मातृ दिवस पर- एक माँ के अपने बच्चों ( बेटे और बेटी ) के नाम पत्र

                                      आज इन दो पत्रों को पढ़ते हुए फिल्म कभी ख़ुशी कभी गम का एक डायलाग याद आ गया | पिता भले ही अपने स्नेह को व्यक्त करे न करे  बच्चों के साथ खुल कर बात करे न करें पर माँ कहती रहती है , कहती  रहती है , भले ही बच्चा सुने न सुने | पर ये कहना सिर्फ कहना नहीं होता इसमें माँ का स्नेह होता है आशीर्वाद होता है और विभिन्न परिस्तिथियों में अपने बच्चे को समन्वय करा सकने की कला का उपदेश भी | पर जब बच्चे दूर चले जाते हैं तब भी फोन कॉल्स या पत्र के माद्यम से माँ अपने बच्चे का संरक्षण करती रहती है | वैसे तो आजकल लड़का , लड़की की परवरिश में में कोई भेद नहीं पर एक माँ ही जानती है की दोनों को थोड़ी सी शिक्षा अलग – अलग देनी है | जहाँ बेटी को पराये घर में रमने के गुर सिखाने हैं वहीँ बेटे के मन में स्त्रियों के प्रति सम्मान की भावना भरनी है | ऐसे ही एक माँ ( डॉ >  भारती वर्मा ) के अपने बच्चों ( बेटे व् बेटी ) के लिए लिए गए भाव भरे खत हम अपने पाठकों के लिए लाये है | ये खत भले ही ही निजी हों पर उसमें दी गयी शिक्षा हर बच्चे के लिए है | पढ़िए और लाभ उठाइये ……… मातृ दिवस पर …बेटी के नाम पत्र —————————————— प्यारी बेटी उर्वशी          आज तुमसे बहुत सारी बातें करने का मन है। हो भी क्यों न….माँ-बेटी का रिश्ता है ही ऐसा…जहाँ कितना भी कहो, कितना भी सुनो…फिर भी बहुत कुछ अनकहा-अनसुना रह जाता है।            मैं अपने जीवन के उस स्वर्णिम पल को सर्वश्रेष्ठ मानती हूँ जब तुम्हें जन्म देकर मैंने तुम्हारी माँ होने का गौरवपूर्ण पद प्राप्त किया। जन्म से लेकर तुम्हें बड़ा करने तक, शिक्षा-दीक्षा, विवाह से लेकर विदाई तक के हर उस सुख-दुख, त्याग का अनुभव किया जिसे मेरी माँ ने मेरे साथ अनुभव किया होगा। हर माँ की तरह मैंने भी तुम्हारे बचपन के साथ अपना बचपन जिया। तुम्हारे सपनों में अपने सपने मिला कर तुम्हारे सपनों को जिया। मैं जो नहीं कर सकी वो तुमने किया। इसमें छिपी माँ की प्रसन्नता शब्दों में तो वर्णित नहीं ही हो सकती, केवल अनुभव की जा सकती है।               मैंने अपने जीवन में वही किया जो मुझे सही लगा। अपने लिए किसी भी निर्णय पर कभी पश्चाताप नही हुआ। मेरे आत्मविश्वास ने ऐसा करने में मेरी सहायता की। यह आत्मविश्वास अपने माता-पिता से मिले संस्कारों पर चलते हुए तथा जीवन में मिलने वाले कड़वे-मीठे अनुभवों से मिला। समयानुसार उसमें कुछ नया जोड़ते हुए हमने तुम्हारा लालन-पालन किया और प्रयत्न किया कि तुम वो आत्मविश्वास प्राप्त कर सको जो जीवन में आने वाली कठिनाइयों के समय सही निर्णय लेने में सहायक बने। हम अपने प्रयत्न में कहाँ तक सफल हुए हैं….यह तो आने वाला समय ही बताएगा।               सही पर अडिग रहना और गलत होने पर क्षमा माँगना… ये दो बातें जीवन में बहुत महत्वपूर्ण हैं। जीवन में ऐसा समय भी आएगा जब तुम्हें कठिन फैसले लेने पड़ेंगे। तब अपना आत्मविश्वास बनाए रखना। अच्छी और बुरी दोनों स्तिथियों में अपने को संभालते हुए अपनों को संभाल कर रखना।           जीवन में सदा अपने मन का नहीं होता। हमें सबके मनों को समझ कर , उनका ध्यान रखते हुए चलना होता है। ऐसा करते हुए जो आत्मसंतुष्टि, सुख और प्रसन्नता मिलती है…उसे तुमने स्वयं भी अनुभव किया होगा।                जीवन का एक ही मूल मंत्र है….जो सही लगे वही करो, अपनी राह स्वयं चुनो, अपने सपने स्वयं बुनो, पर उस राह पर अपने सपनों को पूरा करने के लिए अपनों को साथ लेकर चलो। अपनों का साथ सपनों को पूरा करने की यात्रा में आशीर्वाद बन कर साथ चलता है।               जीवन में कोई भी परफ़ेक्ट नहीं होता। एक-दूसरे की कमियों को स्वीकार करते हुए अपने जीवनसाथी के साथ अपने लक्ष्य, सपनों को पूरा करने के लिए सकारात्मक सोच रखते हुए ईमानदारी के साथ जीवन जीना। अपने नाना की तरह कठिन परिश्रम को जीवन का अंग बनाना। तब देखना जीवन कितना सुंदर, सुंदरतम होता जाएगा और कितने इंद्रधनुष खुशियों के चमकते हुए दिखाई देंगे।           तुम्हारा आत्मविश्वास और समझदारी देख कर मेरा विश्वास मजबूत हो चला है कि तुम सही राह पर चलते हुए सही निर्णय लेने में समर्थ बनोगी और सबकी आँख का तारा रहोगी।            मुझे गर्व है कि तुम मेरी बेटी हो और मैं तुम्हारी माँ हूँ।                   तुम्हारी मम्मी                      भारती ——————————————— डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई, देहरादून,(उत्तराखंड) —————————————————— मातृ दिवस पर….. बेटे के नाम पत्र —————————————— प्रिय अभिषेक                       बहुत सी बातें हैं जिन्हें एक लंबे अरसे से कहना चाह रही थी, पर अपने-अपने कामों की व्यस्तता के चलते कहने का समय नहीं मिल पाया। जीवन का क्या…..आज है कल नहीं। तो क्यों न जो कहना है आज ही कह दिया जाए।             तुम वो कड़ी हो जिसने हमारे जीवन में जुड़ कर हमारे परिवार को संपूर्णता प्रदान की। बहन को भाई मिला। हम सौभाग्यशाली हैं बेटी-बेटे की माँ बनने के साथ जामाता ओर पुत्रवधु के रिश्तों को भी जीने का भरपूर सुख प्राप्त होगा।          पुरुष प्रधान समाज होते हुए भी हमने बेटी-बेटे में कोई भेदभाव न करते हुए तुम दोनों को एक समान परिस्थितियों में एक जैसी सुख-सुविधाएँ देते हुए बड़ा किया। हमारे अनुसार बच्चों के लिए स्वतंत्रता का अर्थ था….हमारे बच्चे अपनी रुचियों के अनुसार अपना लक्ष्य निर्धारित करें, अपने सपने स्वयं देखें और जिएं। अपनी इच्छाओं का दबाव बच्चों पर डालना कभी हमारे परिवार की परंपरा नहीं रही । जो स्वतंत्रता … Read more

