समीक्षा – “काहे करो विलाप” गुदगुदाते ‘पंचों’ और ‘पंजाबी तड़के’ का एक अनूठा संगम

हिंदी साहित्य की अनेकों विधाओं में से व्यंग्य लेखन “एक ऐसी विधा है जो सबसे ज्यादा लोकप्रिय हैं और सबसे ज्यादा मुश्किल भी!” कारण स्पष्ट है – भावुक मनुष्य को किसी भावना से सराबोर कर रुलाना तो आसान है परन्तु हँसाना मुश्किल| आज के युग की गला काट प्रतियोगिता में जैसे – जैसे तनाव सुरसा के मुंह की तरह बढ़ता जा रहा है वैसे – वैसे ये कार्य और दुरूह होता जा रहा है और आवश्यक भी| “आप थोडा सा हँस ले” – तनाव को कम करने का इससे कारगर कोई दूसरा उपाय नहीं है| हर बड़े शहर में कुकरमुत्तों की तरह उगे “लाफ्टर क्लब” इस बात के गवाह हैं| आज के मनुष्य की इस मूलभूत आवश्यकता को समझते हुए व्यंग्य लेखकों की जैसे बाढ़ सी आ गयी हो| परन्तु व्यंग्य के नाम पर फूहड़ हास्य व् द्विअर्थी संवादों के रूप में जो परोसा गया उसने व्यंग्य विधा को नुकसान ही पहुँचाया है, क्योंकि असली व्यंग्य में जहाँ हास्य का पुट रहता है वहीँ एक सन्देश भी रहता है और एक शिक्षा भी! ऐसे व्यंग्य ही लोकप्रिय होते हैं जिसमें हास्य के साथ – साथ कोई सार्थक सन्देश भी हो| आज जब अशोक परूथी जी का नया व्यंग्य – संग्रह “काहे करो विलाप” मेरे सामने आया तो उसे पढने का मुझे एक विशेष कौतुहल हुआ, क्योंकि अशोक जी के अनेकों व्यंग्य हमारी पत्रिका “अटूट बंधन” व् दैनिक समाचार पत्र “सच का हौसला” में प्रकाशित हो चुके हैं| मैं उनकी सधी हुई लेखनी, हास्य पुट, सार्थक सन्देश वाली कटाक्ष शैली के चमत्कारिक उपयोग से भली भांति वाकिफ हूँ| कहने की आवश्यकता नहीं कि मैं एक ही झटके में सारे व्यंग्य-संग्रह को पढ़ गयी और एक अलग ही दुनिया में पहुँच गयी जहाँ होंठो पर मुस्कुराहट के साथ दिमाग के लिए सन्देश भी था| इसी कलात्मकता ने मुझे इस व्यंग्य – संग्रह पर कुछ शब्द लिखने को विवश किया| शुरुआत करना चाहूंगी संग्रह के पहले ही व्यंग्य “पापी पेट का सवाल है” से – कटाक्ष शैली में लिखे गए इस व्यंग में अशोक जी ने बड़ी ही ख़ूबसूरती से सारे पापों, सारे घोटालों, सभी समस्याओं, रोटी की तालाश में विदेश गए लोगों व् मात्र पेट को भरने की जुगत में लगे लोगों का समय का सार्थक उपयोग न कर पाने की विवशता का कारण पेट को माना है| जब वो ‘पेट देना‘ भगवान् की सबसे बड़ी गलती करार देते हैं तो पाठक अपने पेट पर हाथ फेरते हुए उनसे सहमत हो ही जाता है| “हाय, मेरी बत्तीसी!” मेरे पसंदीदा व्यंगों में से एक है| इसे हमने “सच का हौसला” में प्रकशित भी किया था| मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि जो भी व्यक्ति सौभाग्य या दुर्भाग्य से दांत के डॉक्टर के पास गया होगा वह इस व्यंग्य को पढ़ कर अपनी व्यथा-कथा का स्मरण कर मुस्कुराए बिना नहीं रह सकता| दूध में पानी की मिलावट से जहाँ हम सब भारतीय विशेकर महिलाएं परेशान होती हैं, वहीँ अशोक जी इसे व्यंग्य का मुद्दा बनाते हैं| यही नहीं अपने व्यंग्य –लेख “बस, थोड़ी यही तकलीफ है” में तुलनात्मक अध्धयन से सिद्द कर देते हैं कि भारतीय दूधवाला विदेशी शुद्ध दूध या पानी की मात्रा बता कर मिलावटी दूध बेचने वाली कम्पनियों से ज्यादा बेहतर है क्योंकि वह आप को दिल, जिगर और गुर्दे आदि की तमाम बीमारियों से बचा कर आप पर अहसान करता है| अशोक जी दूध वाले की कृपा से पैर की नस खींच कर दिल में लगाने में होने वाले खर्चे की बचत जैसे खूबसूरत पंच का प्रयोग करते हैं जो पाठक को गुदगुदाता है| “लाल परी वाली पार्टी” में देशी शादियों में पीने – पिलाने के रिवाज़ पर हास्य का शानदार प्रयोग है| “बोलो जी, आज क्या बनाऊ?” घरेलू जिंदगी में हास्य पैदा करता है| इस व्यंग्य की शैली रोचकता उत्पन्न करती है और पाठक एक सांस में पढता जाता है| हालांकि, एक महिला होने के नाते मैं इसका समर्थन नहीं करूंगी, पाठक खुद ही पढ़ कर निर्णय लें| हममे से ज्यादातर लोग अतीत को वर्तमान से बेहतर मानते हैं और उसी में खोये रहते हैं और अगर बात फेसबुक प्रोफाइल पर फोटो लगाने की हो तो निश्चित तौर पर अतीत ही बेहतर होता है| मानवीय स्वाभाव की इस कमजोरी पर लिखा गया ये व्यंग्य “कोई लौटा दे मेरे वो दिन” बेहद शानदार बन पड़ा है| अंत में, मैं इतना ही कहना चाहती हूँ कि अशोक जी चाहे वर्षों से विदेश में बसे हुये हैं, उनकी हिंदी पर पकड़ बहुत अच्छी है| हिंदी के साथ – साथ पंजाबी को गूंथ कर जो भाषाई स्तर पर उन्होंने प्रयोग किया है वह बेहद ही सफल रहा है| उनका यह व्यंग्य – संग्रह व्यंग्य विधा के हर मानक को पूरा करता है| अशोक जी एक बेहतरीन लेखक के रूप में उभर कर सामने आ रहे हैं| उनमें असीम संभावनाएं हैं| यदि आप भी व्यंग्य के नाम पर कुछ अच्छा, कुछ सार्थक और कुछ चुटीले पंच युक्त-लेख पढना चाहते हैं जो दिल और दिमाग दोनों के लिए बेहतर हो तो आप को अशोक जी का व्यंग्य संग्रह “काहे करो विलाप“ अवश्य पढना चाहिए| हार्दिक शुभकामनाओं के साथ – ******************वंदना बाजपेयी, ****************कार्यकारी सम्पादक, **********अटूट बंधन व् सच का हौसला 

मुखरित संवेदनाएं – संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती स्त्री के स्वर

