जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा

जीते जी इलाहाबाद

यात्रीगण कृपया ध्यान दे .. अब से ठीक कुछ लम्हों बाद हम एक अनोखी यात्रा पर जा रहे हैं | इस यात्रा की पहली खास बात यह है की आप जिस भी देश में, शहर में, गाँव में बैठे हुए हैं वहीं से आप इस यात्रा में शामिल हो सकते हैं |यूँ तो नाम देखकर लग सकता है की ये यात्रा इलाहाबाद  की यात्रा है जो एक समय शिक्षा का साहित्य का और संस्कृति का केंद्र रहा है | गंगा, जमुना और सरस्वति की तरह इस संगम को भी जब वरिष्ठ लेखिका ममता कालिया जी अपनी किताब “जीते जी इलाहाबाद में लेकर आती हैं तो इलाहाबादी अमरूदों की तरह उसकाई खास खुशबू, रंगत और स्वाद समाहित होना स्वाभाविक ही है | जीते जी इलाहाबाद —-ममता कालिया जी के संस्मरणों के साथ अनोखी यात्रा  एक ही किताब में ये संस्मरणात्मक यात्रा महज इलाहाबाद की यात्रा नहीं है | ये यात्रा है  आधुनिक हिंदी साहित्य के बेहद जरूरी पन्नों की, ये यात्रा है  उस प्रश्न की, की क्यों हमारे बुजुर्ग हमारे घर आने पर वो अपनापन महसूस नहीं कर पाते और चार दीवारी के अंदर अपना शहर तलाशते रहते हैं, ये यात्रा है  इलाहाबाद की लोक कला और गंगा जमुनी संस्कृति की, ये यात्रा थी चौक, रानी मंडी, मेहदौरी की, ये यात्रा थी भावनाओं की, ये यात्रा थी तमाम उन विस्थापितों की जो दूसरे शहर या देश में रोटी के कारण बस तो जाते हैं पर उनके सीने में उनका छोटा गाँव या शहर दिल बन के धड़कता रहता है | तभी तो ममता कालिया दी “आमुख” में लिखती हैं कि.. “शहर पुड़िया में बांधकर हम नहीं ला सकते साथ, किन्तु स्मृति बन के वो हमारे स्नायु तंत्र में, हूक बनकर हमारे हृदय तंत्र में, और दृश्य बनकर आँखों के छविगृह में चलता फिरता नजर आता है |” “शहर छोड़ने से छूट नहीं जाता, वह खुशब, ख्याल और ख्वाब बन कर हमारे अंदर बस जाता है|” मन का अपना ही एक संसार होता है .. जहाँ आप शरीर से होते हैं वहाँ हो सकता है आप पूरे ना हों पर जहाँ आप मन से होते हैं वहाँ आप पूरे होते हैं |  कोई भी रचना कालजयी तब बनती है जब लेखक अपने दर्द से पाठक के किसी दर्द को छू लेता है | वहाँ द्वैत का भेद खत्म हो जाता है, लेखक -पाठक एक हो जाते हैं .. और रचना पाठक की रचना हो जाती हैं | जो लोग इलाहाबाद में रह रहे हैं या कभी रहे हैं वो उन नामों से जुड़ेंगे ही पर ये किताब हर विस्थापित का दर्द बयान करती है | एक बहुत ही सार्थक शीर्षक है “जीते जी इलाहाबाद” | जब तक जीवन है हमारा अपना शहर नहीं छूटता | शरीर कहीं भी हो, मन वहीं पड़ा रहता है | जैसे ममता दी का रहता है, कभी संगम के तट पर, कभी 370, रानी मंडी में कभी गंगा -यमुना साप्ताहिक अखबार में, कभी मेहदौरी के दीमक लगे सागौन के पेड़ में और कभी एक दूसरे को जोड़ते साहित्यिक गलियारों में|जैसे वो घोषणा कर रही हों की जीवन में वो कहीं भी रहें मन से इलाहाबाद में ही रहेंगी | किताब में ही एक घटना का वर्णन है …. ममता दी लिखती हैं कि, “अरे वे हरे चने कहाँ गए ताजगी से भरे ! यहीं तो रखे हुए थे, मैं तोड़ कर छील कर खा रही थी…. इलाहाबाद मेरे लिए यूटोपिया में तब्दील होता जा रहा है | वह गड्ढों-दु चकों से भर ढचर ढूँ शहर जहँ कोई ढंग की जीविका भी नहीं जुटा पाए हम, आज मुझे अपने रूप रस गंध और स्वाद से सराबोर कर रहा है | कितने गोलगप्पे खाए होंगे वहाँ, और कितनी कुल्फी| कितनी बार सिविल लाइंस गए होंगे |” मैंने इन पंक्तियों को कई बार पढ़ा | क्योंकि  ये पंक्तियाँ शायद हर विस्थापित की पंक्तियाँ हैं | मेट्रो शहर सुविधाओं के  मखमली कालीन के नीचे य हमारे “हम को तोड़ कर “मैं” बना देते है | जो कोई भी छोटे शहर से किसी मेट्रो शहर की यात्रा करता है वो इस बात का साक्षी होता है | वो बहुत दिन तक इस “हम” को बचाए रखने की कोशिश करता है पर अंततः टूट ही जाता है | हर मेट्रो शहर का स्वभाव ही ऐसा है | समाज के बाद घर के अंदर पनपते इस “मैं”को “हम” में बचाए रखने की जद्दोजहद शायद हर विस्थापित ने झेली है | मशीन सी गति पर दौड़ता ये शहर हमें थोड़ा सा मशीन बना देता है | मुझे कभी -कभी w w Jacobs की कहानी “The Monkey’s Paw” याद आती है | एक विश पूरी करने पर एक सबसे प्रिय चीज छिन जाएगी | और ना चाहते हुए भी भावनाएँ चढ़ा हम तनख्वाह घर लाते हैं | ममता दी लिखती है, “अपने शहर का यही मिजाज था, तकल्लुफ ना करता था, ना बर्दाश्त करता |इसलिए इलाहाबादी इंसान जितना अच्छा मेजबान होता है उतना अच्छा मेहमान नहीं | एक यात्रा उम्र की भी होती है, जब पता चलता है कि हमारे बुजुर्ग जो बात आज हमसे कह रहे हैं उसका अर्थ हमें 20 साल बाद मिलेगा | जैसा ममता दी लिखती हैं कि, “आज मैं समझ सकती हूँ चाई जी की शिकायत और तकलीफ क्या थी |उनके लिए पंजाब देश था और यू पी परदेश| वे मन मार कर इलाहाबाद आ गईं थीं पर उनकी स्मृतियों का शहर जालंधर उनके अंदर से कभी उखड़ा ही नहीं | उनकी तराजू में हमारा शहर हार जाता |” सांस्कृतिक यात्रा के साथ ममता दी इलाहाबाद के इलाकों में तो ले ही जाती हैं इलाहाबाद के नाम पर भी चर्चा करती हैं | इलाहाबाद से प्रयागराज नाम हो जाने का भी जिक्र है | प्रयाग यानी ऐसी भूमि जिस पर कई यज्ञ हो चुके हों | वो संगम क्षेत्र है | और ‘इलाहाबाद’ लोगों के दिलों में धड़कता हुआ | प्रयाग वानप्रस्थ है तो इलाहाबाद गृहस्थ | अकबर ने कभी जिसका नाम अलाहाबाद किया था वो वापस इलाहाबाद में बदल गया | इस किताब से एक अनोखी जानकारी मिली की इलाहाबाद शब्द इलावास. से आया है | इलावस .. . संसार में बेटी के नाम पर बसा लगभग अकेला शहर … Read more

अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ

अंतर्ध्वनि

लय, धुन, मात्रा भाव जो, लिए चले है साथ दोहा रोला मिल करें, छंद कुंडली नाद छंद कुंडली नाद, लगे है मीठा प्यारा सब छंदों के बीच, अतुल, अनुपम वो न्यारा ज्यों शहद संग नीम, स्वाद को करती गुन-गुन जटिल विषय रसवंत, करे छंदों की लय धुन वंदना बाजपेयी दोहा और रोला से मिलकर बने, जहाँ अंतिम और प्रथम शब्द एक समान हो .. काव्य की ये विधा यानी कुंडलियाँ छंद मुझे हमेशा से आकर्षित करते रहे हैं | इसलिए आज जिस पुस्तक की बात करने जा रही हूँ, उसके प्रति मेरा सहज खिंचाव स्वाभाविक था| पर पढ़ना शुरू करते ही डूब जाने का भी अनुभव हुआ | तो आज बात करते हैं किरण सिंह जी द्वारा लिखित पुस्तक “अंतर्ध्वनि” की | अंतर्ध्वनि-हमारे समकाल को दर्शाती सुंदर सरस कुंडलियाँ लेखिका -किरण सिंह जानकी प्रकाशन द्वारा प्रकाशित एक बेहद खूबसूरत कवर के अंदर समाहित करीब दो सौ कुंडलियाँ कवयित्री के हृदय की वो अंतर्ध्वनि है जो हमारे समकाल से टकराकर उसके हृदय को ही गुंजायमान नहीं करती अपितु पाठक को भी आज के समय का सत्य सारस सुंदर तरीके से समझा कर कई नई परिभाषाएँ गढ़ती है | अपनी गेयता के कारण कुंडलियाँ छंद विधा जितनी सरस लगती है उसको लिखना उतना ही कठिन है | वैसे छंद की कोई भी विधा हो, हर विधा एक कठिन नियम बद्ध रचना होती है | जिसमें कवि को जटिल से जटिल भावों को नियमों की सीमाओं में रहते हुए ही कलम बद्ध करना होता है | ये जीवन की जटिलता थी या काव्य की, जिस कारण कविता की धारा छंदबद्ध से मुक्त छंद की ओर मुड़ गई | कहीं ना कहीं ये भी सच है की मुक्तछंद लिखना थोड़ा आसान लगने के कारण कवियों की संख्या बढ़ी .. लेकिन प्रारम्भिक रचनाएँ लिखने के बाद समझ आता है की मुक्त छंद का भी एक शिल्प होता है जिसे साधना पड़ता है | और लिखते -लिखते ही उसमें निखार आता है | अब प्रेम जैसे भाव को ही लें .. कहत, नटत, रीझत, खिझत, मिलत, खिलत, लजि यात। भरे भौन मैं करत हैं, नैननु ही सब बात॥ बिहारी —— प्यार किसी को करना लेकिन कह कर उसे बताना क्या अपने को अर्पण करना पर और को अपनाना क्या हरिवंश राय बच्चन ——– चम्पई आकाश तुम हो हम जिसे पाते नहीं बस देखते हैं ; रेत में आधे गड़े आलोक में आधे खड़े । केदारनाथ अग्रवाल तीनों का अपना सौन्दर्य है | पर मुक्त छंद में भी शिल्प का आकाश पाने में समय लगता है और छंद बद्ध में कई बार कठिन भावों को नियम में बांधना मुश्किल | जैसा की पुस्तक के प्राक्कथन में आदरणीय भगवती प्रसाद द्विवेदी जी रवींद्र उपाध्याय जी की पंक्तियाँ के साथ कहते हैं की तपन भरा परिवेश, किस तरह इसको शीत लिखूँ जीवन गद्ध हुआ कहिए कैसे गीत लिखूँ ? “मगर इस गद्य में जीवन में छंदास रचनाओं की जरूरत शिद्दत से महसूस की जा रही है, जो कभी पाठक को आंदोलित करे तो कभी अनुभूतिपरक मंदिर फुहार बन शीतलता प्रदान करे |” शायद ऐसा ही अंतरदवंद किरण सिंह जी के मन में भी चल रहा होगा तभी बिहार हिंदी साहित्य सम्मेलन के अध्यक्ष श्री अनिल सुलभ जी के छंद बद्ध रचना लिखने को प्रेरित करने पर उन्होंने छंद बद्ध रचना को विवहित और छंद मुक्त रचना को लिव इन रेलेशन शिप की संज्ञा देते हुए एक बहुत खूबसूरत कविता की रचना की है | जिसे “अपनी बात” में उन्होंने पाठकों से साझा किया है | लिव इन रिलेशनशिप भी एक कविता ही तो है छंद मुक्त ना रीतिरिवाजों की चिंता न मंगलसूत्र का बंधन न चूड़ियों की हथकड़ी न पहनी पायल बेड़ी खैर ! किरण सिंह जी की मुक्त छंद से छंद बद्ध दोहा , कुंडली, गीत आदि की यात्रा की मैं साक्षी रही हूँ और हर बार उन्होंने अपनी प्रतिभा का लोहा पाठकों को मनवाया है | भाव प्रवणता और भाषा दोनों पर पकड़ इसमें उनकी सहायक बनी है | इस पुस्तक की शुरूआत “समर्पण” भी लेखक पाठक रिश्ते को समर्पित एक सुंदर कुंडलिया से की है | लेखक पाठकों की भावनाओं को शब्द देता है और पाठक की प्रतिक्रियाएँ उसे हर्षित हो कर बार -बार शब्द संसार रचने का साहस , देखिए तेरा तुझको अर्पण वाला भाव …. अर्पित करने मैं चली, लेकर अक्षर चंद | सज्ज हो गई भावना, बना पुन: नव छंद | बना पुन :नव छंद, लेखनी चली निरंतर | मुझको दिया समाज हमेशा नव -नव मंतर | देती है सो आज , किरण भी होकर हर्षित | रचनाओं का पुष्प गुच्छ है तुमको अर्पित || शुरुआती पृष्ठों पर प्रथम माता सरस्वती की आराधना करते हुए अन्य देवी देवताओं को प्रणाम करते हुए उन्होंने सूर्यदेव से अपनी लेखनी के लिए भी वरदान मांगा है .. लेकिन यहाँ व्यष्टि में भी समष्टि का भाव है | हर साहित्यकार जब भी कलम उठाता है तो उसका अभिप्राय यही होता है की जिस तरह सूर्य की जीवनदायनी किरणें धरती पर जीवन का कारक हैं उसे प्रकार उसकी लेखनी समाज को दिशा दे कर जीवन की विद्रूपताओं को कुछ कम कर सके , चाहे इसके लिए उसे कितना भी तपना क्यों ना पड़े | मुझको भी वरदान दो, हे दिनकर आदित्य | तुम जैसा ही जल सकूँ, चमकूँ रच साहित्य | चमकूँ रच साहित्य, कामना है यह मेरी | ना माँगूँ साम्राज्य, न चाहूँ चाकर चेरी | लिख -लिख देगी अर्घ्य किरण, रचना की तुमको | कर दो हे आदित्य, तपा कर सक्षम मुझको || अभी हाल में हमने पुरुष दिवस मनाया था | वैसे तो माता पिता में कोई भेद नहीं होता पर आज के पुरुष को कहीं ना कहीं ये लगता है की परिवार में उसके किए कामों को कम करके आँका जाता है | यहाँ पिता की भूमिका बताते हुए किरण जी बताती है कि बड़े संकटों में तो पिता ही काम आते हैं | मेरा विचार है की इसे पढ़कर परिवार के अंदर अपने सहयोग को मिलने वाले मान की पुरुषों की शिकायत कम हो जाएगी … संकट हो छोटा अगर, माँ चिल्लाते आप आया जो संकट बड़ा, कहें बाप रे बाप | कहें बाप रे बाप, बचा लो मेरे दादा | सूझे … Read more

वो फोन कॉल-मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती कहानियाँ

वो फोन कॉल

अटूट बंधन की संपादक ,बेहद सक्रिय, संवेदनशील साहित्यकार वंदना बाजपेयी जी का दूसरा कहानी संग्रह “ वो फोन कॉल” भावना प्रकाशन से आया है।इस संग्रह में कुल 12 कहानियाँ हैं। आपकी तीन कहानियाँ “वो फोन कॉल, दस हजार का मोबाईल और “जिंदगी की ई. एम. आई” पढ़ते हुये “मार्टिन कूपर” याद आये। तीनों कहानियाँ में मोबाइल ही प्रमुख पात्र है या परिवेश में मौजूद है। “वो फोन कॉल” में मोबाइल जिंदगी बचाने का माध्यम बना है तो “जिंदगी की ई.एम.आई” में किसी को मौत के मुहाने तक ले जाने का बायस भी वही है। वहीं “दस हजार का मोबाइल” कहानी में मद्धयमवर्गीय जीवन के कई सपनों की तरह ही महंगा मोबाइल भी किस तरह एक सपना बन कर ही रह जाने की कथा है।“दस हजार का मोबाइल” लाखों मद्धयमवर्गीय परिवारों की एक सच्ची और यथार्थवादी कथा है। मानवीय संबंधों के ताने-बाने बुनती- “वो फोन कॉल” मोबाइल के जनक “मार्टिन कूपर” ने जब मोबाइल का अविष्कार किया होगा तो कल्पना भी नहीं की होगी की इक्सवीं सदी में आम से लेकर खास और भारत के गांव से लेकर विदेशों तक फोन कॉल लोगों के मानसिक, अद्ध्यात्मिक , वैवसायिक और राजनैतिक जीवन में इंटरनेट से जुडते ही संचार क्रांति की अविस्मरणीय आमूल-चूल परिवर्तन का वाहक साबित होगा। मोबाइल इंटरनेट के साथ संचार माध्यम का सबसे सस्ता और अतिआवश्यक जरुरत साबित होगा।वैसे देखा जाये तो मोबाइल से लाभ ज्यादा और नुकसान कम ही हुये हैं। बहुत पीछे नहीं अभी का ही लेखा-जोखा लेकर बैठे तो वैश्विक महामारी “कोरोना “और उसके पश्चात लॉकडाउन में लोगों के बीच मोबाइल इंटनेट किसी वरदान की तरह ही काम आया। कोरोना के अप्रत्याशित हमले से घबड़ायी- पगलाई और भयभीत दुनिया ने फोन कॉल्स और सोशल मीडिया के द्वारा एक-दूसरे की खूब मदद की और एक-दूसरे के हृदय में समयाये मृत्यु के भय और अकेलापन को दूर किया। कनाडाई विचारक मार्क्स मैकलुहान ने जब अपनी पुस्तक “अंडरस्टैंडिंग मीडिया” (1960) में” ग्लोबल विलेज” शब्द को गढ़ा था उस वक्त किसी ने कल्पना भी नहीं कि होगी इस दार्शनिक की ग्लोबल विलेज की अवधारणा इतनी दूरदर्शी साबित होगी।और वाकई में 21वीं सदी में दुनिया मोबाइल-इंटरनेट के तीव्र संचार माध्यम के कारण ग्लोबल विलेज में बदल जायेगी। एक क्लिक पर दुनिया के किसी कोने में बैठे व्यक्ति से मानसिक तौर पर जुड़ जायेंगे। मैकलुहान की ग्लोबल विलेज की अवधारणा दुनिया भर में व्यक्तिगत बातचीत और परिणामों को शामिल करने के साथ लोगों की समझ पर आधारित था।इंटरनेट के आने के बाद (1960 के दशक इंटरनेट आ चुका था ।) शीत युद्ध के दौरान गुप्त रूप से बहुत तेज गति से सूचनाओं के आदान प्रदान करने की आवश्यकता हुई । अमेरिका के रक्षा विभाग ने अपने सैनिकों के लिए इसका आविष्कार कर किया था) साइबर क्राइम और ट्रोलिंग की नई संस्कृति ने मानसिक तनाव भी खूब दिये।बरहाल मोबाइल और इंटरनेट की अच्छाइयाँ और बुराइयाँ गिनने लगे तो कई पन्ने भर जायेंगे। और मोबाइल और मास मीडिया पर निबंध लिखने की कोई मंशा नहीं है मेरी। लेखिका की पहली कहानी “वो फोन कॉल” जो संग्रह का शीर्षक भी बना है ।इस शीर्षक से मैंने अनुमान किया था, कोई संस्पेंस से भरी थ्रीलर कहानी होगी। संस्पेंस तो है पर यह कोई जासूसी कहानी नहीं है। यह समाजिक अवधारणायों पर विचार- विमर्श तैयार करती, जीवन संघर्ष के लिए मजबूत करती मानवीय संबंधों की भावनात्मक सच्ची सरोकारों की कहानी है। एक ऐसे व्यक्ति की कहानी है। जो हमारे आस-पास है। उसे हमारी जरुरत है पर हम उसे नहीं जानते। या हमें समय ही नहीं है उसे जानने की। या जान भी गये तो उसकी सच्चाई को स्वीकार करने का मनोबल नहीं है। अपनी रुढीगत अवधारणाओं को तोड़ कर ही उसकी पीड़ा को समझ सकते हैं। “वो फोन कॉल” पाठक को जीवन संघर्ष को स्वीकार करने की प्रेरणा देती है। प्रकृति सबको समान रुप से देखती है। वह विभिन्नता के कारण किसी को कम या ज्यादा नहीं देती है। अपने ऊपर सबको समान अधिकार देती है। मनुष्य ही है जो विभिन्नता को अवगुण समझ भेद-भाव करता है।“ वो फोन कॉल” इस विमर्श को सधे शब्दों में पूरजोर तरीके से उठाती है। “वो फोन कॉल” में जहाँ मोबाइल एक अनजान व्यक्ति की जिंदगी बचाने के काम आता है। मानवीय संवेदनाओं और संबंधों की नई खिड़की भी खोलता है। “ जिंदगी की ई. एम.आई”में उसी मोबाइल इंटनेट के विकृत चेहरे और संबंधों में आई तकनीकी कठोरता के कारण सहज संबंधों से दूर जटिल उलझन भरे रास्तों पर जाते हुये देखा जा सकता है। किंतु कहानी के पात्र भाग्यशाली हैं।समय रहते भटके हुये रास्तों से अपने मूल जड़ों की ओर उनकी वापसी हो जाती है। किंतु आम जीवन में सबका भाग्य साथ दे। जरुरी नहीं है। शहरी दंपत्ति अपने महंगे फ्लैट की ई एम आई भरने के लिए 24 घन्टे तनाव भरी जिंदगी जीते हैं और अपने बच्चे को अकेला छोड़ देते हैं जिसकी वजह से वह हत्यारिन ब्लू व्हेल गेम के चक्रव्यूह में फंस जाता है। बड़े- बुजुर्ग हमेशा कहते हैं-“ जैसा अन्न वैसा मन”।खान-पान की शुचिता कोई रुढीगत अवधारणा नहीं बल्कि वैज्ञानिक सोच इसके पीछे रही है। समय के साथ इस परंपरागत अवधारणा में छूत-छात जैसी मैल पड़ गई थी। किंतु मूल भाव यही था कि ईमानदारी से मेहनत करें, किसी प्रकार की चलाकियाँ न करें,किसी कमजोर को सताये नहीं। और ईमानदारीपूर्वक कमाये धन से जीवन चलाये ।तभी तन और मन दोनों स्वस्थ रहेंगे।“ प्रेम की नयी वैराइटी” कहानी इस कथन की सार्थकता को बहुत ही सुंदर और वैज्ञानिक तरीके से कहती है। आज प्रेम संबंध मोबाइल की तरह हर एक-दो साल में बदल जाते हैं। आधुनिक प्रेमी किसी एक से संतुष्ट नहीं है। वह नये एडवेंचर के लिए नये रिश्ते बनाता है। कुछ नया , कुछ और बेहतर की तलाश में भटकता रहता है। संबंधों की शुचिता उसके लिए पुरातन अवधारणा है। वह आज अपना औचित्य खोता जा रहा है। इसतरह की बेचैनी- भटकाव कहीं न कहीं अत्यधिक लाभ के लिए अप्राकृतिक तरीके से फलों- सब्जियों और अन्न का उत्पादन और आमजन द्वारा उसका सेवन करने का परिणाम है। मन की चंचलता। अस्थिरता। असंतुष्टी की भावना। संवेदनहीनता।अत्यधिक की चाहना।महत्वकांक्षाओं की अंधी दौड़ में शामिल होकर दौड़े जा रहे हैं।सिर्फ एक व्यक्ति नहीं, एक परिवार नहीं आस-पास का … Read more

देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ

देह धरे को दंड

  इंसान ने जब  जंगल से निकल कर जब सभ्य समाज की स्थापना की तो विवाह परंपरा की भी नीव रखी, ताकि परिवार और समाज नियम और कायदों का वहन करते हुए सुचारु रूप से चल सके | इसके पीछे मुख्य रूप से घर के बुजुर्गों और बच्चों का हित देखा गया , परिवार की व्यवस्था देखी  गई |  अगर हिन्दू परंपरा की बात करें तो  धीरे -धीरे आनुवंशिकी का ज्ञान होने पर समगोत्री विवाह भी वर्जित किये गए | सगे रक्त संबंधों में विवाह या  संबंध सिर्फ वर्जित ही नहीं किये  गए बल्कि पाप की दृष्टि से देखे गए | जैसे पिता-पुत्री, माँ -बेटा, ससुर-बहु,साली-जीजा, देवर भाभी आदि | फिर भी ये कम स्तर पर ही सही, चोरी छिपे ही सही, संबंध बनते रहे  .. इसे क्या कहा जाए की तरह तरह से संस्कारित पीढ़ी दर पीढ़ी के बावजूद मनुष्य के अंदर थोड़ा सा जंगल कहीं बचा हुआ है .. किसी खास पल में, किसी  खास स्थिति में उसकी देह में उग आता है , जहाँ सारे नियम सारी वर्जनाएँ टूट जाती हैं और रह जाती  है सिर्फ देह  और उसकी भूख | क्या यही “देह धरे को दंड” है ? देह धरे को दंड -वर्जित संबंधों की कहानियाँ   ग्रीक मइथोलॉजी  में भी ईडीपस की कथा है .. जिसमें  अपने संबंध से अपरिचित माँ और पुत्र का विवाह जानकारी होने पर एक त्रासदी में बदलता है | जहाँ माँ आत्महत्या कर लेती है और पुत्र अपनी आँखें फोड़ लेता है | पुराणों में भी ऐसी कथाएँ हैं | हालांकि पुराण हो या कहीं की माइथोलॉजी उन्हें साक्ष्य  के तौर पर प्रस्तुत नहीं किया जा सकता है| हालंकी वो हमें बड़ी सुविधाजनक स्थिति में जरूर रखते हैं |हम जब चाहे उन्हे मिथक मान कर कहानी को अपनी तरह , अपनी भाषा में  प्रस्तुत कर दें और जब चाहें उन्हें तर्क के दौरान साक्ष्य के रूप में प्रस्तुत करें | साक्ष्य हों या ना हों  पर कहीं ना कहीं वो इस ओर ईशारा अवश्य करते हैं की लिखने वाले ने अपने समकालीन समाज में ऐसा कुछ अवश्य देखा होगा,जिसे उसने तथाकथित कापनिक आदि पुरुष या देवी देवताओं पर लिख कर उस पर सत्य की मोहर लगाने का  प्रयास  किया |आखिर कार चेतना और देह के मिश्रण बने जीव पर जब तब देह हावी हो जाती रही है | और इसी विचलं नैन, मिथकीय चरित्रों से लेकर  अब तक और विश्व साहित्य से हिन्दी साहित्य तक ऐसी कहानियाँ लिखी गई हैं | जिनमें कई के उदाहरण सपना जी अपने संपादकीय में देती हैं | सपना जी लिखती हैं की “साहित्य में वर्जित या अश्लील कुछ भी नहीं होता |लेकिन साहित्य अखबार में छपी किसी खबर या चटपटी रिपोर्टिंग भी नहीं है |बड़ी से बड़ी बात को भाषा, शिल्प के कौशल से ग्राह्य बनाना ही लेखक की कसौटी है |”   वास्तव में ये कहानियाँ सकरी पगडंडी पर चली है | हर लेखक ने संतुलन बना कर चले का प्रयास किया है | इनमें से कई  कहानियाँ मन में चुभती और गड़ती हैं , प्रश्न पूछती हैं की आखिर सभ्य सामज के लिबास के अंदर ये जंगली बर्बर पशु कब और कैसे बस देह बन जाता है.. आदिम देह, अपनी आदिम भूख के साथ | मेरे अनुसार इस संग्रह की कहानियों को तीन हिस्सों में बाँटा जा सकता है |   1) एक वो जो इसकी विभीषिका दिखाते हुए कहीं ना कहीं इसका लॉजिक भी ढूँढने का प्रयास करती हैं | जाहिर  हैं इनमें एकदम निकट के या कहे सगे रक्त  संबंध नहीं आते | और कहीं ना कहीं ये संबंध दोनों की इच्छा से बने हैं |   2)  कुछ कहानियाँ  शब्दों में ढाला गया दर्द और कलम से उकेरे गए आँसू है | यहाँ एक शोषक है और एक शोषित ….जहाँ दुनिया के कुछ सुंदर रिश्ते इतने कलंकित हो गए हैं की अवसाद और निराशा के सिवा कुछ नहीं बचता  | 3) कुछ कहानियाँ इसके गंभीर परिणाम की ओर इशारा करती हैं |   मंटो की कहानी “किताब का खुलासा” एक दुबली पतली लड़की विमला की कहानी है |जो अक्सर लड़कियों के झुरमुट में गुम हो जाया करती | अनवर से उसका वास्ता उसके यहाँ किताब माँगने से है .. वो उसे कुछ बताना चाहती है |पर जिंदगी भी तो एक किताब ही है जो अक्सर बंद ही रह जाती है .. या फिर खुलती भी है तो उस समय जब उसे पढ़ना ही बेमानी हो जाता है |   “खिड़की के साथ लग कर उसने नीचे बड़ी बदरू की तरफ देखा और फिर अनवर से कहा, “जो मैं ख ना सकी और तुम समझ ना सके अब कहने और समझने से बहुत पार चला गया है ….तुम जाओ मैं सोना चाहती हूँ |”   देवर या जेठ के साथ विधवा स्त्री का अक्सर विवाह करा दिया जाता है | पर संबंधों में रहते हुए ये धोखा है, फरेब है बेवफाई है | फिर क्यों बन  जाते हैं ऐसे रिश्ते | ये कहानियाँ उन परिस्थितियों को खंगालती हैं |  सुभाष नीरव जी द्वारा पंजाबी से अनूदित प्रेम प्रकाश  जी की कहानी “हेड लाइन” मरते हुए पुत्र समान देवर को बचाने में लांघी गई लक्ष्मण रेखा है |   सुधा ओम  ढींगरा जी की कहानी “विकल्प” एक ऐसी परिस्थिति  पर है जब परिस्थितियाँ कोई विकल्प ना छोड़े और पूरा परिवार मिल कर ये फैसला ले | इस जटिल स्थिति के वैज्ञानिक कारण उन्होंने दिए हैं | पर प्रश्न वही है की क्या हर स्त्री इस कदम के लिए तैयार हो सकती है ? जेठानी पर अंगुली उठाने वाली देवरानी  इस जटिल स्थिति को जान कर स्वयं  क्या फैसला लेगी ?   वरिष्ठ लेखक  “रूप सिंह चंदेल” जी की कहानी “क्रांतिकारी” युवा क्रांतिकारी  विचार रखने वाले शांतनु और उसकी पत्नी शैलजा की कहानी है | विस्तृत फलक की ये  कहानी में छात्र राजनीति, अपराधियों का पनाहगार बने जेनयू हॉस्टल, घोस्ट  राइटिंग, नौकरी पाने के लिए की गई जी हजूरी और शांतनु की दिल फेंक प्रवत्ति सब को अपने घेरे में लेती है | अंततः ये क्रांति भी बिन बाप की बेटी के नौकरी पाने की विवशता में  रिश्तों के समीकरण को उलटते हुए देह के फलक पर सिमिट जाती  है | … Read more