मदर्स डे : माँ और बेटी को पत्र

मेरी प्यारी बेटीकैसी हो?कितने दिन हो गए तुम्हें अपने गले से लगाए हुए। कहाँ तो एक दिन भी तुम्हें याद किए बिना बीतता नहीं था मेरा। पर अब कितनी विवश हूँ मैं। याद रोज़ करती हूँ, रोज़ अपनी अश्रुपूर्ण आँखों से तुम्हारे पापा के साथ उन रूपों के बीच निहारती हूँ तुम्हें, जिनमेँ जब-तब हमें याद कर आँसू बहाते हुए ढूँढती हो तुम। पर मैं तुम्हारे आँसू पोंछ नहीं सकती, तुम्हें सांत्वना नहीं दे दे सकती, तुम्हें अपनी छाती से लगा कर चुप नहीं करा सकती, क्योंकि अब मैं तुम्हारे पापा के साथ उस संसार में हूँ जहाँ से , लोग कहते हैं कोई लौट कर नहीं आता। बस दूर से अपनों को देख सकता है। अब यही हमारे बस में है बेटी ।जब तुम्हारा जन्म हुआ था तब कितने धनवान हो गए थे हम। उस मजनूँ को, जो हमारे यहाँ काम करने आया करता था, को तो तुम जानती हो न, के साथ तुम्हारे पापा ने पूरी कॉलोनी में लड्डू बाँटे थे। तुम्हें पाकर फूले नहीं समाते थे हम। सब कुछ भूल हम दोनों तुम्हीं में खोए रहते थे। एक बार तुम बीमार पड़ी तो हमारे हाथ-पाँव फूल गए थे। टाइफाइड का बुखार चढ़ता, उतरता, पर ठीक होने में नहीं आ रहा था। हम तो जैसे सोना ही भूल गए थे। बस चारपाई पर लेती हुई तुम्हें देखते रहते। हर समय एक डर मन में बना रहता कि कहीं तुम हमें छोड़ कर न चली जाओ। ईश्वर की कृपा हुई और एक नए डॉक्टर हमें मिले, जिनकी दवाई से तुम ठीक होती गई। हमारे सपने फिर खिलने लगे और तुम उनमें नए रंग भरने लगी। धीरे-धीरे तुम बड़ी हुई, स्कूल जाने लगी।अरे! एक बात बताऊँ तुम्हें। तुम्हें छोटे बच्चे बहुत अच्छे लगते थे। बहुत दिनों तक तुम्हारा कोई भाई-बहिन नहीं हुए तो तुम पड़ोसियों के छोटे बच्चों को गोद में लिए उन्हें खिलाया करती थी। बाद में जब तुम्हारे अपने दो भाई घर आए तो तुमने पड़ोसियों के बच्चों को गोद में भी लेना छोड़ दिया था। कोई तुम्हें बुलाता तो तुम तपाक से कहती- अब तो मेरे भाई है न ,मैं क्यों आऊं? ऐसी थी तुम नटखट, शैतान की नानी।कब मेरी बेटी इतनी बड़ी हो गई थी कि स्कूल से कॉलेज और पढाई पूरी कर, अध्यापिका बन एक दूसरे प्रांत में नौकरी भी करने चली गई , पता ही नहीं चला। तुम्हारे जाने के बाद मैं बहुत रोई थी क्योंकि मैं अकेली जो रह गयी थी। हर काम हम मिल कर किया करते थे। कहीं जाना हो हो, शॉपिंग करनी हो, फ़िल्म देखनी हो, घर में काम हो, सब मिल कर ही तो करते थे हम और तुम्हारे जाने से मेरी सहेली जैसे दूर हो गई थी।जानती हो, जब तुम चली गई थी तो पड़ोसियों, रिश्तेदारों, जान-पहचान वालों….सभी ने मुझसे कहा था कि कैसी और कितनी पत्थरदिल हो तुम! तुम्हारी एक ही बेटी और उसे भी तुमने इतनी दूर भेज दिया! तो मैंने कहा था था कि हां, मैं तो ऐसी ही पत्थर दिल हूँ। पर बेटी मेरा सोचना था कि अपने बच्चों को सपने देखने के लिए खुला आसमान देना चाहिए और उन सपनों को पूरा करने की उड़ान भरने में माता-पिता को बाधक नहीं सहायक होना चाहिए और मैंने यही किया।इन वर्षों में कितना कुछ घटा। तुम्हारा और तुम्हारे भाइयों का विवाह हुआ, तुम तीनों बहिन-भाई माता-पिता बने और हम नाना-नानी और दादा-दादी बने। हमारा परिवार पूर्ण हुआ । इस बीच दो-तीन बार तुम्हारे पापा इतने बीमार भी पड़े कि ऐसा लगने लगता था कहीं हमें छोड़ कर न चले जाएँ। तब तुम्हारा बार बार छुट्टियाँ लेकर आना, रह कर हमें मजबूती देना और अपने पापा की सेवा करना, मुझे ढाँढस बँधाना, घर के सारे काम करना, क्या मैं कभी भूल सकती हूँ?दिन बदले, समय बदला, पर मेरा-तुम्हारा सहेलियों वाला रिश्ता नहीं बदला। थोड़े-बहुत उतार-चढाव आये जरूर, पर रिश्तों की सुंदरता और गर्माहट वैसी ही बनी रही। उम्र बढ़ने के साथ शक्ति कम होने से मैं तुम पर और भी अधिक निर्भर होने लगी थी। फोन पर लंबी-लंबी बातें किए बिना हमें तो जैसे चैन ही नहीं आता था। तुम्हारे पापा भी कहते थे कि तुम दोनों माँ-बेटी द्रौपदी के चीर की तरह इतनी देर तक क्या बतियाती रहती हो। तभी तो जब तुम अपनी नौकरी से स्वैच्छिक सेवनिवृत्ति लेकर आई तो सबसे ज्यादा खुश मैं और तुम्हारे पापा ही थे , क्योंकि हम तुम्हारे आने से अपने को मजबूत समझने लगे थे। हमारा अकेलापन कम हो गया था।लिखने की तो मेरी बेटी इतनी बातें हैं मेरे पास कि अगर उन सब बातों को लिखना शुरू करूँ तो ये पत्र कभी खत्म ही न हो।हमारी खुशियाँ लौट आईं थी की पहले तुम्हारे पापा बीमार हुए, वे संभले तो मैंने बिस्तर पकड़ लिया। उस समय तुम और तुम्हारे पूरे परिवार ने जिस तरह हमें संभाला, उसके लिए हमें तुम पर गर्व है। बेटियाँ किस तरह अपने माता-पिता का शक्ति स्तंभ बिना कहे बन जाती हैं ये तुम्हें देख कर ही मैंने जाना। मुझे एक ही दुःख सालता है कि मैं चलते समय तुम्हें कुछ कह नहीं सकी। मैंने तुम्हारा इंतज़ार नहीं किया। मैं तुम्हारे पापा और तुम्हारी आँखों में अपने खोने का डर रोज़ देख रही रही थी। मैं चाहती थी कि मैं ख़ुशी बन कर तुम दोनों की यादों में जीऊँ, डर बन कर नहीं, बस इसीलिए बिना कुछ कहे, तुम दोनों का इंतज़ार किए बिना चली गई। इंतज़ार करती तो तुम दोनों क्या मुझे जाने देते। ये बात अलग है कि मेरे जाते ही तुम्हारे पापा भी तुम्हें छोड़ कर मेरे पास आ गए। हमारे बिना तुम कितनी अकेली हो, कितनी दुखी हो, बस इसी से हम बहुत दुखी हैं। पर मैं जानती हूँ कि मेरी साहसी बेटी हमे अपनी स्मृति में बसाए हुए हमारे अधूरे और अपने पूरे सपनों को अवश्य पूरा करेगी।पुनर्जन्म में हमें पूरा विश्वास है और तुमने हमारे लिए एक कविता लिखी थी न, उसकी कुछ पंक्तियाँ मुझे याद आ रही हैं…..पुनर्जन्म जब भी हो तुम्हाराफिर से जीवन साथी बननाऔर जब माता-पिता बनो तुम मुझको ही अपनी बेटी चुनना।इसलिए हम तो अब इसी प्रतीक्षा में हैं अपने इसी विश्वास को लिए हुए कि हमारा पुनर्जन्म अवश्य होगा, हम फिर जीवन … Read more

