गयी झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा

                                                ‘पदमश्री’ और ‘भारत भारती’ आदि अनेकों श्रेष्ठ  पुरुस्कारों से सम्मानित डॉ. उषाकिरण खान जी यानि कि उषा दी का किताबघर से प्रकाशित उपन्यास ‘गयी झुलनी टूट’ अपने नाम से जितना आकर्षित करता है उतना ही अपने कवर पेज से भी | इसके कवर पेज में बनी मधुबनी पेंटिग सहज ही ध्यान खींच लेती है | उन्होंने ‘महालक्ष्मी’ मधुबनी को इस किताब में क्रेडिट भी दिया है | लोक कलाओं के विस्तार का उनका ये तरीका मन को छू गया | उषा दी का नाम आते ही पाठकों के मन में  ‘भामती, ‘अगन हिंडोला’ और ‘भामती’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों की याद ताज़ा हो जाती है | पर यह उपन्यास उनसे अलग हट कर है | इसमें हाशिये के चरित्रों के जीवन के संघर्षों को दिखाया गया है | इसमें वो एक मार्मिक सवाल उठाती हैं कि “…जीवन केवल संगसाथ नहीं है | अगर संगसाथ है तो वंचना क्यों है ?” पूरा उपन्यास एक स्त्री के संघर्ष की जीवंत कहानी है जो कहीं ठहरती नहीं | हर धड़कन के साथ धड़कती हुई महसूस होती है | उषा दी  निरंतर अपने आस –पास के परिवेश की कहानियाँ लिखती आई हैं | उनकी कहानियाँ गल्प नहीं होती जीवन का यथार्थ होती हैं | इसीलिये वो मन में गहरे उतर जाती हैं | उनकी कहानियाँ से  उस परिवेश  के जीवन व् स्त्रियों की दशा, पर्यावरण आदि के बारे में भी बहुत कुछ जानने समझने को मिलता है | जो यहाँ शहर में बैठ कर हम नहीं देख पाते | वो स्वयं कहती हैं कि ,  “मैंने जब 1977 से कहानी लिखने के लिए कलम उठाई तब से यही कह रही हूँ कि जहाँ रहती आई हूँ उस भूमि की, नदी की पर्यावरण की कथा किसी ने नहीं लिखी | वह स्थान ओझल ही रहा | वह स्थान ओझल रहा तो स्त्री भी ओझल ही रही | मेरी कहानी पढ़कर कुछ तो टूटा |” उनके विमर्श शहरी स्त्री के सरोकारों से ना जुड़े होकर भारतीय गाँवों की स्त्री के सरोकारों से जुड़े हैं | जहाँ आज भी भारत की 80 प्रतिशत आबादी रहती है | गाँव की स्त्री के सरोकार शहरी स्त्री के सरोकार से भिन्न हैं | उसके कष्ट अलग हैं | वहाँ  सवाल शुचिता का नहीं है |  आज हम शहर में जिन ‘लिव इन’ संबंधों की बात कर रहे हैं, जिन पर लिखी कहानियाँ नए ज़माने के तथाकथित  ‘दैहिक विमर्श’ के खाँचे में धकेल दी गयी हैं,  वो गाँवों में मौजूद ही नहीं है  पूरी तरह से स्वीकार्य भी है | किसी की यहाँ  का समध कर लेना, किसी की चूड़ी बदल लेना ये सब शब्द गाँवों में आम हैं | स्त्री की शुचिता का वो प्रश्न यहाँ नहीं दिखता जिस पर शहरों में तलवारें तन जाती हैं | वो दुखी है पर उसके दुःख अलग हैं | सच्चाई ये है कि  उनके जीवन में  कष्टों की नदी का कोई ओर छोर नहीं है | उनके पति शहर में रोजी रोटी कमाने चले जाते हैं और पीछे बच जाती हैं औरतें | ये औरते जो परिवार के विरिष्ठ लोगों द्वारा प्रताड़ित की जाती हैं | अकेली जीवन काटती बच्चों को पालती स्त्री के मार्ग में अपने ही क्या –क्या काँटे बो सकते हैं वे उस पर मार्मिकता से प्रहार करती हैं | रोजी-रोटी  की तलाश में जो औरतें गाँवों से आकर बड़े शहरों  में झुग्गियों में बस गयीं हैं | वो हमारे बड़े शहरों के वो अँधेरे कोने हैं जिस पर हम प्रकाश डालने से भी बचते हैं | रोज सुबह समय पर आकर हमारे घरों की फर्श को आईने की तरह चमकाने वाली हमारी कामवालियों, घरेलु सहायिकाओं  की अपनी निजी जिन्दगी किस कालिमा में डूब रही है उसका किसी विमर्श का हिस्सा न बनना निराशाजनक है | शहर आ कर अपनी पहचान खो चुकी ये चेहराविहीन स्त्रियाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई नहीं लड़ती,ये दो जून रोटी की लड़ाई लड़तीं हैं | हर सूर्योदय के साथ इनका संघर्ष उदय होता है और हर सूर्यास्त को पस्त हुए तन-मन के साथ अस्त होता है कुछ घंटों की बेचैन रात  में ठहरने के बाद अगले सूर्योदय को फिर उदित होने के लिए | हालांकि ये स्त्रियाँ  संघर्षशील स्त्रियाँ  है | वह किसी स्थान पर अटक कर रोते हुए जिन्दगी नहीं काटती बल्कि संघर्ष करते हुए आगे के रास्ते बनाती है | इनके जीवन में आपसी इर्ष्या और परनिंदा है पर समय आने पर ये एक दूसरे को सहयोग देकर फिर से खड़ा करने में भी तत्पर रहती हैं | “जीवन की गति न्यारी है | नदी तल से निकाली मिटटी की तरह फिर समतल हो जाना नियति है |” जब आप कहानी के माध्यम से आगे बढ़ते जाते हैं तो सिर्फ आप कहानी ही नहीं पढ़ते लोक जीवन से रूबरू होते हैं | लोक संस्कृति से रूबरू होते हैं | गाँव के पंचायत निर्माण की प्रक्रिया हो या प्रधानी के चुनाव किस तरह सम्पन्न होते हैं उसकी जानकारी भी मिलती है | वहाँ घांटो जैसा मजबूत चरित्र हैं जो गाँव के विकास के लिए, शिक्षा के लिए, जरूरी सुविधाओं के लिए काम करता है, तो घूँघट वाली ऐसी औरतें भी हैं जो सरपंच तो बन गयी हैं पर वैसे ही घरेलु कामों में व्यस्त हैं और सरपंच के मुखौटे के पीछे असली सत्ता उनके पति संभाले हुए हैं |चालाकियाँ, गुट बाजी, अपने खेमे, वर्चस्व की लड़ाई ,  सब कुछ अनपढ़ और मासूम  से ग्रामीणों  में भी वैसे ही आम है जैसे शहरों में | आखिर असली मानव स्वाभाव भिन्न थोड़ी न है |  गयी  झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा  गयी झुलनी टूट पढ़ते हुए न जाने कितनी बार लगा कि जैसे मन में कहीं से कुछ टूट गया है | कुछ दरक गया है |मन के चारों तरफ दर्द पसर गया | ये दर्द कमली का दर्द था तो घांटों का भी | किसना का तो जगत का भी | हम कमली के दर्द के साथ रोते कलपते  आगे बढ़ते जाते हैं पर हर पात्र अपने हिस्से का दर्द जी रहा होता है | अपने हिस्से … Read more

विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेंरी नज़र में

शिवना प्रकाशन की दो पत्रिकाएँ ‘विभोम स्वर’और ‘शिवना साहित्यिकी’ प्राप्त हुईं | अभी थोड़ी ही पढ़ीं हैं, फिर भी उन पर लिखने का मन हो बन ही गया | पूरी पढ़कर और लिखूँगी | सबसे पहले बात करुँगी ‘शिवना साहित्यिकी” की | कवर पेज पर ही बना बच्चा और भगवत रावत जी की कविता मन मोह लेती है | एक अंश … अलमुनियम का वह दो डिब्बों वाला कटोरदान बच्चे के हाथ से छूट कर नहीं गिरा होता सड़क पर तो कैसे पता चलता कि उसमें चार रूखी रोटियों के साथ-साथ प्याज की एक गाँठ और दो हरी मिर्चे भी थीं विभोम स्वर व् शिवना साहित्यकी मेरी नज़र में  (वर्ष-4 अंक -15 )               इस अंक की खास बात है गीता श्री जी का पारुल सिंह द्वारा लिया गया साक्षात्कार | जितने चुटीले सवाल पारुल जी ने पूछे उतने ही दिलकश जवाब गीताश्री जी ने दिए | गीता श्री जी का स्पष्ट दृष्टिकोण, बेबाक और अपनेपन से भरा अंदाज पाठकों को ख़ासा लुभाता है | गीताश्री जी एक पत्रकार रहीं हैं | पत्रकारिता ने उनके अनुभवों को विस्तार दिया हैं और साहित्य प्रेम में शब्दों और भावों पर पकड़ | इस कारण न उनके पास विषयों की कमी होती हैं ना उन्हें अभिव्यक्त करने के अंदाज की | साक्षात्कार लम्बा है, फिर भी कुछ बातें मैं आप सब से साझा कर रही हूँ | जो मेरे ख्याल से आप के अनुभवों में भी कुछ इजाफ़ा करेंगी | पुरुस्कारों के बारे में वो कहती हैं कहती हैं कि, “ पुरूस्कार मुझे उत्साहित  करते हैं और बेहतर करने को उकसाते हैं |” हालांकि वो साहित्य की तुलना जलेबी दौड़ से करती हैं | बचपन में हम सब ने जलेबी दौड़ में हिस्सा लिया है | इसमें हाथ पीछे बंधे होते हैं और धागे में बंधी जलेबी का एक टुकडा  काट कर आगे भागना होता है | गीता श्री जी कहती हैं कि जो छोटा टुकडा काट कर आगे भाग जाते हैं उन्हें पुरूस्कार मिल जाते हैं और वो पूरी जलेबी खाने के लोभ में वहीँ खड़ी रहती हैं तो उनका मुँह मिठास से भर  जाता है | कितनी सुन्दर बात कही है उन्होंने, भले ही पुरूस्कार उत्साहित  करते हैं पर  रचनात्मक संतुष्टि की मिठास किसी पुरूस्कार से कम तो  नहीं | स्त्रियों के मामले में वो एक ऐसे समाज को स्वप्न देखती हैं जहाँ स्त्री समाज से टकराकर रूढ़ियों को तोड़ कर समानता के आधार पर एक संतुलित समाज की नींव रखती है | उनकी कहानियों की नायिकाएं ऐसी ही हैं | वो बार –बार प्रयोग करने का जोखिम उठा कर अपनी रेंज का विस्तार करती हैं | किसी भी रचनाकार के लिए जरूरी है कि वो अपने द्वारा स्थापित मानकों में कैद होकर ना रह जाए | डॉ. कमल किशोर गोयनका जी का शोध आलेख “गांधी की पत्रकारिता का भारतीय मॉडल” विचारों का परिमार्जन करने वाला एक अवश्य पठनीय आलेख है | वो लिखते हैं कि , “नाथूराम गोडसे ने गांधी को तीन गोलियों से मारा था | पर हम उन्हें विगत 70 वर्षों सीसंख्य गोलियों से मारते आ रहे हैं , परन्तु गांधी हैं कि मरते ही नहीं | गांधी ने मशीनी सभ्यता के दुष्परिणामों के विरुद्ध जगत को चेताया था तथा ग्रामीण व् प्राकर्तिक जीवन के निरंतर नाश सेसे उत्पन्न होने वाले संकटों से सावधान किया था, परन्तु विज्ञानं एवं तकनीकी जिस प्रकार जीव सृष्टि के लिए संक्सत पैदा कर रही है तब हमें गांधी याद आते हैं और तब हम उनके विचारों में सामाधान ढूँढने लगते हैं |” मंजुश्री के कहानी संग्रह “जागती आँखों का सपना” की डॉ. रमाकांत शर्मा द्वारा व् योगेन्द्र शर्मा जी के उपन्यास ‘कितने अभिमन्यु’ की वेदप्रकाश अमिताभ जी द्वारा की गयी समीक्षा प्रभावित करती है |केंद्र में पुस्तक “जिन्हें जुर्म –ए –इश्क पर नाज था कि मनीषा कुलश्रेष्ठ, पंकज पराशर, शुभम तिवारी , ब्रिजेश राजपूत, कविता वर्मा, दिनेश पाल की समीक्षाएं पुस्तक पढने के प्रति रुझान उत्पन्न  करती है | मैंने भी इसे अपनी ‘विश लिस्ट’ में रख लिया है |   इसी अंक में मेरे द्वारा प्रज्ञा  जी के कहानी संग्रह “मन्नत टेलर्स” की समीक्षा भी प्रकाशित हुई है | जिसे पढ़कर  बताने का काम आप पाठकों का है | विभोम स्वर  “विभोम स्वर” एक बेहतरीन साहित्यिक पत्रिका है | जिसके उत्तम स्वरुप लेने में सुधा ओम ढींगरा जी व् पंकज सुबीर जी की मेहनत दिखती है | साहित्य में विचारधाराओं की गुटबाजी पर  अपने सम्पादकीय में सुधा जी लिखती हैं, “साहित्य में विचारधाराओं ने क्या किया ? सिर्फ अपने लेखक स्थापित करने के अतिरिक्त साहित्य और भाषा की समृद्धि की ओर किसने देखा ?” डॉ. हंसा दीप का सुधा जी द्वारा लिया गया साक्षात्कार बहुत ही रोचक व् प्रेरणादायक है |  टोरंटो में लेक्चरार के पद पर कार्यरत डॉ.हंसा जी विदेशियों को हिंदी भाषा सिखाने में होने वाली दिक्कतों के बारे में बताती हैं व् इस बात पर जोर देती हैं कि हिंदी को विश्व व्यापी करने के लिए उसका सरलीकरण बहुत जरूरी है | अभी हिंदी दिवस के आस –पास ट्विटर पर यह बहस भी चल रही थी | सच्चाई यही है कि भारत में भी बहुत क्लिष्ट भाषा आज  का युवा समझता नहीं है | सबसे पहले जरूरी है कि युवाओं को हिंदी से जोड़ा जाए | प्रवासी भारतीयों के लेखन के बारे में वो कहती हैं कि रोजी रोटी की व्यवस्था करने बाद ही वो अपनी रचनात्मक भूख शांत कर पाते हैं | इसमें एक लम्बा अंतराल आ  जाता है | फिर भी कैनवास व्यापक  हुआ है | सृजनात्मकता बढ़ी है | स्त्री लेखन, प्रवासी लेखन के वर्गीकरण को वो नहीं मानती पर वो ये मानती हैं पर पश्चिमी व् भारतीय स्त्री के प्रति मूलभूत मानसिकता वही है को स्वीकार करती हैं | विशाखा मुलमुले  की कवितायें गहरे भाव संप्रेषित करती हैं | ये कवितायें हमें जीवन का  आइना दिखाती हैं | ये एक रूपक के माध्यम से अपनी बात कहती हैं और दोनों को तराजू के दो पलड़ों में रखकर सोचने पर विवश कर देती हैं | कहीं ये रूपक विज्ञान से होते हैं तो कहीं जीवन से | जीवन पर उनकी गहरी दार्शनिक पकड़ है | जो सूक्ष्मता से आम जीवन को देखती हैं |उनमें काफी संभावनाएं … Read more

