इंजीनियर शुभेंदू शर्मा की अफोरेसटेशन की नयी पहल – बसाते हैं शहर – शहर जंगल

             जैसे-जैसे विकास हो रहा है, हरियाली और जंगल खत्म होते जा रहे हैं। इसका असर पर्यावरण पर भी दिखने लगा है। इसके बावजूद हम पेड़-पौधों को लेकर जागरूक नहीं हो रहे हैं। कुछ लोग पेड़-पौधे लगाने की बात तो करते हैं, ताकि पर्यावरण स्वच्छ रहे, लेकिन जब बारी खुद हो, तो पीछे हट जाते हैं। वहीं कुछ लोग ऐसे भी हैं, जो पर्यावरण को बचाने के लिए अलग-अलग तरीके से काम कर रहे हैं। उन्हीं में से एक हैं शुभेंदू शर्मा। पेशे से इंजीनियर शुभेंदू एक कार कंपनी में नौकरी करते थे, जहां उन्हें काफी अच्छी सैलेरी मिलती थी। लेकिन प्रकृति से लगाव की वजह से वे ज्यादा दिन तक नौकरी नहीं कर पाए। उनकी जिद थी कि हर व्यक्ति प्रकृति का अनुभव ले और हर ओर हरियाली हो, इस जिद में आकर उन्होंने अपनी नौकरी छोड़ दी। इंजीनियर शुभेंदू  शर्मा  की अफोरेसटेशन की नयी पहल  –  बसाते हैं शहर – शहर जंगल              शुभेंदू शर्मा बताते हैं कि एक बार उन्होंने एक जंगल देखा, जिसे जापान की एक डाॅक्टर अकिरा मियावकी ने डिजाइन किया था। उन्हें वह तरीका काफी पसंद आया, क्योंकि उससे पहले वह जमीन बेकार पड़ी थी। उन्हें यह देखकर काफी अच्छा लगा कि हम एक जमीन को उस लायक बना सकते हैं कि वह हमारे और हमारे पर्यावरण के काम आ सके। शुभेंदू शर्मा कहते हैं, ‘उत्तराखंड का होने से मेरे अंदर शुरू से ही प्रकृति के लिए काफी लगाव था, क्योंकि जहां मेरा बचपन बीता, उस जगह सिर्फ हरियाली ही हरियाली थी। काफी सोचने के बाद, मैंने निर्णय लिया कि मैं अब अपने आगे की जिंदगी पेड़-पौधे लगाने में बिताऊंगा। फैसला काफी कठिन था, क्योंकि मैं एक अच्छी नौकरी कर रहा था, जहां मुझे काफी अच्छी सैलरी मिल रही थी। आसान नहीं था फैसला              मुझे याद है जब मैंने यह फैसला लिया, तब मेरे घरवाले मेरे इस फैसले से काफी नाराज थे। सबको मनाना और फिर खुद को भरोसा देने के लिए, मैंने काफी मेहनत की। मैंने डाॅक्टर अकिरा मियावकी से बात की, क्या मैं उन्हें असिस्ट कर सकता हूं। डाॅक्टर अकिरा ने ‘हाँ’ कर दिया और मैंने फिर उन्हीं से सारा काम सिखा। उसके बाद मैंने 2011 में खुद अफोरेस्ट नाम की एक संस्था खोल ली, जिसमें हम बेकार खाली पड़ी जमीन को ठीक करते हैं और उसे हरा भरा बनाते हैं। उस पार्क की खास बात यह होती है कि उनमें लगे पड़े-पौधों पर किसी भी तरह के केमिकल का प्रयोग नहीं होता है। यानी पर्यावरण की सुरक्षा का हम पूरा ध्यान रखते हैं। भारत में हर घर के पीछे एक पार्क हो, ताकि लोग शुद्ध हवा लेकर अपना जीवन पूरा स्वस्थ तरीके से बिता सकंे, अब यही मेरी जिंदगी का उद्देश्य रह गया है।’ बढ़ने लगा काफिला              आगे शुभेंदू बताते हैं कि जब मैंने अफोरेस्ट ( aforest )  की शुरूआत की, तो काफी दिक्कतें आई थीं, क्योंकि मैं अकेला था और कोई ग्राहक भी नहीं मिलता था। लेकिन एक बार मुझे जर्मन कंपनी से 10 हजार पेड़ लगाने का आॅर्डर मिला। तब से लेकर आज तक हमारे पास तकरीबन 50 से ऊपर क्लाइंट हैं, जो हमें पेड़ लगाने का आॅर्डर देते हैं। अगर किसी को अपने घर के बाहर पार्क एरिया बनवाना है, तो उन्हें हमें कम-से-कम 1000 स्क्वायर फीट जमीन देनी होगी। लगभग 20 महीने में हम उन्हें खूबसूरत पार्क बनाकर दे देते हैं। मैं तो चाहता हूं कि भारत में हर घर के पीछे एक पार्क हो, ताकि लोगों को शुद्ध हवा मिले और वे स्वस्थ जिंदगी जी सकें।                                                         संकलन – प्रदीप कुमार सिंह साभार – अमर उजाला नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है  आपको    “ इंजीनियर शुभेंदू  शर्मा  की अफोरेसटेशन की नयी पहल  –  बसाते हैं शहर – शहर जंगल “ कैसा लगा   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under:Afforestation, Environment, World Environment day