ऐसे थे हमारे कल्लू भैया

अजय कुमार श्रीवास्तव (दीपू)लखनऊ बात 1986 की है मैं उस समय हाईस्कूल का छात्र हुआ करता था। मेरी दोस्ती हुई राजीव मिश्रा नाम के एक सहपाठी के साथ। प्यार से उन्हें लोग टिल्लू भाई पुकारा करते थे। टिल्लू के साथ दोस्ती के बाद मैंने उनकी दो आदतों को अपनी आदतों में शामिल कर लिया। एक था उनके नाई अयूब भाई से बाल कटवाना और दूसरा उनके साथ मल्हू भाई के दुकान पर रोज जाकर दोहरा खाना। दोहरा खाने का एक सबसे बड़ा फायदा यह था कि घर पर किसी को पता नहीं चलता था कि मैं दोहरा (पान में पड़ने वाला मीठा मसाला) खाता हूँ। चूंकि इसमें पान, चूना या कत्था जैसी कोई चीज नहीं होती थी इसलिए मुँह में कुछ लगता नहीं था और मै घर अपनी माता जी से डांट खाने से बच जाता था।मल्हू भईया के तीन और भाई थे। सबसे बड़े ज्ञान भईया, उसके बाद कल्लू भईया और सबसे छोट थे दिनेष। टिल्लू की दोस्ती और मल्हू भाई के दोहरे से मुझे ऐसा प्यार हुआ कि मैं शाम को कोचिंग से सीधे मल्हू भाई की दुकान पर पहुंच जाता और कुछ समय वहीं पर टिल्लू के साथ बिताता। धीरे-धीरे मल्हू भाई के साथ ही साथ उनके सभी भाईयों से मेरी दोस्ती हो गई। अब रोज मल्हू भाई की दुकान पर बैठकी होने लगी। उसी दुकान पर कुछ लोगों की एक अलग पार्टी भी बैठकी करती थी जिन्हें शायद मेरा वहां पर बैठना अच्छा नहीं लगता था। एक दिन किसी बहाने से वे मुझसे लड़ाई करने लगे बातचीत चल ही रही थी कि मुझे पीछे से किसी ने एक झापड़ रसीद दिया। मैं कुछ समझ पाता कि इससे पहले बगल वाली दुकान जिस पर मल्हू भाई के तीनों भाई बैठा करते थे, में से निकल कर कल्लू भईया उन सभी लोगों से भिड़ गये। कल्लू भईया का उन लोगों से भिड़ना क्या था सभी भाईयों के साथ ही आस-पास के दुकान वालों ने भी कल्लू भईया की तरफ से मोर्चा संभाल लिया। मुझे कल्लू भईया ने तुरन्त घर जाने को कहा और मैं भी और अधिक मार खाने की डर से सीधे घर की तरफ भाग चला। घर पहंुच कर मुझे बहुत आत्मग्लानि महसूस हुई कि तुम्हारे कारण कल्लू भईया ने सभी से लड़ाई मोल ली और तुम कायरों की तरह घर भाग आये। बहुत शर्मिन्दगी महसूस हुई। साईकिल उठायी और फिर सीधे कल्लू भाई की दुकान की तरफ भागा। वहां पहंुचने पर जो नजारा देखने को मिला मैं समझ गया कि कोई बहुत बड़ी बात हो गई। सुलतानपुर जैसे छोटे से शहर की सबसे बड़ी मार्केट की दुकानों के शटर गिर चुके थे। कल्लू भईया और उनके भाईयों का भी कहीं कुछ पता नहीं चला। उस समय मोबाइल नहीं हुआ करता था। हार कर मैं भी अपने घर लौट आया। सुबह हुई दूसरी पार्टी में शामिल एक लड़के के चाचाजी मेरे पिता जी के पास षिकायत के साथ खड़े थे कि आपके लड़के की वजह से मेरे लड़के को बहुत मार पड़ी। उसकी पीठ खोलकर दिखाई तो उसके निषान बता रहें थे कि कल मेरे घर भाग आने के बाद की स्थिति क्या रही होगी। मैं तुरन्त कल्लू भईया की कुषल क्षेम पूछने के लिए उनकी दुकान की तरफ भागा। दुकान पर सभी भाई मौजूद थे और वो भी पूरी तैयारी के साथ कि अगर दूसरी पार्टी फिर आती है तो आज फिर वही होगा जो कल रात को हुआ था। खैर पिता जी के इस आष्वासन के बाद कि अब उनके लड़के को फिर से यह तकलीफ नहीं उठानी पड़ेगी दूसरी पार्टी शांत पड़ गई थी और मेरे हीरो कल्लू भईया हो गये।धीरे-धीरे कल्लू भईया से ऐसी आत्मीयता हो गई कि उनसे अगर एक दिन भी न मिलू तो मन ही नहीं लगता। मेरी जिंदगी में मेरी माता जी के बाद अगर किसी का सबसे बड़ा प्रभाव पड़ा तो वे थे कल्लू भईया। मेरी जिदंगी में कल्लू भईया का मतलब था कि सभी समस्याओं का समाधान। उनके रहते मैंने किसी भी तरह की समस्या को गंभीरता से लिया ही नहीं। मेरा बस एक ही काम होता था वो था समस्या को कल्लू भईया तक पहुंचाना। बाकी समस्याओं के समाधान का काम कल्लू भईया खुद करते थे। समस्या चाहे सामाजिक हो, आर्थिक हो या राजनैतिक सभी समस्याओं का समाधान मेरे कल्लू भईया ऐसा करते थे कि मुझे पता भी नहीं चलता था और समस्या गायब भी हो जाती थी। अपनी माता जी और कल्लू भईया से मैंने जो सबसे बड़ी चीज सीखी वो है किसी दूसरे को बिना किसी स्वार्थ के प्यार करना, उसे मदद करना। फिर वो चाहे कोई भी हो इसका कल्लू भईया पर कोई फर्क नहीं पड़ता था।बात 1995 की है। उस समय मैं बेरोजगार था जिसके कारण पैसों की समस्या सताने लगी थी। कल्लू भईया से कहां तो बोले क्या करना चाहते हो? उस समय पी.सी.ओ. का काम बहुत अच्छा माना जाता था। मैंने कहा कि पी.सी.ओ. खोलना है पर लाइसेंस कैसे मिलेगा? मेरा इतना कहना था कि वो मुझे अपनी स्कूटर पर बिठा कर पहंुच गये उस कमेटी के सदस्य के पास जो पी.सी.ओ. का आवंटन करते थे। लिस्ट आई तो मुझे भी एक पी.सी.ओ. मिल चुका था। समस्या दुकान की आयी। पिता जी से बोला तों कुछ पैसों का इतंजाम उन्होंने किया और एक लकड़ी की गुमटी खड़ी हो गई। लाइट का कनेक्षन भी मिल गया पर अब तक पैसे खत्म हो गये थे। उसी बीच एक दिन शाम को कल्लू भईया के घर पर एक पार्टी थी। मैं भी पहुंचा। पार्टी घर के दो मंजिला छत पर चल रही थी। कल्लू भईया ने बात ही बात में मेरे पी.सी.ओ. के बारे में पूछा तो मैं चुप हो गया। उनको समझते देर न लगी कि मुझे पैसों की समस्या आ गई है। बोले पी.सी.ओ. खुलने के लिए अभी कितना पैसा चाहिए? मैंने हिसाब लगाया कि 18 हजार रूपये की तो मषीन ही है बाकी सभी चीजों को शामिल करते हुए मैंने उनसे 23 हजार रूपये बताये। बिना कुछ सोचे वे मेरा हाथ पकड़ कर नीचे अपने कमरे में ले गये और लाॅकर से 23 हजार रूपये निकाल कर मुझे देते हुए बोले ‘इसे शर्ट के अंदर डालो और सीधे … Read more

