लिव इन को आधार बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु “

                       ” लिव इन ” हमारे भारतीय समाज के लिए एक नयी अवधारणा है | हालांकि बड़े शहरों में युवा वर्ग इसे तेजी से अपना रहा है | छोटे शहरों और कस्बों में ये अभी भी वर्जित विषय है | ऐसे विषय पर उपन्यास लिखने से पहले ही ‘वंदना गुप्ता ‘ डिस्क्लेमर जारी करते हुए कहती हैं कि लिव इन संबंधों की घोर विरोधी होते हुए भी न जाने किस प्रेरणा से उन्होंने इस विषय को अपने उपन्यास के लिए चुना | कहीं न कहीं एक आम वैवाहिक जीवन में किस चीज की कमी खटकती है क्या लिव इन उससे मुक्ति का द्वार नज़र आता है ?  जब मैंने उपन्यास पढना शुरू किया तो मुझे भी पहले गूगल की शरण में जाना पड़ा था ताकि मैं लिव इन के  बारे में जान सकूँ | जान सकूँ कि अनैतिक संबंधों और लिव इन  में फर्क क्या है ? साथ रहते हुए भी ये अलग -अलग अस्तित्व कैसे रह सकता है ये समझना जरूरी था | हम सब वैवाहिक संस्था वाले इस बुरी तरह से जॉइंट हो जाते हैं …जॉइंट घर , जॉइंट बैंक अकाउंट , सारे पेपर्स जॉइंट और यहाँ तक की दोष भी जॉइंट पति की गलती का सारा श्रेय पत्नी को जाता है कि उसी ने सिखाया होगा और पत्नी कुछ गलत करे तो पति का कोर्ट मार्शल ऐसे आदमी के साथ रहते हुए बिटिया बदल तो जायेगी | ऐसे में क्या सह अस्तित्व और अलग अस्तित्व  बनाये रखना संभव है | क्या ये पति -पत्नी के बीच की स्पेस की अवधारणा का बड़ा रूप है | इन सारे सवालों के उत्तर उपन्यास के साथ आगे बढ़ते हुए मिलते जाते हैं | लिव इन को माध्यम बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता ” अँधेरे का मध्य बिंदु “ शायद ये सारे प्रश्न वंदना जी के मन में भी घुमड़ रहे होंगे तभी वो  रवि और शीना के माध्यम से इन सारे प्रश्नों को ले कर आगे  बढ़ती हैं और एक -एक कर सबका समाधान प्रस्तुत करती हैं | इसके लिए उन्होंने कई तर्क रखे हैं | कई ऐसे विवाहों की चर्चा की है जहाँ लोग वैवाहिक बंधन में बंधे अजनबियों की तरह रह रहे हैं , एक दूसरे से बहुत कुछ छिपा रहे हैं या भयानक घुटन झेल रहे हैं | उन्होंने ‘मैराइटल रेप की समस्या को भी उठाया है | इन सब बिन्दुओं पर लिव इन एक ताज़ा हवा के झोंके की तरह लगता है जहाँ एक दूसरे के साथ खुल कर जिया जा सकता है | भारतीय संस्कृति के नाम पर  ‘ लिव इन ‘ शब्द से ही नाक भौ सिकोड़ते लोगों के लिए वंदना जी आदिवासी  सभ्यता से कई उदाहरण लायी हैं , जो ये सिद्ध करते हैं कि लिव इन हमारे समाज का एक हिस्सा रहे हैं | वो समाज  दो व्यस्क लोगों के बीच जीवन भर साथ रहने के वादे  से पहले उन्हें एक -दूसरे को जानने समझने  का ज्यादा अवसर देता था | ये प्रेम कथा है उन लोगों की जिन्हें आपसी विश्वास और प्यार के साथ रहने के लिए रिश्ते के किसी नाम की जरूरत नहीं महसूस होती | रवि और शीना जो अलग -अलग धर्म के हैं इसी आधार पर रिश्ते की शुरुआत करते हैं | अक्सर ये माना जाता है की लिव इन का कारण उन्मुक्त देह सम्बन्ध हैं पर रवि और शीना इस बात का खंडन करते हैं वो साथ रहते हुए भी दैहिक रिश्तों की शुरुआत  करने में कोई हड़बड़ी नहीं दिखाते | एक दूसरे की भावनाओं को पूरा आदर देते हैं | एक दूसरे की निजता का सम्मान करते हैं |उनके दो बच्चे होते हैं जो सामान्य वैवाहिक जोड़ों के बच्चों की तरह ही पलते हैं | जैसे -जैसे कहानी अंत की और बढती है वो देह के बन्धनों को तोड़ कर विशुद्ध  प्रेम की और बढती जाती है | अंत इतना मार्मिक है जो पाठक को द्रवित कर देता है |  क्या हम सब ऐसे ही प्रेमपूर्ण रिश्ते नहीं चाहते हैं ? वंदना गुप्ता जी का उद्देश्य प्रेम के इस विशुद्ध रूप को सामने लाना है | दो आत्माएं जब एक ही लय -ताल पर थिरक रहीं हों तो क्या फर्क पड़ता है कि उन्होंने उसे कोई नाम दिया है या नहीं | सच्चा प्रेम किसी बंधन का, किसी पहचान का  मोहताज़ नहीं है | स्त्री  संघर्षों  का  जीवंत  दस्तावेज़: “फरिश्ते निकले कुछ पाठक भर्मित हो सकते हैं पर ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘में वंदना जी का उद्देश्य लिव इन संबंधों को वैवाहिक संबंधों से बेहतर सिद्ध करना नहीं हैं | वो बस ये कहना चाहती हैं कि सही अर्थों में रिश्ते वही टिकते हैं जिनके बीच में प्रेम और विश्वास हो | भले ही उस रिश्ते को विवाह का नाम मिला हो या न मिला हो | सहस्तित्व शब्द के अन्दर किसी एक का अस्तित्व बुरी तरह कुचला न जाए | दो लोग एक छत के नीचे  एक दूसरे से बिना बात करते हुए सामाजिक मर्यादाओं के चलते विवाह संस्था के नाम पर एक घुटन भरा जीवन जीने को विवश न हों | वही अगर कोई इस प्रकार के बंधन के बिना जीवन जीना चाहता है तो समाज को उसके निर्णय का स्वागत करते हुए उसे अछूत घोषित नहीं कर देना चाहिए | उपन्यास में जो प्रवाह है वो बहुत ही आकर्षित करता है |  पाठक एक बार में पूरा उपन्यास पढने को विवश हो जाता है | वहीं वंदना जी ने  स्थान -स्थान पर इतने सुंदर कलात्मक शब्दों का प्रयोग किया है जो जादू सा असर करते हैं | जहाँ पाठक थोडा ठहर कर शब्दों की लय  ताल  के मद्धिम संगीत पर थिरकने को विवश हो जाता है | रवि और शीना के मध्य रोमांटिक दृश्यों का बहुत रूमानी वर्णन है | एक बात और खास दिखी जहाँ पर उपन्यास थोडा तार्किक हो जाता है वहीँ वंदना जी कुछ ऐसा दृश्य खींच देती है जो दिल के तटबंधों को खोल देता है और पाठक सहज ही बह उठता है | “काहे करो विलाप “गुदगुदाते पंचो में पंजाबी तडके का अनूठा समन्वय  ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘ नाम बहुत ही सटीक है | जब … Read more

