अक्टूबर जंक्शन -जिन्दगी के फलसफे की व्याख्या करती प्रेम कहानी

वास्तवमें प्रेम क्या है ? इसकी कोई परिभाषा नहीं है और हम सब इसे अपनी -अपने तरह से परिभाषित करने का प्रयास करते हैं | ऐसा ही एक प्रयास दिव्य प्रकाश दुबे जी ने उपन्यास अक्टूबर जंक्शन में भी किया है | ये किताब 2017 से दैनिक जागरण की बेस्ट सेलर में शामिल है | इसका कारण है  कि ये सिर्फ एक प्रेम कहानी नहीं है | इसमें प्रेम कथा के साथ -साथ जीवन का फलसफा व् बहुत  सारा दर्शन भी है | अक्टूबर जंक्शन -जिन्दगी के फलसफे की व्याख्या करती प्रेम कहानी                                     “हमारी दो जिंदगियां होती हैं | एक वो जो हम जीते हैं और दूसरी वो जो हम जीना चाहते हैं | ये कहानी उसी दूसरी जिन्दगी की कहानी है |”                                    ‘ अक्टूबर जंक्शन ‘एक ऐसा उपन्यास है जो सुदीप यादव और चित्रा  पाठक की अनोखी प्रेम कहानी के साथ रिश्तों को, जिन्दगी के फलसफे को और  सच व स्वप्न के बीच  की    खाली जगह  समझने और उसकी व्याख्या करने की भी कोशिश करता  है | ये एक ऐसी  प्रेम कहानी   है  जिसमें एक ‘सैड ट्यून’ लगातार पीछे बजती रहती है | कहानी के तेज प्रवाह   के साथ आगे बढ़ते हुए भी ऐसा लगता है पीछे कुछ छूटा जा रहा है जिसे थामना है, पकड़ कर रखना है ..पर ये संभव नहीं पाता , ना कहानी में ना प्रेम में और ना ही जीवन में | कहानी के नायक सुदीप और चित्रा की पहली मुलाक़ात बनारस के अस्सी घाट पर होती है | बनारस , एक ऐसा शहर जो सच और सपने के बीच में बसता है | कोई यहाँ सच ढूँढने आता है तो कोई सपना भूलने | सुदीप और चित्रा भी यहाँ कुछ ऐसी ही वजह से आये हैं | सुदीप यादव   सुदीप यादव केवल बारहवीं पास है | उसने आगे पढाई नहीं की लेकिन लक्ष्मी उसकी उँगलियों पर खेलती है | वो  बहुत ही कम उम्र करोणपति बन गया था  | आज ‘बुक माय ट्रिप’ कंपनी का मालिक है | पेज थ्री सेलेब्रेटी है | उसके हजारों -लाखों फोलोअर्स हैं | आये दिन अखबार में उसकी खबरें छपती रहती हैं | लेकिन आज वो बनारस आया है  ताकि शांत दिमाग से अपनी जिन्दगी का एक महत्वपूर्ण फैसला ले सके | ये फैसला है अपनी कम्पनी के कुछ शेयर बेंचने का | इस पैसे से वो अपनी कम्पनी को और ऊँचाइयों पर ले जा सकेगा परन्तु उसका मालिकाना ह्क थोडा घटेगा | अपने सपने को किसी दूसरे के हाथों सौंप देना एक कठिन निर्णय है | एक तरफ जहाँ वो असमंजस में है वहीँ काम का अतरिक्त दवाब उसके जीवन में उसके खुद के लिए जीने वाले समय को चुरा रहा है | सपने के साथ आगे और आगे भागते हुए भी उसे विरक्ति हो रही है | वो हर जगह पहचान लिए जाने से ऊब चुका है | क्या यही जीवन है ? क्या बस यही उसका सपना था ? वो अभी 25 साल का है | पर वो 35 में रिटायरमेंट लेना चाहता है |  दौड़ -भाग से थककर सुस्ताना चाहता है | अपनी जिन्दगी थोड़ा अपने लिए बिताना चाहता है | चित्रा पाठक   चित्रा पाठक  एक लेखिका है | उम्र २६ -२७ वर्ष , दो वर्ष पूर्व उसका तलाक हो गया था | वो उपन्यास लिख रही है | उसका सपना है इस उपन्यास  को लिखकर नाम , शोहरत और बहुत से पैसे कमाना | वो पेज थ्री सेलेब्रिटी बनना चाहती है | वो इतना ऊँचा उठना चाहती है कि कोई उसे इग्नोर ना कर सके | कभी कहानी साथ छोड़ देती है तो कभी पात्र मुकर जाते हैं | उसे लगता है कि वो शायद इसे पूरा नहीं कर पाएगी | एक अजीब सी निराशा उसे घेरे हुए है | उसकी आँखों में सपने हैं आशाएं और निराशाएं हैं | एक का सपना उसके गले का फंदा सा बना उसे खींच रहा है और दूसरी पसीने से लथपथ होते हुए भी अपने सपने की डोर छोड़ना  नहीं चाहती | विरोधाभास ही तो है कि सुदीप को आसमान से जमीन बेहद सुकून भरी दिखाई देती है तो चित्रा को जमीन से आसमान बेहद उम्मीदों भरा |  ये प्रेम कथा है या नहीं  पर ये कहानी अपोजिट अट्रैकट्स की भी नहीं है और ना पहली नज़र का प्यार है | खास बात ये है कि अलग अलग स्थिति में होते हुए भी दोनों एक दूसरे की तकलीफ को समझ पाते हैं, ढांढस बंधाते हैं हिम्मत देते हैं | दोनों को बस एक दूसरे का साथ अच्छा  लगता है …और लगता है कि यही वो जगह है जहाँ वो अपने मन को खाली कर सकते हैं | अपने मन के टनों बोझ का खाली हो जाना एक ऐसा अनुभव है जिसे वो दोहराना तो चाहते हैं पर उस स्पेस को भी बनाये रखना चाहते हैं ताकि ये सुकून का अहसास हमेशा बना रहे | इसलिए पहली बार दस अक्टूबर  2010  (10-10-10) को मिलने के बाद वो अगली बार दस अक्टूबर  2011 को मिलने का वादा कर अपने अपने रास्ते अपनी -अपनी जिंदगियों में डूब जाते हैं | ये वाद महज जुबानी नहीं है इसके लिए हर बार वो जापानी लेखक मुरकामी की किताब पर अगली तारीख लिखते हैं |  इस दौरान  वो एक दूसरे को कॉल भी नहीं करते |  लेकिन अगली दस को वो फिर मिलते हैं , फिर अगली 10 को | 2010 से 2020 के दरमियान हर 10 अक्टूबर को मिलकर वो महज 20 दिन ही साथ रहते हैं | पर ये छोटा सा साथ उनके 364 दिनों के लिए एक टॉनिक की तरह काम करता है | वो समझते हैं इस ३६४ दिन के इंतज़ार और मिलन की अहमियत …इसलिए हर बार मिलते हैं और हर बार मिलने का वादा करते हैं |   ये किरदार सच और सपने के बीच की छोटी सी खाली जगह में मिले थे | बंद मुट्ठी से खुली मुट्ठी भर ही हम जिन्दगी को छू पाते हैं | … Read more