                                                     लेखिका एवम कवयित्री     किरण सिंह  जी का प्रथम काव्य संग्रह ” मुखरित संवेदनाएं ” एक नज़र में ही मुझे विवश करने लगा  की मैं उस पर कुछ लिखूँ , और पूरा पढने के बाद मैं अपने आप को रोक न सकी | वैसे किरण सिंह जी के आत्मीय स्वाभाव व् उनकी कविताओं से मैं फेसबुक के माध्यम से पहले से ही परिचित थी | उनकी कई  कवितायें व् कहानियां हमारे अटूट बंधन ग्रुप की मासिक पत्रिका ” अटूट बंधन ” व् दैनिक समाचारपत्र ” सच का हौसला में प्रकाशित हो चुकी हैं व् पाठकों द्वारा सराही जा चुकी हैं | इस भावनात्मक जुड़ाव के कारण उनके पहले काव्य संग्रह पर कुछ लिखना  मुझे आल्हादित कर  रहा है | शुरुआत करती हूँ संग्रह के पहले अंश ” अपनी बात से ” जैसा की किरण जी ने लिखा है की छोटी उम्र में विवाह व् घर गृहस्थी के ताम – झाम में वो भूल ही गयी की उनके अन्दर जाने कितनी कवितायें सांस ले रही हैं | जो जन्म लेना चाहती है | जाहिर सी बात है जब कांपते हाथों से उन्होंने कलम थामी तो उदेश्य बस उस बेचैनी का समाधान ढूंढना था जो हर रचनात्मक व्यक्ति अपने अन्दर महसूस करता है | तभी तो अपनी पहली कविता में वह प्रश्न करती हैं ” किस पर  लिखूँ मैं ?” वास्तव में जब मन में इतना कुछ एक साथ चल रहा हो तो एक विषय का चयन कितना दुष्कर हो जाता है | पर वो शीघ्र ही इस झिझक से बाहर आ कर मजबूती से अपनी बात रखती हैं | उन्होंने अपनि सम्वेद्नाओ को कई भागों में बांटा है जिस पर मैं क्रम से प्रकाश  डालना चाहूंगी | मुखरित संवेदनाएं                       यहाँ किरण जी ने अपने लेखकीय जीवन  के शुरूआती दौर  की कवितायें रखी हैं | जहाँ एक अनजानी राह पर जाने की झिझक भी है , संकल्प भी है और सब से बढ़कर कर स्वयं को ढूँढने की बेचैनी है | इस खंड की अंतिम कविता ” मैं ” तक आते – आते वो इसका हल भी ढूढ़ लेती हैं  और उद्घोष करती हैं ………                ” किरने आशाओं  की मैं                     मैं स्वयं की स्वामिनी  हूँ “|  नारी संवेदना के स्वर                                     किरण जी के काव्य संग्रह के दूसरे व् प्रमुख खंड  ” नारी संवेदना के स्वर ” की कविताओं को बार – बार पढने पर उसमें उस स्त्री का अक्स दिखाई देता है जो हमारे देश के छोटे शहरों , गांवों और कस्बों से निकल कर आई है | जो महानगरों की स्त्री की तरह पुरुष विरोधी नहीं है | या यूँ कहिये वो मात्र विरोध करने के लिए विरोध नहीं करती | वो पुरुष से लड़ते – लड़ते पुरुष नहीं बनना चाहती है | उसे अपने  स्त्रियोचित गुणों पर गर्व है | दया ममता करुणा  हो या मेहँदी चूड़ी और गहने वो सब को सहेज कर आगे बढ़ना चाहती है | या यूँ कहें की वो अपनी जड़ों से जुड़े रह कर अपने हिस्से का आसमान चाहती है | वो अपने पिता पति और पुत्र को कटघरे में नहीं घसीटती बल्कि  सामाजिक व्यवस्था  और अपने ही कोमल स्वाभाव के कारण स्वयमेव अपना प्रगति रथ रोक देने के कारण उन्हें दोष मुक्त कर देती है | वो कहती है ……….. क्यों दोष दूं तुम्हे  मैं भी तो भूल गयी थी  स्वयं  तुम्हारे प्रेम में                    आज स्त्री विमर्श के नाम पर जो लिखा जा रहा है  | वो बहुत उग्र है | जिस  तरह से स्त्री खून के बदले खून मांगती है , लिव इन या बेवफाई से उसे गुरेज नहीं है | वो पुरुषों से कंधे से कन्धा मिला कर चलने में यकीन नहीं करती बल्कि सत्ता पलट कर पुरुष  से ऊपर हो जाना चाहती हैं | जिस को पढ़ कर सहज विश्वास नहीं होता | क्योंकि हमें अपने आस – पास ऐसी स्त्रियाँ नहीं दिखती | हो सकता है ये भविष्य हो पर किरण जी की कवितायें आज का यथार्थ लिख रही हैं | जहाँ संवेदनाएं इतनी इस कदर मरी नहीं हैं | पर किरण जी की कवितायें एक दबी कुचली नारी के स्वर नहीं है | वो अपने हिस्से का आसमान भी मांगती हैं पर प्रेम और समन्वयवादी दृष्टिकोण के साथ ………. भूल गयी थी तुम्हारे प्रेम में अपना  अस्तित्व और निखरता गया मेरा  स्त्रीत्व  खुश हूँ आज भी  पर  ना जाने क्यों  लेखनी के पंख से उड़ना चाहती हूँ  मुझे मत रोको  मुझे  स्वर्ण आभूषण  नहीं   आसमान चाहिए  युग चेतना एवं उद्बोधन                                           काव्य संग्रह के इस खंड में उनकी आत्मा की बेचैनी व् समाज के लिए कुछ करने की चाह स्पष्ट रूपसे झलकती है | ……… सीख लें हम बादलों से  किस पर गरजना है  किस पर बरसना है  किसको दिखाना है  किसको छुपाना है  और ……….. पीढा चढ़ कर ऊंचा बन रहे  आत्म प्रशंसा आप ही कर रहे  झाँक रहे औरों के घर में  नहीं देखते अपनी करनी  सूप पर हंसने लगी है चलनी  भक्ति आध्यात्म                                             काव्य संग्रह के इस खंड में अपने हिस्से का आसमान मांगने वाली और समाज की कुप्रथाओं से लड़ने वाली कवयित्री एक भावुक पुजारिन में तब्दील हो जाती है | जहाँ वो और उसके आराध्य के अतरिक्त कोइ दूसरा नहीं है | न जमीन न आसमान न घर न द्वार | यहाँ पूर्ण  समर्पण  की भावना है | भक्ति रस में डूबे ये गीत आत्मा को आध्यात्म की  तरफ मोड़ देते हैं | ……….. जाति  धर्म में हम उलझ कर  मिट रहे … Read more

“अंतर “- अभिव्यक्ति का या भावनाओं का – ( समीक्षा – कहानी संग्रह : अंतर )

