विश्व कैंसर दिवस-ैंआवश्यकता है कैंसर के खिलाफ इस युद्ध में साथ खड़े होने की

आज विश्व कैंसर दिवस है | आज मेडिकल साइंस के इतने विकास के बाद भी कैंसर एक ऐसे बिमारी है | जिसका नाम भी भयभीत करता है |परन्तु ये भी सच है की शुरूआती स्टेज में कैंसर का इलाज़ बहुत आसन है | यहाँ तक की स्टेज ३ और 4 के मरीजों को भी डॉक्टर्स ने पूरी तरह ठीक किया है | पर ये एक कठिन लड़ाई होती है जिसमें मरीज को बहुत हिम्मत व् हौसले की जरूरत होती है |सबसे पहले तो यह समझना होगा की कैंसर मात्र एक शब्द है ये कोई डेथ सेंटेंस नहीं है | world कैंसर डे इसी लिए मनाया जाता है | दरसल ये एक जागरूकता अभियान है | जिसके द्वारा कैंसर को शुरू में पहचानने , सही इलाज़ करने व् कैंसर के मरीजों के कैंसर के खिलाफ इस युद्ध में उनके साथ खड़े होने की आवश्यकता पर बल दिया है | वैसे अलग – अलग प्रकार के कैंसर के लिए भी अलग – अलग डे या माह बनाए गए हैं | जैसे ब्रैस्ट कैंसर मंथ , प्रोस्टेट कैंसर मंथ , world लिम्फोमा अवेरनेस डे आदि , आदि | मकसद इस जानलेवा बिमारी के खिलाफ जागरूकता फैलाना व् मरीजों के साथ खड़े होना हैं | कैंसर के मरीजों के लिए बहुत जरूरी है की वो एक कम्युनिटी बनाए | जहाँ वह अपने लक्षणों , इलाज़ , दुःख व् तकलीफ को शेयर कर सकें | एक दूसरे की तकलीफ को बेहतर तरीके से महसूस कर पाने पर वो बेतर समानुभूति दे पाते हैं | जो मनोबल टूटते मरीज के लिए बहुत जरूरी है |विदेशों में ऐसे बहुत से समूह हैं पर हमारे देश में इनका अभाव है |छोटे शहरों और गाँवों में जहाँ अल्प शिक्षा के चलते लोग कैंसर के मरीजो से संक्र्मकता से डर कर दूरी बना लेते हैं , ख़ास कर जब की वो सरकोमा या नॉन हीलिंग वुंड के रूप में हो | जिसके कारण कैंसर का मरीज बेहद अकेला पं व् अवसाद का अनुभव करता है | जो कैंसर के खिलाफ उसकी लड़ाई को कमजोर करता है | एक बात और जो बहुत जरूरी है वो यह है की कैंसर के मरीजों के केयर गिवर का भी ख़ास ख़याल रखा जाए | क्योंकि अपने परियां की तकलीफ के वो भी पल – पल के साझी दार होते हैं और एक गहरे सदमे की अवस्था में जी रहे होते हैं | कैंसर का इलाज़ जो डॉक्टर करते हैं चाहे वो सर्जरी हो , कीमो हो , रडियो थेरेपी हो बहुत पीड़ादायक है , और इनके बहुत सारे साइड इफेक्ट्स होते हैं | परन्तु एक इलाज ऐसा भी है जो हम भी कर सकते हैं वो है उन्हें , संवेदना , प्यार दे कर , उनकी हिम्मत बढ़ाकर , उन्हें हौसला दे कर , ताकि वो अपनी कैंसर के खिलाफ लड़ाई आसानी से लड़ सकें |मेरे साथ आप भी कहिये कैंसर क्या नहीं कर सकता है ……कैंसर भवः नहीं वो इतना सीमित है कीये दोस्ती को नहीं मार सकताये प्रेम को नहीं कम कर सकताये उम्मीद को नहीं नष्ट कर सकताये विश्वास में जंग नहीं लगा सकताये हिम्मत को मौन नहीं कर सकताये यादों को कम नहीं कर सकताऔर मेटास्टेसिस के बावजूद ये आत्मा तक कभी नहीं पहुँच सकताये अब तक जी चुकी हुई जिंदगी को नहीं चुरा सकतासबसे महत्वपूर्ण ये आत्मशक्ति से तो बिलकुल भी नहीं जीत सकता वंदना बाजपेयी keywords:world cancer day, cancer, 

