द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्षा

  लगभग दो साल से लोग घरों में कैद रहें और सिनेमा हाल बंद प्राय रहें, फिर एक हिन्दी मूवी रिलीज होती है “द कश्मीर फाइल्स”। इसने रिलीज के साथ ही पहले ही शो से टिकट खिड़की पर आग लगा दी। कम बजट की इस फिल्म पर वितरकों को जरा भी विश्वास नहीं था तभी तो शुक्रवार को पूरे देश में सिर्फ 500 स्क्रीन पर लाया गया। अन्य बड़ी मूवीज की तरह न ही इसका कोई खास प्रचार हुआ और न शुरुआत में कोई चर्चा। कुछ लोगो ने महज मौखिक रूप से सोशल मीडिया पर इसकी चर्चा की, पर करोड़ों खर्च कर भी जो सफलता नहीं हासिल होती है इस फिल्म ने सिर्फ मौखिक और जबरदस्त कंटेन्ट की वजह से झंडे गाड़ दिए। एक मामूली बजट और लो स्टारकास्ट मूवी का बॉक्स ऑफिस, निश्चित ही ट्रेंड सर्किल को हैरान करने वाला माना जाएगा। रिलीज के चौथे दिन 4 गुना से ज्यादा शोज बढ़ने का उदाहरण इससे पहले कभी नहीं देखा। ‘द कश्मीर फाइल्स’ एक केस स्टडी हो सकती है, क्योंकि आज के समय 3 दिनों की कमाई पर निर्माता फ़ोकस करते हैं, यानी ज्यादा से ज्यादा स्क्रीन पर (4000+) स्क्रीन पर फ़िल्म रिलीज किया जाए। धुआंधार प्रचार से दर्शकों को खींचते हैं, फिर सोमवार से शोज कम हो जाते हैं। इस फ़िल्म में ठीक इसका उल्टा हुआ, यानी शुक्रवार से 4 गुना शोज सोमवार को हो गए।   नब्बे की दशक की शुरुआत में हुई भीषण नर संहार की खबर को महज एक पलायन के रूप में खबरों में स्थान मिली थी। कश्मीर के आधे-अधूरे उस वक़्त की प्रसारित की गई सच – झूठ की सच्चाई को निर्माता विवेक अग्निहोत्री ने पूरी बेबाकी से उधेड़ कर रख दिया है इस फिल्म के जरिए। सच हमेशा कड़वा ही होता है। ये मूवी वाकई एक दस्तावेज है जो कश्मीरी पंडितो के दुखद नरसंहार (सिर्फ पलायन नहीं) की सच्ची तस्वीर प्रस्तुत करती है। ये फिल्म कई परतों में एक साथ चलती है। आज जब अनुच्छेद 370 हट चुका है की चर्चा के साथ साथ 1990 की घटनाओं का बेहतरीन वर्णन है। मुझे तो सबसे बढ़िया फिल्म का वो हिस्सा लगा जिसमें कैसे कश्मीर सदियों से अखंड भारत का हिस्सा रहा है का जिक्र है।   एक प्रशासनिक अफसर, एक पत्रकार, एक डॉक्टर और एक आम जन – को बिम्ब की तरह प्रस्तुत किया गया है दोस्तों के रूप में, जिन्होंने प्रतिनिधित्व किया उस वक़्त के इन चारों की भूमिका और असहायता को दर्शाने हेतु। एक आज का brainwashed युवा भी है और है JNU भी। बहुत गुत्थियों को सुलझाने का प्रयास है, कई राज खुलते हैं तो कई फ़ेक न्यूज़ और चलते आ रहे प्रोपैगैंडा की धज्जियाँ उड़ती है। बहुत जरूरी है इस तरह की फिल्मों का भी बनना जो परिपक्व और गंभीर दर्शक मांगते हैं। ये एक Eye opener और बेबाक मूवी है जिसकी सभी घटनाओं को सत्य बताया गया है। तत्कालीन सरकारों की उदासीनता दिल को ठेस पहुँचाती है। टीवी पर अफगानिस्तान और यूक्रेन से बेघर होते लोगो को देख आँसू बहाने वालों को शायद मालूम ही नहीं कि अपने ही देश में लाखों लोग बेहद जिल्लत और तकलीफों के साथ शरणार्थी बनने को मजबूर किये गए थें, जिस पर यदा-कदा ही चर्चा हुई। लेखिका रीता गुप्ता  कई लोग सवाल उठा रहें हैं कि 32 वर्षों के बाद इस वीभत्स घटना पर से पर्दा उठाना अनावश्यक है। तो वहीं कुछ लोग इस की गांभीर्य कथ्य में मनोरंजन के अभाव के कारण विचलित हो रहे हैं। फिर ऐसे लोगो की भी कमी नहीं है जो इस मूवी को राजनीति से जोड़ रहें हैं। कुछ लोग इसे डार्क व अवसादपूर्ण बता रहें। उन लोगो को भारी निराशा हुई होगी जो इसे एकपक्षीय मान दंगा और दुर्भावना की आशंका कर रहे थे। किसी समस्या का निदान उसे छिपाने, नज़रंदाज़ करने या उस पर चुप्पी साधने यानि शुतुरमर्ग बन जाने से नहीं होता। पहले हम स्वीकार करें कि समस्या है, तभी उसका हल भी निकलेगा। बिगाड़ के डर से ईमान की बात ना करके अब यह समस्या विकराल रूप धारण कर चुकी है। इस फ़िल्म में भी कई कमियां होंगी मगर इस फ़िल्म की सबसे बड़ी सफलता इस बात में है कि इसने कश्मीरी हिंदुओं के विस्थापन पर जो सालों से रुकी बहस, चर्चा थी उसे पूरे विश्व में आरंभ कर दिया है।       दुनिया भर में इस तरह की हिंसा पर काफी फ़िल्में बनी हैं। रवांडा में हुए नरसंहार पर ‘100 Days (2001)’ से लेकर ’94 Terror (2018)’ तक एक दर्जन फ़िल्में बनीं। हिटलर द्वारा यहूदियों के नरसंहार पर तो ‘The Pianist (2002)’ और ‘Schindler’s List’ (1993) जैसी दर्जनों फ़िल्में बन चुकी हैं। कंबोडिया के वामपंथी खमेर साम्राज्य पर The Killing Fields (1984) तो ऑटोमोन साम्राज्य द्वारा अर्मेनिया में कत्लेआम पर Ararat (2002) और ‘The Cut (2014)’ जैसी फ़िल्में दुनिया को मिलीं। holocaust Holocaust (1978) एक अमेरिकन सीरीज है जो जर्मनी के द्वारा यहूदियों की नर संहार की कहानी है।   बहरहाल “द कश्मीर फाइल्स” फिल्म की सफलता इस बात का द्योतक है कि बॉलीवुड फिल्मों के शौकीन सिर्फ नाच-गाना और कॉमेडी से इतर मुद्दों पर आधारित गंभीर कथानक भी पसंद करते हैं। सिनेमा एक सशक्त माध्यम है जनमानस तक पहुँचने का और ये फिल्म इसमें पूरी तरह सफल होती दिख रही है। इस फिल्म की सफलता भविष्य में भी गंभीर मुद्दों पर फिल्मांकन की राह प्रशस्त करती है। रीता गुप्ता Rita204b@gmail.com ये लेख प्रभात खबर की पत्रिका सुरभि में भी प्रकाशित है |   यह भी पढ़ें … राजी -“आखिर युद्ध क्यों होते है “सवाल उठाती बेहतरीन फिल्म फिल्म ड्रीम गर्ल के बहाने -एक तिलिस्म है पूजा फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म आपको “द कश्मीर फाइल्स-फिल्म समीक्ष” लेख कैसा लगा ? अपने विचारों से हमें अवश्य अवगत कराए | अगर आपको अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट को सबस्क्राइब करें और अटूट बंधन फेसबू पेज को लाइक करें |  