सही अर्थों में पूछा जाए तो स्वाभाविक लेखन अन्दर की एक बेचैनी है जो कब कहाँ कैसे एक धारा  के रूप में बह निकलेगी ये लेखक स्वयं भी नहीं जानता | वो धारा तो  भावनाओं  का सतत प्रवाह हैं , हां शब्दों और शैली के आधार पर हम उसे कविता कहानी लेख व्यंग कुछ भी नाम दें | ये सब मैं इस लिए लिख रही हूँ क्योंकि अशोक परूथी जी से मेरा पहला परिचय एक व्यंग के माध्यम से हुआ था | “ राम नाम सत्य है “ नामक व्यंग  उन्होंने हमारी पत्रिका “ अटूट बंधन “ के लिए भेजा था | रोचक शैली में लिखे हुए व्यंग को हमने प्रकाशित भी किया था | हमें पाठकों की प्रसंशा  के कई ई मेल मिले | उसके बाद एक सिलसिला शुरू हो गया | और अशोक जी के व्यंग मासिक पत्रिका “ अटूट बंधन “ व् हमारे दैनिक समाचार पत्र “ सच का हौसला “ में नियमित अंतराल पर प्रकाशित होने लगे | उन्हें  व्यंग विधा में एक बडे  पाठक वर्ग से सराहना मिली | उसके बाद परूथी जी की हास्य कविताओं से रूबरू होने का मौका मिला और अब ये कहानी संग्रह “ अंतर  “ | मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है की परूथी जी लेखन की हर विधा में प्रयोग करते हैं और अपनी एक खास शैली में भावों का खाका खींच देते हैं | ठीक वैसे ही जैसे किस चट्टान को काटकर भावनाओं की ये धारा  किस रूप में निकलेगी यह नदी भी नहीं जानती | अंतर कहानी संग्रह में विभिन्न भावों को दर्शाती कहानियों का समावेश किया गया है | कुछ कहानियों में जहाँ हास्य का पुट है वहीँ कुछ कहानियाँ एक अजीब कसमसाहट ,बेचैनी और वेदना से घिरी हुई हैं | विशेष रूप से मैं उल्लेख करना चाहूंगी कहानी अंतर , पिंजरे का पंक्षी व् उसकी मौत का जहाँ अंतस की बेचैनी पाठक स्पष्ट रूप से महसूस करता है | संग्रह की पहली व्  मुख्य कहानी ” अंतर ” पति व् प्रेमी के अंतर ती तुलना करती स्त्री के मनोभावों को ख़ूबसूरती से उकेरती है | उसका मुख्य केंद्र बिंदु है प्रेम की अभिव्यक्ति के अंतर पर , भावनाओं के अंतर पर और उसके हिस्से में आया अंतहीन इंतज़ार , जिसे वो पहले कर न सकी परन्तु बाद में विधाता ने यही उसके भाग्य में लिख दिया | जिस पर रेंगते हुए ही उसे जीवन काटना है | मैं  विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी कहानी ” उसकी मौत ” का जिसे हमें अपने दिनक समाचार  पत्र ” सच का हौसला ” में प्रकाशित किया है |ये कहानी नशे की लत से जूझती युवा पीढ़ी के इर्द – घूमती है | जहाँ नशे की लत से साथी की मृत्यु के उपरान्त  अन्य दोस्त अपने नशे की आदत को छोड़ देते हैं | ” उसकी मौत ” उन्हें हिला कर रख देती है | कहानी जहाँ समस्या उठती है वहीँ समाधान के साथ बहुत भावुक भी कर देती है | यह ही नहीं  संग्रह की अधिकतर कहानियाँ समाज की किसी समस्या या मनोवैज्ञानिक पहलू को उठाती हैं व् उसमें डूबते उतराते पाठक को कुछ सोचने में विवश अवस्था में छोड़ देती हैं | वहीँ कुछ कहानियों में हास्य का पुट दे  कर परूथी जी पाठक को निराशा में डूबने से भी उबार लेते हैं | सभी कहानियाँ हमारे आस –पास के परिवेश से उठायी गयी हैं इसलिए उनके पात्र अपने जाने पहचाने से लगते  हैं | साथ ही कहानियों का ताना – बाना सरल –सहज भाषा में बुना गया है | हालांकि यह परूथी जी का पहला कथा संग्रह है पर जिस तरह से उन्होंने कहानियों को उकेरा  है व् उनमें संवेदनाओं का संप्रेषण किया है उसको पढ़कर उनके लेखन के क्षेत्र में सफल होने का सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है | और जैसा की परूथी जी के जीवन परिचय से मुझे ज्ञात हुआ की उन्होंने छोटी उम्र से लिखना प्रारंभ कर दिया था जिसे जीवन की व्यस्ताओं के कारण स्थगित करना पड़ा और  एक लम्बे अंतराल के बाद पुन : लेखन प्रारंभ किया | पर उनके लेखन से  सिद्ध होता है की प्रतिभा कभी मरती नहीं , उसको  जब सही जमीन मिलती है , अंकुर फूट ही पड़ते हैं मुझे विश्वास है की उनका यह संग्रह लोगों को पसंद आएगा | मैं लेखन के क्षेत्र में उनके उज्जवल भविष्य के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ |                              वंदना बाजपेयी                          कार्यकारी संपादक                                                         अटूट बंधन 

ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा –

” तिराहा “एक ऐसा शब्द जो रहस्यमयी तो है ही  सहज ही आकर्षित भी करता है | हम सब अनेक बार अपने जीवन में इस तिराहे पर खुद को खड़ा पाते हैं | किसी भी मार्ग का चयन जीवन के परिणाम को ही बदल देता है | पर यहाँ  मैं बात कर रहीं हूँ वीणा वत्सल जी के उपन्यास “ तिराहा “की | जिसको मैंने अभी -अभी पढ़ा हैं | और पढने के बाद उस पर कुछ शब्द लिखने की गहरी इच्छा उत्पन्न हुई | “ तिराहा “   वीणा वत्सल सिंह जी का पहला उपन्यास है परन्तु कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ता | कथा में सहज प्रवाह है व् लेखन में कसाव जिसके कारण पाठक उपन्यास  को पन्ने दर पन्ने पढता जाता है | आगे क्या हुआ जानने की इच्छा बनी रहती हैं |मेरा अपना मानना  है की किसी उपन्यास का सरल होना उसके लोकप्रिय होने की पहली शर्त है |                “ तिराहा “ की कहानी तीन महिला पत्रों के इर्द गिर्द घूमती है | जहाँ एक ओर मुख्य नायिका अमृता है जो डॉक्टर होने के साथ साथ सभ्य , शालीन महिला भी है | और बेहद संकोची भी | सिद्धार्थ का प्रेम उसकी छुपी हुई प्रतिभाओं को निखारने में सहायक होता है | वहीँ उसका  संकोच प्रेम की स्वीकारोक्ति नहीं कर पाता | पाठक नायक , नायिका का शीघ्र मिलन देखना चाहता है पर दोनों ही अपने मन की बात अस्वीकार किये जाने के भय से कह नहीं पाते हैं | अंत तक उनकी स्वीकारोक्ति का रोमांच बना रहता है | वहीँ दूसरी ओर झुनकी नाम की महिला है | जो मेहतर  टोले  में रहने वाली किसी सवर्ण की अवैध संतान है | पर वह स्वाभिमानी लड़की प्रेम में कोई आतुरता नहीं दिखाती बल्कि अपने सवर्ण प्रेमी को विवश करती है की वो मेहतर टोले के विकास के लिए कुछ करे | कहीं न कहीं झुनकी स्त्री के उस आत्मबल का प्रतीक है जो विपरीत परिस्तिथियों में टूटती नहीं अपितु  त्याग , सेवा व् आत्मसम्मान के चलते परिस्तिथियों को  बदल देती है |ये पात्र मुझे बहुत प्रभावित करता है |  तीसरा और सबसे जरूरी किरदार है सुधा का … जिसमें न स्वाभिमान है न संकोच जिसके पास है तो बस असंख्य स्वप्न बेलगाम हसरते जिनको पाने के लिए वो कुछ भी , कुछ भी कर सकती है और … करती भी है | उसका पतन और अंत  किसी भी कीमत पर अपनी प्रतिभा और योग्यता से ज्यादा पाने की दुखद गाथा  है |ऐसे अति महत्वकांक्षी स्त्रियों के उत्थान व् पतन को हम अपने समाज में अक्सर देखते हैं |                       वैसे तो कहानी के अन्य पात्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं है | वस्तुत : उपन्यास को समाज के तीन स्तरों पर साधा गया है |उच्च वर्ग , माध्यम वर्ग व् निम्न वर्ग | सबकी अपनी जीवन शैली , अपनी समस्याएं व् अपने ही प्रकार की राजनीति और सब का एक कहानी के माध्यम से सुन्दर समन्वय  | पर कहीं न कहीं मुझे लगता है कि उपन्यास की लेखिका जो स्वयं एक स्त्री हैं इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती हैं की हर स्त्री एक तिराहे पर  खडी है | वो स्त्री भले ही समाज के किसी वर्ग या जाति  से आती हो ये उसका चयन है वो किस रास्ते पर चलती है | उसी पर उसका जीवन निर्भर करता है |  हम ऐसी स्त्रियों को जानते हैं जो  पढ़ी लिखी हैं , स्वाबलंबी हैं पर संकोच की लक्ष्मण रेखा उन्हें ह्रदय की बात कहने से रोकती है | जो प्रेम तो करती है पर प्रेम को स्वीकार करने में झिझकती है … वो भाग्यशाली हो सकती है की उसे  अपना प्रेम पति रूप में मिले या कहीं तन और कहीं मन की चक्की में पिसते हुए जीवन काटने को विवश भी | दूसरी तरफ एक स्वाभिमानी स्त्री अपने आत्मबल व् स्पष्ट सोंच के चलते विपरीत परिस्तिथियों को अपनी  इच्छा के अनुरूप बदल सकती है | या तीसरी तरफ  वह अपनी हसरतों के आगे हथियार डाल  कर पतन के उस गहरे गर्त में गिर सकती है | अमृता , झुनकी और सुधा तो केवल प्रतीक हैं | ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा | इस तिराहे में उसे कौन सी राह चुननी है इस का फैसला स्त्री को स्वयं करना होगा |  वीणा वत्सल जी को उनके पहले उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई व् उनके लेखन के भविष्य के लिए शुभकामनाएं वंदना बाजपेयी  कार्यकारी संपादक  अटूट बंधन                                                    