प्रेम की परिभाषा गढ़ती – लाल फ्रॉक वाली लड़की

                        प्रेम … एक ऐसा शब्द जो , जितना कहने में सहज है , उतना होता नहीं है , उस प्रेम में बहुत  गहराई होती है जहाँ दो प्राणी आत्मा के स्तर पर एक दूसरे से जुड़ जाते हैं | इस परलौकिक प्रेम से इतर दुनियावी  बात भी करें तो प्रेम वो है जो पहली नज़र के आकर्षण , डोपामीन रिलीज़ , और केमिकल केमिस्ट्री मिलने की घटनाओं को निथारने के बाद बचा रह जाता है वो प्रेम है |  प्रेम जितना जादुई है , उतनी ही जादुई है ” लाल फ्रॉक वाली लड़की” ,  जो अपनी खूबसूरत लाल फ्रॉक में गूथे हुए है कई प्रेम कहानियाँ  … जितनी बार वो इठलाती है, झड जाती है एक नयी प्रेम कहानी … अपने अंजाम की परवाह किये  बगैर | मैं बात कर रही हूँ ‘मुकेश कुमार सिन्हा’ जी के लप्रेक संग्रह “लाल फ्रॉक वाली लड़की की “ प्रेम की परिभाषा गढ़ती – लाल फ्रॉक वाली लड़की                                                                   मुकेश कुमार सिन्हा जी कवितायें अक्सर फेसबुक पर पढ़ती रहती हूँ | उनका काव्य संग्रह हमिंग बर्ड भी पढ़ा है | उनकी यह पहली गद्य पुस्तक है , परन्तु इस पर भी उनका कवि मन हावी रहा है | शायद इसीलिये उन्होंने पुस्तक की शुरुआत ही  कविता से की है .. स्मृतियों की गुल्लक में  सिक्कों की खनक और टनटनाती हुई मृदुल आवाजों में  फिर से दिखी वो  ‘लाल फ्रॉक वाली लड़की “                                   उसके बाद शुरू होती है छोटी-छोटी प्रेम कहानियाँ |जो बताती हैं कि प्रेम  उम्र नहीं देखता , जाति धर्म नहीं देखता , समय -असमय नहीं देखता , बस हो जाता है …. और फिर और अलग-अलग चलने वाली दो राहे किसी एक राह पर मिलकर साथ चल पड़ती है | #प्रिडिक्टेबली इरेशनल की समीक्षा -book review of predictably irrational in Hindi                        कहानियों में हर उम्र के प्रेम को समेटने की कोशिश की गयी है , कुछ कहानियाँ जो आज के युवाओं के फटफटिया प्रेम को दर्शाती है जो नज़र मिलते ही हो जाता है तो कुछ ‘अमरुद का पेड़ ‘ हंसाती हैं ,  ‘सोना-चाँदी ” जैसी  कुछ कहानियाँ है जो परिपक्व उम्र के प्रेम को दर्शाती हैं , “व्हाई शुड बॉयज हव आल द फन ‘ प्रेम की शुरुआत में ही उसका अंत कर देती हैं |           संग्रह में 119 प्रेम कहानियाँ (लप्रेक ) हैं | इसका प्रकाशन ‘बोधि प्रकाशन’ द्वारा हुआ है | कवर पेज बहुत आकर्षक है | लप्रेक की ख़ूबसूरती ही इसमें है की उसे कम शब्दों में कहा जाए , अगर आप छोटी -छोटी हँसती , मुस्कुराती , गुदगुदाती प्रेम कहानियाँ पढने के शौक़ीन हैं तो ये आप के लिए बेहतर विकल्प है | वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का आपको  समीक्षा   “प्रेम की परिभाषा गढ़ती – लाल फ्रॉक वाली लड़की “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                                          

प्रिडिक्टेबली इरेशनल की समीक्षा -book review of predictably irrational in Hindi

                            हम सब बहुत सोंच विचार कर निर्णय लेते हैं | फिर भी क्या हम सही निर्णय ले पाते हैं ? क्या हमारे निर्णय पर दूसरों का प्रभाव रहता है ?ऐसे कौन से फैक्ट्स हैं जो हमारे निर्णय को प्रभावित करते हैं ?ये बहुत सारे प्रश्न हैं जिनका उत्तर  MIT के Dan Ariely  की किताब  Predictably irrational में मिलता है | यह किताब विज्ञानं के सिद्धांतों पर आधारित है , जो बताती है कि कोई भी निर्णय लेते समय मनुष्य का दिमाग कैसे काम करता है और कैसे छोटी -छोटी चीजें उसके निर्णय को प्रभावित कर देती हैं | प्रिडिक्टेबली इरेशनल की पुस्तक समीक्षा book review of predictably irrational in Hindi                    मानव मष्तिष्क  के निर्णय लेने की क्षमता को वैज्ञानिक सिद्धांतों द्वारा प्रतिपादित करने वाली  किताब predictably irrational में Dan Ariely  कई प्रयोगों द्वारा मानव मन की गहराय में घुसते जाते हैं | ये वो गहराई है जो आपके निर्णय को प्रभावित करती है |                              कभी आपने सोंचा है एक रुपये की कैल्सियम की गोली के स्थान पर 40 रुपये की कैल्सियम की गोली का असर आप पर ज्यादा होता है | हम उस रेस्ट्रा का खाना खाना पसंद करते हैं जो एक बोतल कोक फ्री देता है बन्स्पत उसके जो उतने ही पैसे कम कर देता है | क्या आप ने गौर किया है कि ऐसा क्यों होता है ? यही नहीं काफी खरीदने से लेकर , वेट लोस के जिम तक , कोई सामान चुनने में , मित्र या जीवन साथी चुनने में  हमारा दिमाग एक खास तरीके से काम करता है .. जिसे Dan Ariely  ने predictably irrational का नाम दिया है | आइये जाने कि हमारा दिमाग कैसे काम करता है … 1) तुलना …                   हमारा दिमाग दो चीजों में तुलना  करता है फिर निर्णय लेता है | इसे  आप ने देखा होगा कि  एक समान आकर की दो मेजें अगर एक लम्बाई में राखी जाये व् दूसरी चौड़ाई में  , फिर आप से पूंछा जाए कि कौन सी बड़ी है तो आप कहेंगे कि जो लम्बाई में रखी है |                                चित्र brainden.com से साभार  इसी तरह से अगर दो समान आकार के गोले लें … अब एक गोले के चरों और बड़े -बड़े गोले लगा दें व् दूसरे के चरों ओर छोटे -छोटे गोले लगा दें , अब आप से पूंछा जाए कि  कौन सा गोला बड़ा है तो निश्चित रूप से सबका जवाब होगा जिसके चरों ओर छोटे गोले हैं … इसके पीछे एक साइंटिफिक कारण है .. वो ये की हमारा दिमाग अब्सोल्यूट में नहीं काम्पैरिजन में सोंचता है |  फोटो wikimedia commons से साभार                                        अब जानिये तुलनात्मक अध्यन की वजह से हमारे निर्णय किस तरह से प्रभावित होते हैं … एक प्रयोग … एक बार लोगों  के सामने  थ्री days ट्रिप के ३ ऑप्शन रखे गए … अ ) पेरिस (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ ) ब) रोम ( बिना ब्रेकफास्ट के )  स) रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )                               ८५ % लोगों ने रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ ) के साथ चुना | क्या लोग रोम ही जाना चाहते थे पेरिस नहीं … ऐसा नहीं है एक दूसरे ग्रुप पर इस प्रयोग को उलट कर किया गया |  अ ) पेरिस (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ ) ब) पेरिस  ( बिना ब्रेकफास्ट के ) स) रोम (फ्री ब्रेक फ़ास्ट के साथ )                          अबकी बार लोगों ने पेरिस फ्री ब्रेकफास्ट के साथ चुना | कारण स्पष्ट था लोगो ने उसे चुना जो उन्हें तुलना करने का अवसर दे रहा था व् उसे दरकिनार कर दिया जिसने तुलना करने का अवसर नहीं दिया | क्योंकि लोगों का दिमाग पहले तुलना पर जाता है | दूसरा उदाहरण एक मैगज़ीन है  “The Economist” उसने अपनी वेबसाइट पर मागज़ीन सबस्क्राइब करने के तीन तरीके बताये हैं … 1)Economist  times – वेब एडिशन $59 प्रिंट एडिशन -$ 125 प्रिंट & वेब एडिशन $  125                  अब  केवल १६ % लोगों ने वेब एडिशन व् 84 % लोगों ने प्रिंट व् वेब एडिशन वाला थर्ड ऑप्शन चुना  और सेकंड ऑप्शन किसी ने नहीं चुना | जाहिर सी बात है जब प्रिंट व् वेब दोनों $125 में मिल रहे थे तो कौन मूर्ख होगा जो केवल प्रिंट एडिशन $125  में लेगा | अब सोंचने वाली बात है कि economist मैगज़ीन ने ऐसा बेवकूफाना ऑफर क्यों रखा | दरअसल  यह ऑफर द्वारा किये गए एक प्रयोग के बाद लाया गया| ने इस प्रयोग में लोगों को दो ग्रुप्स में बांटा … दूसरे ग्रुप को ये ऑफर दिया गया और पहले ग्रुप को दिए गए ऑफर में बीच वाले ऑफर को हटा लिया गया , जिसकी वास्तव में कोई जरूरत ही  नहीं थी , तब परिणाम इस तरह से आये… वेब एडिशन $ 59….. 75 % लोगों ने लिया प्रिंट & वेब एडिशन $  125…. केवल 25 % लोगों ने लिया                      जाहिर है इससे कम्पनी को नुक्सान था | इसलिए उसने ऐसा ऑफर रखा | यह दोनों उदाहरण हमें ये बताते हैं कि हमारा दिमाग चीजों का तुलनात्मक अध्यन करके निर्णय लेता है | जिन दो चीजों में समानता ज्यादा होती है उनमें से वो  तुलना करके नतीजा निकालता है | उस समय उसका ध्यान तीसरे ऑप्शन पर नहीं रह जाता | उसका काम बस इतना होता है कि वो कहे कि मुझे देखो , मुझसे तुलना करो फिर वो चुनो जो कम्पनी चाहती है | रिश्तों में निर्णय  तुलना का ये नियम केवल सामान पर ही नहीं रिश्तों पर भी लागू होता है | इसके लिए भी एक … Read more