अंतर्मन के द्वीप- विविध विषयों का समन्वय करती कहानियाँ

अभी  पिछले दिनों मैंने “हंस अकेला रोया” में ग्रामीण पृष्ठभूमि पर लिखी हुई कहानियों का वर्णन किया था | आज इससे बिलकुल विपरीत कहानी संग्रह पर बात रखूँगी  जहाँ ज्यादातर कहानियों के केंद्र में शहरी और विशेष रूप से उच्च मध्यम वर्ग है | जहाँ मेमसाहब हैं | लिव इन रिश्ते हैं | टाइमपास के लिए पुरुषों से फ़्लर्ट करने वाली युवा लडकियाँ हैं | नौकरीपेशा महिलाएं हैं | माता –पिता दोनों के नौकरी करने के कारण  अकेलेपन से जूझते बच्चे हैं | स्त्रियों को अपने से कमतर समझने वाले परन्तु स्त्री अधिकारों पर लेख, कवितायें  लिखने वाले  फेमिनिस्ट लेखक हैं | और उन सब के बीच में है अना …जो आज के युग की नहीं है | पाषाणयुगीन महिला है | इन तमाम महिलाओं के बीच अना का होना अजीब लगता है | परन्तु उसका अलग होना ही उसकी खासियत है जो पाषाण युग से आधुनिक युग को जोडती है | कैसे …?  आज मैं बात कर रही हूँ वीणा वत्सल सिंह के कहानी संग्रह ‘अंतर्मन के द्वीप’ की | द्वीप यानि भूमि का ऐसा टुकडा जो चारों  तरफ से पानी से घिरा हो | जिसका भूमि के किसी दूसरे टुकड़े से कोई सम्बन्ध ना हो | जब ये द्वीप मन के अंदर बन रहे हों तो हर द्वीप एक कहानी बन जाता है | क्योंकि ऐसे ही तो उच्च-मध्यम वर्ग के लोग रहते हैं | एक साथ रहते हुए भी एक दूसरे से पूरी तरह कटे हुए, अपने –अपने अंदर बंद | फिर भी चारों तरफ भावनाओं के समुद्र में बहते हुए ये द्वीप पृथक –पृथक होते हुए भी उसी भाव समुद्र का हिस्सा हैं | एक दूसरे से पूर्णतया पृथक और अलग होना ही इन द्वीपों की विशेषता है और कहानियों की भी | शायद इसी कारण आजकल के चलन के विपरीत  “अंतर्मन के द्वीप” नामक कोई भी कहानी संग्रह में नहीं है | अंतर्मन के द्वीप- विविध विषयों का समन्वय    सबसे पहले मैं बात करना चाहूँगी कहानी “अना” की | ये कहानी हमें समय के रथ पर बिठाकर पीछे ले जाती है …बल्कि बहुत पीछे, ये कहना ज्यादा  सही होगा | ये कहानी है पाषाण युग की, जब मनुष्य गुफाओं में रहना व् आग पर भोजन पकाना सीख लिया था | उस युग में महिला व् पुरुष एक टोली बनाकर एक गुफा में रहते थे | पुरुष शिकार को जाते थे व् महिलाओं का काम संतान उत्पन्न करना था | जब महिला संतान उत्पन्न करने लायक नहीं रह जाती थी तो गुफा के पुरुष उस महिला को शिकार पर साथ ले जाकर उसे खाई में धक्का दे देते या जानवर के आगे डाल कर उसकी हत्या कर देते थे | इस तरह से महिलाएं अपना पूरा जीवन जी ही नहीं पाती थी | उन्हीं महिलाओं में से एक महिला थी अना और उसकी बेटी चानी | हालांकि उस युग में नाम रखने का चलन नहीं था पर लेखिका ने पाठकों की सुविधा के लिए ये नाम रखे  हैं | अना ने पुरुषों के अत्याचार के खिलाफ उनकी सेवा करके उनके लिए अधिक समय तक उपयोगी सिद्ध होकर ज्यादा जीवन जी लेने का पहला प्रयोग किया | अपने प्रयोग को सफल होते देख उसने ये गुरुमंत्र अपनी बेटी चानी को भी दिया | चानी ने यहाँ से मन्त्र को और आगे बढ़ाते हुए पुरुषों के लिए देवताओं से लम्बी आयु का वरदान माँगना भी शुरू किया | इस कहानी को स्त्री की आज की कहानी  के शुरूआती पाठ की तरह देखा जा सकता है | आज भी स्त्री अपने परिवार के  पुरुषों की लंबी आयु के लिए व्रत उपवास करती है | भोजन से लेकर शयन तक उनकी हर सुविधा का ध्यान रखती है …क्यों ?  क्यों अपने को पुरुष के जीवन में उपयोगी सिद्ध करने की ये सारी जद्दोजहद स्त्री के हिस्से में आती है ? क्यों ऐसी आवश्यकता पुरुष  को नहीं पड़ती ? तमाम स्त्री विमर्श के केंद्र में जो शाश्वत प्रश्न हैं ये कहानी उन्हीं के उत्तर ढूँढते –ढूँढते पाषण युग में गयी है | कहानी में एक नयापन होने के साथ ये स्त्री के जीवन के बेनाम संघर्षों की अकथ बयानी भी है |   अना का जिक्र करते हुए मेरे जेहन में एक अन्य कहानी आ रही है | हालांकि इस कहानी से उसका कोई लिंक नहीं है फिर भी  जिसके बारे में लिखने में मैं खुद को रोक नहीं पा रही हूँ | “The Handmaid’s tale” जो Margret Atwood का उपन्यास है | ये उपन्यास  Dystopian Fiction  का एक नमूना है | जो यूटोपिया यानि आदर्श लोक का बिलकुल उल्टा है | इस कहानी में लेखिका ने स्त्री जीवन की आगे की यात्रा की है | आज जिस तरह से लिंग अनुपात बिगड़ रहा है और बढ़ते प्रदूष्ण , रेडीऐशन व् जीवन शैली में बदलाव के कारण स्त्री की संतान उत्पत्ति की क्षमता प्रभावित हो रही है | तो हजारों साल  बाद एक ऐसा समय आएगा जब स्त्रियाँ खासकर वो स्त्रियाँ जिनमें संतान उत्पत्ति की क्षमता है, बहुत कम रह जायेगी | तब पुरुषों द्वारा स्त्री प्रजाति को दो भागों में स्पष्ट रूप से विभाजित कर दिया जाएगा | एक वो जिनमें संतान उत्पन्न करने की क्षमता है और दूसरी वो जो उनकी सेवा करेंगी | जिनमें क्षमता है तो क्या उनका जीवन सुखद होगा ? नहीं | उनके ऊपर कैसे भी, किसी भी तरह से ह्युमन रेस को बचाने का दारोमदार होगा | ये कैसे भी और किसी भी तरह से इतना वीभत्स है कि पढ़ते हुए रूह काँप जाती है | दोनों कहानियों का जिक्र मैंने एक साथ इसलिए किया क्योंकि एक ओर अना है जो स्त्री के द्वारा पुरुष की दासता स्वीकार करने से आज के दौर में पहुँचती है जहाँ स्त्री ने अपने अधिकारों के लिए संघर्ष शुरू कर दिया है | The Handmaid’s tale  स्त्री अधिकारों के लिए संघर्ष की शुरुआत से लेकर स्त्री के अधिकारों को पुन: छीन लिए जाने तक जाती है | ये बात महिलाओं को समझनी होगी कि इतिहास से हम सीख सकते हैं … अपने सघर्ष को और तेज कर सकते हैं | लेकिन इसके साथ यह भी याद रखना होगा कि हमें  The Handmaid’s tale जैसे अंजाम तक भी नहीं पहुँचना है … Read more

हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ

 “गाँव” एक ऐसा शब्द जिसके जुबान पर आते ही अजीब सी मिठास घुल जाती है | मीलों दूर तक फैले खेत, हवा में झूमती गेहूं की सोने सी पकी बालियाँ, कहीं लहलहाती मटर की छिमियाँ, तो कहीं छोटी –छोटी पत्तियों के बीच से झाँकते टमाटर, भिन्डी और बैगन, कहीं बेल के सहारे छत  पर चढ़ इतराते घिया और कद्दू, दूर –दूर फैले कुछ कच्चे, कुछ पक्के घर, हवा में उड़ती मिटटी की सुवास, और उन सब के बीच लोक संस्कृति और भाषा में रचे बसे सीधे सच्चे लोग | यही तो है हमारा असली रूप, हमारा असली भारत जो जो पाश्चात्य सभ्यता में रचे शहरों में नहीं बम्बा किनारे किसी गाँवों में बसता है | पर गाँव के इस मनोहारी रूप के अतिरिक्त भी गाँव का एक चेहरा है…जहाँ भयानक आर्थिक संकट से जूझते किसान है, आत्महत्या करते किसान हैं, धर्म और रीतियों के नाम पर लूटते महापात्र, पंडे-पुजारी हैं | शहरीकरण और विकास के नाम पर गाँव की उपजाऊ मिटटी को कंक्रीट के जंगल में बदलते भू माफिया और ईंट के भट्टे | गाँव के लोगों की छोटी –मोटी लड़ाइयाँ, रिश्तों की चालाकियाँ, अपनों की उपेक्षा से जूझते बुजुर्ग | जिन्होंने गाँव  नहीं देखा उनके लिए गाँव केवल खेत-खलिहान और शुद्ध जलवायु तक ही सीमित हैं | लेकिन जिन्होंने देखा है वो वहाँ  के दर्द, राजनीति, निराशा, लड़ाई –झगड़ों और सुलह –सफाई से भी परिचित हैं | बहुत से कथाकार हमें गाँव के इस रूप से परिचित कराते आये हैं | ऐसी ही एक कथाकार है सिनीवाली शर्मा जो गाँव पर कलम चलाती हैं तो पाठक के सामने पूरा ग्रामीण परिवेश अपने असली रूप में खड़ा कर देती हैं | तब पाठक कहानियों को पढ़ता नहीं है जीता है | सिनीवाली जी की जितनी कहानियाँ मैंने पढ़ी हैं उनकी पृष्ठभूमि में गाँव है | वो खुद कहती हैं कि, ‘गाँव उनके हृदय में बसता है |” शायद इसीलिये वो इतनी सहजता से उसे पन्नों पर उकेरती चलती हैं | अपने कहानी संग्रह “हंस अकेला रोया” में सिनीवाली जी आठ कहानियाँ लेकर आई हैं | कहने की आवश्यकता नहीं कि ये सारी कहानियाँ ग्रामींण पृष्ठभूमि पर आधारित हैं | इस संग्रह के दो संस्करण आ चुके हैं | उम्मीद है कि जल्दी तीसरा संस्करण भी आएगा | तो आइये  बात करते हैं संग्रह की कहानियों की | हंस अकेला रोया -ग्रामीण जीवन को सहजता के साथ प्रस्तुत करती कहानियाँ सबसे पहले मैं बात करुँगी उस कहानी की जिसके नाम पर शीर्षक रखा गया है यानि की  “हंस अकेला रोया” की | ये कहानी ‘परिकथा’ में प्रकाशित हुई थी | ये कहानी है एक ऐसे किसान विपिन की, जिसके पिता की मृत्यु हुई है | उसके पिता शिक्षक थे | आस –पास के गाँवों में उनकी बहुत इज्ज़त थी | पेंशन भी मिलती थी | लोगों की नज़र में उनका घर पैसे वाला घर था | लेकिन सिर्फ नज़र में, असलियत तो परिवार ही जानता था | रही सही कसर उनकी बीमारी के इलाज ने पूरी कर दी | कहानी शुरू होती है मृत्यु के घर से | शोक का घर है लेकिन अर्थी से लेकर तेरहवीं में पूरी जमात को खिलाने के लिए लूटने वाले मौजूद हैं | अर्थी तैयार करने वाला, पंडित , महापात्र, फूफा जी यहाँ तक की नाउन, कुम्हार, धोबी सब लूटने को तैयार बैठे हैं | आत्मा के संतोष के नाम पर जीवित प्राणियों के भूखों मरने की नौबत आ जाए तो किसी को परवाह नहीं | जो खाना महीनों एक परिवार खा सकता था वो ज्यादा बन कर फिकने की नौबत आ जाए तो कोई बात नहीं, आत्मा की शांति के नाम पर खेत बिके या जेवर  तो इसमें सोचने की क्या बात है ? ये कहानी मृत्यु के उपरान्त किये जाने वाले पाखंड पर प्रश्न उठाती है पर इतने हौले से प्रहार करती है कि कथाकार कुछ भी सीधे –सीधे नहीं कहती पर पाठक खुद सोचने को विवश होता है | ऐसा नहीं है कि ये सब काम कुछ कम खर्च में हो जाए इसका कोई प्रावधान नहीं है | पर अपने प्रियजन को खो चुके  दुखी व्यक्ति को अपने स्वार्थ से इस तरह से बातों के जाल में फाँसा जाता है कि ये जानते हुए भी कि उसकी इतनी सामर्थ्य नहीं है, फिर भी व्यक्ति खर्चे के इस जाल में फँसता जाता है | ये सब इमोशनल अत्याचार की श्रेणी में आता है जिसमें सम्मोहन भय या अपराधबोध उत्पन्न करके दूसरे से अपने मन का काम कराया जा सकता है | जरा सोचिये ग्रामीण परिवेश में रहने वाले भोले से दिखने वाले लोग भी इसकी कितनी गहरी पकड़  रहते हैं | एक उदाहरण देखिये … “किशोर दा के जाने के बाद  विपिन के माथे पर फिर चिंता घूमने लगीं | दो लाख का इंतजाम तो किसी तरह हो जाएगा | पर और एक लाख कहाँ से आएगा ? सूद पर …? सूद अभी दो रुपया सैंकड़ा चल रहा है | सूद का दो हज़ार रुपया महीना कहाँ से आएगा…सूद अगर किसी तरह लौटा भी दिया तो मूल कहाँ से लौटा पायेगा | वहीँ दूसरी तरफ … “अंतर्द्वंद के बीच सामने बाबूजी के कमरे पर विपिन की नज़र पड़ी …किवाड़ खुला है,  सामने उनका बिछावन दिख रहा है | उसे लगा एक पल में जैसे बाबूजी उदास नज़र आये.. नहीं नहीं बाबूजी मैं भोज करूँगा | जितना मुझसे हो पायेगा | आज नहीं  तो कल दिन जरूर बदलेगा पर अप तो लौट कर नहीं आयेंगे …हाँ, हाँ करूँगा भोज |” कथ्य भाषा और शिल्प तीनों ही तरह से ये कहानी बहुत ही प्रभावशाली बन गयी है | एक जरूरी विषय उठाने और उस पर संवेदना जगाती कलम चलने के लिए सिनीवाली जी को बधाई | “उस पार” संग्रह की पहली कहानी है | इस कहानी बेटियों के मायके पर अधिकार की बात करती है | यहाँ बात केवल सम्पत्ति पर अधिकार की नहीं है (हालांकि वो भी एक जरूरी मुद्दा है-हंस जून 2019 नैहर छूटल  जाई –रश्मि  ) स्नेह पर अधिकार की है | मायके आकर अपने घर –आँगन को देख सकने के अधिकार की है | इस पर लिखते हुए मुझे उत्तर प्रदेश के देहातों में गाया जाने वाला लोकगीत याद आ … Read more

मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़

 आज का दौर बाज़ारों का दौर है | ये केवल अपनी जगह सीमित नहीं है | ये बाज़ार हमारे घर तक आ गए हैं | ये हमें कहीं भी पकड़ लेते हैं | हम सब इसकी जद में है | टी.वी, रेडियो, मोबाइल स्क्रीन से आँख हटा कर जरा दूर देखने की कोशिश करें तो किसी ना किसी होर्डिंग पर कुछ ना कुछ खरीदने के लिए प्रोत्साहित किया जा रहा है | आज हमारे पास पहले से ज्यादा कपड़े है, महंगे मोबाइल हैं, गाड़ियाँ हैं, लोन पर लिए ही सही पर अपने फ़्लैट हैं | हम सब अपने बढ़ते जीवन स्तर की झूठी शान से खुश हैं | उपभोक्तावाद की अंधी दौड़ में भागते हुए हमें कहाँ ध्यान जाता है गिरते हुए मानव मूल्यों का, टूटते रिश्तों का और आपसी सौहार्द का | ये सब लिखते हुए मुझे याद आ रहा है महान वैज्ञानिक  न्यूटन का तीसरा नियम…क्रिया की प्रतिक्रिया जरूर होती है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में | आप सोच रहे होंगे कि विज्ञान का यहाँ क्या काम है | लेकिन भौतिकी का  ये नियम उपभोक्तावाद की संस्कृति में भी मौजूद है | जरा गौर कर के देखिएगा…बाज़ार से हमारी दूरी जितनी घट रही है, आपसी रिश्तों की दूरी उतनी ही बढ़ रही है | ठीक उतनी ही लेकिन विपरीत दिशा में | “उसकी साड़ी मेरी साड़ी से सफ़ेद कैसे” से आपसी रिश्तों में इर्ष्या के बीज बोती इस उपभोक्तावादी संस्कृति का असर सिर्फ इतना ही नहीं है | “मेरे घर के बस दस कदम की दूरी पर मॉल है”, “मेट्रो तो मेरे घर के बिलकुल पास से गुज़रती है”, “हम तो सब्जियाँ  भी अब ऐ.सी . मार्किट से ही खरीदते हैं…भाई कौन जाए सब्जी मंडी में झोला उठाकर पसीने बहता हुआ” जब हम बड़ी शान से ऐसे वाक्य कहते हुए विकास का जय घोष करते हैं तो हम बड़ी ही बेरहमी में उन लोगों की पीड़ा के स्वरों को दबा देते हैं जिनकी रोजी –रोटी छिन गयी है | जिनके बच्चों की पढाई छूट गयी है | जिनकी झुगगियाँ तोड़ दी गयी हैं | इस संवेदनहीनता में हम सब शामिल हैं | बाजारवाद की भेंट चढ़े उन्हीं मानवीय रिश्तों, जीवन मूल्यों और रोजी-रोटी से महरूम किये गए दबे कुचले लोगों के प्रति संवेदना जगाने के लिए प्रज्ञा जी लेकर आई है “मन्नत टेलर्स” | इस कहानी संग्रह की हर कहानी कहीं ना कहीं आपको अशांत करेगी, सोचने पर विवश करेगी, और विवश करेंगी उन प्रश्नों के उत्तर खोजने को भी जो आपके मन में प्रज्ञा जी हलके से रोप देती हैं | यूँ तो बहुत तरह की कहानियाँ लिखी जाती है पर साहित्य का उद्देश्य ही अपने समय को रेखांकित करना है, संवेदना जगाना और समाधान ढूँढने को प्रेरित करना है | आज जब महिला लेखिकाओं पर लोग आरोप लगाते हैं कि वो केवल स्त्री संबंधित  मुद्दों पर ही लिखती है तो मुझे लगता है कि ‘मन्नत टेलर्स’ जैसे कथासंग्रह उन सारे आरोपों का जवाब है | जहाँ ना सिर्फ बाज़ारवाद  पर सूक्ष्म पकड है बल्कि उसके दुष्प्रभावों पर संवेदना जगाने की ईमानदार कोशिश भी | जैसा की अपने आत्मकथ्य में प्रज्ञा जी कहती हैं कि, “ जब धरती बनी तो उस पर रास्ते नहीं थे| पर जब बहुत सारे लोग एक ही दिशा की ओर चलते चले गए तो रास्ते बन गए | समाज की कठोर परिस्थियों और निराशाओं के अंधेरों की चट्टान के नीचे मुझे हमेशा एक नए पौधे की हरकत दिखाई दी है | ये कहानियाँ साधारण से दिखने वाले लोगों के असाधारण जीवट की कहानियाँ हैं |” मन्नत टेलर्स –मानवीय संवेदनाओं पर सूक्ष्म पकड़  ‘लो बजट’ इस संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी है प्रखर की जो अपने दोस्त संभव के साथ दिल्ली में एक ‘लो बजट’ का फ़्लैट ढूढ़ रहा है | प्रखर अपनी पत्नी व् दो बच्चों के साथ अभी किराए के मकान में रहता है | उसका भी सपना वही है जो किराए के मकानों में रहने वाले लाखों लोगों का होता है …एक अपना घर हो, छोटा ही सही लेकिन जिसकी दीवारें अपनी हों और अपनी हो उस की सुवास | और फिर फ़्लैट अपने होने से  हर महीने दिए जाने वाले किराए से भी छुट्टी मिलती है |  कहानी की शुरुआत फ़्लैट ढूँढने में होने वाली परेशानियों से होती है | आये दिन प्रॉपर्टी डीलर फ़्लैट देखने के लिए बुला लेता है | संडे की एक सुकून भरी छुट्टी बर्बाद होती है | फिर भी फ़्लैट पसंद नहीं आता | किसी की फर्श चीकट है तो किसी के किचन का स्लैब बहुत नीचा और किसी की अलमारियाँ दीमकों का राजमहल बनी हुई हैं | घर ढूँढने की शुरूआती परेशानियों के बाद  जैसे-जैसे कहानी आगे बढती है भू माफियाओं के चहरे बेनकाब करती चलती है | किस तरह से उपभोक्ताओं का शोषण हो रहा है | किस तरह से तंग गलियों में ऊँचे –ऊँचे फ़्लैट बन कर महंगे दामों में बेचे जा रहे हैं | किस तरह से बिना नक्शा पास कराये फ्लैस जब तोड़े जाते हैं तो नुकसान सिर्फ और सिर्फ खरीदार को होता है | एक उदहारण देखिये … “ आप क्या समझ रहे हैं मकान खरीदने को ? इतना आसान है क्या ? फ़्लैट पसंद आ भी गया तो उसके साथ रजिस्ट्री की कीमत जोड़ो | हमारे दो परसेंट कमीशन को जोड़ो | फिर कागज़ बनवाने के साथ अथॉरिटी से कागज़ निकलवाने का खर्चा जोड़ो | और फिर असली कीमत तो तय होगी मालिक के साथ टेबल पर |” जिन्होंने  भी फ़्लैट खरीदे  हैं या प्रयास किया है वो सब इस दौर से गुज़रे होंगे | कहानी यहीं नहीं रूकती | उसका फैलाव उन खेतों तक पहुँचता है जिन पर भू माफियाओं की नज़र है | जहाँ किसान की मजबूरी खरीदी जा रही है या उन्हें बड़े सपने बेच कर कृषि योग्य भूमि खरीदी जा रही है | बड़ी ही निर्ममता से हरी फसलों से लदे खेतों को कंक्रीट के जंगलों में बदला जा रहा है | कृषि योग्य भूमि की कमी हो रही है | किसान आत्महत्या कर रहे हैं | पर इसकी चिंता किसे है कि उपजाऊ जमीन और अन्नदाता को मृत्यु की ओर धकेल कर वो भविष्य में … Read more

विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब

इस सदन में मैं अकेला ही दिया हूँ, मत बुझाओ ! जब मिलेगी, रोशिनी  मुझसे मिलेगी पाँव तो मेरे थकन ने छील डाले अब विचारों के सहारे चल रहा हूँ आँसुओं से जन्म दे-दे कर हँसी को एक मंदिर के दिए सा जल रहा हूँ, मैं जहाँ धर दूं कदम वह राजपथ है, मत मिटाओ ! पाँव मेरे देखकर दुनिया चलेगी ! जब मिलेगी, रोशिनी मुझसे मिलेगी !                    राम अवतार त्यागी   आज मैं जिस किताब के बारे में लिखने जा रही हूँ वो सिर्फ एक किताब नहीं है ..वो जिन्दगी है , जिसमें हताशा है, निराशा है संघर्ष हैं और संघर्षों से टकरा –टकरा कर लिखी गयी विजय गाथा है | दरअसल यह गिर –गिर कर उठने की दास्तान है | यूँ तो ये एक आत्मकथा है जिसे पढ़ते हुए आपको अपने आस-पास के ऐसे कई चेहरे नज़र आने लगेंगें जिनके संघर्षों को आप  देख कर भी अनदेखा करते रहे | कई बार सहानुभूति में आँख तो भरी पर उनके संघर्षों में उनका हौसला बढाकर साझीदार नहीं बने | इस पुस्तक का उद्देश्य इस सामजिक मानसिकता के भ्रम को तोडना ह , जिसके तहत हम –आप,  किसी दिव्यांग को , किसी अस्वस्थ को, या  किसी अन्य आधार पर किसी  को अपने से कमतर मान कर उसे बार –बार कमतरी का अहसास करते हुए उसके स्वाभिमान पर प्रहार करते रहते हैं |  सहानभूति और समानुभूति में बहुत अंतर है | सहानभूति की नींव कभी समानता पर नहीं रखी होती | क्यों नहीं हम सहानुभूति वाली मानसिकता को त्याग कर हर उस को बराबर समझें | उसे अपने पंख खोलने का हौसला और हिम्मत दे …यकीन करें उसकी परवाज औरों की तरह ही ऊँची होगी …बहुत ऊँची | विटामिन जिन्दगी- नज़रिए को बदलने वाली एक अनमोल किताब   और जैसा किताब के लेखक ललित कुमार जी ने पाठकों को संबोधित करते हुए लिखा है कि “मैंने इस पुस्तक में हर भारतीय को आवाज़ दी है कि वो विकलांगों के प्रति अपने नजरिया सकारात्मक बनाए | मैंने समाज को कुछ वास्तविकताओं के बारे में बताया है, ताकि हमारा समाज विकलांग लोगों को हाशिये पर डालने के बजाय विकलांगता से लड़ने के लिए खुदको मानसिक व् संरचनात्मक रूप से तैयार कर सके | यदि यह पुस्तक एक भी व्यक्ति के जीवन को बेहतर बनाने में थोडा भी योगदान दे सके तो मैं इस पुस्तक के प्रकाशन को सफल समझूंगा |” आज  हम जिस पुस्तक की चर्चा कर रहे हैं वो है ललित कुमार जी की “विटामिन –जिंदगी” | ललित कुमार जी को कविता कोष व गद्य कोष के माध्यम से सभी जानते हैं | लेकिन उनके सतत जीवन  संघर्षों और संघर्षों को परास्त कर जिन्दगी की किताब पर विजय की इबारत लिखने के बारे में बहुत कम लोग जानते होंगे | “ये विटामिन जिंदगी” वो इच्छा शक्ति है वो जीवट है, वो संकल्प है जिससे कोई भी निराश, हताश व्यक्ति अपनी जिन्दगी  की तमाम मुश्किलों से टकराकर सफलता की सीढियां चढ़ सकता है | इसमें वो लोग भी शामिल हैं जिनके साथ प्रकृति माँ ने भी अन्याय किया है | “प्रकृति विकलांग बनती है और समाज अक्षम”  “ओह ! इसके साथ तो भगवान् ने बहुत अन्याय किया है”कह कर  हम जिन लोगों को देखकर आगे बढ़ जाते हैं उन्हीं में से एक थे मिल्टन, जिनकी कवितायें आज भी अंग्रेजी साहित्य में मील का पत्थर बनी हुई हैं,  उन्ही में एक थे बीथोवन जिनकी बनायी सिम्फनी को भला कौन नहीं जानता है | उनकी सुनने की क्षमता  26 वर्ष की आयु से ही कम हो गयी थी | अन्तत: उन्हें सुनाई देना पूरी तरह से बंद हो गया | पाँचवीं सिम्फनी तक वो पूरी तरह से सुनने की क्षमता खो चुके थे | फिर भी वो रुके नहीं …और उसके बाद भी एक से बढ़कर एक  लोकप्रिय सिम्फनी बनायी | उन्हीं में से एक है हिंदी फिल्मों में नेत्रहीन संगीतकार, गीतकार  रवीन्द्र जैन जिनकी बनायीं धुनें आज भी भाव विभोर करती हैं |  उन्हीं में से एक है दीपा  मालिक जी, जिनके सीने के नीचे का हिस्सा संवेदना शून्य है लेकिन उन्होंने रियो पैरा ओलम्पिक में रजत पदक जीता | हाल ही में उन्हें खेल रत्न से नवाजा गया है | और उन्हीं में से एक हैं ललित कुमार जी | ऐसे और भी बहुत से लोग होंगे जिनके नाम हम नहीं जानते, क्योंकि उन्होंने सार्वजानिक जीवन में भले ही कुछ ख़ास न किया हो पर अपने–अपने जीवन में अपने संघर्ष और विजय को बनाए रखा | ये सब लोग अलग थे ….दूसरों से अलग पर सब ने सफलता की दास्तानें लिखीं | ये ऐसा कर पाए क्योंकि इन्होने खुद को अलग समझा दूसरों से कमतर नहीं | इस किताब के लिखने का उद्देश्य भी यही है कि आप इनके बारे में जान कर महज उनकी प्रशंसा प्रेरणादायक व्यक्तित्व के रूप में कर के आगे ना बढ़ जाए | बल्कि  अपने आस-पास के दिव्यांग लोगों को अपने बराबर समझें | उनमें कमतरी का अहसास ना जगाएं |   पल्स पोलियो अभियान के बाद आज भारत में पोलियो के इक्का दुक्का मामले ही सामने  आते हैं परन्तु एक समय था कि पूरे  विश्व को इसने अपने खुनी पंजे में जकड़ रखा था | कहा जाता है कि उस समय अमेरिका में केवल दो चीजों का डर था एक ऐटम  बम का और दूसरा पोलियो का | पोलियो के वायरस का 90 से 95 % मरीजों पर कोई असर नहीं होता | 5 से 10% मरीजों पर हल्का बुखार और उलटी और दर्द ही होता है केवल दशमलव 5% लोगों में यह वायरस तंत्रिका तंत्र पर असर करता है और उसे जीवन भर के लिए विकलांग कर देता | ये बात भी महवपूर्ण है कि  1955 में डॉ सार्क  ने पोलियो का टीका बनाया था | लेकिन उन्होंने इसे पेटेंट नहीं करवाया | उन्होंने इसे मानवता के लिए दे दिया | वो इस टीके के पेटेंट से हज़ारों करोणों डॉलर कमा सकते थे | पर उन्होंने नहीं किया | और इसी वजह से पोलियो को दुनिया से लगभग मिटाया जा सका है | मानवता के लिए ये उनका अप्रतिम योगदान है | ये जानने के बाद उनके प्रति श्रद्धा से सर झुक जाना स्वाभाविक है … Read more

इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ

जीवन में खुश रहने के लिए मूलभूत आवश्यकताओं  ( रोटी कपड़ा और मकान ) के बाद हमारे जीवन में सबसे ज्यादा जरूरी  क्या है ? उत्तर है रिश्ते |  आज जब हर इंसान पैसे और सफलता के पीछे भाग रहा है तो ख़ुशी के ऊपर किये गए एक अमेरिकन सर्वे की रिपोर्ट  चौकाने वाली थी | सर्वे करने वाले ग्रुप को विश्वास था कि जो लोग अपनी जिन्दगी में बहुत सफल हैं या जिन्होंने बहुत पैसे कमाए होंगे वो ज्यादा खुश होने परन्तु परिणाम आशा के विपरीत निकले | वो लोग अपनी जिन्दगी में ज्यादा खुश थे जिनके रिश्ते अच्छे चल रहे थे भले ही उनके पास कम पैसे हो या सफलता उनकी तयशुदा मंजिल से बहुत पहले किसी पगडण्डी पर अटकी रह गयी हो | भले ही सफलता के  के नए गुरु कहते हों कि जिन्दगी एक रेस है …दौड़ों और ये सब पढ़ सुन कर हम बेसाख्ता दौड़ने लगे हों पर जिन्दगी एक बेलगाम दौड़ नहीं है | ये अगर कोई दौड़ है भी तो नींबू दौड़ है | याद है बचपन के वो दिन जब हम एक चम्मच में नीबू रखकर चम्मच को मुँह में दबा कर दौड़ते थे | अगर सबसे पहले लाल फीते तक पहुँच भी गए और नींबू चम्मच से गिर  गया तो भी हार ही होती थी | सफलता की दौड़ में ये नीम्बू हमारे रिश्ते हैं जिन्हें हर हाल में सँभालते हुए दौड़ना है | लेकिन तेज दौड़ते हुए इतना ध्यान कहाँ रह जाता है इसलिए आज हर कोई दौड़ने के खेल में हार रहा है | निराशा , अवसाद से घिर है | समाज में ऐसे नकारात्मक बदलाव क्यों हो रहे हैं ? , रिश्तों के समीकरण  क्यों बदल रहे हैं ? गाँव की पगडण्डीयाँ चौड़ी सड़कों में बदल गयी पर दिल संकुचित होते चले गए | क्या सारा दोष युवा पीढ़ी का है या बुजुर्गों की भी कुछ गलती है ? बहुत सारे  सवाल हैं और इन सारे सवालों के  प्रति सोचने पर विवश करने और समाधान खोजने के लिए प्रेरित करने  के लिए ‘रीता गुप्ता ‘ जी ले कर आयीं हैं “इश्क के रंग हज़ार “ इश्क के रंग हज़ार -उलझते सुलझते रिश्तों पर सशक्त कहानियाँ  ” इश्क के रंग हज़ार ‘ नाम पढ़ते ही पाठक को लगेगा कि इस संग्रह में प्रेम कहानियाँ होंगी | परन्तु आशा के विपरीत इस संग्रह की कहानियाँ  रिश्तों के ऊपर बहुत ही गंभीरता से अपनी बात करती हैं | पाठक कहीं भावुक होता है , कहीं उद्द्वेलित होता है तो कहीं निराश भी वहीँ कुछ कहानियों में रिश्तों की सुवास उसके मन वीणा के तार फिर से झंकृत कर देती हैं | कहानी संग्रह का नाम क्या हो ये लेखक का निजी फैसला है | ज्यादातर लेखक किसी एक कहानी के नाम पर ही शीर्षक रखते हैं | शीर्षक के नाम वाली कहानी बहुत मिठास का अहसास देती हैं पर जिस तरह से गंभीर कहानियाँ अंदर के पन्नों पर पढने को मिलती हैं तो मैं कहीं न कहीं ये सोचने पर विवश हो जाती हूँ कि संग्रह का शीर्षक कुछ और होता तो रिश्तों की उधेड़बुन से जूझते हर वर्ग के पाठकों को  ज्यादा आकर्षित कर  पाता | वैसे इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ विभिन्न पत्र -पत्रिकाओं में प्रकाशित हैं  , फिर भी जिन्होंने नाम के कारण इस संग्रह पर ध्यान नहीं दिया है उनसे गुजारिश है कि इसे पढ़ें और फिर अपनी राय कायम करें | सबसे पहले मैं बात करना  चाहूँगी कहानी ‘आवारागर्दियों का सफ़र ‘की | ये कहानी ‘इद्र्प्रस्थ भारती’ में प्रकाशित हुई  थी | ये कहानी है 17 -18 साल के किशोर  अनु की , जो  ट्रक में खलासी का काम करता है | काम के कारण अनु को अलग -अलग  शहर में जाना पड़ता है | पिछले कई वर्षों में वो झारखंड व् आसपास के कई राज्यों में  जा चुका  है | हर जगह उसकी कोशिश यही होती है कि  उस शहर में रेलवे स्टेशन जरूर हो |  हर रेलवे स्टेशन के पास ही वो अपना डेरा बनाता है ताकि उसे खोजने में आसानी हो  | आप सोच रहे होंगे कि आखिर अनु क्या खोज रहा है ? इस खोज के पीछे एक बहुत दर्द भरी दास्ताँ है | नन्हा अनु अपने माता -पिता के साथ किसी रेलवे स्टेशन के पास ही रहता था , जब वो पिता की ऊँगली छुड़ा कर रेलगाड़ी में घुस गया था | उसके लिए महज एक खेल था , एक छोटी सी शरारत ….पर यही खेल उसके जीवन की सबसे कड़वी  सच्चाई बन गया | आज उसे कुछ भी याद नहीं है …याद है तो पिता की धुंधली सी आकृति , तुलसी  के चौरे पर घूंघट ओढ़े दिया जलाती माँ और स्टेशन के पास एक दो कमरों का एक छोटा सा मकान जिसकी दीवारे बाहर से नीली और अंदर से पीली पुती हुई थी पर दरवाजा सफ़ेद और पीछे कुएं के पास लगे आम और अमरुद के पेड़ | हर स्टेशन के आस -पास यही तो ढूँढता है वो …और हर बार बढती जातीं है उसके साथ पाठक की बेचैनियाँ | अब उसकी तलाश पूरी होती है या नहीं ये तो आपको कहानी पढ़ कर पता चलेगा पर अनु की बेचैनी को उजागर करती ये पंक्तियाँ अभी आप को भी बेचैन होने को विवश कर देंगी | “पक्षियों के झुण्ड दिन भर की आवारागर्दियों के बाद लौट रहे थे | अनु को उनके उड़ने में एक हडबडी , एक आतुरता महसूस हो रही थी | “घर ” वहाँ  इन सब का जरूर कोई ना कोई घर कोई ठिकाना होगा , वहाँ  कोई होगा जो इनका इंतजार कर रहा होगा | ‘परिवार ‘इन पंक्षियों का भी होता होगा क्या ? होता ही होगा , दुनिया में हर किसी का एक परिवार अवश्य ही होता है , सिवाय उसके , और अनु की आँखों से कुछ खारा पानी आज़ाद हो गया उसी क्षण | ‘ बाबा ब्लैक शीप ‘इस संग्रह की मेरी सबसे पसंदीदा कहानी है | ये कहानी दो पीढ़ियों के टकराव पर है | कहानी की शुरुआत अंकल सरीन की मृत्यु की खबर से होती  है , जिसे कभी उनके  पड़ोसी रहे व्यक्ति का बेटा पढता है | खबर में … Read more