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति

  समकाल में अपनी कविताओं के माध्यम से पाठकों, समीक्षकों का ध्यान खींचने वाली कवयित्रियों में विशाखा मूलमुले एक महत्वपूर्ण हस्ताक्षर के रूप में उभरी हैं | विशाखा जी की कविताएँ गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति हैं |विशाखा जी की कविताओं में तीन खासियतें  जो मुझे दिखी | उन को क्रमवार इस तरह से रखना चाहूँगी |   कविताओं  को बौद्धिक  होना चाहिए या भाव सागर में निमग्न इस पर समय -समय पर विमर्श होते रहे हैं | बौद्धिक कविताओं का एक खास पाठक वर्ग होता है पर अक्सर आम पाठक को भाव  छूते हैं | वो कविता भावों की वजह से पढ़ना चाहता है |  मेरे विचार से कविता में बौद्धिकता तभी सहज लगती है जब वो अनुभव जगत की हांडी पर पककर तरल हो जाए | यानि ठोस पानी बन जाए .. सघन विरल हो जाए | लेकिन कई बार  बैदधिक कविताओं से गुजरकर ऐसा लगता है.. कि सघनता शब्दों में ही रह गई वो भाव  जगत को आंदोलित नहीं कर पाई | बोधि प्रकाशन के माध्यम से   विशाखा जी केवल “पानी का पुल” कविता संग्रह ही नहीं लाती बल्कि उनकी कविताएँ भी जीवन दर्शन की बर्फ को पिघला पाठक के हृदय में  पानी की तरह प्रवाहित करती  हैं | वो शब्दों का जादुई वितान नहीं तानती और आम भाषा और शब्दों में बात करती हैं |     वैसे तो मुक्त छंद कविता में कई प्रयोग हो रहे हैं पर विशाखा जी ने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो छोटे-छोटे संवादों के माध्यम से कविता सहज ढंग से अपनी बात रखती चलती हैं | अगर कहें कि उन्होंने कविता के लिए निर्धारित किये  गए ढांचे को तोड़कर उस जमीन पर  एक नए और  बेहतर शिल्प का निर्माण किया है तो अतिशयोक्ति ना होगी | इस तरह से वो छंद मुक्त कविताओं के शिल्प में आई एकरसता को दूर कर पाठकों को एक नया स्वाद देती हैं |   तीसरी  बात जो उनकी कविताओं में मुझे खास लगी कि वो जीवन के प्रति दृष्टिकोण या जीवन की  को विद्रूपताओं को एक रूपक के माध्यम से पाठक के समक्ष प्रस्तुत करती हैं | वो रूपक  आम जीवन से इतना जुड़ा  होता है की पाठक उसका को ना सिर्फ आत्मसात कर लेता है बल्कि चमत्कृत भी होता है | कभी वो पानी के पुल का बिम्ब लेती हैं तो कभी घास का या घूँघरू का | पाठक बिम्ब के साथ जुडते हुए कविता से जुड़ जाता है |   पानी का पुल – गहन संवेदनाओं की सहज अभिव्यक्ति   इस संग्रह पर बात करने से पहले एक महत्वपूर्ण बात साझा करना चाहूँगी की ये संग्रह बोधि प्रकाशन द्वारा “दीपक अरोड़ा स्मृति पांडुलिपि प्रकाशन योजना के छठे वर्ष” में चयनित व प्रकाशित किया गया है | भूमिका में सुरेन्द्र सुंदरम जी लिखते हैं, “विशाखा मूलमुले की कविताओं में उम्मीद का हरापन है, विरोध की रचनात्मकता है, ठहराव और शनशी के बीच अजीब सी गति है जो उनकी रचनधर्मिता को बड़ा बनाती है |”   शीर्षक कविता “पानी का पुल” एक संवेदनात्मक बिम्ब है | जिस तरह से पुल दो किनारों जो जोड़ता है | खारे, नमकीन आंसुओं की ये भाषा संवेदना और संवाद का एक पुल बनाती है जहाँ से एक का दर्द दूसरे को जोड़ता है | “रक्त संबंधों से नहीं जुड़े हम पानी का पुल है हमारे मध्य और दो अनुरागी साध लेते हैं पानी पर चलने की सबसे सरलतम कला”   कविता “पुनर्नवा” में वो घास की तुलना जिजीविषा से करती हैं |घास तो हर जगह उग जाती है .. मन ? मन तो मुरझा जाता है तो जल्दी खिलता ही नहीं | जब शुरू में वो लिखती हैं की अच्छे दिनों के बीच घास की तरह जड़े जमा लेते  हैं बुरे दिन .. अनचाहे, तो भले ही इन  पंक्तियों में नैराश्य चमके पर अंततः वो निराशा का दामन झटक कर घास को पुनर्नवा की उपमा देती हैं की जो हर विपरीत परिस्थिति में उगती है और मृत्यु के बाद किसी नीड़ के निर्माण में सहायक होती है | क्या एक हारा हुआ  मन घास से प्रेरणा नहीं ले सकता |   “मरकर अमर होती है घास जब चिड़िया करती है उससे नीड़ का निर्माण पुनर्नवा हो जाती तब प्रीत धरती से उठ रचती नव सोपान”     स्त्रियों पर  भले ही  बेवजह रोने के इल्जाम लगें या चिकित्सकीय भाषा में उन्हें मूड स्विंग का शिकार माना जाए पर इसके पीछे के मनोविज्ञान के सूत्र को विपाशा जी “प्रकृति, स्त्री और बारिश”में पकड़ती हैं | वो स्त्री के आंसुओं की बारिशों से तुलना करते हुए कहती हैं की स्त्रियाँ बारिशों को रोकती है .. कपड़े सूख जाए, आचार बर्नी अंदर कर लें या बच्चे  स्कूल से घर आ जाए | उनकी बात मानती हुई बारिशें बरसना मुल्तवी कर देती हैं पर जमा पानी रोकना एक समय के बाद मुश्किल हो जाता है | तब बात मानना बंद कर देती हैं और फिर जो बरसती हैं कि रोके रुकती नहीं | और स्त्री के रुदन  से साम्य मिलाते हुए कहती हैं ..   ठीक इसी तर से रोकती हैं स्त्रियाँ अपने -अपने हिस्से की बारिशें आँखों की कोरों  में अचानक कभी ये बारिशें कारण बिना कारण बीती  किसी बात पर मौसम बेमौसम, बिना किसी पूर्वानुमान के असल, मुद्दल, सूद समेत  बरस पड़ती हैं” कविता घूँघरू में वो घुँघरू को जीवन की विभीषिकाओं से लड़ने के मन हथियार के रूप में देखती हैं .. कोल्हू के बैल  में लगा हो, घोड़ा -गाड़ी के रहट में या फिर गन्ने की पिराई की मशीन में ..  रस से रसहीन हो जाने की यात्रा सुरीली तो नहीं हो सकती पर उस दर्द भरे गीत से विलग कर घूंघरुओं की धुन से मन तो बहलाया जा सकता है | “ताकि भटका रहे मन और चलता रहे जीवन” एक बहुत ही खूबसूरत कथन है “अगर आप अपने बच्चों को कुछ देना चाहते हैं तो उन्हें स्मृतियाँ दीजिए|” और राष्ट्र कवि मैथिलीशरण गुप्त जी जब लिखते है, “यही पशु–प्रवृत्ति है कि आप आप ही चरे” तो शायद उनकी कल्पना में यह महानगरीय काल आया होगा | “मनुष्य मकान और महानगर की व्यथा” कविता  जिसने मेरा  विशेष रूप से ध्यान खींचा, महानगरीय जीवन … Read more

