रिश्तों में मिठास घोलते फैमिली फंक्शन

भतीजी की दूसरी वर्षगांठ पर अपने मायके बलिया जाने की तैयारी करते हुए पिछले वर्ष के स्मृति वन में खग मन विचरण रहा है ! पिछले वर्ष तीन दिनों के अंदर तीन जगह (  बलिया, जबलपुर, तथा हल्द्वानी ) आने का न्योता मिला था ! तीनों में किसी को भी छोड़ा नहीं जा सकता था! 21नवम्बर को बलिया  ( मायके ) में भतीजी का पहला जन्मदिन, 23, 24 नवम्बर जबलपुर में चचेरे देवर के बेटे का विवाह और तिलक, और 24, 25 नवम्बर को मेरे फुफेरे भाई के बेटे ( भतीजे ) का तिलक और विवाह !  काफी माथापच्ची तथा परिजनों के सुझावों के बाद हम निर्णय ले पाये कि कहाँ कैसे जाना है!  बलिया तो मात्र तीन चार घंटे का रास्ता है इसलिए वहाँ निजी वाहन से ही हम 21 नवम्बर के सुबह ही चलकर पहुंच गये ! चुकीं भतीजी का पहला जन्मदिन था तो बहुत से लोगों को आमन्त्रित किया गया था! सभी रिश्तेदार तो आये ही थे गाँव से गोतिया के चाचा चाची भी आये थे! उन लोगों से मिलकर काफी अच्छा लग रहा था क्योंकि कभी कोई चाची अपने पास बुला कर बात करतीं तो कभी कोई , ऐसा लग रहा था मानो मैं पुनः बचपन में लौट आई हूँ!  एक चाची तो बहुत प्रेम से अपने पास बुला कर कहने लगीं.. ऐ रीना अब बेटा के बियाह कर ! मैंने कहा हाँ चाची करूंगी अभी बेटा शादी के लिए तैयार नहीं है तो सोची कि कुछ टाइम दे ही दूँ! तो चाची समझाते हुए कहने लगीं रीना तू पागल हऊ, कवनो लइका लइकी अपने से बियाह करे के कहेला?  अब तू क द पतोहिया तोहरा संगे रही नू ( तुम बुद्धू हो, कोई लड़का लड़की खुद शादी करने को कहता है क्या..? शादी कर दोगी तो बहु तुम्हारे साथ रहेगी न..?)  चाची की ये बात सुनकर तो मुझे हँसी भी आने लगी कि जब बेटा ही बाहर रहता है तो  बहु कैसे मेरे साथ रह सकती है, लेकिन उनकी बातों को मैं हाँ में हाँ मिलाकर सुन रही थी और मजे ले रही थी !  खैर यात्रा का पहला पड़ाव जन्मदिन बहुत ही अच्छी तरह से सम्पन्न हुआ और मैं अपने साथ सुखद स्मृतियाँ लिये 22 नवम्बर को सुबह – सुबह ही पटना के लिए चल दी!  फिर 22 नवम्बर रात के ग्यारह बजे से दूसरी यात्रा जबलपुर के लिए ट्रेन से रवाना हुए हम और 23 नवम्बर को सुबह के करीब एक बजे पहुंचे!  तिलक शाम सात बजे से था ! बात ससुराल की थी इसलिए हम पाँच बजे ही तैयार वैयार होकर पहुंच गये विवाह स्थल पर ! वहाँ पहुंचते ही बड़े, बुजुर्गों तथा बच्चों के द्वारा स्नेह और अपनापन से जो स्वागत सत्कार हुआ उसका वर्णन शब्दों में कर पाना थोड़ा कठिन लग रहा है बस इतना ही कह सकती हूँ कि वहाँ मायके से भी अधिक अच्छा लग रहा था!  जैसे ही घर के अंदर पहुंच कर ड्राइंग रूम में सभी बड़ों को प्रणाम करके सोफे पर बैठी आशिर्वाद की झड़ी लग गई थी जिसे समेटने के लिए आँचल छोटा पड़ रहा था!  अभी चाय खत्म भी नहीं हुआ था कि एक चचिया सास आकर ए दुलहिन तबियत ठीक बा नू.. मैंने कहा हाँ…. तो बोलीं तनी ओठग्ह रह ( थोड़ा लेट लो ) मैने कहा नहीं नहीं बिल्कुल ठीक हूँ और मन में सोच रही थी कि ठीक न भी होती तो क्या तैयार होकर लेटने जाती.. अन्दर अन्दर थोड़ी हँसी भी आ रही थी..! तभी फिर से पाँच मिनट बाद आकर उसी बात की पुनरावृत्ति.. ए दुलहिन तनी ओठग्ह रह.. और फिर मैं मना करती रही…. यह ओठग्ह रह वाला पुनरावृति तो मैं जब तक थी हर पाँच दस मिनट बाद होता रहता था..यह कहकर कि तोहार ससुर कहले बाड़े कि किरन के तबियत ठीक ना रहेला तनी देखत रहिह (  किरण की तबीयत ठीक नहीं रहती है थोड़ा देखते रहना ) बस इतना ही तक नहीं  उस कार्यक्रम में मैं जहाँ जहाँ जाती वो चचिया सास जी बिल्कुल साये की तरह मेरे साथ होती थीं! और हर थोड़े अंतराल के बाद ओठग्ह रह और पानी चाय के लिए पूछने का क्रम चलता रहता था !  तिलक के बाद घर के देवी देवताओं की पूजा, हल्दी मटकोड़ आदि लेकर रात बारह बजे तक कार्यक्रम चला !  फिर हम सुबह जनेऊ में सम्मिलित होकर उन लोगों से बारात में सम्मिलित न हो पाने की विवशता बताकर क्षमा माँगते हुए  एयरपोर्ट के लिए निकल तो गये क्यों कि हल्द्वानी जाने के लिए दिल्ली पहुंचकर ही ट्रेन पकड़ना था लेकिन मन यहीं रह गया था! रास्ते भर वहाँ का अपनापन और प्रेम की बातें करके आनन्दित होते रहे हम!  हल्द्वानी भी पहुंचे!इतनी व्यस्ता और मना करने के बाद भी फुफेरे भैया हमें खुद स्टेशन से लेने आये थे ! यहाँ तो और भी इसलिए अच्छा लग रहा था कि बहुत से रिश्तेदारों से तीस बत्तीस वर्ष बाद मिल रही थी मैं इसलिए बात खत्म ही नहीं हो पा रही थी, सबसे बड़ी बात कि इतने अंतराल के बाद भी अपनापन और स्नेह में कोई कमी नहीं आई थी बल्कि और भी ज्यादा बढ़ गई थी!  मैं जब पहुंची थी तो मटकोड़ का कार्यक्रम चल रहा था!मैं जाकर भाभी का जब पैर छुई तो व्यस्त तो थीं ही बस यूँ ही खुश रहो बोल दीं! लेकिन जब ध्यान से देखीं तो बोलीं अरे रीना और आकर मुझसे लिपट गईं ! इसके अलावा भी बहुत कुछ है बताने को फिर कभी लिखूंगी !  सच में खून अपनी तरफ़ खींचता ही है चाहे कितनी ही दूरी क्यों न हो!  इतना जरूर कहूंगी कि अपने फैमिली फंक्शन को मिस नहीं करनी चाहिए ! किरण सिंह  फोटो क्रेडिट –विकिपीडिया यह भी पढ़ें ……… कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर हे ईश्वर क्या वो तुम थे 13 फरवरी 2006 आपको आपको  लेख “रिश्तों में मिठास घोलते  फैमिली फंक्शन “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