आधुनिकता के इस दौर में संस्कृति सेसमझौता क्यों

लेखक :- पंकज प्रखर आज एक बच्चे से लेकर 80 वर्ष का बुज़ुर्ग आधुनिकता की अंधी दौध में लगा हुआ है आज हम पश्चिमी हवाओं के झंझावत में फंसे हुए है |पश्चिमी देशो ने हमे बरगलाया है और हम इतने मुर्ख की उससे प्रभावित होकर इस दिशा की और भागे जा रहे है जिसका कोई अंत नही है |वास्तव में देखा जाए तो हमारा स्वयं  का कोई विवेक नही है हम जैसा देख लेते है वैसा ही बनने का प्रयत्नं करने लगते है निश्चित रूप से यह हमारी संस्कृति के ह्रास का समय है जिस तेज गति से पाश्चात्य संस्कृति का चलन बढ़ रहा है, उससे लगता है कि वह समय दूर नहीं, जब हम पाश्चात्य संस्‍कृति के गुलाम बन जायेंगे और अपनी पवित्र पावन भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्परा सम्पूर्ण रूप से विलुप्त हो जायेगी, गुमनामी के अंधेरों में खो जायेगी। आज मनोरंजन के नाप पर बुद्धू बॉक्स से केवल अश्लीलता और फूहड़पंन का ही प्रसारण हो रहा है हमें मनोरंजन के नाम पर क्या दिया जा रहा  है मारधाड़, खुन खराबा, पर फिल्माए गए दृश्य मनोरंजन के नाम पर मानवीय गुणों, भारतीय संस्कृति व कला का गला घोट रहे हैं।माना की आधुनिक होना आज के दौर की मांग हैं और शायद अनिवार्यता भी है, लेकिन यह कहना भी गलत ना होगा कि यह एक तरह का फैशन है। आज हर शख्स आधुनिक व मॉर्डन बनने के लिये हर तरह की कोशिश कर रहा है, मगर फैशन व आधुनिकता का वास्तविक अर्थ जानने वालों की संख्या न के बराबर होगी, और है भी, तो उसे उंगलियों पर गिना जा सकता है। क्या आधुनिकता हमारे कपड़ों, भाषा, हेयर स्टाइल एवं बाहरी व्यक्तित्व से ही संबंध रखती है? शायद नही। भारत वो देश है जहां पर मानव की पहचान उसके महंगे और सुंदर वस्त्र नही बल्कि उसके अदंर छुपे हुए नैतिक मूल्य है जो मानव के व्यवहार से प्रतिबिंबित होते है विवेकानंद जब शिकागो धर्म सम्मेलन में भाग लेने के लिए गये तो वहां के लोग उनकी भारतीय वेशभूषा को देख कर हास्य करने लगे कई लोगों ने मजाक बनाया बुरा भला कहा लेकिन जब उन्होंने धर्म सम्मेलन में अपने विचार व्यक्त किये तो सारा जन समूह भारतीय संस्कृति के रंग में रंग गया विवेकानन्द ने अपने ज्ञान से विदेशियों के समक्ष अपना लोहा मनवा दिया | मैं आधुनिकता के विपक्ष में नही हूँ मैं समय के साथ बदलना आवश्यक मानता हूँ| लेकिन आधुनिकता का मतलब ये तो बिलकुल नही है की हम अपनी संस्कृति  के स्वयं भक्षक बन जाएँ | वास्तविक रूप में आधुनिकता तो एक सोच है, एक विचार है, जो व्यक्ति को इस दुनिया के प्रति अधिक जागरूक व मानवीय दृष्टिकोण से जीने का सही मार्ग दिखलाती है। सही मायने में सही समय पर, सही मौके पर अपने व्यक्तित्व को आकर्षक व् सभ्य परिधान से सजाना, सही भाषा का प्रयोग तथा समय पर सोच-समझकर फैसले