स्त्री संघर्षों का जीवंत दस्तावेज़: “फरिश्ते निकले’

फ़रिश्ते निकले

  अनुभव अपने आप में जीवंत शब्द है, जो सम्पूर्ण जीवन को गहरई से जीये जाने का निचोड़ है। एक रचनाकार अपने अनुभव के ही आधार पर कोई रचना रचता है,चाहे वे राजनीतिक, समाजिक, आर्थिक विषमातओं की ऊपज हों, या फिर निजी दुख की अविव्यक्ति। मैत्रैयी पुष्पा ऐसी ही एकरचनाकार हैं जिन्होनें स्त्रियों से जुडे मुद्दे शोषण, बलात्कार, समाज की कलुषित मन्यातओं में जकड़ी स्त्री के जीवंत चित्र को अपनी रचनाओं में उकेरने का प्रयास किया है। ‘फरिश्ते निकले‘ मैत्रेयी पुष्पा द्वरा रचित ऐसा ही एक नया उपन्यास है जो पुरुष द्वरा नियंत्रित पितृसतात्मक समाज में रुढ़ मन्यताओं का शिकार होती बेला बहू के संघषों की कहानी है। इस उपन्यास कि नायिका बेला बहू समाज के क्रूर सामंती व्यवस्था के तहत गरीबी और पितृविहीन होने के कारण बाल‌- विवाह और अनमेल- विवाह की भेंट चढ़ जाती है। विवाह के उपरांत बेला बहू का संघर्ष शुरु होकर डाकू के गिरोह में शामिल होने के बाद नैतिकता कि भावना से स्कूल खोलती है। आस-पास के कुछ बच्चें दो दिन पाठशाला में आकर मानवता की भावना को ग्रहण करें और समाज से शोषण को मिटाने के लिये नैतिकता का मार्ग अपनायें। इस तरह बेला बहू एक फरिशता बनकर आगे आने वाली पीढ़ी को समाज की कलुषित मन्याताओं से मुक्त कराकर मानवीय गरिमा का संचार कर उन्हें सही राह पर चलने कि प्रेरणा देती है। इस तरह बेला बहू विवाह के पश्चात और डाकू के गिरोह में शामिल होने  के बीच कई संघर्षों का सामना अदम्य जिजीविषा के करती हुई एक निडर स्त्री की छवि को भी अंकित करती है।                                           हमारा देश जहाँ विकास की अंधी दौड़ में आगे बढ़ रहा है वही कुछऐसे गाँव और अंचल भी हैं जहाँ अभी तक विकास के मायने तक पता नहीं हैं अर्थात विकास की चर्चा भी उनलोगों तक नहीं पहुँची है। ऐसे ही गाँव में जन्मी बेला अर्थात बेला बहू उपन्यास के कथा का आरम्भ पितृविहिन बालिका जिसने अभी- अभी अपने पिता को खो दिया है,उसकी माँ पर घर कीपूरी जिम्मेदारी मुँह बाये खड़ी है। बेला की माँ किसी तरह अपना और अपनी बेटी का पालन-पोषण करती है। शुगर सिंह नाम का अधेड़ व्यक्ति जब उन माँ और बेटी को आर्थिक लाभ पहुँचाना शुरु करता है, इसके पीछे उसकी मंशा तब समझ में आती है जब बेला के साथ उसकी सगाई हो जती है।इस तरह ग्यारह वर्ष की बेला का विवाह अधेड़ उम्र के शुगर सिंह के साथ हो जाता है। ना जाने कितने अनमेल विवाह के किस्सों को याद करती बेला ससुराल में निरंतर पति की हवस का शिकार होती है।अन्य लोगों के अनमेल विवाह के कृत्यों को दर्शाती बेला बहू के बारे में स्वय मैत्रैयी जी भी कहती हैं-” बेला बहू तुम्हारा शुक्रियाकि कितनी औरतों की त्रासद कथाएँ तुमने याद दिला दी।” ” ससुराल में बेला बहू पति के निरंतर हवस का शिकार होती रही धीरे-धीरे सुगर सिंह की नपुंसकता का पता बेला को लग जाता है क्योकि विवाह के चार वर्षोंबाद भी संतान का ना उत्पन्न होना और मेडिकल रिपोर्ट की जाँच में बेला के स्वस्थ और उर्वरा होने का प्रमाण मिल जाता है और शुगर सिंह की नपुंसकता बेला बहू के सामने आ जाती है।” विडम्बना तो देखिये गाँव के लोग और स्वयं सुगर सिंह भी बेला बहू कोही बाँझ मानते हैं। बेला बहू येह सोचती है कि – ” उम्र के जिस पड़।व से वह गुजर रही है उसकेउम्र के लड़कियों के हाथ अभी तक पीले नहीं हुये वहीं उसपर बाँझ का आरोप गले में तौंककि तरह डाला जा रहा है।”अजीब विडम्बना है ना पुरुषों के कमियों की सजा भी स्त्री को ही भूगतनी पड़ती है। इन सब सवालों से टकराती हुयी मैत्रैयी पुष्पा समाज की वास्त्विक स्थितियों से हमारा साक्षत्कार कराती हैं। “पति और गाँव के लोगों द्वरा उपेक्षित होने पर वह अपनी ज़िंद्गी को नये सिरे से जीने के लिये भरत सिंह के यहाँ जाकर रहती है, पर मुसीबतें वहाँ भी उसका साथ नहीं छोड़्ती हैं,मानों परछायी की तरह उसके साथ-साथ चलती हैं।”                                                       “भरत सिंह का चरित्र गांव और कस्बों में उभरते उन दबंग नये राजनीतिक व्यवसायियों का है जो अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये अनैतिकता के किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।”5 बेला भरत सिंह और उसके भाइयों द्वारा निरंतर उनकी हवस का शिकार बनती जाती है। और अंत में आक्रामक रवैया अपनाते हुये भरत सिंह के भाइयों को आग के हवालेकर देती है। वह पूरे साहस के साथ अपने अत्याचार का बदला भी लेती है और जेल जाने से भी नहीं डरती। जेल में उसकी मुलाकात डाकू फूलन देवी से होती है औ रइस तरह दोनो के बीच बहनापा रिश्ता कायम हो जाता है शायद दोनों के ही दुख एक से हैं। बचपन के दोस्त बलबीर द्वारा जेल से छूटे जाने पर पर वह कुख्यात डाकू अजय सिंह के गिरोह में शामिल होती है। डाकू की गिरोह में बेला बहू का शामिल होना पाठकों को थोड़। अचम्भितज़रुर करता है पर बेला बहू का उद्देश्य महज़ डकू बनकर लुटपाट करना नहीं है। बल्कि वह उन लोगों का फरिश्ता बनकर साथ निभाती है, उसी की तरह सतालोलुप हवस प्रेमियों और कम उम्र में ही यौन शोषण का शिकार बनकर परिस्थितीवश गलत पगडंडियों पर चलनें को मज़बुर होतें हैं। बेला बहू के डाकू बनकर भी फरिश्ता बने रहने के उपरांत भी उपन्यास कि कहानी खत्म नहीं हो जाती बल्कि मैत्रैयी जीने कुछ और घटनाओं के ताने बाने को भी पिरोया है।जिनमें उजाला और वीर सिंह केप्रेम प्रसंग का चित्रण मर्मिक्ता से ओतप्रोत है। उजाला लोहापीटा की बेटी है जबकी वीर सिंह अमीर घराने में पला बढा। वीर सिंह के पिता को जब इस प्रेम प्रसंग का पता चलता है तो वह उजाला के मौत की साजिश तक रच डालतें हैं पर बेला बहू के सद्प्रयासों से उजाला मौत के भंवर से बाहर निकल आती है। कितनी अजीब बात है ना पुरुष प्रधान समाज स्त्री का जमकर शोषण करता है और उसे गुलाम बने रहने पर मज़बूर करता है। इस सम्बंध में रोहिणी अग्रवाल का कहना है-“यौन शोषण पुरुष की मानसिक विकृति है या पितृसतात्मक व्यवस्था के पक्षपाती तंत्र द्वारा पुरुष को मिला अभयदान? वह स्त्री को गुलाम बनाये रखने का षडयंत्र है या जिसकी लाठी उसकी … Read more