वाटर मैंन ऑफ़ इंडिया राजेन्द्र सिंह -संकल्प लो तो विकल्प न छोड़ो

                                 क्या आप ने कभी कोई संकल्प लिया है … जैसे सुबह जल्दी उठने का चार घंटे रोज मैथ्स लगाने का या मॉर्निंग वाक , मेडिटेशन, वजन घटाना आदि करने का | अवश्य लिया होगा और ज्यादातर लोगों की तरह सम्भावना है कि आप का ये संकल्प टूट भी गया होगा | क्योंकि  सोचा होगा कि  चार घंटे रोज़ पढने के स्थान पर तीन घंटे  भी तो पढ़ा जा सकता है या कभी मित्र के आ जाने पर  या मूवी देखने वाले दिन कुछ भी नहीं पढ़ा जा सकता है | आज वाक  का मन नहीं है कल जायेंगे , कल ज्यादा कर लेंगे | मेडिटेशन में तो ध्यान भटक जाता है …. क्यों  रोज करें , पार्क में शांत बैठना अपने आप में मेडिटेशन है | अरे डाईट कंट्रोल से वजन तो घटता हीओ नहीं फिर क्यों मनपसंद खाने के लिए मन मारे                                                      ये सब कोई बड़े संकल्प नहीं हैं … बहुत छोटे हैं … फिर भी टूट जाते हैं | कहने का मतलब ये है कि हम बहुत सारे संकल्प लेते और तोड़ते रहते हैं | क्या आप जानते हैं कि सिर्फ और सिर्फ यही हमारी असफलता का राज है |  आज हम बात करेंगे “ Water man of  India” के नाम से जाने जाने वाले राजेन्द्र सिंह जी की जिन्होंने अपने संकल्प से राजस्थान को हरा-भरा बनाने का प्रयास किया है | अनेकों पुरूस्कार जीत चुके राजेन्द्र जी वर्षों गुमनामी में चुपचाप बस अपना काम करते रहे | उनसे जब उनकी सफलता का राज पूंछा जाता है तो वो हमेशा यही कहते हैं कि लोगों को संकल्प नहीं लेने चाहिए , लेकिन अगर संकल्प ले लिया है तो फिर उसके सारे विकल्प बंद कर देने चाहिए और उसी संकल्पित काम में जुट जाना चाहिए | ये वाक्य खुद राजेन्द्र सिंह ने एक सेमीनार में  साझा किया है , जिसे हम अपने शब्दों में आप तक पहुँचाने का प्रयास कर रहे हैं |  आइये जाने उनकी कहानी-  वाटर मैंन ऑफ़ इंडिया राजेन्द्र सिंह -संकल्प लो तो विकल्प न छोड़ो                                                      कहते हैं की जहाँ चाह  है वहां राह है | राजेन्द्र सिंह उत्तर प्रदेश के बागपत निवासी थे | उनका जन्म ६ अगस्त १९५९ को हुआ था | उन्होंने हिंदी साहित्य में स्नातक की डिग्री ली थी | उनके पिता जमींदार थे | उनके पास ६० एकड़ जमीन थी | राजेन्द्र सिंह को कोई दिक्कत नहीं थी | वो आराम से जीवन यापन कर सकते थे परन्तु वो समाज के लिए कुछ करना चाहते थे | उन्होंने १९७५ में एक संस्था ” तरुण भगत सिंह बनायीं | अच्छी नौकरी को छोड़ कर अपना सब कुछ २३००० रुपये में बेंच कर समाज के लिए कुछ करने की अंत: पुकार उन्हें  घर से बहुत दूर अलवर के एक छोटे से गाँव में ले गयी | एक निश्चय के साथ  ” water man of India ” अपने चार दोस्तों के साथ अलवर के छोटे छोटे से गाँव में गए | वो चारों  गाँव में शिक्षा का प्रचार करना चाहते थे , परन्तु गाँव में कोई पढ़ने  को तैयार ही नहीं था | राजेन्द्र सिंह व् उनके दोस्त बहुत हताश हुए |  एक दिन गाँव के एक बूढ़े व्यक्ति ने उन्हें अपने पास बुलाया और कहा ,” हमारे घर की औरतें पानी लेने के लिए २५ -२५ किलोमीटर दूर जाया करती हैं | अगर तुम लोग पानी की समस्या का समाधान कर सको तो मैं वचन देता हूँ कि तुम जो कहोगे , गाँव के सब लोग मानेगें | राजेन्द्र सिंह ने उन्हें समझाने की कोशिश की , कि वो तो शिक्षक हैं वो कैसे ये काम कर सकते हैं | पर बुजुर्ग बोले ,” अब जो है सो है , मैंने तो अपनी शर्त रख दी |  तुम लोगों को खाना मिलेगा व् रहने की जगह मिलेगी पर पैसे हम नहीं दे पायेंगे , अब ये तुम पर है या तो हाँ बोलो और काम शुरू करो या वापस लौट जाओ | उन बुजुर्ग ने उन्हें पानी लाने का रास्ता भी बताया | बुजुर्ग ने कहा की हमारे गाँव में ये जो पहाड़ है , उसे काट कर तुम्हें नहरे बनानी हैं व् नीचे गाँव में तालाब बनाना है | जब बादल आयेंगे तो पहाड़ से टकरा कर बरसेंगे, जिससे नहरों से होता हुआ पानी तालाब में इकट्ठा होगा और हम उसे पीने में इस्तेमाल करेंगे | ये पानी जमीन के अन्दर भी जाएगा जिससे वाटर टेबल उठेगा | जिससे भविष्य में हमारे गाँव में कुए भी खोदे जा सकेंगे |और पानी की समस्या से जूझ रहा हमारा गाँव ल्लाह्लाहा उठेगा |   राजेन्द्र सिंह का संकल्प और प्रारंभिक अडचनें  राजेन्द्र  सिंह ने अपने साथियों से बात की | जाहिर है काम बहुत कठिन था , परन्तु उससे लोगों का बहुत भला किया जा सकता था | काफी सोच –विचार के बाद उन्होंने निर्णय लिया कि वो ये काम करेंगें | उन्होंने उन बुजुर्ग व्यक्ति को अपना निर्णय सुना दिया | बुजुर्ग व्यक्ति ने खुश हो कर उनके रहने की व्यवस्था कर दी | अगले दिन सुबह से काम पर जाने का निश्चय हुआ | रात में वो पाँचों सोने चले गए | रात के करीब दो बजे होंगे कि राजेन्द्र सिंह के दो दोस्तों ने उन्हें उठाया और कहा कि, भैया तुम तो बहुत हिम्मत वाले हो तुम शायद ये काम कर सको पर हम लोगों के अन्दर इतना motivation नहीं है | हम ये काम नहीं कर पायेंगे | राजेन्द्र सिंह व् उनके दोनों साथियों ने  जाने वाले साथियों को बहुत समझाया | विनती की , “रुक जाओं , ये एक अच्छा काम है , देखो अगर हम  हम पांच लोग ये काम करेंगें तो शायद काम ५, ६ सालों में हो जाए पर अगर हम तीन लोग ही करेंगे तो काम होने में १५ , १६ साल लग … Read more

बेटी के बल्ले ने बनाए रिकाॅर्ड– हरमनप्रीत कौर, महिला क्रिकेटर

प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी संकलन: प्रदीप कुमार सिंह             पंजाब प्रांत का एक छोटा सा नगर है मोगा। यहां के बाशिंदे हरमिंदर भुल्लर को बास्केट बाॅल का बड़ा शौक था। बचपन में उन्होंने स्कूल टीम में खेला भी, मगर खेल को करियर बनाने की उनकी तमन्ना अधूरी रह गई। फिर उन्हें एक बड़े वकील के दफ्तर में मुंशी की नौकरी मिल गई। कुछ दिनों के बाद ही मोगा की रहने वाली सतविंदर से उनकी शादी हो गई। परिवार बस गया और जिंदगी चल पड़ी। घर की जिम्मेदारियों के बीच बास्केट बाॅल का बुखार फीका पड़ने लगा। अब यह साफ हो चुका था कि वह खिलाड़ी नहीं बन सकते। पढ़ें – गरीबों को मुफ्त दवा बांटना मेरा मिशन है -ओमकार नेह शर्मा पिता का प्रोत्साहन आया काम              यह बात 1989 की है। सतविंदर मां बनने वाली थी। आठ मार्च को उन्होंने एक बेटी को जन्म दिया। हरमिंदर ने बड़े प्यार से बेटी का नाम रखा हरमनप्रीत। पड़ोसी और रिश्तेदारों ने खास खुशी नहीं जताई। कोई बधाई देने भी नहीं आया। उन दिनों वहां बेटियों के जन्म को जश्न का मौका नहीं माना जाता था, जबकि बेटा पैदा होने पर पूरा मोहल्ला बधाई देने उमड़ पड़ता था। सतविंदर को बुरा लगा, लेकिन वह चुप रही। बेटी बड़ी होने लगी। स्कूल के दिनों से ही हरमनप्रीत को क्रिकेट अच्छा लगने लगा। पापा के संग घर में टीवी पर पूरा मैच देखती थीं। थोड़ी बड़ी हुईं, तो पड़ोस के बच्चों के संग बैट-बाॅल से खेलने लगीं। पापा ने कभी नहीं रोका। बेटी को क्रिकेट खेलता देख उन्हें बड़ा ही सुकून मिलता था। काश, बेटी क्रिकेटर बन जाए, तो कितना अच्छा रहेगा। मिला हैरी का उपनाम              दसवी कक्षा पास करने के बाद हरमनप्रीत ज्ञान सागर स्कूल में पढ़ने गई। अब पापा ने तय कर लिया कि बेटी को क्रिकेट की टेनिंग दिलवाएंगे। कोच कुलदीप सिंह सोढ़ी के नेतृत्व में टेनिंग शुरू हुई। कुछ दिनों के बाद ही कोच ने यह भविष्यवाणी कर दी, हरमनप्रीत बहुत बड़ी क्रिकेटर बनेंगी। अब मोहल्ले में लोग उन्हें हैरी कहकर पुकारने लगे। हालांकि यह सफर आसान न रहा। उन दिनों मोगा में लड़कियों का क्रिकेट खेलना नई बात थी। पड़ोसियों को अजीब लगता था, जब वह लड़कों की तरह कपड़े पहन बैट-बाॅल लेकर घर से निकलती थी। महिला होने  के कारण जब पुरुष खिलाड़ी उड़ाते थे मजाक               स्टेडियम में प्रैक्टिस के दौरान प्रायः असहज स्थिति पैदा हो जाती थी। कई बार हरमनप्रीत जब पापा के साथ मैदान में पहुंचतीं, तो साथी पुरूष खिलाड़ी बड़े अक्खड़ अंदाज में एक-दूसरे से गाली-गलौज की भाषा में बात करने लगते। यह सुनकर उन्हें बहुत बुरा लगता था। कई बार मन में ख्याल आता कि लड़कों को जमकर फटकार लगाएं, पर वह जानती थीं कि ऐसा करने से उन पर कोई असर नहीं होगा। डर यह भी लगता था कि ज्यादा विवाद होने पर कहीं बात बिगड़ न जाए। लिहाजा उन्हें नजरअंदाज कर टेनिंग पर फोकस किया। मन ही मन तय कर लिया कि एक दिन इतना बेहतरीन खेलूंगी कि ये लड़के मेरे लिए तालियां बजाने को मजबूर हो जाएं। जल्द ही उन्हें पंजाब क्रिकेट एसोसिएशन की तरफ से जिला फिरोजपुर टीम के लिए खेलने का मौका मिला। शुरूआत में उन्होंने आॅलराउंडर के तौर पर खेलना शुरू किया। पापा हरमिंदर कहते हैं, कभी नहीं सोचा था कि मेरी बेटी इतनी बड़ी क्रिकेटर बन जाएगी। मोगा में लड़कियों का क्रिकेट खेलना बड़ी अजीब बात थी, पर हरमन ने हिम्मत दिखाई। पढ़ें – सुधरने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए – मार्लन पीटरसन हरमनप्रीत कौर की सफलता की यात्रा               राज्य क्रिकेट टीम में शानदार पारी के बाद 2009 में उन्हें पहला वन डे मैच खेलने का मौका मिला। सबसे यादगार रहा साल 2013, जब इंग्लैंड के विरूद्ध वल्र्ड कप मैच में शतक जड़कर वह सुर्खियों में आ गईं। महिला क्रिकेट में यह शानदार कामयाबी थी। हर तरफ उनकी चर्चा होने लगी। समय के साथ उन्होंने अपने खेल को और निखारा। साल 2016 में आॅस्ट्रेलिया के विरूद्ध खेलते हुए भारतीय टीम ने ट्वंटी-20 क्रिकेट में सबसे बड़ी जीत दर्ज की। हरमनप्रीत ने उस मैच में 31 गेंदों पर 46 रन बनाकर जीत में महत्वपूर्ण योगदान दिया। इसी साल उन्हें मिताली राज की जगह महिला भारतीय ट्वंटी-20 टीम की बागडोर सौंप दी गई। इस जिम्मेदारी को उन्होंने बड़ी संजीदगी के साथ निभाया। हरमनप्रीत कौर के रोल मॉडल हैं सहवाग   हरमनप्रीत क्रिकेटर वीरेंदर सहवाग को अपना रोल माॅडल मानती हैं। सहवाग की तरह वह भी गंेद को देखो और हिट करो के फाॅर्मूले पर रन बनाती हैं। मां सतविंदर कौर कहती हैं, अब यह जागने का मौका है। वे लोग जो गर्भ में ही बेटियों को मार देते हैं, उन्हें समझना चाहिए कि बेटियां कितनी प्यारी होती हैं। मैं चाहती हूं कि देश की लड़कियों को आगे बढ़ने का मौका मिले। हरमनप्रीत कौर की एक और फतह              इसी सप्ताह हरमनप्रीत कौर ने एक और तमगा हासिल किया। आॅस्ट्रेलिया के खिलाफ खेलते हुए उन्होंने 115 गेंदों पर नाबाद 171 रन बनाए। यह उनका तीसरा एक दिवसीय शतक है। इसी के साथ महिला एकदिवसीय क्रिकेट मैच में पांचवां सबसे बड़ा व्यक्तिगत स्कोर बनाने का रिकाॅर्ड भी उनके खाते में गया। इस मैच में उनके तूफानी अंदाज ने क्रिकेट प्रेमियों का दिल जीत लिया। शायद इस यादगार पारी की वजह से ही आज पूरे देश में महिला क्रिकेट टीम की चर्चा हो रही है। पापा हरमिंदर कहते हैं, बेटी की कामयाबी से बहुत खुश हूं। मैं चाहता हूं कि वह वल्र्ड कप जीतकर लाए। अब लोगों को मान लेना चाहिए कि बेटियां किसी मायने में बेटों से कम नहीं। उन्हें मौका दीजिए, वह आसमान छू लेंगी।  यह भी पढ़ें …  एवरेस्ट की सबसे यंग विजेता पूर्णा मल्वथ   लड़का हो या लड़की मकसद होता है हराना काश मेरे मुल्क में भी शांति होती – मुजुन अल्मेहन   नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी  तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था