लेने की क्षमता, समझदारी और आत्मविश्वास का मिला-जुला रूप ही आधुनिकता है। लकिन आधुनिकता के नाम पर हो कुछ और रहा है  आज हमारी वेशभूषा से लेकर सोच तक सारी पश्चिम के रंग में रंगी हुई है || हम इतने आधुनिक हो गए की व्यक्ति को व्यक्ति से बात करने की फुर्सत नही है सब काम ऑनलाइन है सब व्यस्त है किसी के पास समय नही है लेकिन वास्तव में देखा जाए तो सब व्यस्त नही है बल्कि तृस्त है आज तकनीक को हम नही बल्कि तकनीक हमे स्तेमाल कर रही है | सुबह उठते ही सबसे पहले  मोबाइल पर हाथ जाता है की किस –किस के और कितने मेसेज आये ,फेसबुक पर कितने लाइक आये | आदमी पहले सुबह उठकर ईश्वर का नाम लेता था अपनी दैनिक – चर्या से निवृत्त हो फिर वो अपने कामकाज में लगता था परिवार के साथ माता-पिता के पास बैठता था आज हमे अपने बच्चों से बात करने का माता-पिता के पास बैठने का ही समय नही है आज भीढ़ में भी आदमी अकेलेपं का अनुभव करता है | आज युवा इससे ज्यादा तृस्त है वो युवा जो आने वाले समय में इस देश की दिशा धारा निर्धारित करने वाले है | वेशभुषा हमारी निहायती फूहड़ और भद्दी हो गयी बिगडती हुई भाषा शैली और अस्त व्यस्त जीवन शैली से युवा तृस्त है | अपने बच्चो को छोटे-छोटे कपड़े पहनाने में भी हमें अब गर्व का अनुभव होने लगा है सलवार कुर्ते की जगह अब मिनी स्कर्ट और टॉप ने ले लिया लेकिन इसका परिणाम क्या हुआ समाज का वातावरण दूषित हुआ हाँ ये बात पक्की है मेरे इस विचार को पढकर कई तथाकथित सामाजिक लोग मुझे पिछड़ी और छोटी सोच का व्यक्ति आंकेगे | जिसका मुझे कोई रंज नही है लकिन ये वास्तविकता है | एक बहुत सोचनीय स्थिति बनी हुई है और वो ये की हमारे बच्चे हमारी  और आप की आधुनिक शैली अपनाने की वजह से समय से पहले बड़े हो रहे | बचपन में दादा-दादियों द्वारा हमें अच्छी-अच्छी कहानिया सुनाई जाती थीं। कहते हैं कि जब बच्चा छोटा होता है तो उसका दिमाग बिलकुल शून्य होता है। आप उसको जिस प्रकार के संस्कार व शिक्षा देंगे उसी राह पर वह आगे बढ़ता है। अगर वाल्यकाल में बच्चों को यह शिक्षा दी जाती है कि चोरी करना बुरी बात है तो वह चोरी जैसी हरकत करने से पहले सौ बार सोचेगा। छोटी अवस्था में बच्चों को संस्कारित करने में माता-पिता, दादा-दादी व बुजुर्गो का बड़ा हाथ होता था। कहानियां भी प्रेरणादायी होती थीं। – कही ऐसा ना हो की अंधी आधुनिकता और स्वयं की मह्त्व्कंषा की वजह से हमारा सारा कुछ समय से पहले ही लूट जाये और हमारे सामने रोने के सिवा कुछ ना बचे देश में आधुनिकता के नाम पर एक अंधी दौड़ जारी है| आम इंसान आधुनिकता की इस दौड़ में अंधा व भ्रमित हो गया है, उसे यही समझ में नहीं आ पा रहा कि आधुनिकता के नाम पर कंपनियाँ आम इंसान को किस प्रकार गुलामी की बेड़ियों में जकड़ने की फिराक में लगी हुई हैं|

आज हमारे नन्हें-मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है? माँ? दादी माँ? या टी0वी0 और सिनेमा?

