अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार -अनकहे रिश्तों के दर्द को उकेरती कहानियाँ

दैनिक जागरण बेस्ट सेलर की सूची में शामिल “अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ” के बारे में में जब मुझे पता चला तो मेरी पहली प्रतिक्रिया यही रही कि ये भी कोई नाम है रखने के लिए , ये तो प्रेम की शुचिता के खिलाफ है | फिर लगा शायद नाम कुछ अलग हट कर है , युवाओं को आकर्षित कर सकता है , आजकल ऐसे बड़े -बड़े नामों का चलन है , इसलिए रखा होगा | लेकिन जब मैं किताब पढना शुरू किया तो मुझे पता चला कि लेखिका विजयश्री तनवीर जी भी इस  कहानी संग्रह का नाम रखते समय ऐसी ही उलझन  से गुजरी थीं | वो लिखती हैं , “मैंने सोचा और खूब सोचा और पाया कि बार -बार हो जाना ही तो प्यार का दस्तूर है | यह चौथी , बारहवीं , बीसवीं और चालीसवीं बार भी हो सकता है …प्रेम की क्षुधा पेट की क्षुधा से किसी दर्जा कम नहीं है |” जैसे -जैसे संग्रह की कहानियाँ पढ़ते जाते हैं उनकी बात और स्पष्ट , और गहरी और प्रासंगिक लगने लगती है , और अन्तत:पाठक भी इस नाम पर सहमत हो ही जाता है | इस संग्रह में नौ कहानियाँ हैं | ज्यादातर कहानियाँ विवाहेतर रिश्तों पर हैं | जहाँ प्यार में पड़ने , टूटने बिखरने और दोबारा प्यार में पड़ जाने पर हैं | देखा जाए तो ये आज के युवाओं की कहानियाँ हैं , जो आज के जीवन का प्रतिनिधित्व करती हैं | अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार -अनकहे रिश्तों के दर्द को उकेरती कहानियाँ  “ अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार “ भी एक ऐसी ही कहानी है | अनुपमा गांगुली  अपने दुधमुहे बच्चे के साथ रोज  कोलकाता  लोकल का लंबा  सफ़र तय कर उस दुकान पर पहुँचती है जहाँ वो सेल्स गर्ल है | कोलकाता  की महंगाई से निपटने के लिए उसका पति एक वर्ष के लिए पैसे कमाने बाहर चला जाता है | अकेली अनुपमा इस बीच बच्चे को जन्म देती है , उसे पालती है और अपनी नौकरी भी संभालती है | इसी बीच उसके जीवन में एक ऐसे युवक का प्रवेश होता है जो कोलकाता    की लोकल की भरी भीड़ के बीच अपने बच्चे को संभालती उस हैरान -परेशां माँ की थोड़ी मदद कर देता है | अनुपमा उस मदद को प्रेम  या आकर्षण समझने लगती है | उसके जीवन में एक नयी उमंग आती है , काम पर जाने की बोरियत आकर्षण में बदलती है , कपड़े -लत्तों और श्रृंगार पर ध्यान जाने लगता है , उदास मन को एक मासूम  सा झुनझुना मिल जाता है , जिसके बजने से जिन्दगी की लोकल तमाम परेशानियों के बीच सरपट भागने लगती है | जैसा कि पाठकों को उम्मीद थी ( अनुपमा को नहीं ) उसका ये प्यार …यहाँ पर सुंदर सपना कहना ज्यादा मुफीद होगा टूट जाता है | ये अनुपमा का चौथा प्यार था और इसका हश्र भी वही हुआ जो उसके पति के मिलने से पहले हुए दो प्रेम प्रसंगों का हुआ था | जाहिर है अनुपमा खुद को संभाल लेगी और किसी पाँचवे प्यार् को ढूंढ ही लेगी ….कुछ दिनों तक के  लिए ही सही | वैसे जीवन में घटने छोटे -छोटे आकर्षणों को प्यार ना कह कर क्रश के तौर पर भी देखा जा सकता है , हालांकि क्रश में अगले के द्वारा पसंद किये जाने न किये जाने का ना तो कोई भ्रम होता है न इच्छा | इस हिसाब से ” अनुपमा गांगुली का चौथा प्यार ” नाम सही ही है | इस मासूम सी कहानी में मानव मन का एक गहरा मनोविज्ञान छिपा है | पहला तो ये कि व्यक्ति की नज़र में खुद की कीमत तब बढती है जब उसे लगता है कि वो किसी के लिए खास है | जब ये खास होने का अहसास वैवाहिक रिश्ते में नहीं मिलने लगता है तो मन का पंछी इसे किसी और डाल पर तलाशने लगता है | भले ही वो इस अहसास की परिणिति विवाह या किसी अन्य  रिश्ते में ना चाहता हो पर ये अहसास उसे खुद पर नाज़ करने की एक बड़ी वजह बनता है | कई बार तो ऐसे रिश्तों में ठीक से चेहरा भी नहीं देखा जाता है , बस कोई हमें खास समझता है का अहसास ही काफी होता है | ये एक झुनझुना है जो जीवन की तमाम परेशानियों से जूझते मन रूपी बच्चे के  थोड़ी देर मुस्कुराने का सबब बनता है | ऐसे रिश्तों की उम्र छोटी होती है और अंत दुखद फिर भी ये रिश्ते  मन के आकाश में बादलों की तरह बार -बार बनते बिगड़ते रहते हैं | आज की भागम भाग जिंदगी और सिकुड़ते रिश्तों के दरम्यान जीवन की परेशानियों से जूझती हजारों -लाखों अनुपमा गांगुली बार बार प्यार में पड़ेंगी … निकलेंगी और फिर पड़ेंगी | कहानी की सबसे खास बात है उसकी शैली …. अनुपमा गांगुली के साथ ही पाठक लोकल पकड़ने के लिए भागता है …पकड़ता , आसपास के लोगों से रूबरू होता है | एक तरह से ये कहानी एक ऐसी यात्रा है जिसमें पाठक  को भी वहीं आस -पास होने का अहसास होता है | “पहले प्रेम की दूसरी पारी “ संग्रह की पहली कहानी है | ये कहानी उन दो प्रेमियों के बारे में है जो एक दूसरे से बिछड़ने , विवाह व् बच्चों की जिम्मेदारियों को निभाते हुए कहीं ना कहीं एक दूसरे के प्रति प्रेम की उस लौ को जलाये हुए भी हैं और छिपाए हुए भी हैं | कहा भी जाता है कि पहला प्यार कोई नहीं भूलता | खैर आठ साल बाद दोनों एक दूसरे से मिलते हैं | दोनों ये दिखाना चाहते हैं कि वो अपनी आज की जिन्दगी में रम गए हैं खुश हैं , पर कहीं न कहीं उस सूत्र को ढूंढते  रहते हैं जिससे उनके दिल को तसल्ली हो जाए …कि वो अगले के दिल में कहीं न कहीं वो  अब भी मौजूद हैं … कतरा भर ही सही , साथ बिताये  गए कुछ घंटे जो अपने पहले प्यार के अहसास को फिर से एक बार जी लेना चाहते थे , दोतरफा अभिनय की भेंट चढ़ गए | सही भी तो है विवाह के बाद उस … Read more