डा. किरण मार्टिनकी आशा सोसायटी – एक पेड़ के नीचे बैठकर शुरू हुआ स्वास्थ्य अभियान

The Motivational Story Of Dr. Kiran Martin  संकलन – प्रदीप कुमार सिंह                                                हममे से बहुत से लोग समाज के लिए कुछ अच्छा करना चाहते हैं पर समझ में नहीं आता शुरू कैसे करें | क्योंकि इसके लिए तो बहुत से पैसे व् लोगों की जरूरत होती है | लेकिन वो कहते हैं न की जहाँ चाह  होती है वहां राह होती है |आज हम ऐसी ही महिला डॉक्टर की बात कर रहे हैं | जिन्होंने झुग्गी बस्ती की बदहाल स्वास्थ्य दशा को देखकर उनके लिए कुछ करने की ठानी | शुरूआती सुविधाओं व् सहयोग के आभाव में उन्होंने एक पेड़ के नीचे बैठ कर अपने इस अभियान की पहल की | तो आइये जानते है दिल्ली की झुग्गी बस्ती में एक पेड़ के नीचे बैठकर शुरू ” आशा सोसायटी ”  की  शुरुआत करने वाली डॉ . किरण मार्टिन के संघर्ष की बहुत ही प्रेरणा दायक कहानी उन्हीं की जुबानी …   मैं एक डाॅक्टर हूं शुरू से ही मुझमें  गरीब और बेसहारा लोगों की सेवा करने की भावना रही है।  वर्ष 1988 की बात है। अचानक मुझे एक दिन पता चला कि दक्षिण दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों में हैजा फैल गया है, जिस कारण स्थिति गंभीर है। मैंने उसी समय वहां का रूख किया। पर झुग्गी में घुसते ही मैं स्तब्ध रह गई। उससे पहले मैं कभी झुग्गी के अंदर नही गई थी। वहां चारों तरफ गंदगी बिखरी थी। बच्चे गंदगी के पास ही खेल रहे थे। मैंने तत्काल किसी के एक मेज मांगा और एक पेड़ नीचे बैठ गई। और तभी बीमारों का इलाज शुरू हो गया।                         झुग्गी-बस्ती के लोग जहां मेरे पास इलाज के लिए आने लगे, वहीं बाहर के कुछ लोगों ने भी मेरा साथ दिया। बहुत से लोगों ने मेरी मदद भी की। मैंने उसी झुग्गी बस्ती में एक छोटे से कमरे में अपनी क्लीनिक खोली। कुछ दिनों तक वहां काम करने के बाद मैंने खासकर वहां की औरतों की दशा सुधारने के लिए आशा सोसाइटी की स्थापना की। मुझे लगा कि अगर मैं झुग्गी की महिलाओं के रहन-सहन और उनकी सोच में बदलाव ला पाई, तो यह उनके लिए ज्यादा मददगार साबित होगा। पढ़ें – फीयरलेस वुमन तला रासी -मिनी स्कर्ट पर कोड़े खाने के बाद बनी स्विम वीयर डिजाइनर                            औरतों को दी कम्युनिटी हेल्थ वर्कर की ट्रेनिंग                          मैंने वहां की औरतों को कम्युनिटी हेल्थ वर्कर के रूप में तैयार करना शुरू किया।  यह आसान नही था। जिन औरतों को अपने स्वास्थ्य की बेहतरी के बारे में कुछ पता नहीं था, उन्हें दूसरी महिलाओं और बच्चों को स्वस्थ रखने की जिम्मेदारी देने, उन्हें साफ-सफाई का महत्व समझाने के लिए तैयार करने में वक्त लगना ही था। लेकिन मैंने यह भी पाया कि खुद को बदलने के मामले में महिलाएं पुरूषों की तुलना में आगे थीं और उनमें सामूहिकता की भावना ज्यादा मजबूत थी। एक महिला को कोई जानकारी दी जाती, तो कुछ ही समय में सारी औरतों को इस बारे में पता चल जाता था। मैंने उन्हें पौष्टिक भोजन, साफ-सफाई, खुले में शौच की आदत छोड़ने और बच्चों के टीकाकरण के बारे में समझाया। पढ़ें – हम कमजोर नहीं है – रेप विक्टिम से रैम्प पर उतरने का सफ़र अस्तित्व में आई ‘आशा सोसायटी “             जल्दी ही नतीजा सामने आने लगा। झुग्गियों की स्थिति सुधरने लगी। आज हर झुग्गी बस्ती में एक आशा सोसाइटी है, जहां एक क्लीनिक है। इन क्लीनिकों में डाॅक्टर और प्रशिक्षित नर्स तो हैं ही कुछ क्लीनिकों में एक्स-रे और ईसीजी की भी व्यवस्था है। आशा सोसाइटी महिलाओं के लिए छह महीने का प्रशिक्षण कार्यक्रम चलाती है। इसके बाद उन्हें एक मेडिकल बाॅक्स दिया जाता है। फिर ये महिलाएं झुग्गी-बस्तियों में जाकर महिलाओं को स्वास्थ्य और साफ-सफाई के बारे में बताती हैं। आशा सोसायटी से आने लगे सकारात्मक नतीजे                          आशा सोसाइटी के हस्तक्षेप से दिल्ली की झुग्गी-बस्तियों में नवजात मृत्यु दर तो घटी ही है, प्रसव के समय माताओं की मृत्यु के मामले भी न के बराबर रह गए हैं। हालांकि झुग्गियों में मेरा प्रवेश वहां के अनेक पुरूषों को अच्छा नहीं लगा। उन्हें महसूस हुआ कि यह लेडी डाॅक्टर उनकी पुरूष सत्ता को चुनौती देने आई है। पुरूषों की यह वर्चस्ववादी भावना अभी खत्म नही हुई। पढ़ें – कंगना रनौत -महिलाओं को निडरता का सन्देश देती क्वीन                         झुग्गियों में तो इसकी उम्मीद कर ही नहीं सकते, जहां के मर्दाें का शिक्षा और आधुनिक सोच से बहुत कम रिश्ता है। पर मुझे किसी से कोई शिकायत नहीं है। आज मैं दिल्ली की करीब साठ झुग्गी-बस्तियों में घूमती हूं। वहां के पांच लाख से अधिक मरीज मेरी देख-रेख में ठीक हुए हैं। अब झुग्गियों में रहने वाले लोगों का जीवन स्तर सुधरा है और उनकी आय भी बढ़ी है। भले ही ये प्रयास छोटा सा हो पर डॉ . किरण मार्टिन ने अपनी अदम्य इच्छा शक्ति के बल पर गरीबों को बेहतर स्वास्थ्य सुविधाएं दिलवाने में एक पहल कर दी है | लोग जुद्दते जायेंगे और कारवां बढता जाएगा |  रिलेटेड पोस्ट …    एवरेस्ट की सबसे यंग विजेता पूर्णा मल्वथ   लड़का हो या लड़की मकसद होता है हराना काश मेरे मुल्क में भी शांति होती – मुजुन अल्मेहन   नहीं पता था मेरी जिद सुर्ख़ियों में छा जायेगी  तब मुझे अंग्रेजी का एक अक्षर भी नहीं आता था