डॉ. रमा द्विवेदी के साहित्य में “भविष्य की नारी कल्पना” – शिल्पी “मंजरी”

“स्त्री विमर्श” एक ज्वलंत विषय के रूप में प्राचीन काल से ही किसी न किसी बहाने, प्रत्यक्ष या परोक्ष परिचर्चा का बिन्दु रहा है- समाजशास्त्रियों के लिए, राजनीतिज्ञों के लिए और साहित्य के लिए भी। तथापि पिछले ५०-६० वर्षों से यह स्त्री विमर्श, “नारी मुक्ति आन्दोलन” के नाम पर एक नए रूप में सार्वजानिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है जिसे यूरोप में अस्तित्ववादी चिन्तक सीमोन-दि-वाउवा और अमेरिका में बेट्टी फ्रीडन जैसी प्रतिभाशाली और नारी अधिकारों की प्रखर प्रवक्ताओं से इस “नारी मुक्ति आन्दोलन” को पर्याप्त बल मिला और वैचारिक आयत के रूप में यह आन्दोलन अपना विस्तार करता हुआ पाश्चात्य सभ्यता, पाश्चात्य वेश-भूषा और पाश्चात्य सोच का स्वरूप धारण कर इस देश के युवा वर्ग में लोकप्रिय हुआ जिसे न्यूनाधिक समर्थन समाज से भी मिला एक समानांतर नवीन वैचारिक चिंतन, लेखन और राजनीतिक स्तर पर, साथ ही क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में इस विमर्श के पक्ष और विपक्ष में रह-रह कर उच्चस्वर उठते रहे और लगभग एक दशक से यह विमर्श “नारी सशक्तिकरण” के नाम से लगातार चर्चा और लेखन का प्रमुख बिन्दु रहा है जिसमें किशोर मनोविकृति ने आग में घी का कार्य किया। यह स्त्री विमर्श अब अपने परंपरागत स्वरूप तक ही सीमित न रहा, सत्ता की राजनीति ने इसे संसद में भी गुंजायमान कर दिया और दिल्ली की “दामिनी प्रकरण” से तो न्यायपालिका भी परोक्ष रूप से इस विमर्श में सम्मिलित हो गयी। भविष्य की फसल वर्तमान के बीज में गुम्फित होती है, अतएव भविष्य की योजनाओं और परिकल्पनाओं की एक भावी योजनाओं की रूपरेखा सर्वत्र अब एक आकार लेती दीखने लगी है– समाज में भी, राजनीति में भी और साहित्य में भी। जब हम हिंदी साहित्य में काव्य के माध्यम से “भविष्य की नारी” पर विचार-विमर्श करते हैं तो दृष्टि पटल पर सहसा हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, इसीवर्ष २०१३ में प्रकाशित सम्वेदनशील रचनाकार डॉ.रमा द्विवेदी का हाइकु-संग्रह “साँसों की सरगम” जिसमें कवियित्री ने नारी-अस्मिता, नारी चेतना के विषय में समाज के विभिन्न वर्गों से तो वार्तालाप किया ही है, गर्भस्थ भ्रूण (गर्भस्थ शिशु) से भी वार्तालाप किया है। यह वार्तालाप भावी स्त्री विमर्श, स्त्री की दशा और दिशा को नए रूप, नए अंदाज, नए तेवर और नयी योजना-परिकल्पना के रूप में एक शोधित, संशोधित, परिवर्तित समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो “भविष्यति की नारी” के रूप मेंस्त्री -विमर्श की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। “साँसों की सरगम” से पूर्व कवियित्री के दो काव्य संग्रह “दे दो आकाश” और “रेत का समंदर” प्रकाशित होकर समाज में, विशेष रूप से नारी समाज में अलख जगा रहे हैं। इन तीनों ही काव्य संग्रहों में नारी चेतना, नारी अस्मिता और नारी जीवन के दुःख-दर्द को युक्ति और तर्क के साथ निर्भीक और निडर होकर अभिव्यक्त किया गया है। इस सन्दर्भ में श्री अशोक शुभदर्शी जी ने अपनी समीक्षा में सारगर्भित टिपण्णी की है कि”डॉ. रमा द्विवेदी की कविताएँ उनके अंतर्मन की पाकशाला में खूब पकी हैं,1। इसका निहितार्थ है कि जो अच्छी तरह पकता है वही सुपाच्य भी होता है और विषाणु मुक्त भी। अपनी बात को समाज तक और नारी समुदाय तक ग्राह्य और पोषक बनाने के लिए अंतर्मन की बातों का सुपाच्य होना और विषाणु मुक्त होना अनिवार्य है और इस मर्म को एक पाकशास्त्री नारी से बेहतर भला कौन जान सकता है? इसी का प्रभाव है कि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं में युगीन समस्याएँ उजागर हुई हैं। नारी की स्थिति पर कवयित्री का ध्यान अत्याधिक गया है। आचार्य शिवचंद्र शर्मा ने इन रचनाओं की मूलधारा को उद्‍घाटित करते हुए कहा है – “जीवन का बहुरंगी चित्रण होते हुए भी डॉ. द्विवेदी जी के गीतों में स्त्री वेदना विशेष रूप से मुखरित है।”2 हाइकु के रूप में उनके अंतर्मन की यह वेदना छलक ही पड़ी है कागज़ के ललाट पर– “वेदना पाती / वेदना ही मैं गाती / तुम्हें लौटाती”3। इस वेदना दो स्वर है, प्रो. टी. मोहन सिंह के शब्दों में यदि कहा जाय तो– “इस काव्य में कवयित्री की काव्य चेतना के दो तट दिखाई देते हैं। प्रथम तट नारी की मुक्ति चेतना से संपन्न है तो दूसरा तट लोकबोध संबंधी है।” समाज में इन दोनों ही तटों की समान उपयोगिता है। नारी-चेतना की जागृति को रचनाकारों ने युगीन आवश्यकता के रूप में चिह्नित किया है और आक्रोश के साथ यत्र-तत्र अभिव्यक्त भी किया है लेकिन रमा जी की विशेषता यह है कि वे केवल आक्रोशित नहीं होती, समाधान का तार्किक मार्ग भी बताती है। इस क्रम में प्रथम चरण के रूप में कवयित्री नारी को अपने सर्वांश स्वरूप में ऊपर उठने का संकेत और संदेश देती हैं, यह वैज्ञानिक सत्य है कि जो उठता है वही ऊपर आकाश में विचरण करता है, जन-मानस में छा जाता है। कवियित्री इसीलिए मांग करती हैं– “दे दो आकाश मुझे” लेकिन वे भली प्रकार जानती हैं कि यहाँ माँगने से कुछ नहीं मिलता, अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना पड़ता है- “खुद ही खोजो/ कोई न बतायेगा/जीने की राह”4। लेकिन यह समाज जब किसी नारी को अपने मार्ग से आगे नहीं बढ़ने देता, मार्ग में नाना प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता है तो यही नारी आक्रोशित होकर दृढ स्वरों में चेतावनी देती है–”कोमलता को कमजोर समझना/ यह है तेरी नादानी/ आती है बाढ़ नदी में जब/ जग को करती है पानी-पानी”5। नारीत्व कमज़ोरी नहीं है बल्कि नारीत्व शक्ति का मूल स्रोत है। इस क्रम में नारी की प्रकृति प्रदत्त मातृत्व-शक्ति को महिमा मंडन के साथ रेखांकित किया है। वंश वृद्धि और पुत्र के रूप में स्वयं को जीवित रखने की लालसा/ जिजीविषा ही दम्पत्ति में पुत्रमोह उतपन्न करती है और माँ-बाप ही जाने–अनजाने पुत्र मोह में फंस जाते हैं और कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित कृत्य में सम्मिलित हो जाते हैं। इस भंवरजाल में फंसे दंपत्ति से कवियत्री कहती है– “वंश का नाम/ चलाता है आत्मज/ बेबुनियाद”6। बढ़ती जा रही कन्या-भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति पर इस कुत्सित–घृणित मानसिकता के लिए समाज को ही नहीं, अपने परिवार और पति को भी दोषी मानते हुए ललकारती हैं– जन्मदात्री हूँ/ बेटी भी मैं जनूंगी / रोकेगा कौन?7 स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति: अब स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से यदि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं पर बात करें तो उनकी रचनाओं में मुख्यतः तीन प्रकार … Read more