भूत-खेला –रहस्य –रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ

 मेरे पास नहीं है कोई सुरक्षा कवच | मैं फिर भी प्रेतों को आमंत्रित करती हूँ | आओ, मुझे और भी तुम्हारी कथाएँ कहनी है …अब तुम दे जाओ कथाएँ | कह जाओ अपने दमन की कथाएँ, शोषण की दास्तानें और अतृप्त इच्छाओं की अर्जियाँ दे जाओ | उन्हें कथा में पूरी करुँगी | आखिर कहानी में एक मनोवांछित संसार रचने का साहस तो है न मेरे पास | मेरा बचपन गाँवों में अधिक गुजरातो मेरे पास  वहीँ की कहानियाँ बहुत हैं | शहरों में जिन्दा भूत मिले थे | उनकी कथाएँ तो लिखती ही रहती हूँ | पहली बार ऐसे भूतों की कहानियाँ लिखी हैं |                              …गीता श्री क्या आपको डरने में मजा आता है ? डरना भी एक तरह का आनंद देता है | तभी तो लोग ऐसे पहाड़ों पर चढ़ते हैं कि नीचे गिरे तो …, उफनती लहरों में नदी पार करते हैं , एम्युजमेंट पार्क में सबसे खतरनाक झूले पर चढ़ते हैं …उस डर को जीतने में जो आनंद आता है , जो डोपामीन रिलीज होता है उसका मजा ही कुछ और है | इसी श्रृंखला में आते हैं डरावनी  फिल्में , किस्से और कहानियाँ | ऐसे ही एक डर का आनंद देने वाले किस्सों –कहानियों का संग्रह है … भूत-खेला –रहस्य –रोमांच से भरी भयभीत करने वाली कहानियाँ कहते हैं की जीवन अनंत है |जन्म और मृत्यु इसके बस दो सिरे हैं | फिर भी मृत्यु एक बहुत बड़ी सच्चाई है , जो हमें भयभीत करती है | हमें नहीं पता आगे क्या होगा ?  जीवन और मृत्यु के बीच में एक पर्दा है, जिससे न तो इस पार का व्यक्ति उस पार देख सकता है ना उस पार का व्यक्ति इस पार , और ये प्रश्न अनुत्तरित ही रह जाता है कि मरने के बाद इंसान जाता कहाँ है ? उस अदृश्य संसार के बारे में तो हम नहीं जानते लेकिन इतना जरूर माना जाता रहा है कि अकाल मृत्यु या अतृप्त इच्छा के साथ जब किसी व्यक्ति की मृत्यु होती है तो उसकी आत्मा उस पार ना जा कर यहीं हमारे बीच बिना देह के तड़पती हुई,  भटकती रहती है | जिसे हम भूत का नाम देते हैं |  देह नहीं होने के कारण उनकी शक्तियाँ हमसे अधिक होती हैं |  ज्यादातर लोगों को वो दिखते नहीं, लेकिन कुछ लोग ऐसे दावे करते आये हैं कि वो उन्हें देख चुके हैं या महसूस कर चुके हैं | शायद वो उनकी फ्रीकुएन्सी को पकड़ लेते हैं, और उन्हें वो दिखते हैं साक्षात चलते , बोलते, उड़ते हुए, कुछ रहस्यमय कामों को अंजाम देते हुए | भूत होते हैं कि नहीं यह पक्के तौर पर कहा नहीं जा सकता क्योंकि विज्ञान जिस तरह से आगे बढ़ रहा है और जिस तरह से हम उन चीजों को देख सुन पा रहे हैं जिन्हें नकारते रहे हैं, तो क्या पता एक दिन अपनी ही पृथ्वी पर भटकती इन बेचैन आत्माओं से रूबरू हो सकें | पर फिलहाल अभी तक जो रहस्य और रोमांच इन भूतों के बारे में बना हुआ है, वहीँ  से जन्म होता है भूतिया किस्सों का | हममें से कौन है जिसने अपने बचपन में अपने भाई –बहनों के साथ रात में छत पर  चारपाई पर बैठ कर किसी चाचा , मामा, ताऊ या जान –पहचान के व्यक्ति के भूत से मुलाक़ात के किस्से न सुने हों | “और जब वो चलता था …” से थमी हुई साँसों, और बढती हुई धडकनों के बाद कितनी बार रात में टॉयलेट जाने के लिए माँ या बड़ी बहन को जगाया होगा, और प्लीज बाहर खड़ी हो जाना की गुहार लगाई होगी | कितनी बार अँधेरे में किसी की परछाई नज़र आई होगी और भय से चीख  निकल गयी होगी | खैर वो बचपन के दिन थे  पंख लगा के उड़ गए | अब अगर आप एक बार फिर से बचपन के उस रोमांचक अहसास को जगाना चाहते हैं तो गीता श्री जी आपके लिए लेकर आयीं है , डरावने भूतिया  किस्सों से भरा “भूत खेला “ | और अगर अभी भी आप भूतों पर यकीन करते हैं तो भी  उत्तर वही ही है | हम सब जो हॉरर फिल्में देखते हैं वो जानते हैं कि लाइट और साउंड इफ़ेक्ट से डर आसानी से पैदा किया जा सकता है | जब किस्सों के रूप में किसी से सुनते हैं तो भी रात होती है और कहने का तरीका कुछ ऐसा होता है कि डर का माहौल बनता है | ऐसे में लोगों को लगता है कि क्या किताब में शब्दों के माध्यम से  वो डर उत्पन्न किया जा सकता है ? जी हाँ ! बिलकुल किया जा सकता है और ये लेखक के लिए बहुत चुनौती का काम है | जिन्होंने भी W.W.Jacobs की “monkey’s paw“ कहानी पढ़ी होगी | उन्होंने केवल शब्दों के माध्यम से दरवाजे के बाहर सीढियां चढ़ने की आवाजों में डर महसूस किया होगा |पढ़ते –पढ़ते किसको नहीं लगा होगा कि उसकी माँ से कह दे कि दरवाजा ना खोलना, बाहर भूत है | इस कहानी का उदहारण मैं इसलिए दे रही हूँ क्योंकि ये कई राज्यों में  सिलेबस में पढाई जाती है |  और अगर आज की बात करें तो  स्टीफन किंग के हॉरर से भला कौन ना डरा होगा अगर मैं ‘भूत खेला’ की बात करूँ तो गीता श्री जी भी वो माहौल तैयार करने और डर पैदा करने में पूरी तरह सफल रहीं हैं  | आप लाख कहिये कि ‘डरना मना है पर अन्तत: डर ही जायेंगे | डरावनी कहानियाँ लिखते समय लेखक के हाथ में केवल एक ही अस्त्र होता है वो है भाषा का …उसी से खौफ पैदा करना है, ऐसे दृश्य क्रिएट करने हैं जो पाठक की दिल की धडकने बढ़ा दें | गीता श्री जी ने कथा भाषा ऐसी रखी है जो डरावना माहौल क्रिएट करती है | यूँ  तो संग्रह की सभी कहानियाँ इसमें सफल हैं पर इस मामले में मैं खासतौर पर मैं इस संग्रह की  कुछ  कहानियों के नाम “कहीं ये वो तो नहीं” और “वे वहाँ लाइव थीं “ “उसका सपनों में आना जाना है” का नाम लेना चाहूँगी | इन तीनों  कहानियों में शब्दों और दृश्य का ऐसा मंजर … Read more

डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान

डॉ.सिताबो बाई  जन्म – १९२५ विक्रमी संवत  पिता -बाबू राम प्रसाद सिंह  विवाह -मौजा कादीपुर जिला बनारसछात्रवृत्ति के सहारे शिक्षा  आगरा मडिकल कॉलेज से डॉक्टरी  की शिक्षा  पहले जबलपुर फिर उदयपुर फिर बनारस में सेवाएं दी |  BHU के निर्माण में दस हज़ार का चंदा दिया  विधवा आश्रम, आनाथ आश्रम , वृद्ध आश्रम खोले  अपनी सारी  जायदाद समाज के लिए दान कर दी |                        डॉ. सिताबो बाई का इतना परिचय जान कर आप अंदाजा लगा चुके हिन्ज कि आप किसी महान विभूति के बारे में पढने जारहे हैं | साथ में ये प्रश्न भी उठा होगा कि उस  ज़माने की डॉक्टर, समाजसेवी महिला के बारे में आपको आखिर पता क्यों नहीं है ? यही तो है नारी जीवन की त्रासदी |  आइये जाने स्त्री संघर्षों की एक ऐसी दास्तान के बारे में जिसे उसकी मृत्यु के बाद इतिहास में भी जगह नहीं मिली …. डॉ. सिताबो बाई -मुक्त हुई इतिहास के पन्नों स्त्री संघर्ष की दास्तान  ‘डॉ. सिताबो बाई’ उपन्यास पर कुछ लिखने से पहले मैं इसकी लेखिका आशा सिंह जी को बधाई देना चाहती हूँ कि वो अतीत की खुदाई कर ऐसे जीवंत चरित्र को ले कर आई हैं जिसने  बेदर्द  ज़माने द्वारा दिए गए हर दर्द को न सिर्फ सहा बल्कि उससे क्षत-विक्षत अपने तन और मन  के साथ उसे ही संघर्ष की सीढ़ी बनाया | दर्द और सितम बढ़ते गए, सीढ़िया बढती गयीं , अपनी अदम्य इच्छा शक्ति व् सेवा भावना के कारण निजी जीवन में दुखी बहुत दुखी होते हुए भी कर्म क्षेत्र में और सामाजिक जीवन में बहुत सफलताएं हासिल की | जी हाँ ! डॉ. सिताबो बाई वो सशक्त स्त्री रही हैं जिनके संघर्ष , श्रम और जनसेवा भावना को इतिहास के पन्नों में बड़ी बेदर्दी से दबा दिया गया | इस उपन्यास को पढ़कर मुझे लगा कि प्रेम अपराधिनी अनारकली को दीवारों में जिन्दा चुनवा दिया गया इसके बारे में हम सब जानते हैं | परन्तु कितने सशक्त स्त्री चरित्रों को इतिहास के पन्नों में चुनवा दिया गया इसकी खबर किसी को नहीं है | ऐसा ही एक चरित्र मल्लिका के साथ में मनीषा कुलश्रेष्ठ जी ने न्याय किया तो आशा जी ने डॉ. सिताबो के साथ | निश्चित रूप से ऐसे बहुत से चरित्र होंगे जहाँ हमें कलम से  खुदाई कर के पहुँचना है और उनके संघर्षों को उचित सम्मान दिलवाना है | ऐसे चरित्रों पर लिखना आसान नहीं होता जहाँ आपके पास साक्ष्य नहीं होते | गूगल भी कोई मदद नहीं करता | ऐसे में किसी अँधेरी सुरंग के पार कुछ उड़ती-उड़ती सी  रौशनी दिखती है उसे ही कलम के सहारे पकड़ना होता है | ऐसा ही काम किया है आशा जी ने | उन्होंने साक्ष्य जुटाने का बहुत प्रयास किया परन्तु पंडित मदन मोहन मालवीय जी के पत्र, सेविंग अकाउंट, हॉस्टल के बिल से ज्यादा कुछ प्राप्त ना कर सकीं , यहाँ तक की उनकी तस्वीर भी नहीं | ऐसे में लिखने में संघर्ष बढ़ जाता है | जितना लिखा जाता उससे कहीं ज्यादा लिख कर मिटाया जाता | कितना समय तो सूत्र तलाशने में निकल जाता | पर आशा जी संकल्प की धनी रहीं और आखिर कार उनका ये दृण  निश्चय हज़ार बाधाओं  को पार करते हुए उपन्यास के रूप में हमारे सामने आ गया | इस काम में बनारस हिन्दू यूनिवर्सिटी ( B.H.U) से उन्हें थोड़ी बहुत मदद मिली पर उनके परिवार वालों से बिलकुल भी नहीं, कारण था अपने परिश्रम से अर्जित किये हुए समस्त धन को डॉ.सिताबो बाई  विधवा आश्रमों, बालिका ग्रहों और अनाथालयों के लिए दान कर गयीं थी | परिवार वालों को उनसे  आपत्ति थी ..घोर आपत्ति थी पर उनके धन से तो नहीं थी | फिर वो इतना बड़ा निर्णय कैसे ले गयी | पितृसत्ता की जड़े काटना इतना आसन नहीं होता | रोती-तडपती अबलाओं की कहानियाँ आगे बढ़ती हैं और सशक्त स्त्री चरित्र दबा दिए जाते हैं | कहीं दूसरी औरतों को उनकी हवा ना लग जाए |   एक सीता को तो हम सब जानते ही हैं …प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता, जिन्होंने  पत्नी धर्म निभाने के लिए राज सुख का त्याग किया, उनके साथ जंगल –जंगल भटकीं और बदले में उन्हें मिली अग्नि परीक्षा द्वारा खुद को निष्कलंक सिद्ध कर देने की सजा और उस पर भी शांति ना मिलने पर गर्भावस्था में त्याग  दिए जाने का फरमान | सीता सबकी आदर्श रहीं हैं क्योंकि वो आदर्श पत्नी, बहु और बेटी हैं | वो तर्क नहीं करती हैं, प्रेम करती हैं प्रेम के साथ कर्तव्य निभाती हैं | पूरी पितृसत्ता अपनी पत्नी बहु, बेटी में सीता को देखना चाहती है | सीता का यही रूप जनमानस में छाया रहा | बेटियों के नाम ‘सीता’ रखे जाने लगे | आखिर हमें बेटियों से त्याग और प्रेम के अतिरिक्त और चाहिए ही क्या था, इसी से तो कुल की इज्ज़त थी |  ये अलग बात है कि प्रेम और त्याग की प्रतिमूर्ति सीता ने जो संघर्ष किया , अपने पुत्रों को अस्त्र-शास्त्र की शिक्षा दी | इसे भी कालांतर में कलम की खुदाई से ही निकाला गया | खैर सीतायें जन्म लेतीं रहीं और ना जाने कितनी सीतायें …माता सीता की तरह धरा की गोद में समाती रहीं | ऐसी ही एक सीता थी जिसने  संवत 1925 में वाराणसी के पियरी कला मुहल्ला में बाबू राम प्रसाद के यहाँ जन्म लिया | भाग्य या दुर्भाग्य अपनी हमनाम की तरह इस नन्ही बच्ची की भी प्रतीक्षा कर रहा था | पर उस नन्हीं बालिका ने कदम –कदम पर संघर्ष का सहारा लिया और धरा की गोद में समाने की जगह सीता से डॉ.सिताबो बाई का सफ़र तय किया | महिलाओं के लिए एक मिसाल बनी डॉ. सिताबो बाई की जीवन गाथा समस्त स्त्रियों के लिए प्रेरणा दायक है |     डॉ .सिताबो बाई की लेखिका  आशा सिंह गौरवर्णा, आकर्षक नैन–नक्श वाली बालिका सीता पढने में भी तेज थी | उस समय लड़कियों की शिक्षित करना अच्छा नहीं समझा जाता था | चिंता यही रहती थी कि अगर लड़की शिक्षित हो गयी तो उसके योग्य वर कैसे मिलेगा | कोई भी पुरुष अपनी पत्नी को अपने से योग्य देख नहीं सकता, … Read more

पगडंडियों पर चलते हुए -समाज को दिशा देती लघुकथाएं

साहित्य जगत में डॉ .भारती वर्मा बौड़ाई एक सशक्त हस्ताक्षर के रूप में उभर रही हैं | अटूट बंधन के साहित्य सुधि पाठक उन्हें यहाँ अक्सर पढ़ते रहे हैं | कभी हिंदी अध्यापिका रही भारती जी साहित्य की  पगडंडियों पर चल कर तेजी से आगे बढती जा रहीं है | क्योंकि वो स्वयं अध्यापिका रहीं हैं इसलिए उनके सहित्य में मैंने एक खास बात देखी  हैं कि संवेदनाओं को जागते हुए भी उनके  साहित्य में समाज के लिए कोई सीख कोई दिशा छिपी रहती है | मुझे लगता है कि साहित्य का मूल उद्देश्य भी यही होना चाहिए कि समाज का केवल सच ही सामने ना लाये अपितु उसे हौले से बदलने का प्रयास भी करें | कदाचित इसी लिए जन सरोकारों से जुड़े साहित्य को हमेशा श्रेष्ठ साहित्य की श्रेणी में रखा जाता है | 2019 में उनकी 6 लघु पुस्तिकाएं आई हैं | जिनमें चार काव्य की एक लघु कथाओं की और एक लेखों की हैं | सभी लघु पुस्तिकाएं अपने आप में विशेष है पर आज मैं  यहाँ पर उनके लघुकथा संग्रह “पगडंडियों पर चलते हुए” की बात करना चाहती हूँ |  भारती जी के इस लघु कथा संग्रह में करीब ३० लघुकथाए है | समाज को दिशा देती ये सारी  लघुकथाएं प्रशंसनीय हैं | पगडंडियों पर चलते हुए -समाज को दिशा देती लघुकथाएं  पहली लघुकथा “इस बार की बारिश” एक ऐसी स्त्री के बारे में है जिसका पति कोई काम नहीं करता | घर में बैठे -बैठे खाना और सोना उसका प्रिय शगल है | उसकी पत्नी दिविका उसे बहुत समझाती है परन्तु उस पर कोई असर नहीं होता | दिविका बाहर जा कर नौकरी कर सकती है | परन्तु वो सोचती है कि अगर वो ऐसा करेगी तो उसके पति व् ससुराल वाले और निश्चिन्त हो जायेगे  तथा वो दोहरी जिम्मेदारियाँ निभाते -निभाते परेशान  हो जायेगी | अन्तत : वो अपने पति से संबंध संपत कर  अपने जीवन की डोर अपने हाथ में लेने का संकल्प लेती है | दुर्भाग्य से आज जब मैं इस कहानी पर लिख रही हूँ तो  अखबार में दिल्ली की एक खबर है | एक व्यक्ति जो पिछले दो सालों से बेरोजगार था और पत्नी नर्स का काम कर  अपने परिवार को पाल रही थी , उसने नशे व् क्रोध में अपनी पत्नी बच्चों की हत्या कर आत्महत्या कर ली | क्या ऐसे समय में जरूरत नहीं है दिविक जैसी महिलाओं की जो सही समय में सही फैसले ले और अपनी व् बच्चों की जिन्दगी को इस तरह जाया ना होने दें | “रक्षा बंधन ” से सम्बंधित दो लघुकथाएं मुझे बहुत अच्छी लगी | इनमें से एक में “रक्षा बंधन ऐसा भी ” एक माँ जो बिमारी जूझ रही है और उसके बच्चे उसकी सेवा तन मन से करते हैं वो रक्षा बंधन के दिन अपने भाई के बाद अपने बच्चों के राखी बांधती है | वहीँ दूसरी कहानी ‘अनोखा रक्षा बंधन ” में पुत्र दोनों मामाओं की मृत्यु के बाद उदास रहती माँ  से राखी बंधवाता है | रक्षा बंधन की मूल भावना ही किसी की दर्द तकलीफ में उसका सहारा बन जाने में है | वो हर रिश्ता जो इस बात में खरा उतरता है इस बंधन का हकदार है | ये एक नयी सोच है जो बहुत उचित भी है | “नया सवेरा ” कहानी एक ऐसी बच्ची की कहानी है जो माता -पिता के दवाब में  दसवीं में विज्ञान लेती है और फेल हो जाती है | अन्तत : माता -पिता समझते हैं कि हर बच्चा कुछ कर सकता है ,कुछ बन सकता है बशर्ते उस पर अपनी इच्छाओं का बोझ ना डाला जाए | “उड़ान “में बच्ची मीना अपने  जन्मदिन केक काट कर दोस्तों व् रिश्तेदारों के साथ डिनर करके नहीं बल्कि  वृद्ध आश्रम में मनाना चाहती है | वो अपने मित्रों के साथ वहां जा कर वृद्ध लोगों में आशा का संचार करती है | तो वहीँ “नयी सोच ‘के प्रधानाध्यापक बच्चो को सफाई के सिर्फ उपदेश ना पिला कर , न सिर्फ स्वयं सफाई करते हैं वरन बचे हुए खाने से खाद बनाने व् पौधे लगाने का भी काम करते हैं | उनको इस तरह करता देख बच्चे स्वयं प्रेरित हो जाते हैं | एक अंग्रेजी कहावत है कि … “Action speaks louder than words”                  ये कहानी इस लिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि ये  सिर्फ  कोरी शिक्षा पर जोर नहीं देती , वरन बच्चों को सिखाने के   लिए स्वयं में परिवर्तन के महत्व को रेखांकित करती है | “ विस्फोट ‘ एक ऐसी कहानी है जिस दशा से आमतौर पर महिलाएं गुजरती हैं | पुरुषों के लिए कोई बंधन नहीं हैं पर घर की बहु , कहाँ जारही है ? , कब जा रही है ? और कब तक लौटेगी ? के सवालों से झूझती ही रहती है | खासकर जब वो अपने मायके जा रही हो | ऐसे ही एक लड़की गौरी अपने माता -पिता के पास मिलने जाती है ,बारिश होने लगती है तो वो फोन कर के ससुराल में बता देती है , उधर बारिश ना रुकते देख माँ कहती हैं कि खानाबन ही गया है खा के जा ” माँ का दिल ना टूटे इसलिए वो खाना खा कर ससुराल जाती है | वहां सब नाराज बैठे हैं | आते ही ताने -उलाह्नेशुरु हो जाते हैं , ” आ गयीं मायके से पार्टी जीम कर , भले ही ससुराल में सब भूखे बैठे हो ?” आहत गौरी पहली बार अपनी जुबान खोलती है कि, ” क्या वो मायके भी नहीं जा सकती ? अगर इस पर भी ऐतराज़ है तो अब वो जब चाहे , जहाँ चाहे जायेगी | गौरी का प्रश्न हर आम महिला का प्रश्न है | बहुधा ससुराल वाले विवाह के बाद  महिला के उसके माता -पिता के प्रति प्रेम पर ऐतराज़ करने लगते हैं …….तब उनके यहाँ भी गौरी की तरह ही विस्फोट होता है | “बहु कभी बेटी के बराबर नहीं हो सकती ये कहने से पहले खुद का व्यवहार भी देखना होता है |” इसके अतिरिक्त शोर , अचानक , नयी पहचान व् अपने हिस्से का काम भी,  उल्लेखनीय लघु कथाएँ हैं | … Read more

फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म

amazon,com से साभार एनिमेटेड मूवीज  तकनीकी और कला का खूबसूरत मिश्रण होती है | उच्च स्तर के सोफ्टवेयर के कारण अब ये फ़िल्में बहुत ही बेहतरीन तरीके से बनायीं जाने लगी हैं | ऐसी ही फिल्म है फ्रोज़न | जो दो बहनों की की कहानी है | आइये जाने फिल्म फ्रोजन के  बारे में …   फ्रोजन -एक बेहतरीन एनिमेटेड फिल्म  ये कहानी है एक नार्वे के एक राज्य की राजकुमारी एलसा की जिसके पास हैं जादुई शक्ति | ये कोई मामूली जादुई शक्ति नहीं है ….वो अपने हाथों का इस्तेमाल करके ना जाने कितनी बर्फ बना सकती है | अलग -अलग आकारों में ढाल सकती है |  इस बारे में उसके माता -पिता व् छोटी बहन ऐना के अलावा  किसी को पता नहीं है | बात उनके बचपन की है एना छोटी है वो बर्फ से खेलना चाहती है | वो सोती हुई बड़ी बहन एलसा से जिद करती है कि सुबह हो गयी है उठो और बर्फ से खेलो | एलसा मना  करती है पर बहन की जिद के आगे वो बाहर आती है | वो बर्फ से एक पुतला ओलाफ बनाती है | बर्फ की स्लाइड बनाती है झूले बनाती है और बहुत कुछ बनाकर बहन के साथ खेलती है | ऐना अभी और खेलना चाहती है तो वो बर्फ का पहाड़ बनाती है | ऐना उससे कूद कर दूसरे पहाड़ पर जाती है | इससे पहले की ऐना कूदे  वो तीसरा पहाड़ बनती है , फिर चौथा , पांचवां …. तभी उसका पैर फिसलता  है और समय पर वो ऐना के लिए अगला पहाड़ नहीं बना पाती | ऐना गिर जाती है | उसके सर में चोट लगती है ….उसका बदन ठंडा पड़ने लगता है | घबराकर एलसा अपने पेरेंट्स को बुलाती है | एलसा के पेरेंट्स दौड़े -दौड़े आते हैं | ठंडी पड़ी हुई बेटी को देखकर माँ घबरा जाती है और रोने लगती है | पिता उसे धैर्य देते हुए कहते हैं की मुझे पता है मुझे कहाँ जाना है | वो अपने  घोड़े निकाल कर दोनों बच्चियों को लेकर ट्रॉल्स के पास जाते हैं | पश्चिमी माइथोलोगी में ट्रॉल्स का वही स्थान है जो हमारे यहाँ राक्षसों का है | ट्रॉल्स भी अलग -अलग आकार ले सकते हैं | अच्छे और बुरे हो सकते हैं | जिन्होंने हैरी पॉटर पढ़ी है वहां ट्रॉल्स डम्ब हैं वहीँ सिल्मारेलियन में ट्रॉल्स धूप  में पत्थर बन जाते हैं | इस कहानी में ट्रॉल्स एक बड़े निर्जन स्थान पर छोटे -छोटे पत्थरों की तरह पड़े रहते हैं , जो किसी के पुकारने पर अपनी इच्छा से ही बहुत छोटे कद के मोटे चेहरे ,मोटी  नाक वाले इंसानों के रूप में आते हैं | जब ये लोग ट्रॉल्स के पास जाते हैं तो नन्हा क्रिस्टोफ अपने छोटी से स्लेज पर छोटा सा बर्फ का टुकड़ा ले कर जा रहा होता है , जिसे उसका रेनडियर दोस्त स्वान चला रहा होता है | क्रिस्टोफ बर्फ के व्यापारियों का बेटा है जो गर्मियों में ठंडे पहाड़ों पर जाकर बर्फ काटते हैं  और उसे मैदानों में बेचते हैं | क्रिस्टोफ उनके साथ जाता है , खेल कूद के साथ काम सीखता है और बर्फ के छोटे टुकड़े अपनी गाडी में लेकर आता है | क्यूंकि एलसा अपनी बहन की वजह से परेशान  है और उसकी पॉवर कंट्रोल नहीं हो रही …तो रास्ते भर बर्फ गिरती जाती है |  उधर से आता हुआ क्रिस्टोफ बर्फ को रास्ते में गिरते हुए देख कर सहज उत्सुकतावश उस गाडी के पीछे हो लेता है | राजा -रानी ट्रॉल्स के राजा को मदद के लिए बुलाते हैं | क्रिस्टोफ  पत्थर के  पीछे  छुप कर देखता है | ट्रॉल्स का राजा ऐना को देखता है …वो कहता है इसके दिमाग में चोट लगी है जिसके कारण वो बर्फ में बदल रहा है …पर ये अच्छी बात है कि चोट दिमाग  में लगी है , इसे  ठीक कर सकता हूँ , अगर यह दिल में लगी होती तो मैं ठीक नहीं कर पाता | वो उसे जादू से ठीक करता है व् साथ ही ये सारे वाकये उसके दिमाग से निकाल देता है बस उस आनंद  को रहने देता है | राजा  -रानी एलसा के बारेमें पूछते हैं तो वो बताता हैकि एलसा सामान्य बच्ची नहीं हैं उसके पास बर्फ बनाने की पॉवर है …. वो कुछ भी बना सकती है …परन्तु समस्या के है कि वो शुरू तो कर सकती है पर रोक नहीं पाती …खासकर तब जब वो इमोशनल हो ( सुख या दुःख ) या भयभीत हो | इसे अपनी पॉवर को कंट्रोल करना सीखना होगा नहीं तो इससे भारी नुक्सान  हो सकता है | राजा -रानी और एलसा डर जाते हैं |वो महल में आकर महल के सारे खिड़की दरवाजे बंद कर देते हैं | एलसा औरऐना  को दूर करने के लिए एलसा को अपने कमरे से बाहर जाने की इजाजत नहीं होती | एलसा के अन्दर भी भय है  कि कहीं फिरसे उसकी बहन को नुक्सान ना हो जाए तो बहन के बार -बार दरवाजा खटखटा कर बुलाने पर भी वो नहीं निकलती | उसका भय बढ़ने लगता है जिसके कारण उसकी पॉवर भी नियंत्रण के बाहर होने लगती हैं | उसके बंधन और बढ़ा दिए जाते हैं |  माता -पिता बार -बार हिदायत अपने इमोशन पर कंट्रोल रखो , डर पर कंट्रोल रखो , कोशिश करो | ये कोशिशे उसे और भयभीत करती हैं | अब वो जिस चीज को छूती है वही चीज पर बर्फ बनने लगती है | उसे हाथों के दस्ताने पहना दिए जाते हैं | समय बीतता है | बहने बड़ी होती हैं | जब एलसा  15 साल की होती है तो उसके माता -पिता को कहीं जाना पड़ता है | वो एलसा को खुद पर कंट्रोल करने को कहते हैं | एलसा  उन्हें आश्वासन देती है | यात्रा में उनका जहाज डूब जाता है | इस दुःख की घड़ी में ऐना , एलसा से दरवाजा खोलने की गुज़ारिश करती है पर वो नहीं मानती | अकेले रह -रह कर उसका भय बढ़ रहा है और उसकी शक्तियाँ भी … तीन साल बीत जाते हैं … एलसा १८ की हो जाती है …आज उसका राजतिलक होगा और … Read more