कस्बे की लड़की से नदिया एक्सप्रेस तक – झूलन गोस्वामी, महिला क्रिकेटर

प्रस्तुति – मीना त्रिवेदी संकलन – प्रदीप कुमार सिंह  वह अपने इलाके की सबसे लंबी लड़की थीं। सड़क पर चलतीं, तो लोग पीछे मुड़कर जरूर देखते। पश्चिम बंगाल के नदिया जिले के छोटे से कस्बे चकदा में पली-बढ़ीं झूलन को बचपन में क्रिकेट का बुखार कुछ यंू चढ़ा कि बस वह जुनून बन गया। एयर इंडिया में नौकरी करने वाले पिता को क्रिकेट में खास दिलचस्पी नहीं थी। हालांकि उन्होंने बेटी को कभी खेलने से नहीं रोका। मगर मां को उनका गली में लड़कों के संग गेंदबाजी करना बिल्कुल पसंद न था। बचपन में वह पड़ोस के लड़कों के साथ सड़क पर क्रिकेट खेला करती थीं उन दिनों वह बेहद धीमी गेंदबाजी करती थीं लिहाजा लड़के उनकी गंेद पर आसानी से चैके-छक्के जड़ देते थे। कई बार उनका मजाक भी बनाया जाता था। टीम के लड़के उन्हें चिढ़ाते हुए कहते-झुलन, तुम तो रहने ही दो। तुम गेंद फेंकोगी, तो हमारी टीम हार जाएगी। एक दिन यह बात उनके दिल को लग गई। फैसला किया कि अब मैं तेज गेंदबाज बनकर दिखाऊंगी। तेज गेंदबाजी के गुरू सीखे और लड़कों को पटखनी देने लगीं। जल्द ही झूलन की गंेदबाजी चर्चा का विषय बन गई।            यह बात पिता तक पहुंची। उन्होंने सवाल किया, तो झूलन ने कहा- हां, मैं क्रिकेटर बनना चाहती हूं। प्लीज आप मुझे टेªनिंग दिलवाइए। यह सुनकर पिता को अच्छा नहीं लगा। तब झूलन 13 साल की थीं वह चाहते थे कि बेटी पढ़-लिखकर अच्छी नौकरी करे। मगर बेटी क्रिकेट को करियर बनाने का इरादा बना चुकी थी। आखिरकार उन्हें बेटी की जिद माननी पड़ी। उन दिनों नदिया में क्रिकेट टेªनिंग के खास इंतजाम नहीं थे। लिहाजा झूलन ने कोलकाता की क्रिकेट अकादमी में टेªनिंग लेने का फैसला किया। माता-पिता के मन में बेटी को क्रिकेटर बनाने को लेकर कई तरह की आशंकाएं थीं। क्रिकेट में आखिर क्या करेगी बच्ची? कैसा होगा उसका भविष्य? मगर क्रिकेट अकादमी पहुंचकर उनकी सारी आशंकाएं दूर हो गईं। झूलन बताती हैं- कोच सर ने मम्मी-पापा को समझाया कि अब लड़कियां भी क्रिकेट खेलती हैं। आप चिंता न करें। आपकी बेटी बहुत बढ़िया गेंदबाज है। एक दिन वह आपका नाम रोशन करेगी। कोच की बात सुनने के बाद मम्मी-पापा की फिक्र काफी हद तक कम हो गई।            खेल के साथ पढ़ाई भी करनी थी। इसीलिए तय हुआ कि झूलन हफ्ते में सिर्फ तीन दिन कोलकाता जाएंगी टेªनिंग के लिए। सुबह पांच बजे चकदा से लोकल टेªन पकड़कर कोलकाता स्टेशन पहुंचतीं। इसके बाद सुबह साढ़े सात बजे तक बस से क्रिकेट अकादमी पहुंचना होता था। दो घंटे के अभ्यास के बाद फिर बस और टेªन से वापस घर पहुंचतीं और किताबें लेकर स्कूल के लिए चल पड़तीं। शुरूआत में पापा संग जाते थे। बाद में वह अकेले ही सफर करने लगीं झूलन बताती हैं- घर से अकादमी तक आने-जाने में चार घंटे बरबाद होते थे। काफी थकावट भी होती थी। मगर इसने मुझे शारीरिक और मानसिक रूप से बहुत मजबूत बना दिया। आज जितना संघर्ष करते हैं, आपकी क्षमता उतनी ही बढ़ती जाती है। टेªनिंग के दौरान कोच ने उनकी तेज गेंदबाजी पर खास फोकस किया। पांच फुट 11 इंच लंबा कद उनके लिए वरदान साबित हुआ। समय के साथ अभ्यास के घंटे बढ़ते गए। स्कूल जाना कम हो गया। अब क्रिकेट जुनून बन चुका था। झूलन बताती हैं- मुझे जमे हुए बल्लेबाज को आउट करने में बड़ा मजा आता था। सच कहूं, तो लंबे कद के कारण गेंद को उछाल देने में काफी आसानी होती है। इसलिए मेरी राह आसान हो गई।            कड़ी मेहनत रंग लाई। लोकल टीमों के साथ कुछ मैच खेलने के बाद बंगाल की महिला क्रिकेट टीम में उनका चयन हो गया। बेटी मशहूर हो रही थी, पर मां के लिए अब भी वह छोटी बच्ची थी। जब तक वह घर लौटकर नहीं आ जातीं, मां को चैन नहीं पड़ता था। एक दिन वह मैच खेलकर देर से घर पहुंचीं, तो हंगामा हो गया। झूलन बताती हैं- मैं देर से पहुंची, तो मां बहुत नाराज हुईं। उन्होंने दरवाजा नहीं खोला। मुझे कई घंटे घर के बाहर खड़े रहना पड़ा। तब से मैंने तय किया कि मैं कभी मां को बिना बताए घर देर से नहीं लौटूंगी। उन्हें मेरी फ्रिक्र थी, इसलिए उनका गुस्सा जायज था।            झूलन ने 18 साल की उम्र में अपना पहला टेस्ट मैच लखनऊ में इंग्लैंड के खिलाफ खेला। इसके बाद अगले साल चेन्नई में इंग्लैंड के खिलाफ पहला वन-डे अंतरराष्ट्रीय मैच खेलने का मौका मिला। सबसे बड़ी कामयाबी मिली 2006 में, जब उनकी बेहतरीन गेंदबाजी के बल पर इंडियन टीम ने एक टेस्ट मैच में इंग्लैंड को हराकर बड़ी जीत हासिल की। इस मैच में उनहोंने 78 रन देकर 10 विकेट हासिल किए। इसके बाद तेज गंेदबाजी की वजह से लोग उन्हें ‘नदिया एक्सप्रेस’ कहने लगे। 2007 में उन्हें आईसीसी की तरह से महिला क्रिकेटर आॅफ द ईयर अवाॅर्ड दिया गया। वर्ष 2010 में अर्जुन अवाॅर्ड और 2012 में पद्मश्री से सम्मानित की गईं। उनकी गेंदबाजी की गति 120 किलोमीटर प्रति घंटा है। इसलिए उन्हें दुनिया की सबसे तेज महिला गेंदबाज होने का रूतबा हासिल है।  हाल में उन्होंने एक नया रिकार्ड अपने नाम किया है। अब वह दुनिया की सबसे ज्यादा विकेट लेने वाली महिला क्रिकेटर बन गई हैं।   यह भी पढ़ें … एवरेस्ट की सबसे यंग विजेता पूर्णा मल्वथ   लड़का हो या लड़की मकसद होता है हराना काश मेरे मुल्क में भी शांति होती – मुजुन अल्मेहन

