतजाम देख रहीं थीं | जबकि मैंने अपने घर में यही देखा था कि दीवाली हो या होली, माँ अल सुबह उठ कर जो रसोई में घुसतीं तो देर  शाम तक निकलती ही नहीं थीं | माँ की रसोई में भगवान् का भोग लगाए जाने से पहले हम बच्चे भोग लगा ही देते … और बीच -बीच में जा कर भोग लगाते ही रहते | माँ प्यार में डपट लगा तीं पर वो जानतीं थीं कि बच्चे मानेंगे नहीं , इसलिए भगवान् के नाम पर हर पकवान के पहले पांच पीस निकाल कर अलग रख देंती थी ,ताकि बच्चों को भगवान् से पहले खाने के लिए ज्यादा टोंकना  ना पड़े | परन्तु यहाँ पर स्थिति दूसरी थी | दादी , बुआ दादी और महाराजिनों की उपस्थिति  हम में संकोच भर रही थी, लिहाज़ा हम ने तय कर लिया चलो इस बार भगवान् को पहले खाने देते हैं |  त्यौहार के दिन पूरा घर बिजली  जगमग रोशिनी से नहा गया | आज तो लगभग हर घर में इतनी ही झालरे लगती हैं पर तब वो जमाना किफायत का था | आम लोग हलकी सी झालर लगाते थे, ज्यादातर घरों में दिए ही जलते थे | इतनी लाईट देखकर मैंने सोचा ,” क्या यहाँ लाईट नहीं जाती है |” बाद में पता चला की लाईट तो जाती है पर जनरेटर वो सारा बोझ उठा लेता है | दीपावली वाले दिन हम सब को एक बड़ी डलिया  भर के पटाखे जलाने को मिले | बुआ की बेटी ने कहा, ” इतने पटाखे कभी देखे भी हैं ? ” मैंने डलिया में देखा ,वास्तव में हमारे घर में कुल मिला कर इससे कम पटाखे ही आते थे | एक कारण ये भी था कि मैं और दीदी पटाखे छुडाते नहीं थे , बस भाई लोग थोड़े शगुन के छुड़ाते थे , बहुत शौक उन्हें भी नहीं था | पिताजी हमेशा समझाया करते थे कि ये धन का अपव्यय है और हम सब बिना तर्क  दिए मान लेते | खैर , मैंने  उससे कहा , “मैं पटाखे छुड़ाती ही नहीं |” उसने कहा  इस बार छुडाना फिर देखना अभी तक की सारी दीवाली भूल जाओगी | शाम को हम सब पटाखे ले कर घर के बाहर पहुंचे | उस बार पहली बार मैंने पटाखे छुडाये | या यूँ कहे पहली बार पटाखे छुडाना सीखा | थोड़ी देर डरते हुए पटाखे छुड़ाने के बाद मैं इस कला में पारंगत हो गयी | हाथ में सीको बम लेकर आग लगा कर दूर फेंक देती और बम भड़ाम की आवाज़ के … Read more

हिंदी मेरा अभिमान

आज जब पीछे मुड़ कर देखती हूँ और सोचती हूँ  कि हिंदी कब और कैसे मेरे जीवन में इतनी घुलमिल गई  तो इसका पूरा-पूरा शत-प्रतिशत श्रेय माँ और पापा को जाता है और किस तरह जाता है इसके लिए  मुझे अपने बचपन में लौटना होगा। संस्मरण -हिंदी मेरा अभिमान            मेरे पापा बाबूराम वर्मा हिंदी के कट्टर प्रेमी थे। एक माँ के रूप में वे हिंदी से प्यार करते थे। काम करते-करते वे बच्चन जी के लिखे गीत गुनगुनाते रहते थे। आज मुझसे बोल बादल, आज मुझसे दूर दुनिया, मधुशाला, मधुबाला गाते। सुनते-सुनते मुझे भी कई गीत, रुबाइयाँ याद हो गई थीं। बाद में शायद यही मेरी पी एच डी करने के समय बच्चन साहित्य पर शोध करने का कारण भी बनी होगी।          तो हिंदी से मन के तार ऐसे जुड़े कि पराग, चंदामामा, बालभारती, चंपक मिलने की प्रतीक्षा रहने लगी। साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और उसमें भी डब्बू जी वाला कोना सबसे पहले देखना… बड़ा आनंद आता। लेखकों, कवियों के प्रति सम्मान की भावना भी उत्पन्न होने लगी। आठवीं कक्षा में थी, तब विद्यालय पत्रिका में मेरी पहली छोटी सी कहानी छपी थी। उस समय जिस आनंद की अनुभूति हुई थी, आज भी जब उसके बारे में सोचती हूँ तो उस आनंद की सिहरन आज भी जैसे अनुभव होती है वैसी ही।         