नैहर छूटल जाए – एक परिवर्तन की शुरुआत

कहते हैं कि परिवर्तन की शुरुआत बहुत छोटी होती है, परन्तु वो रूकती नहीं है और एक से एक कड़ी जुडती जाती है और अन्तत : सारे समाज को बदल देती है …एक ऐसे ही परिवर्तन की सूत्रधार है कोयलिया | यूँ तो कोयलिया ‘नया ज्ञानोदय में प्रकाशित रश्मि शर्मा जी की कहानी ‘नैहर छूटल जाए’ का एक पात्र ही है पर उसे बहुत ही खूबसूरती से गढ़ा गया है | नैहर छूटल जाए – एक परिवर्तन की शुरुआत  कहानी ग्रामीण परिवेश की है | दो भाइयों की इकलौती बहन कोयलिया की माँ की मृत्यु बचपन में ही हो गयी थी | पिता ने ही उसे माँ व् पिता दोनों का प्यार दिया | प्रेम –प्रीत से पली कोयलिया के नसीब में शराबी पति लिखा था | जो उसे अकसर मारता और वो देह पर नीले निशान लिए हुए मायके आ जाती | भाई और पिता उसकी खातिर करते पर भौजाइयाँ इस डर से की वो वहीँ ना बस जाए उसको गेंहू , चावल , खेत की तरकारी आदि दे कर  ये कह कर विदा कर देती कि जैसा भी है अब वही घर तेरा है | और कोयलिया विदाई के समय आँचल में चावल के दाने बाँध के साथ मायके का प्रेम  बाँध कर घर आ जाती | जिस साल कोयलिया पैदा हुई थी उस साल उसके पिता को खेती में बहुत लाभ हुआ | उन्हें लगा कि कोयलिया उनके  लिए बहुत भाग्यशाली है | धीरे -धीरे उन्होंने कई खेत खरीदे | माँ की मृत्यु के बाद कोयलिया बिना माँ की तो जरूर हो गयी पर उसके पिता व् भाइयों ने उसे लाड -प्यार की कोई कमी नहीं होने दी | इसी हक से तो वो हर बार ससुराल से मार खा कर सीधे अपने घर आ जाती | आखिर ये घर भी तो उसका अपना ही था |  उसी समय गाँव में कारखाना लगने का सरकारी प्रस्ताव आया | भूमि का अधिग्रहण शुरू हुआ | किसी के मकान का अधिग्रहण होना था तो किसी के खेत का | कोयलिया के पिता के खेत भी उसी भूमि में आये जिनका अधिग्रहण होना था | जमीन से चार गुना रकम मिलनी थी | हालांकि खेती की जमीन चली जाने पर आगे आय के श्रोत बंद हो रहे थे परन्तु उस पैसेका अन्यत्र कहीं इस्तेमाल किया जा सकता था | कोयलिया के पिता ने उसी समय भाइयों -भौजाइयों के आगे एक खेत जो उस्न्होने उस साल खरीदा था जिस साल कोयलिया पैदा हुई थी , उसके नाम करने को कहा | उन्हें कोयलिया प्रिय तो थी ही साथ ही शराबी दामाद का भय भी था कि उसकी वजह से कहीं उनकी बिटिया नाती को दिक्कत ना आये |  भूमि अधिग्रहण और पैसे का आवंटन में होने में गड़बड़ी होने पर गाँव वालों का विद्रोह शुरू हुआ | विद्रोह को दबाने के लिए पुलिस आई और उसने अंधाधुंध हवाई फायरिंग शुरू की | इस फायरिंग में सात लोगों की गोली लगने से मृत्यु हुई | उसी में एक कोयलिया के पिता भी थे | कोयलिया रोती पीटती आई उसे पिता को खोने के साथ -साथ नैहर छूटने का भी भी था | भाइयों और भाभियों ने आश्वासन दिया और वो दुखी ह्रदय से घर वापस आ गयी | दुःख था की छूटने का नाम नहीं ले रहा था | इसी बीच पता चलता है कि कंपनी की तरफ से उसके पिता की मृत्यु का हर्जाना मिलेगा | खबर सुन कर उसका दिल दुःख से भर गया … करोणों के पिता की जगह लाखों का हर्जाना , क्या उसका दुःख इससे कम हो सकता है ?परन्तु उसके पति की आँखों में चमक आ गयी | वह कोयलिया पर दवाब डालने लगा कि वो भी  अपना हिस्सा मांगे ताकि वो अपने घर की टपकती छत बरसात आने से पहले ठीक करवा सके | कोयलिया को बात ठीक लगती है | वो मायके जाती है | भाई -भाभी उसका बहुत स्वागत करते हैं , परन्तु हर्जाने में हिस्समांगने की बात सुन कर नाराज़ हो जाते हैं | भाभियाँ समझा देती हैं कि क्यों बेकार में हिस्सा माँगती हो | तुम बाबा की बेटी हो पर उनके कारज में खर्चा तो हमारा ही हुआ था | बाबा नहीं रहे पर तुम्हारा नैहर तो है  …तुम आओगी तो अपनी सामर्थ्य भर दाना -पानी हम बांधते रहेंगे तुम्हारे साथ … हम भी बेटी हैं ,नैहर बना रहे इससे ज्यादा एक बेटी को और क्या चाहिए |  कोयलिया को भाभियों की बात सही लगती है और वो वापस अपने घर आ जाती है | तभी मुआवजा मिलने की खबर आती है | पति फिर हिस्सा माँगने को कहता है | वो फिर नैहर  जाती है | बाबा के बाद वैसे भी अब उसका नैहर जाने का मन नहीं करता | भाई टका  सा जवाब दे देते हैं कि पैसा मिला ही नहीं और बाबा ने कब कहा था हमने तो सुना ही नहीं | उसका मन उदास तो होता है तो भाई उसे समझा देते हैं कि जब पैसा मिलेगा तब सोचेंगे | इस बार भाभियाँ मनुहार नहीं करती | वो वापस लौट आती है |  जो लड़की बात -बात पर नैहर जाती थी वो अब महीनों नैहर नहीं जाती | नैहर छूटा सा जा रहा है | अब तो बदन पर पड़े नीले निशानों को भी किसी को दिखने की इच्छा नहीं होती | क्या फायदा ? कौन उसका अपना है जो सुनेगा | अपने दर्द अपने मन में ही रखती है …. जो भी है उसका पति ही है उसी के सहारे उसकी जिन्दगी की नैया पार लगेगी |  तभी उसे पता चलता है कि भाइयों को मुआवजे की रकम मिल गयी है | पर किसी ने उसे बताया नहीं, नैहर सेकोई आया भी नहीं ? ये सोच कर उसे गहरा धक्का लगता है | बहुत दिन तक उदास रहने के बाद मन में क्रोध उफनता है | आखिर वो भी तो अपने बाबा की बेटी है , उस घर द्वार पर उसका भी हक़ है | ऐसे कैसे भैया भाभी उसे , उस घर में आने से बेदखल कर देंगे | वो अपने नैहर जाती है और बिना भाभियों से मोले सीधे भण्डार में जाकर … Read more