दूसरी पारी – समीक्षा

दूसरी पारी

कुछ दिनों पहले एक साझा संस्मरण संग्रह ‘दूसरी पारी’ मेरे हाथ आई थी। समयाभाव या अन्य कारणों से पढ़ने का मौका नहीं मिला। लेकिन जब पढ़ा तो …वह आपके सामने है। दस मिनट समय हो पढ़ने को जरूर निकालेंगे। क्योंकि यह पुस्तक सिर्फ संस्मरणों का संग्रह मात्र नहीं है, महिला लेखिकाओं ने परिवार और समाज को जीने की व्यथा: कथा का सजीव चित्रण किया है। पुस्तक जबतक आपके हाथ नहीं आती है, मेरे पढ़े को ही एक नजर देख लें। शायद हमने जो आजतक न सोचा हो, आज के बाद सोचने को मजबूर हो जाएं। अपनों के दिए दंश की गाथा: ‘दूसरी पारी’ “छोरी निचली बैठ, क्यों घोड़ी सी उछल रही है.. तन के मत चल, नीची निगाह करके चल..मुंह फाड़ के क्यों हंस रही है.. छत पे अकेली मत बैठ..दरवज्जे पे क्यों खड़ी है? फ्रॉक नीची करके बैठ।” ये पंक्तियां मेरी नहीं, अर्चना चतुर्वेदी जी की है। सत्रह महिलाओं के आत्मकथात्मक संस्मरणों का संग्रह “दूसरी पारी” की एक लेखिका का। एक लेखिका की मां, चाची, बुआ, दादी की इन नसीहतों में ही समाज का आईना है। बेटी के लिए किसी एक मां को नहीं, माओं को समझने की जरूरत है। किसी समाज को समझना हो, तो पहले उस समाज की महिलाओं को समझना होगा और महिलाओं को समझने के लिए रीति-रिवाजों और परंपराओं की जड़ों में जाना भी जरूरी है। क्योंकि भारतीय समाज की अधिकांश मध्यवर्गीय महिलाएं पुरुषों की नहीं, परंपराओं की गुलाम हैं। परंपराओं की जंजीरों से बंधी हैं। एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक परंपराओं और रीति-रिवाजों की वाहक हैं। रीति-रिवाजों और परंपराओं को निभाने का सर्वाधिकार इनके नाम सुरक्षित है। पीढ़ी-दर-पीढ़ी परिवर्तित ऐसी सत्ता की पात्रता भी उन्हीं के पास है। क्योंकि दिखने में तो लगता है कि शायद ही किसी पुरुष ने अपने घर की महिलाओं को किसी रीति-रिवाजों या परंपराओं को मानने के लिए बाध्य किया हो। क्योंकि ऐसे कार्यों के लिए महिलाओं को महिलाएं ही प्रेरित करती रही हैं, चाहे सास हो, मां या पड़ोसन। भले ही दिखने में न लगे, लेकिन अदृश्य शक्ति के रूप में पितृसत्तात्मक समाज अपना फन काढ़े डराने को बैठा होता है और फनों का विष लिए तथाकथित पंडित और मौलबी घर-घर घूमते रहते हैं। यही कारण है माओं का अंतर्विरोध दिखाई भी नहीं देता, क्योंकि ज्यादातर महिलाएं अपने परिवार के पुरुषों के साथ ही खड़ी दिखती हैं। पुरूष पति हो, पिता या पुत्र। मतलब घर का अंतर्विरोध कभी विरोध बन ही नहीं पाता। इन लेखिकाओं के लिए बीते कल की बातों को जगजाहिर करना कितना आसान था? – ‘अपने बारे में लिखना आसान नहीं है। हमसब के अंदर बहुत कुछ छिपाने की प्रवृत्ति होती है, खासकर महिलाओं में। कभी खंगालिए अपने आसपास के औरतों के दिलों को ‘सब ठीक है’ के अंदर कितने समंदर दबे होते हैं।’… ‘अच्छी लड़कियां जुबान नहीं खोलती’- (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 143 ) इसी समंदर से कुछ सीपियां चुनने का साहस कल की कुछ स्वयंसिद्धाओं और आज की लेखिकाओं ने कर दिखाया है। सत्रह लेखिकाओं ने अपनी बात साझा करने के लिए भी साझे संग्रह का ही सहारा लिया। कारण भी इसी संग्रह की एक लेखिका से ही पूछ लेते हैं – ‘जब बाहर के रास्ते बंद हों, तो एक दूसरे का सहारा बन जाओ।….दरअसल पितृसत्ता की जड़ें इतनी गहरी होती हैं कि एक दूसरे का साथ दिए बिना खुल नहीं सकती, जो इसे समझ जाते हैं वो अपने ही नहीं, पूरे समाज में परिवर्तन के वाहक बनते हैं।’ – (मुझे बस चलते जाना है – वंदना वाजपेयी, पृष्ठ 149) वंदना जी का संस्मरण साफ तौर पर इशारा करता है कि कविता कहानी के लिए प्रेरित करने वाले पिता को अपनी बेटी के मेडिकल की परीक्षा में सफलता पर गर्व नहीं होता, उससे अधिक डॉक्टर जमाई की खोज का दुरूह कार्य सताने लगता है। पिता की इच्छा-अनिच्छा को देख सपनों को संजोए लड़की अपने चयन की खुशी का इजहार भी नहीं कर सकती, उल्टे पूरी रात तकिया भिंगोने के बाद सुबह होते ही आगे बीएससी और एमएससी की पढ़ाई के निर्णय की सूचना पिता को इस तरह देती हैं, जैसे अपने लिए चाव से बनाए गए भोजन में छिपकली गिर गई पापा, तो क्या हुआ घर में जो कुछ उपलब्ध है वही खा लेंगे, जैसा ही था। अक्सर ये छिपकलियां मेहनत से तैयार करने वाली लड़की के भोजन की थाली में ही क्यों गिरती है? किसी पुरूष की थाली में क्यों नहीं? जीवन के लिए ऐसे निर्णय पर भी पिता की आंखें नम नहीं होती(होती भी होंगी, तो दिखती नहीं), नजर सामने के समाचार पत्र से नहीं हटती, बेटी को प्रश्नवाची निगाहों से नहीं देख पाते कि ऐसा त्याग! किसके लिए और क्यों? क्योंकि पिता के लिए बेटी का डॉक्टर बनना महत्वपूर्ण नहीं था। शादी कर घर से विदा कर देना प्राथमिकता में था। लेकिन तब भी मां तटस्थ रही। पिता-पुत्री के बीच की संवेदनाओं की अनकही दीवार को गिराने में मदद को आगे नहीं बढ़ी, अगर बढ़ी होती तो शायद पिता अपनी लाडली के सपनों को ढहते हुए नहीं देखते रहते। उल्टे ‘पापा जो कह रहे हैं ठीक ही होगा’ की निश्चिंतता पितृसत्तात्मक समाज के फन का दंश नहीं तो और क्या है? कोई मां भला ऐसा क्यों चाहेगी? मां अपने पति के निर्णय के प्रति आश्वस्त हैं और पति के पेपर पढ़ने से नजर नहीं हटने की तरह वह भी अपने दैनिक कार्यों में व्यस्त है। क्या गरीबी, भुखमरी पर बाल कृष्ण शर्मा ‘नवीन’ की ‘लपक चाटते जूठा पत्तल….आग आज इस दुनिया भर को’ जैसा आक्रोश कहीं दिखा? नहीं न। फिर हम क्यों कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण है? दर्पण तो वही दिखाता है जो हम दिखाना चाहते हैं और दर्पण पुरुष सत्ता के हाथ में है। क्योंकि ऐसा थोड़े न है कि एक अकेली वंदना है, समाज की नजरों से ओझल हो गई होगी? वन्दनाओं की भरमार है। हर वन्दनाओं ने तकिया और बाथरूम को अपना साथी बनाया हुआ है। ऐसा भी नहीं है कि ये संस्मरण लिखने वाली किसी एक वंदना का दर्द है। आज भी लाखों वन्दनाएं किसी कोने में सिसकने, तकिया भिंगोने और बाथरूम में सूजे चेहरे पर पानी का छींटा मार फ्रेश होकर किचेन और घर की जिम्मेदारियों … Read more

प्रश्न चिन्ह …आखिर क्यों?…. कटघरे में खड़े मिथकीय पात्र

प्रश्न चिन्ह .. आखिर क्यों ?