पापा की अलमारी से ढूँढ-ढूँढ कर पुस्तकें , सरस्वती, कहानी, विशाल भारत निकाल कर पढ़ना एक आदत बन गई थी । शिवानी, मालती जोशी. उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, शशिप्रभा शास्त्री, रांगेय राघव आदि को पढ़ने का अवसर मिला। माँ से विवाहों, पर्व-त्योहारों के अवसर पर लोकगीत सुने तो यह विधा भी मन के निकट रही।             हिंदी की पुस्तकें, पत्रिकाएँ पढ़ने का जुनून कुछ इस तरह घर में सबको था कि जब घर में सब होते तो कोई न कोई पुस्तक-पत्रिका हाथ में लिए पढ़ने में लगे होते। यह दृश्य भी देखने लायक हुआ करता था। पापा तो नौकरी के बाद बचे अपने समय का भरपूर उपयोग पढ़ने-लिखने में किया करते थे।           घर में पूरा वातावरण हिंदीमय था। माँ पर अवश्य कभी अपनी आस-पड़ोस की सखियों की देखा-देखी कभी अँग्रेजी दिखावे की दबी सी भावना आ जाती, पर टिक नहीं पाती थी।            जब मेरे छोटे भाई का मुंडन समारोह होना था और उसके निमंत्रण पत्र छपवाने की बात आई तो माँ ने कहा यहाँ सभी अँग्रेजी में छपवाते हैं तो हम भी छपवा लें, हिंदी में छपे निमंत्रण पत्र बाँटेंगे तो देखना कोई आयेगा भी नहीं। पर पापा कहाँ मानने वाले ? बोले.. कोई आये ना आये, निमंत्रण पत्र तो हिंदी में ही छपेंगे और बटेंगे। ऐसा ही हुआ। मैं पापा के साथ निमंत्रण पत्र बाँटने भी गई थी और सब लोग आये थे। उस समय कई दिनों तक इसकी चर्चा होती रही रही थी और कई लोगों ने इसका अनुकरण भी किया था। इस बात ने मेरे मन पर बहुत प्रभाव डाला था।            मेरे पापा देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान (एफ. आर. आई ) में हिंदी अनुवादक के पद पर कार्यरत थे। वानिकी से संबंधित अँग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया करते थे। उनकी अँग्रेजी भी बहुत अच्छी थी। पर वे बातचीत हिंदी में ही करते थे। आस-पड़ोस के बच्चों के माता-पिता अँग्रेजी झाड़ते रहते थे। तो मैं कभी सोचती कि मेरे पापा क्यों ऐसा नहीं करते और एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया  कि आप कभी लोगों से अँग्रेजी में क्यों बातचीत नहीं करते ? उसका जो उत्तर मुझे मिला था उससे मेरे मन में पापा के प्रति सम्मान और भी अधिक हो गया था। उन्होंने मुझे कहा था… जो हिंदी बोल-समझ सकते हैं उनसे हिंदी में ही बात करनी चाहिए, पर जो हिंदी नहीं बोल-समझ सकते वहाँ अँग्रेजी बोलनी मजबूरी है तो बोलनी चाहिए। मैं ऐसा ही करता हूँ।आज ऐसा सोचने वाले कितने हैं?            उनसे हिंदी में अनुवाद करवाने के लिए बहुत लोग आते थे और उसके लिए वह बहुत ही कम पैसे लिया करते थे। कोई-कोई स्वयं पैसे पूछ कर काम करवाता और पैसे देने का नाम न लेता। मैं कहती… आपने अपना समय लगा कर काम किया और उसने पैसे भी नहीं नहीं दिए तो हमारा क्या लाभ हुआ? उलटा नुकसान ही हुआ। तो वह कहते… नुकसान तो हो ही नहीं सकता।