– डा0 जगदीश गांधी, प्रसिद्ध शिक्षाविद् एवं संस्थापक–प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) आज हमारे नन्हें–मुन्नों को संस्कार कौन दे रहा है?:-                 वर्तमान समय मंे परिवार शब्द का अर्थ केवल हम दो हमारे दो तक ही सीमित हुआ जान पड़ता हैं। परिवार में दादी–दादी, ताऊ–ताई, चाचा–चाची, आदि जैसे शब्दों को उपयोग अब केवल पुराने समय की कहानियों को सुनाने के लिए ही किया जाता है। अब दादी और नानी के द्वारा कहानियाँ सुनाने की घटना पुराने समय की बात जान पड़ती है। अब बच्चे टी0वी, डी0वी0डी0, कम्प्यूटर, इण्टरनेट आदि के साथ बड़े हो रहे हैं। परिवार में बच्चों को जो संस्कार पहले उनके दादा–दादी,  माँ–बाप तथा परिवार के अन्य बड़ेे सदस्यों के माध्यम से उन्हें मिल रहे थे, वे संस्कार अब उन्हें टी0वी0 और सिनेमा के माध्यम से मिल रहे हैं। (2) घर की चारदीवारी के अंदर भी बच्चा अब सुरक्षित नहीं है:-                 आज हमने अपने घरों में रंगीन केबिल टी0वी0 के रूप में बच्चों के लिए एक हेड मास्टर नियुक्त कर लिया है। बाल तथा युवा पीढ़ी इस हेड मास्टर रूपी बक्से से अच्छी बातों की तुलना में बुरी बातें ज्यादा सीख रहे हैं। टी0वी0 की पहुँच अब बच्चों के पढ़ाई के कमरे तथा बेडरूम तक हो गयी है। यह बड़ी ही सोचनीय एवं खतरनाक स्थिति है। दिन–प्रतिदिन टी0वी0 के माध्यम से फ्री सेक्स, हिंसा, लूटपाट, निराशा, अवसाद तथा तनाव से भरे कार्यक्रम दिखाये जा रहे हैं। बाल एवं युवा पीढ़ी फ्री सेक्स, लूटपाट, बलात्कार, हत्या तथा आत्महत्या करने वाले समाचारों से सीख रही है। (3) युवक ने टी0वी0 देखने में खलल पड़ने पर उठाया हिंसक कदम:-                      हैवानियत की सारी हदें पार कर कानपुर के श्यामनगर के भगवंत टटिया इलाके मंे हुई हिंसक वारदात में एक युवक ने सिर्फ इसलिए अपनी बहन और दो मासूम भान्जियों के गले रेत दिए क्योंकि उसके टी0वी0 देखने में खलल पड़ रही थी। इस युवक को अपने किए पर पछतावा भी नहीं है। इस हिंसक वारदात में माँ माया और बहन सुनीता के काम पर जाने के बाद जब बच्चे रोए तो अनीता ने टीवी देख रहे भाई सुनील से चाकलेट लाने को कहा, इस पर वह भड़क गया। सुनील ने दरवाजा बंद किया और बहन अनीता की गर्दन पर गड़ासे का तेज वार कर उसे मौत के घाट उतार दिया। बाद में सुनील ने मासूम भान्जियों प्रज्ञा व शिवी की भी गर्दन रेत डाली। इसके बाद सुनील ने अपनी गर्दन पर भी प्रहार कर लिया। (4) बच्चों के मन–मस्तिष्क पर टी0वी0 तथा सिनेमा के द्वारा पड़ने वाले दुष्प्रभाव:-                 इसी प्रकार की एक घटना में एक बच्चे ने अपनी दादी को सिर्फ इसलिए मार डाला था