सिनीवाली शर्मा रहौ कंत होशियार की समीक्षा

रहौ कंत होशियार

समकालीन कथाकाओं में सिनीवाली शर्मा किसी परिचय की मोहताज नहीं हैl  ये बात वो अपनी हर कहानी में सिद्ध करती चलती हैं | उनकी ज्यादातर कहानियाँ ग्रामीण जीवन के ऊपर हैं | गाँवों की समस्याएं, वहां की राजनीति और वहां के लोक जीवन की मिठास उनकी कहानियों में शब्दश: उतर आते हैं | पर उनकी कहानी “रहौं कंत होशियार”  पढ़ते हुए मुझे तुलसीदास जी की एक चौपाई याद आ रही है l  छिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित अति अधम सरीरा तुलसीदास जी की इस चौपाई में अधम शब्द मेरा ध्यान बार- बार खींच रहा है l हालंकी उनका अभिप्राय नाशवान शरीर से है पर मुझे अधमता इस बात में नजर आ रही है कि वो उन पाँच तत्वों को ही नष्ट और भृष्ट करने में लगा है जिससे उसका शरीर निर्मित हुआ है l आत्मा के पुनर्जन्म और मोक्ष की आध्यात्मिक बातें तो तब हों जब धरती पर जीवन बचा रहे l आश्चर्य ये है कि जिस डाल पर बैठे उसे को काटने वाले कालीदास को तो अतीत में मूर्ख कहा गया पर आज के मानव को विकासोन्मुख l आज विश्व की सबसे बडी समस्याओं में से एक है प्रदूषण की समस्या l विश्व युद्ध की कल्पना भी हमें डराती है लेकिन विकास के नाम पर हम खुद ही धरती को खत्म कर देने पर उतारू हैं l हम वो पाही पीढ़ी हैं जो ग्लोबल वार्मिंग के एफ़ेक्ट को देख रही है और हम ही वो आखिरी पीढ़ी हैं जो खौफ नाक दिशा में आगे बढ़ते इस क्रम को कुछ हद तक पीछे ले जा सकते हैं l  आगे की पीढ़ियों के हाथ में ये बही नहीं रहेगा l स्मॉग से साँस लेने में दिक्कत महसूस करते दिल्ली वासियों की खबरों से अखबार पटे रहे हैं l छोटे शहरों और और गाँव के लॉग  दिल्ली पर तरस खाते हुए ये नहीं देखते हैं कि वो भी उसी दिशा में आगे बढ़ चुके हैं l जबकि पहली आवाज वहीं से उठनी चाहिए ताकि इसए शुरू में ही रोका जा सके l एक ऐसी ही आवाज उठाई है सिनीवाली शर्मा की कहानी रहौं कंत होशियार के नायक तेजो ने l ये कहानी एक प्रदूषण की समस्या उठाती और समाधान प्रस्तुत करतीएक ऐसी कहानी है जिस की आवाज को जरूर सुना जाना चाहिए l  सिनीवाली शर्मा रहौ कंत होशियार की समीक्षा  आज हमारे शहरों की हवा तो इस कदर प्रदूषित हो चुकी है कि एक आम आदमी /औरत दिन भर में करीब दस सिगरेट के बराबर धुँआ पी लेता है , लेकिन गाँव अभी तक आम की बौर की खुशबु से महक रहे थे, लेकिन विकास के नाम पर स्वार्थ की लपलपाती जीभ तेजी से गाँवोंके इस प्राकृतिक संतुलन को बिगाड़ देने को तत्पर है | ऐसा ही एक गाँव है जहाँ की मिटटी उपजाऊ है | लोग आजीविका के लिए खेती करते हैं, अभी तक किसान धरती को अपनी माँ मानते रहे हैं, उसकी खूब सेवा करके बदले में जो मिल जाता है उससे संतुष्ट रहते हैं| उनके सपने छोटे हैं और आसमान बहुत पास | लेकिन शहरों की तरह वहां का समय भी करवट बदलता है | वो समय जब स्वार्थ प्रेम पर हावी होने लगता है |    विकास के ठेकेदार बन कर रघुबंशी बाबू वहां आते हैं और ईट का भट्टा लगाने की सोचते हैं | इसके लिए उन्हें १५ -१६ बीघा जमीन एक स्थान पर चाहिए | वो गाँव वालों को लालच देते हैं की जिसके पास जितनी जमीन हो वो उसके हिसाब से वो उन्हें हर साल रूपये देंगे | बस उन्हें कागज़ पर अंगूठा लगाना है | ये जानते हुए भी कि भट्ठा को गाँव यानि उपजाऊ मिटटी से कम से कम इतना दूर होना चाहिए , बीच गाँव में उनके भट्टा लगाने की मंशा पर सब अपनी आँखों पर पट्टी बाँध लेते हैं |  समीक्षा -अनुभूतियों के दंश (लघुकथा संग्रह ) कहानी की शुरुआत ही तेजो और रासो की जमीन गिरवी रखने की बात से होती है | तेजो इसका विरोध करता है | वो अपनी जमीन नहीं देता | वो बस इतना ही तो कर सकता है पर उसको दुःख है तो उपजाऊ मिटटी के लिए जो भट्टा लगाने से बंजर हो जायेगी | धरती के लिए उसका दर्द देखिये … ओसारे पर बैठे –बैठे सोचता रहा | धरती के तरह –तरह के सौदागर होते हैं | वो सबका पेट तो भरती है पर सुलगाती अपनी ही देह है | कहीं छाती फाड़कर जान क्या–क्या निकाला जाता है तो कहीं देह जलाकर ईंट बनाया जाता है | पर उसकी चिंता गाँव वालों की चिंता नहीं है | उनके सर पर तो पैसा सवार है | विकास के दूत रघुवंशी बाबू कहाँ से आये हैं इसकी भी कोई तहकीकात नहीं करता | बस एक उडी –उड़ी खबर है कि भागलपुर के पास उनकी ६ कट्टा जमीन है जिसका मूल्य करीब ४० -४५ लाख है | इतना बड़ा आदमी उनके गाँव में भट्ठा लगाये सब इस सोच में ही मगन हैं | तेजो भी सबके कहने पर जाता तो है पर ऐन अंगूठा लगाने के समय वो लौट आता है | इस बीच गाँव की राजनीति व् रघुवंशी बाबू को गाँव लाने का श्रेयलेने की होड़ बहुत खूबसूरती से दर्शाई गयी है | जिन्होंने ग्राम्य जीवन का अनुभव किया है वो इन वाक्यों से खुद को जुड़ा हुआ महसूस करेंगे …… “जिसको देना था, दे चुके ! वे रघुवंशी बाबू की चरण धूलि को चन्नन बना कर माथे पर लगा चुके हैं | अपने कपार पर तो हम अपने खेत की माटी ही लागयेंगे | एक और किसान दयाल भी तेजो के साथ आ मिलता है | केवल उन दोनों  के खेत छोड़ कर सबने अपनी जमीन पैसों के लालच में दे दी | इसमें से कई पढ़े लिखे थे | पर स्वार्थ धरती माँ के स्नेह पर हावी हो गया | इतना ही नहीं लोगों ने अपने पास रखा पैसा भी बेहतर ब्याज के लाच में रघुवंशी बाबू को दे दिया | मास्टर साहब ने रिटायरमेंट से मिलने वाले रुपये से आठ लाख लगाये , प्रोफ़ेसर साहब ने अपनी बचत से तीन लाख, किसी ने बेटे के दहेज़ का रुपया लगाया तो … Read more