हे ईश्वर, क्या वो तुम थे

ईश्वर हैं की नहीं हैं | हम इस पर कभी न् खत्म  होने वाली बहस कर सकते हैं | पक्ष और विपक्ष में तरह – तरह की दलीले दे सकते हैं | पर जिसे दिल महसूस करता है उसे दिमाग तर्क से न कभी समझ पाया है न समझ पायेगा | ईश्वर , जो नहीं हो कर भी हैं , और हो कर भी नहीं हैं | उनके होने के अहसास को जिसने महसूस किया है | उसके सामने दिमाग के तमाम तर्क बेमानी हो जाते हैं बचपन में माँ के मुँह से अक्सर एक भजन सुना करतीं थी। …… “जहाँ गीध -निषाद का आदर है जहाँ व्याधि अजामिल का घर है उस घर मे वेश बदल कर के जा ठहरेंगे वो कभी न कभी “  बालसुलभ कौतूहलता से माँ से पूँछती “माँ क्या ऐसा होता है ,क्या भगवान आते है ,माँ स्नेह से मेरे सिर पर हाथ फेरते हुए कहती ,भगवन वेश बदल कर आते है किसी को माध्यम बना कर आते है | पर आते है ,इसी आस्था विश्वास के साथ मैं बड़ी होने लगी।जीवन में कुछ ऐसी घटनाऐ हुयी जिनसे मेरे इस विश्वास को बल मिला। उन्ही में से एक घटना मैं साझा कर रही हूँ। आज से करीब पाँच  साल पहले की बात है ………वो रविवार की एक आम सुबह थी ,मै हमेशा की तरह घर की विशेष सफाई के मूड मे थी क्योंकि सप्ताह के बाकि दिनों मे इतना समय नही मिलता और मेरे पति कुछ सामान लेने बाहर गये हुए थे,तभी अचानक फोन की घंटी बजी। …………उधर से आवाज आई ,आप श्रीमती बाजपेयी बोल रही है ,”जी” मैने कहा, उधर से स्वर सुनाई दिया “आप के पति का एक्सीडेंट हो गया है वो इस अस्पताल मे है आप जल्दी आ जाइये”। ,उसके बाद उन्होने क्या कहा मुझे सुनाई नहीं दिया ,मेरी चीख निकल गई , दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया,जल्दी -जल्दी में बस इतना समझ आया कि अस्पताल जाना है |  जितने पैसे मेरी पर्स मे आ सकते थे ड़ालकर , तमाम आशंकाओ से ग्रस्त मन के साथ ईश्वर  के नाम का जप करते हुए अस्पताल पहुँची। मैंने सुना था ,यह दिल साथ देना छोड़ देता है ,उस दिन पहली बार महसूस किया। मैं जो किसी दूसरे को दर्द तकलीफ मे नही देख पाती ,आपने पति को इस हलत मे देख कर बिल्कुल टूट गयी, मेरे दिल की धड़कने 150 /मिनट तक पहुँच गयी ,पसीना आने लगा ,आखों के आगे अंधेरा छाने लगा ,मै पति को क्या संभालती मैँ तो खुद खड़ी होने की स्थिति  मे नही रह गयी। मैं वही फर्श पर बैठ गयी।  तभी वो तीन लड़के (उम्र करीब 20 ,21 साल ) जो मेरे पति को अस्पताल ले कर आये थे , उनकी नजर मुझ पर गयी ,उन्होने तुरन्त डॉक्टर को बुलाया , डॉक्टर ने पल्पिटेशन देख कर एंटी एंग्जाइटी , बीटा ब्लॉकर्स की टैबलेट्स देकर मुझे आराम करने को कहा ,मैं इस हालत मे नही थी कि किसी को फ़ोन कर के बुलाऊ ,वही तीनो लड़के जो मध्यम वर्ग के लग रहे थे ,  मेरे पति के साथ लगे रहे , उनको X -RAY रूम तक ले जाना , जूते मोज़े उतारना, सारी दौड़ भाग  करीब चार घंटे तक करते रहे। तब तक मेरी हालत थोड़ी ठीक हुईं मैंने अपने परिचितों को फोन कर के बुला लिया।  फिर वो तीनों मेरे पास आ कर बोले “आंटी अब हम जा रहे है , मैंने उनसे उनके बारे में पूंछा तो उन्होंने बताया की वो CA की  कोचिंग कर रहे हैं | एक्सीडेंट के समय कोचिंग ही जा रहे थे | उन्होंने कोचिंग का नाम व् घर का पता बताया | मैंने भी अपने घर का पता ,अपना परिचय , पति का कार्ड देकर कभी घऱ आने को कहा।” फिर वो चले गए।  अस्पताल से डिस्चार्ज होते समय जब मैं काउंटर पर बिल देने गयी तब पता चला , अस्पताल में एडमिट करने में करीब 1500 का बिल वो लड़के भर गए हैँ।  मुझे आश्चर्य हुआ की उन्होंने मुझसे चलते समय अपने रूपये क्यों नहीं मांगे .। उस समय मैंने सोचा शायद घर आएं ,पता तो उनके पास् हैं. ,और मैं पति के साथ घर वापस आ गयी।  करीब पांच महीने का वो समय बहुत कठिन था ,एक पत्नी के रूप में शायद मेरे धैर्य ,सेँवा ओर सहनशक्ति की परीक्षा का समय थ।कामों के बोझ से दबी मैं हर ऱोज उनकी आने की प्रतीक्षा करती,हर ऱोज सोचतीं शायद आज आये ,कम से कम अपने पैसे तो ले जाये।मन पर भारी बोझ था | पर वो नहीं आये।  जब पति ठीक हो गये तो उनके साथ उस मुहल्ले में गयी ,उस पते पर कोई दूसरे लोग रहते थे , कोचिंग सेंटर गयी वहां पता चला इस नाम क़े लडके तो यहॉँ कभी पढेँ ही नहीं। बहुत खोज बीन की ,आज के समय में ऐसा कौन हो सक़ता है ,जो अपने रूपये छोड़ दे | जबकि दो – दो रूपये के लिए  लोग रिश्तेदारों को मारने – काटने दौड़ते हैं |  मन खुद से ही प्रश्न करता वो क्यों नहीं आये जबकी उनके पास  घऱ का पता था  । अन्तत : बड़े दुखी मन से हमने वो रूपये मंदिर में चढ़ा दिए। मंदिर से लौट कर मैं अन्मयस्क सी घर की सीढियाँ चढ़ती जा रही थी और सोचती जा रही थी ,हे प्रभु …. उस समय जब मुझे मदद की बहुत जरूरत थीं |  ,हे ईश्वर  क्या वेश बदल कर आने वाले वो तुम थे। …. क्या वो तुम थे।  घर के अन्दर से सासु माँ के भजन की आवाज़ आ रही थी।  “गिरने से जो प्रहलाद को तुम थाम न लेते भूले से कभी भक्त तेरा नाम न लेते “ और मेरा सर उस परमपिता के आगे श्रद्धा से झुक गया | अब मुझे किसी से पूँछने की जरूरत नहीं थी कि हे ईश्वर क्या वो तुम थे |  वंदना बाजपेयी  या भी पढ़ें …. मनसा वाचा कर्मणा – जाने रोजमर्रा के जीवन में क्या है कर्म और उसका फल संन्यास नहीं , रिश्तों का साथ निभाते हुए बने आध्यात्मिक मृत्यु सिखाती है कर्तव्य का पाठ आस्थाएं -तर्क से तय नहीं होती  आपको आपको  लेख “हे ईश्वर, क्या वो तुम थे “ कैसा … Read more