क्योंकि उसकी दादी ने उसे गन्दी पिक्चर देखने से मना किया था। उसके न मानने पर दादी ने टी0वी0 को बंद कर दिया था। टी0वी0 बंद होने से नाराज बच्चे ने गुस्से में आकर अपनी दादी की हत्या कर दी। टेलीविजन पर दिखाए जाने वाले धारावाहिक बच्चों के कोमल मन–मस्तिष्क पर कितना गहरा दुष्प्रभाव डाल रहे हैं इसका एक उदाहरण केरल के इदुकी नामक स्थान पर देखने को मिला। वहाँ कक्षा पाँच की छात्रा ने टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देखा और उसकी नकल करने में उसकी जान चली गई। पत्थानम्थित्ता क्षेत्र में मंगलवार को आठ वर्ष की एक बच्ची टेलीविजन पर एक धारावाहिक देख रही थी। घर में माता–पिता नहीं थे, उसका पाँच वर्षीय भाई ही उसके साथ घर पर था। टी0वी0 पर आत्महत्या का दृश्य देख बच्ची को इसकी नकल करने की सूझी। दूसरे कमरे में उसने दरवाजा बंद कर लिया। काफी देर बाद जब वह बाहर नहीं आई तो भाई ने हल्ला मचाया। पड़ोसियों ने दरवाजा तोड़ा तो बच्ची फाँसी लगा चुकी थी। (5) सी0एम0एस0 के फिल्म डिवीजन एवं दो रेडियो स्टेशनों में शैक्षिक कार्यक्रमों का निर्माण:-                 सी0एम0एस0 के बच्चों ने प्रतिज्ञा की है कि वे गन्दी फिल्में नहीं देखेंगे। केवल शैक्षिक फिल्में देखेंगे। शैक्षिक फिल्में निर्मित करने के उद्देश्य से सी0एम0एस0 ने फिल्म डिवीजन की स्थापना की है। सी0एम0एस0 द्वारा दो रेडियो स्टेशन भी स्थापित किये हैं। सी0एम0एस0 ने अत्यन्त उच्च कोटि की प्रेरणादायी अनेक बाल फिल्मों का निर्माण किया है। संसार में ऐसी सशक्त बाल फिल्मों का निर्माण आज तक नहीं हुआ है। समाज को हिंसा, सेक्स, रेप, हत्या, आत्महत्या जैसे अपराधिक मामलों की प्रेरणा देने वाले अश्लील चैनलों को तत्काल बंद किया जाये। ताकि आगे किसी माँ–बाप के जिगर के टुकड़ों प्रिय बेटे–बेटी को असमय मुरझाने से बचाया जा सके। (6) प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते पहचाने:-                 जीवन प्रभु का दिया है। किसी दूसरे की हत्या करना अथवा स्वयं आत्महत्या करना दोनों एक ही जैसी मनः स्थिति को दर्शाती हैं। और वह है ईश्वर से अलगाव। प्रभु की दृष्टि में ये दोनों ही स्थितियाँ पापपूर्ण हैं। बच्चे माता–पिता के लाड़ले बेटी–बेटे होते हैं। कोई अज्ञानी बालक या युवक आत्महत्या करके अपने परिजनों को जीवन भर के लिए अपराध बोध के बोझ तले रोते–बिलखते रहने के लिए छोड़ जाता है। हमारी आंखों में पड़ा मोह का पर्दा अपने प्रियजनों के मन में पनप रहे बुरे विचार को समय रहते देखने से रोके रखता है। बाद में वह बुरा विचार धीरे–धीरे परिपक्व हो जाता है। तब बहुत देर हो चुकी होती