मैं पूछती कैसे… तो वह बताते… मेरा किया अनुवाद जब वह व्यक्ति छपवायेगा तो उसे बहुत सारे लोग पढ़ेंगे, तो यह मेरी हिंदी का प्रचार-प्रसार ही हुआ, तो इसमें नुकसान कहाँ? लाभ ही लाभ है। पैसा तो केवल मुझ तक पहुँचता है, पर मेरे किये अनुवाद से हिंदी बहुत लोगों तक पहुँचती है। ऐसी थी अपनी हिंदी माँ के प्रति उनकी सोच…. जिसने मेरे अंदर भी हिंदी प्रेम इतना विकसित किया कि बी.ए. करते समय मैं संस्कृत में एम.ए. करना चाहती थी, पर बी.ए. करने के बाद मैंने एम.ए. हिंदी में प्रवेश लिया था।              मेरे पिता ने कभी भी उपहार में मुझे पैसे-कपड़े नहीं दिये। वे हमेशा यहीं कहा करते थे कि मेरी पुस्तकों का संग्रह ही तुम्हारे लिए मेरा उपहार है, जिसका उपयोग केवल तुम ही मेरे साथ भी और मेरे चले जाने के बाद भी, करोगी। आज वे ही मेरी अमूल्य निधि हैं।            ऐसे ही हिंदीमय वातावरण में पलते-बढ़ते-पढ़ते मेरी कल्पनाओं ने भी अपने पंख पसारने आरंभ कर दिये थे और मेरी कॉपी छोटी-छोटी कविता, कहानी और लेखों से भरने लगी थी।            अपने पापा से मिली हिंदी प्रेम और साहित्य की विरासत से मुझमें भी छोटे-छोटे विचारों को मूर्त करने के लिए निर्णय लेने -कहने की क्षमता आने लगी।            मैंने अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में हिंदी अध्यापिका ( टी.जी. टी.) के रूप में चौबीस वर्ष तक कार्य किया। वहाँ सिल्ले उच्च माध्यमिक विद्यालय में विद्यालय पत्रिका निकलती थी जिसमें अँग्रेजी और स्थानीय बोली की रोमन में लिखी रचनायें ही ली जाती थीं। मैंने उसमें हिंदी विभाग भी रखवाया और विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करके छोटी छोटी कवितायें, कहानियाँ लिखवाई, उन्हें … Read more

बॉर्डर वाली साड़ी

बेटियाँ पराया धन होती हैं | मायके पर उनका अधिकार शादी के बाद खत्म हो जाता है …. लेने का ही नहीं देने का भी | ये परिभाषा मुझे बॉर्डर वाली साड़ी  ने सिखाई | बॉर्डर वाली साड़ी ये वो दिन थे जब सूरज इतना नही तपता था , पर एक और तपिश थी जिसे बहुधा औरतें अपने मन में दबाये रहतीं थी … बहुत जलती थीं  पर आधी आबादी ने इसे अपना भाग्य मान लिया था | उन दिनों , हां , उन्हीं में से कुछ  दिनों में जब बॉर्डर वाली साड़ी बहुत फैशन में थी और अपने कपड़ों पर कभी ध्यान न देने वाली माँ की इच्छा बॉर्डर वाली साड़ी खरीदने की हुई | वो हर दुकान पर बॉर्डर वाली साड़ी को गौर से देखतीं , प्यार से सहलातीं और आगे बढ़ जातीं | न कोई फरमाइश न रूठना मनाना | बड़ी ही सावधानी से अपने चारों  ओर एक वृत्त खींचती आई हैं औरतें , जिसमें वो अपने जाने कितने अरमान छुपा लेतीं हैं | इस वृत्त में किसी का भी प्रवेश वर्जित है …खुद उनका भी | ये वो समय था , जब  हमारा घर बन रहा  था ,  खर्चे बहुत  थे | उस पर हम पढने वाले भाई –बहन , कभी पढाई का कभी त्योहारों का तो कभी बीमारी अतिरिक्त खर्चा आ ही जाता | इसलिए माँ भी अन्य औरतों की तरह  खुद ही अपनी इच्छा स्थगित कर देतीं  | बुआ, चाची वैगेरह जब भी बॉर्डर वाली  साड़ी पहन कर आती माँ बहुत ध्यान से देखतीं , खुले दिल से प्रशंसा करती पर अपने लिए नहीं कहतीं |  समय बीता और एक दिन वो भी आया जब माँ के लिए बॉर्डर वाली साड़ी आई ,पर  जब तक माँ के लिए बॉर्डर वाली साडी आई तब तक उसका फैशन जा चुका था | ज्यादातर महिलाओं ने अपनी बॉर्डर वाली साड़ी अपनी  कामवालियों को दे दी थी | हर दूसरी कामवाली वही पहने दिखती | माँ ने जब वो साड़ी पहली बार पहनी तो हर कोई टोंकता अरे , ये क्या पहन ली , अब तो ये कोई पहनता नहीं , हमने तो अपनी काम वाली को दे दी | दो चार बार पहन कर माँ ने भी वो साड़ी  किसी को दे दी | माँ ने तब भी कोई शिकायत नहीं की पर मेरे मन में एक टीस गड  गयीं | बाल बुद्धि में ये  सोचने लगी ,जब मैं बड़ी हो कर नौकरी करुँगी और जब फिर से बॉर्डर  वाली साड़ी का फैशन आएगा तो सबसे पहले माँ को ला कर दूँगी | समय अपनी रफ़्तार से गुजरता चला गया | संयोग से मेरी शादी के बाद एक बार फिर बॉर्डर वाली  साड़ी का फैशन आया | बचपन का सपना फिर से परवान चढ़ने लगा | मेरे पास स्वअर्जित धन भी था | बस फिर क्या था अपने सपने को सच्चाई का रंग देने के लिए  उसी दिन बाज़ार जा पहुंची | सैकड़ों साड़ियाँ उलट –पुलट डाली | कोई साड़ी पसंद ही नहीं आ रही थी या फिर दुनिया में कोई ऐसी साड़ी  बनी ही नहीं थी जिसमें मैं अपने सपने स्नेह और अरमान लपेट सकती | दिन भर की मशक्कत और धूप  में पसीना –पसीना होने के बाद आखिरकार एक साड़ी मिली जिसका रंग मेरे सपनों के रंग से मेल खाता था | झटपट पैक करायी | जब तक वो साड़ी मेरे घर में रही मैं रोज उसे पैकेट से निकाल कर निहारती और ये सोच कर खुश होती कि माँ कितनी खुश होंगी | अपनी कल्पनाओं में माँ को उस साड़ी को पहने हुए देखती … मुझे माँ रानी परी से कम न लगतीं | मुझे महसूस हो रहा था कि हर रोज वो साड़ी  मेरे स्नेह के भर से भारी होती जा रही थी | कल्पना के पन्नों से निकल कर वो दिन भी आया जब मैं  मायके गयी और माँ को वो  साड़ी दी | माँ की आँखे ख़ुशी से छलछला गयी , अरे अब तक याद है तुमें कहते हुए वो रुक गयीं , फिर बोलीं , “ ये मैं कैसे ले सकती हूँ , लड़की का कुछ लेना  ठीक नहीं है , परंपरा के खिलाफ है , तुम पहनों , तुम पर अच्छी लगेगी | हम दोनों की आँखों में आंसूं थे |  मुझे लगा समय रुक गया है , बाहर की सारी  आवाजे सुनाई देना बंद हो गयीं ,केवल एक ही आवाज़ आ रही थी अन्दर से … बहुत अंदर से … हाँ माँ  … मैं अब इस घर की बेटी कहाँ रही , मैं तो दान कर दी गयी हूँ , परायी हो गयी हूँ | मेरे और माँ के बीच में परंपरा खड़ी थी | मैं जानती थी आस्था को तर्क  से काटने के सारे उपाय विफल होंगे | मैंने माँ की गोद में मुँह छिपा लिया , ठीक उस बच्चे की तरह जो माँ की मार से बचने के लिए माँ से ही जा चिपकता है |  दो औरतें जो एक दूसरे का दर्द समझती थीं पर असहाय थीं  क्योंकि एक परंपरा के आगे विवश थी और दूसरी विफल |  तभी पिताजी आये | बिना कुछ कहे वो समझ गए | पिता में भी एक माँ का दिल होता है | माँ से बोले , “ क्यों बिटिया का दिल छोटा करती हो , ले लो , परंपरा है , ये  बात सही है तो दो की चीज चार में ले लो , बिटिया का मन भी रह जाएगा और परंपरा भी | मुझे ये बिलकुल वैसा ही लगा जैसे कीचड में ऊपर से नीचे तक सने व्यक्ति को दो बूँद गंगा जल छिड़क कर पवित्र मान लिया जाता है | फिर भी मैंने स्वीकृति में सर हिला दिया क्योंकि उस साड़ी को वापस लाने की हिम्मत मुझमें नहीं थी | मुझे उस साड़ी के बदले में एक कीमती उपहार मिल चुका था | मेरे  वापस जाने वाले दिन माँ ने वो साड़ी पहनी | सच में माँ बिलकुल मेरे सपनों की परी जैसी लग रहीं थी | मेरी आँखे बार –बार भर रहीं थी |  सब कुछ धुंधला दिखने के बावजूद एक चीज मुझे साफ़ –साफ़ दिख रही थी ….माँ की साड़ी से निकला हुआ … Read more