भूख का पता –मंजुला बिष्ट

आदमी की भूख भी बड़ी अजीब होती है रोज जग जाती है, और कई बार तो मनपसंद चीज सामने हो तो बिना भूख के भी भूख जग जाती है | खाने -पीने के मामले में तो भूख नियम मानती ही नहीं ….लेकिन जब ये और क्षेत्रों में भी जागने लगती है तो स्थिति बड़ी गंभीर हो जाती है…प्रस्तुत है मंजुला बिष्ट की कहानी की समीक्षा   भूख का पता –मंजुला विष्ट हंस मार्च 2019 में प्रकाशित मंजुला विष्ट की कहानी भूख का पता जानवर की भूख और इंसान की भूख में तुलना करते हुए जानवर की भूख को इंसान की भूख से उचित ठहराती है …. क्योंकि उन्हें आज भी पता है कि उन्हें कब और कितना खाना है , उनकी भूख आज भी प्राकर्तिक और संतुलित ही है | जब इंसान की भूख उत्तेजक हिंसक मनोरंजन को जोड़ दिए जाने पर भूख के सही पते खोने लगी है | ये भूख कहीं स्वाद में ज्यादा खा लेने में है , कहीं बेवजह हिंसा में है , कहीं वहशीपन में है … ये भूख बिलकुल भी संतुलित नहीं है | मानवता के गिरने में इसी असंतुलित भूख का हाथ है | कहानी थोड़ा रहस्यमय शैली में लिखी गयी है , जिस कारण वो आगे क्या हो कि उत्सुकता जगाती है | मुख्य पात्र एक बच्ची आभा है जो अपने संयुक्त परिवार के साथ रह रही है | बारिश है … दादाजी सो रहे हैं | आभा चाहती है वो चैन से सोते रहे परन्तु खेतों में भरा पानी , बिजली का कड़्कना , पेड़ों का गिरना उनकी नींद तोड़ रहा है | वो दादाजी की नींद की चिंता करते हुए बीच -बीच में अपनी विचार श्रृंखला से उलझ रही है | आभा के मन में दस साल की बच्ची के बलात्कार की खबर का दंश है | कैसे वो एक चॉकलेट के लिए किसी विश्वासपात्र के साथ चल दी जिसने अपनी भूख मिटा कर न सिर्फ उसके विश्वास का कत्ल किया बल्कि उसे जिन्दगी भर का दर्द भी दे दिया | कैसे है यो भूख जो छल से किसी को मिटा के मिटती है ? आभा के मन में अपने भाई सलिल के प्रति हमदर्दी है , क्योंकि रिश्ते के जीजाजी के कहने पर उनके पालतू खरगोश के बच्चे को चाचाजी के लिए पका दिया गया है | चाचाजी व् जीजाजी को आज निकलना था पर बरसात होने के कारण बाजार से ताज़ा मांस नहीं लाया जा सका | सलिल इस भूख को बर्दाश्त नहीं पाया जो स्वाद के लिए किसी अपने की बलि चढ़ा दे … देर तक वो रोता रहा , मांस के शौक़ीन सलिल ने उस दिन शाकाहारी खाना ही खाया | घर के कुत्ते भाटी ने भी उस बोटी को नहीं खाया … शायद उसे भी परिचित गंध आ रही थी | जबकि घर के बाकी लोग उसे स्वाद ले –लेकर खाते रहे | जीजाजी ने तो पेट भर जाने के बाद भी इतना खाया कि देर तक उन्हें डकार आती रही | पढ़ें -देहरी के अक्षांश पर -गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें इन सब के बीच आभा को इंतज़ार है खरगोश के नए फाहों के जन्म का … जो शायद सलिल का दर्द कम कर सकें | खरगोश के पिंजड़े से आती आवाजें उसे आश्वस्त कर रहीं हैं कि आज सलिल का दर्द कम हो ही जाएगा … नए फाहों को देखकर वो पुराने बच्चे को भूल जाएगा | परन्तु जब आवाज़ बंद नहीं हुई तो सबका शक गया | पिंजड़ा खाली था , माँ अपने बच्चों के लिए तड़फ रही थी | उसकी चीखें सबको आहत कर रहीं थीं पर सवाल था आखिर बच्चे गए कहाँ ? सब का शक पालतू कुत्ते की तरफ चला गया | वो आज कब से बिस्तर पर ही बैठा था …शायद उसका पेट जरूरत से ज्यादा भर गया होगा |तभी आलस दिखा रहा है | अवश्य ही पिंजरे का दरवाजा ठीक से बंद ना होने के कारण पानी में गिरे बच्चे पालतू कुत्ते भाटी ने खा लिए होंगे | उसका आलस यही तो बता रहा है , फिर क्यों न खाता , आखिर उसकी जुबान पर अपनों के मांस का स्वाद जो लग गया था | जानवर जो ठहरा | परन्तु नहीं बेहद मार्मिक तरीके से कहानी बताती है कि भाटी ने उस बच्चों को खाया नहीं बल्कि पानी में डूब कर मर जाने से ना सिर्फ बचाया बल्कि सारी रात बिस्तर पर अपनी पूछ के नीचे छिपा कर उन्हें अपने बदन की गर्मी भी दी | जानवर होंने पर भी उसकी भूख गलत दिशा में नहीं बढ़ी | कहानी इसी नोट के साथ समाप्त होती है कि कुत्ता … एक ऐसा शब्द जो गाली के रूप में इस्तेमाल होता है वो इंसानों से कहीं बेहतर है …. उसकी भूख संतुलित है , वो अपनों का मांस नहीं चूसती , कब क्या खाना है कितना खाना है उसे पता है … स्वाद उसकी भूख को पथभ्रमित नहीं कर रहा , उसकी भूख हवस में नहीं बदल रही … कभी सुना है किसी जानवर ने किसी का बालात्कार किया हो ? इंसानी भूख ने अपना पता बदल लिया है वो जीभ लपलपाते हुए हर तरफ बढ़ रही है … बेरोकटोक , बेलगाम वंदना बाजपेयी फेसबुक पोस्ट से यह भी पढ़ें … अदृश्य हमसफ़र -अव्यक्त  प्रेम की कथा अँधेरे का मध्य बिंदु -लिव इन को आधार बना सच्चे संबंधों की पड़ताल करता उपन्यास देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें   अनुभूतियों के दंश -लघुकथा संग्रह आपको समीक्षात्मक  लेख “भूख का पता –मंजुला विष्ट“ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  filed under-  REVIEW, story review, published in Hans Magazine

प्रेम और इज्ज़त -आबरू पर कुर्बान हुई मुहब्बत की दस्ताने

मानव मन की सबसे कोमल भावनाओं में से एक है प्रेम | देवता दानव पशु पक्षी कौन है जिसने इसे महसूस ना किया हो | कहा तो ये भी जाता है कि मनुष्य में देवत्व के गुण भी प्रेम के कारण ही उत्पन्न होते हैं | परन्तु विडंबना  ये है कि जिस प्रेम की महिमा का बखान करते शास्त्र  थकते नहीं वही प्रेम स्त्री  के लिए  हमेशा वर्जित फल रहा है | उसे प्रेम करने की स्वतंत्रता नहीं है | मामला स्त्री शुचिता का है | तन ही नहीं मन भी उसके भावी पति की अघोषित सम्पत्ति है जिसे उसे कोरा ही रखना है |   बचपन से ही स्त्री को इस तरह से पाला जाता है कि वो प्रेम करने से डरती है | पर प्रेम किसी चोर की तरह ना जाने कब उसके मन में प्रवेश कर जाता है उसे पता ही नहीं चलता | प्रेम होते ही वो घर में प्रेम की अपराधिनी घोषित हो जाती है | कितने ही किस्से सुनते हैं इन प्रेम अपराधिनों के द्वारा आत्महत्या करने के , ऑनर किलिंग के नाम पर अपने ही परिवार के सदस्यों द्वारा मार दिए जाने के या फिर घर से भाग जाने के जिन्हें जिन्दगी भर अपने मूल परिवार से दोबारा मिलने का मौका ही नहीं मिलता | उनका एक हाथ हमेशा खाली ही रह जाता है | वो जीती तो हैं पर एक कसक के साथ | अब सवाल ये उठता है कि ये जितने किस्से हम सुनते हैं क्या उतनी ही लडकियाँ  प्रेम करती हैं ? उत्तर हम सब जानते हैं कि ऐसा नहीं है | तो बाकि लड़कियों के प्रेम का क्या होता है ? वो इज्ज़त के कुर्बान हो जाता है | इज्ज़त प्रेम से कहीं बड़ी है और लडकियां  प्रेम को कहीं गहरे दफ़न कर किसे दूसरे के नाम का सिंदूर आलता लगा कर पी के घर चली जाती हैं | वहाँ  असीम कर्तव्यों के बीच कभी बसंती बयार के साथ एक पीर उठती है दिल में जो शीघ्र ही मन की तहों में  दबा ली जाती है | परिवार की इज्ज़त पर अपने प्रेम को कुर्बान करने वाली ये आम महिलाए जो खुश दिखते हुए भी कहीं से टूटी और दरकी हुई हैं |  यही विषय है किरण सिंह जी के नए कहानी संग्रह “प्रेम और इज्ज़त “का | इससे पहले किरण जी की तीन किताबें आ चुकी हैं ये उनकी चौथी पुस्तक व् प्रथम कहानी संग्रह है | प्रेम और इज्ज़त -पुस्तक समीक्षा  सबसे पहले तो मैं स्पष्ट कर दूँ कि इस संग्रह की कहानियाँ  प्रेम पर जरूर हैं पर वो प्रेम कहानियाँ नहीं हैं | कहानियों को पढ़कर रोमांटिक अनुभूति नहीं होती वरन प्रश्न उठते हैं और पाठक अपने अन्दर गहरे उतर कर उनका उत्तर जानना चाहता है | कहानी संग्रह की ज्यादातर कहानियाँ अपने विषय के अनुरूप ही हैं | इसमें सबसे पहले मैं जिक्र करना चाहूँगी पहली कहानी का , जिसका नाम भी ‘प्रेम और इज्ज़त ‘ही है | यह कहानी एक माँ और बेटी की कहानी है जिसमें माँ परिवार की इज्ज़त के नाम पर अपने प्रेम को कुर्बान कर देती है | वर्षों बाद उसका अपना ही अतीत उसकी बेटी के रूप में सामने आ खड़ा होता है | माँ एक अंतर्द्वंद से गुज़रती है और अंतत: अपनी बेटी के प्रेम को इज्ज़त की बलि ना चढाने देने का फैसला करती है | ये कहानी एक सार्थक सन्देश ही नहीं देती बल्कि एक बिगुल बजा ती है नव परिवर्तन का जहाँ माँ खुद अपनी बेटे के प्रेम के समर्थन में आ खड़ी हुई है | ये परिवर्तन हम आज समाज में देख रहे हैं | आज प्रेम के प्रति सोच में थोड़ा  विस्तार हुआ है | पुरातनपंथ की दीवारें थोड़ी टूटी हैं | कम से कम शहरों में लव मेरेज को स्वीकार किया जाने लगा है | परन्तु एक हद तक … और वो हद है जाति  या धर्म | जिस दर्द को  एक अन्य कहानी इज्ज़त में शब्द दिए हैं  | ‘इज्ज़त’ एक ऐसी लड़की नीलम की कहानी है जो शिक्षित है , और अपने समकक्ष ही एक उच्च शिक्षित व्यक्ति से प्रेम करती है , जो उसी के ऑफिस में भी काम करता है | समस्या ये है कि वो व्यक्ति छोटी जाति  का है | ये बात उनके परिवार के लिए असहनीय या इज्ज़त के विरुद्ध है | दुखी नीलम का ये प्रश्न आहत करता है कि जिस तरह मन्त्रों से धर्म परिवर्तन होता है क्या कोई ऐसा मन्त्र नहीं है जिससे जाति परिवर्तन भी हो जाए | नीलम की  पीड़ा उसकी व्यथा से बेखबर परिवार वाले उसके प्रेम को  अंत तक स्वीकार नहीं करते हैं | ये हमारे समाज का एक बहुत बड़ा सच है कि धर्म और जाति की मजबूत दीवारें आज भी प्रेम की राह में सबसे बड़ा रोड़ा है | कहानी सवाल उठती है और जवाब हमें खुद ही तलाशने होंगे | कुछ अन्य  कहानियाँ है जहाँ प्रेम को स्वयं ही इज्ज़त के नाम पर कुर्बान कर दिया जाता है | जिसमें कल्पना के राजकुमार , बासी फूल ,तुम नहीं  समझोगी ,  गंतव्य , आई लव यू टू और भैरवी हैं | इन सभी कहानियों में खास बात ये है कि एक बार विवाह के बाद दुबारा अपने ही प्रेमी से मिलने पर जब प्रेम के फूल पुन : खिलने को तत्पर होते हैं तो विवाह की कसमें याद कर वो स्वयं ही अपने बहकते क़दमों को रोकते हैं | एक टीस के साथ फिर से जुदा हो जाते हैं | एक तरह से ये भारतीय नारी या भारतीय सांस्कृतिक मूल्यों की श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं | ये हमारे भारतीय समाज की एक बहुत बड़ी सच्चाई  है पर पूर्ण सत्य नहीं है क्योंकि अनैतिक संबंध भी हमारे समाज का हिस्सा रहे हैं भले ही वो सात पर्दों में दबे रहे हैं | हालांकि जैसा की संग्रह   के शीर्षक में वर्णित है  तो यहाँ लेखिका ने ऐसी ही कहानियों को शामिल किया है जो इज्ज़त को अधिक महत्व देती हैं | उस हिसाब से ये उपयुक्त है | इसके अतिरिक्त कुछ कहानियाँ हैं जो समाज की समस्याओं को प्रस्तुत करती हैं   कई में वो समाधान करती हैं और … Read more