” मेरी बेटी….मेरी वैलेंटाइन “

            कहते हैं कि बेटियाँ माँ की परछाई होती है। एक-दूसरे की प्राण होती हैं। एक जन्म देकर माँ बनती है तो दूसरी जन्म पाकर बेटी। दोनों एक-दूसरे को पाकर पूर्ण होती हैं, इसी से एक-दूसरे की पूरक बन जाती है। बिना कहे समझ जाती हैं दिल की बात, आवाज़ से ही जान जाती हैं कि दुःख की बदरी सी मन-प्राणों पर छाई है या कोई ख़ुशी छलकी जा रही है। इसका अनुभव अपनी माँ की बेटी बन कर खूब बटोरा, और अब अपनी बेटी की माँ बन कर फिर वही सब जीने का अवसर मिला है। ओस की निर्मल बूँद सी होती हैं बेटियाँ… जो अपने निश्छल प्यार की शीतलता से जीवन में खुशियों का अंबार लगाए रखती हैं, घर को अपनी खिलखिलाहट और चहचहाट से गुँजायमान रखती हैं कि उदासी पसरने ही नहीं पाती। कभी गुनगुनाती हैं, कभी कुछ पकाती हैं, कभी सब उलट-पुलट कर घर को सजाने-सँवारने लगती हैं, तो कभी पूरे घर को आसमान पर उठाए फिरती हैं।सखी-सहेली बनती है तो माँ से बतियाने की कोई सीमा ही नहीं रहती।अतिथि आ जाए तो आतिथ्य की जिम्मेदारी से मुक्त कर स्वयं लग जाती है।          और यही बेटी जब दुल्हन बन, सात फेरे लेकर  अपने ससुराल चली जाती है तो जैसे घर की सारी रौनक, चहल-पहल अपने साथ ही ले जाती है। पर ये रिश्ता माँ-बेटी का ऐसा है कि इसमें दूरियाँ कोई मायने नहीं रखती। बिना कहे, बिना आए एक-दूसरे को अनुभव करती रहती है, एक-दूसरे को अपने हृदय में जीते हुए एक-दूसरे का साहस बनी रहती हैं।      बस इसीलिए मैं अपनी बेटी को अपने एकदम निकट पाती हूँ और सोच की गहराइयों में डूब कर अपनी बेटी को ही ” ” “अपना वैलेंटाइन” पाती हूँ। डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ यह भी पढ़ें  निराश लोगों के लिए आशा की किरण ले कर आता है वसंत अपरिभाषित है प्रेम प्रेम के रंग हज़ार -जो डूबे  सो हो पार                                                         आई लव यू -यानी जादू की झप्पी आपको  लेख   “” मेरी बेटी….मेरी वैलेंटाइन “” कैसा लगा    | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें 

शिक्षक दिवस पर विशेष :मैं जानता था बेटी….( संस्मरण )

     डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘   ये तब की बात है जब मैं पांचवीं कक्षा में पढ़ती थी। एक सप्ताह में संस्कृत विषय के नौ पीरियड हुआ करते थे। मध्याह्न के तीन पीरियड में संस्कृत के गुरु जी सबकी लिखाई अच्छी हो, इसके लिए वे पुस्तक का एक पूरा पाठ लिखवा कर देखा करते थे। कक्षा के कुछ छात्र तो इस अंतिम पीरियड में भाग जाते, कुछ अधूरा पाठ लिख कर दिखाते थे। मेरी लिखाई अच्छी थी। मैं पूरा पथ लिखती, दिखाती और सदा वेरी गुड पाती थी। उन शैतान विद्यार्थियों की देखा-देखी मैंने भी लिखाई के पीरियड में आधा पाठ लिख कर दिखाना आरंभ किया और गुरु जी पूर्ववत वेरी गुड देकर शाबाशी देते रहे, हस्ताक्षर करते रहे। मन में एक कचोट सी उठती थी कि मैं उनसे झूठ बोल रही हूँ। एक दिन कॉपी दिखाते समय मुझसे रहा नहीं गया और कॉपी में उनके गुड लिखने से पहले ही मैं बोल उठी–गुरु जी मुझे गुड़ मत दीजिए, मैंने पाठ पूरा नहीं लिखा है। तो वे बहुत प्यार से बोले–मैं जानता था बेटी, और ये जानता था कि अपनी इस गलती को तुम स्वयं अनुभव करोगी और आकर मुझे बताओगी, क्योंकि कक्षा के जिन शैतान  विद्यार्थियों के साथ आलस्य व झूठ के जिस रास्ते पर तुमने कदम रखा,वह रास्ता तो तुम्हारा है ही नहीं। इसलिए तुम्हें गुड-वेरी गुड़ देने में मुझे कभी संकोच नहीं हुआ। तुम अपने रास्ते पर लौट आई हो…तो अब देखना, जीवन में फिर कभी भी तुम ऐसे लोगों का साथ नहीं करोगी।     संस्कृत के गुरु जी के मुझ पर किये उस विश्वास की आभा ने मुझमे सही और गलत पहचानने की जो क्षमता मुझमे विकसित की, उसके कारण ही मैं आज भी गलत लोगों के साथ से दूर हूँ। इसके लिए जीवन भर मैं उन गुरु जी की ऋणी रहूँगी। —————————- डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई

इंजिनियर का वीकेंड और खुद्दार छोटू

आज कल हम आईटी. वालो को भले ही दिहाड़ी मजदूर जैसे तख्ते ताज़ो से नवाज़ा जाता है लेकिन इस घनचक्कर आईटी जॉब का एक बहुत बड़ा फ़ायदा  है,हमारा वीकेंड 2 दिन का होता है , जिसमे शुक्रवार की रात हमारी वैसे ही निकलती है जैसी स्कूल की गर्मी की छुट्टियों के पहले का आखरी दिन होता था|  छुट्टी मे ये कर देंगे, वो कर देंगे और ना जाने कितने कितने बेफ़िज़ूल वायदे जो हम अपने से कर लेते थे फिर कुछ लड़के थोड़ी रंग बिरंगी बोतलों और बातो से पूरी रात निकाल  देते है और कुछ रंग बिरंगी फ़िल्मो से| ऐसी ही किसी एक  शुक्रवार की रात मै कुछ 3-4 बजे कोई 1990 की टिपिकल बॉलीवुड फिल्म देख के सोया था और शनिवार को चौड़े हो कर दिन के 12 बजे उठा.हुमारा लिए वो शनिवार की सुबह किसी रिटायर्ड  आदमी से कम नही होती , अख़बार के पहले पेज से आखरी पेज तक मैने कुछ दो  घंटे ले लिए थे और साथ मे ब्रश और नित्य क्रियाएं निपटा ली थी. इंजिनीयर्स का नहाने से कुछ वैसा ही संबंध है जैसा की बॉलीवुड फ़िल्मो मे रंजीत का अच्छाई से होता था. सो हमने उस दिन भी इसी परंपरा को जीवंत रखा और अख़बार समेट के चल दिए 2 बजे नाश्ता करने, या यूँ कह लीजिए लंच करने.मै बंगलोर मे रहता हूँ, दक्षिण भारत के इस शहर मे कानपुर से ले कर मुंबई और गुजरात से ले कर तमिलनाडु तक हर प्रजाति के लोग पाए जाते है| बहराल मै अपनी भूख मिटाने एक  मुंबइया ढाबे पर  जा पहुँचा| भाई वाह , क्या  माहौल था वहाँ का, मालिक ने नौकरो के नाम गाँधी, मनमोहन और अटल रखे हुए थे, मतलब ठीक उनकी प्रवत्ति के अनुसार. मैने भी वहाँ भीड़ मे एक  स्टूल पकड़ लिया और आवाज़ दी ‘छोटू‘. वैसे आपने कभी महसूस किया है की “ये जो छोटू होते है, ये अक्सर अपने घर के बड़े होते हैं”.बाल -श्रम निश्चित तौर पर दुखद है|  पर दर्दनाक सच्चाई ये भी है कि हमारे समाज में गरीबी और भुखमरी के चलते तमाम छोटूओ को चाहते न चाहते हुए अपने परिवार की जिम्मेदारी उठानी पड़ती है | गरीब परिवारों के खाली पेट मात्र कानून से नहीं भरते | खैर ! अगले ही पल छोटू मेरे सामने खडा था | उस छोटू ने मुझे ढाबे का मेनू वैसे ही सुना दिया जैसे उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों  को हनुमान चालीसा मुँह  ज़बानी याद होती है. मैने भी अपने नाश्ते और लंच को जोड़ते हुए कुछ आलू के पराठे और चाय ऑर्डर कर दी|               गौरतलब  बात ये है की कई बार साउथ  इंडिया मे आपको वो स्वाद मिल जाता है जो की नॉर्थ इंडिया मे भी नही मिला होता है. इस मुंबइया के यहाँ भी कुछ ऐसी ही बात थी. चार  पराठे, बटर और चाय के साथ डकार मारते हुए मैने छोटू को दुबारा आवाज़ दे कर बिल माँगाया. वो छोटू कुछ 12-13 साल का रहा होगा. मैने उसे अपने बटुए से कुछ 5 रुपये एक्सट्रा दिए और बैठ के पानी पीने लगा. मुझे लगा लड़का पाँच रुपये अपनी जेब मे डालेगा और बाकी का बिल पैसो सहित मालिक को पकड़ा देगा. लेकिन उस छोटू की खुद्दारी देख के मुझे अपने उपर शर्म आ गयी जब उसने वो सारे पैसे मालिक को दिए और बोला साहब ने टिप भी दी है. मालिक को उससे क्या, उसने उसे एक  रुपया भी नही दिया और पूरा अपने गल्ले मे डाल लिया. मैने उस समय तो कुछ नहीं कहा और अपना बाकी का दिन आगे बढ़ाया. चूँकि मै उस एरिया मे ही रहता था , इसलिए मै अक्सर उस ढाबे पर  ही जा के वीकेंड का जायका लिया करता था. धीरे धीरे उस छोटू की आँखो से भी दोस्ती हो गयी और मेरे आते ही वो चाय तो अपने आप ला के रख देता था|                       उस साल मुझे कंपनी के काम से विदेश जाना पड़ा एक  लंबे प्रॉजेक्ट के लिए|उन 4-5 सालो मे मै युरोप के कई देश घूमा , वापस बंगलोरे आ के मैने दोबारा रूम देखा लेकिन इस बार एरिया दूसरा था| खैर धीरे धीरे वहाँ भी जिंदगी सेट्ल हो गयी. हमारी इंजिनीयरिंग  प्रजाति मे ये चीज़े अडॉप्ट कर लेने की बड़ी अच्छी आदत होती है | जगह कोई भी हो, कुछ चाय और सिगरेट पर  बड़े गहरे दोस्त बन जाते हैं और आप खुद को उस एरिया का बादशाह समझने लगते हैं|. विदेश से थोड़ी सेविंग कर के मैने बंगलोरे मे घर खरीदने का प्लान किया और जगह जगह खोज शुरू हो गयी. संयोगवश मै वापस उसी मुंबइया ढाबे पर  आ पहुँचा , सब कुछ वैसे का वैसा ही था. बाहर कुछ लड़के सिग्रेट फूँकते हुए रोहित शर्मा को गाली दे रहे थे और अंदर वैसी ही भीड़ थी. उस पराठे की खुश्बू मे मैने वापस एक  स्टूल पकड़ लिया और फिर वही आवाज़ लगा दी ‘छोटू‘.| इस बार एक नया छोटू था लेकिन ऑर्डर वही पुराना था और चाय भी वही पुरानी मलाई वाली| खा पी के बिल देने मै खुद ही काउंटर की ओर बढ़ चला. जब वहाँ मैने टोटल ऑर्डर वग़ैरह बताते हुए जैसे ही पर्स निकाला और सामने देखा.                  अरे ये तो वही लड़का था जो 4-5 साल पहले मेरे आते ही चाय ला देता था, छोटू अब बड़ा हो गया था. रिश्ता थोड़ा पुराना ज़रूर था हमारा लेकिन थोड़ी बातचीत के बाद वो भी मुझे पहचान गया| वो अब 18 साल का नौजवान हो गया था और खुद ही ढाबा चला रहा  था. बातो बातो मे उसने बताया की मालिक ने कई और ढाबे खोल लिए हैं और इस ढाबे की ज़िम्मेदारी उसे दे दी है| वो 18 साल का लड़का अभी एक  पूरी दुनिया चला रहा था उस ढाबे के अंदर , सामान से लेकर ग्राहक तक, हर ज़ुबान पे उसका ही नाम था फिर भी वो सब कुछ बड़े आराम से संभाल रहा था|  ये बताते समय उसकी आँखों में गर्व था और मेरी आँखों में सम्मान का भाव | ये वो मैनेजमेंट  है ,जो किसी भी आई आई एम  या आई आई टी से नहीं आता, ये जिंदगी की ज़रूरतो से लड़ते हुए खुद बखुद आ जाता … Read more