अंतस से -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें

                                   कवितायें वैसे भी भावनाओं के कुसुम ही हैं और जब स्वयं कुसुम जी लिखेंगी तो सहज ही अनुमान लागाया जा सकता है कि उनमें सुगंध कुछ अधिक ही होगी| मैं बात कर रही हूँ कुसुम पालीवाल जी के काव्य संग्रह “अंतस से “की | अभी हाल में हुए पुस्तक मेले में इसका लोकार्पण हुआ है | यह कुसुम जी का तीसरा काव्य संग्रह है जो ” वनिका पब्लिकेशन “से प्रकाशित हुआ है |मैंने कुसुम जी के प्रथम काव्य संग्रह अस्तित्व को भी पढ़ा है | अस्तित्व को समझने के बाद अपने अंतस तक की काव्य यात्रा में कुसुम जी का दृष्टिकोण और व्यापक , गहरा और व्यक्ति से समष्टि की और बढ़ा है | गहन संवेदन शीलता कवि के विकास का संकेत है | कई जगह अपनी बात कहते हुए भी  उन्होंने समूह की भावना को रखा है | यहाँ उनके ‘मैं ‘ में भी ‘हम ‘निहित है | ‘अंतस से’समीक्षा  -व्यक्ति से समष्टि की ओर बढती कवितायें   यूँ तो संग्रह में 142 कवितायें हैं | उन पर चर्चा को सुगम करने के लिए मैं उन्हें कुछ खण्डों में बाँट कर   उनमें से कुछ चयनित रचनाओं को ले रही हूँ | आइये चलें  ‘अंतस से ‘ की काव्य यात्रा पर कविता पर …                  कवितायें मात्र भावनाओं के फूल नहीं हैं |ये विचारों को अंतस में समाहित कर लेना और उसका मंथन है | ये विचारों की विवेचना है , जहाँ तर्क हैं वितर्क  हैं और विचार विनिमय भी है |  इनका होना जरूरी भी है क्योंकि जड़ता मृत्यु की प्रतीक है | कविता जीवंतता है | पर इनका रास्ता आँखों की सीली गलियों से होकर गुज़रता है … देखिये –  अक्षर हूँ नहीं ठहरना चाहता रुक कर किसी एक जगह 2 … जहाँ विचार नहीं है वहां जड़ता है जहाँ जड़ता है वहाँ जीवन नहीं विचार ही जीवन है जीवन को उलझने दो प्रतिदिन संघर्षों से 3… कविता कोई गणित नहीं जो मोड़-तोड़ कर जोड़ी जाए गणित के अंकों का जोड़-गाँठ से है रिश्ता किन्तु कविता का गणित दिल से निकल कर आँखों  की भीगी और सीली गलियों से होकर गुज़रता है रिश्तों पर ….                     अच्छे रिश्ते हम सब के लिए जरूरी है क्योंकि ये हमें भावनात्मक संबल देते हैं | परन्तु आज के समय का सच ये है कि मकान  तो सुन्दर बनते जा रहे पर रिश्तों में तानव बढ़ता जा रहा है एकाकीपन बढ़ता जा रहा है | क्या जरूरी नहीं कि ह्म थोडा  ठहर कर उन रिश्तों को सहेजें – आजकल संगमरमरी मकानों में मुर्दा लाशें रहती हैं न बातें करती हैं न हँसती ही हैं उन्होंने बसा ली है दुनिया अपनी-अपनी एक सीमित दायरे में २…. ख्वाबों के पन्नों पर लिखे हुए थे जो बीते दिनों के अफ़साने आज दर्द से लिपटकर पड़पड़ाई हुई भूमि में वो क्यूँ तलाशते  रहते हैं दो बूंदों का समंदर 3 … सोंचती हूँ… जीवन की आपाधापी में ठिठुरते रिश्तों को उम्मीदों की सलाइयों से आँखों की भीगी पलकों पर ऊष्मा से भरे सपनों का एक झबला बुनकर मैं पहनाऊं नारी पर …                     नारी मन को नारी से बेहतर कौन जान सका है | जो पीड़ा जो बेचैनी एक नारी भोगती है उसे कुसुम जी ने बहुत सार्थक  तरीके से अपनी कलम से व्यक्त किया है |वहां अतीत की पीड़ा भी है , वर्तमान की जद्दोजहद भी और भविष्य के सुनहरी ख्वाब भी जिसे हर नारी रोज चुपके से सींचती है – दफ़न रहने दो यारों ! मुझे अपनी जिन्दा कब्र के नीचे बहुत सताई गयी हूँ मैं सदियों से यहाँ पर कभी दहेज़ को लेकर तो कभी उन अय्याशों द्वारा जिन्होंने बहन बेटी के फर्क को दाँव पर लगा बेंच खाया है दिनों दिन 2… तुम लाख छिपाने की कोशिश करो तुम्हारी मानसिकता का घेरा घूमकर आ ही जाता है आखिर में मेरे वजूद के कुछ हिस्सों के इर्द -गिर्द 3… तुम्हारी ख़ुशी अगर मेरे पल-पल मरने में और घुट -घुट जीने में विश्वास करती है तो ये शर्त मुझे मंजूर नहीं 4… चाँद तारों को रखकर अपनी जेब में सूरज की रोशिनी को जकड कर अपनी मुट्ठी में तितली के रंगों को समेट कर अपने आँचल में बैठ जाती हूँ हवा के उड़न खटोले पर तब बुनती हूँ मैं अपने सपनों के महल को 5 .. सतयुग हो या हो त्रेता द्वापर युग हो या हो आज सभी युगों में मैंने की हैं पास सभी परीक्षाएं अपनी तुम लेते गए और मैं देती गयी 6… छोटे – छोटे क़दमों से चलते हुए चढ़ना चाहती थी वो सपनों की कुछ चमकीली उन सीढ़ियों पर जिस जगह पहुँच कर सपने जवान हो जाते हैं और फिर … खत्म हो जाता है सपनों का आखिरी सफ़र 7 … मैं पूँछ ती हूँ इस समाज से क्या दोष था मेरी पाँच साल की बच्ची का लोग कह रहे हैं बाहर छोटे कपडे थे … रेप हो गया क्या दोष था उसका ! बस फ्रॉक ही तो पहनी थी पांच साल की बच्ची थी वो उम्र में भी कच्ची थी हाय …. कहाँ से ऐसी मैं साडी लाऊं जिसमें अपनी बच्ची के तन को छुपाऊं ! समाज के लिए ….                          किसी कवि के ह्रदय में समाज के लिए दर्द ही न हो , ऐसा तो संभव ही नहीं | चाहे वो आतंक वाद हो , देश के दलाल हो या भ्रस्टाचार हो सबके विरुद्ध कुसुम जी की कलम मुखरित हुई है | वो सहमी सी आँखें डरती है एक ख्वाब भी देखने से जो गिरफ्त में आ चुकी हैं संगीनों के साए में उनकी आँखों में भर दिए गए हैं कुछ बम और बारूद 2. ओ समाज के दलालों कुछ तो देश का सोंचो मत बेंचो अपनी माँ बहनों को इन्हीं पर तुम्हारी सभ्यता टिकी है और उइन्ही से तुम्हारी संस्कृति जुडी है 3. अंधेरों से कह दो चुप जाएँ कहीं जा कर कलम की धर … Read more

करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें

    डेज़ी नेहरा जी के काव्य संग्रह ” करवटें मौसम की ” जो की ” विश्वगाथा” प्रकाशन द्वारा प्रकाशित हुआ है,  की  कवितायें पढ़ते हुए ऐसा लगा जैसे कवियत्री के संवेदनशील मन में एक गंभीर चिंतन चल रहा है , जिसे वो कविता के माध्यम से आम पाठकों के लिए सरल से सरल शब्दों में कहना चाहती  है, परन्तु जब बात मन की हो तो इसके आयाम इतने विस्तृत होते हैं कि पाठक उस गहराई में बहुत देर तक घूमता रह जाता है, और प्रवेश करता है एक ऐसी सुरंग में जहाँ मानव मन की गुत्थियाँ खुलती चली जाती हैं | कम शब्दों गहरी बात कह देना डेजी जी की विशेषता है | उनके लघुकथा संग्रह ‘कटघरे’ में ये कला और उभर  कर आई है | दोनों ही पुस्तकों में मानव मन पर उनकी सूक्ष्म पकड़ दिखाई पड़ती है | हम आपके लिए  डेजी नेहरा जी के काव्य संग्रह ” करवटें मौसम की ” से कुछ लागु कवितायें लाये हैं | आप भी थोड़े शब्दों में गहरी बात का आनंद लीजिये | करवटें मौसम की – गहरी बात कहती कुछ लघु कवितायें  1)मौसम कुदरत ने  तो भेजा था हर मौसम हर एक के लिए फिर जाने…  बटोरने वालों ने किया जुर्म या मौसमों ने स्वयं ही किया पक्षपात किसी की झोली में झरे पतझड़ सारे किसी के हिस्से खिले वसंत ही वसंत 2 )पंख पंख आते -जाते रहते मेरी दुनिया में मौसमों के साथ यही भला है वर्ना … मैं भूल न जाता जमीं पे पैर रखना पढ़ें – कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद ३)जिंदगी उलझे रहे तो है जिंदगी वरना ‘सजा’है बस विश्वास है तो है ‘बंदगी’ वरना ‘खता ‘है बस उबर गए तो है ‘मुक्ति’ वरना ‘तपस्या’है बस 4)मुस्काने हमारी मुस्काने … पहले भी थी स्वत :ही बेवजह किशोरावस्था में मुस्काने…. अभी भी हैं कढ़ी-गढ़ी दमदार परिपक्वता में 5)हर साल सुना है करते हो आत्मावलोकन हर वर्ष के अंत में लेते हो नया प्रण हर बार , प्रारम्भ में , इन दो दिनों को छोड़ क्या करते हो सारा साल ? 6 )परिवर्तन वक्त बदलता है संग ‘सब’ नियम है, सुना है तुम बदलें रंग ‘सब’ फिर मैंने ही ये पड़ाव क्यूँ चुना है ? 7)आस  अब गम न हो कोई तुमसे लो!  छोड़ दी हर ख़ुशी की आस जो जुडी है तुम से 8)शुक्रिया सपनों की वादी से सच की छाती तक अमृत की हंडिया से विष की नदिया तक ले आये तुम तुम्हारा शुक्रिया !! कि … इंसान की हार से जीवन के सार से परिचय जो करवा दिया इतनी जल्दी 9)…मान लेती हूँ तुझमें साँसे मेरी  जानती हूँ मुझमें साँसे तेरी ‘मान’लेती हूँ कि … बनी रहूँ मैं बनाएं रखूँ तुझको 10)रंग इन्द्रधनुषी  रंगों से परे भी होते हैं कई रंग दिखा दिए सारे ही मुझको शुक्रिया जिन्दगी वरना काली-सफ़ेद भी कोई जिंदगी होती ? 11)श्रेष्ठ योनि जब सब होकर भी कुछ नहीं तुम्हारे पास अपनों से मिली बेरुखी जी करती हताश नाउम्मीद, अकेला और बदहवास  ‘मन ‘ ठोकर सी मारता है इस जीवन को जिसे कभी योनियों में श्रेष्ठ स्वयं माना था उसने यह भी पढ़ें … बहुत देर तक चुभते रहे कांच के शामियाने काहे करो विलाप -गुदगुदाते पंचों और पंजाबी तडके का अनूठा संगम मुखरित संवेदनाएं -संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती एक स्त्री के स्वर अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का आपको  समीक्षा   “ करवटें मौसम की – कुछ लघु कवितायें “ कैसी लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                       