पालतू बोहेमियन – एक जरूर पढ़ी जाने लायक किताब

प्रभात रंजन जी की मनोहर श्याम जोशी जी के संस्मरणों पर आधारित किताब ‘ पालतू बोहेमियन’ के नाम से वैसे ही आकर्षित करती है जितना आकर्षण कभी टी.वी. धारावाहिक लेखन में मनोहर श्याम जोशी जी का था | इसे पूरी ईमानदारी के साथ पन्नों पर उतारने की कोशिश करी है प्रभात रंजन जी ने | जानकी पुल पर प्रभात रंजन जी को पढ़ा है उनका लेखन हमेशा से प्रभावित करता रहा है  परन्तु इस किताब में उन्होंने जिस साफगोई के साथ उस समय की अपनी कमियाँ, पी.एच.डी. करने का कारण, और उस समय लेखन को ज्यादा संजीदगी से ना लेने का वर्णन किया है वो वाकई काबिले तारीफ़ है | ये पुस्तक गुरु और शिष्य के अंदाज में लिखी गयी है | फिर भी  आज आत्म मुग्ध लेखकों का दौर है | कोई कुछ जरा सा भी लिख दे तो दूसरों को हेय  समझने लगता है | ऐसे में मनोहर श्याम जोशी जी के कद को और कुछ और ऊँचा करने के लिए प्रभात रंजन जी जब कई खुद को कमतर दर्शाते  हैं तो इसे एक लेखक के तौर पर बड़ा गुण समझना चाहिए |  उम्मीद है जल्दी ही उनका उपन्यास पढने को मिलेगा | वैसे उन्हें  जोशी जी द्वारा सुझाया गया “दो मिनट का मौन” हिंदी साहित्य के किसी अनाम लेखक के ऊपर एक अच्छा कथानक है परन्तु क्योंकि अब प्रभात रंजन जी ने उस रहस्य को उजागर कर दिया है इसलिए उम्मीद है कि वो किसी नए रोचक विषय पर लिखेंगे | इस पुस्तक पर कुछ लिखने से पहले मैं कहना चाहती हूँ कि पुस्तक समीक्षा के लिए नहीं है , क्योंकि ये ज्ञान की एक पोटली है आप जितनी श्रद्धा से इसे पढेंगे उतना ही लाभान्वित होंगे | पालतू  बोहेमियन – एक जरूर पढ़ी जाने लायक किताब “तो छुटकी डॉक्टर बन पाएगी या नहीं कल ये देखेंगे ..हम लोग “ ” ऐसे ना देखिये मास्टर जी “ ” तो कैसे देखूं लाजो जी ”  मनोहर श्याम जोशी जी के साथ खास बात यह थी कि वो  उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनका नाम वो लोग भी जानते हैं जो हिंदी साहित्य में ख़ास रूचि नहीं रखते हैं | भला ‘हम लोग’ और ‘बुनियाद’ जैसे ऐतिहासिक धारावाहिक लिखने वाले लेखक का नाम कौन भूल सकता है ? हालांकि उनका जीवन शुरू से ही लेखन –सम्पादन को  समर्पित रहा और हम लोग लिखने से पहले उनका उपन्यास ‘कुरु-कुरु स्वाहा’ व् ‘कसप’ से  साहित्य जगत में बहुत चर्चित भी हो  चुका था फिर भी आम जन-मानस के ह्रदय में उनकी पैठ हम लोग और बुनियाद जैसे धारावाहिक लिखने के कारण ही हुई |  मनोहर श्याम जोशी जी हिंदी के उन गिने चुने लेखकों में से हैं जिनकी रचनाएँ पाठकों और आलोचकों में सामान रूप से लोकप्रिय रही हैं | साथ ही उनकी खास बात ये थी उनका लेखन किसी विचारधारा की बेंडी से जकड़ा हुआ नहीं था | उन्होंने पत्रकारिता कहानी , संस्मरण, कवितायें और टी वी धारावाहिक लेखन भी किया | कोई एक लेखक इतनी विधाओं में लिखे ये आश्चर्य चकित  करने वाला है |उस समय बहुत से लेखक उन पर शोध कर रहे थे |   मनोहर श्याम जोशी जी के संस्मरणों पर आधारित इस पुस्तक में उनके जीवन के अनेक अनछुए पहलुओं को छुआ है | इसकी प्रस्तावना पुष्पेश पन्त जी ने लिखी है | उन्होंने इसमें मुख्यत : जोशी जी के प्रभात जी से मिलने से पहले के जीवन पर प्रकाश डाला है | जोशी जी के साथ –साथ इसके माध्यम से पाठक को पुष्पेश पन्त जी के बचपन की कुछ झलकियाँ  देखने को मिलती हैं | साथ ही आज से 59-60 वर्ष पहले के पहाड़ी जीवन की दुरुह्ताओं की भी जानकारी मिलती है | पुष्पेश जी एक वरिष्ठ  लेखक हैं उनके बारे में जानकारी से पाठक समृद्ध होंगे | हालांकि प्रस्तावना थोड़ी बड़ी और मूल विषय से थोडा इतर लगी | फिर भी, क्योंकि ये किताब ही जानकारियों की है इसलिए उसने पुस्तक में जानकारी का बहुत बड़ा खजाना जोड़ा ही है | असल में हम लोग जादुई यथार्थवाद के नाम पर अंग्रेजी भाषा और यूरोपीय वर्चस्व के जाल में उलझ जाते हैं | क्या तुम जानते हो कि उनकी भाषा को कभी स्पेनिश और लेटिन अमेरिकी आलोचकों ने कभी जादुई नहीं कहा | पहली मुलाकात ये किताब वहाँ  से शुरू होती है जब लेखक प्रभात रंजन जी ने पी.एच.डी के लिए रजिस्ट्रेशन करवाया था | जिसका शीर्षक था : उत्तर आधुनिकतावाद और मनोहर श्याम जोशी के उपन्यास | जोशी जी से पहली मुलाकात के बारे में वह लिखते हैं कि वो उदय प्रकाश जी द्वारा दिए गए ‘ब्रूनो शुल्ज’ के उपन्यास “स्ट्रीट ऑफ़ क्रोकोडायल्स” को  पहुँचाने के लिए उनके घर गए थे | उनके मन में एक असाधारण व्यक्ति से मिलने की कल्पना थी |  परन्तु उनसे मिलकर उन्हें कुछ भी ऐसा नहीं लगा जो उनके मन में भय उत्पन्न करे | साधारण मध्यम वर्गीय बैठक में बात करते हुए वे बेहद सहज लगे | जोशी जी के व्यक्तित्व में खास बात ये थी कि वो चाय बिना चीनी की पीते थे और साथ में गुड़ दांतों से कुतर-कुतर  कर खाते थे | पहली मुलाक़ात में जब उन्हें पता चला की प्रभात जी उन पर पी एच डी  कर रहे हैं तो उन्होंने इस बात पर कोई खास तवज्जो नहीं दी |   जोशी जी का  व्यक्तित्व  १)       जोशी जी आम लेखकों  की तरह मूड आने पर नहीं लिखते थे | वो नियम से १० से पाँच तक लिखते थे | जिसमें धारावाहिक कहानी , उपन्यास सभी शामिल होता था | २)       जोशी जी कभी कलम ले कर नहीं लिखते थे बल्कि वह हमेशा बोलते थे और एक टाइपिस्ट उसको टाइप करता रहता था | हे राम फिल्म तक शम्भू दत्त सत्ती जी उनके लिए टाईप  करने का काम करते रहे | ३)       धारावाहिक लेखन तो वो बहुत जल्दी जल्दी बिना रुके कर लेते थे लेकिन जब भी कुछ साहित्यिक लिखते तो उसके कई –कई ड्राफ्ट बनाते थे | ४)       बोलने के कारण उनकी रचना व् विचार प्रक्रिया को  समझना आसान हो जाता | ५)       जोशी  जी जितना लिखते थे उससे कहीं ज्यादा पढ़ते थे | हिंदी ही नहीं विश्व साहित्य पर भी उनकी … Read more

मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है –संवाद शैली की खूबसूरत आदयगी

                आजकल युवा लेखक बहुत अच्छा लिख रहे हैं | अपनी भाषा,प्रस्तुतीकरण और शिल्प सभी में वो खूब प्रयोग कर रहे हैं | वो जो देख रहे हैं महसूस कर रहे हैं वो बिना किसी लाग लपेट के, उन्हें खूबसूरत शब्दों का जामा पहनाये, वैसा का वैसा ही परोस देते हैं, जिसकी ताजगी की भीनी –भीनी खुशबु पाठक के मन को सुवासित कर देती है | शिल्प में भी कई प्रयोग हो रहे हैं, जिनमें से कई आगे अपनी एक नयी शैली में विकसित होंगे | वैसे भी साहित्य, जीवन की तरह किसी एक दायरे में बंधा हुआ ना होकर बहती हुई नदी की तरह निरंतर गतिशील होना चाहिए जो अपनी धाराओं में हर किसी को बहा ले जाए | जैसे –जैसे जीवन जटिल हो रहा है कहानियों के प्रस्तुतीकरण में सरलता आई है, ताकि पाठक आसानी से उस जटिलता को आत्मसात कर सके | ऐसे ही सरल से खूबसूरत प्रयोगों से युवा लेखक कई बार चौंका देते हैं …ऐसे ही मुझे चौकाया ‘प्रियंका ओम’ ने अपनी किताब “ मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है” के माध्यम से | प्रियंका ओम बिहार में जन्मी और पली बढ़ी हैं और फिलहाल दारे-सलाम, तंजानिया में रह रही हैं | ये उनकी दूसरी किताब है | उनकी पहली किताब “वो अजीब लड़की” है |  मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है –संवाद शैली की खूबसूरत आदयगी “मुझे तुम्हारा जाना इतना बुरा नहीं लगता, जितना आना क्योंकि तुम हमेशा जाने के लिए ही आते हो, और मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है |” ये वाक्य है संग्रह की प्रमुख कहानी “मुझे तुम्हारे जाने से नफरत है” का | जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसका जाना अच्छा नहीं लगता | लगता है वो हमारे साथ ही रुक जाए हमेशा के लिए कितने फिल्मी गाने इस खूबसूरत अह्सास् से  भरे पड़े हैं | इसे लिखते समय मेरे जेहन में  अपने जमाने का एक बहुत प्रसिद्द गीत ‘अभी न जाओ छोड़कर कि दिल अभी भरा नहीं बजने लगा है  …लेकिन मिलन का ये समय ठहरता कहाँ है ?  उसे जाना होता है, और जाता भी है …लेकिन क्या हमेशा के लिए या फिर से लौट आने के लिये ? वैसे ही जैसे मौसम जाते हैं फिर से लौट आने के लिए ,पानी भाप बन कर उड़ जाता है फिर बदरी बन बरसने के लिए, सूरज और चन्दा जाते हैं अगले दिन फिर लौट आने के लिए | दरअसल ये कहानी जाने के दर्द पर विलाप करने की नहीं, बार –बार लौट आने के मर्म को समझने की है | जब कोई हमारी जिन्दगी में बार –बार पलट –पलट कर आ रहा है तो वो जाने के लिए नहीं जाता, वो रुकना चाहता है ठहरना चाहता है पर परिस्थितियाँ और हालत उसे मजबूर कर देते हैं |  इस कहानी की शुरुआत बहुत ही दिलचस्प व् रहस्यमय है | इसमें कहानी के नायक को (जो अकेला , एकांत और निराश जिन्दगी बिता रहा होता है ) एक अजनबी लड़की का फोन आता है | हर फोन रहस्य को और गहरा कर देता है और नायक की बेचैनी को बढ़ा देता है | रहस्य से पर्दा उठातीं है नायक की दीदी और खुलता  है बचपन की स्मृतियों का पिटारा |  नायक -नायिका का बचपन का साथ  प्रेम की हल्की सी दस्तक बन कर मिट जाता है | क्योंकि अभिषेक की  सत्रह साल बड़ी दीदी जो उसकी माँ सामान हैं उसे  इस सब बातों में समय ना बर्बाद करके पढाई पर ध्यान लगाने को कहतीं है | अभिषेक  इस बात को भूल जाता है पर श्वेता … श्वेता नहीं भूलती | एक बार फिर वो उसकी जिन्दगी में आती है, बहुत ही रोमांचक तरीके से | परिस्थितियाँ एक बार फिर बदलती हैं और अभिषेक एक बार फिर अपने एकांत में लीन  हो जाता है ….श्वेता फिर लौटती है …पर फिर उलझती है गुत्थी कि आखिर वो क्यों आई है ?  जाने के लिए या रूकने के लिए ? क्या इस बार अभिषेक बार –बार लौट के आने के मर्म को समझता है ? एक नये अंदाज में नए एंगल पर फोकस करती ये कहानी अपनी लेखन शैली के कारण बहुत ही खूबसूरत बन पड़ी है | इस कहानी का दार्शनिक अंदाज में आगे बढ़ना बेहतरीन प्रयोग है |  “और मैं आगे बढ़ गयी” प्रेम में अधिकार जताने व् समर्पित होने के अंतर को बखूबी स्पष्ट करती है | मुझे लगता है ये कहानी स्त्रियों के लिए बहुत खास है क्योंकि अधिकतर स्त्रियाँ प्रेम के शुरूआती दौर में इस अंतर को नहीं समझ पातीं फिर जीवन भर दर्द झेलती हैं | कहानी  एक ट्रेन में नायिका वनिता के अपने पुराने प्रमी आदित्य के साथ अचानक व् अनचाहे  सफ़र शुरू होती है | आज वनिता शादी शुदा है और एक बच्चे की माँ है जो अपने बच्चे के साथ ए .सी . टू टियर में अकेली है और आदित्य अभी भी अकेला और उदास है | जाहिर है, ऐसे में आपस में तानाकशी भी होगी और पुरानी यादें अपने बंद झरोखे खोल कर पुन : सामने भी आएँगी | कुछ अतीत और कुछ वर्तमान की ऐसी ही भागदौड़ के साथ कहानी आगे बढती है | वनिता और आदित्य का प्रेम बचपन का प्रेम था, प्रेम क्या था, उन्हें तो उनके माता-पिता ने बचपन में अपनी दोस्ती को पक्का रखने के लिए शादी के वादे  की डोर में ही बाँध दिया था | पड़ोस में रहने वाले दो बच्चे जो साथ खेलते, पढ़ते, और बढ़ते हैं ….शुरू से ही  एक दूसरे के प्रति आकर्षण में बंधे रहते हैं | कहानी में जहाँ प्रेम की छुटपुट फुहारें मन को रूमानी करती हैं वहीँ वहीँ आदित्य और वनिता के स्वभाव में अंतर किसी अप्रिय भविष्य की तरफ भी इशारा करने लगता है | बच्चे जैसे –जैसे बड़े होते जाते हैं, उनके परिवारों की सोच और परवरिश का अंतर स्पष्ट नज़र आने लगता है | जहाँ वनिता का परिवार खुले विचारों का है, जिसमें पति –पत्नी दोनों को बराबर स्थान है, वहीँ आदित्य का परिवार पुरुषवादी अहंकार और पितृसत्ता का पोषक …जहाँ घर की स्त्रियों का काम बस पुरुषों को खुश करना, उनकी सेवा करना है | पारिवारिक गुण धीरे –धीरे आदित्य में आने लगते हैं …वनिता को घुटन मह्सूस … Read more