प्रत्यंचा -समसामयिक विषयों की गहन पड़ताल करती रचनाएँ

कविता भावो  की भाषा है वो जबरदस्ती नहीं लिखी जा सकती , उसे जब हृदय के कपाट खोल कर भावों के निर्झर सी निकलना होता है, वो तभी निकलती है | कई बार लिखने वाला और पढने वाला अपने -अपने भाव जगत के आधार पर उसे ग्रहण करता है | समीक्षक का धर्म होता है कि वो कवि के भाव स्थल पर उतर कर रचना की व्याख्या करे |  हालंकि जब विश्व पुस्तक मेले में पंखुरी जी ने बड़े ही स्नेह के साथ अपना नया कविता संग्रह ‘ प्रत्यंचा ‘ मुझे भेंट किया था तो मैं उस पर तुरंत ही कुछ लिखना चाहती थी , पर दुनियावी जिम्मेदारियों ने भावनाओं के उस सफ़र से मुझे वंचित रखा | खैर हर चीज का वक्त मुकर्रर होता है तो अब सही ….और पंखुरी जी के शब्दों में कहें तो … बिम्ब ऐसे हों जो दिखें ना कविता वो जो  मुट्ठी में ना आये इसलिए नहीं कि मेरे तुम्हारे प्रेम की कविता है और उनके हाथों में इसलिए कि कविता से भी मुझे प्रेम है ….| प्रत्यंचा -समसामयिक विषयों की गहन पड़ताल करती रचनाएँ  यूँ तो प्रत्यंचा नाम पढ़ कर किसी युद्ध का अहसास होता होता है | जहाँ तीर हो कमान हो और निशाना साध  कर सीधे ह्रदय को बेध दिया जाए | लेकिन ये प्रत्यंचा अगर कोई कवि भी  ताने तो भी उससे निकले भावनाओं के तीर भी ह्रदय को बेधते  ही हैं , पर ये बिना रक्तपात किये उसके भाव जगत में उथल -पुथल मचा कर मनुष्य को पहले से ज्यादा परिमार्जित कर देते हैं | ऐसी ही एक प्रत्यंचा चढ़ाई है पंखुरी सिन्हा जी ने अपने कविता संग्रह ‘प्रत्यंचा” में| क्योंकि बात पंखुरी  जी की कविताओं की है तो पुष्पों की उपमा देना मुझे ज्यादा उचित लग रहा है | सच कहूँ तो इस काव्य संग्रह से गुज़रते हुए मुझे लगा कि मैं लैंटाना के फूलों के किसी उपवन से गुँजार रही हूँ  विभिन्न रंगों और आकारों के छोटे -छोटे फूलों के गुच्छे , जो सहज ही आपका ध्यान अपनी और आकर्षित कर लेते हैं | साहित्य जगत में पंखुरी सिन्हा जी के नाम से कोई अनभिज्ञ नहीं है | दो कहानी संग्रहों, दो हिंदी कविता संग्रहों और दो अंग्रेजी कविता संग्रहों की रचियता व साहित्य के अनेकों पुरुस्कारों द्वारा सम्मानित पंखुरी जी के  नवीनतम काव्य संग्रह ‘प्रत्यंचा ‘ से गुजरने की मेरी यात्रा बहुत सुखद रही | ये अलग बात है कि पंखुरी जी का पहला संग्रह कहानियों का था पर उन्हें पहला सम्मान कविता पर मिला | मैं जब से पंखुरी जी से जुडी हूँ मैंने ज्यादातर उनकी कवितायें ही पढ़ी हैं | कभी -कभी लगता है कि कहानी लिखी जाती है और कवितायें लिख जाती हैं ,खुद ब खुद क्योंकि वो दिल के बहुत पास होती हैं …और पाठक को भी उतनी ही अपनी सी महसूस होती हैं | पंखुरी जी की कविताओं की बात करें तो वो बहुत सहज हैं , जो उनका देखा , सुना अनुभव किया है , उसे वो बिना लाग -लपेट के पाठकों के सामने रख देती हैं , और पाठक को भी वो अपना अनुभव लगने लगता है | अब उनकी पहली कविता किस्से को ही देखिये | हम भारतीयों की किस्से सुनाने की बहुत आदत है | जहाँ चार लोग बैठ जाते हैं वहां किस्सागोई  शुरू हो जाती है …पर ये किस्सा है जमे हुए दही का | गाँवों और छोटे शहरों में आज भी मिटटी की हांडी में दही बेचा जाता है | अच्छे दही की पहचान हांडी की ठक -ठक की आवाज़ से होती है | पूरी तरह जम जाने और पत्थर हो जाने वाला दही ग्राह्य है | जब आप इस कविता में डूबेंगे तो ये किस्सा एक अलग ही किस्सा कहता है  इंसान के समाज द्वारा स्वीकृत होने का ,जीवन की विभिन्न विपरीत परिस्थितियों में पत्थर सा मजबूत हुआ इंसान , जब बार -बार ठोंक पीट कर आजामाया जाता है तभी उसे सर आँखों पर बिठाया जाता है | दही अच्छा बताया जाता है स्वाद से नहीं ठक -ठक की आवाज़ से यानि उस खटखटाहट की आवाज़ से जो प्रतीकों में बताती है दही का जमना स्त्री विमर्श पर .. किसी स्त्री की कविताओं में स्त्री विमर्श के स्वर ना गूँजे ऐसा तो हो ही नहीं सकता | पंखुरी जी की  कविताओं में भी स्त्री सवाल उठाती है | वो साफ़ -साफ़ कहतीं हैं कि स्त्री के लिए चूडियाँ पहनना या उतारना उसकी इच्छा पर निर्भर नहीं करता | ये समाज के आदेश से होता है | समाज ने तय कर रखा है को वो चूड़ी ना उतारे |आपने गाँवों में देखा होगा कि मनिहारिन से चूड़ी पहनने के समय औरते एक पुरानी चूड़ी डाले रहती है क्योंकि कलाई  पूरी तरह से खाली करने की इजाज़त नहीं होती | स्त्री की कलाई और स्त्री की ही चूड़ियाँ पर अफ़सोस कि उनको पहनने -उतारने का हक़ स्त्री को नहीं है | ज्यादातर इस किस्म की होती हैं स्त्री मुक्ति की बातें कि चूड़ी उतारने की इजाजत नहीं होती या फिर पहनने की दुबारा विधापीठ -दो —————- स्त्री जीवन का एक बड़ा सच ये है कि स्त्रियाँ अपनी उम्र छिपाती है , क्यों छिपाती हैं इसके अलग अलग कारण हो सकते हैं और एक कारण पंखुरी जी भी ढूंढ कर लायी हैं … स्त्रियों के साथ भी बिलकुल स्त्री अस्मिता का पहला कदम मन की बातें कुछ मन में ही रख लेना भी एक अदा है और जैसे उम्र भी हो मन ही की बात फॉर्म की लिखाई से बाहर विधापीठ -1 ————— कौन सी स्त्री होगी जिसका हृदय सीता माता के दुःख पर चीत्कार ना कर उठे | उनका दुखी हृदय रामराज्य पर सवाल करता है कि जिस राज्य में एक निर्दोष स्त्री बिना अपनी सफाई का अवसर दिए वन में छोड़ दिए जाने की सजा पाती है वो राम राज्य कैसा है ? वहीँ उनके अंदर आशा भी है कि वह  स्त्रियों को सम्मान  दिलाने वाले श्री कृष्ण तक एक पुल बना देने में गिलहरी की तरह इंटें ढोंगी |  ये बहुत गंभीर बात है कि उस पुल के बन जाने से ही सीता का उद्धार है | हम सब स्त्रियाँ वो गिलहरी हैं … Read more

फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा

कहते हैं शक की दवा को हकीम लुकमान के पास भी नहीं थी | यूँ  तो ये भी कहा जाता है कि रिश्ते वही सच्चे और दूर तक साथ चलने वाले होते हैं जहाँ आपस में विश्वास हो और रिश्ते की जमीन पर शक का कीड़ा दूर -दूर तक ना रेंग रहा हो , पर रिश्तों में कभी न कभी शक आ ही जाता है ,खासकर पति -पत्नी के रिश्ते में | लेकिन क्या ऐसा हो सकता है कि कोई जबरदस्ती शक आपके दिमाग में घुसा दे ? ये काम करने वाला कोई जान -पहचान वाला नहीं हो , बल्कि ऐसा हो जिससे आपका दूर -दूर तक नाता ही ना हो , और आप की शक मिजाजी में उसका फायदा हो | इंटरनेट की दुनिया में कुछ भी असंभव नहीं  हैं | ऐसी ही एक साईट है फिडेलिटी डॉट कॉम और यही है सशक्त कथाकार प्रज्ञा जी की ‘नया ज्ञानोदय’ मई अंक में प्रकाशित कहानी का विषय | हमेशा नए विषय लाने और अपनी कहानियों में आस -पास के जीवन का खाका खींच देने में प्रज्ञा जी सिद्धहस्त हैं | उनकी लंबी -लंबी कहानियाँ पढने के बाद भी लगता है की काश थोड़ा  और पढ़ें | उनके हाल में प्रकाशित कहानी संग्रह ‘मन्नत टेलर्स ‘में ‘उलझी यादों के रेशम ‘, ‘ मन्नत टेलर्स ‘व् कुछ अन्य कहानियाँ पाठक को अपने भाव जगत में डूब जाने को विवश कर ती हैं | उसके बारे में कभी विस्तार से चर्चा करुँगी , फिलहाल फिडेलिटी डॉट कॉम के बारे में … फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा  ये कहानी एक ऐसी लड़की विनीता के बारे में हैं , जो अपने कड़क मामाजी के अनुशासन में पली है | घर के अतरिक्त कहीं जाना , नौकरी करना उसे रास ही नहीं आता | विवाह के बाद उसके जीवन में एक बड़ा परिवर्तन होता है , जब उसे अपने पति सुबोध के साथ कोच्चि में रहना पड़ता | अनजान प्रदेश , अजनबी भाषा ऊपर से सुबोध के मार्केटिंग में होने के कारण बार -बार लगने वाले टूर | अकेलापन उसे घेरने लगता है , लोगों से संवाद मुस्कुराहट से ऊपर जा नहीं पाता , और टीवी अब सुहाता नहीं | ऐसे में सुबोध उसे टैबलेट  पर फेसबुक और इन्टरनेट की दुनिया से जोड़ देता है | उसके हाथ में तो जैसे खजाना लग जाता है …रिश्तों के विस्तृत संसार के बीच अब अकेलापन जैसे गुज़रे ज़माने की बात लगने लगती है  | इन्टरनेट की दुनिया में इस साईट से उस साईट को खंगालते हुए एक पॉप अप विज्ञापन पर उसकी निगाह टिकती है, ” क्या आपको अपने साथी पर पूरा भरोसा है ? क्या करते हैं आप के पति जब काम पर बाहर जाते हैं ? क्या आप जानना चाहती हैं ? ना चाहते हुए भी वो उस पर क्लिक कर देती है | फिडेलिटी डॉट कॉम वेबसाईट का एक नया संसार उसके सामने खुलता है | जहाँ फरेबी पति -पत्नियों के अनेकों किस्से हैं , घबरा देने वाले आँकड़े हैं और खुद को आश्वस्त करने के लिए अपने जीवनसाथी की जासूसी करने के तरीके भी | दिमाग में शक का एक कीड़ा रेंग जाता है | जो चीजे अभी तक सामान्य थी असमान्य लगने लगतीं हैं | छोटे -छोटे ऊलजलूल प्रश्नों के हाँ में आने वाले उत्तरों से मन की  जमीन पर पड़े शक की नीव के ऊपर अट्टालिकाएं खड़ी होने लगतीं है और विज्ञापन की चपेट में आ कर वो , वो करने को  हामी बोल देती है जो उसका दिल नहीं चाहता | यानि की फिडेलिटी डॉट कॉम पर क्लिक करके अपनी पति की जासूसी करने का उपकरण खरीदने को तैयार हो जाती है और एक बेल्ट के लिए ओके कर देती है | ये वो जासूसी उपकरण होते है जो ऐसे कपड़ों पर लागाये जाते हैं जो उस व्यक्ति के हमेशा पास रहे | जिससे वो कहाँ जाता है , क्या करता है इसकी पूरी भनक उसके जीवन साथी को मिलती रहे |  हालाँकि बाद में खुद ही उसे इस बात का अफ़सोस होने लगता है कि उसने ये क्यों किया | कहानी में उसके मन का अंतर्द्वंद बहुत खूबसूरती से दिखाया गया है | जैसे -जैसे कहानी आगे बढती है , पाठक आगे क्या होगा जानने के लिए दिल थाम कर पढता जाता  है | कहानी सकारात्मक और हलके से चुटीले अंत के साथ समाप्त होती है परन्तु ये बहुत सारे प्रश्न पाठक के मन में उठा देती है कि इन्टरनेट किस तरह से हमारे निजी जीवन व् रिश्तों में शामिल हो गया है और एक जहर घोलने में कामयाब भी हो रहा है | ऐसी तमाम साइट्स पर हमारी निजता को दांव पर लगाने वाला हमारा अपना ही जीवन साथी हो सकता है | लोगों से जोड़ने वाला हमें अपनों से दूर कर देने का तिलिस्म भी रच रहा है , जिसमें जाने अनजाने हम सब फँस रहे हैं | एक नए रोचक व् जरूरी कथ्य , सधे हुए शिल्प व् प्रस्तुतीकरण के लिए प्रज्ञा जी को बधाई वंदना बाजपेयी  यह भी पढ़ें … रहो कंत होशियार -सिनीवाली शर्मा की कहानी की समीक्षा भूख का पता -मंजुला बिष्ट की कहानी समीक्षा आपको समीक्षात्मक  लेख “फिडेलिटी डॉट कॉम :कहानी समीक्षा “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under- Book Review, kahani sangrah, story  in hindi , review, story review

एक नींद हज़ार सपने –आस -पास के जीवन को खूबसूरती से उकेरती कहानियाँ

सपने ईश्वर द्वारा मानव को दिया हुआ वो वरदान है, जो उसमें जीने की उम्मीद जगाये रखते हैं  | यहाँ पर मैं रात में आने वाले सपनों की बात नहीं कर रही हूँ बल्कि उन सपनों की बात कर रही हूँ जो हम जागती आँखों से देखते हैं और उनको पाने के लिए नींदे कुर्बान कर देते हैं | “एक नींद हज़ार सपने” अंजू शर्मा जी का ऐसा ही सपना है जिसे उन्होंने जागती आँखों से देखा है, और पन्ने दर पन्ने ना जाने कितने पात्रों के सपनों को समाहित करती गयी हैं | एक पाठक के तौर पर अगर मैं ये कहूँ कि इस कहानी संग्रह को पढ़ते हुए मेरे लिए यह तय करना मुश्किल हो रहा था कि मैं सिर्फ कहानियाँ पढ़ रही हूँ या शब्दों और भावों की अनुपम चित्रकारी में डूब  रही हूँ तो अतिश्योक्ति नहीं होगी | अंजू जी, कहानी कला के उन सशक्त हस्ताक्षरों में से हैं जिन्होंने अपनी एक अलग शैली विकसित की है | वो भावों की तूलिका से कागज़ के कैनवास से शब्दों के रंग भरती हैं …कहीं कोई जल्दबाजी नहीं, भागमभाग नहीं और पाठक उस भाव समुद्र में  डूबता जाता है…डूबता जाता है |  एक नींद हज़ार सपने –आस -पास के जीवन को खूबसूरती से  उकेरती कहानियाँ  ‘गली नंबर दो’  इस संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी एक ऐसे युवक भूपी के दर्द का दस्तावेज है जो लम्बाई कम होने के कारण हीन भावना का शिकार है | भूपी मूर्तियाँ बनाता  है , उनमें रंग भरता है , उनकी आँखें जीवंत कर देता है , पर उसकी दुनिया बेरंग है , बेनूर है … वो अपने मन के एक तहखाने में बंद है , जहाँ एकांत है , अँधेरा है और इस अँधेरे में गड़ती  हुई एक टीस  है जो उसे हर ऊँची चीज को देखकर होती है | किसी की भी साइकोलॉजी  यूँ ही नहीं बनती, उसके पीछे पूरा समाज दोषी होता है | बचपन से लेकर बड़े होने तक कितनी बार ठिगने कद के लिए उसे दोस्तों के समाज के ताने सुनने पड़े हैं | एक नज़ारा देखिये … “ओय होय, अबे तू जमीन से बाहर आएगा या नहीं ?” ‘भूपी तू तो बौना लगता है यार !!! ही, ही ही !!’ “अबे, तू सर्कस में भरती क्यों नहीं हो जाता, चार पैसे कम लेगा|” “साले तेरी कमीज में तो अद्धा कपडा लगता होयेगा, और देख तेरी पेंट तो चार बिलांद की भी नहीं होयेगी |”                                          किसी इंसान का लम्बा होना, नाटा  होना , गोरा या काला होना उसके हाथ में कहाँ होता है | फिर भी हम सब ऐसे किसी ना किसी व्यक्ति का उपहास उड़ाते रहते हैं या दूसरों को उड़ाते देखते रहते हैं ….इस बात की बिना परवाह किये कि ये व्यक्ति के अंदर कितनी हीन भावना भर देगा | भूपी के अंदर भी ऐसी ही हीन ग्रंथि बन गयी जो उसे मौन में के गहरे कुए में धकेल देती है | ग्लैडिस से लक्ष्मी बन कर पूरी तरह से भारतीय संस्कृति में रची बसी भूपी की भाभी , उसके काम में उसकी मदद करती | लक्ष्मी का चरित्र अंजू जी ने बहुत खूबसूरती से गढ़ा है ,ये  आपको अपने आस –पास की उन महिलाओं की याद दिला देगा जो विवाह के बाद भारतीय संस्कृति में ऐसी रची कि यहीं की हो के रह गयीं | खैर, भूपी के लिए सोहणी का विवाह प्रस्ताव आता है जिसके पिता की ८४ के दंगों में हत्या  हो चुकी है और रिश्तेदारों के आसरे जीने वाली उसकी माँ किसी तरह अपनी बेटी के हाथ पीले कर देन चाहती हैं | भूपी के विपरीत सोहणी खूब –बोलने वाली, बेपरवाह –अल्हड़ किशोरी है जिसके पास रूप –रंग व् लंबाई भी है …वही लम्बाई जो भूपी को डराती है | भूपी और सोहणी का विवाह हो जाता है पर उसकी लंबाई भूपी को अपने को और बौना महसूस  कराने लगती है| सोहणी को कोई दिक्कत नहीं है पर ये हीन ग्रंथि, ये भय जो भूपी ने पाला है वो उनके विवाहित जीवन में बाधक है … कहानी में पंजाबी शब्दों का प्रयोग पात्रों को समझने और उनके साथ जुड़ने की राह आसान करता है | कहानी बहुत ही कलात्मकता से बुनी गयी है | जिसके फंदे-फंदे में पाठक उस कसाव को मह्सूस करता  है जो कहानी की जान है | एक उदाहरण देखिये … भूपी को दूर –दूर तक कहीं कुछ नज़र नहीं आ रहा , एक कालासाया उसके करीब नुमदार  हुआ और धीरे –धीरे उसे जकड़ने लगा | भूपी घबराकर उस साए से खुद को छुडाना चाहता है | वह लगभग जाम हो चुके हाथ –पैरों को झटकना चाहता है , पर बेबस है , लाचार है | “ समय रेखा “  संग्रह की दूसरी कहानी है | ये कहानी मेरी सबसे पसंदीदा दो कहानियों में से एक है, कारण है इसका शिल्प …जो बहुत ही परिपक्व लेखन  का सबूत है | अंजू जी के लेखन की यह तिलस्मी, रहस्यमयी शैली मुझे बहुत आकर्षित करती है, साथ ही इस कहानी दार्शनिकता इसकी जान है |  कहानी का सब्जेक्ट थोड़ा बोल्ड है और वो आज की पीढ़ी को  परिभाषित करता है | ये कहानी अटूट बंधन पत्रिका में भी प्रकाशित हुई है और  आप इसे यहाँ पढ़ सकते हैं | वैसे तो ये कहानी बेमेल रिश्तों पर आधारित है  | आज हम देखते हैं कि बेमेल रिश्ते ही नहीं प्रेम विवाह भी टूटते हैं …इसका एक महत्वपूर्ण कारण है कि प्रेम होना और प्रेम में पड़ जाना दो अलग-अलग चीजें हैं | प्रेम में पड़ जाने के पीछे कई मनोवैज्ञानिक कारण होते हैं , जो उस समय समझ नहीं आते पर साथ रहने , या ज्यादा समय साथ गुज़ारने से मन की पर्ते खुलती हैं , प्रेम में पड़ जाने का कारण समझ में आता है , फिर होता है अंतर्द्वंद … कहानी की शुरुआत ही खलील जिब्रान के एक कोटेशन से होती है .. . “प्रेम के अलावा प्रेम में और कोई इच्छा नहीं होती |पर अगर तुम प्रेम करो और तुमसे इच्छा किये बिना रहा ना जाए तो यही इच्छा करो कि तुम पिघल जाओ प्रेम के रस में और प्रेम के इस पवित्र … Read more

