गयी झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा
‘पदमश्री’ और ‘भारत भारती’ आदि अनेकों श्रेष्ठ पुरुस्कारों से सम्मानित डॉ. उषाकिरण खान जी यानि कि उषा दी का किताबघर से प्रकाशित उपन्यास ‘गयी झुलनी टूट’ अपने नाम से जितना आकर्षित करता है उतना ही अपने कवर पेज से भी | इसके कवर पेज में बनी मधुबनी पेंटिग सहज ही ध्यान खींच लेती है | उन्होंने ‘महालक्ष्मी’ मधुबनी को इस किताब में क्रेडिट भी दिया है | लोक कलाओं के विस्तार का उनका ये तरीका मन को छू गया | उषा दी का नाम आते ही पाठकों के मन में ‘भामती, ‘अगन हिंडोला’ और ‘भामती’ जैसे ऐतिहासिक उपन्यासों की याद ताज़ा हो जाती है | पर यह उपन्यास उनसे अलग हट कर है | इसमें हाशिये के चरित्रों के जीवन के संघर्षों को दिखाया गया है | इसमें वो एक मार्मिक सवाल उठाती हैं कि “…जीवन केवल संगसाथ नहीं है | अगर संगसाथ है तो वंचना क्यों है ?” पूरा उपन्यास एक स्त्री के संघर्ष की जीवंत कहानी है जो कहीं ठहरती नहीं | हर धड़कन के साथ धड़कती हुई महसूस होती है | उषा दी निरंतर अपने आस –पास के परिवेश की कहानियाँ लिखती आई हैं | उनकी कहानियाँ गल्प नहीं होती जीवन का यथार्थ होती हैं | इसीलिये वो मन में गहरे उतर जाती हैं | उनकी कहानियाँ से उस परिवेश के जीवन व् स्त्रियों की दशा, पर्यावरण आदि के बारे में भी बहुत कुछ जानने समझने को मिलता है | जो यहाँ शहर में बैठ कर हम नहीं देख पाते | वो स्वयं कहती हैं कि , “मैंने जब 1977 से कहानी लिखने के लिए कलम उठाई तब से यही कह रही हूँ कि जहाँ रहती आई हूँ उस भूमि की, नदी की पर्यावरण की कथा किसी ने नहीं लिखी | वह स्थान ओझल ही रहा | वह स्थान ओझल रहा तो स्त्री भी ओझल ही रही | मेरी कहानी पढ़कर कुछ तो टूटा |” उनके विमर्श शहरी स्त्री के सरोकारों से ना जुड़े होकर भारतीय गाँवों की स्त्री के सरोकारों से जुड़े हैं | जहाँ आज भी भारत की 80 प्रतिशत आबादी रहती है | गाँव की स्त्री के सरोकार शहरी स्त्री के सरोकार से भिन्न हैं | उसके कष्ट अलग हैं | वहाँ सवाल शुचिता का नहीं है | आज हम शहर में जिन ‘लिव इन’ संबंधों की बात कर रहे हैं, जिन पर लिखी कहानियाँ नए ज़माने के तथाकथित ‘दैहिक विमर्श’ के खाँचे में धकेल दी गयी हैं, वो गाँवों में मौजूद ही नहीं है पूरी तरह से स्वीकार्य भी है | किसी की यहाँ का समध कर लेना, किसी की चूड़ी बदल लेना ये सब शब्द गाँवों में आम हैं | स्त्री की शुचिता का वो प्रश्न यहाँ नहीं दिखता जिस पर शहरों में तलवारें तन जाती हैं | वो दुखी है पर उसके दुःख अलग हैं | सच्चाई ये है कि उनके जीवन में कष्टों की नदी का कोई ओर छोर नहीं है | उनके पति शहर में रोजी रोटी कमाने चले जाते हैं और पीछे बच जाती हैं औरतें | ये औरते जो परिवार के विरिष्ठ लोगों द्वारा प्रताड़ित की जाती हैं | अकेली जीवन काटती बच्चों को पालती स्त्री के मार्ग में अपने ही क्या –क्या काँटे बो सकते हैं वे उस पर मार्मिकता से प्रहार करती हैं | रोजी-रोटी की तलाश में जो औरतें गाँवों से आकर बड़े शहरों में झुग्गियों में बस गयीं हैं | वो हमारे बड़े शहरों के वो अँधेरे कोने हैं जिस पर हम प्रकाश डालने से भी बचते हैं | रोज सुबह समय पर आकर हमारे घरों की फर्श को आईने की तरह चमकाने वाली हमारी कामवालियों, घरेलु सहायिकाओं की अपनी निजी जिन्दगी किस कालिमा में डूब रही है उसका किसी विमर्श का हिस्सा न बनना निराशाजनक है | शहर आ कर अपनी पहचान खो चुकी ये चेहराविहीन स्त्रियाँ अपने अस्तित्व की लड़ाई नहीं लड़ती,ये दो जून रोटी की लड़ाई लड़तीं हैं | हर सूर्योदय के साथ इनका संघर्ष उदय होता है और हर सूर्यास्त को पस्त हुए तन-मन के साथ अस्त होता है कुछ घंटों की बेचैन रात में ठहरने के बाद अगले सूर्योदय को फिर उदित होने के लिए | हालांकि ये स्त्रियाँ संघर्षशील स्त्रियाँ है | वह किसी स्थान पर अटक कर रोते हुए जिन्दगी नहीं काटती बल्कि संघर्ष करते हुए आगे के रास्ते बनाती है | इनके जीवन में आपसी इर्ष्या और परनिंदा है पर समय आने पर ये एक दूसरे को सहयोग देकर फिर से खड़ा करने में भी तत्पर रहती हैं | “जीवन की गति न्यारी है | नदी तल से निकाली मिटटी की तरह फिर समतल हो जाना नियति है |” जब आप कहानी के माध्यम से आगे बढ़ते जाते हैं तो सिर्फ आप कहानी ही नहीं पढ़ते लोक जीवन से रूबरू होते हैं | लोक संस्कृति से रूबरू होते हैं | गाँव के पंचायत निर्माण की प्रक्रिया हो या प्रधानी के चुनाव किस तरह सम्पन्न होते हैं उसकी जानकारी भी मिलती है | वहाँ घांटो जैसा मजबूत चरित्र हैं जो गाँव के विकास के लिए, शिक्षा के लिए, जरूरी सुविधाओं के लिए काम करता है, तो घूँघट वाली ऐसी औरतें भी हैं जो सरपंच तो बन गयी हैं पर वैसे ही घरेलु कामों में व्यस्त हैं और सरपंच के मुखौटे के पीछे असली सत्ता उनके पति संभाले हुए हैं |चालाकियाँ, गुट बाजी, अपने खेमे, वर्चस्व की लड़ाई , सब कुछ अनपढ़ और मासूम से ग्रामीणों में भी वैसे ही आम है जैसे शहरों में | आखिर असली मानव स्वाभाव भिन्न थोड़ी न है | गयी झुलनी टूट –लोक में रची बसी एक संघर्ष कथा गयी झुलनी टूट पढ़ते हुए न जाने कितनी बार लगा कि जैसे मन में कहीं से कुछ टूट गया है | कुछ दरक गया है |मन के चारों तरफ दर्द पसर गया | ये दर्द कमली का दर्द था तो घांटों का भी | किसना का तो जगत का भी | हम कमली के दर्द के साथ रोते कलपते आगे बढ़ते जाते हैं पर हर पात्र अपने हिस्से का दर्द जी रहा होता है | अपने हिस्से … Read more