“सुशांत सुप्रिय के काव्य संग्रह – इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं “की शहंशाह आलम की समीक्षा ” गहरी रात के एकांत की कविताएँ

             #  समीक्षा आलेख : ” गहरी रात के एकांत की कविताएँ “         ———————————————————                                                                                    कोई छायाकार रात की नींद में जाकर जिन दृश्यों के बारे में सोचता है , उन दृश्यों को दिन में कैमरे में क़ैद करते हुए वह अपनी नींद को सार्थक करता है । ठीक उसी तरह एक कवि दिन में देखे , भोगे हुए यथार्थ को गहरी रात के एकांत में काग़ज़-क़लम लिए अपना कवि-धर्म समझकर प्रकट करता है । सुपरिचित कवि सुशांत सुप्रिय ऐसे ही कवियों में हैं जो पूरी ईमानदारी व मासूमियत से अपने देखे , भोगे हुए यथार्थ को अपनी कविताओं में दर्ज़ करते चले जाते हैं :           मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में          वयस्क हाथ बो दिए          वहाँ कोई फूल नहीं निकला          किंतु मेरे घर का सारा सामान          चोरी होने लगा ( मासूमियत / पृ. 9 ) ।           सुशांत सुप्रिय की कविताओं में जो भी दर्ज है , सब उल्लेखनीय है । उल्लेखनीय इसलिए भी है क्योंकि इनके यहाँ मनुष्य अपने कठिन-जटिल समय से पराजित नहीं होता , न किसी को पराजित होने देता है । यहाँ पूरी मनुष्यता जीतती दिखाई देती है :            हारकर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में           एक शिशु मन बो दिया           अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी           खिला हुआ है ( वही ) ।           सुशांत के संग्रह की लगभग सारी कविताएँ एक अच्छे आदमी , एक अच्छे नागरिक की कविताएँ हैं जो अच्छाई के पक्ष में लड़ाई के मूलार्थ सही तरीके से ज़ाहिर कर पाने में सक्षम दिखाई देती हैं । इन कविताओं की भाषा हमें गहराई तक प्रभावित करती है :             हर हत्या के बाद            वहीं से जी उठता हूँ            जहाँ से मारा गया था            जहाँ से तोड़ा गया था            वहीं से घास की नई पत्ती-सा            फिर से उग आता हूँ ( हर बार / पृ. 61 ) ।           दुनिया भर में आदमी के विरुद्ध षड्यंत्र बढ़ते चले जा रहे हैं । सुशांत सुप्रिय भी अपनी कविताओं के माध्यम से इनका मुक़ाबला करते हैं । उनकी कविताएँ हमें अपने समय के दुखों से निजात दिलाने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं :             तुम आई            और मैं तुम्हारे लिए            सर्दियों की            गुनगुनी धूप हो गया ( विडम्बना / पृ. 84 ) ।           मेरे विचार से सुशांत सुप्रिय की कविताएँ समकालीन हिंदी कविता में किसी सुखद अनुभूति की तरह हैं — ‘ आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी ‘ और ‘ पानी को नम बना रही मछलियों ‘ की तरह । या फिर ‘ आत्मा में धार ‘ की तरह । कवि : सुशांत सुप्रिय / प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन , C-56 , यूजीएफ़ – 4 ,शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- 2 , ग़ाज़ियाबाद – 201005 ( उ. प्र. ) / वर्ष:2015 /मूल्य : ₹335/- ; मो: ( कवि ) : 8512070086