शिक्षक दिवस : जब टीचर की प्रेरणा से पढने में लगा मन

नीलम गुप्ता  शिक्षक दिवस अपने शिक्षकों के प्रति आभार व्यक्त करने का दिन है |क्यों न हो आखिर उन्हीं ने तो हमें ज्ञान का मार्ग दिखाया है  ऐसे में अपनी एक टीचर के प्रति आभार व्यक्त करते हुए आपसे अपने जीवन का एक महत्वपूर्ण किस्सा शेयर करना चाहती हूँ |                      बात तब की है जब मैं बहुत छोटी थी | अपने पापा -मम्मी की एकलौती बेटी होने के कारण शैतान और नकचिढ़ी  भी थी | जिद्दी इतनी की जो मांगू जब तक मिल न जाए तो खैर नहीं | पढ़ाई से तो मेरा दूर -दूर तक नाता ही नहीं था | हर बार पी टी ऍम में माँ -पापा को मेरी ढेरों शिकायतें सुनने को मिलती | घर में आ कर माँ मुझे पढने के लिए कहती , डांटती  ,मारती पर मेरे कान पर जूँ भी नहीं रेंगती | बात शायद फोर्थ क्लास की है जब मेरी रोज -रोज होम वर्क न करने की आदत से परेशांन  हो कर  मेरी टीचर ने माँ को समझाया की इसी किसी ईनाम का लालच दीजिये जिससे ये पढ़े व् अच्छे नंबर लाये | मेरे पापा बड़े व्यवसायी हैं ,घर में कोई कमी कभी देखी  नहीं |फिर भी माँ ने टीचर की बात पर अमल करते हुए     मेरा मनपसंद कैमरा देने की पेशकश की | उन्होंने कहा ” अगर मैं इस बार अच्छे नंबर लायी तो वो मुझे गिफ्ट में कैमरा देंगी | पर  मेरे दिमाग में कैमरा घूम गया ,मैं इतना सब्र कहाँ कर सकती थी|  मैं उसी रात पापा से उस कैमरे की जिद कर बैठी , मैंने खाना भी नहीं खाया |पापा की लाडली होने के कारण एक दो दिन में  कैमरा मेरे हाथ में था | फिर किसको पढना था | बस दिन भर क्लिक ,क्लिक ,क्लिक | नतीजा मेरी कक्षा में सबसे पिछली रैंक आई | बस यूँ कहिये की फेल होने से बच गयी | माँ -पापा चाहते थे की मैं अच्छी पढाई  करू ….पर  मैं तो मैं ही रही| अगले साल क्लास ५ में स्कूल की तरफ से बंगलौर टूर गया | जाहिर हैं मैं भी गयी | हमने बहुत मजा किया |  एक दिन यूँ ही घुमते -घुमते हम इंडियन इंस्टीट्युट ऑफ़ साइंस के बाहर से निकले | मेरी टीचर ने ” नीलम देखो , इसके अन्दर हर कोई नहीं घुस सकता , केवल अपनी योग्यता को सिद्ध करके ही यहाँ प्रवेश मिल सकता है | पैसे के दम पर तुम दुनिया में चाहे जहाँ घूम लो पर यहाँ तुम्हारे पापा का पैसा काम नहीं आएगा | मैं एक टक  देखती रही |  उस दिन से मैंने प्रण किया कि मुझे बहुत पढना है आई .आई .एस में  जाना है | मेरी शैतानियाँ थम गयी | टीचर ,माँ -पापा सब हैरान की मुश्किल  से पास होने वाली नीलम ९९ % नंबर कैसे ले आई | तब से आज तक मैं लगातार फर्स्ट  फाइव में आती रही | न  जाने कितने इंटर स्कूल क्विज कॉम्पटीशन जीते  | एक छोटे से वाक्य ने मेरे जीवन की दिशा बदल दी | टीचर की प्रेरणा से ही एक  शैतान  पढ़ाकू में बदल गयी ,पर जिद्दी अभी भी हूँ और यह जिद्द ही मुझसे  सफलता के नए नए अध्याय लिखवा रही है | मुझे ये सफलता  मिली है ….अपनी प्रतिभा के दम  पर | अपने पापा के पैसे के दम  पर नहीं | आज अपने टीचर को याद करते हुए मन भावुक हो रहा है | एक सलाम मेरी टीचर के नाम  अटूट बंधन टीचर से संबंधित  पोस्ट …. कहानी – फिर हुई मुलाकात लघुकथा – प्रतिशत शिक्षक दिवस पर विशेष – मैं जानता था बेटी ( संस्मरण ) गुरु चरण सीखें ( कविता )

“एक दिन पिता के नाम “………मेरे पापा ( संस्मरण -संध्या तिवारी )

आंगन के कोने में खडे तुलसी वृक्ष पर मौसमी फल लगे ही रहते थे ।कभी अमरूद, कभी आम , कभी जामुन , कभी अंगूर ,,,,,,,,,, मै जब भी सो कर उठती मुझे तुलसी में लगा कोई न कोई फल मिलता और मै खुशी से उछल पडती । एक दिन मैं जागी और कोई फल न देख बहुत दुखी हुई मैने पापा से शिकायत की। “देखो पापा आज तुलसी जी ने कोई फल नहीं दिया । “ पापा ने मम्मी को सख्त हिदायत दी”  कि अपनी तुलसी मैया से कहो कि मेरी बच्ची के लिये रोज एक फल दें ।” मम्मी ने हंस कर कहा ; ” जो हुकुम मेरे आका।” जब तक मै समझ नहीं गई कि तुलसी में ये फल कैसे लगते है तब तक वे फल लगते रहे। आसमान से पुये बरसते।सोते सोते मुंह में रबडी का स्वाद घुल जाता । इन सबके पीछे था मेरे ममत्व भरे पापा का हाथ। मेरे पापा फैक्ट्री से आते वक्त न जाने कहां से लाल-लाल कोमल-कोमल वीर बहूटी लाते हम उन्हें  कुतूहल से एक डिब्बे में रखते और बडे जतन से उनकी देखभाल करते ।न जाने कहां से वे शहतूत के पत्ते में चिपकी इल्ली लाते और उन्हें शीशे के जार में रख देते । इल्ली से तितली तक का सफर हम आंखो देखते और रोमान्चित होते।मेरी कुतूहल और जानकारी की दुनिया यही से पुष्पित पल्लवित हुई।                   बुलबुल , मछली , लाल मुनिया , खरगोश , सफेद चूहे , बिल्ली और कुता सब कुछ था मेरे बचपन में।इन सब पशु पक्षियों की देखभाल ने मुझमे  दया ,सुरक्षा ,जिम्मेदारी की भावना को भर दिया।              उत्तराखण्ड की पहाडियों मे बसा है एक शक्ति पीठ।किंवतन्ती है कि यहां मां सती के क्षत विक्षत शरीर से नाभि का भाग गिरा  था।यह  पूर्णागिरि शक्ति पीठ कहलाता है । मेरे पापा हर साल पूर्णागिरि पर प्याऊ और तीर्थयात्रियों के लिये रहन सहन की व्यवस्था किया करते थे। मै भी पापा के साथ पूर्णागिरि जाती और पूरे महीने पहाडो झरनो का आनन्द लेती । एक बार पूर्णा गिरि पर धर्मशाला बनबाते समय उनकी जांघ पर एक बडा पत्थर गिर गया और बहुत चोट आई । लेकिन उस हाल में भी वह लगभग बारह किलोमीटर की पैदल उतराई और चार घंटे का बस का सफर करके  घर आये। इतने जीवट थे मेरे पापा। अपनी जिद से खानदान के मना करने के बाबजूद उन्होने मुझे को एड में ( क्योकि तब कोई गल्स काॅलेज नहीं था ) एम ए , बी एड पढाया और रंगमंच पर भी काम करने दिया। पुरानी पिक्चर के ही मैन अर्थात धरमेन्द्र की छवि से मिलते जुलते थे मेरे पापा ।आज भी हैन्सम है , धरमेन्द्र से ज्यादा।       जीवट जुझारू किसी मजवूत अभेद्य दीवार जैसे। ममत्व ,सुरक्षा ,आत्मविश्वास ,जीवटता सम्वेदनशीलता आदि गुण मेरे पापा ने मुझमे बिना कहे सुने ही अपने कृत्यों से भर दिये। यदि उन्होने मेरे बचपन को इतना समृद्ध न किया होता तो आज मैं भी किसी कोने में बैठ कर सिवाय चुगलियां करने के ओर कुछ नहीं कर रही होती।  वट बृक्ष की छाया सा उनका साथ आज भी जीवन की तपिश को कम करता है। मेरे पापा मेरी बचपन की वो समृद्ध दुनियां हैं जहां मैं जाती हूं तो खुद को किसी राजकुमारी से कम नही पाती। डाॅ सन्ध्या तिवारी atoot bandhan……… हमारा फेस बुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम “….कुछ भूली बिसरी यादें (संस्मरण -अशोक के.परुथी

