कुल्हड़ भर इश्क -बनारसी प्रेम कथा

कुल्हड़ भर इश्क एक बनारसी हल्की -फुलकी प्रेम कथा है | बिलकुल बनारसी शंकर जी की बूटी की तरह जिसका नशा थोड़ी देर चढ़े खूब उत्पात मचाये और फिर उतर जाए |  प्रेम कहानियों में भी मुझे थोड़ी गंभीरता पसंद है | जो मुझे विजयश्री तनवीर ( अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ) और प्रियंका ओम ( मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है ) अक्टूबर जंक्शन (दिव्य प्रकाश दुबे ) अंजू शर्मा (समय रेखा ) में दिखती है | ज्यादातर मैं उन किताबों पर नहीं लिखती हूँ जो मुझे बहुत  पसंद नहीं होती हैं | इसका कारण है कि समयाभाव के कारण मैं उन किताबों पर भी नहीं लिख पाती जो मुझे पसंद आई हैं | फिर उन पर लिखना संभव नहीं जो मुझे पसंद नहीं आई हैं | फिर भी मैंने इस बनारसी प्रेम कथा  को लिखने के लिए चुना क्योंकि मुझे लगता है कि ये किताब युवाओं को पसंद आ सकती है जो कॉलेज में पढ़ रहे हैं | जिनकी उम्र किशोरावस्था से लेकर २४ -२५ वर्ष तक है | कॉलेज में पढ़ते हैं |जिन्हें नौकरी के लिए पढाई और इश्क दोनों को संभालना पड़ता है | मैंने भी एक युवा समीक्षक की समीक्षा को पढ़कर  ही इसे खरीदने का मन बनाया था |अमेजॉन पर इसके ढेर सारे रिव्यू इसके गवाह है | वैसे भी फिल्म हो, उपन्यास हो या फैशन युवा जिसे पसंद करते हैं वो बहुत जल्दी लोकप्रिय हो जाता है | किस किताब की चर्चा दस साल/20 साल  बाद भी होगी ये समय तय करता है | दूसरी बात इस किताब पर लिखने के पक्ष में ये है कि  किताब के लेखक कौशलेन्द्र मिश्र की उम्र मात्र 22 वर्ष है | और उनके प्रथम प्रयास के रूप में इसे उचित ठहराया जा सकता है | इस पर लिख कर  नवांकुर  कलम को प्रोत्साहित करना  मुझे अपना दायित्व लगा | मैने एक बात गौर की है कि इधर बहुत सारी किताबें वाराणसी  की पृष्ठभूमि से आ रही हैं | बनारस के घाट वहाँ  कि ठंडाई ,जीवन नदिया और दार्शनिकता इन किताबों की खासियत है | अभी कुछ समय पहले की बात है कि मुझे वाराणसी जाने का बहुत मन कर रहा था | क्योंकि मेरा जन्म वाराणसी में हुआ है और बाद में भी अक्सर पिताजी बाबा विश्वनाथ के  दर्शन के लिए हम लोगों को ले जाते रहे है | जिस कारण वहां से लगाव व् वहाँ  जाने की इच्छा स्वाभाविक ही लगी | परन्तु एक दिन एक किताब पढ़ते -पढ़ते अचानक क्लिक  किया कि साहित्य में वाराणसी का बहुत अधिक वर्णन पढने से अवचेतन में ये इच्छा जाग्रत हुई | ये एक शोध का विषय भी हो सकता है कि कितनी किताबें अभी हाल में बनारस की पृष्ठभूमि पर लिखी गयीं है | फिलहाल इतना तो कह सकते हैं कि वाराणसी का नशा फिलहाल साहित्य से जल्दी उतरने वाला नहीं है | इसका कारण है वहां की हवाओं में घुली दार्शनिकता | कुल्हड़ भर इश्क -बनारसी प्रेम कथा  तो चलिए लौट कर आते हैं कुल्हड़ भर इश्क पर जिसे कौशलेन्द्र मिश्र ने काशीश्क का सबटाइटल भी दिया है |  कौशलेन्द्र ने अपना बी ए (हिंदी ऑनर्स ) और बी ऐड बी एच यू से ही किया है  फिलहाल वो वहीँ से हिंदी में परा स्नातक कर रहे हैं | कहानी भी बी ए, बी ऐड से गुज़रती हुई परास्नातक तक पहुँचती हैं | यानी कि कहानी  की बुनावट गल्प के साथ सत्य की भी जरूर होगी | तभी हॉस्टल का जीवन, लड़कियों को ताकते और उनके पीछे भागते लड़के , पढाई के दौरान परवान चढ़ती प्रेम कहानियाँ ,जिनमें से कुछ कॉलेज बदलते ही बदल जाती हैं और कुछ अटेंडेंस रजिस्टर की तरह हमेशा के लिए बंद हो जाती है | तो कुछ ऐसी  होती है जो किसी मोड़ पर अचानक से बिछुड़ जाती है | ये कहानियाँ ही खास कहानियाँ हैं क्योंकि इनकी हूक  जिन्दगी में और कैरियर में हमेशा ही रहती हैं | हम सदियों से सुनते आये हैं कि कॉलेज का समय जीवन बनाता भी है और बिगाड़ता भी है | इस लिए कहानी की शुरुआत करते समय ही कौशलेन्द्र ये इच्छा जताते हैं कि विद्यार्थियों के लिए इश्क की कोई खुराक होनी चाहिए जिस पर मार्कर  से निशान लगा हो | बस इतना पीना है | कहने का तात्पर्य ये है कि कुल्हड़ भर इश्क को घूँट -घूँट पीना है ताकि पढाई भी चलती रहे और प्रेम भी | क्योंकि अक्सर इन प्रेम प्रसंगों के चलते “ना खुदा ही मिला ना विसाले सनम ” वाली स्थिति हो जाती है | प्रेमियों की कहीं और शादी हो जाती है और कैरियर की नैया बीच भंवर में डूब जाती है | बहुत से बच्चों को इस उम्र में  भटक कर कैरियर बर्बाद करते देखा है इसलिए कौशलेन्द्र की इस बात कमें पुरजोर समर्थन करती हूँ | तो आते हैं कहानी पर |कहानी सीधी सरल है | कहानी के नायक सुबोध को अपनी कक्षा में पढने वाली रोली से प्रेम  हो जाता है | सुबोध ब्राह्मण है और रोली ठाकुर | रोली थोड़ी टॉम बॉय  टाइप की है | पर सुबोध का लगातार पीछा करना एक दिन रोली को भी प्रेम की गिरफ्त में ले ही लेता है | दोनों पढ़ते भी हैं और प्रेम को भी निर्धारित समय देकर संतुलन बनाने का प्रयास करते हैं | उनकी लव मैरिज में घरवालों को भी दिक्कत नहीं है | बस शर्त नौकरी की है | न सिर्फ रोली के घरवाले सुबोध की नौकरी चाहते हैं बल्कि सुबोध के पिता भी नौकरी वाली बहु चाहते हैं ताकी लव मैरिज और नौकरी वाली बहु के होने से विवाह करने के उनक्ले व्यवसाय में भी इजाफा हो | दोनों मेहनत करते हैं | प्रयास करते हैं | इस समय देश की राजनीति रंग लाती है और कुछ प्रदेशों में शिक्षकों के चयन की परीक्षा रद्द हो जाती है | अब  वो मिलते हैं या बिछुड़ते हैं ये तो आप किताब पढ़ कर ही जानेगे | कहानी जैसे -जैसे आगे बढती है थोड़ी संजीदा होती है …या ये कहना ज्यादा सही रहेगा कि कुल्हड़ भर | रोली का किरदार तेज तर्रार होते हुए भी प्रभावित करता है | किताब … Read more