    प्रश्नों से परे  कोई भी नहीं है …ना मैं, ना आप और ना ही हमारे मिथकीय पात्र | हिन्दू दर्शन की खास बात ये हैं की प्रश्नों को रोका नहीं गया है अपितु अधिक से अधिक प्रयास किया गया है की व्यक्ति प्रश्न  पूछे और उसकी जिज्ञासाएँ शांत की जाएँ | अनेक ग्रंथों की शुरुआत ही प्रश्नों से हुई है …नचिकेता के प्रश्नों से आत्मा के  गूढ़ रहस्य का ज्ञान होता है तो अर्जुन के प्रश्नों से कर्म योग का | इसलिए प्रश्न पूछे जाने का  स्वागत सदा से होता रहा है |   रामायण या महाभारत हों या अन्य ग्रंथ ऐतिहासिक/मिथकीय की स्पष्ट परिभाषों में नहीं आ पाते | प्रश्न ये भी उठता है की इनमें तारीख का जिक्र क्यों नहीं किया| जो भी उस काल के बारे में कहा गया संकेतों में कहा गया | इसका एक कारण संभवत: ये भी रहा होगा की ये कथाएँ किसी काल के क्रम में कैद ना हो जाएँ वो चरित्र केवल उस काल के चरित्र कह कर उसी दृष्टि से ना रोक दिए जाएँ वो हर युग में पहुंचे ….और उस युग के प्रश्नों का समाधान उसी की भाषा वाणी और भेष में करें |   यही कारण है की ये कथाएँ आज भी  हैं | नए प्रश्नों के साथ, नए उत्तरों के साथ | पौराणिक काल के लेखकों से अभी तक उन कथाओं को समझने और उस समय लोगों को समझाने के लिए तमाम कथाएँ, उपकथाएँ जोड़ी गईं | अब ये पढ़ने वाले के ऊपर है की उन कथाओं को अक्षरश: वही मान ले, उनकी आज के काल-क्रम के आधार पर पुनरव्याख्या करें  या तर्क से खारिज करें,पर कथाएँ शाश्वत हैं और रहेंगी क्योंकि वो हर व्यक्ति को ये प्रश्न पूछने, विचारने, खोजने की छूट देती हैं |   “सत्य को हजार तरीकों से बताया जा सकता है फिर भी हर एक सत्य ही होगा … स्वामी विवेकानंद अब प्रश्न  ये भी उठ सकता है की हम सत्य को हजार तरीके से क्यों कहते हैं? उत्तर यही है की हर व्यक्ति अपनी क्षमता व योग्यता के आधार पर उसे समझ सकता है और समझाने वाला इसी आधार पर  प्रयास करता है | मूल उद्देश्य  अटके रहना नहीं समझ कर आत्मसात करना है | प्रश्न चिन्ह …आखिर क्यों?…. कटघरे में खड़े मिथकीय पात्र कुछ ऐसे ही प्रश्नों के उत्तर जानने के लिए वंदना गुप्ता जी लेकर आई है काव्य संग्रह “प्रश्न चिन्ह…. आखिर क्यों?” यहाँ उन्होंने कुछ पौराणिक पात्रों से प्रश्न पूछ कर उन्हें उत्तर देने को विवश किया | ये प्रश्न समस्त स्त्रियों की तरफ से पूछे गए हैं और कुछ में पात्रों ने स्वयं ही अपने काल के नायकों से प्रश्न पूछे हैं तो कुछ ने स्वयमेव ही प्रश्नों के उत्तर दिए हैं | जैसे-जैसे आप संग्रह में आगे बढ़ते जाएंगे इनमें से कुछ प्रश्न आपके प्रश्न बन जाएंगे तो कई बार कुछ नए प्रश्न भी खड़े हो जाएंगे .. क्योंकि जिज्ञासाओं  का उठना और उनका समाधान कर शांत किये जाना ही मूल उद्देश्य रहा है |   पहला प्रश्न गांधारी से है जिन्होंने आँखों पर पट्टी बांधी है .. ये प्रश्न समस्त स्त्री जाति की तरफ से है की आखिर क्या कारण है की आप ये शिक्षा आज की नारियों को देती हैं की वो अपने पति के कार्यों के लिए कभी प्रश्न ना उठाए | आँखों पर पट्टी बांध कर बस रबर स्टैम्प बन कर हर गलत पर मोहर लगाती चले | गांधारी से प्रश्न एक युग चरित्र पति पारायण का खिताब पा स्वयं को सिद्ध किया बस बन सकी सिर्फ पति परायणा नहीं बन सकीं आत्मनिर्भर कर्तव्यशील भी नहीं बन सकीं नारी के दर्प का सूचक   पहले तो गांधारी अपने पक्ष में उत्तर देती हैं फिर धीरे -धीरे उनका स्वर कमजोर पड़ने लगता है | लेखिका ललकार कर कहती है ॥ जीवन के कुरुक्षेत्र में कितनी नारियां होम हो गईं तुम्हारा नाम लेकर क्या उठा पाओगी उन सबके कत्ल का बोझ लेखिका ताकीद करती है …. इतिहास चरित्र बनना अलग बात होती है और इतिहास बदलना अलग   आगे देखिए ….   क्योंकि गांधारी बनना आसान था और है मगर नारी बनना ही सबसे मुश्किल अपने तेज के साथ अपने दर्प के साथ अपने ओज के साथ   बुद्ध से प्रश्न …           बुद्ध से प्रश्न करते हुए वो पूछती है की सन्यास के लिए जाते समय यशोधरा को क्यों नहीं बता कर गए | संसार को त्याग कर सन्यास लेने वाले पत्नी के आगे क्यों कमजोर पड़ गए | बुद्ध उत्तर देते हैं …. शायद मैं ही तुम्हारे द्रण निश्चय के आगे टिक  नहीं पाता तुम्हारी आँखों में देख नहीं पाता वो सच की देखो स्त्री हूँ सहधर्मिणी हूँ पर तुम्हारी पगबाधा नहीं इसी बात को  राष्ट्र कवि मैथिली शरण गुप्त  “यशोधरा में कुछ इस प्रकार लिखते हैं … स्वयं सुसज्जित करके क्षण में, प्रियतम को, प्राणों के पण में, हमीं भेज देती हैं रण में – क्षात्र-धर्म के नाते सखि, वे मुझसे कहकर जाते। “मुक्तिबोध” शीर्षक  कविता में राम और कैकेयी की वार्ता के माध्यम से वो युग -युग से कैकेयी पर लगे आरोपों को ना सिर्फ बेआधार बताती हैं बल्कि कैकेयी को एक ऐसे वचन की रक्षा करते हुए दिखती हैं जिसके कारण कैकेयी का चरित्र  नई ऊँचाइयों को छूता है | पुनः मैथलीशरण गुप्त जी की “साकेत” में कैकेयी की मानवीय भूल दिखाई गई है | जहाँ वो इसके लिए पश्चाताप करती है | करके पहाड़ सा पाप मौन रह जाऊं? राई भर भी अनुताप न करने पाऊं?” उल्का-सी रानी दिशा दीप्त करती थी, सबमे भय, विस्मय और खेद भरती थी। और   “क्या कर सकती थी मरी मंथरा दासी, मेरा मन ही रह सका ना निज विश्वासी। यहाँ कैकेयी को नए दृष्टिकोण से देखिए .. मैंने राम को वचन दिया जीवन उसके चरणों में हार दिया अपने प्रेम कए प्रमाण दिया तो क्या गलत किया Xxxxxxxxx मैंने प्रेम में स्व को मिटाकर राम को पाया है सशक्त स्त्री उर्मिला                उर्मिला रामायण में एक उपेक्षित पात्र रहीं हैं |हालांकि वो एक सशक्त स्त्री हैं | कई लोगों ने इस बात को समझ कर उर्मिला के ऊपर लिखा हैं | प्रस्तुत संग्रह में उर्मिला स्वयं अपनी कहानी … Read more