अन्त: के स्वर – दोहों का सुंदर संकलन

सतसैयां के दोहरे, ज्यूँ नाविक के तीर | देखन में छोटे लगे, घाव करें गंभीर ||                                   वैसे ये दोहा बिहारी के दोहों की ख़ूबसूरती के विषय में लिखा गया है पर अगर हम छन्द की इस विधा पर बात करें जिसके के अंतर्गत दोहे आते हैं तो भी यही बात सिद्ध होती है | दोहा वो तीक्ष्ण अभिव्यन्जनायें हैं जो सूक्ष्म आकर में होते हुए भी पाठक के अन्त:स्थल व् एक भाव चित्र अंकित कर देती हैं | अगर परिभाषा के रूप में प्रस्तुत करना हो तो, दोहा, छन्द की वो विधा है जिसमें चार पंक्तियों में बड़ी-से बड़ी बात कह दी जाती है | और ये (इसकी  चार पंक्तियों में 13, 11, 13, 11 मात्राएँ  के साथ ) इस तरह से कही जाती है कि पाठक आश्चर्यचकित हो जाता है | हमारा प्राचीन कवित्त ज्यादातर छन्द बद्ध रचनाएँ हीं  हैं | दोहा गागर में सागर वाली विधा है पर मात्राओं के बंधन के साथ इसे कहना इतना आसान नहीं है | शायद यही वजह है कि मुक्त छन्द कविता का जन्म हुआ | तर्क  भी यही था कि सामजिक परिवर्तनों की बड़ी व् दुरूह बातों को छन्द में कहने में कठिनाई थी | सार्थक मुक्त छन्द कविता का सृजन भी आसान नहीं है | परन्तु छन्द के बंधन टूटते ही कवियों की जैसे बाढ़ सी आ गयी | जिसको जहाँ से मन आया पंक्ति को तोड़ा-मरोड़ा और अपने हिसाब से प्रस्तुत कर दिया | हजारों कवियों के बीच में अच्छा लिखने वाले कवि कुछ ही रह गए | तब कविता का पुराना पाठक निराश हुआ | उसे लगा शायद छन्द की प्राचीन  विधा का लोप हो जाएगा | ऐसे समय में कुछ कवि इस विधा के संरक्षण में आगे आते रहे, जो हमारे साहित्य की इस धरोहर को सँभालते रहे | उन्हीं में से एक नाम है किरण सिंह जी का | किरण सिंह जी छन्द बद्ध रचनाओं में न सिर्फ दोहा बल्कि मुक्तक,रोला और कुंडलियों की भी रचना की है | अन्त :के स्वर – दोहों का सुंदर संकलन  “अन्त: के स्वर” जैसा की नाम सही सपष्ट है कि इसमें किरण जी ने अपने मन की भावनाओं का प्रस्तुतीकरण किया है | अपनी बात में वो कहती हैं कि, “हर पिता तो अपनी संतानों के लिए अपनी सम्पत्ति छोड़ कर जाते हैं, लेकिन माँ …? मेरे पास है ही क्या …? तभी अन्त : से आवाज़ आई कि दे दो अपने विचारों और भावनाओं की पोटली पुस्तक में संग्रहीत करके , कभी तो उलट –पुलट कर देखेगी ही तुम्हारी अगली पीढ़ी |” और इस तरह से इस पुस्तक ने आकर लिया | और कहते है ना कि कोई रचना चाहे जितनी भी निजी हो …समाज में आते ही वो सबकी सम्पत्ति हो जाती है | जैसे की अन्त: के स्वर आज साहित्य की सम्पत्ति है | जिसमें हर पाठक को ऐसा बहुत कुछ मिलेगा जिसे वो सहेज कर रखना चाहेगा | भले ही एक माँ संकल्प ले ले | फिर भी कुछ लिखना आसान नहीं होता | इसमें शब्द की साधना करनी पड़ती है | कहते हैं कि शब्द ब्रह्म होते हैं | लेखक को ईश्वर ने अतरिक्त शब्द क्षमता दी होती है | उसका शब्दकोष सामान्य व्यक्ति के शब्दकोष से ज्यादा गहन और ज्यादा विशद  होता है | कवित्त का सौन्दर्य ही शब्द और भावों का अनुपम सामंजस्य है | न अकेले शब्द कुछ कर पाते हैं और ना ही भाव | जैसे प्राण और शरीर | इसीलिए किरण जी एक सुलझी हुई कवियित्री  की तरह कागज़ की नाव पर भावों की पतवार बना कर शब्दों को ले चलती हैं … कश्ती कागज़ की बनी, भावों की पतवार | शब्दों को ले मैं चली , बनकर कविताकार || अन्त: के स्वर  का प्रथम प्रणाम जिस तरह से कोई व्यक्ति किसी शुभ काम में सबसे पहले अपने  ईश्वर को याद करता है , उनकी वंदना करता है | उसी तरह से किरण जी ने भी अपनी आस्तिकता का परिचय देते हुए पुस्तक के आरंभ में अपने हृदय पुष्प अपने ईश्वर के श्री चरणों में अर्पित किये हैं | खास बात ये है कि उन्होंने ईश्वर  से भी पहले अपने जनक-जननी को प्रणाम किया है | और क्यों ना हो ईश्वर ने हमें इस सुंदर  सृष्टि में भेजा है परन्तु माता –पिता ने ही इस लायक बनाया है कि हम जीवन में कुछ कर सकें | कहा भी गया है कि इश्वर नेत्र प्रदान करता है और अभिवावक दृष्टि | माता–पिता को नाम करने के  बाद ही वो प्रथम पूज्य गणपति को प्रणाम करती है फिर शिव को, माता पार्वती, सरस्वती आदि भगवानों के चरणों का भाव प्रच्छालन करती हैं | पेज एक से लेकर 11 तक दोहे पाठक को भक्तिरस में निमग्न कर देंगे | संस्कार जिसने दिया, जिनसे मेरा नाम | हे जननी हे तात श्री, तुमको मेरा प्रणाम || ———————– .. अक्षत रोली डूब लो , पान पुष्प सिंदूर | पहले पूज गणेश को,  होगी विपदा दूर || ———————– शिव की कर अराधना, संकट मिटे अनेक | सोमवार है श्रावणी , चलो करें अभिषेक || अन्त: के स्वर का आध्यात्म                      केवल कामना भक्ति नहीं है | भीख तो भिखारी भी मांग लेता है | पूजा का उद्देश्य उस परम तत्व के साथ एकीकर हो जाना होता है | महादेवी वर्मा कहती हैं कि,   “चिर सजग आँखें उनींदी, आज कैसा व्यस्त बाना, जाग तुझको दूर जाना |”  मन के दर्पण पर परम का प्रतिबिम्ब  अंकित हो जाना ही भक्ति है | भक्ति है जो इंसान को समदृष्टि दे | सबमें मैं और मुझमें सब का भाव प्रदीप्त कर दे | जिसने आत्मसाक्षात्कार कर लिए वह दुनियावी प्रपंचों से स्वयं ही ऊपर उठ जाता है | यहीं से आध्यात्म का उदय होता है | जिससे सारे भ्रम  दूर हो जाते हैं | सारे बंधन टूट जाते हैं | किरण जी गा उठती हैं … सुख की नहीं कामना, नहीं राग , भय क्रोध | समझो उसको हो गया , आत्म तत्व का बोध || ………………………. अंतर्मन की ज्योति से, करवाते पहचान | ब्रह्म रूप गुरु हैं मनुज, चलो करें हम ध्यान || अन्त : के स्वर  में नारी  कोई स्त्री स्त्री के बारे में … Read more