माउथ ऑर्गन –किस्सों के आरोह-अवरोह की मधुर धुन

  जब बात किस्सों की आती है तो याद आती है जाड़े की गुनगुनी धूप सेंकते हुए, मूंगफली चबाते हुए दादी –नानी के पोपले मुँह से टूटे हुए दांतों के बीच से सीटी की तरह निकलती हवा के साथ निकलती रोचक किस्सों की फुहार, “हमारे जमाने में तो …|” या फिर रात को अंगीठी के चारों ओर घेरा बनाकर भाई –बहनों के बीच किस्सों की अन्ताक्षरी, “जानते हो, मेरे क्लास में ना..” | किस्सों का जादू ही कुछ ऐसा है जो सब को अपने पास खींच लाता है, “हाँ भैया ! और बताओ| और शुरू हो जाते हैं किस्से यहाँ वहाँ सारे जहाँ के |“ मुझे लगता है कि हम भारतीय किस्से सुनने-सुनाने के मामले में कुछ ज्यादा ही शौक़ीन रहे हैं | इसके लिए हमारे पास कभी समय की कमी नहीं रही | शादी-बरात से लेकर, बसों और ट्रेनों में धक्के खाते हुए, और चाय और पान की गुमटी पर भी जहाँपनाह किस्सों का दरबार सजा ही रहता है | खैर ! इस बार सर्दी भी ऐसी नहीं है कि गुनगुनी धूप दिखे | बड़े शहरों में अंगीठियाँ भी कब की एंटीक आइटम हो गयी हैं | लोग भी और-और का नारा लगाते हुए तेज़ दौड़ने लगे हैं, घड़ी की सुइयां भी एक घंटे में दो घंटे की रफ़्तार से सफ़र तय करने लगीं | शहर तो छोड़िये, गाँव की चौपाले भी टी.वी. कम्प्यूटर के आगे पालथी मार कर बैठने लगीं हैं | तो ऐसी में ताज़े-ताज़े नर्म-नर्म किस्सों के पुराने आशिक कहाँ जाए ? सुशोभित जी की किताब ‘माउथ ऑर्गन’ किस्से के उसी स्वप्न लोक में ले जाती है | जैसे सात सुरों से तरह –तरह की धुन बनायी जाती है वैसे ही इसमें तरह- तरह की किससे धुनें हैं | जो जो उन्हीं मूल इमोशंस से जुड़े होने के बावजूद अपने आरोह अवरोह से अलग –अलग संगीत पैदा करती हैं |     माउथ ऑर्गन –किस्सों के आरोह-अवरोह की मधुर धुन यूँ तो किस्सागोई किसी कहानी का हिस्सा होती है पर इसे पूरी तरह से कहानी नहीं कहा जा सकता है | ये कुछ इसी तरह से है जैसे बादल से अलग हुआ उसका कोई टुकड़ा अपने आप में मुक्कमल बादल ही है | बड़े बादल देर तक बरसते हैं तो छोटे बादल की रिमझिम फुहार भी भली लगती है | किस्से कथा और कथेतर के बीच का कुछ हैं | मैं सुशोभित जी की इस बात से सहमत हूँ कि इसमें कुछ किस्से ‘नैरेटिव प्रोज’ और कुछ ‘फिक्शनलाईज़ड मेमायर्स’ की श्रेणी में आते हैं | यानी कुछ ब्यौरों में रमने वाला गल्प और कुछ आपबीतियाँ | किस्सों का स्वरुप कुछ भी हो उनमें सबसे महत्वपूर्ण होता है उनको कहने की कला | ये कला ही है, बोलने वाला जब बोलता है तो सुनने वाला आँखों में आगे क्या होगा का प्रश्नवाचक चिन्ह खींचे, उत्सुकता में मुँह बाए सुनता है | किस्सों का किसी महत्वपूर्ण रोचक मुकाम पर खत्म हो जाना ही उनकी विशेषता है |  चलिए किस्से की बातों से निकल कर आते हैं किस्सों-कहानियों या कहन  की किताब यानी कि ‘माउथ ऑर्गन’ पर | इस किताब में छोटे –बड़े सौ से ऊपर किस्से हैं | जो अलग –अलग मूड के हैं | कहीं पाठक को जानकारी देते तो कहीं उनकी भावनाओं के जल में एक छोटा सा कंकण डाल कर भंवर उत्पन्न करते हुए, तो कहीं यूँ ही हलके –फुल्के टाइम पास टाइप | हर किसी की एक अलग आवाज़, एक अलग अहसास | ये किस्से आपस में जुड़े हुए नहीं हैं | इसलिए आप इस किताब को कहीं से भी शुरू कर के पढ़ सकते हैं | जब मन आया जिस किस्से पर नज़र जम गयी उसी को पढ़ लिया | वैसे कुछ किस्सों में पुराने किस्सों का जिक्र है | उस में भी कोई दिक्कत नहीं है, आप पन्ना पलटिये उस किस्से तक जाइए और पढ़ डालिए | आसान इसलिए कि किस्से छोटे –छोटे हैं और बहुत समय नहीं माँगते | फिर भी हर पाठक का अपना –अपना तरीका होता है |  जैसे मैंने सबसे पहले किस्सा पढ़ा “अखबार” | ये शायद पीछे से दो चार किस्से पहले है | मैंने इसे ही पढने के लिए सबसे पहले क्यों चुना मुझे पता नहीं | शायद एक कारण ये है कि एक लम्बे समय तक मैं भी अख़बार को पीछे के पन्नों से पढ़ती थी | पहला और दूसरा पन्ना मैं आँखों के आगे से ऐसे सरका देती थी जैसे टीवी का रिमोट हाथ में लेकर कुछ फ़ास्ट फॉरवर्ड कर दिया हो | ये वो समय था जब पिताजी की मृत्यु के बाद मैं निराशा से जूझ रही थी | और मुझे लगता था कि मैं दुःख से इतना भरी हुई हूँ कि दुनिया का और कोई दुःख सह नहीं पाऊँगी |अब अखबार हैं खबरे हैं तो वो दुःख को ही लिखेंगे | जैसा की सुशोभित जी लिखते है कि“बुरी खबरें सबसे अच्छी खबरें होती हैं, क्योंकि बुरी खबरें खूब बिकाऊ होती हैं बाज़ार में हाथों –हाथ उठती हैं | ये हमें अखबारों में सिखाया गया था, और ऐसा सिखाने वालों में वे अखबार भी शुमार थे, जो आज ‘केवल अच्छी खबरों” का स्वांग रहते हैं |” ‘स्कूल’ से लेकर ‘पासपोर्ट साइज़ तसवीरें’ पिता और मासूम पुत्र के किस्से हैं | जिसमें पुत्र की मासूम बातें दिल को गुदगुदाती हैं वहीँ पिता की छलक-छलक कर बहती ममता भाव –विभोर कर देती है | स्कूल गेट पर इंतज़ार करते पिता के शब्द देखिये,  “बाहर जहाँ बच्चों के नन्हे जूते तरतीब से सजे होते हैं, वहां खड़े –खड़े इंतज़ार करते पापा को अक्सर ये मायूसी घेर लेती है कि बेटा धीरे –धीरे उस दुनिया में प्रवेश करता जा रहा है, जहाँ शायद उस तक हरदम पहुँच पाना इतना सरल नहीं रहेगा, जैसे हाथ बढाकर उसकी आँखों पर चले आये बालों को पीछे हटा देना |” “दुनिया बढती जा रही है इसका मतलब दुनिया में मौजूद दूरियाँ भी फ़ैल रही हैं |”इस किस्से को पढ़कर किसको अपने बच्चे के स्कूल के गेट पर उसकी छुट्टी की प्रतीक्षा में खड़े रहना नहीं याद आ जाएगा | “माउथ ऑर्गन’ किस्सा जिस पर किताब का नाम रखा गया है वो भी चुनु और उसके पापा का ही किस्सा है … Read more