शब्द सारांश का भव्य वार्षिकोत्सव एवं पुस्तक लोकार्पण समारोह

शब्द सारांश का भव्य वार्षिकोत्सव एवं पुस्तक लोकार्पण समारोह दस अप्रैल रविवार को नगर की प्रसिद्ध साहित्य एवं सामाजिक संस्था शब्द सारांश का द्वितीय वार्षिकोत्सव संपन्न हुआ .कार्यक्रम का शुभारम्भ देह्दानी डॉ रामावतार शर्मा ,तहसीलदार एवं साहित्यकार राकेश त्यागी ,डॉ राजेन्द्र मिलन ,एवं डॉ अमी आधार ने दीप प्रज्ज्वलित करके किया .उसके बाद पुष्प माला ,सम्मान वस्त्र एवं श्री फल से अतिथियों का स्वागत किया गया कार्यक्रम के संचालन की डोर मेरठ की गायिका और संचालक डॉ शुभम त्यागी ने थामी .कार्यक्रम के प्रथम सत्र में संस्था अध्यक्ष सपना मांगलिक द्वारा संपादित कहानी संग्रह बातें अनकही एवं उनके ही द्वरा रचित हाइकु संग्रह “बोन्साई “का विमोचन किया गया .पुस्तकों की समीक्षा के क्रम में डॉ अमी आधार ने पुस्तक बोन्साई के हाइकु की भूरी भूरी प्रशंसा करते हुए कहा कि ” हाइकु का यूँ तो प्रचलन तेजी से बढ़ रहा है मगर बेहतरीन शिल्प और बेजोड़ बिम्ब सपना मांगलिक के लेखन की विशेषता है .वह  न केवल आलेख ,कथा ,ग़ज़ल और माहिया के क्षेत्र में अपनी जादूगरी दिखा चुकी है अपितु बोन्साई हाइकु संग्रह से उन्होंने साबित किया है कि उनकी पकड़ और महारत साहित्य की हर विधा में है .कार्यक्रम की अध्यक्षता कर रहे डॉ राजेन्द्र मिलन ने सपना मांगलिक के कथा संग्रह “बातें अनकही ” के सम्पादकीय की तारीफ़ करते हुए कहा कि एक संकलन को पठनीय बनाने  में उसके संपादक की अहम् भूमिका होती है पुस्तक की संपादक सपना ने नए लेखकों की एक से बढ़कर एक कहानियाँ इस संकलन के लिए चुनी हैं जो उनके अंदर की सम्पादकीय प्रतिभा को उजागर करती हैं .प्रकाशक पवन जैन और संभली से आये dm राकेश त्यागी ने भी पुस्तकों के सन्दर्भ में अपने विचार रखे .साथ ही कहा कि शब्द सारांश साहित्य संस्था नए लेखकों को लेखन के क्षेत्र में प्रोत्साहित करने के लिए प्रतिवर्ष साझा संकलनों का प्रकाशन कर अपने नाम और काम को सार्थक कर रही है ,जो कि सराहनीय है .द्वीतीय सत्र में शब्द सारांश द्वारा मेरठ से आयीं गायिका और संचालक डॉ शुभम त्यागी एवं राकेश त्यागी का सम्मान किया गया और सन्मति पब्लिशिंग हाउस और आगमन साहित्य परिषद् प्रमुख पवन जैन ने आगरा के प्रसिद्ध समाज सेवी एवं देह्दानी डॉ रामावतार शर्मा को लाइफ टाइम अचीवमेंट सम्मान से नवाजा .कार्यक्रम के तृतीय सत्र में रंगारंग काव्य गोष्ठी प्रारंभ हुई काव्य क्षेत्र के बड़े बड़े सूरमाओं यथा जबलपुर से आये व्यंग्य के महारथी नरेंद्र शर्मा ,मेरठ की गायिका शुभम त्यागी ,अशोक रावत ,हरिमोहन कोठिया  , त्रिमोहन तरल ,सुनीत शर्मा  ,  ने अपनी ग़ज़लों ,गीतों ,कविता और पैरोडी से समां बाँध दिया डॉ भावना महरा ,जी पी मोर्य ,राकेश निर्मल ,सलीम साहब ,रति शर्मा  श्रुति सिन्हा , कबीर ,सुनीता सिंह ,निवेदिता धनगर  ,कांची सिंघल , डॉ शेषपाल सिंह शेष ,राजबहादुर राज इत्यादि ने भी काव्य के ऐसे रंग बिखराए की हर तरफ से वाह – वाह की आवाजें और तालियों की गडगडाहट से हॉल गूँज उठा .और तपती गर्मी में बारिश की रुनझुन ठंडक का आभास होने लगा .संस्था की उपाध्यक्ष श्रुति सिन्हा ने कार्यक्रम के समापन पर धन्यवाद ज्ञापित किया . सपना मांगलिक संस्थापक /अध्यक्ष शब्द सारांश संस्था मोबाइल -९५४८५०९५०८