एवरेस्ट की सबसे यंग विजेता – पूर्णा मलवथ

             प्रस्तुति – पूजा कुमार  संकलन – प्रदीप कुमार सिंह पूर्णा मलवथ एक बार फिर चर्चा में हैं। कारण वे उन सबसे यंग लोगों में हैं जिनपर बायोपिक बनी है। पूर्णा नाम से फिल्म रिलीज हो चुकी है। दरअसल पूर्णा वेमिसाल व्यक्तित्व की है। वे आदिवासी परिवार से आती हैं। उनके माता-पिता खेतिहर मजदूर हैं। जिन्होंने खेलने-कूदने की उम्र में ऐसा कारनामा कर दिया है, जिसे आज तक इतनी कम उम्र में किसी ने नहीं किया। उन्होंने एवरेस्ट की चोटी तक फतह की जब उनकी उम्र केवल 13 वर्ष थी।             पूर्णा के साथ मजेदार बात यह है कि एवरेस्ट पर चढ़ने से पहले उन्होंने किसी चोटी की चढ़ाई नहीं की थी। 10 नेपाली गाइडों और अपने एक 16 साल के दोस्त के साथ पूर्णा ने 25 मई 2014 को एवरेस्ट पर तिरंगा फहराया। पूर्णा कहती हैं कि मुझे इस बात का अंदाजा एवरेस्ट चढ़ने के बाद भी नहीं था कि मैंने कोई रिकाॅर्ड बनाया है। मैंने यह तो अखबार पढ़कर जाना। जैसे ही मुझे यह जानकारी मिली मैंने खुद को दुनिया की सबसे खुशनसीब लड़की माना। पूर्णा के साथ खास बात यह भी है कि एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए उसने तिबब्त का रास्ता चुना। नेपाल के रास्ते से यह कठिन माना जाता है। लेकिन यात्रा कितनी कठिन रही इस बात का जवाब पूर्णा मजाकिया अंदाज में देती है कि एवरेस्ट पर चढ़ना उतना कठिन नहीं था जितना पैकेट वाला खाना खाना और सूप पीना।             एवरेस्ट से लौटने के बाद उन्होंने अपने साक्षात्कार में कहा कि, मैं अब सीधे घर जाऊँगी और मां के हाथ का चिकन और चावल खाऊँगी। उन्होंने आम का अचार और दाल-भात खाने की भी इच्छा जाहिर की। पूर्णा आंध्रप्रदेश के निजामाबाद जिले के जिस हिस्से में रहती हैं, वहां बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव है। बिजली-पानी का संकट है। वे राज्य सरकार के एक आवासीय स्कूल में पढ़ती थीं। इसी स्कूल में खेलकूद के एक सेशन के दौरान उनका सामना पहली बार राॅक क्लाइंबिग से हुआ। कोच शेखर बाबू ने उनकी प्रतिभा पहचानी और फिर पूर्णा को पहले हैदराबाद फिर दार्जिलिंग और आखिर में लद्दाख में पर्वतारोहण की टेªनिग दिलवाई। उन्हें केंद्र सरकार से मदद मिली। सात महीने की टेªनिंग के बाद उन्होंने अपना सफर शुरू किया।             एवरेस्ट पर चढ़ाई के लिए जिस दिन निकलना था उसके एक दिन पहले ही चढ़ाई के दौरान 16 शेरपाओं की मौत हुई थी। इस खबर से पूरी दुनिया हतप्रभ थी और अनेक लोगों ने अपनी चढ़ाई की तैयारी छोड़ दी। ऐसे में पूर्णा को डर नहीं लगा? पूर्णा का जवाब था- ‘मुझे डर नहीं लगता। मुझे ट्रेनिग में यही सिखाया गया है कि एवरेस्ट पर विजय प्राप्त करने के लिए जरूरी है डर पर विजय प्राप्त करना। यही कारण है कि जब कई लोग बोरिया बिस्तर समेट लेने की बात कह रहे थे मैंने आगे बढ़ने की जिद की।              पूर्णा की सबसे बड़ी ताकत उसकी अदम्य इच्छाशक्ति है। एक बार ठान लेने के बाद वे पीछे हटना नहीं जानतीं। चढ़ाई के दौरान उन्होंने बर्फ के बीच पड़े छह शव देखे, लेकिन दूर-दूर तक घबराहट का नामोनिशान नहीं था। वे कहती भी हैं कि हिम्मत और कुछ कर गुजरने का जज्बा हो तो इंसान कुछ भी हासिल कर सकता है। उनका लड़की होना कितना बाधक रहा, इस पर पूर्णा का जवाब है लड़कियां कमजोर होती ही नहीं। बस पुरूष उन्हें जबरन कमजोर समझते हैं। मैं तो कह कर नहीं बल्कि काम कर यह साबित कर दिया है।             आगे पूर्णा आईपीएस अधिकारी बनना चाहती हैं। इसके पीछे उनका तर्क है कि उनके पास बहुत ताकत होती है। इनकी बातें सब सुनते हैं और ये सबकी मदद करते हैं। दरअसल चढ़ाई अभियान के तैयारी के दौरान उनका सामना कई बार आईपीएस अधिकारियों से हुआ और वे उनसे प्रभावित होकर पूर्णा ने उन जैसा ही बनना ठान लिया। उन्हें यकीन है कि जिससे एवरेस्ट की चोटी को उन्होंने पाया, यह मंजिल भी वे पाएंगी। अपनी फिल्म को लेकर वे उत्साहित है लेकिन कहती हैं- ज्यादा गुमान नहीं करना। अभी बहुत आगे बढ़ना है। गरीबों को मुफ्त दवा बाँटना मेरा मिशन है -ओमकार नाथ शर्मा सुधरने का मौका तो मिलना ही चाहिए – मर्लिन पीटरसन सफल व्यक्ति – आखिर क्या है इनमें खास नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर 