crazy rich Asians -कुछ गहरी बातें कहती रोमांटिक कॉमेडी

crazy rich Asians  ये नाम है एक इंग्लिश बेस्ट सेलर नॉवेल का का जिसे केविन क्वान ने  २०१३ में लिखा था | नावेल बहुत लोकप्रिय हुआ और २०१८ में इस नॉवेळ पर हॉलीवुड फिल्म भी बनी है | फिल्म ऑस्कर के लिए भी नोमिनेट हुई है | केविन ही फिल्म के निर्माता भी हैं |  कहा  जा रहा है ये पहली हॉलीवुड फिल्म हैं जिसकी पूरी कास्ट एशियन है | केविन  के अनुसार जब भी अमीरों की बात होती है तो हम अमेरिका के बारे में सोचते हैं , परन्तु  ऐशिया और चाइना के लोग भी बहुत अमीर हैं | जिनका निवास ऐशिया में अमीरों के लिए प्रसिद्द शंघाई , टोकियो  या हांगकांग नहीं , सिंगापुर  है | जिसके बारे में ज्यादा बात नहीं होती | केविन खुद एक अमीर घराने से हैं और उपन्यास का अधिकतर हिस्सा  सत्य पर आधारित है | Crazy rich Asians -पुस्तक समीक्षा  यूँ तो उपन्यास  एक romcom यानी कि रोमांटिक कॉमेडी है | जिसमें रिचेल चू और निक यंग की प्रेम कहानी है | जहाँ निक सिंगापुर के बेहद अमीर घराने का एकलौता वारिस है जो फिलहाल अमेरिका में पढाता  है | वहीँ रिचेल अमेरिकी निवासी है  जो आज़ाद ख्याल ,   स्वतंत्र  और सामान्य घर की व्अर्थशास्त्र की प्रोफ़ेसर है | उसके घर में वो और उसकी माँ हैं | पिता की उसके जन्म लेने से पहले मृत्यु हो गयी थी | उसकी माँ ने उसकी परवरिश एक स्वतंत्र महिला के रूप में की है | निक व् रिचेल  की दोस्ती प्रेम में बदलती है | लेकिन अभी तक रिचेल को पता नहीं होता है कि निक इतना अमीर है | ये बात तब खुलती है जब निक उसे अपने एक रिश्तेदार की शादी में सिंगापुर ले जाता है | रिचेल का एक बिलकुल भिन्न दुनिया से सामना होता है | पैसे की दुनिया , मेटिरियलिस्टिक दुनिया | जहाँ पार्टी कल्चर है युवाओं में शराब , कोकेन , और अनैतिकता है , महिलाओं के लुक्स और शारीरिक बनावट से लेकर प्लास्टिक सर्जरी तक की सालाह देते लोग हैं | वहीँ दूसरी ओर घर में चायनीज माएं और बहनें है जो घर को बांधे रखने के लिए अपना जीवन लगा रहीं हैं |  अपने घर के बच्चों से बेखबर उन्हें अमेरिकी सभ्यता से डर है , क्योंकि वहाँ  की महिलाएं अपने कैरियर अपने वजूद को प्राथमिकता देती हैं | उनके अनुसार वो इन घरों में नहीं चल सकतीं | ऐसा ही भय निक की माँ को  रिचेल के लिए भी है | उन्हें लगता है ये लड़की इतना त्याग नहीं नहीं कर पाएगी | उसको पढ़ते हुए मुझे अपने देश  की माएं याद आ जाती हैं जो इस बात से आँखें मूदें रहती हैं कि एक अमेरिका उनकी नाक की नीचे उनके घर में  बस चुका है , वो बस विदेशी लोगों का भय अपने मन में पाले रहती हैं | क्योंकि ये एक कॉमेडी है इसलिए कोई गंभीर बात नहीं है जिस पर विशेष चर्चा हो  | पर कुछ बातें धीरे से सोचने  पर विवश कर देती हैं | जैसे की रिचेल जो उस घर में निक की माँ जैसी  ही बन कर सासू माँ द्वारा स्वीकारे जाने की कोशिश करती है पर सफल नहीं होती , तो उसकी सहेली कहती है , तुम उनकी तरह मत बनो तुम अपनी तरह बनो , तुम्हारी अपनी जो ख़ास बातें हैं उन पर फोकस करो | उनकी तरह बनने की कोशिश में तुम उस घर में आखिरी रहोगी पर अपनी तरह बन कर पहली | तुम्हारी स्वीकार्यता तुम्हारे अपने गुणों की वजह से होनी चाहिए न की ओढ़े हुए गुणों की वजह से | चेतन भगत ने भी एक बार कुछ -कुछ ऐसा ही कहा था , सास पसंद नहीं करती तो …. ये पोस्ट वायरल हुई थी | ये एक बहुत बड़ी सच्चाई है कि ससुराल द्वारा स्वीकृत होने के लिए लडकियाँ  अपनी बहुत सी कलाएं गुण छोड़ देती है | उन्हें कार्बन कॉपी बनना होता है | माँ भी यही शिक्षा देकर भेजती है , बिटिया लोनी मिटटी रहना | पर क्या एक लड़की वास्तव में लोनी मिटटी रह सकती है या वो एक आवरण ओढती है , उस आवरण के नीचे उसकी कई मूल इच्छाएं , सपने , और जिसे आजकल कहा जाता है … पैशन , दफ़न रहता है |  अभी कुछ दिन पहले की ही बात है एक महिला से बात हो रही थी , उसका कागज़ पर बनाया स्केच मुझे बहुत अच्छा लगा | तारीफ़ करते ही कहने लगी , मेरी पेंटिंग्स की सब सराहना करते थे , कुछ शादी के बाद बनायीं भी थीं पर ससुर जी को दीवाल में कील गाड़ना पसंद नहीं था , इसलिए दूसरों को दे दी |  मैं सोचती रही कि दीवाल पर तो कील नहीं गड़ी पर कितनी बड़ी कील उसके दिल में गड़ी है ये किसी को अंदाजा ही नहीं था | हालानी ये बात सिर्फ बहुओं के लिए ही नहीं है हम सब को अपने गुणों की कद्र करनी चाहिए | हम किसी भी महफ़िल का हिस्सा हों हमारी पहचान हंमारे अपने गुण होते हैं न कि ओढ़े हुए गुण | कौवा और मोर वाली कहानी तो आपको याद ही होगी | दूसरी बात जिसने प्रभावित किया वो है  निक की  चचेरी  बहन एसट्रिड  |अरब ख़रब पति एसट्रिड  एक सामान्य आर्मी ऑफिसर से प्रेमविवाह करती है | वो चाहती है कि उसके पति को इस बात का अहसास भी ना हो की वो उससे कमतर है | इसलिए ना जाने कितनी कंपनियों के सी ई ओ के पद ठुकरा देती है | अपना सारा समय चैरिटी में ही बिताती है |  कभी महँगी चीजों की खरीदारी भी करती है तो भी उन्हें छुपा देती है कि उसका पति उन्हें देख कर आहत ना हो | उसका प्रयास यही रहता है कि उसका पति  उससे ऊपर ही रहे | हमारे देश में भी तो पत्नियां अपने पति का ईगो बचाए रखने के लिए कितना कुछ कुर्बान कर देती हैं | परन्तु जब ऐस्ट्रिड अपने पति के अनैतिक रिश्तों की खबर लगती है तो वो टूट जाती है |  यहाँ एशियन  पुरुषों  की मानसिकता दिखाई गयी है , वो इसका दोष भी … Read more