मैं , महेंद्र सिंह धोनी , क्रिकेट और बच्चों का कैरियर

अगर आप जीवन में कुछ करना चाहते हैं , कुछ बनना चाहते हैं तो आपको बहुत पढाई करनी होगी | बचपन में ऐसी  ही सोच –समझ ज्यादातर लोगों की तरह मेरे दिमाग में भी थी | परन्तु क्रिकेट के पूर्व कप्तान महेंद्र सिंह धोनी के साहस , लगन और कठोर परिश्रम ने मेरी सोच को बदल दिया | मैं , महेंद्र सिंह धोनी , क्रिकेट और बच्चों का कैरियर  अभी हाल में ही फुटबॉल का ‘वर्ल्ड कप “ खत्म हुआ | आज खेलों के प्रति पैशन बढ़ रहा है | न सिर्फ देखने का बल्कि खेलने का भी | क्योंकि अब सब को समझ आ गया है कि खेल हो नृत्य हो , या कोई और कला … हर किसी में कैरियर बन सकता है धन आ सकता है | ऐसे में मुझे वो समय याद आता है जब नानाजी हम लोगों को रटाया करते थे , “खेलोगे कूदोगे तो होगे ख़राब , पढोगे लिखोगे तो बनोगे नबाब “ धीरे –धीरे ये बात दिमाग में बैठती गयी  या नवाब बनने के लालच में कूदने वाली  रस्सी , खो –खो , विष अमृत , पोषम पा सब को छोड़कर किताबो से दोस्ती कर ली |  खेलोगे कूदोगे होगे खराब   खेलोगे कूदोगे होगे खराब की विचारधारा के साथ हम बड़े होने लगे | पति भी (IIT, कानपुर  से ) पढ़ाकू किस्म के जीव मिले | ये अलग बात है कि उनकी रूचि साइंस और टेकनोलोजी विषय में रहती है और हम विज्ञानं से लेकर कर साहित्य , सुगम साहित्य , असाहित्य कुछ भी पढ़ डालते | पढने की आदत का आलम ये है कि आज़ भी अगर घर लौटने  में थोड़ी देर हो जाए तो बच्चे मजाक बनाते है कि मम्मी लगता है मूंगफली वाले ने अख़बार का बना जो ठोंगा दिया था आप उसकी कहानी पढ़ने लगी | उनकी बात गलत भी नहीं है | अगर कुछ लिखा होता है तो हम पढ़ते जरूर हैं | खैर बात उन दिनों की हो रही है जब हम सिर्फ पढाई को ही अच्छा समझते थे | ऐसा नहीं है कि खेल और खिलाड़ियों के बारे में हम जानते नहीं थे | कई मैच भी देखे थे | हमें वर्ल्ड कप का वो  फाइनल की भी याद है जिसमें कपिल देव की कप्तानी में भारत ने पहला वर्ल्ड कप जीता था | हम उस समय छोटे थे , कई पड़ोसी भी हमारे घर आये हुए थे और हर बॉल  में हम लोग हाथ जोड़ रहे थे कि इस में छक्का पड़ जाए | काफी समय तक क्रिकेट में हमारी रूचि भी इसी लिए रही कि इसमें हमारा देश जीतता है | खिलाड़ियों के प्रति श्रद्धा  भाव था पर एक खिलाड़ी बनने में कितनी संघर्ष और कितनी मेहनत है इस बारे में हम सोचते नहीं थे | महेंद्र सिंह धोनी के घर के सामने मेरा फ़्लैट  बात  तब की है, जब  शादी के तुरंत बाद हम पति के साथ रांची “ श्यामली कॉलोनी “ में रहने गए | नयी गृहस्थी  थी ज्यादा काम था नहीं , उस पर सुबह जल्दी उठने की आदत …. पति की नींद न खुल जाए ये सोच  सीधे बालकनी की शरण में ही जाते | सामने महेंद्र सिंह धोनी का फ़्लैट था | उस समय वो नव-युवा थे और