13 फरवरी 2006

10 फरवरी 2006 वेदना पिघल कर आँखों से छलकने को आतुर थीं.. पलकें अश्रुओं को सम्हालने में खुद को असहाय महसूस कर रही थीं…जी चाहता था कि कोई अकेला कुछ देर के लिए छोड़ देता कि जी भर के रो लेती……….फिर भी अभिनय कला में निपुण अधर मुस्कुराने में सफल हो रहीं थीं ..बहादुरी का खिताब जो मिला था उन्हें….! कैसे कोई समझ सकता था कि होठों को मुस्कुराने के लिए कितना परिश्रम करना पड़ रहा था…! किसी को क्या पता था कि सर्जरी से पहले सबसे हँस हँस कर मिलना और बच्चों के साथ घूमने निकलना , रेस्तरां में मनपसंद खाना खाते समय मेरे हृदय के पन्नों पर मस्तिष्क लेखनी बार बार एक पत्र लिख -लिख कर फाड़ रही थी… कि मेरे जाने के बाद……………..! 11 फरवरी 2006 11 फरवरी 2006 रात करीब आठ बजे बहन का फोन आया… पति ने बात करने के लिए कहा तब आखिरकार छलक ही पड़े थे नयनों से नीर…. और रूला ही दिए थे मेरे पूरे परिवार को… नहीं सो पाई थी  उस रात को मैं .. कि सुबह ओपेन हार्ट सर्जरी होना था…. सुबह स्ट्रेचर आता है… उसपर मुझे लेटा दिया जाता है…. कुछ दूर चलकर स्ट्रेचर वापस आता है कि सर्जरी आज नहीं होगा……! कुछ लोगों ने तो अफवाह फैला दी  थी  कि डॉक्टर नरेश त्रेहान इंडिया पाकिस्तान का क्रिकेट मैच देखने पाकिस्तान जा रहे हैं..! सर्जरी से तो डर ही रही थी | मुझे  बहाना मिल गया था हॉस्पिटल से भागने का…….. गुस्से से चिल्ला पड़ी थी मैं .. डॉक्टरों की टीम आ पहुंची थी मुझे समझाने के लिए | तभी डॉक्टर नरेश त्रेहान भी आ पहुंचे थे ,और समझाने लगे थे कि मुझे इमर्जेंसी में बाहर जाना पड़ रहा है… मैं चाहता हूँ कि मेरे प्रेजेन्स में ही आपकी सर्जरी हो…………… …..! 13 फरवरी 2006 13 फरवरी 2006 सुबह करीब ९ बजे स्कार्ट हार्ट हॉस्पिटल की नर्स ने जब स्ट्रेचर पर लिटाया और ऑपरेशन थियेटर की तरफ ले जाने लगी थी तो मुझे लग रहा था कि जल्लाद रुपी परिचारिकाएं मुझे फांसी के तख्ते तक ले जा रही हैं……… हृदय की धड़कने और भी तेजी से धड़क रही थी…. मन ही मन मैं सोंच रही थी शायद यह मेरे जीवन का अन्तिम दिन है…….जी भर कर देखना चाहती थी दुनिया को……… पर नजरें नहीं मिला पा रही थी परिजनों से कि कहीं मेरी आँखें छलककर मेरी पोल न खोल दें…….मैं खुद को बिलकुल निर्भीक दिखाने का अभिनय करती रही थी परिचारिकाएं ऑपरेशन थियेटर के दरवाजे के सामने स्ट्रेचर रोक देती हैं.. और तभी किसी यमदूत की तरह डाक्टर आते हैं..  स्ट्रेचर के साथ साथ डॉक्टर भी ऑपरेशन थियेटर में मेरे साथ चल रहे थे…. चलते चलते वे अपनी बातों में उलझाने लगे थे ..जैसे किसी चंचल बच्चे को रोचक कहानी सुनाकर बातों बातों में उलझा लिया जाता है.. ! डाक्टर  ने कहा किरण जी लगता है आप बहुत नाराज हैं..! मैने कहा हाँ.. क्यों न होऊं…? और मैं हॉस्पिटल की व्यवस्था को लेकर कुछ कुछ उलाहने.देने लगी थी . तथा इसी प्रकार की कुछ कुछ बातें किये जा रही थी..! मैने डाक्टर से पूछा बेहोश करके ही ऑपरेशन होगा न..? डाक्टर ने मजाकिया अंदाज में कहा अब मैं आपका होश में ही ऑपरेशन करके आपपर एक नया एक्सपेरिमेंट करता हूँ..! बातों ही बातों में डॉक्टर ने मुझे बेहोशी का इंजेक्शन दे दिया उसके बाद मुझे क्या हुआ कुछ पता नहीं..! 14 फरवरी 2006 करीब ३६ घंटे बाद १४ फरवरी  को मेरी आँखें रुक रुक कर खुल रही थी ..! आँखें खुलते ही सामने पतिदेव को खड़े देखा तब .मुझे विश्वास नहीं हो पा रहा था कि मैं सचमुच जीवित हूँ…!कहीं यह स्वप्न तो नहीं है यह सोचकर मैने  अपने पति के तरफ अपना हाँथ बढ़ाया..जब पति ने हांथ पकड़ा तब विश्वास हुआ कि मैं सचमुच जीवित हूँ..! तब मैं भूल गई थी उन सभी शारीरिक और मानसिक यातनाओं को जिन्हे मैंने सर्जरी के पूर्व झेला था ..! उस समय जिन्दगी और भी खूबसूरत लगने लगी थी ..वह हास्पीटल के रिकवरी रूम का वेलेंटाइन डे सबसे खूबसूरत दिन लग रहा था..! अपने भाई , बहनों , सहेलियों तथा सभी परिजनों का स्नेह.., माँ का अखंड दीप जलाना……, ससुराल में शिवमंदिर पर करीब ११ पंडितों द्वारा महामृत्युंजय का जाप कराना..,…… पिता , पति , और पुत्रों के द्वारा किया गया प्रयास… कैसे मुझे जाने देते इस सुन्दर संसार से..! वो सभी स्नेहिल अनुभूतियाँ मेरे नेत्रों को आज भी सजल कर रही हैं …. मैं उसे शब्दों में अभिव्यक्त नहीं कर पा रही…हूँ ! आज मुझे डॉक्टर देव , नर्स देवी , और स्कार्ट हार्ट हास्पिटल एक मंदिर लगता है..! एक सकारात्मक परिवर्तन की शुरुआत थी 13 फरवरी 2006 मुझे यही अनुभव हुआ कि समस्याओं से अधिक मनुष्य एक भयानक आशंका से घिर कर डरा होता है और ऐसी स्थिति में उसके अन्दर नकारात्मक भाव उत्पन्न होने लगता है जो कि सकारात्मक सोंचने ही नहीं देता है |  उसके ऊपर से हिन्दुस्तान में सभी डॉक्टर ही बन जाते हैं….! मैं अपने अनुभव के आधार पर यही कहना चाहती हूं कि स्वास्थ्य  सम्बन्धित समस्याओं के समाधान हेतु डॉक्टर के परामर्श पर चलें…. विज्ञान बहुत आगे बढ़ चुका है इसलिए भरोसा रखें डाॅक्टर पर………. आत्मविश्वास के लिए ईश्वर पर भी भरोसा रखें……. और सबसे पहले डॉक्टर और हास्पिटल का चयन में कोई समझौता न करें .! *************** किरण सिंह मित्रों सकारात्मक सोंच बहुत कुछ बदल देती है | जरूरी है हम ईश्वर  पर और अपने ऊपर विश्वास बनाये रखे | किरण सिंह जी का यह संस्मरण आपको कैसा लगा ? पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | फ्री ई मेल सबस्क्रिप्शन लें ताकि हमारी नयी पोस्ट सीधे आपके ई मेल पर पहुंचे |  यह भी पढ़ें …….. कलयुग में भी होते हैं श्रवण कुमार गुरु कीजे जान कर एक चिट्ठी साहित्यकार / साहित्यकार भाइयों बहनों के नाम २० पैसा

संस्मरणात्मक आलेख – कलियुग में भी होते हैं श्रवण कुमार

संस्मरणात्मक आलेख – कलियुग  में भी होते हैं श्रवण कुमार  अबतक तक हम घरों की विशेष साफ सफाई दीपावली से पहले लक्ष्मी जी के स्वागतार्थ करते आये हैं किन्तु काबिले तारीफ हैं आज की पीढ़ी जो अपने पेरेंट्स के स्वागतार्थ उनके आने की सूचना पाते ही घरों की साफ सफाई में लग जाते हैं ! धन्य हैं वे माता पिता जिनकी सन्ताने उन्हें इतना मान देतीं हैं! उन धन्य माताओं में से एक मैं भी हूँ! हुआ यूँ कि इस बार मार्च में होली के ठीक दो दिन पहले पतिदेव अचानक बंगलूरू जाने के लिए फ्लाइट का टिकट लेते आये थे  जबकि हमने अपने मायके और ससुराल  ( बलिया ) जाने की पूरी तैयारी कर ली थी लेकिन बात जब बच्चों के यहाँ जाने की थी तो मन में खुशी के साथ – साथ तन में अचानक स्फूर्ति भी भर गयी  और मैं बंगलूरू जाने की तैयारी करने लगी! चूंकि होली का समय था इसलिए गुझिया, लड्डू, नमकीन आदि जल्दी जल्दी में जितना भी हो सका अपनी सहायिका की सहायता से बनाकर फटाफट अपना बैग पैक कर ली ! पतिदेव तो चाहते थे कि इसबार चलो हम लोग ही बच्चों को सरप्राइज दें लेकिन मुझे डर था कि कहीं सरप्राइज के चक्कर में हम ही न सरप्राइज्ड हो जायें क्यों कि वीकेंड में तो इनलोगों का प्रोग्राम फिक्स रहता है कहीं घूमने का.. इसीलिए छोटे बेटे को बता दी थी यह कहकर कि अपने भाई को मत बताना उसको सरप्राइज देना है!लेकिन बात भाई – भाई की थी इसलिए छोटे भाई अपने बड़े भाई को यह बताने से कैसे चूकते कि पटना से उड़ाकादल आ रहा है भाई सजग हो जाओ !  बंगलूरू एयरपोर्ट पर जैसे ही फ्लाइट लैंड की बेटे का काॅल आ गया कि हम एयरपोर्ट आ गये हैं जबकि हमने कई बार मना किया था कि मत आना हम कैब लेकर आ जायेंगे! हम सामान लेकर बाहर निकले .. तभी देखा काले रंग की चमचमाती हुई गाड़ी हमारे सामने आकर रुकती है एक बेटा ड्राइविंग सीट पर है और दूसरा बेटा उतरकर हम लोगों का पैर छूकर झट से सामान डिक्की में रखा और हम चल दिये अपने गन्तव्य स्थल की तरफ़ ! गाड़ी में गाना हमारे ही पसंद का बज रहा था पतिदेव की प्रसन्नता उनके चेहरे पर स्पष्ट दिखाई दे रही थी !  कुछ दूर बढ़ते ही गाड़ी किसी फाइव स्टार होटल में रुकी ! खाना पीना वहीं हुआ ! पतिदेव अभी अपने पर्स से क्रेडिट कार्ड निकाल ही रहे थे कि बेटे ने अपने कार्ड पहले ही पेमेंट कर दिया!  खाने के बाद हम बेटों घर पहुंचे ! दरवाजा जैसे ही खुला चमचमाता हुआ फर्श और दिवारें  जैसे नये वस्त्र पहनकर हमारे स्वागत के लिए तैयार हो गयीं थीं! मेरे तो आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा कि आखिर इतना घर चमक कैसे रहा है लेकिन अपने कौतूहल को छुपाते हुए पहले खूब तारीफ़ कर दी! दोनों बेटे एकदूसरे को देखकर मुस्कुरा रहे थे!  अंत में छोटा बेटा धीरे से सफाई वाला राज खोल ही दिया !  बताया कि अब तो सारी सुविधाएँ आॅनलाइन उपलब्ध हैं ही इसलिए आपलोगों के आने की खबर सुनकर कल हमलोग छुट्टी ले लिये तथा एकदिन के अन्दर ही घर की साफ सफाई और पेंट पाॅलिश करा डाली! उसके बाद बेटों ने कहा जल्दी सो जाइये सुबह – सुबह ही हम लोग रामेश्वर और कन्या कुमारी चलेंगे यह सुनकर तो हम और भी खुश हो गये कि जो बेटे हमारे पूजा पाठ से इतना परेशान रहते हैं वे ही हमें खुद तीर्थ यात्रा पर ले जा रहे हैं! वैसे भी मैं जब भी बंगलूरू जाती हूँ पूजन सामग्री के साथ-साथ एक बोतल गंगाजल जरूर ले जाती हूँ सो इसबार भी ले गई थी और गंगाजल तो सबसे पहले ही रख ली !  बच्चों के साथ सफ़र वह भी उनके हिसाब से कुछ ज्यादा ही आनन्द दायक था!  मीनाक्षी मंदिर रास्ते में पहले ही पड़ रहा था सो वहाँ भी हम दर्शन  कर लिये! मंदिर की कलाकृति और भव्यता तो देखते ही बनती थी! रास्ते में खाते पीते रात में हम रामेश्वरम् पहुंचे! चौदह घंटे के सफ़र के बाद शरीर तो थककर चूर चूर हो गया था इसलिए जल्दी ही सो गये कि सुबह में मंदिर में आराम से दर्शन होगा!  सुबह तीन बजे अपनेआप नींद भी खुल गई तो हम नहा धोकर मंदिर में पहुंचे! मंदिर में दर्शन का फल क्या मिलेगा यह तो बाद की बात थी उस समय तो हम मंदिर की कलाकृति ही देखते रह गये , साथ-साथ पंडा मंदिर की कहानी सुना रहा था और मंदिर के हर कुंए से स्नान कर हम जल्दी जल्दी भगवान के दर्शन के लिए  हाथ में गंगाजल लेकर लाइन में लग गये ! गंगाजल देखकर मंदिर का पंडा बहुत खुश हुआ और सबसे पहले हमारे द्वारा ले गये गंगाजल से अभिषेक हुआ जिसे हम ईश्वरीय कृपा ही समझ रहे थे!  रामेश्वरम् दर्शन के उपरान्त रामसेतु और कन्या कुमारी के लिए निकल पड़े! गाड़ी सड़क पर और सड़क के दोनों किनारे हिन्द महासागर और बंगाल की खाड़ी का खूबसूरत दृश्य कुछ स्वर्ग सा ही एहसास करवा रहा था! तीर्थ यात्रा बहुत ही सुखद और खास रही क्यों कि बेटों ने करवाई थी!  फिर हम कैसे कह सकते हैं कि श्रवण कुमार सिर्फ सतयुग में ही पैदा हुए हैं! हाँ सतयुग के श्रवण कुमार कांवड़ पर बिठा कर अपने माता-पिता को तीर्थ यात्रा करवाए तो कलियुग के बेटे गाड़ी से  !  ©किरण सिंह  यह भी पढ़ें … आस्था का पर्व – अहोई अष्टमी टाइम है मम्मी