तपते जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप

आज आपसे ” तपते  जेठ में गुलमोहर सा  उपन्यास के बारे में  बात करने जा रही हूँ |यह  यूँ तो एक प्रेम कहानी है पर थोड़ा  अलग हट के | कहते हैं प्रेम ईश्वर की बनायीं सबसे खूबसूरत शय है पर कौन इसे पूरा पा पाया है या समझ ही पाया है | कबीर दास जी तो इन ढाई आखर को समझ पाने को पंडित की उपाधि दे देते हैं | प्रेम अबूझ है इसीलिए उसे समझने की जानने की ज्यादा से ज्यादा इच्छा होती है | प्रेम में जरूरी नहीं है कि विवाह हो | फिर भी अधिकतर प्रेमी चाहते हैं कि उनके प्रेम की परणीती विवाह मे हो |  विवाह प्रेम की सामजिक रूसे से मान्य एक व्यवस्था है | जहाँ प्रेम कर्तव्य के साथ आता है | मोटे तौर पर देखा जाए तो  किसी भी विवाह के लिए कर्तव्य प्रेम की रीढ़ है | अगर कर्तव्य नहीं होगा तो प्रेम की रूमानियत चार दिन में हवा हो जाती है  | हाथ पकड़ कर ताज को निहारने में रूमानियत तभी घुलेगी जब बच्चो की फीस भर दी हो | अम्मा की दवाई आ गयी हो | कल के खाने का इंतजाम हो | प्रेम के तिलिस्म कई बार कर्तव्य के कठोर धरातल पर टूट जाते हैं | पर ये बात प्रेमियों को उस समय कहाँ समझ आती है जब किसी का व्यक्तित्व अपने अस्तित्व पर छाने लगता है | “कितनी अजीब सी बात है ना …आपके पास तो कई सारे घर हैं …बंगला है , गाँव की हवेली है …पर ऐसी कोई जगह कोई कोना आपके पास नहीं …जहाँ आप इन पत्रों को सहेज सकें | चलो, इस मामले में तो हम दोनों की किस्मत एक जैसी ठहरी, घर होते हुए बेघर |” वैसे भी प्रेम और प्रेमियों में इतनी विविधता है कि उसे घर-गृहस्थी में पंसारी के यहाँ से लाये जाने वाले सामान  की लिस्ट या खर्चे की डायरी में दर्ज नहीं किया जा सकता | फिर तो उसकी विविधता ही खत्म हो जायेगी | ये तो किसी के लिए खर्चे की डायरी  से छुपा कर रखी गयी चवन्नी -अठन्नी भी हो सकता है तो किसी के लिए  पूरी डायरी ….एक खुली किताब | जैसे “तपते जेठ में गुलमोहर जैसा”में डॉ. सुविज्ञ का प्रेम एक ऐसा इकरार है जिसे सात तहों में छिपा कर रखा जाए तो अप्पी के लिए एक खुली किताब | और यही अंतर उनके जीवन के तमाम उतार  चढ़ाव का कारण | तपते  जेठ में गुलमोहर जैसा -प्रेम का एक अलग रूप    अगर विवाहेतर प्रेम की बात की  जाए तो ये हमेशा एक उलझन क्रीएट करता है | जिसमें फंसे दोनों जोड़े बड़ी बेचारगी से गुज़रते हैं | प्रेम की तमाम पवित्रता और प्रतिबद्धता  के बावजूद | दो जो प्रेम कर रहे हैं और दो जो अपने साथी के प्रेम को बर्दाश्त नहीं कर पा रहे हैं | सब कहीं ना कहीं अधूरे हैं | अभी कुछ समय पहले एक वरिष्ठ लेखिका की वाल पर पढ़ा था कि एक स्त्री को अपने प्रेम और अपने विवाह दोनों को सँभालने का हुनर आता है | उस समय भी मेरे अंतस में यह प्रश्न कौंधा था कि मन में प्रेम रख कर विवाह को संभालना क्या स्त्री को दो भागों में नहीं बाँटता | आज के आध्यत्मिक जगत में “Who am I ” का प्रश्न तभी आता है जब हम अपने अस्तित्व को तमाम आवरणों से ढँक लेते हैं | कुछ आवरण सामाज के कुछ अपनों के और कुछ स्वयं अपने बनाये हुए | उनके बीच में पलती हैं मनोग्रंथियाँ | प्रेम अपराध नहीं है पर भौतिक जगत के गणित में ये अपराधी सिद्ध कर दिया जाता है | इससे इतर अप्पी ने यही तो चाहा की उसका अस्तित्व दो भागों में ना बंटे | उसे समग्र रूप से वैसे ही स्वीकार किया जाए जैसी की वो है | पर ऐसा हो नहीं सका | उसका जीवन तपती जेठ सा हो गया | फिर भी उसका प्रेम गर्मी के मौसम में खिलने वाले गुलमोहर के फूलों की तरह उस बेनूर मौसम को रंगता रहा | अप्पी के इसी अनोखे प्रेम को विशाल कैनवास में उतारा है सपना सिंह जी ने  | ये कहानी शुरू होती है  पाओलो  कोएलो के प्रसिद्द  उपन्यास ‘अलेकेमिस्ट  के एक कोट से … “सूरज ने कहा, मैं जहाँ हूँ धरती से बहुत दूर, वहीँ से मैंने प्यार करना सीखा है | मुझे मालूम है मैं धरती के जरा और पास आ गया तो सब कुछ मर जाएगा …हम एक दूसरे के बारे में सोचते हैं, एक दूसरे को चाहते हैं, मैं धरती को जीवन और ऊष्मा देता हूँ , और वह मुझे अपने अस्तित्व को बनाए रखने का कारण |” मुझे लगता है कि प्रेम की एक बहुत ही खूबसूरत परिभाषा इस कोटेशन में कह दी गयी है | प्रेम में कभी कभी एक दूरी बना के रखना भी दोनों के अस्तित्व को बचाये  रखने के लिए जरूरी होता है | अभी तक तो आप जान ही गए होंगे कि ये कहानी है अप्पी यानि अपराजिता और डॉ. सुविज्ञ की | डॉ. सुविज्ञ …शहर के ख्याति प्राप्त सर्जन |मूलरूप से गोरखपुर के रहने वाले | खानदानी रईस | फिर भी उनकी पीढ़ी ने गाँव छोड़ कर डॉक्टर, इंजिनीयर बनने का फैसला किया | वो स्वयं सर्जन बने | हालांकि  पिछले दो साल से सर्जरी नहीं करते | पार्किन्संस डिसीज है | हाथ कांपता है | वैसे उनका  अपना नर्सिंग होम है | डायगोनेस्टिक सेंटर है, ट्रामा सेंटर है | कई बंगले हैं, गाडियाँ  है ….नहीं है तो अप्पी | पर नहीं हो कर भी सुबह की सैर में उनके पास रोज चली आती है भले ही ख्यालों में | “सुबह -सुबह हमें याद करना” अप्पी ने एक बार कहा था उनसे | “सुबह -सुबह ही क्यों ?”उसकी बातें उनके पल्ले नहीं पड़ती थीं | “आप इतने बीजी रहते हो …हमें काहे याद करते होगे …चलो सुबह का एपॉइंट मेंट मेरा !”  अप्पी ..पूर्वी उत्तर  प्रदेश के एक कस्बानुमा शहर में रहने वाली लड़की |साधारण परिवार की लड़की |  लम्बा कद, सलोना लम्बोतरा चेरा …बड़ी -बड़ी भौरेव जैसी आँखें व् ठुड्डी पर हल्का सा गड्ढा | शुरूआती पढाई वहीँ से … Read more

विसर्जन कहानी संग्रह पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया

महिमा से पहली बार सन्निधि संगोष्ठी में मुलाकात हुई थी | मासूम सी, हँसमुख बच्ची ने जहाँ अपने व्यक्तित्व से सबका मन मोह लिया था वहीँ अपनी कविता से अपनी गहन साहित्यिक समझ से परिचित कराया था | एक लेखिका व व्यक्ति के रूप में वे सदा मुझे प्रिय रही हैं | आज ‘विसर्जन’ पर उनकी समीक्षा पढ़ कर एक पाठक के रूप में उनकी गहराई से हृदय द्रवित है | उन्होंने इतना डूब कर पढ़ा है और उस गहराई तक पहुँची है जहाँ वो पात्र पीड़ा भोग रहे थे | आप जैसा पाठक मिलना किसी लेखक के लिए अनमोल उपलब्द्धि है | बहुत -बहुत स्नेह के साथ स्नेहिल आभार महिमा  विसर्जन कहानी संग्रह पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया  “विसर्जन” वंदना बाजपेयी जी का पहला कहानी संग्रह है। जिसमें कुल 11 यथाथर्वादी कहानियाँ हैं। “विसर्जन” जब मेरे हाथ में आया तो मैंने सोचा कि ये तो एक-दो दिन में पढ़कर खत्म हो जाएगा। पर ऐसा हो नहीं सका। ऐसी कई कहानियाँ हैं जिसे पढ़ने के बाद इतनी भावुक हो गई कि अवसाद ने घेर लिया। और दूसरी कहानी पढ़ने से पहले विराम स्वत: हो गया। आँखे और दिमाग ने साथ नहीं दिया।कमोबेस सभी कहानियों के नारी पात्रों की विषम परिस्थितियों ने दुखी कर दिया।इन कहानियों में वंदना जी ने अपनी संवेदनशीलता के साथ स्त्री के मनोविज्ञान को बखूबी चित्रित किया है। विर्सजन, पुरस्कार,मुक्ति आदि कहानियों में स्त्री पात्र समाज में माँ, पत्नी, बेटी, प्रेमिका जैसे उत्तरदायित्व को वहन करते हुए, जटिल जीवन के हर मोर्चे पर संर्घष करते हुए अतंत: स्वतंत्रचेता स्त्री के रुप में स्वयं को स्थापित करती है। वहीं अशुभ, फुलवा, दीदी, चुड़ियाँ आदि के पात्र अपनी सामाजिक, आर्थिक चक्रव्यूह में फंस कर अपने सपनों की बलिवेदी पर स्वंय ही चढ़ जाती हैं या चढ़ा दी जाती हैं। समाज का मध्यमवर्गीय जहाँ अपनी स्त्रियों को एक विशेष संस्कारजनित ढ़ाचे में देखना चाहता है। इन स्त्रियाँ का जीवन समाज,संस्कार, कर्तव्य़ और अपने सपनों के साथ तालमेल बिताने में ही बीत जाता है। वही निम्नवर्गीय स्त्री कमाऊ होती हुई भी अपनी परिस्थितियों की गुलामी में जकड़ी होती है।संग्रह की सभी कहानियाँ इन दो वर्गो की स्त्रियों की सच्ची संघर्ष गाथा है। उनके पात्र हमारे आस-पास से ही उठा कर रचे गए हैं।हर कहानी में समाज के उन स्वार्थी चेहरों को बेनकाब किया गया है जो अपने स्वार्थ के लिए रिश्तों को दांव पर लगाते हैं। समाजिक संदेश भी निहित है। इसप्रकार लेखिका ने अपनी लेखकीये कर्म को बखूबी अंजाम दिया है। इसलिए हर पाठक इनसे स्वत: जुड़ा महसूस करेगा। कहानियाँ पढ़ते हुए अहसास होता है कि लेखिका ने बहुत धैर्य और बारीकी से पात्रों के चरित्र को गढ़ा है। लेखिका वंदना बाजपेयी जी को संग्रह के लिए अशेष बधाइयाँ।लेखिका – वंदना वाजपेयीप्रकाशक – एपीएन पब्लिकेशन्समूल्य – 180लिंक – https://www.amazon.in/dp/9385296981/ref=mp_s_a_1_6 प्रकाशक से मंगवाएं …transmartindiamail@gmail.com पर मेल करें या .. +919310672443 पर whats app करें आप पुस्तक प्राप्त करने के लिए editor.atootbandhan@gmail.com पर भी मेल कर सकते हैं | समीक्षा – महिमा श्री यह भी पढ़ें … विसर्जन कहानी संग्रह पर किरण सिंह की समीक्षा भूत खेला -रहस्य रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ शिकन के शहर में शरारत -खाप पंचायत के खिलाफ बिगुल बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर आपको  समीक्षात्मक लेख “  विसर्जन कहानी संग्रह  पर महिमा श्री की प्रतिक्रिया “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords; review , book review,  Hindi book , visarjan, hindi story book, hindi stories, vandana bajpai, emotional stories