हम लोगों की जान –पहचान नहीं हुई थी | मैं देखा करती थी कि सुबह चार-पाँच  बजे उसके दोस्त बुलाने आ जाते और वो बैट  ले कर निकल पड़ते  | कभी –कभी उसकी माँ और बहन भी नीचे छोड़ने आती , पिताजी नहीं आते थे | क्योंकि मैं पढाई को ही ऊपर रखती थी और लगता था अच्छा कैरियर बनाने के लिए पढना बहुत जरूरी है,  इसलिए मेरे दिमाग में बस एक ही बात आती ये लड़का बिलकुल पढ़ता  नहीं है , बस खेलता रहता है जरूर फेल हो जाएगा | तुरंत मेरी  कथा -बुद्धि सक्रिय हो जाती , पिताजी नहीं आते हैं , जरूर वो डाँटते होगे पर माँ और बहन पक्ष ले लेती होंगीं | अक्सर ऐसा ही होता है , माँ के लाड़ से बच्चे बिगड़ जाते हैं | एक दिन यही बात अपने पति से कह दी , “ ये सामने वालों का लड़का बिलकुल पढता –लिखता नहीं है बस खेलता रहता है , जरूर फेल हो जाएगा | पति हंसने लगे और बोले , “ अरे वो रणजी में खेलता है , पूरे रांची को उस पर नाज़ है , इंडियन टीम में आ सकता है | उस समय से धोनी को देखने का दृष्टिकोण थोडा बदलने लगा | थोड़ी बातचीत भी हुई | एक खिलाड़ी को बनने में कितना संघर्ष करना पड़ता है यह बारीकी से देखने और समझने का मौका मिला | अब सुबह चार –साढ़े  चार बजे बैट ले कर निकलता  धोनी मुझे अर्जुन से कम न लगता | उफ़ , हर क्षेत्र में कितनी मेहनत  है | मेरा नजरिया बदलने लगा | मुझे लगने लगा खेल हो सिनेमा हो , कोई अन्य  कला हो , व्यापार हो या पढाई …. सब में सफलता के लिए कुछ बेसिक नियम लगते हैं वो हैं … जूनून, कठोर परिश्रम , असफलता को झटक कर फिर से मैदान में उतरना , और लेज़र शार्प फोकस | बच्चों को न उतारे प्रतिशत की रेस में  आज हम सब जानते हैं कि पढाई के प्रतिशत के अतिरिक्त भी बहुत सारी  संभावनाएं है | फिर भी हम सब ने अपने बच्चों को प्रतिशत की रेस में उतार दिया है बच्चा लायक है नहीं लायक है , दौड़ सकता है नहीं दौड़ सकता है पर रेस में भागने को विवश है | मेरा नज़रिया धोनी की वजह से बदला था हालांकि जब तक धोनी इंडियन टीम में सिलेक्ट हुआ हम राँची  छोड़ चुके थे | फिर और लोगों की सफलता पर भी गौर किया | दरअसल हर बच्चे में एक अलग तरह की प्रतिभा होती है | कई बार माता –पिता यहाँ तक कि बच्चे भी उससे अनभिज्ञ रहते हैं | हर बच्चे का कुछ पैशन हो या ये समय पर समझ आ जाए ये जरूरी भी नहीं है , इसलिए भीड़ कुछ ख़ास प्रतियोगी परीक्षाओं की तरफ ही भागती है | यहाँ पूरा दोष माता -पिता को भी … Read more

आप पढेंगे न पापा

पिता होते हैं अन्तरिक्ष की तरह….. जो व्यक्तित्व को विस्तार देते हैं , जहाँ माँ सींचती है प्रेम से और संतान में में भारती है दया क्षमा प्रेम के गुण वहीँ पिता देते हैं जीवन को दृढ़ता …आज भले ही मेरे पिता स्थूल रूप में मेरे पास नहीं हैं पर अपने विचारों के माध्यम से मेरे पास हैं…. आप पढेंगे न पापा  नन्हे -नन्हे पाँव जब लडखड़ा कर रखे थे धरती पर  तब आप ने ही थाम लिया थासिखाया था चलना दिया था हौसला चट्टानों से टकराने का कूट -कूट कर भरी थी आशावादिता ,आत्मविश्वास सिखाई थी जीवन की हर ऊँच -नीच पर पापा ये क्यों नहीं सिखाया की जब चला जाता है कोई अपना यूही बीच डगर में छोड़ कर कैसे रोकते हैं आंसुओं का सैलाब कैसे बंद करते