संस्मरणात्मक आलेख ~आस्था का पर्व – अहोई अष्टमी

कुछ यादें अहोई अष्टमी की  शरद पूर्णिमा की अमृतमयी खीर का आस्वादन करने के पश्चात् दांपत्य प्रेम में प्रेम के इंद्रधनुषी रंग भरने के लिए करवाचौथ ने घर की देहरी पर आहट कर आँगन में प्रवेश किया। उन रंगों में अभी विचरण कर ही रहे थे कि आस्था ओर विश्वास के, परिवार और संतान के कल्याण की कामना को अपने में समाये हुए “अहोई अष्टमी” के पर्व ने हमारे घर-आँगन में अपनी सुगंध बिखराई।             स्मृतियों के संसार में प्रवेश करती हूँ तो एक बहुत सुखद अहसास मन में हिलोरें लेने लगता है। मेरी माँ को इन पर्व-त्योहारों में बहुत आस्था थी। वे बहुत मन से, पूरी निष्ठा से अपने त्योहारों को परंपरागत रूप में मनाया करती थी। आज की तरह हर चीज़ बाज़ार से लाने का तब चलन नहीं था। सब कुछ घर में बनाया जाता था। उनके इस बनाने के आयोजनों में मैं और पापा शामिल रहा करते थे। आज तो सब अहोई अष्टमी का कैलेंडर लाकर लगते हैं ताकि दीवारों के रंग-रोगन पर आँच न आए। पर तब दीवार पर गेरू से अहोई माता का चित्र बनाया करते थे। माँ के पास एक काग़ज़ पर पेन्सल से बना हुआ चित्र रखा रहता था। मैं उस दिन प्रसन्नता और उत्साह में अपने विद्यालय की छुट्टी कर दिया करती। बड़े मनोयोग से पहले पेन्सल से दीवार पर चित्र बनती, फिर गेरू से रंग भारती। पूरा बन जाने पर माँ-पापा से जो शाबाशी मिलती….वह मेरे लिए किसी अनमोल उपहार की तरह होती थी।                माँ का उपवास होता था तो उस दिन शाम को मैं ही खाना बनाती। क्या-क्या सब्ज़ियाँ बनेंगी…यह सुबह ही निश्चित हो जाता था। आलू गोभी, कद्दू की सब्ज़ी, छोले, खीरे या बूंदी का रायता और पूरी। मुझे उस दिन खाना बनाने में बहुत आनंद आता। गुलगुले और मीठी मठरी माँ ही बनती। हर वर्ष चाँदी के दो मोती अहोई माता का माला  में डालती जिसे वे पूजा करते समय पहनती। हम तीनों बहन-भाइयों के लिए सूखे मेवों की माला बना कर पूजा के समय पहनाती थी।शाम को चार बजे के बाद माँ के साथ बैठ कर मैं और पापा अहोई अष्टमी की कथा सुनते। उसके बाद पापा ही माँ के लिए ज़्यादा दूध वाली चाय बनाते। हम सब तारों के निकलने की प्रतीक्षा करते रहते।  जैसे ही तारा दिखाई देता तो मैं दौड़ कर माँ को सूचना देती….तारा निकल गया माँ! चलो अर्ध्य की तैयारी करो जल्दी। दीप जला,अहोई माता की पूजा कर, तारों को अर्ध्य देकर जब हम सब अंदर आते तब माँ के बनाए गुलगुले-मठरी एक धागे में पिरोये रहते। उसका एक छोर माँ और एक छोर पापा पकड़े रहते और माँ हमें आवाज़ लगाती….आओ बच्चों! गुलगुले-मठरी तोड़ लो….और हम तीनों बहन-भाई छीना-झपटी में लीन हो जाते। आज वो दृश्य जब मेरी आँखों के सम्मुख कल्पनाओं में आता है तो बरबस होंठों पर मुस्कराहट तैर जाती है। पड़ोस में अहोई अष्टमी का प्रसाद देने के बाद हम सब मिल कर खाना खाते हुए दिवाली की तैयारियों के बारे में बात करते रहते। जब तक हम बच्चे अपने-अपने पैरों पर खड़े नहीं हुए थे तब तक त्योहारों का एक अलग ही आनंद था। धीरे-धीरे पढ़ाई पूरी होने के बाद अपनी-अपनी नौकरियों में हम सब बाहर निकल गये, फिर विवाह हो गए, सबकी प्राथमिकताएँ बदल गयीं।  बहुत मुश्किल से किसी त्योहार पर सब इकट्ठे हो पाते थे। ले-देकर माँ-पापा दोनों उसी निष्ठा, विश्वास, उत्साह से त्योहारों के रंगों को जीते रहे। अब ये सब बातें एक याद बन कर रह गयीं हैं। आज माँ-पापा दोनों नहि हैं। अब जब मैं इन त्योहारों को मनाती हूँ तो उसी उत्साह को जीने का प्रयत्न करती हूँ क्योंकि बेटी विवाह के बाद ससुराल में है और बेटा अपने बिज़नेस के कारण नोएडा में है। हम भी अब अधिकतर दो ही रह जाते हैं। यूँ बेटा कोशिश तो करता है की त्योहार के अवसर पर हमारे साथ रहे।                 परिवर्तन शाश्वत है। प्रकृति के उसी नियमके अनुसार सभी त्योहारों में भी परिवर्तन आया है। इस बदले हुए रूप में भी त्योहार आकर्षित तो करते ही हैं,आनंद और उल्लास भी मन को प्रसन्नता देते हैं। फ़िट रहने की प्रतिबद्धता में गुलगुले, मठरी, पूरी,हलवा आदि शगुन के रूप में ही बनते और कम ही खाए जाते हैं। शारीरिक श्रम कम होने के चलते यह प्रतिबद्धता भी आवश्यक लगती है। पहले फ़ोटो का इतना चलन नहीं था। फ़ोटोग्राफ़रों के यहाँ विचार बना कर जाते और एक- दो फ़ोटो खिंचवा कर आ जाते थे और यह भी बहुत महँगा सौदा लगता था। आज मोबाइल के कैमरों ने फ़ोटो खिंचना इतना सरल बना दिया है कि हम जीवन के मूल्यवान क्षणों को आसानी से सहेज कर रख सकते हैं। फ़ेसबुक पर लिख कर जब साथ में हम फ़ोटो भी पोस्ट करते हैं, व्हाट्सअप पर अपने मित्रों से शेयर करते हैं तो भी बहुत प्रसन्नता होती है।              इस बदले हुए रूप में भी हमारे इन त्योहारों की अस्मिता बनी हुई है और बच्चे प्रयत्न करके जब किसी भी त्योहार पर आते हैं तो उस समय प्रसन्नता के रंग और गहरे हो जाते हैं। यही हमारे इन त्योहारों की सार्थकता है।            पहले अहोई अष्टमी का व्रत बेटों वाली स्त्री ही करती थी। बेटियोंवाली स्त्री चाह कर भी यह व्रत नहीं रख पाती थी। रखने की बात कहते ही परंपराओं की दुहाई देकर उसे रोक दिया जाता था, पर अब समाज में परिवर्तन दिखाई देने लगा है। जब यह व्रत संतान की कल्याण की भावना से किया जाता है तो जिनकी बेटियाँ हैं वे भी अब इस व्रत को रख कर अहोई अष्टमी मनाने लगी हैं। स्वयं मेरी माँ ने मेरी छोटी भाभी को, जिनकी दो बेटियाँ हैं, यह व्रत रखवाया था। यह अलग बात है कि मेरी माँ के तारों के संसार में चले जाने के बाद उन्होंने यह व्रत रखना छोड़ दिया। आज जब बेटी-बेटे के भेदभाव से ऊपर उठ कर माएँ संतान के अच्छे स्वास्थ्य, दीर्घ आयु और कल्याण की कामना से अहोई अष्टमी का व्रत रखती और यह त्योहार मनाती हैं तो इन त्योहारों … Read more