विसर्जन कहानी संग्रह -समीक्षा किरण सिंह

जिंदगी ही कहानी है या कहानी ही जिंदगी है इस प्रश्न का ठीक-ठीक उत्तर देना थोड़ा उलझन भरा हो सकता है इसलिए जिंदगी और कहानी को एक दूसरे का पूरक कहना ही सही होगा। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति की जिंदगी ईश्वर की लिखी कहानी है। हाँ यह और बात है कि किसी की कहानी आम होती है तो किसी की खास, किसी की सीधी-सादी तो किसी की उलझन भरी, किसी की खुशहाल तो किसी की बदहाल, किसी की रोचक तो किसी की नीरस, किसी – किसी की प्रेरणादायी तो किसी की दुखदायी ।लेकिन हर कहानी में कमोबेश कौतूहल तो होता ही है। यही वजह है कि लेखक का संवेदनशील मन किसी की जिंदगी की कहानी को इस कदर महसूस करता है कि उसकी लेखनी अनायास ही चल पड़ती है सर्जन करने हेतु और लिख डालती है उस व्यक्ति की गाथा। छोड़ देती है पाठकों को निर्णय करने के लिए कि किस हद तक उस कहानी को उन तक पहुंचाने में सफल हो पाई है वह । कुछ इसी तरह से जानी-मानी लेखिका Vandana Bajpaiकी लेखनी ने भी कुछ जिंदगी की कहानियों में कल्पना का रंग भरते हुए बड़े ही खूबसूरती से पिरोकर खूबसूरत कवर पृष्ठ के आवरण में एक पुस्तक ( जिसका नाम भी बड़ा ही खूबसूरत और विषय के अनुरूप है विसर्जन है ) के आकार में पाठको को अपनी ओर आकर्षित करने में सफल हुई है ।     विसर्जन कहानी संग्रह -समीक्षा किरण सिंह      इस संग्रह में कुल ग्यारह कहानियाँ हैं जो कि एक सौ चौबीस पृष्ठ में संग्रहित हैं। सभी कहानियाँ मानवीय संवेदनाओं को खूबसूरती से उकेरती हुई रोचकता तथा कौतूहल से परिपूर्ण हैं। किन्तु इस संग्रह की पहली कहानी में लेखिका ने एक छली गई स्त्री के जीवन के संघर्षों की मनोवैज्ञानिक पहलू को छूते हुए बहूत ही खूबसूरती से अपनी कलम चलाई है जिसकी जितनी भी प्रशंसा करूँ कम होगी। इस कहानी में एक लड़की जो बार – बार अपनी माँ से अपने पापा के बारे में पूछती है और माँ हर बार सच छुपाते हुए उसे झूठी तसल्ली देती है। जब माँ भी मर जाती है तो वह लड़की अपने पिता की खोज में निकलती है। बहुत ढूढने के बाद पिता मिलते तो हैं लेकिन उसके साथ एक स्त्री है जो कि उसके और उसके पिता के मध्य दीवार बनकर खड़ी है अतः लड़की दुखी मन से वापस आ जाती है। उसके बाद वो अपने पिता के उम्र के पुरुषों में अपने पापा का प्यार ढूढती है और बार-बार छली जाती है। अन्ततः वह निर्णय लेती है विसर्जन का जो कि उसके लिए बहुत जरूरी था । पुस्तक की दूसरी कहानी अशुभ अंधविश्वास पर प्रहार करती हुई बहुत ही मार्मिक कहानी है जिसमें एक लड़की का नाम ही अशुभ रख दिया जाता है। जिसको मृत्यु के उपरांत भी ऐसी सजा मिलती है जिसकी वह दोषी होती ही नहीं है। संग्रह की तीसरी कहानी फुलवा में बाल श्रम, बाल विवाह, पर बहुत ही गहराई से प्रकाश डालते हुए बेटियों को पढ़ाने का संदेश दिया गया है।संग्रह की चौथी कहानी दीदी में खून के रिश्तों से अलग भाई – बहन जैसे पवित्र रिश्ते बनाने में भी स्त्रियों की मजबूरियों को बहुत ही सूक्ष्मता से उकेरा गया है जिसे पढ़कर उन पुरुष पाठकों को स्त्रियों को समझने में मदद मिलेगी जो कि कहते हैं कि स्त्रियों को समझना बहुत मुश्किल है । या त्रिया चरित्र को स्वयं देव भी नहीं समझ पाये हैं। संग्रह की पाँचवी कहानी चूड़ियाँ पढ़ने के बाद तो पत्थर हृदय भी पिघल जायेगा ऐसा मैं दावे के साथ कहती हूँ। क्योंकि इस कहानी की नायिका एक ऐसी स्त्री है जिसे बचपन से ही रंग – बिरंगी चूड़ियाँ पहनने का बहुत शौक है लेकिन उसके इस शौक को सामाजिक कुरीतियों ने विराम लगा दिया। तोड़ दी गई उसकी कलाइयों की चूड़ियाँ और पहुंचा दिया जाता है पागलखाना। फिर कहानी की ही एक पात्र लेखिका की सहेली निर्माण लेती है और………. संग्रह की छठी कहानी पुरस्कार एक ऐसी स्त्री की कहानी है जो अपने शौक को ताक पर रखकर अपना पूरा जीवन अपने घर परिवार की खुशियों पर समर्पित कर देती है। लेकिन अपनी अभिव्यक्ति पर अंकुश नहीं लगा सकी। चूंकि पति को भी खुश रखना चाहती थी और अपनी लेखनी को भी पंख देना चाहती थी सो अपना नाम कात्यायनी रखकर पुस्तकें प्रकाशित करवाने लगी। धीरे-धीरे कात्यायनी की कीर्ति फैलने लगी और कात्यायनी का नाम पुरस्कार के लिए घोषित किया गया। तो भी कात्यायनी अपनी सच्चाई सामने नहीं लाना चाहती है। लेकिन सच्चाई को कोई कितने दिनों तक छुपाये रख सकता है ? एक न एक दिन तो पता चलना ही है सो स्नेहा के पति को भी पता चल ही गया आगे क्या हुआ पुस्तक के लिए छोड़ती हूँ।इस प्रकार संग्रह की अन्य कहानियाँ ( पुरस्कार, काकी का करवाचौथ, फाॅरगिव मी, अस्तित्व, ये कैसी अग्निपरीक्षा तथा मुक्ति) भी अत्यंत मार्मिक, रोचक, प्रवाहयुक्त तथा कौतूहल पूर्ण है। चूंकि वंदना जी एक स्त्री हैं तो उनकी सभी कहानियाँ स्त्री प्रधान हैं। वैसे उन्होंने अपनी आत्मकथ्य में इस बात को स्वयं स्वीकारा भी है। यथा – ऐसे मेरी कोई योजना नहीं थी, फिर भी इस कहानी संग्रह के ज्यादातर मुख्य पात्र स्त्री ही है। शायद इसकी एक वजह मेरा स्त्री होना है, जो उनके दर्द को मैं ज्यादा गहराई से महसूस कर पाई। इस तरह से इस संग्रह की प्रत्येक कहानी हमारे आस-पास के परिवेश तथ समाज के किसी न किसी व्यक्ति की कहानी प्रतीत होती है । कहानी पढ़ते हुए पाठक किसी न किसी किरदार से स्वयं को जुड़ा हुआ पाता है जो कि लेखिका की सफलता का द्योतक है। पुस्तक का कवर पृष्ठ शीर्षक के अनुरूप ही खूबसूरत तथा आकर्षक है। पन्ने भी अच्छे हैं तथा छपाई भी स्पष्ट है। वर्तनी की अशुद्धियाँ नाम मात्र की या न के बराबर ही है। पुस्तक की गुणवत्ता के अनुपात में पुस्तक की कीमत भी मात्र एक सौ अस्सी रूपये है जिसे पाठक आसानी से क्रय कर सकते हैं। अतः मैं दावे के साथ कह सकती हूँ कि यह पुस्तक पठनीय एवम् संग्रहणीय है। यदि आप उच्च स्तरीय संवेदनशील कहानियाँ पढ़ना चाहते हैं तो यह पुस्तक आपको जरूर पढ़ना चाहिए। इस पुस्तक के प्रकाशन के … Read more