जब मैंने पहली बार पाँच सौ का नोट देखा – हनुमक्का रोज

संकलन- प्रदीप कुमार सिंह            मेरे पिता दुर्गा दास कन्नड़ थियेटर के एक सम्मानित कलाकार जरूर थे, मगर घर की आर्थिक स्थिति अच्छी नहीं थी। कर्नाटक के बेल्लारी जिले के एक छोटे से कस्बे मरियम्मनहल्ली में मेरा जन्म हुआ था और बचपन से हमें रोजमर्रा की जरूरतों को पूरा करने के लिए काफी मशक्कत करनी पड़ती थी। पिताजी को देखकर ही मेरे मन में थियेटर के प्रति झुकाव होता गया और जब एक दिन मैंने घर में कहा कि मैं भी थियेटर जाना चाहती हूं और काम करना चाहती हूं, तो परिवार में कोई इसके लिए राजी नहीं था। मैंने घर में कहा कि इसमें गलत क्या है?            आखिर मैं परिवार की विरासत को ही तो आगे बढ़ाना चाहती हूं? मगर वह आज का समय नहीं था। उन दिनों थियेटर की महिला कलाकारों को अच्छी नजरों से नहीं देखा जाता था। उनके चरित्र पर छींटाकशी की जाती थी और यहां तक कहा जाता था कि उनकी शादी नहीं हो सकती। मेरे घर वालों की भी यही चिंता थी। पर मैंने तय कर लिया था कि थियेटर ही करूंगी।            मैं अपने परिवार और दूसरे लोगों को दिखाना चाहती थी कि मैं यह कर सकती हूं और अच्छी तरह से कर सकती हूं। तब मैंने नौवीं की परीक्षा पास की थी। असर में घर की हालत ऐसी नहीं थी कि मैं आगे की पढ़ाई जारी रख पाती। आखिर मैं थियेटर से जुड़ गई। हमें तब बहुत कम पैसे मिलते थे। हम घूम-घूमकर थियेटर करते थे। कई बार हमें स्कूल के कमरों में ठहराया जाता था या फिर खूले आसमान के नीचे।            समूह के साथ बाहर जाने में नाटक मंडली की महिला कलाकारों को काफी मुश्किलों का सामना करना पड़ता था, यहां तक कि हमारे लिए अलग बाथरूम भी नहीं होते थे। बेहतर अवसर की तलाश में मैं एक दिन बेल्लारी से बंगलूरू आ गई। मेरे पास एक रूपया तक नहीं था। मुझे कुछ समझ नहीं आ रहा था। मैं एक पेड़ के नीचे बैठी हुई थी, कि तभी थियेटर के मेरे एक परिचित कृष्णा की नजर मुझ पर पडी। मुझे इस हाल में देखकर उन्होंने मुझे पांच सौ रूपये का एक नोट दिया। अपनी जिंदगी में तब मैंने पहली बार पांच सौ रूपये का नोट अपने हाथ में देखा।            सौभाग्य से उसके बाद कुछ परिस्थिति बदली और फिर मुझे नाटय मंडलियों में काम मिलने लगा। मैं उस दिन को नही भूली हूं, जब निनसम कल्चरल सेंटर में मैंने बी वी कारंत द्वारा निर्देशित मीडिया नामक नाटक में एक बूढ़ी दादी का अभिनय किया। मेरे अभिनय को खूब सराहा गया। इस बीच मुझे चार फिल्मों में भी काम करने का मौका मिला, जिसमें से 2008 की कविता लंकेश की अव्वा नामक फिल्म शामिल है। थियेटर के बहुत से कलाकारों का झुकाव फिल्मों और टेलीविजन की ओर होता है। वे थियेटर को फिल्म के लिए रास्ता समझते है। कुछ लोग दो चार नाटकों में काम करने के बाद खुद को बड़ा कलाकार समझने लगते हैं। यह न तो उनके लिए ठीक है और न ही थियेटर के लिए। मैं टीवी में काम नहीं करना चाहती।            मैं पचास साल की हो गई हूं, मैंने शादी नहीं की है। मैं अब भी उसी मकान में किराए पर रहती हूं, जहां मैंने दस वर्ष पहले रहना शुरू किया। मेरे घर पर टीवी नहीं है। मैं आखिरी दिन एक थियेटर में काम करती रहूूंगी। मुझे कुछ और नहीं आता। थियेटर ही मेरी जिंदगी है। यही मेरी विरासत है। रंगभूमि (थियेटर) के लिए प्रतिबद्धता भी चाहिए और धैर्य भी। – विभिन्न साक्षात्कारों पर आधारित रिलेटेड पोस्ट  गरीबों को मुफ्त दवा बाँटना मेरा मिशन है -ओमकार नाथ शर्मा सुधरने का मौका तो मिलना ही चाहिए – मर्लिन पीटरसन सफल व्यक्ति – आखिर क्या है इनमें खास नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर 

एक बालक की मिट्टी के फूस के कच्चे घर से शिक्षा जगत की ऊचाइयों पर पहुँचने की छोटी सी कहानी

प्रदीप कुमार सिंह स्वतंत्र पत्रकार             बालक जगदीश का जन्म उत्तर प्रदेश के अलीगढ़ जनपद के ग्राम बरसौली में एक गरीब खेतिहर किसान परिवार में 10 नवम्बर 1936 को हुआ। उनकी माता स्व. श्रीमती बासमती देवी एक धर्म परायण महिला थीं। उनके पिता स्व0 श्री फूलचन्द्र अग्रवाल जी गाँव के लेखपाल थे। बच्चे के सिर से माँ का साया बहुत कम उम्र में उठ गया। इस बालक को सर्वप्रथम समाज सेवा की शिक्षा अपने स्वतंत्रता संग्राम सेनानी चाचा श्री प्रभुदयाल जी से मिली। चाचाजी महात्मा गांधी के परम अनुयायी थे। स्वतंत्रता आन्दोलन में उन्होंने अनेक बार जेल यात्रायें की। उन दिनों जगदीश अन्य बच्चों को लेकर आजादी के नारे लगाते हुए और आजादी के गीत गाते हुए अपने गाँव में प्रभात फेरियाँ निकाला करते थे।               महात्मा गांधी की हत्या से व्याकुल होकर इस कक्षा 6 के बालक ने अपना नाम जगदीश प्रसाद अग्रवाल से जगदीश गांधी करने का प्रार्थना पत्र अपने विद्यालय के प्रधानाचार्य को दिया। साथ ही इस बालक ने जीवन पर्यन्त गांधी जी की शिक्षाओं पर चलने का संकल्प लिया। स्कूली अवस्था में इस किशोर बालक ने ‘अच्छे विद्यार्थी बनो’ आन्दोलन सफलतापूर्वक चलाया। युवकों में जोश भरने के लिए ‘उठो जवानो’ अखबार निकाला।             इस युवक जगदीश ने दहेज तथा सादगी से भरा विवाह लखनऊ विश्वविद्यालय की छात्रा भारती से किया। दहेज में कन्या पक्ष से गीता की पुस्तक स्वीकार की। 300 रूपये उधार लेकर अपनी विचारशील एवं शिक्षित धर्मपत्नी के साथ मिलकर सिटी मोन्टेसरी स्कूल की स्थापना लखनऊ में 5 बच्चों से छोटी सी किराये की जगह पर की।             इस अत्यधिक जुनूनी तथा उत्साही युवक जगदीश गांधी ने वर्ष 1974 में लंदन में आयोजित एक अन्तर्राष्ट्रीय सम्मेलन में बहाई धर्म स्वीकार किया। बहाई धर्म के अनुयायी का जीवन अपनी आत्मा के विकास, मानव मात्र की सेवा तथा हृदयों की एकता के लिए होता है। बहाई धर्म का अनुयायी जिस देश में वास करता है उसकी सरकार के प्रति वफादार होता है। बहाई धर्म के अनुयायी को राजनीति चर्चाओं में भाग लेने की मनाही है। बहाई धर्म अपनाने के बाद इस युवक ने राजनीति से संन्यास सदैव के लिए लेकर अपना पूरा चिन्तन बच्चों की शिक्षा में लगा दिया। वर्तमान में देश का सबसे सर्वश्रेष्ठ परीक्षाफल देने वाले इस सिटी मोन्टेसरी स्कूल में 3000 टीचर्स/कार्यकर्ता पूरे मनोयोग से 55,000 बच्चों की शिक्षा का कार्य कर रहे हैं।             विश्व में प्रसिद्ध शिक्षाविद् तथा विश्व एकता प्रबल समर्थक के रूप विख्यात डा. जगदीश गांधी के वर्तमान में देश में सर्वाधिक 15 टीवी चैनलों पर शिक्षा एवं अध्यात्म विषय पर व्याख्यान रोजाना प्रातः 5.30 बजे से लेकर रात्रि 10.00 बजे तक प्रसारित होते हैं। आपके नेतृत्व में विश्व के बच्चों के लिए प्रतिवर्ष 30 अन्तर्राष्ट्रीय शैक्षिक आयोजन लखनऊ में होते हैं। इन आयोजनों के द्वारा विश्व के प्रतिभागी बच्चों के दृष्टिकोण को विश्वव्यापी बनाने के साथ विश्व एकता तथा विश्व शान्ति के विचारों को सारे विश्व में फैलाया जा रहा है।             आपके संयोजन में लखनऊ में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 51 पर 18वां मुख्य न्यायाधीशों का अंतरराष्ट्रीय सम्मेलन 10 से 14 नवम्बर 2017 तक लखनऊ में आयोजित होगा। मुख्य न्यायाधीशों के अंतरराष्ट्रीय सम्मेलनों के माध्यम से विश्व के राजनैतिज्ञ नेत्त्व के लिए ऐसी सीढ़ी अर्थात जनमत तैयार कर रहे हैं जिस पर चढ़कर संसार के दो अरब चालीस करोड़ बच्चों के सुरक्षित भविष्य के लिए संसार के राजनैतिज्ञियों द्वारा एक न्यायपूर्ण विश्व व्यवस्था के अन्तर्गत विश्व संसद, विश्व सरकार तथा वल्र्ड कोर्ट आॅफ जस्टिस का गठन समय रहते किया जा सके। अभी नहीं तो फिर कभी नहीं?             अप्रैल 2017 के प्रथम सप्ताह में घोषित अपनी सम्पत्ति के विवरण में आप दोनों डा. गांधी तथा श्रीमती गांधी ने यह घोषित किया है कि:- 1.         हमारे पास कोई व्यक्तिगत भूखण्ड या निजी घर नहीं है। मैं 12 स्टेशन रोड के किराये के आवास में अपने परिवार के साथ विगत 56 वर्षों से निवास कर रहा हूँ। 2.         मेरे पास कोई विदेशी मुद्रा, सोना, चांदी, जेवरात तथा लाॅकर कहीं भी नहीं है। 3.         मेरा कोई चालू खाता किसी बैंक में नहीं है। न ही कोई फिक्स डिपाजिट ही है और न ही कभी रहा है।             आपने उत्तर प्रदेश की पांच वर्षों तक विधायक रहकर भी जन सेवा व समाज सेवा की है। इस अवधि में या इसके पहले या बाद में भी आपने कभी भी भारत सरकार या प्रदेश सरकार से कोई आर्थिक सहायता या अन्य लाभ प्राप्त नहीं किया। आपने सदैव बच्चों की शिक्षा के माध्यम से ही समाज की सेवा के लिए अपना सारा जीवन लगा दिया। आप पूरी कृतज्ञता से इस बात को स्वीकार करते हंै कि आपके आशीर्वाद एवं सहयोग के कारण ही हम संस्था को इन ऊँचाइयों तक लाने में सफल रहे हैं।             इस बालक आज के डा. जगदीश गांधी के हौसले के लाजवाब जज्बे को नीचे दी शायरियों के माध्यम से अभिव्यक्त किया जा सकता है:- 1-                  लाजवाब है मेरी जिंदगी का फसाना, कोई सीखे मुझसे हर पल मुसकराना। पर कोई मेरी हंसी को नजर न लगाना, बहुत दर्द सहकर सीखा है हम ने मुसकराना। 2-                  ये जिंदगी किसी मंजिल पे रूक नहीं सकती, हर इक मकाम से आगे कदम बढ़ा के जियो। 3-                  डर मुझे भी लगता है फांसला देख कर, पर मैं बढ़ता गया रास्ता देख कर। खुद ब खुद मेरे नजदीक आती गई, मेरी मंजिल मेरा हौंसला देख कर।। 4-         खुद यकीं होता नहीं जिनको अपनी मंजिल का,  उनको राह के पत्थर कभी रास्ता नहीं देते। – जय जगत – रिलेटेड पोस्ट  गरीबों को मुफ्त दवा बाँटना मेरा मिशन है -ओमकार नाथ शर्मा सुधरने का मौका तो मिलना ही चाहिए – मर्लिन पीटरसन सफल व्यक्ति – आखिर क्या है इनमें खास नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल  