हैं यादों को किसी बक्से में कैसे जुड़ते हैं टूट कर हो कर आधे -अधूरे जीते हैं महज जीवन चलाने के लिए ……….. तुम चिंता क्यों करती हो , बच्चों को माता –पिता के होते चिंता नहीं करनी चाहिए , हम हैं न देख लेंगे सब ,  “ पिताजी का एक वाक्य किसी तेज हवा के झोंके की तरह न जाने कैसे मेरी सारी चिंताएं पल भर में उड़ा के ले जाता | धीरे –धीरे आदत सी पड़ गयी , पिताजी हैं न सब देख लेंगें | लेकिन वक्त की आँधी जो पिताजी के वायदे से भी ज्यादा तेज थी सब कुछ तहस -नहस कर गयी  | मैंने तो अभी चिंता करना सीखा ही नहीं था | पिताजी हैं न सब देख लेंगे के आवरण तले मैं मैं कितनी महफूज थी , इसका पता तब चला जब ये आवरण  हट गया | मेरा ह्रदय भले ही चीख रहा हो , पर मैं ये आसमानी वार झेलने को विवश थी , दिमाग कितना कुछ भी समझता रहे ,पर मन इतना समझदार नहीं होता  ये झटका मन नहीं झेल पाया , गहरे अवसाद में खींच ले गया | जीवन  से विरक्ति सी हो गयी थी |  मुझे इस गहन वेदना से निकलने में तीन –चार वर्ष लगे | आज पितृ दिवस पर एक स्मृति साझा करना चाहती हूँ | यह स्मृति मेरे लेखन से ही सम्बंधित है | बात तब की है जब मैं कक्षा जब कक्षा चार में थी और मैंने पहली कविता लिखी थी , सबसे पहले दौड़ कर पिताजी को ही दिखाई थी क्योंकि उस समय  घर में पिताजी ही साहित्यिक रूचि रखते थे |कविता पढ़ कर  पिताजी की प्रसन्नता का ठिकाना नहीं था |  हर आये गए को दिखाते , देखो इत्ती सी है और इतना बढ़िया लिखा है | फिर मुझसे लाड़ से कहते “ तुम लिखा करो|” पर मैं बाल सुलभ उनकी बात हंसी में उड़ा देती | लिखती पर निजी डायरियों में, और पिताजी उनको खोज –खोज कर पढ़ते | उस पर बात करते , कभी प्रशंसा करते , कभी सलाह देते |   जब तक वो जीवित रहे ,वो  कहते रहे और मैं, “कभी लिखूंगी” सोच कर टालती रही |  घर –परिवार ससुराल की  तमाम  जिम्मेदारियों व् कुछ अन्य कारणों को निभाने के बीच पिताजी की ये इच्छा टलती ही रही | कल कर देंगे , कहते हुए हम सब यह समझने की भूल कर जाते हैं कि हमारे अपने सदा के लिए हमारे साथ होंगे , हर रात नींद के आगोश में जाते हुए हम कहाँ  सोच पाते हैं कि कुछ रातों की सुबह नहीं होती है |  आश्चर्य कि लोग  चले जाते है पर यक्ष प्रश्न जीवित रहता है सदा , सर्वदा …..और पीछे छोड़ देता है एक अंतहीन सूनापन | ऐसे ही पिताजी के उस लोक जाने के बाद जब रिक्तता का  एक आकाश मेंरे  ह्रदय में उतर गया तो खुद को सँभालने के लिए कलम  खुद ब खुद चल पड़ी |  सैंकड़ों कवितायें लिखी पिताजी पर …. आज भी वो कविताएं , मेरे दर्द का लेखा –जोखा मेरी निजी सम्पत्ति है | शायद  पिताजी की इच्छा ही थी कि वो सब लिखते –लिखते मैं सार्वजानिक लेखन में बिना किसी पूर्व योजना के आ गयी और पिताजी के आशीर्वाद से शुरुआत से ही आप सभी  पाठकों ने मेरे लेखन को  स्नेह दिया |  एक बात जो मैं आज आप सब से साझा करना चाहती हूँ कि शुरू शरू में जब भी कोई कविता  फेसबुक पर डालती तो आंसू थमने का नाम नहीं लेते , एक हुक सी  मन में भरती , “ काश पिताजी देख पाते” |परिवार के लोग समझाते  वो जहाँ हैं वहां से देख रहे होंगे “| सही या गलत पर धीरे -धीरे मैं ऐसा समझने की कोशिश करने लगी जिससे यह