बस कह देना कि आऊँगा- काव्य संग्रह समीक्षा

आज मैं आपसे बात करना चाहूँगी नंदा पाण्डेय जी के काव्य  संग्रह “बस कह देना कि आऊँगा के बारे में | नंदा पाण्डेय जी काफी समय से लेखन में सक्रिय हैं | उनकी कई कवितायें समय-समय पर फेसबुक पर व अन्य पत्र –पत्रिकाओं में पढ़ती रही हूँ | झारखंड में साहित्य के प्रचार –प्रसार में भी वो काफी सक्रिय भूमिका निभा रहीं हैं | लेकिन अपना पहला काव्य संग्रह लाने में उन्होंने कोई जल्दबाजी नहीं की क्योंकि वो इंतज़ार में विश्वास करती हैं | धैर्य उनका एक बड़ा गुण है जो उनके व्यक्तित्व व् कृतित्व दोनों में झलकता है | इस संग्रह में ये धैर्य उन्होंने दिखाया है प्रेम में | ये टू मिनट नूडल्स वाला फ़ास्ट फ़ूड टाइप प्रेम नहीं है | ये वो प्रेम है जो एक जीवन क्या कई जीवन भी प्रतीक्षा कर सकता है | इस प्रेम में नदिया की रवानगी नहीं है झील सा ठहराव है | आमतौर पर माना जाता है कि कोई कवि अपनी पहली कविता प्रेम कविता ही लिखता है | परन्तु उस पहली कविता से प्रेम में धैर्य आने तक की जो यात्रा होती है वो इस संग्रह में परिलक्षित होती है | आखिर क्या है तुम्हारा और मेरा रिश्ता……???? प्यार..???? , स्नेह…????, दोस्ती …??? या इन सबसे कहीं ऊपर एक दूसरे को जानने समझने की इच्छा…..??? क्या रिश्ते को नाम देना जरुरी है???? रिश्ते तो “मन” के होते हैं सिर्फ “मन ” के …….!!!!!   बस कह देना कि आऊँगा- काव्य संग्रह समीक्षा        प्रेम यूँ तो जीवन के मूल में है फिर भी इसे दुनिया की दुर्लभ घटना माना गया है | ये बात विरोधाभासी लग सकती है परन्तु सत्य है …रिश्ते हैं इसलिए प्रेम है, ये हम सब महसूस करते हैं लेकिन प्रेम है रिश्ता हो या न हो इसकी कल्पना भी दुरूह है | प्रेम के सबसे आदर्श रूप में राधा –कृष्ण का नाम याद आता है | उनका प्रेम उस पूर्णता को प्राप्त हो गया है जहाँ साथ की दरकार नहीं है | ये प्रेम ईश्वरीय है, दैवीय है | इस अलौकिक प्रेम के अतिरिक्त सामान्य प्रेम भी है | जहाँ मिलन का सुख है तो वियोग की पीड़ा भी | साहित्य में संभवत : इसीलिये श्रृंगार रस को दो भागों में विभक्त किया है | संयोग श्रृंगार और वियोग श्रृंगार | वियोग में भी प्रतीक्षा का आनंद है | क्योंकि ये प्रतीक्षा उसके लिए है जिसके लिए ह्रदय का तालाब प्रेम से लबालब भरा हुआ है | महादेवी वर्मा इसी वियोग में कहती हैं … जो तुम आ जाते एक बार कितनी करूणा कितने संदेश पथ में बिछ जाते बन पराग गाता प्राणों का तार तार अनुराग भरा उन्माद राग आँसू लेते वे पथ पखार जो तुम आ जाते एक बार और कवयित्री नंदा पाण्डेय जी इससे भी एक कदम आगे बढ़ कर कहती हैं कि आने की भी आवश्यकता नहीं है “बस कह देना कि आऊँगा” फिर क्या है मन को भला लिया जाएगा, फुसला लिया जाएगा ….और मिलन की प्रतीक्षा में पूरा जीवन व्यतीत हो जाएगा | . पर क्या मुझमें कोई परिवर्तन दीखता है तुम्हें मैं तो बस एक समभाव तुम्हारा इंतज़ार करती रहती हूँ तुम आओ, ना आओ बस कह देना कि आऊँगा || अपनी काव्य यात्रा के बारे में अपनी बात में नंदा जी लिखती हैं कि … “पतझड़ में पत्तों का गिरना, अँधेरी रात में परछाइयों का गहराना, परिंदों का घरौंदा बनाना और घरौंदे का अपनाप बिखर जाना …ऐसी कितनी ही बातें बहा ले जाती मुझे, हवा के झोंकों की तरह और मेरी विस्फारित आँखें वीरान कोनों में अर्थ खोजने लगती हैं | इन्हीं वीरान कोनों में अर्थ खोजने के दौरान कई बार खुल जाती है स्मृतियों की पिटारी | जैसे किसी ने अनजाने में कोने में रखे किसी सितार को छेड़ दिया हो | इस आरोह –अवरोह में झंकृत हो उठी हो अंतर्मन की शांत दुनिया | जो व्यक्त है उसे शब्दों में बाँधा जा सकता है, सुरों में ढाला जा सकता है, कूचियों से कैनवास के सफ़ेद कागज़ पर उकेरा जा सकता है | पर सवाल ये है कि क्या प्रेम को पूरी तरह से व्यक्त किया जा सकता है ? नहीं न !! कितना भी व्यक्त करने का प्रयास किया जाये कुछ तो अव्यक्त रह ही जाता है | ये प्रेम है ही ऐसा …गूंगे के गुण जैसा … “कुछ कहना चाहती थी वो पर जाने क्यों … ‘कुछ कहने की कोशिश में बहुत कुछ छूट जाता था उसका… करीने से सजाने बैठती उन यादों से भरी टोकरी को जिसमें भरे पड़े थे उसके बीते लम्हों के कुछ रंग –बिरंगे अहसास कुछ यादें –कुछ वादे , और भी बहुत कुछ … कवयित्री नंदा जी एक पारंगत कवि हैं जो अपनी काव्य क्षमता का प्रदर्शन केवल भाव और शब्द सौन्दर्य से ही नहीं करती अपितु उसमें प्राण का सम्प्रेषण करने के लिए प्रकृति का मानवीयकरण भी करती हैं | … तुम्हारी प्रतीक्षा से उत्सर्ग तक की दूरी बाहर आज धरती के आगोश में ‘पारिजात’भी कुछ पाने की बेचैनी और खोने की पीड़ा से गुज़र रहा था बिलकुल मेरी तरह अब प्रेम से इतर कुछ कविताओं की बात करना चाहूंगी जो मुझे काफी अच्छी लगीं | इन कविताओं में स्त्री जीवन की आम घटनाएं दृष्टिगोचर होती हैं | अल्हड़ लडकियाँ नहीं करती इंतज़ार आषाढ और सावन का अपने अंत:स्त्रवन के लिए बरसते मेघ में भीग कर लिख लेती हैं कवितायें और एक बानगी यह देखिये … आज कलम उठाते ही पहली बार उसने अपने पक्ष में फैसला सुनाया पहली बार तय किया कि अब वो लिखेगी अपने लिए और अंत में मैं फिर कहना चाहूंगी कि कवि हो या लेखक उसका स्वाभाव उसके लेखन में झलकता है | नंदा जी एक भावुक व्यक्ति हैं | एक भावुक व्यक्ति अंत: जगत में ज्यादा जीता है | बाहर की पीड़ा तो कम भी हो जाती है पर अंत : जगत की कहाँ ? यही कविता लिखने का मुख्य बिंदु है | जहाँ वो पीड़ा को अपने पास रख लेना चाहती है….केवल आश्वासन के मखमली अहसास के बहलावे से | बोधि प्रकाशन से प्रकाशित 120 पेज के इस कविता संग्रह का मूल्य है 150 रुपये है | करीब … Read more

लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ

आज मैं आप के साथ बात करुँगी गीताश्री जी के नए कहानी संग्रह लिट्टी-चोखा के बारे में | लिट्टी-चोखा बिहार का एक स्वादिष्ट व्यंजन है | किसी कहानी संग्रह का नाम उस पर रख देना चौंकाता है | लेकिन गौर करें तो दोनों में बहुत समानता है | एक अच्छी कहानी से भी वही तृप्ति  मिलती है जो लिट्टी- चोखा खाने से | एक शरीर का भोजन है और एक मन का | और इस मन पर  पर तरह –तरह की संवेदनाओं के स्वाद का असर ऐसा पड़ता है कि देर तक नशा छाया रहता है | जिस तरह से धीमी आंच पर पकी लिट्टी ही ज्यादा स्वादिष्ट होती है वैसे ही कहानियाँ भी, जिसमें लेखक पूरी तरह से डूब कर मन की अंगीठी  में भावनाओं को हौले –हौले से सेंक कर पकाता है | गीताश्री जी ने इस कहानी संग्रह में पूरी ऐतिहात बरती है कि एक –एक कहानी धीमी आंच पर पके | इसलिए इनका स्वाद उभरकर आया है |     ये नाम इतना खूबसूरत और लोक से जुड़ा है कि इसके ट्रेंड सेटर बन जाने की पूरी सम्भावना है | हो  सकता है आगे हमें दाल –बाटी, कढ़ी, रसाजें, सरसों का साग आदि नाम के नाम कहानी संग्रह पढने को मिलें | इसका पूरा श्रेय गीताश्री जी और राजपाल एंड संस को जाना चाहिए | कहानीकारों से आग्रह है कि वो भारतीय व्यंजनों को ही वरीयता दें | मैगी, नूडल्स, पिजा, पास्ता हमारे भारतीय मानस के अनकूल नहीं | ना ही इनके स्वाद में वो अनोखापन होगा जो धीमी आँच में पकने से आता है | भविष्य के कहानी संग्रहो के नामों की खोज पर विराम लगाते हुए बात करते हैं लिट्टी –चोखा की थाली यानि कवर पेज की | कवर पेज की मधुबनी पेंटिंग सहज ही आकर्षित करती है | इसमें बीजना डुलाती हुई स्त्री है | सर पर घूँघट. नाक में नाथ माथे पर बिंदिया | देर तक चूल्हे की आंच के सामने बैठ सबकी अपेक्षाओं पर खरी उतरने वाली, फुरसत के दो पलों में खुद पर बीजना झल उसकी बयार में सुस्ता रही है | शायद कोई लोकगीत गा रही हो | यही तो है हमारा लोक, हमारा असली भारत जिसे सामने लाना भी साहित्यकारों का फर्ज है | यहाँ ये फर्ज गीताश्री जी ने निभाया है |   गीताश्री जी लंबे अरसे तक पत्रकार रहीं हैं, दिल्ली में रहीं हैं |  लेकिन उनके अन्दर लोक बसता है | चाहें बात ‘हसीनाबाद’ की हो या ‘लेडीज सर्किल’ की, यह बात प्रखरता से उभर कर आती है | शायद यही कारण है कि पत्रकारिता की कठोर जीवन शैली और दिल्ली निवास के बावजूद उनके अंदर सहृदयता का झरना प्रवाहमान है | मैंने उनके अंदर सदा एक सहृदय स्त्री देखी है जो बिना अपने नफा –नुक्सान का गणित लगाए दूसरी स्त्रियों का भी हाथ थाम कर आगे बढ़ाने  में विश्वास रखती हैं | साहित्य जगत में यह गुण बहुत कम लोगों में मिलता है | क्योंकि मैंने उन्हें काफी पढ़ा है इसलिए यह दावे के साथ कह सकती हूँ कि उन्होंने लोक और शहरी जीवन दोनों ध्रुवों को उतनी ही गहनता से संभाल रखा है | ऐसा इसलिए कि वो लंबे समय से दिल्ली में रहीं हैं | बहुत यात्राएं करती हैं | इसलिए शहर हो या गाँव हर स्त्री के मन को वो खंगाल लेती है | सात पर्दों के नीचे छिपे दर्द को बयान कर देती हैं |जब वो स्त्री पर लिखती हैं या बोलती हैं तो ऐसा लगता है कि वो हर स्त्री के मन की बात कह रही हैं | उनके शब्द बहुत धारदार होते हैं जो चेहरे की किताबों के अध्यन से व गहराई में अपने मन में उतरने से आते हैं | उनकी रचनाओं में बोलते पात्र हैं पर वहाँ हर स्त्री का अक्स नज़र आता है | यही बात है की उनकी कहानियों में स्त्री पात्र मुख्य होते हैं | हालांकि वो केवल स्त्री पर ही नहीं लिखती वो निरंतर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं | भूतों पर लिखी गयी ‘भूत –खेला ‘इसी का उदाहरण है | अभी वो पत्रकारिता पर एक उपन्यास ‘वाया  मीडिया’ ला रही हैं | उनकी रेंज देखकर लगता है कि उन्हें कहानियाँ ढूँढनी नहीं पड़ती | वो उनके अन्दर किसी स्वर्णिम संदूक में रखी हुई हैं | जबी उन्हें जरूरत होती है उसे जरा सा हिला कर कुछ चुन लेती हैं और उसी से बन जाता है उनकी रचना का एक नया संसार | वो निरंतर लिख कर साहित्य को समृद्ध कर रही हैं | एक पाठक के तौर मुझे उनकी कलम से  अभी और भी बहुत से नए विषयों की , नयी कहानियों की, उपन्यासों की प्रतीक्षा है |   लिट्टी-चोखा व् अन्य कहानियाँ –धीमी आंच में पकी स्वादिष्ट कहानियाँ            “लिट्टी-चोखा” कहानी संग्रह में गीताश्री जी दस कहानियाँ लेकर आई हैं | कुछ कहानियाँ अतीत से लायी हैं जहाँ उन्होंने झाड़ पोछ कर साफ़ करके प्रस्तुत किया है | कुछ वर्तमान की है तो कुछ अतीत और वर्तमान को किसी सेतु की तरह जोडती हुई | तिरहुत मिथिला का समाज वहाँ  की बोली, सामाजिकता, जीवन शैली और लोक गीत उनकी कहानियों में सहज ही स्थान पा गए हैं | शहर में आ कर बसे पात्रों में विस्थापन की पीड़ा झलक रही है | इन कहानियों में कलाकार पमपम तिवारी व् राजा बाबू हैं, कस्बाई प्रेमी को छोड़कर शहर में बसी नीलू कुमारी है , एक दूसरे की भाषा ना जानने वाले प्रेमी अरुण और जयंती हैंअपने बल सखा को ढूँढती रम्या है और इन सब के बीच सबसे अलग फिर भी मोती सी चमकती कहानी गंध-मुक्ति है | एक खास बात इस संग्रह किये है कि गीताश्री जी ने इसमें शिल्प में बहुत प्रयोग किये हैं जो बहुत आकर्षक लग रहे हैं | जो लगातार उन्हें पढ़ते आ रहे हैं उन्हें यहाँ उनकी कहन शैली और शिल्प एक खूबसूरत बदलाव नज़र आएगा |   अक्सर मैं किसी कहानी संग्रह पर लिखने की शुरुआत उस कहानी से करती हूँ जो मुझे सबसे ज्यादा पसंद आई होती है |  पर इस बार दो कहानियों के बीच में मेरा मन फँस गया | ये कहानियाँ हैं  “नजरा गईली … Read more

शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल

 वंदना गुप्ता जी उन लेखिकाओं में से हैं जो निरंतर लेखन कार्य में रत हैं | उनकी अभी तक १२ किताबें आ चुकी हैं  और वो अगली किताबों पर काम करना शुरू कर चुकी हैं | इसमें सात कविता की भी पुस्तकें हैं और एक कहानी संग्रह, दो उपन्यास और समीक्षा की दो किताबें | लेखन में अपनी सक्रियता  से उन्होंने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | कविता ह्रदय की ध्वनि है | भावों की अंजुली में कब भोर में झरते हर्सिगार के पुष्पों से सुवासित हो जायेगी, कोई नहीं जानता | गद्य लेखन में पात्रों की मन की भीतरी पर्तों में न सिर्फ झाँकना होता है बल्कि उसका पोस्ट मार्टम करके रेशा –रेशा अलग करना पड़ता है | कई बार मामूली कथ्य की वल्लरी मजबूत शिल्प का सहारा पकड़ पाठकों के हृदय में अपनी पैठ बना लेती है तो कई बार एक दमदार कथ्य अनगढ़ शिल्प के साथ भी अपनी बात मजबूती से रख पाता है | पर कथ्य, शिल्प, भाव, भाषा के खम्बों पर अपना वितान तानती कहानी ही कालजयी कहानी होती है | मैंने वंदना जी की  कविता की चार  किताबों (बदलती सोच के नए अर्थ, प्रश्न चिन्ह …आखिर क्यों ?, कृष्ण से संवाद और गिद्ध गिद्धा कर रहे हैं ) कहानी संग्रह (बुरी औरत हूँ मैं ) और दोनों उपन्यासों ( अँधेरे का मध्य बिंदु और शिकन के शहर में शरारत को पढ़ा है | कविताओं में वो समकालीन स्थितियों, मानवीय संवेदनाओं और आध्यात्म पर अपनी कलम चलाती हैं | कृष्ण से संवाद पर मैं कभी विस्तृत समीक्षा लिखूँगी | उनकी कहानियों में एक खास बात है वो ज्यादातर नए विषय उठाती हैं | फार्मूला लेखन के दौर में ये एक बड़ा खतरा है पर वो इस खतरे को उठाती रहीं हैं | अपनी कहानी संग्रह में भी उन्होंने बुरी औरत को देखने के दृष्टिकोण को बदलने की जरूरत पर जोर देते हुए “बुरी औरत हूँ मैं “ कहानी लिखी हैं | इसके अलावा स्लीप मोड, वो बाईस दिन , आत्महत्या के कितने कारण, कातिल कौन में बिलकुल नए विषयों को उठाया है | अपने उपन्यास अँधेरे के मद्य बिंदु में उन्होंने लिव इन के विषय को उठाया है | लिव इन पर कुछ और भी कहानियाँ आई हैं | उनमें मुझे ‘करुणावती साहित्य धारा में प्रकाशित संगीता सिंह भावना की कहानी याद आ रही है | उपन्यास में ये विषय नया है | ज्यादातर हिंदी कहानियों में  विवाह संस्था को लिव इन से ऊपर रखा गया है | परन्तु ‘अँधेरे का मध्य बिंदु ‘ में विवाह के रिश्ते के दवाबों की भी चीर-फाड़ करी है | अपेक्षाओं के फंदे पर लटकते हुए प्रेम को समझने का प्रयास भी किया गया है | इसके बाद वो लिव का पक्ष लेते हुए तर्क देती हैं विवाह हो या लिव इन उसे अपेक्षाओं के दंश से मुक्त होना पड़ेगा तभी प्रेम का कमल खिल सकेगा | हम बड़े बुजुर्गों के मुँह से ये सुनते आये हैं कि विवाह एक समझौता है और यही वाक्य यथावत अगली पीढ़ी को पहुँचा देते हैं | इस समझौते को बनाए रखने में कई बार जिस चीज को दांव पर लगाया जाता है वो किसी भी रिश्ते की सबसे कीमती चीज होती है यानि प्रेम और विश्वास | वंदना जी  विवाह की मोहर से ज्यादा किसी युगल के मध्य इसे बचाए रखने की वकालत करती हैं |वस्तुतः विवाह समझौता न होकर सहभागिता होनी चाहिए | शिकन के शहर में शरारत- खाप पंचायण के खिलाफ़ बिगुल   वंदना जी दिल्ली में रहती हैं और दिल्ली में ही पढ़ी लिखी हैं | उनकी ज्यादातर कहानियों में मेट्रो कल्चर और उसका जीवन दिखता है | मेट्रो शहरों का जीवन, वहां का आचार-व्यव्हार, वहां की समस्याएं , जिन्दगी की आपाधापी, गांवों के शीतल शांत जीवन से बिलकुल अलग हैं | अगर 50 % लोगों का वो सच है | तो 30 % लोगों का ये सच है | 20 % वो लोग हैं जो ऐसे शहरों में रहते हैं जो ना तो गाँव की तरह तसल्ली से परिपूर्ण हैं न मेट्रो शहरों की तरह भागते हुए | ये कहानीकार की विडंबना ही हो सकती है कि कई बार एक सच को दूसरा समझ नहीं पाता | मुझे एक वाक्य याद आ रहा है | हमारे एक परिचित जो कनाडा में रहते हैं वो बताने लगे कि वहां सप्ताह में किसी भी दिन किसी की मृत्यु हो अंतिम संस्कार शनिवार को ही होता है | क्योंकि किसी के पास इतना समय ही नहीं होता कि काम से छुट्टी ले कर जा सके | ये बात सुनकर गाँव की रधिया चाची तो पल्ले को मुँह पर रख कर बोली, “ऐ दैया! का मानुष नहीं बसते हैं उहाँ ? इहाँ तो रात के दुई बजे भी काहू के घर से रोने की आवाज आ जाए तो पूरा गाँव इकट्ठा हो जात है |” आश्चर्य कितना भी हो सच तो दोनों ही है | कहानीकार के हाथ में बस इतना है कि वो जहाँ की कहानी लिख रहा है उसके साथ वहीँ की परिस्थितियों में जाकर खड़ा हो जाए तभी वो कहानी के साथ न्याय कर सकता है | “शिकन के शहर में शरारत’ में वंदना जी दिल्ली से दूर हरियाणा के एक गाँव में पहुँच गयी हैं | दिल्ली के मेट्रो  कल्चर में बेरोकटोक लहलहाते प्रेम की फसल को दिल्ली की नाक से बस थोड़ा सा नीचे खरपतवार के मानिंद समूचा काट कर फेंक देने की रवायत का पर्दाफाश करतीं  हैं | ये उनका दूसरा उपन्यास है | “अँधेरे का मध्य बिंदु “ काफी लोकप्रिय रहा है | ऐसे में उनके दूसरे उपन्यास से अपेक्षाएं बढ़ जाना स्वाभाविक है | अपनी भूमिका “यथास्थिति में असहजता पैदा करने की कोशिश” में पंकज सुबीर जी लिखते हैं कि कोई लेखक हो या ना हो एक उपन्यास सभी के मन में रहता है | वो शब्दों में व्यक्त करे या ना करे पर एक उपन्यास की कथा उसके साथ हमेशा चलती है | असली पहचान दूसरे उपन्यास से होती है और असली परीक्षा भी | भोपाल के कवी –कथाकार संतोष चौबे की कविता का शीर्षक है , “कठिन है दूसर उपन्यास लिखना | वाकई दूसरा उपन्यास लिखना कठिन है | ये चुनौती … Read more