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ

  शब्द संधान प्रकाशन से प्रकाशित आदरणीय रमेश उपाध्याय जी के कहानी संग्रह  “शहर सुंदर है”  के 250 पेज में समाई 19 कहानियों में  आम जीवन में हाशिये पर रहने वाले दलित,  शोषित, वंचित तबके के जीवन की वो गाथाएँ हैं जिन्हें सुनने का अमूमन किसी के पास वक्त नहीं होता है | पर ये कहानियाँ हमारी पूंजीवादी व्यवस्था के मखमली कालीन के उन छिद्रों को  दिखाती हैं जो असमान  विकास का वाहक है | जहाँ अमीर और.. और अमीर और गरीब और गरीब हो हाशिये पर छूटता जाता है | कमजोर नींवों पर खड़ी विकास की अट्टालिकाओं का भविष्य क्या हो सकता है ? पर लेखक हतोत्साहित नहीं है | वह  एक यथार्थवादी लेखक के तौर पर उस  यथार्थ की सीवन खोल कर दिखाते हुए भी  एक सुंदर भविष्य का सपना देखते हैं और  इस सपने को पूरा करने के लिए संघर्ष पर जोर देते हैं | इस संग्रह की कहनियाँ  बहुत ही सरल सहज भाषा में हैं, इसमें शामिल हर कहानी में शिल्पगत प्रयोग हैं, पर वो ऐसे नहीं हैं की दुरूह हो और पाठकों को अति बौद्धिकता के जंगल में  भटका दें बल्कि वो कहानी की सहजता और प्रवाह में वृद्धि करने वाले है |   संग्रह की भूमिका में संज्ञा उपाध्याय जी लिखती हैं कि यथार्थवादी साहित्य का काम होता है, अपने समय और समाज के मुख्य अंतर्विरोधों को सामने लाकर सामाजिक यथार्थ का उद्घाटन करना|”   यथार्थ को उद्घाटित करती इस संग्रह  की कहानियाँ  जैसे “दूसरी आजादी”  में वैचारिक जकड़बंदी से आजादी की, “अग्निसम्भवा” में समाज में स्त्री के ऊपर लगाए गए पहरों की, “शहर सुंदर है” में ऐशियाई खेलों के दौरान चमकती दिल्ली में गंदे गुमनाम इलाकों की तो “राष्ट्रीय राजमार्ग” में पूरे सरकारी तंत्र में फैले भ्रस्टाचार की बात करती हैं | इन सारी बड़ी कहानियों में गंभीर मुद्दों के साथ भले ही पात्रों के नाम हों पर संग्रह की छोटी कहानियाँ उन नामों से भी मुक्त हैं | यहाँ मौसम विभाग का वैज्ञानिक है, नल की लाइन खोलने वाला नलसाज है | मिट्टी खोदने वाला है, बिजली के बल्ब बदलने वाला एक कर्मचारी है | यहाँ वो उन पात्रों के नाम नहीं देते हैं बल्कि मिट्टी खोदने वाला एक आदमी आदि कह कर पूरे वर्ग की पीड़ा संप्रेषित करते हैं | शिल्प के लिहाज से अलहदा ये छोटी परंतु मारक कहानियाँ हैं | जो सीधे -सीधे व्यवस्था पर तंज करती हैं |   शहर सुंदर है -आम जीवन की समस्याओं को उठाती कहानियाँ वैसे तो सभी कहानियाँ सर्वहारा वर्ग को केंद्र में रख कर लिखी गयी है| फिर भी संग्रह  की कहानियों को मैं तीन भागों में बाँट कर देख रही हूँ | मुख्य रूप से स्त्री अधिकारों की बात करती कहनियाँ भ्रस्टाचार का मुद्दा उठाती कहानियाँ वर्ग चेतना को जागृत करती कहानियाँ   सबसे पहले बात करते हैं स्त्री अधिकारों की बात करती  हुई कहानियाँ  दो कहनियाँ प्रमुख हैं “दूसरी आजादी और अग्निसंभवा   संग्रह की पहली ही कहानी “दूसरी आजादी” ही इस मामले में खास है |  यह  कहानी दलित वर्ग की एक ग्रामीण स्त्री मँगो की कहानी है | मँगो खुली जेल में है,  वो भी उसके यहाँ  जिस ठाकुर फूल सिंह ने उसके परिवार के चारों सदस्यों को  पूरी चमार टोले  में आग लगवा कर भस्म किया था | बेगार करती मँगो को दिन भर मेहनत के बदले में रूखा-सूखा खाना मिलता है | जेल इतनी सख्त की उसे अपनी टोले  में जाने की, अपनी बेटी से मिल आने की इजाजत नहीं है | इस कहानी में इमरजेंसी और उसके बाद की स्थिति भी दिखाई गई है | जहाँ इमरजेंसी के दिनों में  उसके टोले के सभी लोगों को कानून का डर दिखा कर चुप करा दिया जाता है, वहीं इमर्जेंसी हटने पर उसकी टोली के किसान फिर जुडने लगते हैँ | किसान  यूनियन उसे  “भारत माता” के नाम से संबोधित करती है | वो उसे आजाद कराना चाहते हैँ | पाठक को लगता है कि गाँव में शारीरिक शोषण से आजादी ही संभवत : दूसरी आजादी होगी, पर कहानी आगे बढ़ती है | उसको उस जेल से आजादी मिलती है पर उसको दूसरी जेल में डाल दिया जाता है | यहाँ भावनात्मक शोषण है | जहाँ  तनख्वाह नहीं मिलती | आप तो हमारे घर का सदस्य हैं कह कर  इज्जत तो दी जाती है, पर कामवाली मानकर काम पूरा करवाया जाता है | दरअसल  वो इज्जत असली इज्जत नहीं है वो इज्जत रुपये ना देने का एक बहाना है | देखा जाए ये भावनात्मक शोषण हर स्त्री का होता है, खासकर माँ के रूप में | माँ को देवी कहा जाता है पर उसका शोषण घर-घर में होता है | यहाँ मँगो मालिक की माँ से अपनी तुलना करती रहती है .. वही काम तो माँ करती थी अब वो करती है | यानि वो माँ की ऐवजी है उसकी नौकरी स्थायी  नहीं है | जब माँ कहती है की मँगो यहाँ है तो अब वो इस रसोई का पानी भी नहीं पी सकती तो मँगो मन में सोचती है, “धौंस किस बात की देती है | बड़ी बामनी बनी फिरती हो | काम करेगी तो दो रोटी डाल देंगे | नहीं तो कहीं भी जा कर मर | यहाँ पानी देने वाला बैठा  ही कौन है| इमोशनल शोषण जो हमारे घरों में होता है उस का एक रूप तब दिखाई देता है, जब विश्वकान्त घर में जितना जेवर था सब निकाल लाते हैं |और मँगो से कहते हैं, “लो सब रख लो, सब तुम्हारा है |” मँगो भी गुलाम बनाए जाने के इस इस ट्रैप में फँसती है | और ये उसे का परिवार है सोच कर  तनख्वाह माँगने के अपने जायज हक का ख्याल छोड़ देती है | लेकिन मालिक पति-पत्नी की बातों से उसे अंदाजा होने लगता है, और वो इसके विरोध में अपनी आवाज उठाती है |   इस कहानी के अंत में मँगो जब कहती है, नाम बदल देने से असलियत थोड़ी ही बदल जाती है बाबूजी |  अपनी अम्मा को तुम मँगो जैसी नौकरानी मानो तो  मानो पर मैं तुम्हारी अम्मा कैसे हो सकती हूँ | मँगो द्वारा अपने श्रम का मूल्य हासिल करना कहानी को एक न्यायोचित सकारात्मक अंत … Read more

जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ

जरूरी है प्रेम करते रहना

  कविताएँ हो कहानियाँ हों या लेख, समीक्षा  सरल भाषा में गहन बात कह देने वाली महिमा पाठकों को हमेशा पहले से बेहतर,  नया  लिख कर चौंकाती रही हैं | सबकी प्रिय, जीवट, कलम की धनी साहित्यकार पत्रकार महिमा श्री का नया कविता संग्रह “जरूरी है प्रेम करते रहना” अपनी अलहदा कविताओं के माध्यम से बहुत जल्द ही पाठक को अपनी गिरफ्त में ले लेता है | हर कविता आपको रोकती है | एक गहन चिंतन मन में शुरू हो जाता है | क्योंकि हर कविता गहरी संवेदना से निकल कर आरी है और  उनमें एक जीवन दर्शन है |   जब महिमा किताब का शीर्षक “जरूरी है प्रेम करते रहना” रखना चुनती हैं, तब वो चुनती हैं जिजीविषा उन तमाम विपरीत परिस्थितियों के विरुद्ध जो हिम्मत और हौसला तोड़ देती है .. ये प्रेम, जीवन का राग है | बुरे में से अच्छा बचा लेने की ख्वाहिश  भर नहीं है जीवन जीने का सकारात्मक दृष्टिकोण है | तमाम विद्रूपताओं के बीच जीवन के पक्ष में युद्धरत सेनानी का जीवन को देखने का नजरिया कभी सतही नहीं हो सकता, वो गहनता  एक -एक  शब्द में एक -एक कविता में दृष्टिगोचर होती है |   जरूरी है प्रेम करते रहना – सरल भाषा  में गहन बात कहती कविताएँ   अपनी भूमिका में वो लिखती हैं, “पीड़ा से एक रागात्मक संबंध इस कदर हो गया था कि लगता ही ना था  कि इससे आजाद हो पाऊँगी |इस दौरान सीखा की कठिन परिस्थितियों से जीवन में मुँह मोड़ने के बजाय “जरूरी है प्रेम करते रहना” ये भव पाठक को पूरे संग्रह में दिखता है |   कविता संग्रह तीन खंडों में हैं | हर खंड एक खूबसूरत कोट से शुरू होता है |जैसे  पहला खंड काफ्का के कथन “हम मरने के लिए नहीं जीने के लिए अभिशप्त हैं”| दूसरा खंड स. बी. फग्रयुसन के कोट “प्रेम संवेदना से ज्यादा कुछ नहीं पर प्रेम प्रतिबद्धता  से अधिक है|” तीसरा “अकुलाहटें मेरे मन की” कविताओं को विभिन्न नजरिए से पढ़ते हुए महिमा की कविताओं पर अपने विचार रखने के लिए मैंने स्वयं उन्हें कुछ खंडों में रखने की कोशिश की है | जिन पर क्रमवार अपने दृष्टिकोण को साझा करना चाहूँगी | महिमाश्री  की कविताओं में जीवन की साँझ हम मनुष्य हैं, टूटते हैं, जुडते हैं, फिर टूटते हैं और फिर फिर जुडते हैं | कई बार दुख उदासी हावी हो जाती  है पर उनसे जूझ कर निकलना ही जीवन है | जिजीविषा का अर्थ ये नहीं की हर समय सकारात्मक रहना है बल्कि तमाम निराशाओं  का मुकाबला कर सकारात्मकता चुनना है | ऐसे में जीवन की साँझ के दर्शन कई कविताओं में होते है | अगर अंधेरा ना हो तो उजाले का महत्व क्या है ? उजाले की राह जाने से पहले इस अंधकार से  रूबरू होना भी जरूरी है | इन कविताओं में कहीं कहीं T. S. Eliot की गहनता देखने को मिलेगी |मुझे Mollow Men की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं … Is it like this In death’s other kingdom Waking alone At the hour when we are Trembling with tenderness Lips that would kiss Form prayers to broken stone. संग्रह की पहली कविता “कर्क रोग से लड़ते हुए” में ही उस गहनता के दर्शन हो जाते हैं | जब हम जीत के करीब होता हैं तो अक्सर नई चुनौतियाँ सामने आ जाती हैं |   वो कहती हैं.. “धारा के विपरीत चलने की ख्वाहिशों ने कुछ अलग करने का हौसला तो दिया पर सोचा ही था अब इस पर साथ चल कर देखते हैं खुद धारा ने रास्ता बदल लिया”   आदमी एक पर ख्वाहिशें अनेक हैं | कब पूरी हुई हैं किसी की सारी तभी तो कविता “ख्वाहिशों के दिए “में वो लिखती हैं .. “ख्वाहिशें हजार वाट की आँखों में जलती हैं जैसे गंगा में जलते हैं असंख्य दिए”   कविता “विकलता एक श्राप है में जब वो लिखती हैं, “टूटे हुए पंख किताबों में ही अच्छे लगते हैं” तब वो शिकस्त झेले हुए इंसान की पीड़ा व्यक्त करती हैं |   महिमाश्री  की कविताओं में आशा का उजाला                           निराशा को परे झटक कर शुरू होता है एक युद्ध, आस-निराश के बीच में वहाँ  से कविताएँ सँजोती हैं जीवन के कतरे जिन्हें गूथ कर तैयार होता है आशा का पुष्प हार …तभी तो हाल नंबर 206 कविता में कहती हैं हॉल नंबर 206 के बेड के सिरहाने जिंदगी सुबह की धूप सी पसरने लगती है आहिस्ता .. आहिस्ता   “मेरी यायावरी” में वो कहती हैं .. “ढूँढना है मुझे फ़ानी हों से पहले स्वेद बूंदों के सूखने का रहस्य जीवन चाहे दो पल का शेष हो, दो बरस काया दो युगों का  मृत्यु अवश्यंभावी है | दिक्कत ये नहीं है जी जीवन कितना शेष है, पीड़ा ये है की जो जीवन हम जी रहे हैं उसमें जीवन कितना था |  “विदा होने स पहले” कविता पढ़ते हुए मुझे बेन जॉनसन की कविता “A lily of a day” याद आ गई | जीवन जीवंतता से भरपूर होना चाहिए | इस कविता  में महिमा  जीवन के अंतिम क्षण तक कुछ सीखने की बात करती हैं | यही जीवन जीने का सही तरीका है .. जीवन वीथिका में शेष बचे वर्ष के झड़ने से पहले सीख लेना है मल्लाहों के गीत अंकित कर लेना है अधर राग पर कुछ नाम जिन्हें पुकार सकूँ विदा होने से पहले मेरी  यायावरी हो या “विदा होने  से पहले” दोनों कविताएँ जीवन के पक्ष में खड़ी कविताएँ हैं |   महिमा की कविताओं में प्रेम महिमा की कविताओं में प्रेम किसी किशोरी का दैहिक आकर्षण नहीं है | वो परमात्मा से आत्मा से एकीकार है | वो केवल स्त्री पुरुष के प्रेम की ही बात नहीं करती अपितु उनके प्रेम राग में बहन भाई और तमाम रिश्ते समाहित हैं | अब “दीदिया के लिए” एक ऐसी कविता है जिसमें बहन के प्रति उमड़ते हुए प्रेम की सहज धारा को महसूस किया जा सकता है | अधिकांशतः छोटी बहनों ने बड़ी बहन के विदा हो जाने पर यह महसूस किया होगा | कविता के सौन्दर्य को बढ़ाते रूपक को देखिए, यहाँ  बेटी को मायके का  वसंत कह कर संबोधित किया है जिसके विदा  होते ही … Read more

मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ

  समकालीन कथाकारों में प्रज्ञा जी ने अपनी सशक्त और अलहदा पहचान बनाई है | उनके कथापत्रों में जहाँ एक ओर कमजोर दबे कुचले, शोषित वर्ग से लेकर मध्यम वर्ग और आज के हालातों से जूझते किरदार होते हैं तो दूसरी ओर वह मानवीय संवेदनाओं को जागृत कर अच्छे लोगों और अच्छाई पर भी विश्वास बनाये  रखने की आशा रखती हैं | मानवीय संवेदनाओं के उठते गिरते ग्राफ में वो कुछ अच्छा, सुखद थाम लेती हैं |वास्तव में यही वो लम्हे  हैं जिन्होंने  तमाम विद्रूपताओं से भरे इस समय में आशा की डोर को थाम रखा है | प्रज्ञा जी की इन कहानियों की विशेषता है कि वो बिलकुल आम पात्रों को उठाती हैं और सहजता के साथ शिल्प के अलंकारिक आडंबरों  से मुक्त होकर संवेदनाओं  के स्तर पर उतर कर गहनता से कथा बुनती जाती हैं |  समकाल पर कलम चालते हुए वो कोरी भावुकता में  नहीं बहतीं बल्कि तटस्थ होकर आस-पास घटने वाली एक-एक घटना का सूक्ष्म अवलोकन करते हुए साक्षी भाव से कथारस के साथ उकेरती चलती हैं | पाठक पढ़ कर हतप्रभ होता चलता है, “हाँ ! ऐसा ही तो होता है | पर ऐसा ही होता है को लिखने के लिए जिस सूक्ष्म नजर से समाज की पड़ताल करनी पड़ती है | समाज के मनोभावों का ऐक्स रे करना होता है, वो अपने आप में एक पूरा शोध होता है | जिसे उकेरना इतना सहज नहीं  है पर प्रज्ञा  जी इसमें सिद्ध हस्त हैं |   स्त्री चरित्रों को उकेरते समय भी वो किसी विमर्श के दायरे में ना बांध कर समाज की कन्डीशनिंग की बात करती हैं | जिसके शिकार दोनों हैं | आपसी सहयोग और सम्मान ही सहअस्तित्व का आधार है, जिसकी उंगली पकड़ कर उनके पात्र एक सुंदर दुनिया की संभावना तलाशते हैं | मालूशाही मेरा छलिया बुरांश -समकाल की नब्ज टटोलती सशक्त कहानियाँ   अभी हाल ही में प्रज्ञा जी का नया कहानी संग्रह “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश”  आया है | हर बार की तरह इस संग्रह की योजना भी उन्होंने बहुत सुचिन्तित तरीके से बनाई है | विषय में जहाँ समकाल की चिंताएँ हैं, तो प्रेम की फुहारें भी, एक अच्छे आदमी द्वारा अपने अंदर छिपे बुरे आदमी की शिनाख्त तो माटी से माटी होते हुए शरीर में नई आशा फूँक देने की कवायत भी | बहुत ही हौले से वो उस बाजार के दवाब और प्रलोभन की बात भी कह जाती हैं, जिसके पंजों की जकड़ में समझदार व्यक्ति भी फँस जाता है | आज जब हम उन्हीं विषयों को बार -बार अलग -अलग शिल्प में पढ़ते हैं, वहीं प्रज्ञा जी द्वारा लाए गए जीवन से जुड़े नए अनूठे विषय उन्हें कथाकारों की अलग पांत में खड़ा करते हैं | इस संग्रह में उन्होंने शिल्प के स्तर पर भी कुछ नए प्रयोग किये हैं जो आकर्षित करते हैं, पर उनसे कहानियों की भाषा की सरलता सहजता और प्रवाह की उनकी धारा अपने पूर्ववत वेग को नहीं बदलती |   पुस्तक की भूमिका “एक दुनिया जो हम चाहते हैं बने” में प्रज्ञा जी लिखती हैं, “मैंने इस संग्रह की कहानियों में अपने विवध वर्णी समय को अंकित करने का प्रयास किया है |समाज में जहाँ एक ओर मनुष्यता की विजय  की कहानियाँ सामने आई हैं, वहीं कहीं ना कहीं ऐसा प्रतीत होता है कि मनुष्यता  पूंजी और बाजार में कहीं सबसे सस्ती और अनुपयोगी हो गयी है | इसलिए मेरा प्रयास रहा है कि समय की कटुता के साथ मनुष्यता के भरोसे को जीवित रखने वाले कुछ किस्से आप के साथ साझा कर सकूँ |     प्रेम दुनिया की सबसे सुंदर शय है | दो लोग मन -प्राण से एकाकर हो जाएँ इस से सुंदर घटना कोई दूसरी नहीं हो सकती | पहाड़ों की सुरम्य वादियों में हवा की सुरीली घंटियों सी आज भी गूँजती है अब तक मालूशाही और राजुला की प्रेम कहानी, जिसने हर संघर्ष के बाद आखिरकार पा ही लिया उसे जिसे बार -बार छल से दूर किया जाता रहा |कहाँ राज परिवार का मालूशाही और कहाँ साधारण घरआने की राजुला | पर प्रेम ने कब मानी हैं दीवारें |  वही प्रेम कहानी फिर उतरी उसी  धरती पर अपनी पूरी सुगंध, पूरी तारतम्यता के साथ | सदाबहार बुरांश के फूलों के बीच फिर छल ने दस्तक दी पर मालूशाही फिर आया अपनी राजुला के पास | “जिन्हें एक सच्चे वचन ने बांध लिया | कयोकि  निभाने के लिए एक वचन ही काफी है और ना निभाने के लिए सात सौ भी कम |  छलिया फिर आया भेष बदल कर ..पर मन ने उसका छल माना कहाँ | लोककथा से आधुनिक प्रेम कथा को जोड़ती बुरांश के फूलों सी दहकती एक अलग तरह की प्रेम कहानी है वो  कहानी पर जिसके  ऊपर संग्रह का नाम रखा गया है यानि “मालूशाही मेरा छलिया बुरांश” |   “उसे तो पहाड़ की कहानियों को जिंदा रखना थ और कहानी के रास्ते हमारे प्यार को |”   कहानी “माटी का राग” एक ऐसी ही कहानी है जो जीवन को सकारात्मक नजरिये  से देखने पर जोर देती है | “चाक के पहिये पर दयाशंकर कुम्हार की मिट्टी में तर उँगलियाँ बड़ी कोमलता से नमूने गढ़ रही थीं।चाक की लय, उँगलियों की तान, मन के राग पर धीरे-धीरे आकार लेती कला ‘तुमसे हो न पाएगा ठाकुर जी महाराज… कहाँ धरती का सोना तैयार करने वाले तुम और कहाँ हम?’ दयाशंकर ने एक साँस में हुनर औरजात के समीकरण को खोलकर सामने रख दिया। ‘रिश्ता तो हम दोनों का ही माटी से ठहरा।’”   कहानी की ये पंक्तियाँ हैं  सीधे पाठक के मन में उतरती हैं| किसान हो, कुम्हार  हो या ये जीवन  सब माटी पर निर्भर  है| सारा जुगत है इस माटी को किसी सृजन में लगा देना | वो सृजन खेत खलिहानों में उगती फसल का हो सकता है, कला का हो सकता है या फिर स्वयं के जीवन को कोई सकारात्मक मोड़  देने का | राम अवतार की ये कहानी अनेक आयाम समेटे हुए है | चाहे वो धर्म के नाम पर जबरदस्ती वैमनस्यता हो, गाँवखेत छोड़कर कर शहरों की ओर भागते युवा हों |बुजुर्गों का अकेलापन हो|कहानी गाँव से शहर की ओर जाती है और फिर गाँव की ओर … Read more

दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक

दरवाजा खोलो बाबा

  “पिता जब माँ बनते हैं, ममता की नई परिभाषा गढ़ते हैं” कविता क्या है? निबंध में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल कहते हैं कि, “जिस प्रकार आत्मा की मुक्तावस्था ज्ञानदशा कहलाती है, उसी प्रकार हृदय की यह मुक्तावस्था रसदशा कहलाती है। हृदय की इसी मुक्ति की साधाना के लिए मनुष्य की वाणी जो शब्द-विधान करती आई है, उसे कविता कहते हैं।“ इस परिभाषा में हृदय की मुक्तवस्था सबसे जरूरी शब्द है | यूँ तो हमारे अवचेतन पर हमारे जीवन, देखे सुने कहे गए शब्द अंकित होते हैं इसलिए हर व्यक्ति एक खास कन्डीशनिंग से निर्मित होता है | परंतु साहित्य में हम अक्सर चीजों को एक दृष्टि से देखने के इतने आदि हो जाते हैं कि दूसरा पक्ष गौढ़ हो जाता है | इसका कारण तमाम तरह के वाद और विचार धाराएँ भी हैं और पत्र -पत्रिकारों में उससे  प्रभावित लेखन को मिलने वाली सहज स्वीकृति भी है | पर क्या इतना आसान है एक लकीर खींच देना जिसके एक तरफ अच्छे लोग हं और दूसरी तरफ बुरे  | एक तरफ शोषक हों और दूसरी तरफ शोषित | मुझे उपासना जी की कहानी सर्वाइवल याद आ रही है जहाँ शोषित कब शोषक बन जाता है पता ही नहीं चलता| हब सब कहीं ना कहीं शोषक हैँ और कहीं ना कहीं शोषित |   हम मान  के चलते हैं कि खास तरह की पढ़ाई के लिए माता -पिता बच्चों पर दवाब बनाते हैं और संपत्ति के लिए बच्चे वृद्ध माता पिता का शोषण करते हैं | जबकि इसके विपरीत भी उदाहरण है | शिक्षा के लिए माँ -पिता से जबरदस्ती लोन लिवा कर  बच्चे ऐश करने में बर्बाद कर देते है | वृद्ध माता पिता अपने बच्चों  का इमोशनल शोषण भी करते है | पुरुषों द्वारा अधिकतर सताई गई है स्त्री पर कई बार शोषक के रूप में भी सामने आती है | कई बार खेल महीन होता है| वहीं पुरुष कई बार पिता के रूप में, भाई के रूप में, पति के रूप में स्त्री का सहायक भी होता है|   साहित्य में हर किसी के लिए जगह होनी चाहिए हर बदलाव दर्ज होना चाहिए तभी वो आज के समकाल का सही सही खाका खींच पाएगा |   ये सब सोचने-कहने का कारण डॉ.मोनिका शर्मा का नया कविता संग्रह “दरवाजा खोलो बाबा” है | निरंतर विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में अपने विचारोत्तेजक  लेखों द्वारा समाज को सोचने को विवश करती मोनिका जी अपने इस संग्रह में बदले हुए पुरुष को ले कर आई है | पिता, पति, भाई, पुत्र के रूप में स्त्री के जीवन में खुशियों के रंग घोलने, उनको विकास की जमीन देने और हमसफ़र बन कर साथ सहयोग देने में पुरुष की भूमिका पर भी ध्यान दिया जाना चाहिए | खासकर तब जब वो बदलने की कोशिश कर रहा है | दरवाजा खोलो बाबा – साहित्य में बदलते पुरुष की दस्तक “19 नवंबर” को मनाए जाने वाले “अंतर्राष्ट्रीय पुरुष दिवस” में घरेलू कामों में अपने द्वारा किये जाने वाले सहयोग का संज्ञान लेने  की माँग उठी है | ऐसे में साहित्य का इस दिशा में ध्यान ना जाना उचित नहीं | मोनिका जी पुस्तक “दरवाजा खोलो बाबा” की भूमिका में लिखती हैं कि, “भावी जीवन की हर परिस्थिति से जूझने का साहस, बेटियों को अपने बाबा के आँगन से मिली सबसे अनमोल थाती होती है | आज के दौर में संवेदनशील भावों को जीते भाई जीवनसाथी  और बेटों से मिल स्नेह सम्मान, भरोसे और भावनाओं की इस विरासत को सहेजते प्रतीत होते हैं | यह वक्त की दरकार है की साझी कोशिशों और स्त्री पुरुष के भेद से परे मानवीय सरोकारों की उजास को सामाजिक -पारिवारिक परिवेश में सहज स्वीकार्यता मिले | पूरे संग्रह चार खंडों में बँटा हुआ है जिसमें पिता, पिता -बेटी, पुरुष मन और प्रश्न हैं.. पिता खंड में उन त्यागों को रेखांकित किया है जो अपने बच्चों, घर -परिवार के लिए एक पुरुष करता है | मुझे प्रेमचंद् जी का एक वाक्य का भाव याद आ रहा  है, “पिता मटर -पनीर है और माँ दूध-रोटी” थोड़ी देर भी ना मिले तो बच्चे व्याकुल हो जाते हैं | बात गलत भी नहीं है .. दरअसल पिता का त्याग अदृश्य  रहता है | बच्चों की जरूरतें माँ से पूरी होती रहतीं हैं, घर के बाहर पिता भी उस नींव की ईंट है इसका ध्यान कम ही जाता है | इसी पर ध्यान दिलाते हुए  मोनिका जी लिखती हैं.. “कमाने, जुटाने के चिर  स्थायी फेर ने सारथी बन गृहस्थी का रथ खींचते एक पुरुष को गढ़ा सनातन यात्री के रूप में”   ———————————– घर स्त्री से होता है पर उस घर को बनाने में पुरुष भी बहुत कुछ खोता है … “किताबों के पल्ले  चढ़ते ही तालों में बंद हो गए समस्त रुचि रुझान चिकना-चौरस आँगन पक्का होते ही फिसल गए जीवन की मुट्ठी से मैत्री बंध, मेल जोल के पल चौखट -चौबारों की रंग रोगन की साज धज के निर्मल निखार से फीकी पड़ गईं मर्म की समस्त चाहनाएँ” ——————————– स्त्री के शोषक के रूप में दर्ज क्या पुरुष समाज की कन्डीशनिंग का शिकार नहीं है | क्या अपने को अच्छा पुत्र और अच्छा पिता साबित करने का भार उस पर नहीं है | संतुलन उसे भी बनाना है | महीन रस्सी उसके सामने भी है |   “बहुत सीमित -समवृत होता है आकाश पिता की इच्छाओं का माता -पिता का कर्तव्य पारायण बच्चा होने के दायित्व बोध की धूरी से अपने बच्चे के उत्तरदायित्वों के यक्ष तक सिमटा” ————————– “अपनी कविता “प्रवक्ता” में वो लिखती है.. आँगन के बीचों -बीच हर बहस, हर विमर्श में चुप रह जाने वाले पिता देहरी के उस पार बन जाते हैं  आवाज घर के हर सदस्य की” पिता -पुत्री खंड में पिता पुत्री के बदलते हुए रिश्तों की बात करती हैं | एक जमाना था जब पिता परिवार के सामने अपने बच्चों को प्यार नहीं करते थे, फिर एक उम्र के बड़ी  बेटियों से थोड़ी दूरी बनाते थे | विवाह के बाद अपनी मर्जी से मायके आने का हक बेटियों का नहीं रहता था | इस सब दिशाओं में आज बदले हुए पिता-पुत्री दिखते हैं | अब लड़कियाँ “बकी बरस भेज भैया को बाबुल सावन में लिजों बुलाए” नहीं … Read more