अदृश्य हमसफ़र -अव्यक्त प्रेम की प्रभावशाली कथा

        “अदृश्य हमसफ़र ” जैसा की नाम से ही प्रतीत होरहा है किये एक ऐसी प्रेम कहानी है जिसमें प्रेम अपने मौन रूप में है | जो हमसफ़र बन के साथ तो चलता है पर दिखाई नहीं देता | ये अव्यक्त प्रेम की एक ऐसी गाथा है जहाँ प्रेम में पूर्ण समर्पण के बाद भी पीड़ा ही पीड़ा है पर अगर ये पीड़ा ही किसी प्रेमी का अभीष्ट हो उसे इस पीड़ा में भी आनंद आता हो … अदृश्य हमसफ़र   यूँ तो प्रेम दुनिया का सबसे  खूबसूरत अहसास है , पर जब यह मौन रूप में होता है तो पीड़ा दायक भी होता है,  खासतौर से तब जब प्रेमी अपने प्रेम का इज़हार तब करें जब उसकी प्रेमिका 54 वर्ष की हो चुकी हो और वो खुद कैंसर से अपने जीवन की आखिरी जंग लड़ रहा हो | वैसे ये कहानी एक प्रेम त्रिकोण है पर इसका मिजाज कुछ अलग हट के है | प्रेम की दुनिया ही अलग होती | प्रेम  में कल्पनाशीलता होती है और इस उपन्यास में भी उसी का सहारा लिया गया है |  कहानी  मुख्य रूप से तीन पात्रों के इर्द -गिर्द घूमती है … अनुराग , ममता और देविका | अनुराग -चाँद को क्या मालूम चाहता है उसे कोई चकोर   जहाँ अनुराग  एक प्रतिभाशाली ब्राह्मण बच्चा है जिसे छुटपन में ही ममता के पिता गाँव से अपने घर ले आते हैं ताकि उसकी पढ़ाई में बाधा न आये | अनुराग स्वाभिमानी है वह इसके बदले में घर के बच्चों को पढ़ा देता है व् घर के काम दौड़ -दौड़ कर कर देता है | धीरे -धीरे अनुराग सबका लाडला हो जाता है | घर की लाडली बिटिया ममता को यूँ अपना सिंघासन डोलता अच्छा नहीं लगता औ वह तरह -तरह की शरारतें कर के अनुराग का नाम लगा देती है ताकि बाबा उसे खुद ही वापस गाँव भेज दें | ये पढ़ते हुए मुझे ” गीत गाता चल “फिल्म के लड़ते -झगड़ते सचिन सारिका याद आ रहे थे , पर उनकी तरह दोनों आपस में प्यार नहीं कर बैठते | यहाँ केवल एकतरफा प्यार है -अनुराग का ममता के प्रति |अनुराग ममता के प्रति पूर्णतया समर्पित है | ये उसके प्रेम की ही पराकाष्ठा  है कि ममता के प्रति इतना प्रेम होते हुए भी वो बाबा से ममता का हाथ नहीं माँगता ताकि ममता के नाम पर कोई कीचड़ न उछाले | ममता के मनोहर जी से विवाह के बाद वो उससे कभी का फैसला करता है , फिर भी  वो अदृश्य हमसफ़र की तरह हर पल ममता के साथ है उसके हर सुख में , हर दुःख में | ममता -दिल -विल प्यार -व्यार मैं क्या जानू रे  ममता अनुराग के प्रेम को समझ ही नहीं पाती वो बस इतना जानती है कि अनुराग उसके पलक झपकाने से पहले ही उसके हर काम को कर देता  है | ममता अनुराग को अनुराग दा कह कर संबोधित करती है , पर रिश्ते की उलझन को वो समझ नहीं पाती कि क्यों उसे हर पल अनुराग का इंतज़ार रहता है , क्यों उसकी आँखें हमेशा अनुराग दा को खोजती है , क्यों उसके बार -बार झगड़ने में भी एक अपनापन है | वो मनोहर जी की समर्पित पत्नी है , दो बच्चों की माँ है , दादी है , अपना व्यवसाय चलाती है पर अनुराग के प्रति  अपने प्रेम को समझ नहीं पाती है | शायद वो कभी भी ना समझ पाती अगर 54 साल की उम्र में देविका उसे ना  बताती | तब अचानक से वो एक चंचल अल्हड किशोरी से गंभीर प्रौढ़ा बन जाती है जो स्थितियों को संभालती है | देविका -तुम्ही मेरे मंदिर …..तुम्ही देवता हो            अनुराग की पत्नी देविका एक ऐसी  पत्नी है जिसको समझना आसान नहीं है | ये जानते हुए भी कि अनुराग ममता के प्रति पूर्णतया समर्पित है उसके मन में जो भी प्रेम है वो सिर्फ और सिर्फ ममता के लिए है देविका उसकी पूजा करती है उसे हर हाल में अपने पति का साथ ही देना है | वो ना तो इस बात के लिए अपने पति से कभी झगडती है कि जब ममता ही आपके मन में थी तो आपने मुझसे विवाह क्यों किया ? या पत्नी को सिर्फ पति का साथ रहना ही नहीं उसका मन भी चाहिए होता है | उसे तो ममता से भी कोई जलन नहीं | शिकायत नहीं है ये तो समझ आता है पर जलन नहीं है ये समझना मुश्किल है | देविका वस्तुत : एक लार्जर दे न  लाइफ ” करेक्टर है , जैसा सच में मिलना मुश्किल है | अदृश्य हमसफ़र की खासियत                        ये अलग हट के प्रेम त्रिकोण इसलिए है , क्योंकि इसमें ममता प्रेम और उसके दर्द से बिल्कुल् भी  प्रभावित नहीं है | हाँ अनुराग दा के लिए उसके पास प्रश्न हैं जो उसके मन में गहरा घाव करे हुए हैं , उसे इंतज़ार है उस समय का जब अनुराग दा उसके प्रश्नों का उत्तर दें | परन्तु प्रेम की आंच में अनुराग और देविका जल रहे हैं | ममता के प्रयासों से अन्तत : ये जलन कुछ कम होती है पर अब अनुराग के पास ज्यादा उम्र नहीं है , इसलिए कहानी सुखांत होते हुए भी मन पर दर्द की एक लकीर खींच जाती है और मन पात्रों में उलझता है कि ‘काश ये उलझन पहले ही सुलझ जाती | ‘ कहानी में जिस तरह से पात्रों को उठाया है वो बहुत  प्रभावशाली है | किसी भी नए लेखक के लिए किसी भी पात्र को भले ही वो काल्पनिक क्यों न हो विकसित करना कि उसका पूरा अक्स पाठक के सामने प्रस्तुत हो आसान नहीं है , विनय जी ने इसमें कोई चूक नहीं की है | कहानी  में जहाँ -जहाँ दृश्यों को जोड़ा गया है वहाँ इतनी तरलता है कि पाठक को वो दृश्य जुड़े हुए नहीं लगते और वो आसानी से तादाम्य बना लेता है | जैसी कि साहित्य का उद्देश्य होता है कि उसके माध्यम से कोई सार्थक सन्देश मिले | इस कहानी में भी कई कुरितियों  पर प्रहार … Read more

अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक )

लघुकथा वो विधा है जिसमें थोड़े शब्दों में पूरी कथा कहनी होती है | आज के समय में जब समयाभाव के कारण लम्बी कहानी पढने से आम  पाठक कतराता है वहीँ लघुकथा अपने लघुआकार के कारण आम व् खास सभी पाठकों के बीच लोकप्रिय है | उम्मीद है आने वाले समय में ये और लोकप्रिय होगी | लोगों को लगता है कि लघुकथा लिखना आसान है पर एक अच्छी लघुकथा लिखना इतना आसान भी नहीं है | यहाँ लेखक को बहुत सूक्ष्म  दृष्टि की आवश्यकता होती है | उसमें उसे किसी छोटी सी घटना के अंदर छिपी बात समझना या उसकी सूक्ष्मतम विवेचना करनी होती है | और अपने कथ्य में उसे इस तरह से उभारना होता है कि एक छोटी सी बात जिसे हम आम तौर पर नज़रअंदाज कर देते हैं , कई गुना बड़ी लगने लगे | जिस तरह से नोट्स में हम हाईलाइटर का इस्तेमाल करते हैं ताकि छोटी सी बात को पकड़ सकें वहीँ काम साहित्य में लघुकथा करती है | विसंगतियां इसके मूल में होती हैं | लघुकथा में शब्दों का चयन बहुत जरूरी है | जहाँ कुछ शब्दों की कमी अर्थ स्पष्ट होने में बाधा उत्पन्न करती है वहीँ अधिकता सारे रोमच को खत्म कर देती है | यहाँ जरूरी  है कि लघुकथा का अंत पाठक को चौकाने वाला हो |  अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक ) आज में ऐसे ही लघुकथा संग्रह “अनुभूतियों के दंश “ की बात कर रही हूँ | डॉ . भारती वर्मा ‘बौड़ाई ‘ का यह संग्रह ई –बुक के रूप में है | कहने की जरूरत नहीं कि आने वाला जमाना ई बुक का होगा | इस दिशा में भारती जी का ये अच्छा कदम है , क्योंकि छोटे होते घरों , पर्यावरण के खतरे , बढ़ते कागज़ के मूल्य व् हर समय उपलब्द्धता के चलते एक बड़ा पाठक वर्ग ऑन लाइन पढने में ज्यादा रूचि ले रहा है | अंतरा शब्द शक्ति .कॉम  पर प्रकाशित इस संग्रह में १८ पृष्ठ हैं व् १२ लघुकथाएं हैं | सभी लघुकथाएं प्रभावशाली हैं | कहीं वो समाज की किसी विसंगति पर कटाक्ष करती हैं ….संतुष्टि , समझ , समाधान , मुखौटा आदि तो कहीं वो संस्कारों की जड़ों से गहरे जुड़े रहने की हिमायत करती हैं …टूटता मौन ,संस्कार , कहीं वो समस्या का समाधान करती हैं ….विजय और जूनून ,पहचान ,वहीँ कुछ भावुक सी कर देने वाली लघुकथाएं भी हैं जैसे … मायका प्रेरणा और पीली पीली फ्रॉक | पीली फ्रॉक को आप अटूट बंधन.कॉम में पढ़ चुके हैं | यूँ  तो सभी लघुकथाएं बहुत अच्छी हैं पर एक महिला होने के नाते लघु कथा  मायका और जूनून ने मेरा विशेष रूप से ध्यान खींचा |जहाँ मायका बहुत ही भावनात्मक तरीके से  बताती है कि जिस प्रकार एक लड़की का मायका उसके माता –पिता का घर होता है उसी प्रकार लड़की के वृद्ध माता –पिता का मायका लड़की का घर हो सकता है | एक समय था जब लड़की के माता –पिता अपनी बेटी से कुछ लेना तो दूर उसके घर का पानी पीना भी नहीं  पीते थे | अपनी ही बेटी को दान में दी गयी वस्तु समझने का ये समाज का कितना कठोर नियम था | ये छोटी सी कहानी उस रूढी पर भी प्रहार करती है जो विवाह होते ही लड़की को पराया घोषित कर देती है | वहीँ ‘विजय’ कहानी एक महिला के अपने भय पर विजय है | एक ओर जहाँ हम लड़कियों को बेह तर शिक्षा दे कर आत्मनिर्भर बनाने पर जोर दे रहे हैं वहीँ हम बहुओं को अभी भी घरों में कैद कर केवल परिवार तक सीमित रखना चाहते हैं | उसे कहीं भी अकेले जाने की इजाज़त नहीं होती | हर जगह पति व् बच्चे उसके संरक्षक के तौर पर जाते हैं | इससे एक तरफ जहाँ स्त्री घुटन की शिकार होती है वहीँ दूसरी तरफ एक लम्बे समय तक घर तक सीमित रहने के कारण वो भय की शिकार हो जाती है उसे नहीं लगता कि वो अकेले जा कर कुछ काम भी कर सकती है | ज्यादातर महिलाओं ने कभी न कभी ऐसे भय को झेला है| ये कहानी उस भय पर विजय की कहानी है |एक स्त्री को अपने अस्तित्व को बचाए रखने के लिए इस भय पर विजय पानी ही होगी |   भारती जी एक समर्थ लेखिका हैं | आप सभी ने atootbandhann.com पर उनकी कई रचनाएँ पढ़ी हैं | उनकी अनेकों रचनाओं को पाठकों ने बहुत सराहा है | उनके लेख त्योहारों का बदलता स्वरुप को अब तक 4408 पाठक पढ़ चुके हैं, और ये संख्या निरंतर बढ़ रही है | आज साहित्य जगत में भारती जी अपनी एक पहचान बना चुकी हैं व् कई पुरुस्कारों से नवाजी जा चुकी हैं  | निश्चित रूप से आप को उनका ये लघुकथा संग्रह पसंद आएगा | लिंक दे रही हूँ , जहाँ पर आप इसे पढ़ सकते हैं | अनुभूतियों के दंश अपने लघुकथा संग्रह व् लेखकीय भविष्य के लिए भारती जी को हार्दिक शुभकामनाएं |   वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें … हसीनाबाद -कथा गोलमी की , जो सपने देखती नहीं बुनती है  कटघरे : हम सब हैं अपने कटघरों में कैद अंतर -अभिव्यक्ति का या भावनाओं का मुखरित संवेदनाएं -संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती एक स्त्री के स्वर आपको  समीक्षा   “अनुभूतियों के दंश- लघुकथा संग्रह (इ बुक )”कैसी लगी ? अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |                   filed under- E-Book, book review, sameeksha, literature

देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें

कविता लिखी नहीं जाती है , वो लिख जाती है , पहले मन पर फिर पन्नों पर ….एक श्रेष्ठ कविता वही है जहाँ हमारी चेतना सामूहिक चेतना को व्यक्त करती है | व्यक्ति अपने दिल की बात लिखता है और समष्टि की बात उभर कर आती है | वैसे भी देहरी के अन्दर हम स्त्रियों की पीड़ा एक दूसरे से अलग कहाँ है ? देहरी के अक्षांश पर – गृहणी के मनोविज्ञान की परतें खोलती कवितायें  घर परिवार की धुरी वह फिर भी अधूरी वह मोनिका शर्मा जी के काव्य संग्रह ” देहरी के अक्षांश पर पढ़ते  हुए न जाने कितने दर्द उभर आये , न जाने कितनी स्मृतियाँ ताज़ा हो गयीं और न जाने कितने सपने जिन्हें कब का दफ़न कर चुकी थी आँखों के आगे तैरने लगे | जब किसी लड़की का विवाह होता है तो अक्सर कहा जाता है ,”एक संस्कारी  लड़की की ससुराल में डोली जाती और अर्थी निकलती है “| डोली के प्रवेश द्वार और अर्थी के निकास द्वार के बीच देहरी उसकी लक्ष्मण रेखा है | जिसके अंदर  दहेज़ के ताने हैं , तरह -तरह की उपमाएं हैं , सपनों को मारे जाने की घुटन है साथ ही एक जिम्मेदारी का अहसास है कि इस देहरी के अन्दर स्वयं के अस्तित्व को नष्ट करके भी उसे सबको उनका आसमान छूने में सहायता करनी है | इस अंतर्द्वंद से हर स्त्री गुज़रती है | कभी वो कभी वो अपने स्वाभिमान और सपनों के लिए संघर्ष करती है तो कभी अपनों के लिए उन्हें स्वयं ही कुचल  देती है | मुट्ठी भर सपनों और अपरिचित अपनों के बीच देहरी के पहले पायदान से आरभ होती है गृहणी के जीवन की अनवरत यात्रा                   अक्सर लोग महिलाओं को कामकाजी औरतें और  घरेलु औरतों में बाँटते है परन्तु मोनिका शर्मा जी जब बात  का खंडन करती हैं तो मैं उनसे सहमत होती हूँ  …. स्त्री घर के बाहर काम करे या न करें गृहणी तो है ही | हमारे समाज में घर के बाहर काम करने वाली स्त्रियों को घरेलु जिम्मेदारियों से छूट नहीं है | स्त्री घर के बाहर कहीं भी जाए घर और उसकी जिम्मेदारियां उसके साथ होती हैं | हर मोर्चे पर जूझ रही स्त्री कितने अपराध बोध की शिकार होती है इसे देखने , समझने की फुर्सत समाज के पास कहाँ है |                            विडम्बना ये है कि एक तरफ हम लड़कियों को शिक्षा दे कर उन्हें आत्मनिर्भर बनने के सपने दिखा रहे हैं वहीँ दूसरी और शादी के बाद उनसे अपेक्षा की जाती है कि वो अपने सपनों को  मन के किसी तहखाने में कैद कर दें | एक चौथाई जिन्दगी जी लेने के बाद अचानक से आई ये बंदिशें उसके जीवन में कितनी उथल -पुथल लाती हैं उसकी परवाह उसे अपने सांचे में ढाल लेने की जुगत में लगा परिवार कहाँ करता है … गृहणी का संबोधन पाते ही मैंने किसी गोपनीय दस्तावेज की तरह संदूक के तले में छुपा दी अपनी डिग्रियां जिन्हें देखकर कभी गर्वित हुआ करते थे स्वयं मैं और मेरे अपने                             फिर भी उस पीड़ा को वो हर पल झेलती है … स्त्री के लिए अधूरे स्वप्नों को हर दिन जीने की मर्मान्तक पीड़ा गर्भपात की यंत्रणा सी है                                         एक सवाल ये भी उठता है कि माता -पिता कन्यादान करके अपनी जिम्मेदारियों से उऋण कैसे हो सकते हैं | अपने घर के पौधे को पराये घर में स्वयं ही स्थापित कर वह उसे भी पराया मान लेते हैं | अब वो अपने कष्ट अपनी तकलीफ किसे बताये , किससे साझा  करे मन की गुत्थियाँ | एक तरह परायी हो अब और दूसरी तरफ पराये घर से आई हो , ये पराया शब्द उसका पीछा ही नहीं छोड़ता | जिस कारण कितनी बाते उसके मन के देहरी को लांघ कर शब्दों का रूप लेने किहिम्मत ही नहीं कर पातीं | मोनिका शर्मा जी की कविता “देह के घाव ” पढ़ते हुए सुधा अरोड़ा जी की कविता ” कम से कम एक दरवाजा तो खुला रहना चाहिए ” याद आ गयी | भरत के पक्ष में खड़े मैथिलीशरण गुप्त जब ” उसके आशय की थाह मिलेगी की किसको , जनकर जननी ही जान न पायी जिसको ” कहकर भारत के प्रति संवेदना जताते हैं | वही संवेदना युगों -युगों से स्त्री के हिस्से में नहीं आती | जैसा भी ससुराल है , अब वही तुम्हारा घर है कह कर बार -बार अपनों द्वारा ही पराई घोषित की गयी स्त्री देहरी के अंदर सब कुछ सहने को विवश हो जाती है | अपनों के बीच अपनी उपस्थिति ने उसे पराये होने के अर्थ समझाए तभी तो देख , सुन ये सारा बवाल उसके क्षुब्ध मन में उठा एक ही सवाल देह के घाव नहीं दिखते जिन अपनों को वो ह्रदय के जख्म कहाँ देख पायेंगे ?                    संग्रह में आगे बढ़ते हुए पन्ने दर पन्ने हर स्त्री अपने ही प्रतिबिम्ब को देखती है | बार -बार वो चौंकती है अरे ये तो मैं हूँ | ये तो मेरे ही मन की बात कही है | माँ पर लिखी हुई कवितायें बहद ह्रदयस्पर्शी है | माँ की स्नेह छाया के नीचे अंकुरित हुई , युवा हुई लड़की माँ बनने के बाद ही माँ को जान पाती है | कितना भी त्याग हो , कितनी भी वेदना हो पर वो माँ  हो जाना चाहती है | तपती दुपहरी , दहलीज पर खड़ी इंतज़ार करती , चिंता में पड़ी झट से बस्ता हाथ में लेकर उसके माथे का पसीना पोछती हूँ अब मैं माँ को समझती हूँ                           देहरी स्त्री की लक्ष्मण रेखा अवश्य है पर उसके अंदर सांस लेती स्त्री पूरे समाज के प्रति सजग है | वो भ्रूण हत्या के प्रतिसंवेदंशील है , स्त्री अस्मिता की रक्षा … Read more