“त्वदीयवस्तुयोगींद्र,  तुम्यमेवसम्पर्य               धर्मप्रेमी, नियमनिष्ठ, साहित्यरसिक!” पिता-दिवस सभी को मुबारक। वह सभी लोग खुशनसीब हैं जिनके सिर पर उनके पिता का साया है और उन्हें उनका आशीर्वाद प्राप्त है! पिता का वर्ष में सिर्फ एक ही दिन क्यूँ, बल्कि  हर दिन आदर और सत्कार होना चाहिये।          व्याखान की सामग्री के रूप में श्लोकों, दोहों, टोटकों, व्यंग्य, कथा–कहानियोंआदिको संग्रह करने की रूचि मुझे प्रारम्भ से ही रही है।  इसका सारे का सारा श्रेय मेरे पूज्य पिताजी को जाता है, उन्होने जो ज्ञान–दान मुझे दिया, वह जीवन में मेरे लिए अविस्मरणीयऔरअमूल्यहै। कुछ भूली बिसरी यादें        मुझे ही नही बल्कि परिवार के अन्य सदस्यों के कण–कण में भी उन का यह उपकार छिपा है!  पिताजी के स्नेह तथा वात्सल्य से लाभान्वित होकर ही मैं लेखन की दिशा मेंअग्रसर हो सका हूँ! पिताजी असूलोंकेबड़ेपाबंदथे, एक ईमानदारऔरमेहनतीइंसानथे।उन्होने  हमारी माताजी, जो पेशे से एक अध्यापिका थी, के सहयोग से हम पाँचभाई बहिनो का अपनी हैसियत से बढ़कर लालन–पालनकिया । उन्होने हमें एक सफल जीवन जीने के लिये जो मूलमंत्र दिये उनको अपना कर ही हम इस मुकाम तक पहुंचे हैं जहांआज हम सब हैं!            पिताजी कुटुम्भ–प्रेमी, सत्यप्रिय, और बड़े उदार प्रतिभा वाले व्यक्ति थे।  एक बात तो मैं आज भी बड़े गर्व के साथ जो उनके बारे में कह सकता हूँ वह यह है कि वे रिश्वत लेनेऔर देने वाले दोनों के ही दुश्मन थे!  घर में सिर्फ उनका मासिक वेतन हीआता थाऔर वह अपनी चादर देख कर ही पाँव फैलाते थे।  पिताजी जबसरकारी नौकरी से निवृत हुये तो उन्होनेअपनाअधिकांश समय जरूरत–मंदों की मदद करने में लगाया। मुझेआजभीबहुतअच्छी तरह याद हैकि पिताजी पेट की गैस से छुटकारा पाने के लिये चूर्ण की गोलियां बनाकर हर जरूरतमंद को मुफ्त वितरित किया करते थे!  लोगों को उनसे कितना स्नेहथा यह उनके दाहसंस्कार के लिए उमड़ –आये लोगो की भीड़ को देखकर ही बनता है!       मेरे संस्कारों एवं शिक्षा निर्माण में उन्होने जो अपना समय मेरे लिए बिताया उनकायहउपहारअमूल्यहैऔरउसकेलिए मैंउनकाऋणीहूँ!  पिता जी केबहुआयामी अध्ययन–अनुभव से ही मेरा ज्ञान एवं अध्ययन भी व्यापक हो सका है।      पिता जी किसी भी बात कोकहावतों, चुट्क्लों–टोटकोंऔरशायरी–दोहों के माध्यम से बड़ी सरलता से कह देते थे।वेअपने तीखे व्यंग्यात्मक और अप्रत्याशित ढंग से किसी भी बात को कहने के लिए बड़े निपुणऔरकुशलथे।  एकबार जो भी व्यक्ति उनके कटाक्ष का शिकार हो जाता वह फिर न तो हंस ही पाताऔर नही रो पाता था।  पिताजी के यह गुण कुछ मुझे भी धरोहर में मिले हैं, ऐसा मेरा मानना है! घिनौनी बात अथवा कार्य करने वाला कोई भी व्यक्ति उनके सम्मुख टिकन ही पाता था, चाहे वहअपने परिवार का कोई सदस्य था या बाहर का।  ऐसे व्यक्तियों को वे निजी–तौरपर बार–बार लज्जित करने में विश्वास रखते थे।  इसके विपरीत, अच्छे कार्य करने वालों कीसराहना और बढ़ाई करने में भी वे कभी पीछे नही रहते थे।        पिताजी का मिजाज बहुरंगा था और वे बहुरस–भोजीथे।  वे एकही बैठक में एक साथअनेक रसों तथा उनके उपरसों का मान करना पसंद करते थे।  वे जब रँगीले मूड में होते थे तो उनकी मजलि सेघंटों ठहाकों सेगूँजती रहती थीं।इस बीच उन्हें समय का तनिक भ आभास न रहताथा और इसी बात को लेकर माँ उनसे अक्सरअपनी नाराजगी दर्शाती थीं                           पिताजी का जन्म खाकी–लखी, जिलाझंग, पाकिस्तान, मेंहुआ।भारत विभाजन के बाद उनका पहला गृह–स्थान कुरुक्षेत्र में रिफ़ूजियों के लिए लगायेग एटेंटों में से एक था।  माँ–बापकीसबसेबड़ीसंतानहोनेकेनाते, यही से उन्होनेअपने सभी परिवार जनों – भाई–बहिन, माता–पिता, पत्नीऔरअपनी संतान का दायित्व संभाला। इसी दौरान नौकरी के ईलावा पिता जीनेअपनी पढ़ाई भी जारी रखी औ रपंजाब युनिवर्सिटीसे स्नातक की डिग्री प्राप्त की जो कि उन दिनो एक बहुत बड़ी बात हुआ करती थी देश बंटवारे से पहले पिता जी एफ.ए.(ग्यारवीं के समकक्ष) थे।  पिताजी ने दसवीं क्लास प्रथम श्रेणी में पास कीऔर उनके प्रमाण–पत्र पर गवर्नमेंट हाईस्कूल, शोरकोट, पंजाबयुनिवर्सिटी, लाहौर – सत्र 1936- अंकित है।  पिताजी नेअपने 28-30 वर्ष का सेवा काल, नाभा, पटियाला, लुधियाना, जालंधर, चंडीगढ़ आदि शहरों में पूरा किया औरअंत का समय उन्होने हरियाणा केशहर रोहतक में बिताया।       इन विभिन्न प्रदेशों के प्रवासऔर हिन्दी, पंजाबी, अ्ग्रेज़ी तथा उर्दू–फारसी के विभिन्न साहित्यों काअनुशीलन करने के अतिरिक्त, समाज के विभिन्न दौर से गुजरने केअपने अनुभवोंका एक विशाल संग्रह पिताजी के पासथा जिसकी एक छाप कुछ हद तक मुझमें भी झलकती है जो शायद पाठकों को मेरी कुछ रचनाओ में भी देखने को मिले।अंत में बस मैं इतना ही कहूँगा कि पूज्य–पिताजी की बदौलत जो संस्कार, संयम, ईमानदारी तथा व्यंगात्मक स्वभाव मुझे विरासत में मिला है उसके लिए मैं सदैव उनका ऋणी हूँ/रहूँगा। सबसे बड़ा उपहार जो ईश्वर ने हम सब को दिया है वह है पिता! अशोक परुथी “मतवाला“   अटूट बंधन ………. हमारा फेसबुक पेज 