है। (7) परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई है:-                            परिवार में मां की कोख, गोद तथा घर का आंगन बालक की प्रथम पाठशाला है। परिवार में सबसे पहले बालक को ज्ञान देने का उत्तरदायित्व माता–पिता का है। माता–पिता बच्चों को उनके बाल्यावस्था में शिक्षित करके उन्हें अच्छे तथा बुरे अथवा ईश्वरीय और अनिश्वरीय का ज्ञान कराते हैं। बालक परिवार में आंखों से जैसा देखता है तथा कानों से जैसा सुनता है वैसा बालक के अवचेतन मन में धारणा बनती जाती हैं। बालक की वैसी सोच तथा चिन्तन बनता जाता है। बालक की सोच आगे चलकर कार्य रूप में परिवर्तित होती है। परिवार में एकता व प्रेम या कलह, माता–पिता का अच्छा व्यवहार या बुरा व्यवहार जैसा बालक देखता है वैसे उसके संस्कार ढलना शुरू हो जाते हंै। अतः प्रत्येक बालक को उसकी प्रथम पाठशाला में ही प्रेम, दया, एकता, करूणा आदि ईश्वरीय गुणों की शिक्षा दी जानी चाहिए। परिवार विश्व की सबसे छोटी एवं सशक्त इकाई … Read more

एक महानसती थी “पद्मिनी”

लेखक:-पंकज प्रखर एक सती जिसने अपने सतीत्व की रक्षा के लिए अपने प्राणों का बलिदान कर दिया उसकी मृत्यु के सैकड़ोंवर्ष बाद उसके विषय में अनर्गल बात करना उसकी अस्मिता को तार-तार करना कहां तक उचित है | ये समय वास्तव में संस्कृति के ह्रास का समय है कुछ मुर्ख इतिहास को झूठलाने का प्रयत्न करने में लगे हुए है अब देखिये एक सर फिरे का कहना है अलाउद्दीन और सती पद्मिनी में प्रेम सम्बन्ध थे जिनका कोई भी प्रमाण इतिहास की किसी पुस्तक में नही मिलता| लेकिन इस विषय पर अब तक हमारे सेंसर बोर्ड का कोई भी पक्ष नही रखा गया है वास्तव में ये सोचनीय है |रानी पद्मिनी का इतिहास में कुछ इस प्रकार वर्णन आता है की “पद्मिनी अद्भुत सौन्दर्य की साम्राज्ञीथी और उसका विवाह राणा रतनसिंह से हुआ था एक बार राणा रतन सिंह ने अपने दरबार से एक संगीतज्ञ को उसके अनैतिक व्यवहार के कारण अपमानित कर राजसभा से निकाल दिया | वो संगीतज्ञ अलाउद्दीन खिलजी के पास गया और उसने पद्मिनी के रूप सौन्दर्य का कामुक वर्णन किया | जिसे सुनकर अलाउद्दीन खिलजी प्रभावित हुआ और उसने रानी पद्मिनी को प्राप्त करने की ठान ली | इस उद्देश्य से वो राणा रतन सिंह के यहाँ अतिथि बन कर गया राणा रतन सिंह ने उसका सत्कार कियालेकिनअलाउद्दीन ने जब रतनसिंह की महारानी पद्मिनी से मिलने की इच्छा प्रकट की तो रत्न सिंह ने साफ़ मना कर दिया क्योंकि ये उनके वंश परम्परा के अनुकूल नही था | लेकिनउस धूर्त ने जब युद्ध करने की बात कही तो अपने राज्य और अपनी सेना की रक्षा के लिए रतनसिंह ने पद्मिनी को सीधा न दिखाते हुए उसके प्रतिबिंब को दिखाने