बंद दरवाजों का शहर – आम जीवन की खास कहानियाँ

समीक्षा -बंद दरवाजों का शहर

आज बात करते हैं सशक्त कथाकार, उपन्यासकार रश्मि रविजा जी के कहानी संग्रह “बंद दरवाजों का शहर” की | यूँ तो रश्मि जी की कहानियाँ पत्र -पत्रिकाओं में पढ़ती ही आ रही थी और पसंद भी कर रही थी पर उनके पहले उपन्यास “काँच के शामियाने” ने बहुत प्रभावित किया | इस उपन्यास के माध्यम से उन्होंने साहित्य जगत में एक महत्वपूर्ण दस्तक दी | इसके बाद कई वेब पोर्टल्स पर उनके उपन्यास पढे | रश्मि जी की लेखनी की खास बात यह है की वो अपने आस -पास के आम जीवन के चरित्र उठाती है और उन्हें बहुत अधिक शब्दगत आभूषणों से सजाए बिना अपनी विशिष्ट शैली में इस तरह से प्रेषित करती हैं कि वो पाठक को अपनी जिंदगी का हिस्सा लगने लगे | इसके लिए वो कहानी की भाषा और परिवेश का खास ख्याल रखती हैं | यहाँ पर एक बात खास तौर से कहना चाहूँगी की कहानी जिंदगी का हिस्सा लगने के साथ-साथ जिंदगी में, रिश्तों में, मन में इतनी गहरी पैठ बनाती हैं कि कई बार आश्चर्य होता है की हमारे आप के घरों की चमचमाती फर्श के उजालों के के नीचे छिपे अँधेरों तक वो कैसे देख पाती हैं | वो कहानी के आलोचकों की दृष्टि से किए गए वर्गीकरण को नकार देती और वो बिना परवाह किए सीधे अपने पाठकों से संवाद करते हुए वो कहती हैं जो वो कहना चाहती है .. उनकी कहानियों में तर्क हैं, प्रेम है अवसाद है, सपने हैं तो खुशियां भी झलकती हैं और झलकता है एक कहानीकार का संवेदनशील हृदय, तार्किक दिमाग | तो आइए झाँकते हैं आकर्षक कवर से बंद इन दरवाजों के पीछे | बंद दरवाजे हमेशा से रहस्य का प्रतीक रहे हैं | आखिर कौन रहता होगा इनके पीछे ? क्या होता होगा इनके अंदर ? कैसे लोग होने वो ? बंद दरवाजों का शहर – आम जीवन की खास कहानियाँ रश्मि  रविजा संग्रह की पहली कहानी “चुभन टूटते सपनों के किरचों की” एक ऐसी कहानी है जो पढ़ने के बाद आपके दिमाग में चलती है .. बहस करती है, दलील देती है | अभी तक हम सुनते आए हैं कि “प्यार किया नहीं जाता हो जाता है” पर ये कहानी प्रेम और विवाह के बीच तर्क को स्थान देती है | प्यार भले ही हो जाने वाली चीज हो .. किसी भी कारण से हुआ आकर्षण, एक केमिकल लोचा आप कुछ भी कहें पर विवाह सोच समझ के लिया जाने वाला फैसला है | पहले ये फैसला परिवार लेता था अपनी सोच -समझ की आधार पर |फिर प्रेम विवाह होने लगे तब ये फैसला लड़का -लड़की प्रेम के आधार पर लेने लगे | जब विवाह हो जाता है तो कई साल बाद फ़र्क नहीं पड़ता कि वो प्रेम विवाह था या माता -पिता द्वारा तय किया गया | सब जोड़े एक से नजर आते हैं | विवाह की सफलता -असफलता के प्रतिशत में भी फ़र्क नहीं पड़ता | ये कहानी नई पीढ़ी के माध्यम से एक नई शुरुआत करती है .. जो प्रेम तो करती है पर प्रेम में अंधी हो कर विवाह नहीं कर लेती | विवाह के समय तर्क को स्थान देती है | यू पी बिहार से आकर मुंबई में रहने वाले एक आम माध्यम वर्गीय परिवार की दो बहनों की अलग परवरिश, अलग सोच, किसी के टूटे सपनों की किरचें, किसी के तर्क के आधार पर कहानी को इस तरह बुना है कि पाठक इसके प्रभाव से मुक्त नहीं हो पाता | इस कहानी पर फिलहाल बाल मोहन पांडे जी का शेर .. इसीलिए मैं बिछड़ने पर सोगवार नहीं सुकून पहली जरूरत है तेरा प्यार नहीं पहली कहानी के ठीक उलट दूसरी कहानी “अनकहा सच” एक मीठी सी असफल प्रेम कहानी है | जहाँ दो बच्चे (क्लास मेट) एक दूसरे से लड़ते झगड़ते हुए एक दूसरे से प्रेम कर बैठते हैं | एक तरफ उन्हें अपना प्रेम नजर आ रहा होता है और दूसरे का झगड़ा | जो उन्हें प्रेम को स्वीकार करने में बाधा डालता है | जब इस प्रेम का खुलासा होता है तब तक बहुत देर हो चुकी होती है | दोनों अपनी -अपनी जिंदगी में खुश भी रहते हैं पर पहले प्यार की ये चुभन कभी टीस बनके कभी फुहार बन के दिल में बनी ही रहती है | आज के फास्ट ट्रैक लव और ब्रेकअप के जमाने में ये कहानी पुराने जमाने के प्रेम की मिठास याद दिला देती है | हो सकता है की पाठक एक पल को सोचे क्या आज भी ऐसा होता है ? फिर खुद ही कहे हो भी तो सकता है आखिर जिंदगी है ही इतनी अलग ..इतनी बहुरंगी | दुष्चक्र कहानी जीवन के “सी-सॉ” वाले झूले के उन दो बिंदुओं को उठाती है जिनके बीच संतुलन साधना बहुत जरूरी है | ये दो बिन्दु हैं कैरियर और परिवार, खासकर बच्चे | ये कहानी एक बच्चे की कहानी है जिसके पिता बाकी परिवार के साथ उसे टेन्थ में किसी रिश्तेदार के पास छोड़कर दुबई नौकरी करने चले जाते हैं | कहानी बच्चे के ड्रग के दुष्चक्र में फँसकर ड्रग एडिक्ट बनने और रिहैब में जाकर इलाज करा कर स्वस्थ होने के साथ आगे बढ़ती है | कहानी की खास बात ये है कि ये पूरी तरह से माता -पिता के विरोध में नहीं है | बच्चे का रिस्पॉन्स भी महत्वपूर्ण है.. चाहे वो अपने नए आए भाई -बहन के प्रति हो या परिस्थितियों में बदलाव के प्रति | ये कहानी सभी के मनोविज्ञान की सीवन उधेड़ती है | तो फिर गुलजार साहब का शेर .. कहने वालों का कुछ नहीं जाता सहने वाले कमाल करते हैं “बंद दरवाजों का शहर” कहानी जिसके नाम से संग्रह का नाम रखा गया है, मेट्रो सिटीज के अकेलेपन को दर्शाती है | हम सब जो छोटे शहरों के बड़े आँगन वाले घरों से निकलकर पहली बार किसी मेट्रो शहर में रहने जाते है तो एक अजनबीयत से गुजरते हैं | यहाँ बूढ़े बुजुर्ग घर की बाहर खाट डालकर मूंगफली कुतरते नहीं मिलते ना ही दरवाजे के बाहर खेलते बच्चे, स्वेटर बुनती महिलाये | दिखता है तो बस कॉक्रीट का जंगल, ऊंची अट्टालिकाओं में ढेर सारे फ्लैट .. और उनके बाद दरवाजे … Read more

शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ 

शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ 

  नारी की काया  में प्रवेश कर कोई भी रचनाकार स्त्री की पीड़ा  को उतनी  साफगोई से व्यक्त नहीं कर सकता जितनी वाक् निपुणता से एक महिला सृजनधर्मी | फिर भी यह आवश्यक है कि यह पीड़ा उसकी झेली या भोगी हुई हो| आत्मसात की हो संत्रस्त महिला  की त्रासदी | आजकल समय के शिलाखंड पर प्रेम की अभीप्सा  से लेकर  प्रेम में छली  गई किशोरियों, परित्यक्ताओं, भुलाई हुई स्त्रियों या  खुरदरे  दाम्पत्य जीवन पर बहुत कुछ लिखा जा रहा है |इस में  भोगा और ओढ़ा हुआ दोनों हैं |विमर्शवादियों का हल्ला -गुल्ला भी | यामिनी नयन गुप्ता हिंदी कविता की  ऐसी स्थापित साहित्यधर्मी  है जो  महिलाओं के मन की उथल -पुथल,बदलती सामाजिक जीवन शैली से पैदा  हुई बेचैनी और नए समीकरणों को सशक्त स्वर दे रही हैं |उनके स्वर में छिछली भावुकता नहीं, महिलाओं के हर्ष –विषाद  की गहरी अनुभूति है| साक्षी हैं ‘शिलाएँ  मुस्काती हैं’ नामक संकलन की बासठ कविताएँ | शिलाएं मुस्काती हैं-प्रेम के भोजपत्र पर लिखीं  यामिनी नयन की कविताएँ    शिलाएं मुस्काती हैं की कविताओं में चाहे सामाजिक सरोकार हों या जीवन की निजता के  प्रश्न ; इनमें  जुड़ा है  ”प्रेम ,नेह ,और देह का त्रिकोण”|”व्याकुल मन का संगीत”  और प्रेम में पड़े होने का एहसास |”प्रेम ,नेह और देह” की इस यात्रा में कभी देह पिछड़ जाती है ‘अदेह’ को जगह देने हेतु, तो कहीं  सशक्त  साम्राज्ञी बन बैठती है (अब मैंने जाना -क्यों तुम्हारी हर आहट पर मन हो जाता है सप्तरंग\मैं  लौट जाना चाहती हूँ अपनी  पुरानी दुनिया में देह से परे —बार बार तुम्हारा आकर कह देना\यूँ ही -\मन की बात \बेकाबू जज्बात ,\मेरे शब्दोँ में जो खुशबू है \तुम्हारी अतृप्त बाँहोँ की गंध है)|  कहाँ  देह से परे की पुरानी दुनिया ,कहाँ ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ |  हर मंजर बदल गया|  छा गई प्रेम की खुमारी — (तुम संग एक संवाद के बाद \पृष्ठों पर उभरने लगती हैं \सकारात्मक कविताएँ \निखरने लगते हैं उदासी के घने साये \छा जाता है स्याह जीवन में\इंद्रधनुषी फाग)| प्रेम में डूबी स्त्री को प्रेम के अतिरिक्त और कुछ दीखता ही नहीं | वह प्रेमास्पद से नहीं, उसके प्रेम से प्रेम करती है (मुझे तुम से नहीं \तुम्हारे प्रेम से प्रेम है  \तुम खुद को -प्रेम से नहीं कर पाते हो अलग \और अर्जुन के लक्ष्य सदृश्य \मुझे दीखता है बस प्रेम )| स्त्री ”हर काल  ,हर उमर  में’  बनी रहना चाहती है प्रेयसी | वैवाहिक जीवन उसके लिए विडंबना है ,जिसमें हैं ”गृहस्थी की उलझने\पौरुष दम्भ से जूझती पति  की लालसाएँ–जबकि ये  चाहती  हैं ”कि बची रहे जीने की ख्वाइशों की जगह \यांत्रिक जीवन से परे \बनी रहे नींदों में ख्वाबोँ  की जगह ‘| नारी विमर्शवादी अनामिका कहती हैं —‘बच्चे उखाड़ते हैं/ डाक टिकट/ पुराने लिफाफों से जैसे-/ वैसे ही आहिस्ता-आहिस्ता/ कौशल से मैं खुद को/ हर बार करती हूँ तुमसे अलग”! अनामिका जी भूल गईं कि प्रेम संबंधों को जोड़ता है,उखड़ता नहीं | खटास से भरे होते हैं प्रेम विहीन सम्बन्ध | पर समय बदल रहा है|अलग कर लेना सरल हो चुका है | सुलभ हैं ‘‘मनचाहे साथी” जिनकी ” प्रेमिकाएँ \कभी बूढ़ी न हुईं \साल दर साल बीतते \वर्षों  बाद भी रहीं प्रेमी के दिल में \स्मृति में कमसिन, कमनीय\उस उम्र की तस्वीर बन कर \महकती रहेंगी वो स्त्रियां \किताबों में रखे सुर्ख गुलाब की तरह ”| सीधी बात है विवहिता स्त्री  की उलझनों से मुक्त, कमनीय जीवन बिताया जाय | फिर परिवार का क्या होगा?स्त्री पुरुष का मिलन नैसर्गिक है-कुछ नैसर्गिक आवश्यक्ताओं की पूर्ती के लिए | ‘अतृप्त बाँहोँ की गंध’ से कहीं अधिक गंधमयी सुगन्ध  से प्लावित जीवन| डॉ. पद्मजा शर्मा को दिए एक साक्षात्कार में प्रसिद्ध कथाकार साहित्यभूषण सूर्यबाला ने कहा– ”देह पर आकर स्त्री मुक्ति का सपना टूट जाता है और एवज में बाजार की गुलामी मिलती है, स्त्री को | पुरुष से मुक्ति की कामना पुरुष वर्चस्वी बाजार की दासता से आ जुड़ती है|स्वयं को वस्तु  (कमोडिटी )बनाने के विरोध को लेकर चलने वाली स्त्री आज स्वयं अपने शरीर की  सबसे अनमोल पूँजी को वस्तु (कमोडिटी )बना कर बाजार के हवाले कर रही है”| यामिनी का कवि  वस्तु  या कमोडिटी के जंजाल से बचा कर प्रेम की शुचिता को बनाए  रखना चाहता है|यद्यपि वह चूकता नहीं  प्रश्न उठाने से  — ‘‘मेरी छवि ,मेरे बिम्ब और संकेतों  में \गर तुम बांच नहीं सकते प्रेम \तो कैसा है तुम्हारा प्रेम \और कैसा समर्पण \रास  नहीं आ रहा है मुझे\तुम्हारा होकर भी ,न होने का भाव” | एक प्रश्न और –पत्नी बड़ी या प्रेमिका? |विमर्शवादी मंतव्य है कि पत्नियाँ कभी प्रेमिका नहीं बन पातीं| कंचन कुमारी कहती हैं ‘’तुम्हारी दुनियाँ में पत्नियाँ प्रेमिकाएँ नहीं होती।पत्नियाँ नहीं पहुँचती चरमसुख तक \यह हक है सिर्फ प्रेमिकाओं का\पत्नियाँ डरती है तुम्हारे ठुकराने से,\प्रेमिकाएँ नहीं डरा करती\, वहाँ  होता है विकल्प \सदैव किसी और साथी का.. अर्थात सब कुछ अस्थायी है| एक देह का चरमसुख नहीं दे पाया, तो दूसरा सही ,दूसरा नहीं तो तीसरा| प्रेम न हुआ तीहर है,जब चाही बदल ली | फिर यह कहना व्यर्थ है कि प्रेम में पड़ी स्त्री के मन में, दिल की गहराई में,उनींदी आँखोँ में हर पल हर क्षण प्रेमी की सुखद छुअन के एहसास भरे होते हैं | क्या जरूरत थी कबीर को यह कहने की ”प्रेम न बाडी  ऊपजे , प्रेम न हाट बिकाई ,राजा परजा जेहि रुचे, सीस देहि ले जाई” | शायद आयातित आधुनिकता और  बाजारी संस्कृति में बुढ़िया गए हैं कबीर | कोरोना संक्रमण से हाल ही में दिवंगत हुए जाने-माने  साहित्यकार प्रभु जोशी ने अपने  अंतिम लेख में कहा कि ” मेरा शरीर मेरा’’  जैसा  नारा” (स्लोगन) अश्लील साहित्य के व्यवसायियों की कानूनी लड़ाई लड़ने वाले वकीलों ने दिया था। उसे हमारे साहित्यिक बिरादरी में राजेन्द्र यादव  ने उठा लिया और लेखिकाओं की एक बिरादरी ने अपना आप्त वाक्य बना लिया’’। विमर्शवादी मंतव्य को स्पष्ट करते हुए कवि की कहन हैं कि पत्नियाँ के लिए ”मन चाहे स्पर्श ,आलिंगन \चरम  उत्कर्ष के वह  पल \ सदा रहे कल्पना में ही\कभी उतर नहीं पाते वास्तविकता के धरातल पर”| देहातीत संबंधों की बात सिमट कर रह जाती है चरमसुख और प्रणयी की मुलायम छुअन में | विमर्शवादियों की ऐसी बातें कवि ने बहुत ही संयत और शालीनता के साथ स्पष्ट की … Read more

अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ

अपेक्षाओं के बियाबान

    डॉ. निधि अग्रवाल ने अपने अपने पहले कहानी संग्रह “अपेक्षाओं के बियाबान” से साहित्य  के क्षेत्र में एक जोरदार और महत्वपूर्ण दस्तक दी है | उनके कथानक नए हैं, प्रस्तुतीकरण और शिल्प प्रभावशाली है और सबसे महत्वपूर्ण बात ये है कि ये कहानियाँ हमारे मन के उस हिस्से पर सीधे दस्तक देती हैं जो हमारे रिश्तों से जुड़ा है | जिन्हें हम सहेजना चाहते हैं बनाए रखना चाहते हैं पर कई बार उन्हें छोड़ भी देना पड़ता है | और तो और कभी- कभी किसी अच्छे रिश्ते की कल्पना भी हमारे जीने कि वजह बन जाती है | महत्वपूर्ण बात ये है कि लेखिका रिश्तों  की गहन पड़ताल करती हैं और सूत्र निकाल लाती हैं| इस संग्रह कि कहानियाँ  ….हमारे आपके रिश्तों  की कहानियाँ है पर उनके नीचे गहरे.. बहुत गहरे  एक दर्शन चल रहा है | जैसे किसी गहरे समुद्र में किसी सीप के अंदर कोई मोती छिपा हुआ है .. गोता लगाने पर आनंद तो बढ़ जाएगा, रिश्तों के कई पहलू समझ में आएंगे |  अगर आप युवा है तो अपने कई उनसुलझे रिश्तों के उत्तर भी मिलेंगे |   कवर पर लिखे डॉ. निधि के शब्द उनकी संवेदनशीलता और  भावनाओं पर पकड़ को दर्शाते हैं..   “दुखों का वर्गीकरण नहीं किया जा सकता| किसान फसल लुटने पर रोता है |प्रेमी विश्वास खो देने पर |दुख की तीव्रता नापने का कोई यंत्र उपलबद्ध हो तो रीडिंग दोनों की एक दिखाएगा | किसान की आत्महत्या और और प्रेमी की आत्महत्या पर समाज कि प्रतिक्रियाएँ भले ही भिन्न हों, पर जीवन और मृत्यु के बीच किसी एक को चुनने कि छटपटाहट एक जैसी होती है| पीछे छोड़ दिए गए अपनों के आंसुओं का रंग भी एक समान होता है|” अपेक्षाओं के बियाबान-रिश्तों कि उलझने सुलझाती कहानियाँ संग्रह की पहली कहानी “अपेक्षाओं के बियाबान”जिसके नाम पर संग्रह है, पत्र द्वारा संवाद की शैली में लिखी गई है | यह संवाद पाखी और उसके पिता तुल्य  दादा के बीच है | संवाद के जरिए सुखी दाम्पत्य जीवन को समझने की कोशिश की गई है | एक तरफ दादा हैं जो अपनी कोमा मेंगई  पत्नी से भी प्रेम करते हैं, संवाद करते हैं | शब्दों की दरकार नहीं है उन्हें, क्योंकि  उन्होंने सदा एक दूसरे के मौन को सुना है | वहीं पाखी है जो अपने पति से संवाद के लिए तरसती है, उसका पति जिंदगी की दौड़ में आगे -आगे भाग रहा है और वो अपेक्षाओं के बियाबान में | अपेक्षाएँ जो  पूरी नहीं होती और उसे अवसाद में घेर कर अस्पताल  तक पहुंचा देती हैं | एक छटपटाहट है, बेचैनी है .. जैसे आगे भागते हुए साथी से पीछे और पीछे छूटती जा रही है .. कोई गलत नहीं है, दोनों की प्राथमिकताएँ, वो भी अपनी ही गृहस्थी  के लिए टकरा रही है |क्या है कोई इसका हल?   “दाम्पत्य जल में घुली शक्कर है .. पर मिठास विद्धमान होती है| पर बिना चखे अनुभूति कैसे हो?   चखना जरूरी है|इसके लिए एक दूसरे को दिया जाने वाला समय जरूरी है | भागने और रुकने का संतुलन ..   “यमुना बैक की मेट्रो”  एक अद्भुत कहानी है | हम भारतीयों पर आरोप रहता है कि हम घूरते बहुत हैं| कभी आपने खुद भी महसूस किया होगा कि कहीं पार्क में, पब्लिक प्लेस पर या फिर मेट्रो में ही हम लोगों को देखकर उनके बारे में, उनकी जिंदगी के बारे में यूं ही ख्याल लगाते हैं कि कैसे है वो ..इसे अमूमन हम लोग टाइम पास का नाम देते हैं | इसी टाइम पास की थीम पर निधि एक बेहतरीन कहानी रचती हैं | जहाँ  वो पात्रों के अंतर्मन में झाँकती हैं, किसी मनोवैज्ञानिक की तरह उनके मन की परते छीलती चलती है| महज आब्ज़र्वैशन के आधार पर लिखी गई ये कहानी पाठक को  संवेदना के उच्च स्तर तक ले जाती है | कहानी कहीं भी लाउड नहीं होती, कुछ भी कहती नहीं पर पाठक की आँखें भिगो देती है |   जैसे एक टीचर है जो कौशांबी से चढ़ती है| हमेशा मेट्रो में फल खाती है | शायद काम की जल्दी में घर में समय नहीं मिलता | फिर भी चेहरे पर स्थायी थकान है | एक साँवली सी लड़की जो कभी मुसकुराती नहीं | पिछले दो महीनों में बस एक बार उसे किसी मेसेज का रिप्लाय करते हुए मुसकुराते देखा है| तनिष्क में काम करने वाली लड़की जो कभी जेवर खरीद नहीं पाती ..अनेकों पात्र, चढ़ते उतरते .. अनजान अजनबी, जिनके दुख हमें छू जा हैं | यही संवेदनशीलता तो हमें मानव बनाती है|  तभी तो ऑबसर्वर सलाह (मन में) देता चलता है | एक एक सलाह जीवन का एक सूत्र है |जैसे ..   “उतना ही भागों कि उम्र बीतने पर अपने पैरों पर चलने कि शकी बनी रहे| उम्र बढ़ने के साथ चश्मा लगाने पर भी कोई कंधा समीप नजर नहीं आता”   “अभी पंखों को बाँधें रखने पर भी पंखों को समय के साथ बेदम हो ही जाना है | वो अनंत आकाश की उन्मुक्त उड़ान से विमुख क्यों रहे”   “फैटम लिम्ब”एक मेडिकल टर्म है, जिसमें पैर/हाथ या कोई हिस्सा  काट देने के बाद भी कई बार उस हिस्से में दर्द होता है जो अब नहीं है | ये एक मनोवैज्ञानिक समस्या है| कहानी उसके साथ रिश्तों में साम्य  बनाते हुए उन सभी रिश्तों को फैन्टम लिम्ब की संज्ञा देती है जो खत्म हो चुके हैं .. पर हम कहीं ना कहीं उससे लिंक बनाए हुए उस पीड़ा को ढो रहे हैं| जो कट चुका है पर जद्दोजहद इस बात की है कि हम उसे कटने को, अलग होने को स्वीकार नहीं कर पा रहे हैं, इसलिए ढो रहे हैं | कहानी को सुखांत किया है | सुखांत ना होती तब भी अपने उद्देश्य में सफल है |   “परजीवी” स्त्रियों के मन की तहों को खोलती एक मीठी सी मार्मिक कहानी है | मीठी और मार्मिक ये दो विरोधाभासी शब्द जानबूझ कर चुने | कहानी की शुरुआत माँ कि मृत्यु पर भारत आती लड़की के माँ की स्मृतियों  में लौटने से शुरू होती है पर एक स्त्री के मन की गांठों को खोलती है .. उसके भाव जगत की पड़ताल करती है … Read more