“एक दिन पिता के नाम ” —-वो २२ दिन ( संस्मरण -वंदना गुप्ता )

                                          “एक  दिन  पिता के नाम  “ आपकी ज़िन्दगी  आपकी साँसें  जब तक रहेंगी  तब तक  हर दिन पिता को समर्पित होगा  वो हैं तो तुम हो  उनके होने से ही  तुम अस्तित्व में आये  फिर कैसे संभव है  एक दिन पिता के नाम करना ? मेरे लिए तो  हर दिन , हर घडी , हर पल  है पिता के नाम  इसलिए  नहीं समेट सकती  अपने जज़्बात  अपनी संवेदनाएं  अपने भाव  किसी एक दिन में …….. वो २२ दिन  मेरे पिता संघर्ष की एक मिसाल रहे । जाने कितने जीवन में उन्होने उतार चढाव देखे मगर हमेशा हँसते रहे , मुस्कुरा कर झेलते रहे , कभी कोई शिकवा नहीं किया किसी से कोई शिकायत नहीं की ।  मेरे पिता ने हमेशा अपने आदर्शों पर जीवन जीया , सत्य , दया , अनुशासन , ईमानदारी कूट कूट कर भरी हुई थी जिसके लिए वो कुछ भी कर सकते थे । उनकी ईमानदारी पर तो एक दूधवाले , किराने वाले तक को इतना विश्वास था कि कहते थे बाऊजी हम गलत हो सकते हैं लेकिन आपका हिसाब नहीं क्योंकि यदि उनके पैसे निकलते थे तो खुद जाकर दे कर आते थे । इसी तरह काम के प्रति अनुशासन बद्ध रहे कि जब ऑफ़िस के लिए साइकिल पर निकलते तो गली वाले घडी मिलाते कि इस वक्त ठीक साढे नौ बजे होंगे क्योंकि बाऊजी को देर नहीं हो सकती और वो ही सारे गुण हम बच्चों में आये । बेटियाँ में उनकी जान बसती थी्। यदि क्रोध था तो वो भी प्यार का ही प्रतिरूप था , यदि अनुशासन था तो उसमें भी उनकी चिन्ता झलकती थी । आज यूँ लगता है जैसे अपने पिता का ही प्रतिरूप बन गयी हूँ मैं क्योंकि उन्ही सारे गुणों से लबरेज खुद को पाती हूँ शायद ये बात उस समय नहीं समझ सकती थी मगर आज मेरे हर क्रियाकलाप में उन्ही को खुद में से गुजरते देखती हूँ और नतमस्तक हूँ कि मैं ऐसे पिता की बेटी हूँ जिन्होने इतने उत्तम संस्कार मुझमें डाले कि आज उन्ही के बूते एक सफ़ल ज़िन्दगी जी रही हूँ और उसी की चमक से जीवन प्रकाशित हो रहा है । लेकिन ज़िन्दगी भर नहीं भूल सकती अपने पिता के जीवन की अन्तिम यात्रा तक के वो क्षण जिनकी साक्षी मैं बनी और वो मेरे दिल पर अदालती मोहर से जज़्ब हो गए और एक ऐसा अनुभव मिला जो हर किसी को जल्दी नसीब नहीं होता कुछ इस तरह : किसे ज्यादा प्यार करती है मम्मी को या बाऊजी को ? मम्मी को एक अबोध बालक का वार्तालाप जिसे प्यार के वास्तविक अर्थ ही नहीं मालूम । जो सिर्फ़ माँ के साथ सोने उठने बैठने रहने को प्यार समझती है । उसे नहीं पता पिता के प्यार की गहराई , वो नहीं जानती कि ऊपर से जो इतने सख्त हैं अन्दर से कितने नर्म हैं , उसे दिखाई देता है पिता द्वारा किया गया रोष और माँ द्वारा किया गया लाड और जीने लगती हैं बेटियाँ इसी को सत्य समझ बिना जाने तस्वीर का कोई दूसरा भी रुख होता है । उन्हें दिखायी देता है तो सिर्फ़ पिता का अनुशासन बद्ध रखना और रहना , अकेले आने जाने पर प्रतिबंध मगर नहीं जान पातीं उनका लाड से खिलाये गये निवाले में उनका निश्छल प्रेम , उनकी बीमारी में , तकलीफ़ में खुद के अस्तित्व तक को मिटा देने का प्रण । उम्र ही ऐसी होती है वो जो सिर्फ़ उडान भरना चाहती है वो भी बिना किसी बेडी के तो कैसे जान सकती हैं प्रतिबंधों के पीछे छुपी ममता के सागर को । और ऐसा ही मैं सोचा करती थी और किसी के भी पूछने पर कह उठती थी , “ मम्मी से प्यार ज्यादा करती हूँ । “ प्यार के वास्तविक अर्थों तक पहुँचने के लिए गुजरना पडा अतीत की संकरी गलियों से तब जाना क्या होता है पिता का प्रेम जो कभी व्यक्त नहीं करते मगर वो अवगुंठित हो जाता है हमारी शिराओं में इस तरह कि अहसास होने तक बहुत देर हो चुकी होती है या फिर जब अहसास होता है तब उसकी कद्र होती है । नेह के नीडों की पहचान के लिए गुजरना जरूरी है उन अह्सासों से : खुली स्थिर आँखें , एक – एक साँस इस तरह खिंचती मानो कोई कुयें से बहुत जोर देकर बडी मुश्किल से पानी की भरी बाल्टी खींच रहा हो और चेतना ने संसार का मोह छोड दिया हो और गायब हो गयी हो किसी विलुप्त पक्षी की तरह। वो 22 दिन मानो वक्त के सफ़हों से कभी मिटे ही नहीं , ठहर गये ज्यों के त्यों । कितनी ही आँख पर पट्टी बाँध लूँ मगर स्मृति की आँख पर नहीं पडा कभी पर्दा । हाँ , स्मृति वो तहखाना है जिसके भीतर यदि सीलन है तो रेंगते कीडे भी जो कुरेदते रहते हैं दिल की जमीन को क्योंकि आदत से मजबूर हैं तो कैसे संभव है आँखों के माध्यम से दिल के नक्शे पर लिखी इबारतों   का मिटना ? एक अलिखित खत की तरह पैगाम मिलते रहते हैं और सिलसिला चलता रहता है जो एक दिन मजबूर कर देता है कहने को , बोलने को उस यथार्थ को जिसे तुमने अपने अन्तस की कोठरियों में बंद कर रखा होता है और सदियों को भी हवा नहीं लगने देना चाहते मगर तुम्हारे चाहे कब कुछ हुआ है । सब प्रकृति का चक्र है तो चलना जरूरी है तो कैसे मैं उससे खुद को दूर रख सकती हूँ , स्मृतियों ने अपने पट खोल दिए हैं और कह रही हैं , ‘ आओ , देखो एक बार झाँककर , खोलो बंधनों को जिनमें बाँध रखा है खुद को , निकालना ही होगा तुम्हें तुम्हारा अवसाद , पीडा  और दंश ‘ । बात सिर्फ़ २२   दिनों की नहीं है बात है एक जीवन की , एक सोच की , एक ख्याल की । कोमा एक अवस्था जिसमें जाने वाला छोड देता है सारे रिश्ते नाते जीते जी , तोड लेता है हर संबंध भौतिक जगत से विज्ञान के अनुसार और आप जा … Read more