समीक्षा –कहानी संग्रह किरदार (मनीषा कुलश्रेष्ठ)

That what  fiction is for . It’s for getting at the truth when the truth  isn’t sufficient for the truth “-Tim o’ Brien मनीषा कुलश्रेष्ठ जी हिंदी साहित्य जगत में किसी परिचय की मोहताज़ नहीं हैं |उनकी कहानी ‘लीलण’ जो इंडिया टुडे में हाल ही में प्रकाशित हुई है  आजकल चर्चा का विषय बनी हुई है | एक गैंग रेप विक्टिम की संवेदनाओं को एक मार्मिक कथा के माध्यम से जिस तरह से उन्होंने संप्रेषित किया है उसके लिए वो बधाई की पात्र हैं | मनीषा जी अपनी  कहानियाँ के  किरदारों के मन में उतरती हैं और उनके मन में चलने वाले युद्ध, द्वंद , गहन इच्छाशक्ति के मनोविज्ञान के साथ कहानी का ताना –बाना बुनती हैं | वो आज के समय की सशक्त कथाकार हैं | उनकी कहानियों में विविधता है, उनकी कहानियों में विषयों का दोहराव देखने को नहीं मिलता, हमेशा  वो नए –नए अछूते विषयों को उठाती रहती हैं | इसीलिये उनकी  हर कहानी दूसरी कहानी से भिन्न होती है , न सिर्फ कथ्य में बल्कि शिल्प और भाषा में भी | वो बहुत प्रयोग करती हैं और उनके प्रयोगों ने हिंदी साहित्य को समृद्ध किया है | उनके कई उपन्यास मैंने पढ़े हैं | जिनमें शिगाफ, स्वप्नपाश और मल्लिका प्रमुख हैं | तीनों के ही विषय बिलकुल अलग हैं | अपने किरदारों के बारे में उनका कहना है कि “ मेरे किरदार थोड़ा इसी समाज से आते हैं, लेकिन समाज से थोड़ा दूरी बरतते हुए | मेरी कहानियों में फ्रीक भी जगह पाते हैं, सनकी, लीक से हटेले और जो बरसों किसी परजीवी की तरह मेरे जेहन में रहते हैं | जब मुक्कमल आकार प्रकार ले लेते हैं , तब ये किरदार मुझे विवश करते हैं, उतारो ना हमें कागज़ पर | कोई कठपुतली वाले की लीक से हटकर चली पत्नी, कोई बहरूपिया, कोई दायाँ करार दी गयी आवारा औरत , बिगडैल टीनएजर, न्यूड मॉडलिंग करने वाली …”     किरदार -मेरे किरदार में मुज्मर है तुम्हारा किरदार आज मैं जिस कहानी संग्रह के बारे में आप से चर्चा कर रही हूँ उसका नाम भी  ‘किरदार’ है  | यूँ तो हम सब का जीवन भी एक कहानी ही है | और हम  अपने जीवन की कहानी का किरदार निभा रहे हैं |कहीं ये किरदार जीवंत हैं मुखर हैं तो कहीं अपनी ही जद  में कैद हैं | ये किरदार अपने बारे में बहुत कुछ छिपाना चाहते हैं, परन्तु जिद्दी कलमें उन्हें वहां से खुरच –खुरच कर लाती रहीं हैं | ये मशक्कत इसलिए क्योंकि असली कहानी तो वही है जिसका संबंध असली जिन्दगी से है | ऐसा ही कहानी संग्रह है किरदार | इस कहानी संग्रह में मनीषा जी ऐसे किरदार लेकर आई हैं जो लीक से हट कर हैं | सबके अपने अपने अंतर्द्वंद हैं | इसलिए मनीषा जी उन अनकहे दर्द की तालाश में उनके मन को गहराई तक खोदती चली जाती हैं | बहुत ही कम संवादों के माध्यम से वो उनका पूरा मनोविज्ञान पाठक के सामने खोल कर रख देती हैं |ज्यादातर कहानियों में उच्च मध्यम वर्ग है जो बाहरी दिखावे में इतने उलझे रहते हैं कि इनके दरवाजों और चेहरों की सतह पर ठहरी हुई कहानियाँ एक बड़ा छलावा, एक बड़ा झूठ होती हैं | असली कहानियाँ तो किसी तहखाने में बंद होती हैं और वहां तक जाने की सुरंग लेखक किस तरह से बनाता है पूरी कहानी का भविष्य इसी पर निर्भर होता है | अब  ये उलझे हुए किरदार उन्हें कहाँ मिले, कैसे मिले ? पाठक के मन में स्वाभाविक रूप से उठने वाले इन प्रश्नों को उन्होंने पुस्तक की भूमिका में ही उत्तर दे दिया है | “इस बार फिर कुछ बेसब्र किरदारों के साथ कुछ शर्मीले पर्दादार किरदारों की कहानियाँ ले कर आई हूँ | हर बार ये मुझे औचक किसी सफ़र से उतारते हुए या सफ़र के लिए चढ़ते हुए मिले |” “एक बोलो दूजी मरवण ….तीजो कसूमल रंग” ये नाम है संग्रह की पहली कहानी का | प्रेम जीवन का सबसे जरूरी तत्व लेकिन सबसे अबूझ पहेली | ये जितना सूक्ष्म है उतना ही विराट | कोई सब कुछ लुटा कर भी कुछ नहीं पा पाता है तो किसी के हृदय के छोटे रन्ध में पूरा दरिया समाया होता है |  आज जब दैहिक प्रेम की चर्चाएं जोरो पर हैं और ये माना जाने लगा है कि प्रेम में देह का होना जरूरी है तो मनीषा जी की ये कहानी रूहानी प्रेम की ऊँचाइयों  को स्थापित करती हैं | एक प्रेम जो अव्यक्त हैं , मौन है लेकिन इतना गहरा कि सागर भी समां जाए | एक ऐसा प्रेम जिसमें ना साथ की चाह  है न ही अधिकार भाव, और ना ही शब्दों के बंधन में बांध कर उसे लघु करने की कामना | एक ऐसा प्रेम जिसका साक्षी है एक और प्रेमी युगल |  मध्यवय का  भावों को रंगों से कैनवास पर उतारता चित्रकार युगल | जो कालाकार हैं, आधुनिक हैं , बोहेमियन हैं और सफल भी | ऐसा युगल जिसका प्रेम शर्तों में बंधा है | पास आने की शर्ते, साथ रहने की शर्ते और दूर जाने की भी शर्ते साक्षी बनता है एक ऐसे प्रेम का भीड़ भरी बस में कुछ समय के लिए अव्यक्त रूप से व्यक्त होता है और फिर उस गहराई को अपने में समेट कर अपनी –अपनी राह पर चल देता है | बिलकुल संध्या की तरह, जहाँ दिन और रात मिलते हैं कुछ समय के लिए फिर अपने अपने मार्ग पर आगे बढ़ जाते हैं प्रेम की उस गरिमा को समेट कर | संध्या काल पूजा के लिए आरक्षित है क्योंकि पूजा ही तो है ऐसा प्रेम | वासना रहित शुद्ध, शुभ्र | ऐसा ही तो है कसमूल  रंग | सबसे अलग सबसे जुदा जो ना लाल है , ना गुलाबी , ना जमुनी ना मैजेंटा | आपने कई प्रेम कहानियाँ पढ़ी होंगी पर इस कहानी में प्रेम का जो कसमूल रंग है वो रूह पर ऐसा चढ़ता है कि उतारे नहीं उतरता |प्रेम की तलाश में भटके युगल शायद …शायद यही तो ढूंढ रहे हैं | “हमारे समान्तर एक प्रेम गुज़र गया था |अपनी लघुता में उदात्ता लिए | अ-अभिव्यक्त, अ –दैहिक, अ –मांसल | और … Read more

बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर

 उषा दी के उपन्यास गयी झुलनी टूट के बाद मन में एक पीड़ा सी पसर गयी थी | झुलनी मेरे मन पर काबिज थी | इसलिए तुरंत मैं कोई गंभीर कृति नहीं पढना चाहती थी | कुछ हल्का –फुल्का, मजेदार पढने के उद्देश्य से मैंने भगवंत अनमोल जी का राजपाल प्रकाशन से प्रकाशित उपन्यास ‘बाली उमर’ उठाया | जैसा की कवर पेज देख कर और कुछ चर्चा में सुन –पढ़कर  लगा रहा था कि बच्चों की मासूम शरारतों के ऊपर होगा | लिहाजा मुझे अपना चयन उचित ही लगा | जिन्होंने भगवंत अनमोल जी के जिन्दगी 50-50 पढ़ा है , यहाँ उन्हें वो बिलकुल अलग शैली में ही नज़र आयेंगे | किताब उठाते ही पता चला कि ये कहानी तो कानपुर की है | जिसके कारण थोड़ी ख़ुशी बढ़ गयी | पुराना नवाबगंज याद आने लगा | नवागंज से हम लोगों की पहचान चिड़ियाघर यानि की Zoo के साथ जुडी थी | जिनको नहीं पता उनको बता दूं कि कानपुर का चिड़ियाघर 76.55 एकड़ में फैला नार्थ इण्डिया का सबसे बड़ा Zoo है | आंकड़े तो खैर बाद में पता चले पर अनुभव ये था कि हम लोग के घर के बड़े चलते –चलते थक जाते थे और एक जगह बैठ जाते थे और हम बच्चों को बड़ों की डांट के बिना मुक्त विचरण का सुअवसर मिलता था | तब कौन जानता था कि नवाबगंज के किसी दौलतगंज मुहल्ले में लेखक की कल्पना का गाँव होगा जहाँ उसके अनुभव व् कल्पना का गठजोड़ बच्चों के संसार में जाकर किसी “बाली उमर “ को लिखेगा | इस उपन्यास के मुख्य पात्र बच्चे हैं पर ये बच्चों के लिए नहीं है | बड़ों को बचपन की उम्र में ले जाने के लिए हैं | हालांकि जब मैंने ये उपन्यास शुरू किया तो मैं इससे बहुत कनेक्ट नहीं कर पायी |  लेकिन जैसे –जैसे “पागल है” का चरित्र आगे बढ़ता गया मेरे पाठक मन पर उपन्यास अपना शिकंजा कसता गया | अब क्यों कनेक्ट नहीं कर पायी और फिर क्यों उपन्यास ने प्रभावित किया   इसके बारे में बताती हूँ |उसी तरीके से जैसी छूट लेखक ने ली है , कुछ आगे का पीछे और पीछे का हिस्सा आगे करने की शैली के साथ | बाली उमर-बचपन की शरारतों , जिज्ञासाओं के साथ भाव नदी में उठाई गयी लहर  कहानी की शुरुआत होती है पात्र परिचय से | जैसा कि विदित है की ये चारों मुख्य  पात्र बच्चे हैं | लेखक एक-एक पात्र की विशेषता बताते हुए आगे बढ़ते हैं | ये चार पात्र हैं | पोस्टमैन, खबरी लाल , गदहा  और आशिक और इनके बीच में “पागल है “ का किरदार | जिसकी चर्चा बाद में | तो पोस्टमैन वो बच्चा है जो किशोर और युवा प्रेमियों के खत इधर –उधर पहुँचाने का काम करता है  | हर मौहल्ले  में ऐसे कुछ बच्चे होते है जो इस नेक काम के स्वयंसेवक होते हैं | अब क्योंकि वह चिट्ठियाँ इधर –उधर पहुचाने के दौरान उन्हें पढ़ भी लिया करता था इसलिए उसका ज्ञान दूसरे बच्चों से ज्यादा हो गया था था | जिसके कारण वो अपनी मंडली का सबसे योग्य सदस्य समझा जाता था | दूसरा बच्चा है खबरीलाल | खबरीलाल  के पिता दुदहा थे | यानि गाँव भर से दूध इकट्ठा कर शहर में बेचा करते थे | खबरीलाल  इसमें अपने पिता का हाथ बँटाता था | गाँव भर  के घरों में जाने के कारण उसे हर घर की खबर रहती थी | आप उसे पत्रकार की श्रेणी में रख सकते हैं | खबरों को  वो अपने दोस्तों से साझा कर बिना खरीदे खबर  देने का अपना पत्रकारिता धर्म निभाता था | तीसरा बच्चा है गदहा या रिंकू | उसके पिता फ़ौज में हैं | उस गाँव में जो बच्चे पढने में अच्छे होते थे वो या तो फ़ौज में जाते थे या लेखपाल हो जाते थे | गदहा भी पढने में होशियार था और उम्मीद थी कि वो भी अपने पिता के नक़्शे –कदम पर चल कर फ़ौज में जाएगा | गदहा  की खास बात थी की वो बहुत प्रश्न पूछता था | वो पढने से भी ज्यादा सोचता था | ऐसे बच्चों को शहर में लोग साइंटिस्ट की उपाधि देते पर गाँव में उसको इसी वजह से गदहा की उपाधि मिली | चौथा बच्चा है आशिक | उसका परिचय देते हुए भगवंत अनमोल  कहते हैं कि हर मुहल्ले में एक ऐसा बच्चा जरूर होता है जो बचपन से ही आशिक गिरी  को बखूबी संभाल  लेता है | उसे आशिकी के ज्ञान की भी अधिक जरूरत नहीं होती |  ऐसा लगता है कि ये जन्म से ही आशिक पैदा हुआ है और पैदा होते ही गोविंदा का रक्त उसके सारे शरीर में  बहने लगा | खैर, पोस्टमैन और खबरीलाल सांवले थे और दर्जा तीन में पढ़ते थे | गदहा और आशिक गोरे  थे | आशिक कक्षा दो में और गदहा एक में पढता है | कहानी बच्चों की छोटी –मोटी  जिज्ञासाओं के साथ शुरू होती है | गदहा के लिए बड़ा कठिन प्रश्न है ये जानना कि पृथ्वी गोल है या चपटी | पोस्टमैन उसकी इस जिज्ञासा को कई प्रयोग करके ये सिद्धकर देते हैं कि पृथ्वी चपटी है | इस तरह के कई मनोरंजक किस्से हैं | मुझे प्रतीक्षा थी बचपन के ऐसे ही अनेकों मासूमियत भरे किस्सों की लेकिन कहानी का  एक बड़ा हिस्सा बच्चों के स्त्री –पुरुष संबंधों के प्रति कौतुहल, फिर उसको गन्दी बात समझ कर मन हटाने की कोशिश  और फिर उसको स्वाभाविक समझ जाने पर है | हालांकि भगवंत जी ने बहुत पहलें  एक इंटरव्यू में इस विषय के बाबत पूछे जाने पर कहा था कि,   “जब कहीं बच्चों के उपन्यास या कहानियाँ पड़ता हूँ तो उसमें नैतिक शिक्षा कूट -कूट कर भरी होती है | लेकिन जब कभी मुझे अपना या अपने आस -पास का बचपन याद आता है तो मैं ये कह सकता हूँ कि उस बाहरी नैतिक शिक्षा के भीतरी मन में कई व्यस्क सवाल और ख्याल चल रहे होते थे | दुनिया को जानने की जिज्ञासा होती थी खासकर उन चीजों को जानने की ज्यादा जिज्ञासा होती थी जो हमसे छिपाई जाती थी |”  ये बात भी सही है कि  बच्चों की … Read more