कमरा नंबर 909-दर्शनिकता को समेटे सच कि दास्तान

कमरा नंबर -909

– डॉ. अजय कुमार शर्मा डॉक्टर  होने के साथ-साथ एक संवेदनशील साहित्यकार भी हैं |  इसका पता उनकी रचनाओं को पढ़कर लगता है जो किसी विषय कि गहराई तक जाकर उसकी पड़ताल करती हैं | डॉ.  अजय शर्मा कि किताबें कई  यूनिवर्सिटीज़ में पढ़ाई जाती हैं | देश के कई प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरुस्कारों से सम्मानित डॉ.  अजय शर्मा का  नया  उपन्यास कमरा नंबर 909 विषय कि गहन पड़ताल कि उनकी चीर-परिचित शैली के साथ  दर्शनिकता को समेटे हुए सच कि दास्तान कहता है | कमरा नंबर 909-दर्शनिकता को समेटे सच कि दास्तान   सन 2020 में पूरे विश्व में तबाही मचाने वाले कोविड-19 (कोरोना वायरस) ने हमारे देश में दस्तक दी|  और देखते ही देखते हम सबकी  जिंदगी बदल गई | लॉकडाउन, मास्क, सैनिटाइज़र ये नए शब्द हमारे शब्दकोश में जुड़ गए| जब जीवन इतना प्रभावित हुआ तो साहित्य कैसे ना  होता| कविता, कहानी, लेख आदि में कोरोना ने दस्तक दी| ऐसे में सुप्रसिद्ध साहित्यकार अजय शर्मा जी ने कमरा नंबर 909 के माध्यम से कोरोनाकाल (फर्स्ट वेव) को अपने उपन्यास का विषय बनाया| कमरा नंबर 909 अस्पताल के कोविड वार्ड का कमरा है| ये उपन्यास इस विषय पर लिखे गए अन्य उपन्यासों से अलग इसलिए हैं क्योंकि  जहां यह एक मरीज के रूप में निजी अनुभवों का सटीक चित्रण करता है वहीं मृत्यु को सामने देख कर भयभीत मनुष्य की संवेदनाओं, उनके रिश्तों की गहन पड़ताल भी करता है| कोरोना ने भय का जो वातावरण बना रखा है, जिससे सोशल डिस्टेंसिग, एमोशनल डिस्टेंसिग में बदल गई है ये उपन्यास इसे सूक्ष्मता से रेखांकित करता है कि कैसे एक बहन अपने भाई को राखी बांधने से ही भयभीत है | घरों  में काम करने वाली भोली है जो घर -घर जा कर कोरोना फैलाने के आरोप के लिए कहती है, “हम किसी को क्या दे सकते हैं|” पति  -पत्नी के मिठास भरे संबंधों और पूरे परिवार कि एकजुटता इस आपदा काल में हमारे देश के पारिवारिक ढांचे कि रीढ़ कि तरह उभरती है| उपन्यास में डॉ. आकाश कोरोना ग्रस्त होकर अस्पताल में भर्ती हैं| वहाँ कमरा नंबर 909 उनकी पहचान है| यहाँ  और मरीज भी हैं|  सभी कोरोना से ग्रस्त हैं| मृत्यु सामने दिख रही है | ऐसे में नकली परदे उतर जाते हैं और इंसान का असली स्वभाव सामने  आता है | व्यक्ति  जो जीवंतता से भरपूर होने के समय करता है असल में वो उससे उलट भी हो सकता है |यहीं पर गुप्ता जी है व  एक ऐसे गुरु हैं और उनका चेला विकास हैं जो “जीवन में खुश कैसे रहे” सिखाते थे | विकास तो मुलाजिम है जो गुरु के यहाँ  काम करता है पर गुरु का सारा अभिनय खुल कर आता है| जो दूसरों को मृत्यु के भय से निकल जीने कि कला सिखाता है वह स्वयं मृत्यु से इस कदर भयभीत है|एक अंश  देखिए .. “लोगों का भगवान जो लोगों के दिल और दिमाग में रोशिनी  का दिया जलाता है, वह कुछ ही मिनटों का अंधेरा बर्दाश्त नहीं कर सका|”    हम सब ने कभी ना  कभी ऐसे गुरु देखे हैं और हो सकता है निराशा के आलम में मोटी फीस दे कर उनके चंगुल में भी फंसे हों | बहुत खूबसूरती से यहाँ ये बात समझ में या जाती है कि ये उनका महज प्रोफेशन है असलियत नहीं | इसी उपन्यास में मेडिटेशन कि एक बहुत खूबसूरत  परिभाषा मिली जिसे कोट करना और याद रखना मुझे जरूरी लगा … “सत्य हर व्यक्ति का नैसर्गिक गुण है|असत्य  हम अर्जित करते हैं |बोलने का हम लोग अभ्यास करती हैं |ऐसे ही मेडिटेशन का हम लोग अभ्यास करते हैं|जो अपने आप लग जाए वही सहज ध्यान है    इसमें वो सहज ध्यान कि प्रकृति के बारे में बानी और बुल्ले शाह का उदाहरण देते हुए बताते हैं | मैंने भी अभी कुछ साल  पहले U. G. Krishnamurti की किताब “Mind is a myth में सहज धीं के ऊपर पढ़ा था | उसके अनुसार .. “The so called self-realization is the discovery for yourself and by yourself that there is no self to discover.”   गुप्ता जी एक उदार व्यक्ति हैं | दूसरे कि पीड़ा को समझने का एक संवेदनशील हृदय उनके पास है | गुप्ता जी और  आकाश की  बातचीत के माध्यम से आध्यात्म  व दर्शन कि सहज व सुंदर चर्चा पाठकों को पढ़ने को मिलती है |डॉ. अजय शर्मा स्वयं डॉक्टर हैं, इसलिए उपन्यास में कई मेडिकल टर्म्स पढ़ने को मिलते हैं |   इसके अतिरिक्त कोरोना के विषय में फैली गफलत कि वो वास्तव में वायरस है या 5G टेक्नॉलजी से उभरा  एलेक्टरोमैगनैटिक रेडिऐशन, अमेरिका -इराक का युद्ध,सद्दाम हुसैन का अंत और अमेरिका कि सुपरमेस्सी कि लड़ाई इसे व्यापक फलक प्रदान करती हैं|एक अंश देखिए ..   जब डोनाल्ड ट्रम्प को कोरोना हुया, तो वह इलाज के तुरंत बाद अस्पताल से निकला और गाड़ी में उसने मास्क को उतार फेंका| उसका विरोध भी हुआ लेकिन उसने परवाह नहीं की|लोगों के लिए मास्क उतारना शायद एक साधारण सी घटना हो सकती है| लेकिन मुझे लगता है कि उसने मास्क उतार कर चीन के मुँह पर तमाचा मारते हुए ये बताने कि कोशिश कि है, “तुम लाख कोशिश कर लो पर अमेरिका सुपर पावर था, है और रहेगा| आज जब फिर से ये मांग उठ रही है कि कोरोना वायरस कि उत्पत्ति कि जांच हो| चीन ने जिस मांग को उस समय दबा दिया |आज अमेरिका में दूसरी सरकार होते हुए भी इस मांग का अगुआ अमेरिका ही है और भारत भी अब इस मांग में शामिल हो गया है | इस बात कि भनक इस उपन्यास ने पहले ही दे दी थी |  क्योंकि राजनैतिक परिस्थितियाँ सामाजिक परिस्थितियों को प्रभावित करती हैं | पृष अभी भी वही है कि क्या सुप्रिमेसी कि इस लड़ाई ने ही सारे विश्व और उसकी अर्थव्यवस्था को अस्पतालों में लिटा दिया है | अस्पताल के बिस्तर से सुप्रिमेसी कि लड़ाई तक पहुँच जाना उपन्यास कि खासियत है| संक्षेप में कहें तो सरल सहज भाषा में लिखा ये उपन्यास सिर्फ कोरोनाकल और उससे उत्पन्न परिस्थितियों को ही नहीं दर्शाता बल्कि इसमें दर्शन और आध्यात्म कि की ऐसी बातें पिरोई गई हैं जिन् पर पाठक ठहर कर चिंतन में डूब जाता है … Read more