मलहम मेरे घावों की जलन कुछ कम कर सके | फिर भी ये ” काश ” बीच -बीच में फन उठा कर डसता रहता है |  यादों का पिटारा खुल चुका है … ख़ुशी और गम दोनों ही स्मृतियाँ दर्द दे रही है .. प्रवाह रोकना  मुश्किल है | आज इतना ही , पर अभी बहुत लिखना है …बहुत … आप जहाँ हैं वहां से पढेंगे न पापा  …. बताइये … पढेंगे ना | वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … पिता को याद करते हुए अपने पापा की गुडिया वो 22 दिन लघु कथा -याद पापा की आपको  लेख “   आप पढेंगे न पापा  .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- father’s day, papa, father-daughter, memoirs

झाड़ू वाले की नकली बीबी और मेरे 500 रुपये

इतिहास गवाह है कि कालिदास हो, अल्वा एडिसन या आइन्स्टाइन सबने  शुरुआत में बहुत मूर्खताएं की हैं, मने मेरी मुर्खताको  बुद्धिमानी की और बढ़ता कदम ही समझना चाहिए |  यूँ तो लोगों के दर्द भरे किस्से सुन कर मूर्ख बनने की मूर्खताएं मैंने कई बार की हैं पर जो किस्सा मैं शेयर करने जा रही हूँ वो गर्म कड़ाही से उतरी जलेबी की तरह बिलकुल ताज़ा और घूमा हुआ है | बात पिछली एक मार्च की है, सुबह का समय था, तभी किसी ने मेरा दरवाज़ा खटखटाया |  झाड़ू वाले की नकली बीबी और 500 रुपये  दरवाज़ा खोलते ही एक औरत रोते हुए दिखी| मुझे देखकर बोली ,”कल रात  मेरा आदमी मर गया, यही आप के मुहल्ले की सड़क पर झाड़ू लगाता था “| ओह, वो सफाई वाला, अभी परसों तो देखा था,अच्छा भला था |  मेरा दिल धक् से रह गया| मन में ख्याल आने लगे  इंसान का क्या भरोसा ,आज है , कल नहीं है |  मुझे द्रवित देख वो बोली,” कफ़न के पैसे भी नहीं है, कुछ मदद कर दीजिये | बचपन से पढ़े पाठ दिमाग में कौंध गए, पैसा क्या है हाथ का मैल है | मैंने,  200 का नोट दिया |पैसे देख कर उसका रुदन गेय हो गया, ,” इत्ते में क्या होगा, लाश घर पर पड़ी है … हाय माईईई , मैंने  उसे दोबारा अपने हाथों की तरफ देखा, अब इतना मैल तो मेरे हाथ में भी नहीं था, इसलिए अलमारी से निकाल 300 और दिए |  वो रोती हुई चली गयी और मैं पूरा दिन शमशान वैराग्य में डूबी बिस्तर पर पड़ी रही, तारीख गवाह है कि उस दिन मैंने fb भी नहीं खोली |  ठीक दो दिन बाद, चार मार्च की सुबह फिर दरवाजा  खटका| खोलने पर सामने सडक पर झाड़ू लगाने वाला खड़ा था| मुझे देख कर दांत दिखाते हुए बोला ,” होली की त्यौहारी | मुझे माजरा समझते देर न लगी , कोई अजनबी औरत इसकी पत्नी बन  मुझे मूर्ख  बना गयी थी |  पछतावा तो बहुत हुआ पर मैं उस झाड़ू वाले से ये तो नहीं कह सकती थी कि ,” अभी तो तुम्हारे कफ़न के पैसे दिए हैं , त्यौहारी  किस मुँह से मांग रहे हो ?  उसे पैसे दे , सोफे पर पसर ,सोंचने लगी … सच  , आदमी का कोई भरोसा नहीं, आज है , कल नहीं है … परसों फिर है   वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें .. इतना प्रैक्टिकल होना भी सही नहीं जिंदगी का चौराहा आंटी अंकल की पार्टी और महिला दिवस गोलगप्पा संस्कृति आपको  लेख “  झाड़ू वाले की नकली  बीबी और मेरे 500 रुपये  .. “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-kissa, idiot, memoirs, (ये रचना प्रभात खबर में प्रकाशित है )