कुछ अनकहा सा -स्त्री जीवन के कुछ अव्यक्त दस्तावेज

                            बातें , बातें और बातें …दिन भर हम सब कितना बोलते रहते हैं …पर क्या हम वो बोल पाते हैं हैं जो बोलना चाहते हैं | कई बार बार शब्दों के इन समूहों के बीच में वो दर्द छिपे रहते हैं हैं जो हमारे सीने में दबे होते हैं क्योंकि उनको सुनने वाला कोई नहीं होता या फिर कई बार उन शब्दों को कह पाना हमारी हिम्मत की परीक्षा लेता है , आसान नहीं होता अपने बाहरी समाज स्वीकृत रूप के आवरण के तले अपने मन में छुपी उस  नितांत निजी पहचान को खोलना जिसको हम खुद भी नहीं देखना चाहते …शायद इसी लिए रह जाता है बहुत कुछ अनकहा सा ..और इसी अनकहे  को शब्द देने की कोशिश की है कुसुम पालीवाल जी ने अपने कहानी संग्रह ” कुछ अनकहा सा ” में | जिसमें अनकहा केवल दर्द ही नहीं है प्रेम , समर्पण की वो भावनाएं भी हैं जिनको व्यक्त करने में शब्द बौने पड़ जाते हैं | इस संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ स्त्री पात्रों के इर्द -गिर्द घूमती हैं | यह संग्रह किसी स्त्री विमर्श के साहित्यिक ढांचे से प्रेरित नहीं है , लेकिन धीरे से स्त्री जीवन की समस्याओं की कई परते खोल देता है …जो ये सोचने पर विवश करती हैं कि इस दिशा में अभी बहुत काम किया जाना बाकी है |  कुसुम जी के कई काव्य संग्रह  पाठकों द्वारा पसंद किये जा चुके हैं ये उनका पहला कहानी संग्रह है | जाहिर है उनको इस पर भी पाठकों की प्रतिक्रियाएं व् स्नेह मिल रहा होगा | इस संग्रह को पढने के बाद मैंने भी इस अनकहे  पर कुछ कहने का मन बनाया है …. कुछ अनकहा सा -स्त्री जीवन के कुछ अव्यक्त दस्तावेज  “गूँज” इस संग्रह की पहली कहानी है | ये गरीब माता -पिता की उस बेटी की कहानी है  जिसकी पढाई बीच में रोक कर उसकी शादी कर दी जाती है | पिता शुरू में तो अपनी बेटी की शिक्षा में साथ देते हैं फिर उसी सामाजिक दवाब में आ जाते हैं जिसमें आकर ना जाने कितने पिता अपनी बेटियों की कच्ची उम्र  में शादी कर देते हैं कि पता नहीं कब अच्छा लड़का मिले | अपने ऋण से उऋण होने की जल्दी बेटी के सपनों पर कितनी भारी पड़ती है इसका उन्हें अंदाजा भी नहीं होता | यही हाल सरोज का भी है जो अपने सपनों को मन के बक्से में कैद करके कर्तव्यों की गठरी उठा कर ससुराल चली आती हैं | आम लड़कियों और सरोज में फर्क बस इतना है कि उसके पास माँ की शिक्षा की वो थाती है जो आम लड़कियों को नसीब नहीं होती | उसकी माँ ने विदा होते समय  चावल के दानों के साथ उसके आँचल के छोर में ये वाक्य भी बाँध दिए थे कि , ” बेटा अपना अपमान मत होने देना , मर्द जाति  का हाथ एक बार उठ जाता हैं तो बार -बार उठता हैं तो बार -बार उठता है और इस तरह औरत का समूचा अस्तित्व ही खतरे में आ जाता हैं |”  अपने आस -पास देखिये , कितनी माएं हैं जो ऐसी शिक्षा अपनी बेटी को देती हैं | ये सरोज की थाती है | शराबी पति , धीरे -धीरे बिकती जमीन , हाथ में कलम के स्थान पर गोबर कंडा पाथना और घर और बच्चों की परवरिश के लिए दूसरों के घर जाकर सफाई -बर्तन करना , सरोज हर जुल्म बर्दाश्त करती हैं | लेकिन जब एक दिन उसका पति उस पर हाथ उठाता  है, तो   ….अपने शराबी पति के लिए किये गए सारे त्याग समर्पण भूल कर एक झन्नाटेदार तमाचा उसे भी मारती है | ये गूँज उसी तमाचे की है …. जिसकी आवाज़ उसकी छोटी से झुग्गी के चारों ओर फ़ैल जाती है | ये कहानी घरेलु हिंसा के खिलाफ स्त्री के सशक्त हो कर खड़े होने की वकालत करती है | अमीर हो , गरीब हो , हमारा देश हो या अमेरिका हर जगह पुरुष द्वारा स्त्री के पिटने की काली दास्तानें हैं | कितनी सशक्त महिलाएं बरसों बाद जब अपने पति से अलग हुई तो उन्होंने भी इस राज का खुलासा किया कि वो अपने पति से रोज पिटती थीं | आखिर क्या है जो महिलाएं ऐसे रिश्ते में रहती हैं … पिटती हैं और आँसूं बहाती  हैं | हो सकता है हर स्त्री का पति सरोज के पति की तरह शराब से खोखले हुए शरीर वाला न हो और वो उस पर हाथ ना उठा सके पर पर अन्याय के खिलाफ पहले दिन से ही वो घर के बाहर आ कर खुल कर बोल सकती है | और शब्दों के इस थप्पड़ की गूँज भी कम नहीं होगी | “कुछ अनकहा सा”   कहानी एक रेप विक्टिम की कहानी है | कहानी लम्बी है और कई मोड़ों से गुज़रती है | कहीं -कहीं हल्का सा तारतम्य टूटता है जिसे कुसुम जी  फिर साध ले जाती हैं | कहानी एक अनाथ बच्ची नर्गिस की है , जिसे उसका शराबी चाचा फरजाना बी को घरेलु काम करवाने के लिए बेंच देता है | उस समय नर्गिस की उम्र मात्र नौ साल होती   है | फरजाना बी एक समाज -सेविका हैं उनके तीन बेटे हैं सलीम , कलीम और नदीम | जिन्हें नर्गिस भाईजान कहती और समझती है | अपने कार्यकौशल से सबका ल जीतते हुए नर्गिस उस घर में   है … और   साथ ही बड़ी होती है जाती है उसकी अप्रतिम सुंदरता जो तीनों बेटों के लिए आकर्षण का केंद्र हैं | एक  दिन बड़ा बेटा उसे अकेले में दबोच  लेता है | अपनी लुटी हुई इज्ज़त और टूटे मन  साथ जब वो फरजाना बी का सामना करती है तो वो उसे देख कर भी अनदेखा करती है | यहीं से दूसरे भाई को भी शह मिलती है और दोनों भाई जब -तब उसका उपभोग करने लगते हैं | रोज़ -रोज़ होते इन हमलों से खौफजदा बच्ची जो कभी कश्मीरी सेब सी थी  जाती है | ऐसे में तीसरा भाई नदीम मसीहा बन कर आता है और उससे निकाह का प्रस्ताव रख देता है | नदीम सिर्फ उसके शरीर … Read more