गरीबों को मुफ्त में दवा बांटना मेरा मिशन है – ओमकार नाथ शर्मा

संकलन – प्रदीप कुमार सिंह              मैं उदयपुर, राजस्थान का रहने वाला हूं। मैंने नोएडा के कैलाश अस्पताल में बारह-तेरह साल नौकरी की है। मैं गरीबों को मुफ्त में दवाएं बांटने के मिशन से कैसे जुडा, इसकी एक कहानी है। वर्ष 2008 में दिल्ली के लक्ष्मीनगर में जब मेट्रो का काम चल रहा था, तब वहां एक दुर्घटना हुई, जिसमें कुछ लोग मरे, तो कुछ घायल हुए। ये सभी गरीब लोग थे। मैं तब संयोग से लक्ष्मीनगर से गुजर रहा था और बस में बैठा था। दुर्घटनास्थल पर मैं उतर गया। चूंकि अस्पताल में काम करने का मेरा अनुभव था, इसलिए मैं भी घायलों के साथ तेगबहादुर मेडिकल काॅलेज अस्पताल में चला गया। वहां मीडिया की भारी भीड़ थी, इसलिए मरीजों के प्रति डाॅक्टरों का रवैया रक्षात्मक था। लेकिन मैंने देखा कि गंभीर रूप से घायल मरीजों को भी डाॅक्टर दवा न होने की बात कहकर लौटा रहे हंै। मैं यह देखकर स्तब्ध रह गया। मेरे मन में सवाल उठने लगे कि दवा के अभाव में होने वाली मौतों को कैसे रोका जाए। छह-सात दिन मंथन करने के बाद मैंने फैसला कर लिया कि जहां तक संभव होगा, मैं गरीबों को दवाएं बाटूंगा और दवाओं के अभाव में उन्हें मरने नहीं दूंगा।             दवाओं के लिए भीख मांगने की शुरूआत मैंने दिल्ली की सरकारी काॅलोनी आरके पुरम के सेक्टर-1 से की। मैं लोगों के सामने हाथ जोड़कर कहता था कि जो दवा आपके पास बच गई है, वह मुझे दे देंगे, तो इससे किसी गरीब की जान बच जाएगी। बस इस तरह दवा लेकर मैं राममनोहर लोहिया अस्पताल के जनरल वार्ड में पहुंचकर मरीजों से पूछता कि डाॅक्टर ने ऐसी कोई दवा लिखी हो, जो आपके पास नहीं है, तो मैं दे सकता हूं। इस तरह मेरे काम की शुरूआत हुई। पर मेरा विरोध भी शुरू हो गया।             आॅल इंडिया रेडियो में चंद्रमोहन नाम के एक शख्स थे, जिन्होंने मुझे कहा कि आप इस तरह मरीजों को दवा नहीं दे सकते। लिहाजा मैं मरीजों को सीधे दवा न देकर धार्मिक संस्थाओं को दवा देने लगा। लेकिन इस बीच कुछ वकील मेरे साथ हो गए और उन्होंने कहा कि बेशक आप मरीजों को अपनी मर्जी से दवा नहीं दे सकते, लेकिन डाॅक्टर की पर्ची के आधार पर दे सकते हैं। इस तरह जरूरतमंदों को दवा मुहैया कराने का मेरा काम जारी रहा। आज मैं बारह से पंद्रह लाख दवाएं प्रति महीने लोगों को मुफ्त में बांटता हूं। कोई भी आदमी, जिसके पास दवा खरीदने का पैसा नहीं है, वह डाॅक्टर की पर्ची लेकर मेरे पास आ सकता है। और अब मैं सिर्फ दवाए नहीं, अस्पताल का बेड, निमुलाइजर, स्टिक आदि जरूरी चीजें गरीब मरीजों को मुहैया कराता हूं। इस समय मेरे पास किडनी ट्रांस्प्लांट कराने वाले चैदह मरीज हैं, जिनके लिए दवाओं की व्यवस्था मैं करता हूं।             दिल्ली की आबादी आज पौने दो करोड़ है। इनमें से एक करोड़ लोग ऐसे हैं, जिनके पास दवाओं की अतिरिक्त पत्ती मौजूद होगी। मेरा नारा ही है- ‘बची दवाई दान में, न कि कूड़ेदान में। मेडिसिन बाबा का एक ही सपना, गरीबों का मेडिसिन बैंक हो अपना। मैंने पता किया है, दुनिया में कही भी मेडिसिन बैंक नहीं है। मेरी इच्छा एक मेडिसिन बैंक की स्थापना करने की है। दवाओं के लिए अस्सी साल से अधिक की उम्र में भी पांच-छह किलोमीटर रोज चलता हूं। अब सुमन कुमार यानी गुप्ता साहब और सचिन गांधी जैसे लोग मेरे काम में मेरी मदद करते हैं। मेडिसिन बाबा ट्रस्ट भी बन चुका है। पर मेरा काम अभी खत्म नहीं हुआ है। साभार अमर उजाला  रिलेटेड पोस्ट ……….. सुधरने का मौका तो मिलना ही चाहिए – मर्लिन पीटरसन सफल व्यक्ति – आखिर क्या है इनमें खास नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल  