मेरे संधिपत्र – सूर्यबाला

पुस्तक समीक्षा -मेरे संधिपत्र

  एक स्त्री के द्वारा कभी ना लिखे गए संधिपत्रों का जब-जब खुलासा होगा तब पता चलेगा के घर -परिवार की खुशहाली बनाए रखने के लिए वो क्या क्या करती है ? सब कुछ अच्छा दिखने की भीतरी परतों में एक स्त्री का क्या -क्या त्याग छिपा हुआ है? क्यों घर संसार उसकी निजी खुशी से ऊपर हो जाता है| और कई बार ये फैसला उसका खुद का लिया होता है | एक ऐसी कहानी जिसमें कोई खलनायक नहीं है| सब कुछ अच्छा है | फिर भी … कदम -कदम पर संधियाँ हैं संधिपत्र है उपन्यास पर चर्चा आप यहाँ सुन सकते हैं –यू ट्यूब लिंक 2019 में एक सुंदर आवरण से सजा  राजकमल द्वारा प्रकाशित वरिष्ठ लेखिका सूर्यबाला जी का पहला उपन्यास “मेरे संधिपत्र” वो उपन्यास है जो स्त्री जीवन के त्याग, समर्पण, सुख-दुख  और दर्द और उपलब्धियों सब को निरपेक्ष भाव  से प्रस्तुत करता है | पात्र को शब्दों में ढालते हुए लेखिका सहज जीवन प्रस्तुत करती जाती हैं | और जीवन के तमाम दवंद आसानी से चित्रित हो जाते हैं | अगर आप अपने आस -पास के आम जीवन की घटनाओं को कहानी में बदल सकते हैं तो आप एक बड़े लेखक है |~चेखव  मेरे संधिपत्र -समझौते हमेशा दुख का कारण नहीं होते मेरे संधिपत्र  उपन्यास  एक आम स्त्री के मल्टीलेयर  जीवन की अंत: परतों को खोलता है | कॉम्प्लेक्स ह्यूमन इमोशन्स के जरिए ये उपन्यास स्त्री मन के दवंद और उसके द्वारा लिए गए फैसलों की बात करता है | ये संधिपत्र एक स्त्री द्वारा लिए गए वो फ़ैसलें हैं जो वो समझौते के रूप में अपने परिवार की खुशहाली के लिए करती है, पर कहीं ना कहीं इससे वो अपने लिए भी  सुंदर दुनिया का सृजन करती है | आज के दौर में जब विद्रोह ही स्त्री कथाकारों की कलम की शरण स्थली बनी हुई है, ऐसे समय में इसका नए दृष्टिकोण से पुन:पाठ आवश्यक हो जाता है |और यह उपन्यास कई प्रश्नों पर फिर से विचार करने का आग्रह करता है … क्या स्त्री का  माय चॉइस हमेशा परिवार के विरोध में है ? अपने घर परिवार के हक में फैसला करती स्त्री को हम सशक्त स्त्री के रूप में क्यों नहीं देखते जब की हम पुरुष से ऐसी ही आशा करते हैं ? क्या इस पार स्व विवेक से लिया गया फैसला स्त्री को सशक्त स्त्री नहीं घोषित करता है ? ये कहानी है एक लड़की शिवा की .. पढ़ाई में तेज, विभिन्न प्रतिभागी परीक्षाओं में तमाम पदक जीतने वाली गरीब लड़की शिवा का कम उम्र में विवाह एक लखपति व्यवसायी से हो जाता है |शिवाय उसकी दूसरी पत्नी और दो नन्ही बछियों की माँ  बन कर घर में प्रवेश करती है | उपन्यास की शुरुआत ही “मम्मी आ गई, मम्मी आ गई” के हर्षित स्वर के साथ स्वागत कति बच्चियों से होती है | सद्ध ब्याहता माँ  के आँखों में मोतियों कीई झालर देखकर बच्ची पानी ला कर मुँह धुलाने की कोशिश करती है | यहीं से सौतेली माँ और बच्चों का एक नया रिश्ता शुरू होता है | एक बेहद खूबसूरत रिश्ता, जहँ सौतेला शब्द ना दिल में है ना जेहन में | सौतेली माँ की तथाकथित खल छवि को तोड़ता है यह उपन्यास | उपन्यास तीन भागों में बांटा गया है | पहले दो भागों में दोनों बच्चियों के अपने अपने दृष्टिकोण से माँ और जीवन को देखती हैं | मेरी क्षणिकाएँ ऋचा उपन्यास के पहले भगा में बड़ी बेटी ऋचा का माँ के माध्यम से जीवन को समझने का प्रयास है | वो अपनी माँ के गरिमामाई व्यक्तित्व से प्रभावित है |  वो माँ के जीवन को उनकी खुशियों, उनके दर्द को उसी तर्ज पर समझती है | धीरे धीरे वो उन्हीं में ढलती जाती है |समय -समय पर वो माँ की ढाल बनती है पर मौन मूक स्वीकार भव के साथ | रिंकी मेरा विद्रोह इस भाग में छोटी बेटी रिंकी का माँ के साथ जीवन को समझने का दृष्टिकोण है | रिंकी विद्रोही स्वभाव की है | वो माँ की ढाल नहीं बनती अपनी वो विद्रोह कर माँ के लिए सारी खुशियाँ जीतना चाहती है | मेरे संधिपत्र ये हिस्सा शिवा के दृष्टिकोण का है | इसमें वो तमाम संधिपत्र.. वो समझौते हैं जो वो अपने जीवन को खुशहाल बनाने के लिए करती है | वो बेमेल विवाह जहाँ मेंटल मैच नहीं मिलता उसे स्वीकारती है साथ ही ये भी स्वीकारती है कि  उसका पति  जीवन पर्यंत उसे बहुत प्रेम करता रहा | भले ही उसका प्यार उस तरह से नहीं ठा जिस तरह से वो कहती थी पर उसने प्यार किया है | हर सफलता पर वो उसे जेवरों से लादता है |उसके लिए रबड़ी के कुल्ले लाता है | गरीब मायके जाने पर कोई रोक टोंक नहीं यही | वो स्वीकारती है कि सौतेली माँ होने का उस पर दवाब है कि वो अपनी बच्ची से दूर रहे पर साथ ही ये भी कि दोनों बच्चियों ने उसे निश्चल प्रेम और विश्वास की अथाह संपत्ति दी है | जिसने उसके जीवन को खुशियों से भर दिया है | सास उस अपेक्षाकृत छोटे घर की बेटी को बड़े राइस खानदान की बहु के साँचे में ढालती हैं | पर उन्हें समझ है की इसे यह सब करने में समय लगेगा | इस उपन्यास की शुरुआत में लेखिका लिखती हैं .. मेरे संधिपत्र बनाम शिवाय के संधिपत्र उसकी जिंदगी के नाम … जिंदगी है भी यही संधियों का अटूट सिलसिला, निरंतर प्रवाहित, जीवन की इस निसर्ग, निर्बाध धारा में एक चीज बस शिवाय की अपनी थी -इस धारा की गहराई | जीवन भर डूब -डूब कर वह अपने को थहाती रही, यही उसकी नियति थी |छप्पर फाड़ कर मिले सुख- सौभाग्य, ऐश्वर्य-मातृत्व सबकी दुकान लगाए बैठी रही |सब अपने -अपने बाँट लेकर आए और जो जिसने चाहा, तौलती बांटती चली गई |और अंत में दुकान बंद करने का समय आने तक उसके पास बचे रहे जिंदगी के नाम लिखे कुछ संधिपत्र, बस पाठक भी इसे अपने -अपने बाँट के हिसाब से पढ़ सकता है | क्योंकि इस कहानी की खूबसूरती ही जीवन के बाह्य और अंतर्मन के बहुपरतीय  आयाम को खोलना है | इंसान  के फैसले … Read more