प्रीत की पाती – किसी किशोरी के अनगढ़ प्रेमपत्र नहीं ,एक साहित्यिक कृति

                          “प्रीत की पाती” , जैसा की नाम से ही स्पष्ट है ये प्रीत की मधुर भावनाओं से ओत-प्रोत प्रेम पत्र हैं जो प्रेयसी अपने प्रियतम को लिखती है, पर नाम से जो नहीं समझा जा सकता वो है प्रेम की वो बेचैनी वो छटपटाहट जो ” प्रीत की पाती” लिखने को विवश करती है|                                                  भारतीय समाज की विडंबना ही कही जायेगी कि एक 18 वर्षीय किशोरी , जिसकी आँखों में सपने हैं, जो अपने कॉलेज में होने वाले हर अन्याय के खिलाफ बोलती है ,जो समाज को बदलना चाहती है वो अपने पिता द्वारा विवाह की बात करने पर गुहार लगाती है                         बाबा मोहे दान मत दीजिये                           जीती जागती साँस लेती हुई                             संतान आपकी मैं भी हूँ                             स्वप्न हमारे भी हैं कुछ                             सोंचती समझती मैं भी हूँ                            जब भी घुटन हो पीहर मैं                              नैहर का कोना मेरा दीजिये                              बाबा मोहे …                                                                    पिता के उत्तरदायित्व के आगे हार मान कर दुनिया को बदलने की चाह रखने वाली किशोरी  पिया के घर में जा कर खुद बदल जाती है| सृजन यहाँ भी रुकता नहीं है … मांग सिंदूर  , चूड़ी , कंगन और आलते में रचती है अपने  घर का संसार | पर वो कहते है ना ,कि सपने मरते नहीं हैं , वो तो बस दब जाते हैं | यहाँ भी ठीक ऐसा ही हुआ | पर यही दबे हुए सपने  बच्चों के बड़े होते ही फिर खाली समय की गीली मिटटी पा कर पनप गए और उन्होंने  रचना करवाई  “ प्रीत की पाती ” की |   परन्तु  ये “प्रीत की पाती” किसी किसी किशोरी के अनगढ़ प्रेम पत्र नहीं एक साहित्यिक कृति बन जाती है |                                        किसी भी रचनाकार की कृति उसके व्यक्तित्व का आइना होती है | ” प्रीत की पाती” को पढ़ते हुए किरण सिंह जी के उस  व्यक्तित्व को आसानी से पढ़ा जा सकता है , जो प्रेम , करुणा , दया और ममता आदि गुणों से भरा हुआ है |                              प्रीत की पाती में 53 प्रेम रस से भीगे पत्र है , चार घनाक्षरी व् कुछ मुक्तक सवैया दोहा आदि हैं | पत्र लिखने का कारण बेचैनी है , आकुलता है , जो पहले ही पत्र में स्पष्ट हो जाती है |  अक्षर-अक्षर शब्द-शब्द से रस की गगरी छलक रही है|  सच तो ये हैं व्यथा हमारी नेह-नयन  से झलक रही है ||                                                 व्यथा तो है पर प्रीत का बहुत पुनीत रूप है , जहाँ प्रीत उन्मुक्तता का प्रतीक नहीं , एक सुहागन नारी का समर्पण है | तभी तो  प्रियतम को याद दिलाती हैं … सिंदूर का ये नाता गहरा बहुत होता है , भर मान प्रीत रंग से अपना बना लेता है | ——————————— लिखकर उर के पन्नों पर अधरों को मैंने सी लिया,  तुम तो समझते हो मुझे मैं न कहूँ या हां कहूँ | ——————————— टूट जाती है तन्द्रा पग थाप  से  ह्रदय का है नाता मेरा आपसे  प्रेम तो है पर प्रेम का उलाहना भी है,  … मान लिया मैंने तुमको बहुत काम हैं मगर , कैसे तुम्हें मेरी याद नहीं आई | ——————————— कभी शब्दों के तीर चलाते  कभी चलाते गोली  आज तुम्हारी काहे प्रीतम  मीठी हो गयी बोली .. —————————— छल  कपट भरे इस जगत में  तुम भी तो प्रिय छली हो गए  प्रेम में रूठना मनाना न हो यह तो संभव ही नहीं , परन्तु एक स्त्री कभी उस तरह से नहीं रूठ सकती जैसे पुरुष रूठते हैं , उसके रूठना में भी कोमलता होती है |- क्यों इस दिल को यूँ सताते हैं  आप क्यों मुझसे रूठ जाते हैं  ——————————– मांग रही हूँ उत्तर तुझसे , क्यों रूठे हो प्रिय तुम मुझसे  कह दो तो दिन को रात कहूँ  मैं कैसे अपनी बात कहूँ  ——————————– छोड़ देती मैं भी , बात करना मगर,  मुझे रूठ जाने की , आदत नहीं है | ———————————-                  और जैसा कि सदा से होता आया है , प्रेम की अभिव्यक्ति है , प्रतीक्षा है ,ताने -उलाहने हैं, रूठना मानना है ,  फिर अंत में समर्पण … जहाँ इस बात की स्वीकारोक्ति है कि रूठे हो , सताते हो छलिया हो कुछ भी हो पर मेरे हो , मैं  सदा तुमसे प्रेम करुँगी , तुम्हारी प्रतीक्षा करुँगी क्योंकि मैं तुम्हारे बिना जी न सकूँगी … नैन बसी जो मूरत सजना , तोरी सूरत  बार -बार लिखने को मुझी से कह जात है  ——————————————- तुम आओ या ना आओ  यह तो तेरी है इच्छा  मैं तो करुँगी प्रतीक्षा  ———————- प्रिय तुम रह न सकोगे मुझ बिन , मैं भी तुम बिन रह न सकूँगी  छोड़ो यह सब झगडा -रगडा  अब यह सब मैं सह न सकूँगी |  यह उदाहरण  प्रेम की विशालता , उसका समर्पण उसकी गहनता व् उसके हर रूप गहरी पकड को दर्शाते  … Read more

कटघरे – हम सब है अपने कटघरों में कैद

                         कटघरे शब्द पढ़ते ही आँखों के सामने एक दृश्य उभरता है कटघरे में खड़े एक मुजरिम का और उसके पक्ष और विपक्ष में लड़ते वकीलों का| तभी आर्डर-आर्डर कहते हुए जज साहब एक फैसला दे देते हैं, फिर या तो कटघरे में खड़ा व्यक्ति बरी हो जाता है या उसे सजा हो जाती है| पर जिंदगी की अदालत ऐसी नहीं होती , यहाँ हम सब कटघरे में खड़े हैं , कहीं किसी ने हम को खड़ा कर रखा है तो कहीं हम ने ही खुद का खड़ा कर लिया है | यहाँ कोई जज नहीं है, पक्ष विपक्ष पेश करते वकील भी नहीं, इसलिए कोई फैसला नहीं होना है हम सब अपने – अपने कटघरों में फंसे जीवन  घसीटने को अभिशप्त हैं | इसलिए कोई मुक्ति भी नहीं है | इसीलिये शायद हर इंसान परेशान  है | कटघरे के अन्दर की पीड़ा, छटपटाहट और बेचैनी को भोगने के लिए विवश भी |                                         इस  नयी सोंच के साथ एक खूबसूरत कहानी संग्रह ” कटघरे ” के साथ हम सब को कटघरे में खड़ा करने के बावजूद इस की लेखिका डेजी नेहरा जी  पाठकों  का दिल जीत ले जाती हैं | मानव मनोविज्ञान की गहराई में उतर कर नया प्रयोग करते हुए अपने पहले कहानी संग्रह “कटघरे ” के माध्यम से इस  आरोप का खंडन करने में भी सफल हुई हैं कि हिंदी साहित्य में नए प्रयोग नहीं हो रहे हैं |                                                    एक संवेदनशील मन के अन्दर ही इतना मनोवैज्ञानिक विचार आ सकता है| बिना किसी भूमिका के, बिना किसी लाग-लपेट के बहुत ही सरल शैली में डेजी जी छोटी- छोटी कहानियों के माध्यम से गहरी बात करती चली जाती हैं | कठिन को सरल बना देना उनके लेखन की ख़ूबसूरती है|                       मुग्धा, अविश्वास की मारी हुई है| पति पर शक करके एक खूबसूरत रिश्ता खो देती है | इस पर उस पर शक करते हुए आगे बढती जाती  है और अकेली होती जाती है| यहाँ तक की रिटायरमेंट में भी उसके साथ कोई इंसान  नहीं आता , आता है तो उसका कटघरा , अविश्वास का कटघरा| किशोर बेटी के प्रति पिता के बदलते व्यवहार के लिए एक पिता कटघरे में खड़े हैं | बहुत पहले किसी के बच्चे के जन्म पर मैंने एक बुजुर्ग महिला को कहते सुना था इसके संतान योग नहीं है | मैंने अपवाद किया कि ,”बेटी तो है “तो उन्होंने कहा, ” बेटियाँ तो बस पैदा हो जाती हैं संतान तो बेटे ही होते हैं | वही दर्द “माँ “कहानी पढ़ कर उभर आया जहाँ तीन बेटियों की माँ सिर्फ इसलिए माँ नहीं है क्योंकि उसने बेटे को जन्म नहीं दिया| माँ होते हुए भी माँ का दर्जा  प्राप्त करने के लिए वो कटघरे में खड़ी है | सेतु सुन्दर नहीं है ,पति और बच्चे को दुर्घटना में खो चुकी है , जाने कितनों की बुरी नज़र से खुद को बचाती है फिर भी वो सकारात्मक रहने व् खुश रहने का प्रयास करती है | समाज ने उसे कटघरे में खड़ा कर दिया है | उस पर आरोप है इतने दुखों के बीच खुश रहने का … “ जरूर कोई बात है “ मोहा , जो बच्चों के लिए दिन भर खटती हैं उसे उसके बच्चों ने ही कटघरे में खड़ा कर दिया | साँवली बेटी ने इंटरनेट से पढ़ कर उस पर आरोप लगाना शुरू कर दिया कि तुमने गर्भावस्था में अपने खाने -पीने का ध्यान नहीं रखा इसलिए मैं सांवली पैदा हुई | उम्र बढ़ने के साथ बेटी का अवसाद बढ़ता है और मोहा की उलझन | अवसाद ग्रस्त बेटी आत्महत्या करती है और मोहा को  एक बेबुनियाद आरोप के साथ जिंदगी भर के लिए कटघरे में खड़ा कर जाती है | जहाँ से उसकी मुक्ति संभव नहीं है | नकली भक्त में देवी पूजन में बालिकाओं का सम्मान करती व् अगले ही दिन से कामवाली की छोटी बेटी को काम पर बुलाती भक्त चाची ” नकली भक्त” के कटघरे में खड़ी  हैं | डेजी जी ने  आधुनिक माँ को भी कटघरे में खड़ा किया है , जो अपने फिगर पर ध्यान देती हैं बच्चों पर नहीं | शहर के बन्दर में वो नगर , निगम वन विभाग और सरकार सबको कटघरे में खड़ा करती है | जब जंगल काट दिए जायेंगे तो बेचारे बंदर क्या करें ?                                    संग्रह में 62 कटघरे हैं जहाँ हम , आप जैसे सब लोग खड़े हैं व् 11 अन्य  कहानियाँ हैं | डेजी जी बड़ी ही सरलता से शुरुआत में घोषणा करती हैं –                                    कहानी हैं , संस्मरण हैं या किस्से हैं                                             सब जीवन के तो  हिस्से हैं                                       ज्ञानी है , अज्ञानी हैं या मसखरे हैं                                       सबके देखो तो अपने -अपने कटघरे हैं                                      कटघरे की हर कहानी  सरलता के साथ बुनी हुई छोटी सी कहानी  है , पर इसका प्रभाव बहुत व्यापक है | ये छोटी – छोटी से कहानियाँ पाठक को बहुत देर तक सोंचने पर विवश कर देती हैं | ” संग्रह विश्वगाथा  प्रकाशन ने निकाला है | इसका कवर पेज  भी बहुत सुंदर व् प्रतीकात्मक है | सरल भाषा में कुछ गंभीर पढने की चाह रखने वाले पाठकों … Read more