सुधरने का एक मौका तो मिलना ही चाहिए – मार्लन पीटरसन, सामाजिक कार्यकर्ता

        संकलन: प्रदीप कुमार सिंह       कैरेबियाई सागर का एक छोटा सा देश है त्रिनिदाद और टोबैगो। द्वीपों पर बसे इस मुल्क को 1962 में आजादी मिली। मार्लन के माता-पिता इसी मुल्क के मूल निवासी थे। उन दिनों देश की माली हालत अच्छी नहीं थी। परिवार गरीब था। लिहाजा काम की तलाश में वे अमेरिका चले गए।             मार्लन का जन्म बर्कले में हुआ। तीन भाई-बहनों में वह सबसे छोटे थे। अश्वेत होने की वजह से परिवार को अमेरिकी समाज में ढलने में काफी मुश्किलें झेलनी पड़ीं। सांस्कृतिक और सामाजिक दुश्वारियों के बीच जिंदगी की जद्दोजहद जारी रही। शुरूआत में मार्लन का पढ़ाई में खूब मन लगता था, पर बाद में मन उचटने लगा। उनकी दोस्ती कुछ शरारती लड़कों से हो गई। माता-पिता को भनक भी नहीं लग पाई कि कब बेटा गलत रास्ते चल पड़ा?             अब उनका ज्यादातर वक्त दोस्तों के संग मौज-मस्ती में गुजरने लगा। पापा की डांट-फटकार भी उन पर कोई असर नहीं होता था। किसी तरह स्नातक की डिग्री हासिल की। मां बेसब्री से उस दिन का इतंजार कर रही थीं, जब बेटा पढ़ाई पूरी करके नौकरी करेगा और परिवार की जिम्मेदारी संभालेगा। मगर एक दिन अचानक उनका सपना टूट गया, जब खबर आई कि पुलिस ने मार्लन को पकड़ लिया है। उनके ऊपर टैªफिक नियम तोड़ने का आरोप था। गिरफ्तारी के दौरान पुलिस ने अच्छा सुलूक नहीं किया उनके साथ। अश्वेत होने के नाते अपमानजनक टिप्पणियां सुननी पड़ी। जुर्माना भरने के बाद वह छूट गए। पापा ने खूब समझाया, मगर उन्हें अपनी गलती का जरा भी एहसास नहीं था।             इसके बाद तो उनका व्यवहार और उग्र भी हो गया। इस घटना के करीब एक वर्ष बाद पुलिस ने उन्हें दोबारा पकड़ लिया। इस बार उन पर एक संगीन जुर्म का आरोप था। दरअसल, बर्कले सिटी के एक मशहूर काॅफी हाउस में लूट की कोशिश हुई थी और फायरिंग भी। इस वारदात में दो लोग मारे गए थे। पुलिस ने दो दोस्तों के साथ मार्लन को गिरफ्तार किया। कोर्ट में साबित हो गया कि मार्लन और उनके दोस्तों ने ही फायरिंग की थी। जज ने उन्हें 12 साल की सजा सुनाई।             जेल की सलाखों के पीछे पहुंचकर मार्लन को एहसास हुआ कि उन्होंने कितना गलत किया? यह सोचकर उनका दिल बेचैन हो उठा कि उनकी वजह से परिवार वालों को कितना कुछ सहना पड़ेगा। 12 साल तक जेल में कैसे रहंूगा, यह सोचकर उनका दिल बैठने लगा। एक-एक दिन मुश्किल से बीता। उन्हीं दिनों जेल में कैदी-सुधार कार्यक्रम के तहत उन्हें स्कूली बच्चों से मिलने का मौका मिला। इस मुलाकात ने उन्हें नई दिशा दी। मार्लन कहते हैं- बच्चों से मिलकर एहसास हुआ कि जिंदगी अभी बाकी है। कार्यक्रम के दौरान एक स्कूल टीचर ने उनसे कहा कि आप मेरे क्लास के बच्चों के लिए प्रेरक खत लिखिए। पहले तो उन्हें समझ में नहीं आया कि वह बच्चों को क्या संदेश दें? मगर जब कलम और कागज हाथ में आया, तो ढेरों ख्याल उमड़ने लगे। खत में उन्होंने बच्चों को जिंदगी की अहमियत समझाते हुए नेक रास्ते पर चलने की सलाह दी। मार्लन बताते हैं- 13 साल की एक बच्ची ने मुझे जवाबी खत भेजा। उसमें लिखा था, आप मेरे हीरो हैं। यह पढ़कर बहुत अच्छा लगा। मैंने तय किया कि मैं ऐसा कुछ करूंगा, ताकि हकीकत में मैं लोगों का हीरो बन जाऊं।             वैसे तो जेल में बिजली मैकेनिक, कपड़ों की सिलाई आदि के काम भी सिखाए जाते थे, मगर उन्हें लिखने-पढ़ने का काम ज्यादा दिलचस्प लगा। नई उम्मीद के साथ वह सजा पूरी होने का इंतजार करने लगे। जेल में अच्छे व्यवहार के कारण उनकी सजा दो साल कम हो गई। दिसंबर 2009 में वह जेल से रिहा हुए। तब उनकी उम्र करीब 30 साल थी। मार्लन कहते हैं- जेल से बाहर आया, तो मम्मी-डैडी सामने खड़े थे। अच्छा लगा यह जानकर कि वे बीते दस साल से मेरे इंतजार में जी रहे थे। लंबे अरसे के बाद घर का खाना खाया। तब समझ में आया कि इंसान के लिए घर-परिवार का प्यार कितना जरूरी है।             रिहाई के बाद उन्होंने बंदूक विक्रेता लाॅबी के खिलाफ अभियान शुरू किया। दरअसल, अमेरिका में खुले बाजार में बिना लाइसेंस के बंदूक का मिलना एक बडी समस्या है। आए दिन सार्वजनिक जगहों पर गोलीबारी की घटनाएं होती हैं। मार्लन कहते हैं- वहां नौजवान मामूली बातों पर गोली चला देते हैं। एंटी-गन मुहिम में मुझे लोगों का भरपूर साथ मिला। कुछ दिनों के बाद उन्होंने प्रीसीडेंशियल ग्रुप नाम से कंसल्टिंग फर्म की स्थापना की, जिसका मकसद पीड़ितों को सामाजिक न्याय दिलाना था। 2015 में एक स्काॅलरशिप प्रोग्राम के तहत सामुदायिक हिंसा पर काम करने का उन्हें मौका मिला। न्यूयाॅर्क यूनिवर्सिटी में आॅर्गेनाइजेशनल बिहेवियर में स्नातक कोर्स के लिए आवदेन किया। मार्लन बताते हैं- दोबारा पढ़ाई शुरू करना आसान न था। लोग शक की निगाहों से देखते थे। यूनिवर्सिटी बोर्ड ने एडमिशन से पहले कई सवाल किए। मैंने कहा, मैं अपनी गलती की सजा भुगत चुका हूं। आप मुझे दोबारा पढ़ने का मौका दीजिए। इन दिनों मार्लन युवाओं के बीच बतौर सामाजिक कार्यकर्ता और प्रेरक वक्ता काफी लोकप्रिय हैं। प्रस्तुति: मीना त्रिवेदी रिलेटेड पोस्ट … सफल व्यक्ति – आखिर क्या है इनमें खास नौकरी छोड़ कर खेती करने का जोखिम काम आया        मेरा एक महीने का वेतन पिता के कर्ज के बराबर  जनसेवा के क्षेत्र में रोलमॉडल बनी पुष्प पाल   “ग्रीन मैंन ” विजय पाल बघेल – मुझे बस चलते जाना है