बीस पैसा

©किरण सिंह  ******** हमारे लिए गर्मी की छुट्टियों में हिल स्टेशन तथा सर्दियों में समुद्री इलाका हमारा ननिहाल या ददिहाल ही हुआ करता था! जैसे ही छुट्टियाँ खत्म होती थी हम अपने ननिहाल पहुंच जाया करते थे जहाँ हमें दूर से ही देख कर ममेरे भाई बहन उछलते – कूदते हुए तालियों के साथ गीत गाते हुए ( रीना दीदी आ गयीं…… रीना दीदी……..) स्वागत करते थे कोई भाई बहन एक हाथ पकड़ता था तो कोई  दूसरा और हम सबसे पहले  बाहर बड़े से खूबसूरत दलान में बैठे हुए नाना बाबा ( मम्मी के बाबा ) को प्रणाम करके उनके द्वारा पूछे गये प्रश्नों का उत्तर देकर अपनी फौज के साथ घर में प्रवेश करते थे! पढ़िए रिश्तों को सहेजती एक खूबसूरत कहानी – यकीन घर में घुसते ही हंगामा सुनकर नानी समझ जाया करतीं थीं कि यह फौज हमारी ही होगी इसलिए अपने कमरे से निकल कर बाहर तक आ जाती थीं और हम पैर छूकर प्रणाम करते तो वो अपने हथेलियों में हमारा चेहरा लेकर यह जरूर कहतीं थीं कि कातना दुबारा गईल बाड़ी बाछी हमार  ( कितनी दुबली हो गई है मेरी ) भले ही हम कितने भी मोटे क्यों न हुए हों! तब तक आ जातीं मेरी मामी जो हमें आँगन में चबूतरे पर ले जाकर पैरों को रगड़ रगड़ कर धोती थी जिससे पैरों की मालिश अच्छी तरह से हो जाया करती थी और पूरी थकान छू मंतर ! तब तक नानी कुछ खाने के लिए ले आती थीं जिसे मन से नहीं तो डर से खाना ही पड़ता था क्योंकि हम चाहे जितना भी खा लेते थे लेकिन नानी ये जरूर कहा करती थीं कि इची अने नइखे खात ( ज़रा भी अनाज नहीं खा रही है ) ! खा पीकर अपनी टोली के साथ हम बाहर निकलते तो बहुत से बड़े छोटे भाई बहन मुझे प्रणाम करते हुए चिढ़ाने के क्रम में कहते बर बाबा गोड़ लागेनी… ( बर बाबा प्रणाम) और मैं कुछ चिढ़कर या फिर हँसकर उन्हें भी साथ ले लेती थी और निकल पड़ती थी सभी नाना – नानी, मामा – मामी तथा भाई बहनों से मिलने के लिए ! पढ़िए – एक चिट्ठी साहित्यकार /साहित्यकार भाइयों बहनों के नाम अब बर बाबा मुझे क्यों कहते थे वे सब यह भी बता ही देती हूँ! हुआ यूँ कि एकबार बचपन में करीब ढाई तीन साल की उम्र में मैं भी ममेरे भाई बहनों के साथ पटरहिया स्कूल  (गाँव के प्राइमरी स्कूल में ) में गई थी! और किसी बात पर किसी से झगड़ा हो गया तो मैं जाकर बर बाबा जो बरगद के पेड़ के नीचे चबूतरे पर पत्थर की पूजा की जाती थी के सर पर बैठ गई थी… तब से मुझे ननिहाल में बर बाबा ही कहकर चिढ़ाया जाता था!  पटरहिया स्कूल इसलिए कि काठ की बनी आयताकार काली बोर्ड जिसके ठीक ऊपर छोटा सा हैंडल लगा होता था उसपर चूल्हे की कालिख से जिसे कजरी कहा जाता था पोत दिया जाता था, उसके बाद छोटी शीशी से रगड़कर पटरी को चमकाया जाता था..!  पटरी पर लाइन बनाने के लिए मोटे धागे को चाॅक के घोल में भिगोकर बहुत एहतियात के साथ पटरी के दोनों किनारों पर हाथ में धागा पकड़ कर धीरे से बराबर बराबर रख रख कर छोड़ दिया जाता था उसके बाद पटरी के हैंडल को पकड़कर खूब खूब घुमा घुमाकर गाया जाता था….. सुख जा सुख जा पटरी  अब ना लगाइब कजरी  उसके बाद उस पर सफेद चाक के घोल से बांस  के पतली लकड़ियों को कलम बनाकर लिखा जाता था | वैसे तो मेरी मामी बहुत ही शांत स्वभाव की थीं जिनकी हम सबने कभी जोर से आवाज तक नहीं सुनी थी  लेकिन एक दिन अपने करीब  तीन वर्ष के बेटे जो मुझसे आठ वर्ष छोटा है ( मेरे ममेरे भाई) को आँगन में पीटने के लिए दौड़ा रहीं थीं और वह भाग रहा था! यह देखकर मैनें मामी को टोका कि मामी ये क्या कर रही हैं इतने छोटे बच्चे को क्यों दौड़ा रही हैं? तो मामी थोड़े गुस्से में ही बोलीं रीना जी इसको पढ़ने के लिए बीस पैसा महीने में देना पड़ता है और यह है कि पढ़ता ही नहीं है!  मामी का इतना कहना था कि मेरी तो हँसी रुके नहीं रुक रही थी उनका बीस पैसा सुनकर!  क्यों कि उस गांव के मेरे नाना ही सबसे धनाढ्य व्यक्ति थे चूंकि उन दिनों गाँवों में अच्छे स्कूलों की सुविधा नहीं थी तो तब तक उसे भी पटरहिया स्कूल में प्रेक्टिस के लिए भेजा जाता था!  मेरा ममेरा भाई श्याम बिहारी सिंह ( अनु ) पढ़ने में शुरू से ही अव्वल था इसलिए मेरे पापा बलिया लेते आये.. और छठी कक्षा से वह नैनीताल में हास्टल में रह कर पढ़ाई किया… जो आज आर्मी में कर्नल है!  लेकिन आज भी मामी की बीस पैसे वाली बात याद करके मूझे बहुत हँसी आती है!  यह भी पढ़ें ………….. फेसबुक – क्या आप दूसरों की निजता का सम्मान करते हैं ? अतिथि देवो भव – तब और अब नवरात्र पर लें बेटी बचाओ बेटी पढाओ का संकल्प हमारे बुजुर्ग हमारी धरोहर हैं Attachments area

शिक्षक दिवस – हमारे व्यक्तित्व को गढ़ने के लिए जीवन के हर मोड़ पर मिलते हैं शिक्षक