बहुत देर तक चुभते रहे “काँच के शामियाने “

इसे सुखद संयोग ही कहा जाएगा की जिस दिन मैंने फ्लिपकार्ट पर रश्मि रविजा जी का उपन्यास ” कांच के शामियाने आर्डर किया उस के अगले दिन ही मुझे “कांच के शामियाने” को महाराष्ट्र राज्य हिन्दी साहित्य अकादमी द्वारा “जैनेन्द्र कुमार पुरस्कार” दिए जाने की घोषणा की  सूचना मिली | अधीरता और बढ़ गयी | दो दिन बाद उपन्यास मेरे हाथ में था | बड़ी उत्सुकता से उपन्यास पढना शुरू किया ….”झील में तब्दील होती वो चंचल पहाड़ी नदी”और शुरू हुआ मेरा जया  के साथ एक दर्द भरा सफ़र , ये  सफ़र था  एक मासूम लड़की , एक शोषित पत्नी और संघर्ष करती माँ के साथ | जितना पढ़ती गयी जया  के साथ घुलती मिलती गयी | और क्यों न हो ? ऐसी कितनी जयायें मैंने जिंदगी में देखी थी | पड़ोस की बन्नो , सरला मौसी गाँव की तिवारीं चाची | एक साथ न जाने कितनी स्मृतियाँ ताज़ा हो गयीं |मन अधीर हो उठा … नहीं , नहीं ये जया हारेगी नहीं | मन दुआ करने लगा जो हकीकत में देखा था कम से कम जया  के साथ न हो | और मैं बिना रुके पढ़ती चली गयी … जया  के साथ जुडती चली गयी | चुभते है गड़ते है  “काँच के शामियाने “                                काँच के शामियाने एक स्त्री की हकीकत है | एक ऐसी दर्दनाक हकीकत जिसमें रिसते , गड़ते घावों का दंश झेलती महिला महफूज मानी जाती है | किसने बनाया है औरत के लिए सब सहने में खुश होने का अलिखित कानून ? और क्यों बनाया है ?  जया एक आम मध्यम  वर्गीय  महिला का प्रतिनिधित्व करती है | जो  ये जानते हुए कि उसका शोषण हो रहा है …. शायद कल सब कुछ अच्छा हो जाए सोंचकर सब कुछ सहती रहती है | पर ऐसा दिन परी कथाओं में तो होता है असली जिन्दगी में नहीं | वो घर में कैद कर ली जाती है , अपने मायके की औकात के ताने झेलती है और जिस सामाज के सामने वो फ़रियाद ले कर जाती है वो इसे पति – पत्नी का झगडा बता कर बीच में पड़ने से मना  कर देता है | नतीजा पति  राजीव व् ससुराल वालों के अत्याचार दिन पर दिन बढ़ते ही जाते है | यहाँ पर एक प्रश्न मन में उठता है कि ” लोग क्या कहेंगे “के नाम पर औरत के पैरों में कितनी बेड़ियाँ डाल दी जाती हैं | जिन्हें झेलने को वो विवश है पर यही लोग पति के अत्याचारों पर पति – पत्नी का मामला बता कर मौन धारण  कर लेते हैं | स्त्री के शोषण के पीछे केवल ससुराल वाले व् पति ही जिम्मेदार नहीं है | पूरा समाज जिम्मेदार है | वही समाज जो हमसे आपसे मिलकर बनता है | सामाज का ये गैर जिम्मेदाराना रवैया हम को और आपको सोंचने और बदलने की वकालत करता है | स्त्री का साथ नहीं देता मायका                                                     कहते हैं लड़की का कोई घर नहीं होता है | होता है तो एक मायका और एक ससुराल | इस पर ससुराल में पीड़ित महिलाएं अपनी फ़रियाद लेकर कहाँ जाए | कौन है जो उन्हें इस दर्द से जूझने की क्षमता देगा ?  ” काँच के शामियाने ” से  कुछ पंक्तियाँ जया द्वारा कही गयीं  आपसे साझा करना चाहती हूँ … किरण दीदी जब भी ससुराल आती मुहल्ले में खबर फ़ैल जाती कि उनके ससुराल वाले बहुत मारते – पीटते हैं , सताते हैं पड़ोस की औरते एक दूसरे से आँख के इशारे से कहती ,” आ गयी फिर से , जरूर फिर से कुछ हुआ होगा ” फिर दस एक दिनों में उनके बाबूजी या भैया उन्हें वापस ससुराल पहुंचा आते | पिछले कुछ सालों से किरण दी ने मायके आना बंद कर दिया | तब भी लोग उन्हें को दोषी ठहराते | कहते ,” कैसी पत्थरदिल है | माँ – बाबूजी को देखने का भी मन नहीं करता | उन दिनों गहराई से समझ नहीं पायी थी |कब तक झूठी मुस्कान ओढ़े अपने माता – पिता की लाडली होने का दिखावा करती | उनका भी मन दुखता होगा जब अकेले में सब सहना है तो क्यों वो किसी झूठे दिलासे की उम्मीद में मायके का रुख करें | क्या बेटा  भी किसी दुःख मुसीबत में होता तो वो उसे यूँ ही अकेला छोड़ देते |                             हम सब जानते हैं की ये हमारे समाज की सच्चाई है | माता – पिता बेटी की शादी कर  अपना बोझ उतार देते हैं | फिर चाहे बेटी कितना बोझ ढोती रहे | इसी पर सुविख्यात लेखिका सुधा अरोड़ा जी की लोकप्रिय कविता ‘ कम से कम एक दरवाजा खुला होना  चाहिए” का जिक्र करना चाहूंगी | जब तक हम स्वयं अपनी बेटियों के लिए ढाल बन कर खड़े नहीं होंगे वो ससुराल में इसी तरह का शोषण झेलने को विवश होंगी | जया  का प्रश्न वाजिब है अगर बेटे के साथ यही होता तो क्या माता – पिता उसे दुःख में अकेले छोड़ देते फिर बेटियों को क्यों ? ये उत्तर हम सब को खोजना है | दर्द का हद से गुज़र जाना दवा बन जाना                                          कहते  हैं की दर्द जब हद से गुज़र जाए तो वो दवा बन जाता है |जया के जीवन में भी दर्द बढ़ते बढ़ते इस हद तक पहुँच गया  कि उसमें राजीव का घर छोड़ने का साहस आ गया | संघर्ष का ये रास्ता कठिन रास्ता था | राजीव उसके आय के हर श्रोत को बंद कर देना चाहता था | हर तरह से उसे अपने आगे घुटने टेकने को मजबूर करना चाहता था | एक हारे हुए पुरुष के पास स्त्री के चरित्र पर कीचड उछालने के अतरिक्त कोई बाण नहीं होता | राजीव ने भी बहुत तीर चलाये जिसने जया को … Read more