साहित्य के आकाश का ध्रुवतारा (विष्णु प्रभाकर )…….. सपना मांगलिक

साहित्य के आकाश का ध्रुवतारा (विष्णु प्रभाकर ) विष्णु प्रभाकर को साहित्य का गांधी कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी क्योंकि उनपर महात्मा गांधी के दर्शन और सिद्धांतों का गहरा प्रभाव था . प्रभाकर जी में आप वे सारे गुण–अच्छाईयाँ देख सकते हैं, जो गांधी आन्दोलन के समय गाँधी जी के मूल्य थे. उनके लेखन में गांधी वादी धार्मिकता, अहिंसकता, उदारता आदि सभी कुछ देखने को मिलता है .यहाँ तक कि उनकी वेशभूषा जिसमें उनका झोला, उनकी टोपी साक्षात उन्हें गांधीवादी सिद्ध करता है.और इसके चलते ही उनका रुझान कांग्रेस की तरफ हुआ और स्वतंत्रता संग्राम में उन्होंने अपनी लेखनी का भी एक उद्देश्य बना लिया, जो आजादी के लिए सतत संघर्षरत रही. मैं जूझूगा अकेला ही’ जैसी उनकी कविताएं जीवन में कठिन संघर्षों से जूझने की प्रेरणाएं देती हैं. अपनी मृत्यु से पहले ही उन्होंने अपने शरीर को दान कर दिया था. इसका सीधा अर्थ था कि वे पुनर्जन्म को नहीं मानते थे, उनके परिवार में जाति वाद नहीं था. उन्होंने नई परम्पराओं, नए मूल्यों को समाज में स्थापित किया. हमेशा पूँजी वाद , साम्राज्यवाद का विरोध किया.  अपने दौर के लेखकों में वे प्रेमचंद, यशपाल, जैनेंद्र और अज्ञेय जैसे महारथियों के सहयात्री रहे, लेकिन रचना के क्षेत्र में उनकी एक अलग पहचान रही.चौदह वर्षों तक किसी और साहित्यकार की जीवनी के लिए जगह जगह की ख़ाक छानना यह सिर्फ प्रभाकर जैसे विरले व्यक्ति ही कर सकते हैं .प्रभाकर जी का रुझान शरत की तरफ ही क्यूँ हुआ ? .इस सन्दर्भ में उनका ही यह कथन कि “”समाने– समाने होय प्रणेयेर विनिमय के अनुसार शायद इसलिये हुआ कि उनके साहित्य में उस प्रेम और करूणा का स्पर्श मैंने पाया, जिसका मेरा किशोर मन उपासक था। अनेक कारणों से मुझे उन परिस्थितियों से गुजरना पड़ा, जहां दोनो तत्वों का प्रायः अभाव था। उस अभाव की पूर्ति जिस साधन के द्वारा हुई उसके प्रति मन का रूझाान होना सहज ही है। इसलिये शीघ्र ही शरतचंद्र मेरे प्रिय लेखक हो गये.”आवारा मसीहा के सृजन के लिए उनकी छटपटाहट और प्रतिबद्धता को स्पष्ट करता है “प्रभाकर जी हमेशा महिलाओं के भी पक्षधर रहे. वे अपने उपन्यासों में नारी वाद का समर्थन करते हैं. जब उनसे पूछा जाता कि स्त्री की संवेदनाओं के बारे में आप कैसे जानते हैं ?तो वह कहते कि मेरी पत्नी भी तो एक स्त्री ही है”    २९ जनवरी १९१२ को उ॰प्र॰ के मुज़फ़्फरनगर जिले के एक छोटे से गाँव मीरापुर में जन्मे विष्णु प्रभाकर के पिता दुर्गा प्रसाद एक धार्मिक व्यक्ति थे . इनकी माँ महादेवी इनके परिवार की पहली साक्षर महिला थी जिन्होंने हिन्दुओं में पर्दा प्रथा का विरोध किया. १२ वर्ष के बाद, अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करने के बाद, प्रभाकर आगे की पढ़ाई करने के लिए अपने मामा के पास हिसार (उस समय पंजाब का हिस्सा, अब हरियाणा का) चले गये, जहाँ इन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास की. यह १९२९ की बात है. वे आगे भी पढ़ना चाहते थे, लेकिन आर्थिक हालत इसकी इजाजत नहीं देते थे, अतः इन्होंने एक दफ़्तर में चतुर्थ श्रेणी की एक नौकरी की और हिन्दी में प्रभाकर, विभूषण की डिग्री, संस्कृत में प्रज्ञा और अंग्रेजी में        बी ए की डिग्री भी प्राप्त की .चूँकि पढ़ाई के साथ–साथ इनकी साहित्य में भी रुचि थी, अतः इन्होंने हिसार की ही एक नाटक कम्पनी ज्वाइन कर ली और १९३९ में अपना पहला नाटक लिखा हत्या के बाद. कुछ समय के लिए इन्होंने लेखन को अपना फुलटाइम पेशा भी बनाया. २७ वर्ष की अवस्था तक ये अपने मामा के ही परिवार के साथ रहते रहे, वहीं इनका विवाह १९३८ में सुशीला प्रभाकर से हुआ. आज़ादी के बाद १९५५–५७ के बीच इन्होंने आकाशवाणी, नई दिल्ली में नाट्य–निर्देशक के तौर पर काम किया. उनकी पहली कहानी 1931 में लाहौर की पत्रिका में छपी थी .और काफी पसंद भी की गयी थी .बस फिर क्या इस कहानी से उनकी लेखनी के पंखों में हरकत हुई जो बाद में जाकर इस पंक्षी को साहित्य के दूर विस्तृत असीम अनंत आसमान की सैर करा लायी . विष्णु के नाम में प्रभाकर कैसे जुड़ा, उसकी एक बेहद रुचिपूर्ण कहानी है.,!तब वह विष्णु नाम से लिखा करते थे एक बार जब एक संपादक ने पूछा कि आप कहाँ तक शिक्षित हैं तो उन्होंने बताया कि उन्होंने प्रभाकर किया है और बस तब ही से उन संपादक महोदय द्वारा उनका नामकरण विष्णु प्रभाकर के रूप में हो गया . इस प्रकार विष्णु दयाल के रूप मे शुरू हुई  उनकी प्रारंभिक यात्रा विष्णु गुप्ता पर तनिक ठहर विष्णु धर्मदत्त को लाँघते हुये, विष्णु प्रभाकर बन कर पूरी हुई .शुरू शुरू में उन्होंने एक थर्ड ग्रेड नाटक कम्पनी के लिए ’ हत्या के बाद ’ जैसा नाटक लिखा ! यह और बात है कि यह नाटक भी चर्चित हो उठा . प्रभाकर ने अपने दीर्घ साहित्यिक सेवाकाल में हिन्दी की अक्षय निधि को अनेकानेक विधाओं से सम्मुनत किया है. खासकर नाटक, एकांकी तथा जीवनी साहित्य के क्षेत्र में वे तो मूर्धन्य साहित्यकार हैं ही , पर साहित्य की अन्य ढेर सारी विधाएं उनसे कृतकाय हुई हैं प्रभाकर का नाटक ‘डाक्टर’ जहां आज भी अपनी ख्याति की कसौटी पर खरा उपस्थित हैं वहीं एकांकियों में प्रकाश और परछाइ, बारह एकांकी, क्या वह दोषी था, दस बजे रात आदि इस विधा में मील के पत्थर के रूप में आज भी मौजूद हैं. उनकी रचनाओं में ‘अधूरी कहानी’ भी है. समय है बंटवारे से थोड़े पहले का यानी बंटवारे के बन रहे हालात का. यह वह समय था जब नफरत दोनों तरफ के जिलों में ठूंस–ठूंस कर भरी जा रही थी. इस कहानी में दो धर्मां के दो युवक बंटवारे को सही गलत ठहराने में उलझ रहे हैं. अंत में एक प्रश्न उठता है कि ‘-सच कहना, मुहब्बत की लकीर क्या आज बिल्कुल ही मिट गयी है? यह कहानी का चरम नहीं है, उसका मर्म है. बंटवारे के समय और उसके बाद मुहब्बत को जिलाये रखने की सबसे ज्यादा जरूरत थी. विष्णु जी जितने अच्छे लेखक थे उतने ही सहज. उन्होंने बाल साहित्य का भी खूब सृजन किया .उनका मानना था कि बचपन जीवन का ऐसा आईना होता है जो आगे की दिशा निर्धारित करता है. प्रभाकर जी ने जिस लगन से बाल साहित्य लिखा, तन्मयता से लिखा, … Read more