हसीनाबाद -कथा गोलमी की , जो सपने देखती नहीं बुनती है

अभी कुछ दिन पहले  गीताश्री जी का उपन्यास ” हसीनाबाद”  पढ़ा है  | पुस्तक भले ही हाथ में नहीं है पर गोलमी मेरे मन -मष्तिष्क  में नृत्य कर  रही है | सावन की फुहार में भीगते हुए गोलमी  नृत्य कर  रही है | महिलाओं के स्वाभिमान की अलख जगाती गोलमी नृत्य कर रही है , लोकगीतों को फिर से स्थापित करती गोलमी नृत्य कर  रही है | आखिर कुछ तो ख़ास है इस गोलमी में जो एक अनजान बस्ती में जन्म लेने के बाद भी हर पाठक के दिल में नृत्य कर  रही है | ख़ास बात ये  है कि गोलमी ” सपने देखती नहीं बुनती है”| गोलमी की इसी खासियत के कारण गीता श्री जी का ” हसीनाबाद”  खास हो जाता है | हसीनाबाद -कथा गोलमी  की जो सपने देखती नहीं बुनती है  लेखक  के दिल में कौन सी पीर उठती है कि वो चरित्रों का गठन करता है , ये तो लेखक ही जाने पर जब पाठक रचना में डूबता है तो लेखक के मन की कई परते भी खुलती हैं | जैसा की गीताश्री जी इस उपन्यास को राजनैतिक उपन्यास कहतीं है परन्तु एक पाठक के तौर पर मैं उनकी इस बात से सहमत नहीं हो पाती | ये सही है कि उपन्यास की पृष्ठभूमी राजनैतिक है परन्तु  गोलमी के माध्यम से उन्होंने एक ऐसा चरित्र रचा है जिसके रग -रग में कला बसी है | उसका नृत्य केवल नृत्य नहीं है उसकी साँसे हैं , उसका जीवन है …. जिसके आगे कुछ नहीं है , कुछ भी नहीं | हम सबने बचपन में एक कहानी जरूर पढ़ी होगी ,” एक राजकुमारी जिसकी जान तोते में रहती है ” | भले ही वो कहानी तिलिस्म और फंतासी की दुनिया की हो ,पर  कला भी तो एक तिलस्म ही है , जिसमें मूर्त से अमूर्त खजाने का सफ़र है | एक सच्चे कलाकार की जान उसकी कला में ही बसती है | उपन्यास के साथ आगे बढ़ते हुए मैं गोलमी  में हर उस कलाकार को देखने लगती हूँ जो कला के प्रति समर्पित है … हर कला और कलाकार के अपने सुर , लय , ताल पर नृत्य करते हुए भी एक एकात्म स्थापित हो जाता है | एक नृत्य शुरू हो जाता है , जहाँ सब कुछ गौढ़ है बस कुछ है तो साँस लेती हुई कला | “हसीनाबाद “एक ऐसे बस्ती है जो गुमनाम है | यहाँ ठाकुर लोग अपनी रक्षिताओं को लाकर बसाते है ….ये पत्नियाँ नहीं  हैं,न ही वेश्याएं हैं | धीरे-धीरे  एक बस्ती  बस जाती है दुनिया के नक़्शे में गायब ,छुपी जिन्दा बस्ती , जहाँ रक्स की महफिलें सजती है | दिन में उदास वीरान रहने वाली बस्ती रात के अँधेरे में जगमगा उठती है और जगमगा उठती है इन औरतों की किस्मत | इस बस्ती के माध्यम से गीता जी देह व्यापार में  जबरन फंसाई गयी औरतों की घुटन ,  दर्द तकलीफ को उजागर करतीं   हैं | अपने -अपने ठाकुरों की हैसियत के अनुसार ही इन औरतों की हैसियत है परन्तु बच्चों के लिए शिक्षा की कोई व्यवस्था नहीं है ये भले ही अपने ठाकुरों के प्रति एकनिष्ठ हो पर इनकी संतानें इसी बस्ती की धुंध में खो जाने को विवश हैं | उनका भविष्य  तय है …लड़कियों को इसी व्यापर में उतरना है और लड़कों को ठाकुरों का लठैत  बनना है | यूँ तो हसीनाबाद साँसे ले रहा है पर उसमें खलबली तब मचती है जब इस बस्ती पर दुनिया  की निगाह पड़ जाती है नेताओं की दिलचस्पी इसमें जगती है क्योंकि ये एक वोट बैंक है |  ठाकुरों की कारिस्तानी को छुपाने के लिए ठाकुरों के बच्चों के बाप के नाम के स्थान पर ठाकुरों के नौकरों का नाम लिखवाया जाने लगता है | नायिका गोलमी की माँ सुंदरी जो कि ठाकुर सजावल सिंह  की रक्षिता है | ठाकुर से ही उसके दो बच्चे हैं एक बेटी गोलमी और बेटा रमेश | यूँ तो सुन्दरी को ऐश आराम के सारे साधन प्राप्त हैं पर उसके अंदर एक घुटन है …. एक स्त्री जो अपने पति के नाम के लिए तरसती है , एक माँ जो अपनी बेटी के इस देह व्यापार की दुनिया में  जिन्दा दफ़न हो जाने के आगत भविष्य से भयभीत है दोनों का बहुत अच्छा चित्रण गीता श्री जी ने किया है | इसी बीच जब नन्हीं गोलमी  मन में नृत्य का शौक जागता है तो वो सुंदरी के मनोवैज्ञानिक स्तर पर गयीं हैं और उन्होंने यहाँ शब्दों के माध्यम से  एक माँ का मनोविज्ञान को जिया है जो अपनी बेटी को किसी भी हालत में एक रक्षिता नहीं बनाना चाहती है | इसके लिए वो हर ऐश आराम की कुर्बानी देने को तैयार है | यहाँ तक की अपने कलेजे के टुकड़े अपने बेटे को भी छोड़ने को तैयार है | वो मन कड़ा कर लेती है कि उसका बेटा कम से कम लठैत  बन जाएगा | उसकी गोलमी जैसी  दुर्दशा नहीं होगी | मौके की तलाश करती सुंदरी को भजन मंडली के साथ आये सगुन महतो में अपनी मुक्ति का द्वार दिखता है | वो गोलमी को ले कर सगुन महतो के साथ हसीना बाद  छोड़ कर भाग जाती है | सगुन महतो की पहले से ही शादी हो चुकी है उसके बच्चे भी हैं | थोड़े विरोध के बाद मामला सुलझ जाता है | सगुन महतो सुंदरी के साथ अपना घर बसाता है | यहीं अपने दोस्तों रज्जो , खेचरु और अढाई सौ  के साथ गोलमी  बड़ी होती है | बढ़ते कद के साथ बढ़ता है गोलमी  का नृत्य के प्रति दीवानापन | सुन्दरी की लाख कोशिशों के बावजूद गोलमी छुप-छुप  कर नृत्य करती है | जिसमें उसका साथ देती है उसकी बचपन की सखी रज्जो , उसका निश्छल मौन प्रेमी अढाई  सौ और आशिक मिजाज खेचरू | इन सब के साथ गाँव की पृष्ठ भूमि , आपसी प्रेम , संग -साथ के त्यौहार ,छोटी -छोटी कुटिलताओं को गीता श्री जी ने बखूबी प्रस्तुत किया है |क्योंकि गोलमी यहीं बड़ी होती है , इसलिए उसके व् उसके दोस्तों के मनोवैज्ञानिक स्तर पर क्या -क्या परिवर्तन होते हैं इसे भावनाओं के विस्तृत कैनवास पर बहुत खूबसूरती से उकेरा गया है |लोक जीवन की … Read more

कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म

                                              जिन्दगी एक सफ़र ही तो है | लोग जुड़ते जाते हैं और कारवाँ बनता जाता है | नये कारवाँ होता है उन लोगों का जो हमें सफ़र में मिलते हैं , हमारी जिन्दगी का जरूरी हिस्सा न होते हुए भी  हमारे शुभचिंतक होते हैं | हमारी ख़ुशी और हमारे गम में साथ देने वाले होते हैं | ये थीम है फिल्म कारवाँ की जिसमें एक सफ़र में जुड़े हुए कारवाँ के साथ जीवन के कई सार्थक सन्देश छुपे हैं | जो बेहतरीन अदाकारी के साथ हँसते मुस्कुराते हुए आपके दिल में गहरे उतर जाते हैं | कारवाँ -हँसी के माध्यम से जीवन के सन्देश देती सार्थक फिल्म   निर्माता -आर एस वी पी मूवीज  अभिनेता /अभिनेत्री -इरफ़ान खान,  दुलकर सलमान और मिथिला पारकर  निर्देशक-आकर्ष खुराना कभी कभी खो जाना खुद को ढूंढना होता है ….. कारवाँ में तीन लोग जो एक यात्रा  में खुद को ढूंढते हैं वो  हैं इरफ़ान खान,  दुलकर सलमान और मिथिला पारकर | रिश्ते हों , जीवन हो या सफ़र आपने जैसा सोचा होता है वैसा नहीं होता | जीवन इस रोलर कोस्टर की तरह होता है | कब खान क्या होगा , कब कहाँ रास्ते मुद जायेंगे , कोई नहीं जानता | ये फिल्म भी कुछ ऐसा ही बताती है | फिल्म शुरू होती है फिल्म के प्रमुख नायक  दिलकर सलमान से | फिल्म का नायक एक आई .टी कम्पनी में नौकरी करता है | उसका नौकरी में बिलकुल मन नहीं लगता | नौकरी क्या उसका जीवन में ही मन नहीं लगता | वो एक फ्रस्टेटिड इंसान हैं | ऑफिस में बॉस जो उसी की उम्र का है बार -बार उसको डांटता रहता है,  कि उसने अपने पिता की वजह से उसे नौकरी पर रखा है , वर्ना कब का निकाल देता | सब के बीच बार -बार अपमानित होकर  बस जीविका के लिए नौकरी करता है , और घरेलू  जिन्दगी यूँहीं  अकेलेपन के साथ गुज़ार रहा है | उसे लोगों की कम्पनी पसंद नहीं आती , लोगों से ज्यादा देर बात नहीं कर पाता , और पर्सनल बात तो बिलकुल ही नहीं | ये सारा कुछ पढ़ कर आप ये मत समझिएगा कि वो खडूस है , वो दिल का बहुत कोमल इंसान है | उसके इस व्यवहार के पीछे उसका एक दर्द है ….वो दर्द है अपने मन का काम न कर पाने का दर्द | वो फोटोग्राफर बनना चाहता था , परन्तु उसके पिता इसके खिलाफ थे | वो हमेशा यही दलील देते , ” कमाएगा नहीं , तो खायेगा क्या ?” मजबूरन उसे सॉफ्ट वेयर इंजिनीयर बनना पड़ा | यहाँ  उसके नंबर अच्छे आये और उसे के पिता ने अपने दोस्त की आई .टी कम्पनी में उसे लगवा दिया | इस बात से वो अपने पिता से नाराज़ था | सालों से उनकी बात नहीं हुई थी | जिंदगी यूँही खिंच रही होती है कि एक दिन नायक के पास फोन आता है की उसके पिता जो एक टूर पकेज बुक कर के तीर्थ यात्रा पर गए थे उनकी बस एक्सीडेंट में मृत्यु हो गयी है | उनका कॉफिन वो उस ट्रैवेल एजेंसी से कलेक्ट कर लें | वो शोक की अवस्था में फिर से ट्रैवेल ऐजेंसी को फोन लगता है , पर कोई उसकी बात सुनना नहीं चाहता | वो बस अपना नया प्लान बेचने में लगे हैं | कॉफिन कलेक्ट करने तक ” बस मैं और मेरी  रोजी रोटी ” की कई परते उधडती  हैं | जिसमें हास्य का पुट देते हुए सिस्टम और बढ़ते मानवीय स्वार्थ पर कटाक्ष किया है | नायक का अपने पिता से लगाव नहीं है फिर भी वो उनकी अंतिम क्रिया ठीक से करना चाहता है | वो कॉफिन ले कर विद्धुत शव दाह  गृह में ले जाता है | वहां उसे पता चलता है कि वो किसी  स्त्री की मृत देह ले आया है | दरसल कॉफिन बदल गए हैं | उसके पिता का शव कोच्ची पहुँच गया है | नायक उस महिला से बात करता है और दोनों बीच में कहीं मिलकर कॉफिन बदलने पर सहमत होते हैं | नायक अपने दोस्त इरफ़ान खान से मदद मांगता है | इरफ़ान खान अपनी वैन   में कॉफिन ले कर उसके साथ चल पड़ता है और शुरू होता है सफ़र ….. |  वो लोग रास्ते में ही होते हैं कि कोच्ची से उस महिला का फोन आता है कि उसकी बेटी ऊटी के हॉस्टल से फोन नहीं उठा रही है | नानी की मृत्यु से वो ग़मगीन है कृपया  ऊटी में उससे भी मिल लें | नर्म दिल नायक हाँ कर देता है | आगे के सफ़र में वो १८ -१९ साल की बेटी (मिथिला पारकर )भी साथ में है | यहीं से शुरू होता है नायक का अपने को खोजने का सफ़र | अपने पिता से हद दर्जे की नफ़रत करने वाला नायक उस लड़की के लिए पिता की भूमिका में आने लगता है | जैसा की एक फेमस कोट है … ” एक व्यक्ति को जब ये समझ में आने लगता है कि उसके पिता ने उसके साथ क्या -क्या किया है , तब तक उसका बेटा इतना बड़ा हो जाता है कि वो कहने लगता है … आपने मेरे साथ किया ही क्या है “|  उसके जीवन की गुत्थियां सुलझने लगती हैं | या यूँ कहे कि तीनों सफ़र में अपने को खोजते चलते हैं | मिथिला पारकर ने आठ साल की उम्र में अपने पिता को खो दिया है और इरफ़ान का पिता शराबी था जिसकी वजह से उसने खुद को हमेशा अनाथ समझा | पिता और संतान का रिश्ता एक  कठिन रिश्ता है जिसके कारण खोजने का प्रयास फिल्म करती है | अंत बहुत ही खूबसूरत है , जहाँ फिल्म थोड़ी भावुक हो जाती है , जब उसे अपने पिता को अपने दोस्त को लिखा खत मिलता है | खत का मजनूँन बताना उचित नहीं .. पर इससे आज के यूथ की एक बहुत बड़ी समस्या का हल मिलता है | दरअसल माता -पिता को दोष देने से पहले हर बच्चे को उन परिस्थितियों को समझना चाहिए … Read more