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ——————————- हमारी संस्कृति ऐसी है कि इसमें हर पल, हर समय हम अपने माँ, पिता, गुरुओं, मित्रों को अपने साथ लेकर चलते है। इनसे मिली शिक्षाएँ, सबक जीवन भर हमारे मार्ग को आलोकित करते हैं, प्रशस्त करते हैं, कठिन घड़ी में संबल बनते हैं तो ये जीवन का अभिन्न अंग बन जाते हैं।             प्रथम गुरु माँ और पिता से शुरू हुई सीखने की यह यात्रा आज भी अनवरत चल रही है। माँ-पिता से मिली सीख, सबक, शिक्षाएँ कभी खोती नहीं। भूलना भी चाहें तो भी भूलती नहीं। उनका वास्तविक अर्थ तब समझ में आता है जब हम स्वयं माता-पिता बन कर उन स्थितियों से दो-चार होते है।            मेरे माता-पिता ऐसे शिक्षक थे जो जीवन भर विद्यार्थी बने रहे। जो भी चीज सामने आए..उसे सीखने के लिए बच्चों जैसी ललक उनमें रहती। और सीख कर ही वे दम लेते थे। वे हमेशा कहते…जो सीख सको..सीखते जाओ। जीवन में कब कौन सी सीखी हुई चीज काम आ जाए… क्या पता! आत्मनिर्भर बनने की ओर यह पहला कदम है, इसलिए सीखने में संकोच मन करो। पर ये बात तब उतनी समझ नही आ पाती थी।  मेरी माँ मुझे सिलाई सिखाना चाहती थी। उन्होंने सिलाई में एक वर्ष का प्रशिक्षण भी लिया था। मेरी रुचि सिलने में नहीं थी। उन्होनें सोचा.. कि मुझसे तो ये सीखेगी नहीं तो उन्होंने स्कूल की छुट्टियों में एक महीना मेरी रुचि परखने के लिए भेजा, लेकिन मैं एक सप्ताह के बाद वहाँ गई ही नहीं। साइकिल सिखाने की भी बहुत कोशिश की, पर संकोच के मारे मेरी गाड़ी आगे चल ही नहीं पाई। आज जब छोटे-छोटे काम के लिए टेलर के पास भागना पड़ता है, कहीं जाने के के लिए पति, और बच्चों पर निर्भर रहना पड़ता है, तब उनका कहा बहुत याद आता है। इसी कारण बेटी को साइकिल और कार चलानी सिखाई। आज वह आत्मनिर्भर है। मुझे भी जरूरत पड़ने पर लेकर जाती है और पति की अनुपस्थिति में अपने ससुराल में भी अपनी दादी सास, सास ससुर जो को लेकर सब काम करवा लाती है तो देख कर  संतोष होता है। उसके नाना-नानी भी अपनी दूसरी दुनिया से देख कर बहुत प्रसन्न होते होंगे कि जो बेटी की कमी को नातिन ने अपने में नहीं रहने दिया।             आज मुझे आठवीं कक्षा में पढ़ने के समय के अंग्रेजी के शिक्षक पांडे सर की बहुत याद आ रही है। वे सप्ताह के अंतिम दिन शनिवार के पीरियड में लिखाई अच्छी कैसे हो…इस बारे में बता कर, फिर उस पर अभ्यास करवाया करते थे। उनका कहना होता था कि जब लिखना आरंभ करो तो अक्षर अलग-अलग पैन उठा कर मत लिखो, बल्कि लिखना आरंभ करो और शब्द पूरा होने पर पैन उठाओ और तब दूसरा शब्द लिखो। पहले-पहले बहुत असंभव लगा। लेकिन शनिवार में उनके इस पीरियड की बहुत प्रतीक्षा रहती। कब वे कहेंगे कि अब तुम ऐसा लिखने में पारंगत हो गई…. इसके लिए मैं घर में भी अभ्यास करती रहती थी। कक्षा में कॉपी देखते समय जब वे लाल निशान लगाते कि यहाँ पैन बीच में ही उठा दिया…तो यह देख कर प्रसन्नता भी बहुत होती कि मेरी कॉपी में सबसे कम लाल निशान लगते थे। जिस दिन कॉपी में लाल निशान नहीं लगा और उन्होंने मुझे कहा कि अब तुम पारंगत हो गई हो तो उनका वो कहना मेरे लिए किसी मैडल मिलने से कम नहीं था। कक्षा में जैसा लिखना पांडे सर सिखाना चाहते थे…वैसा जल्दी से जल्दी सीख कर पारंगत होने वाली कक्षा की मैं सबसे पहली विद्यार्थी थी। आज जब सब मेरी अंग्रेजी और हिंदी की लिखावट की बहुत प्रशंसा करते हैं तो इसमें सर्वाधिक योगदान पांडे सर का ही है जिन्होंने सिखा-बता कर अभ्यास पर शिक्षक होने के साथ विद्यार्थी बने रह भी सिखाने में रुचि ली थी।        कॉलेज में जब पहुँची तो उस समय की प्रसिद्ध कहानीकार, उपन्यासकार शशिप्रभा शास्त्री महादेवी कन्या पाठशाला डिग्री कॉलेज में हिंदी विभागाध्यक्ष थी।         साहित्य प्रेम पापा से मिला था और वे ही मेरे साहित्यिक गुरु भी थे। तो शशिप्रभा शास्त्री जी लेखिका है, वे हमें पढ़ाएंगी भी, दिखने में कैसी होंगी…आदि-आदि जानने की बहुत ही उत्सुकता थी। उनकी लिखी रचनाएँ ढूँढ-ढूँढ कर पढ़ डाली थी। वे जब पढ़ाती तो मैं मनोयोग से सुनती। गर्व भी होता था कि एक बड़ी लेखिका से पढ़ने का अवसर मुझे मिल रहा है। पारिवारिक उपन्यास, कहानियाँ पढ़ने की ओर रुचि उन्होंने ही मुझमें जगाई। देहरादून के रचनाकारों में मैंने उन्हें ही सबसे ज्यादा पढ़ा।            और अब साहित्य के संसार से, जिसमें प्रवेश पापा के ही कारण हो पाया था, नाता इतना दृढ़ हो गया है कि चाह कर भी टूट नही पाता। सोशल मीडिया ने फ़ेसबुक का मंच प्रदान किया… जिसके कारण बहुत से मित्रों का संसार बना। इसमें विभा रानी श्रीवास्तव, जितेंद्र कमल आनंद जी और वंदना वाजपेयी जी मित्र बने….पर कब प्रेरणा गुरु बन गए पता ही नहीं चला। विभा रानी श्रीवास्तव जी के सम्पर्क-सानिध्य से वर्ण पिरामिड जैसी विधा से परिचित हुई, हाइकू, लघुकथा लेखन में गतिशील हुई और इस तरह वे मेरी गुरु संगी बनीं।  वंदना वाजपेयी जी…जिनकी प्रेरणा और प्रोत्साहन ने मुझमें नई ऊर्जा का संचार किया, आत्मविश्वास प्रदान किया। रचनाओं पर मिलने वाले इनके कमेंट्स निरंतर और अच्छा करने की ओर मुझे प्रेरित करते हैं…. इस तरह वंदना जी मेरी प्रेरणा-प्रोत्साहन गुरु बन कर मेरे जीवन में शामिल हुई।         इसी फ़ेसबुक के संसार में अपने पापा के बाद आध्यात्मिक साहित्य गुरु के रूप में, मार्गदर्शक के रूप में मुझे जितेंद्र कमल आनंद गुरु जी मिले। जिनसे रचनाओं में सुधार भी प्राप्त होता है, विभिन्न काव्य विधाओं की जानकारी भी प्राप्त होती है और आध्यात्मिक संसार से भी परिचित होते चलते हैं।           जीवन में मिलने वाली ठोकरें, धोखे, ठगी..इन सब ने भी कोई न कोई सबक सिखाया ही है। उन मिले सबको ने भी व्यक्तित्व को निखारने के काम किया ही है।           आज दिवस परंपरा  के कारण अपने इन सब गुरुओं को स्मरण करते हुए … Read more

क्या आत्मा पूर्वजन्म के घनिष्ठ रिश्तों की तरफ खिंचती है ?