अटूट बंधन पत्रिका पर डॉ गिरीश चन्द्र पाण्डेय ‘प्रतीक ‘की समीक्षा

                                                                                                                    “अटूट बंधन “पत्रिका पर हमें देश भर से प्रतिक्रियायें प्राप्त हो रही हैं ।किसी नयी पत्रिका को भारी संख्या  में  पाठकों के पत्रों का मिलना हमारे लिए हर्ष का विषय है वही यह हमारे उत्तरदायित्व को भी बढ़ता है कि हम आगे भी और अच्छा काम करे ।  जैसा कि हमारा स्लोगनहै “बदलें विचार बदलें दुनियाँ” हमारा पूरा प्रयास है की हम पत्रिका के माध्यम से लोगों में  सकारात्मक चिंतन विकसित करे ,उनका व्यक्तित्व विकास हो…. भारी संख्या में  सहयोगियों का पत्रिका से जुड़ना हमारे मनोबल को बढाता है और हमें यह अहसास कराता है हम सही दिशा में जा रहे हैं। आगे हमारी यह योजना है कि देश के हर जिले में अटूटबंधन लेखक-पाठक क्लब बने…. जहाँ साहित्य पर सकारात्मक चिंतन व्यक्तित्व विकास पर विस्तार से चर्चा की जा सके| यह अपनी तरह काअनूठा प्रयोग है और ख़ुशी की बात है की बहुतसे लोगोंने इसयोजना का स्वागत किया है व जुड़ने की ईक्षा जताई  है| उम्मीद है हमारी इस योजना को भी सभी का स्नेह व् सहयोग मिलेगा । गिरीश  चन्द्र पाण्डेय  प्रतीक जी जैसे साहित्य सेवी व् कर्मठ युवा रचनाकार एवं समीक्षक   की पत्रिका पर की गयी समीक्षा के लिए हम ह्रदय से आभार व्यक्त करते हैं । उनके द्वारा दिए गए सुझावों को हम अमल में लाने का प्रयास करेंगे   कल अटूट बंधन पत्रिका प्राप्त हुई।पढ़ने बैठा तो पढता ही चला गया ।पत्रिका को पढ़कर ऐसा लगा जैसे जादू का पिटारा हो।सकारात्मकता से लवरेज।प्रेरक लेखो आलेखों का पुंज।यह अंक बहुत सुन्दर और संग्रहणीय बन पड़ा है।चिठ्ठी पत्री स्तम्भ यह बताता है की पत्रिका को लेकर पाठक चौकन्ना ही नहीं आशान्वित भी है।जहाँ वंदना जी के संपादकीय की सराहना सुरेश जी पटना द्वारा।और वहीँ एक पाठक की राय पत्रिका के पेज बढ़ाये जाएँ हरीश जी देहरादून द्वारा यह बताना की पत्रिका निष्पक्ष अपने लक्ष्यों की ओर अग्रसर है । प्रधान  संपादक ओमकार मणि त्रिपाठी जी का “दिल की “की बात संपादकीय को समृद्ध करता हुआ दीखता है।इनके लेख में जीवन में सकारात्मकता की पड़ताल जो जरूरी भी है। वंदना दी की कलम हमेशा की तरह इस अंक में भी युवा जोश को आगाह करती दिखी कविता से शुरू किया गया संपादकीय “वो दुनिया कुछ और ही होती होगी……..”पूरा संपादकीय इसी कविता में समेट लिया है।पुरानी पीढ़ी को भी इंगित करना नहीं भूली हैं।यह संपादकीय पूर्णतः मनोवैज्ञानिक सोच पर आधारित है जो प्रेरित भी करता है और आगाह भी।प्राची शुक्ला जी ने रंगो को अपने रंग से रंगने की भरपूर कोशिस की है।जीवन में रंगों का महत्व बताता यह लेख ।त्रिपाठी जी का बॉलीबुड में तांक झांक वाला सलमान की जेल और बेल का खेल एक करारा व्यंग्य ।डॉ परवीन केरल से शब्द और उसकी शक्ति की पड़ताल संग्रहणीय लेख।सतीश चंद्र शर्मा पंजाब का लेख घर का कबाड़ बढ़ाता अवसाद ।घर में पडी अवांछित चीजें हमें अवसाद की ओर धकेलती हैं यह लेख घर को अव्यवस्थित न होने दें और उसे सुव्यवस्थित होना चाहिए इसकी वकालत करता है।और यह सही भी है।वंदना जी की आवरण कथा खुद लिखें अपनी तकदीर पढी रोचकता से भरपूर है और युवाओं को प्रेरित करती है यह आवरण कथा है| ।प्रेमचंद जी मुम्बई के द्वारा व्यक्तित्व विकास पर आधारित लेख (जीतें मन की बाधा)सराहनीय है।पाठक को रिझाता है लेख ।सुरेन्द्र शुक्ल दिल्ली का रिश्ते नातों की पड़ताल पर लेख “रिश्तों में नोक झोंक”एक ऐसा लेख आपको लगेगा जैसे आपके लिए ही यह लिखा गया है।अशोक के.परूथी जी का व्यंग्य” पार्टी बनाम हम “राजनीती और लोकतंत्र के गड़बड़ झाले की पोल खोलता हुआ और रोचक है।काव्य जगत स्तम्भ तो इस अंक का लाजबाब है।कल्पना मिश्र बाजपेयी की (कविता माँ की चुप्पी)माँ चुप क्यों हो एक मार्मिक कविता है।शिखा श्याम जी की “स्त्री होना”यह लिखती हैं मुझे गर्व् है मैं स्त्री हूँ यह कविता स्त्री जागरूक हो रही है यह बताती है।मेरे परम मित्र और बड़े भाई चिंतामणि जोशी जी पिथौरागढ़ उत्तराखण्ड की कविता “खड़ी हैं स्त्रियां”एक सार गर्भित कृति है जिस कविता को आजकल साहित्यिक गलियारों में खूब सराहा जा रहा है।यह कविता लोक जीवन की जीती जागती मूर्ति बन पडी है पहाड़ की स्त्री को जानना है तो इसे पढ़िए। सेनगुप्ता की कविता “लज्जा”अम्बरीष की सच को मैंने अब जाना है कंचन आरजू इलाहाबाद की “माँ “कविताएँ रोचक और सोचने को विवश करती दिखीं।नवीन त्रिपाठी जी की कहानी “प्रायश्चित्त”सराहनीय है।डॉ सन्ध्या जी की लघु कथा “सदाबहार “अच्छी लगी।बात जो दिल को छू गयी बहुत अच्छा प्रयास है।स्वास्थ्य स्तम्भ हमेशा की तरह लभकारी है सबको गर्मी से बचने के उपाय बताता हुआ ।डॉ आराधना जी का बाल मन में (बेकार न जाने दें बच्चों की छुट्टिया)अभिभावको के लिए प्रेरक लेख है।उपासना सियाग अबोहर का स्त्री विमर्श पर (महिलाओं में कर्कशता क्यों)सोचने को विवस करता आलेख ।नाम व भाग्य का सम्बन्ध लेख में त्रिपाठी जी की विवेचना सराहनीय है। अंत में यही कह सकता हूँ अटूट केवल एक पत्रिका नहीं अन्तर्मन् की पुकार है हर वर्ग को समेटने का प्रयास किया गया है।हर समस्या को छूने का प्रयास किया गया है।बच्चों से लेकर बुजुर्गो तक सब इसको खुले मन से पढ़ सकते हैं।इसे आप अपनी मेज पर रखने में शर्म महसूस नहीं करेंगे।अपने बच्चों से इस पर आप खुलकर चर्चा कर सकते हैं।अपनी सकारात्मकता को बनाये रखने के लिए इसे जरूर पढ़ें। अटूट जिसका अंग मैं भी हूँ एक सलाह सम्पादक मंडल के लिए पत्रिका के कवर पेज को शास्त्रीय आवरण देंगे तो और रोचक बनेगा पेज संख्या बढ़नी चाहिए।कहानी और व्यंग को और ज्यादा स्थान दें एक कॉलम पुस्तक समीक्षा का जरूर रखें।अटूट परिवार के बिचार संपादक को छोड़कर पिछले पृष्ठों में हों।कुल मिलाकर अटूट एक सम्पूर्ण वैचारिक,पारिवारिक,सकारात्मकता का गुलदस्ता है इसे अपने पुस्तकालय में सजाएँ।अटूट परिवार बधाई का पात्र है। एक समीक्षा “प्रतीक”डॉ गिरीश पाण्डेय उत्तराखंड atoot bandhan ………… हमारा फेस बुक पेज