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा

इतनी किताबों पर लिखने के बाद अगर किसी उपन्यास को पढ़ने के बाद भी ये लगे की मैं जो इस पर कहना चाह रही हूँ, उसके लिए शब्द साथ छोड़ रहे हैं तो मेरे विचार से इससे बढ़कर किसी उपन्यास के सशक्त होने का क्या प्रमाण हो सकता है | ऐसा ही उपन्यास है ऊर्मिला शुक्ल जी का बिन ड्योढ़ी का घर | एक उपन्यासकार अपने आस -पास के जीवन के पृष्ठों को खोलने में कितनी मेहनत कर सकता है, छोटी से छोटी चीज को कितनी गहराई से देख सकता है और विभिन्न प्रांतों के त्योहारों, रहन सहन, भाषा, वेशभूषा की बारीक से बारीक जानकारी और वर्णन इस तरह से दे सकता है कि कथा सूत्र बिल्कुल टूटे नहीं और कथा रस निर्बाध गति से बहता रहे तो उसकी लेखनी को नमन तो बनता ही है | जल्दबाजी में लिखी गई कहानियों से ऐसी कहानियाँ किस तरह से अलग होती हैं, इस उपन्यास को एक पाठक के रूप में यह जानने के लिए भी पढ़ा जा सकता है | जिसमें लेखक का काम उसका त्याग और मेहनत दिखती है | बिन ड्योढ़ी का घर -स्त्री संघर्ष और स्वाभिमान की गाथा चार राज्यों, एक पड़ोसी देश की भाषाओं, रहन -सहन और जीवन को समेटे यह उपन्यास मुख्य तौर से स्त्री संघर्ष और उसके स्वाभिमान की गाथा है | ये गाथा है स्त्री जीवन के अनगिनत दर्दों की, ड्योढ़ी से बिन ड्योढ़ी के घर की तलाश की, सीता से द्रौपदी तक की, अतीत के दर्द से जूझते हुए स्त्री संघर्ष और उसके अंदर पनपते स्वाभिमान के वृक्ष की | अंत में जब तीन पीढ़ियाँ एक साथ करवट लेती है तो जैसे स्वाभिमान से भरे युग हुंकार करती हैं | पर अभी भी ये यात्रा सरल नहीं है | इतिहास गवाह है लक्ष्मण रेखा का | वो लक्ष्मण रेखा जो सीता की सुरक्षा के लिए भले ही खींची गई थी | पर उसको पार करना सीता का दोष नहीं कोमल स्त्रियोचित स्वभाव था | जिसका दंड रावण ने तो दिया ही .. पितृसत्ता ने भी दिया | उनके लिए घर की ड्योढ़ी हमेशा के लिए बंद हो गई और बंद हो गई हर स्त्री के लिए ड्योढ़ी के उस पार की यात्रा | घर की ड्योढ़ी के अंदर धीरे -धीरे पितृसत्ता द्वारा बनाई गईं ये छोटी -छोटी ड्योढ़ियाँ उसके अधिकार छीनती गई | खुली हवा का अधिकार, शिक्षा का अधिकार, जीवनसाथी चुनने का अधिकार और घर के अंदर किसी बात विरोध का अधिकार | “लड़की तो तभी अच्छी लगती है, जब तक उसके कदम ड्योढ़ी के भीतर ही रहते हैं | उसके कदमों ने ड्योढ़ी लांघी नहीं की ….और हमारी लड़की ने तो ड्योढ़ी लांघी ही नहीं उसे रौंद भी दिया | हमारी मान  मर्यादा का तनिक भी ख्याल नहीं किया उसने | ना, अब वो हमारी ड्योढ़ी के भीतर नहीं आएगी, कभी नहीं |” ये कहानी है कात्यानी और उसकी मां राम दुलारी की | सीता सी राम दुलारी के लिए पति का आदेश ही ईश्वरीय फरमान है | उन्होंने कभी विरोध नहीं किया, तब भी नहीं जब बेटी के जन्म के बाद पिता उसकी उपेक्षा करते रहे, अनदेखा करते रहे, तब भी नहीं जब दूसरे प्रांत में ले जाकर किसी से हिलने मिलने पर रोक लगा दी, जब पितृसत्ता की कमान उन्हें सौंपते हुए बेटी का स्वाभाविक बचपन छीना, बेटी की पढ़ाई छुड़ाकर जिन भाइयों से दुश्मनी थी बिना जाँचे परखे उन्हीं के बताये लड़के से विवाह कर दिया और सबसे बढ़कर तब भी नहीं जब ससुराल से लुटी -पिटी आई कात्यायनी के लिए दरवाजा भी नहीं खोला | जो पुरुष स्त्री को बाहरी दुनिया में यह कहने से रोकते हैं, “तुम कोमल हो बाहर ना निकलो, क्योंकि बाहरी दुनिया कठोर है” विडंबना है कि वो ही उस स्त्री को अपनों के लिए कठोरता चाहते हैं | अपने दूध और रक्त संबंधों के लिए भी | प्रेम और सुरक्षा की चादर के नीचे ढंका ये वर्चस्व या अधिकार भाव बिना आहट किए ऐसे आता है की स्त्री भी उसके कदमों की थाप सुन नहीं पाती और पितृ सत्ता का हथियार बन जाती है | ‘पुरुष में जब मातृत्व भर उठता है तो उसके व्यक्तित्व में निखार आ जाता है और स्त्री में जब पितृत्व उभरने लगता है तो उसका जीवन धूमिल हो जाता है | उसकी विशेषताएँ खो जाती हैं और वो चट्टान की तरह कठोर हो जाती है |” उपन्यास में गाँव, कस्बों के स्त्री जीवन के उस हाहाकार का तीव्र स्वर है| जिसे शहर में बैठकर हम जान नहीं पाते | ऐसी ही है गडही माई की कथा, जिसमें गाँव के जमींदार जब गाँव की बेटियों बहुओं को उठा कर ले जाते तो घरवाले ही उन्हें गडही के जल में डूबा देते और प्रचलित कर देते की गाँव की बहु बेटियों पर माई का प्रकोप है | इसलिए जल्दी ही उनकी शादी कर दो और शादी के बाद दोबारा मायके नहीं आना है क्योंकि इसमें भी माई का श्राप है | एक बार की विदा हमेशा की विदा बन जाती | आपस में छोटी -छोटी बातों पर लड़ते पुरुष इस मामले में चुप्पी साध कर ऐका दिखाते | “जवान बेटियाँ और बहनें और कभी -कभी तो उनकी मेहरारू भी उठवा लि जातीं और वे विवश से देखते रहते |फिर उनके वापस आने पर लोक लाज के डर से उन्हें गढ़ही में डूबा आते , फिर कहते गढ़ही में कोई है जो उन्हें लील लेता है |फिर धर्म का चोला पहना दिया गया और वो गढ़ही से गढ़ही माई बन गईं |” “गढ़ही माई | इस जवाँर की वो अभिशाप थीं जिन्होंने लड़कियों को शाप ही बना डाला था |” और  दहेज के दानव के कारण डूबी कजरी और नंदिनी हैं तो कहीं खेतों में काम करने वालों की स्त्रियों पर गाँव के भया लोगों का अत्याचार, जो उन्हें अनचाही संतान को जन्म देने को विवश करता है, जिसे  वो अपना प्रारबद्ध माँ स्वीकार कर लेती हैं |तो कहीं गंगा भौजी का किस्सा है | अपने चरित्र को निर्दोष साबित करने वाले जिसके चरित्र पर लांछन लगाये जाते रहे | गाँव बाहर कर के भी उसकी बारे में बेफजूल की कथाएँ बनती रहीं पर उसने उन्हीं के बीच में … Read more

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

“वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी

  कुछ घटनाएँ हमारे जीवन में इस प्रकार घटती हैं कि हमें यह लगने लगता है कि बस ये घटना ना घटी होती तो क्या होता? हमें “संसार” सरल दिखता ज़रूर है लेकिन होता बिल्कुल नहीं; इसलिए अकस्मात जहाँ आकर हमारी सोच थिर जाती है, उसके आगे से संसार अपना रूप दिखाना शुरू करता है। और जब हमें ये लगने लगता है कि बस हमने तो सब कुछ सीख लिया, सब कठिनाइयों को जीत लिया है; बस आपके उसी आह्लादित क्षणों में ना जाने कहाँ से एक नन्हा सा “हार” का अंकुर आपके ह्रदय में ऐसे फूट पड़ता है कि उसे दरख़्त बनते देर नहीं लगती। सपनों के राजमार्ग पर चलते-चलते एक छोटी सी कंकड़ी से हम उलझकर धड़ाम से गिरते हैं कि धूल चाट जाते हैं। जितना ये सत्य है उतना ही ये भी सही है कि हम कठिनाइयों के गहरे अवसाद में जब नाक तक डूबे होते हैं और निरंतर किनारे को अपने से दूर सरकते हुए देख रहे होते हैं; हमें बिल्कुल ये लगने लगता है कि अबके साँस गई तो फिर लौट कर नहीं आएगी बस उन्हीं गमगीन भीगे-से क्षणों में रहस्यमयी अंधकार भरे दलदल के ऊपर रेंगता हुआ एक सीलन का कीड़ा हमारा मार्गदर्शन कर जाता है। रेंग-रेंग कर वह हमें ऐसी युक्ति दे जाता है कि लगता है कि जो किनारा पूरी तरह से ओझल हो चुका था वह ख़ुद-ब-ख़ुद हमारे पास कैसे सरक आया। वो फोन कॉल -कहानी की कुछ पंक्तियाँ “वो फ़ोन कॉल” एक पाठकीय टिप्पणी दरअसल में बात कह रही हूँ अभी हाल ही में भावना प्रकाशन से प्रकाशित वंदना बाजपेई जी का नया कहानी संग्रह “वो फोन कॉल” की। इसकी कहानियाँ भी कुछ इसी प्रकार का मनोभाव लिए पाठक को अपने साथ लिए चलती हैं। संग्रह में १३ कहानियाँ हैं। कहानियों का मूलभाव वंचित वर्ग का दुःख, आक्रोश, विकास की लिप्सा, झूठे आडंबर, रूढ़िवादिता में जकड़ा मध्यम वर्ग ही है। सबसे पहले तो वन्दना जी की तारीफ़ इस बात की जानी चाहिए कि उन्होंने कहानी संख्या के लिए उस अंक को चुना है जिसको साधारण लोगों को अक्सर बचते-बचाते देखा जाता है। यानी कि आपके इस पुस्तक में “13” कहानियाँ संग्रहित की हैं। एक मिथक को तो लेखिका ने ऐसे ही धराशाही कर दिया। अब बात करती हूँ आपकी कहानियों की तो सबसे पहले मेरा लिखा सिर्फ एक पाठक मन की समझ से उत्पन्न बोध ही समझा जाए। खैर, वंदना जी की कहानियों की भाषा सरल और हृदय के लिए सुपाच्य भी है। किसी बात को कहने के लिए वे प्रतीकों का जाल नहीं बुनती हैं। और न ही कहानियों का लम्बा-चौड़ा आमुख रचती हैं । वे प्रथम पंक्ति से ही कहानी को कहने लगती हैं इससे आज के भागमभाग जमाने के पाठक को भी आसानी होगी। स्त्री होने के नाते वन्दना जी की कहानियों के तेवर स्त्रियों की व्यथा-कथा को नरम-गरम होते चलते हैं। निम्न मध्यम वर्ग की उठापटक को भी उन्होंने बेहतरी से पकड़ा है। शीर्षक कहानी “वो फ़ोन कॉल” की यदि मैं बात करूँ तो ये कहानी बच्चों और उनके अभिभावक,समाज और रिश्तेदारों की मानसिक जद्दोजहद की कहानी कही जा सकती है। जिसमें किरदार तो सिर्फ दो लड़कियाँ ही हैं किंतु वे जो अपनी भावनाओं का आदान-प्रदान करती हैं, उसको पढ़ते हुए मन भीग-भीग गया। वहीं ये कहानी पाठक के लिए एक युक्ति भी सहेजे दिखती है। जो इस कहानी को पढ़ चुके हैं वे समझ गए होंगे। और जिनको समझना है वे ज़रूर पढें। लेखिका ने कहानी को अपनी गति से बढ़ने दिया है। पढ़ते हुए जितनी पीड़ा होती है उतना ही संतोष कि स्त्री जीवित रहने के लिए आसरा खोजना सीख रही है। “तारीफ़” कहानी में कैसे स्त्री अपनी तारीफ़ सुनने को लालयित रहती है कि कोई उसका अपना ही उसके बुढ़ापे को ठग लेता है। वहीं “साढ़े दस हज़ार….!” के लिए जो क़िरदार लेखिका ने चुने हैं उसमें नौकरी पेशा और गृहणी के बीच की मानसिक रस्साकसी खूब द्रवित करती है। “सेवइयों की मिठास” के माध्यम से लेखिका ने धर्मांधता को शांत भाव से उजागर किया है। किसी के धर्म, पहनावे ओढ़ावे को देखकर हम ‘जजमेंटल’ होने लगते हैं। उस बात को आपने सफ़ाई और कोमलता से कही है कि पढ़ते हुए आंखों की कोरें गीली हो जाती हैं। “आखिर कब तक घूरोगे” कहानी पढ़ते हुए तो लगा कि एक सामान्य-सी ऑफिस के परिवेश की बात लिए होगी कहानी लेकिन नायिका के द्वारा बॉस को जो सबक मिलता है,वह कमाल का है। ये लेखिका की वैज्ञानिक सोच का नतीज़ा ही कहलाएगा। “प्रिय बेटे सौरभ” कहानी एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो ममता में कैसे अपने को गलाती रहती है और बेटा अपने को विकसित करता रहता है; और बहुत बाद में जब माँ तस्वीर में बदल जाती हैं, बस दो बूँद आँसू छलका कर सॉरी बोलता है कि तस्वीर वाली माँ भी कह उठती है कोई बात नहीं। “अम्मा की अंगूठी” कहानी ने बहुत गुदगुदाया, बचपन के किस्से याद दिलाए। इस रचना को हम यादों की गुल्लक भी कह सकते हैं। पहले पति कैसे पत्नि को सबक सिखाता था की बच्चों की हँसी ठट्ठा के साथ मौज हो जाती थी। माँ-बाप के उलझाव में बच्चों के संवाद और उसपर वंदना जी की भाषा, पढ़ते हुए खूब आनंद आया। “जिन्दगी की ई एम आई” कहानी को वन्दना जी ही लिख सकती थीं। इस कहानी का विषय हमारी नवा पीढ़ी का दुःख-दर्द समेटे है।आज के परिवेश में न जाने कितने देवांश इतने अकेले होंगे कि किसी गलत संगत के शिकार हो जाते होंगे। कथा पढ़ते हुए एक थ्रिल का अहसास होता है लेकिन अंत पाठक को सांत्वना देने में सक्षम है। “बद्दुआ” बद्दुआ में कैसे अपनों का दंश लिए हुए एक बच्चा अपने जीवन के उतार-चढ़ाव झेलता हुआ चलता है………।लेकिन अंत इसका भी सुखद है। ”प्रेम की नई बैरायटी” कहानी भी पूरे मनोभाव के साथ पाठक को अपने साथ-साथ लिए चलती हैं। संध्या,उसकी माँ,पति और स्कूल के छात्रों में पनपते गर्ल फ्रैंडस-बॉयफ्रेंड्स के नये चाल-चलन और नये जमाने के प्रेम पर खूब दिलचस्प बात कहते हुए ये कहानी भी पाठक को एक सुखद जतन सिखा जाती है। “वजन” कहानी पढ़ते हुए कितनी मन में कितनी कौंध,डर, आक्रोश और इस दर्द से जूझते कितने चेहरे … Read more