लेखिका – श्रीमती सरबानी सेनगुप्ता जीवन भर दौड़ने भागने के बाद जब जीवन कि संध्या बेला में कुछ पल सुस्ताने का अवसर मिलता है तो न जाने क्यों मन पलट –पलट कर पिछली स्मृतियों में से कुछ खोजने लगता है | ऐसी ही एक खोज आज कल मेरे दिमाग में चल रही है , जो मुझे विवश कर रही है यह सोचने को कि ईश्वर कि बनायीं इस सृष्टि में , जन्म –जन्मांतर के खेल में कुछ कड़ियाँ ऐसी जरूर हैं जो हमें पिछले जन्मों के अस्तित्व पर सोचने पर विवश कर देती हैं | इन दार्शनिक बातों से इतर आज अपना एक अनुभव साझा कर रही हूँ | जो मेरी समझ के परे है , शायद आप कि समझ में आ जाए और सुलझ जाए उस जन्म से इस जन्म के फेर में फंसी मन कि गुत्थी | मेरा परिचय बस इतना है कि मैंने अपनी जिंदगी के बेहतरीन ३२ साल शिक्षा के क्षेत्र में बिताये |मैं हमेशा प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाती आ रही हूँ | बात उन दिनों कि है जब मैं दिल्ली के एक नामी –गिरामी पब्लिक स्कूल कि प्राइमरी कक्षाओं को पढ़ाती थी | नए सेशन का पहला दिन था | नन्हे –मुन्ने बच्चे जिनकी उम्र कोई ४ , साढ़े चार साल रही होगी , लुढकते फिसलते एक पंक्ति में मेरी कक्षा में आये | उनकी टीचर सुबकते –सिसकते बच्चों को मुझे सौंप कर अपनी कक्षा में चली गयी | उनमें से कुछ बच्चे ऐसे भी थे जो हंस –बोल भी रहे थे और अपनी कक्षा के ही दूसरे रोते सिसकते बच्चों को अवाक होकर देख रहे थे | तभी एक बच्चा बौखलाया सा मेरी कक्षा में दाखिल हुआ | पीछे –पीछे उसकी माँ भी थी जो मुझसे मिलना चाहती थी | क्योंकि ये बच्चा नया था इसलिए उसकी माँ ने मुझसे कहा , “ मैंम , नमस्ते , हम मुंबई से आये हैं | मेरा बेटा इस स्कूल में नया है , आप इसे जरा संभाल लेना | स्कूल का प्रथम दिन , ऊपर से कक्षाओं की अदला बदली | उफ़ ! इतना शोर की मैं उसकी माँ से ज्यादा बात नहीं कर पायी | वह बच्चे को छोड़ कर चली गयी | जैसे –जैसे दिन बीतते गए , वह बच्चा मुझे अजीब सा लगने लगा | वह न तो दूसरे बच्चों कि तरह खेलता , न हँसता , न् ज्यादा बोलता था | इतने छोटे बच्चे , जिनका अभी बालपन और भोलापन गया नहीं था ,वह सब मुझमें अपनी माँ को खोजते | मेरे नज़दीक आकर मुझ से लिपटते | पर वह नया बच्चा निर्भीक ( परिवर्तित नाम ) अपनी उम्र के बच्चों से ज्यादा ही परिपक्व था | | वह मेरी ओर हमेशा बेरुखी कि नज़रों से देखता , हाथ पकड़ों तो हाथ छुड़ा कर भाग जाता | दिन बीतने लगे | निर्भीक को मैं अपने ज्यादा करीब नहीं पाती थी |हाँ , कभी कभी वो थोड़ी बहुत बात चीत कर लेता था | निर्भीक अपने नाम के अनुरूप ही निडर व् चुस्त था | एक दिन मैं अपनी कुर्सी पर बैठी नोटबुक्स चेक कर रही थी | अचानक निर्भीक मेरे पास आया और मेरी चूड़ियां हटा कर हाथ को सहलाने लगा | फिर धीरे से बुदबुदाया , “ मैंम यू आर सो फेयर |” ओह गॉड ! मुझे ४४० वाल्ट का करंट लगा | उसकी इस हरकत पर मैं हैरान रह गयी | उसके हाव –भाव से मुझे अपने कालेज के ज़माने में पढ़े गए मिल्स एंड बून सीरीज के नोवल्स के हीरो याद आ गए | जो कभी हमारी कल्पना में आकर नींद उड़ाते थे | बात आई गयी हो गयी | सेशन ख़त्म हो गया | एक बार फिर वाही दिन आया | मैं अपने बच्चों को प्रथम कक्षा में छोड़ आई | फिर नए बच्चे आये | पुराने बच्चे रीसेस में मुझसे मिलने आते | पर निर्भीक , वो कभी सबके साथ नहीं आता | कभी खिड़की से , कभी दरवाजे के पीछे से बिना कुछ कहे मुझे देखता | कभी पानी पीने , कभी टॉयलेट जाने के बहाने आता | मैं अब उसकी गहरी नज़रों से डरने लगी थी | समय पंख लगा कर उड़ने लगा | अब वो पांचवीं कक्षा में आ गया था | उसका छुप –छुप कर मुझे देखना जारी रहा | एक दिन उसकी माँ आई और बोली ,” मैंम मैं निर्भीक को खींच कर लायी हूँ | यह रोज आपकी बातें करता है | अभी तक आप को भूला नहीं है | इसने मुझसे कहा है जब बड़ा हो जाएगा तो आपको अपने घर ले जाएगा | आपसे शादी भी करेगा | मुझे उसकी बात पर हंसी आ गयी | मैं निर्भीक कि पीठ थपथपाकर कहा ,” हां बेटा , तुम पढ़ लिख कर बड़े हो जाओ , अच्छी नौकरी करों , अच्छे इंसान बनों | तभी तो मैं तुम्हारे घर जाऊँगी | पता नहीं मेरी इस बात का उस पर क्या असर हुआ , अब वह कभी –कभी ही मेरी कक्षा में बाहर से झांकता | मैं बच्चों में मशरूफ होने के बावजूद हाथ हिला देती और मुस्कुरा देती और वह बिना कुछ कहे सुने चला जाता | धीरे –धीरे ऋतुएं बदली | नए साल पुराने होते चले गए | समय का काफिला आगे बढ़ता चला गया | वह अब किशोरावस्था में पहुँच गया था | बीच –बीच में निर्भीक मुझसे मिलने आता | औपचारिक बातों के बीच सिर्फ पढ़ाई कि बातें होती | मैं उसे सफलता के गुर सिखाती | वह मेरी बातें ध्यान से सुनता और उडती नज़र से मुझे देख कर चला जाता | कभी –कभी मेरे कोरिडोर से गुजरने पर निर्भीक अपने मित्रों कि टोली छोड़ कर दौड़ा –दौड़ा मेरे पास आता, और बिना कुछ कहे चला जाता | पता नहीं किन शब्दों को अपने मन में दबाये | बारहवी कक्षा का परीक्षा परिणाम घोषित होते ही वह मेरे पास आया और मुझसे लिपट कर चहक कर बोला मैंम , यू आर माय इंस्पीरेशन , यू आर रीयली ग्रेट | मैं उसकी इस हरकत पर हकपका सी गयी | मेरी आँखें नम थी कि वो अब स्कूल छोड़ कर चला जाएगा | निर्भीक स्कूल छोड़ कर चला गया पर … Read more

निर्णय लो दीदी ? ( ओमकार भैया को याद करते हुए )

                              happy  raksha bandhn , कार्ड्स मिठाइयाँ और चॉकलेट के डिब्बों से सजे बाजारों के  बीच कुछ दबी हुई सिसकियाँ भी हैं | ये उन बहनों  की  हैं जिनकी आँखें राखी से  सजी दुकानों को देखते ही डबडबा जाती  हैं   और आनायास  ही मुँह  फेर  लेती हैं | ये वो अभागी  बहनें  हैं जिन्होंने जीवन के किसी न किसी मोड़ पर अपने भाई को खो दिया    है | भाई – बहन का यह अटूट बंधन ईश्वर की इच्छा के आगे अचानक से टूट कर बिखर गया | अफ़सोस उन बहनों में इस बार से मैं भी शामिल हूँ | भाई , जो भाई तो होता ही है पुत्र , मित्र और पिता की भूमिका भी समय समय पर निभाता है | इतने सारे रिश्तों को एक साथ खोकर खोकर मन का आकाश बिलकुल रिक्त हो जाता है | यह पीड़ा न कहते बनती है न सहते | लोग कहते हैं की भाई बहन का रिश्ता अटूट होता है | ये जन्म – जन्मांतर का होता है | ये जानते हुए भी की  ओमकार भैया की कलाई पर राखी बाँधने और उनके मुँह में मिठाई का बड़ा सा टुकड़ा रखने का सुख अब मुझे नहीं मिलेगा मैं बड़ों के कहे अनुसार पानी के घड़े पर राखी बाँध देती हूँ | जल जो हमेशा प्रवाहित होता रहता है , बिलकुल आत्मा की तरह जो रूप और स्वरुप बदलती है परन्तु स्वयं अमर हैं | राखी बांधते समय आँखों में भी जल भर जाता है | दृष्टि धुंधली हो जाती है | आँखे आकाश की तरफ उठ जाती हैं और पूँछती हैं…”भैया आप कहाँ हैं ?”                                                        मैं जानती हूँ की बादलों की तरह उमड़ते – घुमड़ते मन के बीच में अगर ओमकार भैया के ऊपर कुछ लिखती हूँ तो आँसुओं का रुकना मुश्किल है , नहीं लिखती हूँ तो यह दवाब सहना मुश्किल है | 16 फरवरी को ओमकार भैया को हम सब से छीन ले जाने वाली मृत्यु उनकी स्मृतियों को नहीं छीन सकीं बल्कि वो और घनीभूत हो गयी | तमाम स्मृतियों में से एक स्मृति आप सब के साथ शेयर कर रही हूँ |                                                                          बात अटूट बंधन के समय की है |    कहते हैं  बहन छोटी हो या बड़ी ममतामयी ही होती है | और भाई छोटा हो या बड़ा , बड़ा ही होता है |  बचपन से ही स्वाभाव कुछ ऐसा पड़ा था की अपनी ख़ुशी के आगे दूसरों की ख़ुशी को रख देती | अपने निर्णय के आगे दूसरों के निर्णय को | उम्र के साथ यह दोष और गहराता गया | हर किसी के काम के लिए मेरा जवाब हां ही होता | जैसे मेरा अपना जीवन अपना समय है ही नहीं | मैं व्यस्त से व्यस्ततम होती चली जा रही थी | कई बार हालत यह हो जाती की काम के दवाब में  घडी की सुइंयों के कांटे ऐसे बढ़ते जैसे घंटे नहीं सिर्फ सेकंड की ही सुइयां हों | काम के दवाब में कई बार सब से छुप कर रोती भी पर आँसूं पोंछ कर फिर से काम करना मुझे किसी का ना कहने से ज्यादा आसान लगता |                                        भैया हमेशा कहा करते की दीदी हर किसी को हाँ मत कहा करो | अपने निर्णय खुद लिया करो | पर मैं थी की बदलने का नाम ही नहीं लेती | शायद ये मेरी कम्फर्ट ज़ोन बन गयी थी जिससे बाहर आने का मैं साहस ही नहीं कर पा रही थी | बात थी अटूट बंधन के slogan की | मैंने ” बदलें विचार , बदलें दुनिया ” slogan रखा | भैया ने भी कुछ slogan सुझाए थे | मुझे अपना ही slogan सही लग रहा था | पर अपनी आदत से मजबूर मैंने भैया से कहा ,” भैया , जो आप को ठीक लगे | वही रख  लेते हैं | भैया बोले ,” दीदी आज कवर पेज फाइनल होना है , शाम तक और सोंच लीजिये | मैंने हां कह दिया | शाम को भैया का फोन आया ,” दीदी क्या slogan रखे | मैंने कहा ,” भैया जो आप को पसंद हो , सब ठीक हैं | दीदी एक बताइये , भैया का स्वर थोडा कठोर था | सब ठीक हैं भैया मेरा जवाब पूर्ववत था | भैया थोडा तेज स्वर में बोले ,” दीदी , निर्णय लीजिये , नहीं तो आज कवर पेज मैं फाइनल नहीं करूँगा | आगे एक हफ्ते की छुट्टी है | मैगज़ीन लेट हो जायेगी | फिर भी ये निर्णय आपको ही लेना है | निर्णय लो दीदी | मैंने मैगजीन का लेट होना सोंच कर तुरंत कहा ,” भैया बदलें विचार – बदलें दुनिया ‘ ही बेस्ट है | मैगजीन छपने चली गयी | लोगों ने slogan बहुत पसंद किया | बाद में भैया ने कहा ,” दीदी जीवन अनिश्चिताओं से भरा पड़ा है | ऐसे में हर कदम – कदम हमें निर्णय लेने पड़ते हैं | कुछ निर्णय इतने मामूली होते हैं की उन का हमारी आने वाली जिंदगी पर कोई असर नहीं पड़ता | पर कुछ निर्णय बड़े होते हैं | जो हमारे आने वाले समय को प्रभावित करते हैं | ऐसे समय में हमारे पास दो ही विकल्प होते हैं | या तो हम अपने मन की सुने | या दूसरों की राय का पालन करें | जब हम दूसरों की राय का अनुकरण करते हैं तब हम कहीं न कहीं यह मान कर चलते हैं की दूसरा हमसे ज्यादा जानता है | इसी कारण अपनी ” गट फीलिंग ” को नज़र अंदाज़ कर देते हैं | अनिश्चितताओं से भरे जीवन में कोई भी निर्णय फलदायी होगा … Read more