रंगनाथ द्विवेदी की कलम से नारी के भाव चित्र

                             कहते हैं नारी मन को समझना देवताओं के बस की बात भी नहीं है | तो फिर पुरुष क्या चीज है | दरसल नारी भावना में जीती है और पुरुष यथार्त में जीते हैं | लेकिन भावना के धरातल पर उतरते ही नारी मन को समझना इतना मुश्किल भी नहीं रह जाता है | ऐसे ही एक युवा कवि है रंगनाथ द्विवेदी | यूँ तो वो हर विषय पर लिखते हैं | पर उनमें  नारी के मनोभावों को बखूबी से उकेरने की क्षमता है | उनकी रचनाएँ कई बार चमत्कृत करती हैं | आज हम रंगनाथ द्विवेदी की कलम से उकेरे गए नारी के भाव चित्र  लाये हैं |                                        प्रेम और श्रृंगार                                      स्त्री प्रेम का ही दूसरा रूप है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी | जहाँ प्रेम है वहाँ श्रृंगार तो है ही | चाहें वो तन का हो , मन का या फिर काव्य रस का रंगनाथ जी ने स्त्री के प्रेम को काव्य के माध्यम से उकेरा है  शमीम रहती थी  कभी सामने नीम के——— एक घर था, जिसमें मेंरी शमीम रहती थी। वे महज़——— एक खूबसुरत लड़की नही, मेंरी चाहत थी। बढ़ते-बढ़ते ये मुहल्ला हो गया, फिर काॅलोनी बन गई, हाय!री कंक्रिट——– तेरी खातिर नीम कटा, वे घर ढ़हा——– जिसमें मेरी शमीम रहती थी। अब तो बीमार सा बस, डब-डबाई आँखो से तकने की खातिर, यहाँ आता हूँ! शुकून मिल जाता है इतने से भी, ऐ,रंग———– कि यहाँ कभी, मेरे दिल की हकिम रहती थी! कभी सामने नीम के——– एक घर था, जिसमें मेरी शमीम रहती थी।   पतझड़ की तरह रोई  बहुत खूबसूरत थी मै लेकिन——– रोशनी में तन्हा घर की तरह रोई। कोई ना पढ़ सका कभी मेरा दर्द—— मै लहरो में अपने ही,समंदर की तरह रोई। सब ठहरते गये—————- अपनी अपनी मील के पत्थर तलक, मै पीछे छुटते गये सफर की तरह रोई। लोग सावन में भीग रहे थे, ऐ,रंग—–मै अकेली अभागन थी जो सावन में पतझड़ की तरह रोई।         सखी हे रे बदरवा  तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा, करे छेड़खानी सखी छेड़े बदरवा। सिहर-सिहर जाऊँ शरमाऊँ इत-उत, मोहे पिया की तरह सखी घेरे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। चुम्बन पे चुम्बन की है झड़ी, बुँद-बुँद चुम्बन सखी ले रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। अँखियो को खोलु अँखियो को मुँदू, जैसे मेरी अँखियो में कुछ सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। मेरी यौवन का आँचल छत पे गिरा, मेरी रुप का पढ़े मेघदुतम सखी हे रे बदरवा, तन मन भिगोये सखी हे रे बदरवा। पपीहा मुआ  मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ, वे भी तो तड़पे है मेरी तरह, वे पी पी करे और मै पी पी पिया। मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। वे रोये है आँखो से देखे है बादल, मै रोऊँ तो आँखो से धुलता है काजल, वे विरहा का मारा मै विरहा की मारी, देखो दोनो का तड़पे है पल-पल जिया, मेरी बढ़ाये पपीहा मुँआ। हम दोनो की देखो मोहब्बत है कैसी? वे पीपल पे बैठा मै आँगन में बैठी, की भुल हमने शायद कही पे, या कि भुल हमने जो दिल दे दिया, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ। चल रे पपीहे हुई शाम अब तो, ना बरसेगा पानी ना आयेंगे ओ, मांगो ना अब और रब से दुआ, मेरी पीर बढ़ाये पपीहा मुँआ।                                उन्होंने मुझको चाँद कहा था  पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। तब से लेकर अब तक मै—– वे करवा चौथ नही भुली। मै शर्म से दुहरी हुई खड़ी थी, फिर नजर उठाकर देखा तो, वे बिलकुल मेरे पास खड़े थे, मैने उनकी पूजा की——- फिर तोड़ा करवे से व्रत! उन्होनें अपने दिल से लगा के—– मुझको अपनी जान कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—– उन्होनें मुझको चाँद कहा था। बनी रहु ताउम्र सुहागिन उनकी मै, यूँही सज-सवर कर देखू उनको मै, फिर शर्मा उठु कर याद वे पल, जब पहली बार पिया ने मुझको—- छत पर अपना चाँद कहा था। पहले साल का व्रत था मेरा—- उन्होनें मुझको चाँद कहा था। चूड़ियाँ ईद कहती है चले आओ———- कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। भर लो बाँहो मे मुझे, क्योंकि बहुत दिन हो गया, किसी से कह नही सकती, कि तुम्हारी हमसे दूरियाँ—- अब ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। सिहर उठती हूं तक के आईना, इसी के सामने तो कहते थे मेरी चाँद मुझको, तेरे न होने पे मै बिल्कुल अकेली हूं , कि चले आओ——– अब बिस्तर की सिलवटे और तन्हाइयां ईद कहती है। चले आओ——— कि अब चूड़ियाँ ईद कहती है। तीन तलाक पर एक रिश्ता जो न जाने कितनी भावनाओं से बंधा था वो महज तीन शब्दों से टूट जाए तो कौन स्त्री न रो पड़ेगी | पुरुष होते हुए भी रंग नाथ जी यह दर्द न देख सके और कह उठे बेजा तलाक न दो  ख्वा़हिशो को खाक न दो! एै मेरे शौहर———– सरिया के नाम पे, मुझे बेजा तलाक न दो। बख्श दो——— कहा जाऊँगी ले मासुम बच्चे, मुझ बेगुनाह को——- इतना भी शाॅक न दो, बेजा तलाक न दो। न उड़ेलो कान में पिघले हुये शीशे, मुझ बांदी को सजा तुम——– इतनी खौफ़नाक न दो, बेजा तलाक न दो। न छिनो छत,न लिबास खुदा के वास्ते रहने दो, मेरी बेगुनाही झुलस जाये——- मुझे वे तेजाब न दो, बेजा तलाक न दो। सी लुंगी लब,रह लुंगी लाशे जिंदा, लाके रहना तुम दु जी निकाहे औरत, मै उफ न करुंगी! बस मेरे बच्चो की खुशीयो को कोई बेजा, इस्लामी हलाक न दो——- बेजा तलाक न दो। तीन मर्तबा तलाक  एक औरत——— किसी सरिया के नाम पे कैसे हो सकती है मजाक। कैसे———– लिख सकता है कोई शौहर, अपनी अँगुलियो से इतनी दुर रहके, मोबाइल के वाट्सप पे——— तीन मर्तबा तिलाक। नही अब … Read more