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा - स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री

पति द्वारा श्रापित अहिल्या वातभक्षा बन राम की प्रतीक्षा करती रहीं | और अंततः राम ने आकर उनका उद्धार किया | ना जाने इस विषय पर कितनी कहानियाँ पढ़ी, कितनी फिल्में देखीं जहाँ बिम्ब के रूप में ही सही तथाकथित वातभक्षा अहिल्या के उद्धार के लिए राम सा नायक आ कर खड़ा है | पर पद्मश्री उषाकिरण खान जी के नए उपन्यास “वातभक्षा” वीथिका को किसी राम की प्रतीक्षा नहीं है, उसके साथ स्त्रियाँ खड़ी हैं | चाहे वो निधि हो, यूथिका हो, रम्या इंदु हो या शम्पा | यहाँ स्त्री शिक्षित है, आत्मनिर्भर है, कला को समर्पित है, परिवार का भार उठाती है पर समाज का ताना -बाना अभी भी स्त्री के पक्ष में नहीं है | तो उसके विरुद्ध कोई नारे बाजी नहीं है, एक सहज भाव है एक दूसरे का साथ देने का | एक सुंदर सहज पर मार्मिक कहानी में “स्त्री ही स्त्री की शक्ति का” का संदेश गूँथा हुआ है | जिसके ऊपर कोई व्याख्यान नहीं, कहीं उपदेशात्मक नहीं है पर ये संदेश कहानी की मूल कथा में उसकी आत्मा बन समाया हुआ है | वातभक्षा -राम की प्रतीक्षा की जगह स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री पद्मश्री -उषाकिरण खान ये कहानी हम को उस दौर में ले जाती है जब आजादी मिले हुए 16, 17 वर्ष ही बीते थे | पर लड़कियाँ अपनी शिक्षा के लिए, आर्थिक स्वतंत्रता के लिए, और अधिकारों के लिए सचेत होने लगीं थी | समाज शास्त्र एक नए विषय के रूप में आया था जिसमें अपना भविष्य देखा था वीथिका और उसकी सहेली निधि ने | पिता जमीन जायदाद, भाई का ना होना या भाई को खो देना, दुख दोनों के जीवन की कथा रही पर चट्टान की तरह एक दूसरे के साथ वो खड़ी रहीं | यूँ तो दुख के बादल सभी के जीवन में आए किन्तु निधि और यूथिका को तो अंततः किनारा मिल गया पर वीथिका के जीवन में दुख ठहर गया | जैसा की शम्पा एक जगह कहती है .. ‘हम स्त्रियों की जिंदगी बोनसाई ही तो है | हम कितने भी स्वतंत्र क्यों ना हों हमारी जड़े काट दे जाती हैं, हमारे डाल छाँट दिए जाते हैं, हमारे फूल निष्फल हो जाते हैं |” कहानी में एक तरफ जहाँ जंगल है, हवा है, प्रकृति है, अरब देश में तेल का अकूत भंडार पता चलने के बाद वहाँ बसी नई बस्तियां हैं तो वहीं समाज शास्त्र विषय होने के कारण जनजातियों के विषय में जानकारी है, सेमीनार हैं, आलेख तैयार करने के तरीके, हॉस्टल है स्त्री- स्त्री के रिश्तों की तरफ बढ़ी स्त्री की भी झलक है | मुख्य कहानी है प्रो. शिवरंजन प्रसाद उनकी पत्नी रम्या इंदु और वीथिका की | रम्या इंदु एक प्रसिद्ध गायिका है , पर वो सुंदर नहीं हैं | प्रोफेसर साहब सुदर्शन व्यक्तित्व के मालिक हैं | पर उनका प्रेम विवाह है | शुरू में बेमेल से लगती इस जोड़ी के सारे तीर और तरकश प्रोफेसर के हाथ में हैं | उनकी शोध छात्रा के रूप में निबंधित वीथिका उनके सुदर्शन व्यक्तित्व के आकर्षण से अपने को मुक्त रखती पर एक समय ऐसा आता है जब .. “यह मन ही मन विचार कर रही थी कि उनका स्पर्श उसे अवांछित क्यों नहीं लग रहा है |ऐसा क्यों लग रहा है मानो यही व्यक्ति इसके कामी हैं ? उपन्यास की सबसे खास बात है रम्या इंदु की सोच और उनका व्यवहार | अपने पति का स्वभाव जानते हुए वो दोष वीथिका को नहीं देती | “मेरा पति छीन लिया” का ड्रमैटिक वाक्य नहीं बोलती वरण उसका साथ देते हुए कहती हैं … “वीथिका मैं तुम्हें इतना बेवकूफ नहीं समझती थी | तुम इन पुरुषों के मुललमें में पड़ जाओगी मुझे जरा भी गुमान नहीं था | वरना मैं तुम्हें समझा देती | मैं इनके फिसलन भरे आचरण को खूब जानती हूँ |” वीथिका, एक अनब्याही माँ, की पीड़ा से पाठक गहरे जुड़ता जाता है जो वायु की तरह अपने बेटे के आस -पास तो रहती है पर मौसी बन कर | समाज का तान बाना उसकी स्वीकारोक्ति में रुकावट है पर जीवन भर प्यासी रहने का चयन उसका है | उसके पास कई मौके आते है अपने जीवन को फिर से नए सिरे से सजाने सँवारने के पर उसके जीवन का केंद्र बिन्दु उसका पुत्र है .. जिसके होते हुए भी वो अकेली है | “जिंदगी बार -बार अकेला करती है, फिर जीवन की ओ लौटा लाती है |” इस कहानी के समानांतर निधि और श्यामल की कथा है | जाति -पाती के बंधनों को तोड़ एक ब्राह्मण कन्या और हरिजन युवक का विवाह और सुखद दाम्पत्य है | बदलते समाज की आहट की है, जी सुखद लगती है | अंत में मैं यही कहूँगी की आदरणीय उषा किरण खान दी की लेखनी अपने प्रवाह किस्सागोई और विषय में गहनता के कारण पाठकों को बांध लेती है | कहानी के साथ बहते हुए ये छोटा और कसा हुआ उपन्यास स्त्री के स्त्री के लिए खड़े होने को प्रेरित करता है | वातभक्षा -उपन्यास लेखिका – पद्मश्री उषा किरण खान प्रकाशक – रूदरादित्य प्रकाशन पेज -94 मूल्य – 195 अमेजॉन लिंक –https://www.amazon.in/…/Ush…/dp/B09JX1K8LK/ref=sr_1_6… समीक्षा -वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……. जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ आपको समीक्षात्मक लेख “उषाकिरण खान जी का उपन्यास वातभक्षा – स्त्री की शक्ति बन खड़ी हो रही स्त्री” कैसा लगा ? हमें अपने विचारों से अवश्य परिचित करवाए | अगर आप को अटूट बंधन की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया साइट सबस्क्राइब करें व अटूट बंधन फेसबुक पेज लाइक करें |