वो पहला खत

बचपन में एक गाना  अक्सर सुनते थे  “लिखे जो खत तुझे वो तेरी याद में हज़ारों रंग के सितारे बन गए ” | गाना हमें बहुत पसंद था पर हमारा बाल मन सदा ये जानने की कोशिश करता ये खत सितारे कैसे  बन जाते हैं।. खैर बचपन गया हम बड़े हुए और अपनी सहेलियों को  बेसब्री मिश्रित ख़ुशी के साथ उनके पति के खत पढ़ते देख हमें जरा -जरा अंदाज़ा होने लगा कि खत सितारे ऐसे बनते हैं।  और हम भी एक अदद पति और एक अदद खत के सपने सजाने लगे।  खैर दिन बीते हमारी शादी हुई और शादी के तुरंत बाद हमें इम्तहान देने के लिए मायके   आना पड़ा।  हम बहुत खुश थे की अब पति हमें खत लिखेंगे और हम भी उन खुशनसीब सहेलियों की सूची में आ जाएंगे जिन के पास उनके पति के खत आते हैं। हमने उत्साह  में भरकर कर पति से कहा आप हमें खत लिखियेगा ,खाली फोन से काम नहीं चलेगा। खत …… न न न ये हमसे नहीं होगा  हमें शार्ट में आंसर देने की आदत है।  ,यहाँ सब ठीक है वहाँ सब ठीक होगा इसके बाद तीसरी लाइन तो हमें समझ ही नहीं आती है।  पति ने तुरंत ऐसे कहा जैसे युद्ध शुरू होने से पहले ही युद्ध विराम की घोषणा हो जाए। हमारे अरमानों  पर घड़ों पानी फिर गया। कहाँ हम अभी खड़े -खड़े ४ पेज लिख दे कहाँ ये तीसरी लाइन लिखने से भी घबरा रहे हैं।ईश्वर के भी क्या खेल हैं पति -पत्नी को जान -बूझ कर विपरीत  बनाते हैं जिससे घर में संतुलन बना रहे किसी चीज की अति न हो। हम पति को खत लिखने के लिए दवाब में ले ही रहे थे की हमारी आदरणीय सासू माँ बीच में आ गयीं और अपने पुत्र का बचाव करते हुए बोली ,” अरे ! इससे खत लिखने को न कहो | इसने आज तक हम लोगों  को खत  नहीं लिखा तुम्हें क्या लिखेगा | सासू माँ की बात सही हो सकती थी पर वो पत्नी ही क्या जो अपने पति की शादी से पहले की आदतें न बदलवा दे | हमें पता था समस्त भारतीय नर्रियाँ हमारी तरफ आशा की दृष्टि से देख रही होंगी | हम हार मानने में से नहीं थे | हम पतिदेव को घंटों पत्र लिखने  का महत्व समझाते रहे ,पर  पति के ऊपर से सारी  दलीले ऐसे फिसलती रहीं जैसे चिकने घड़े के ऊपर से पानी।  अंत में थक हार कर हमने ब्रह्मास्त्र छोड़ा ……….इस उम्र में लिखे गए खत ,खत थोड़ी न होते हैं वो तो प्रेम के फिक्स डिपाजिट होते हैं.| सोंचो    जब तुम होगे ६० साल के और हम होंगे ५५ के ,दिमाग पूरी तरह सठियाया हुआ होगा तब हम यही खत निकाल कर साथ -साथ पढ़ा करेंगे ,और अपनी नादानियों पर हँसा करेंगे।वाह रे हानि लाभ के ज्ञाता ! फिक्स डिपोजिट की बात  कहीं न कहीं पति को भा  गयी और उन्होंने खत लिखने की स्वीकृति दे दी।                       एक अदद खत की आशा लिए हम मायके आ गए। दिन पर दिन गुजरते जा रहे थे ,और खत महाराज नदारद। रोज सूना लैटर बॉक्स देख कर  हमारा मन उदास हो जाता। चाइल्ड साइकोलॉजी पढ़ते हुए भी  हमारी सायकॉलॉजी बिगड़ रही थी।  आख़िरकार हमने खत मिलने की उम्मीद ही छोड़ दी। एक दिन  बुझे मन से लेटर बॉक्स देखने के बाद हम ख़ाना खा रहे थे की हमारा ५ साल का भतीजा चिल्लाते हुए आया “बुआजी ,फूफाजी की चिठ्ठी आई है। हमारा दिल बल्लियों उछल पड़ा ,पर इससे पहले की हम खत उसके हाथ से लेते , हमारी “विलेन ”  भाभी ने यह कहते हुए खत ले लिया “पहले तो हम पढ़ेंगे “| हमें अरेंज्ड मैरिज होने के  कारण यह तो बिलकुल नहीं पता था की पति कैसा खत लिखते हैं। पर हम अपनी भाभी  के स्वाभाव से बिलकुल परिचित थे कि अगर एक लाइन भी ऊपर -नीचे हो गयी तो वो हमें  हमारे पैर कब्र में लटकने तक चिढ़ाएँगी।  लिहाज़ा हमने उनसे पत्र खीचने की चेष्टा की। भाभी पत्र ले कर दूसरी दिशा में भागीं | घर में भागमभाग मच गयी | भाभी आगे भागी हम पीछे। भागते – भागते हम सब्जी की डलिया से टकराये ,आलू -टमाटर सब बिखेरे, हम बिस्तर पर कूदे ,एक -दूसरे पर तकिया फेंकी …………… पर चिठ्ठी भाभी के ही हाथ में रही | अंततः हमें लगा कि लगता है भाभी ने भतीजे के होने में विटामिन ज्यादा खा लिए हैं भाग -दौड़ व्यर्थ है। हार निश्चित हैं | ” आधी छोड़ पूरी को धावे /आधी मिले न पूरी पावे”  के सिद्धांत पर चलते हुए हमने उन्हें पति कि पहली चिठ्ठी पढ़ने कि इज़ाज़त दे दी।                                भाभी ने  खत पढ़ना शुरू किया। . जैसे जैसे वो आगे बढ़ती जा रहीं थी उनका चेहरा उतरता जा रहा था।  धीरे से बोली ” हे भगवान !बिटिया बड़ा धोखा हो गया तुम्हारे साथ “(भाभी हमें लाड में बिटिया कहती हैं )क्या हुआ भाभी हमने डरते हुए पूंछा ?च च च निभाना तो पडेगा ही ,पर दुःख इस बात का ही की पापा से इतनी बड़ी गलती कैसे हो गयी। भाभी ने गंभीरता से कहा।  हमारा जी घबराने लगा “क्या हुआ भाभी ‘”बड़ी मुश्किल से ये शब्द हमारे मुह से निकले। च च च हाय बिटिया ! पापा तो चलो बूढ़े हैं पर तुम्हारे भैया भी तो गए थे लड़का देखने उनसे ये गलती कैसे हो गयी। इंजीनियर देख लिया ,आई आई टी देख लिया बस ,क्या इतना काफी है ? अरे , ये तक नहीं समझ पाये ………… ये लक्षण। हमारी आँखे भर आई। हम पिछले दिनों पति द्वारा बताई गयी बातों से अंदाज़ा लगाने लगे ………… पांचवी में साथ  पढ़ने वाली पिंकी , आठवी वाली सुधा या आई आई टी के ज़माने की मनीषा ,आखिर कौन है वो जिसने हमारा घर बसने से पहले उजाड़ दिया।  भाभी कुछ तो बाताओ ,क्या हुआ है ? न चाहते हुए भी हमरे मुह से ये शब्द निकल गए ,वैसे भी अब जानने को बचा क्या था। बिटिया ,जन्म -जन्मान्तर का साथ है ,निभाना पडेगा ,तुम्हे ही धैर्य रखना … Read more