के लिए राज़ी हो गया जब ये बात पद्मिनी को मालूम पड़ी तो पद्मिनी बहूत नाराज़ हुईलेकिनजब रतनसिंह ने इस बात को मानने का कारण देश और सेना की रक्षा बताया तो उसने उनका आगृह मानलिया | 100 महावीर योद्धाओं और अन्य कई दास दासियों ओरपने पति राणा रत्न सिंह  के सामने पद्मिनी ने अपना प्रतिबिम्ब एक दर्पण में अलाउद्दीन खिलजी को दिखाया जिसे देख कर उस दुष्ट के मन में उसे प्राप्त करने की इच्छा और प्रबल हो गयीलेकिनये अलाउद्दीन खिलजी के लिए भी इतना सम्भव नही था |रतन सिंह ने अलाउद्दीन के नापाक इरादों को भांप लिया था | उसने अलाउद्दीन के साथ भीषण युद्ध किया राणा रतन सिंह की आक्रमणनीति इतनी सुदृणथी की अल्लौद्दीन छ: महीने तक किले के बाहर ही खड़ा रहालेकिनकिले को भेद नही सका अंत में जब किले के अंदर पानी और भोजन की सामग्री ख़त्म होने लगी तो मजबूरन किले के दरवाजे खोलने पडे राजपूत सेना नेकेसरिया बाना पहनकर युद्ध कियालेकिनअलाउद्दीन खिलजी ने रतन सिंह को बंदी बना लिया और चित्तौड़गढ़ संदेसा भेजा की यदि मुझे रानी पद्मिनी दे दी जाए तो में रतनसिंह को जीवित छोड़ दूंगा जब पद्मिनी को ये पता चला तो उन्होने एक योजना बनाकर अलाउद्दीन खिलजी के इस सन्देश के प्रतिउत्तर स्वरुप स्वीकृति दे दीलेकिनसाथ ये भी कह भिजवाया की उनके साथ उनकी प्रमुख दासियों का एक जत्था भी आएगा अलाउद्दीनइसके लिए तैयार हो गया | पद्मिनी की योजना ये थी की उनके साथ दासियों के भेस में चित्तौड़गढ़ के सूरमा और श्रेष्ठ सैनिक जायेंगे ऐसा ही हुआ जैसी ही अल्लुद्दीन के शिविर में डोलियाँ पहुंची उसमे बैठे सैनिकों ने अल्लौद्दीन खिलजी की सेना पर धावा बोल दिया उसकी सेना को बड़ी मात्र में क्षति हुई और राणा रतनसिंह को छुड़ालिया गया | इसका बदला लेने के लिए अलाउद्दीन ने पुन: आकरमण किया |जिसमे राजपूत योद्धाओं में भीषण युद्ध किया और देश की रक्षा के लिए अपने प्राण आहूत कर दिए उधर जब रानी पद्मिनी को मालुम पढ़ा की राजपूत योद्धाओं के साथ राणा रतन सिंह भी वीरगति को प्राप्त हुए है तो उन्होंने अन्य राजपूत रानियों के साथ एक अग्नि कुंद में प्रवेश करजोहर(आत्म हत्या ) कर अपनी अस्मिता की रक्षा हेतु प्राण दे दिए लेकिनजीते जी अपनी अस्मिता पर अल्लौद्दीन का साया तक भी नही पडने दिया |” ये इतिहास में उद्दृत हैलेकिनआज के तथा कथित लोग अपने जरा से लाभ के लिए इस महान ऐतिहासिक घटना को मनमाना रूप देने पर आमादा है |इसके लिए सरकार को और हमारे सेंसर बोर्ड को उचित कदम उठाने चाहिए और सिनेमा क्षेत्र से जुडे लोगों को जो भी ऐतिहासिक फिल्मी बनाना चाहते है उनके लिए ये अनिवार्यकरदेना चाहिए की वो इतिहास से जुडे उस व्यक्ति विशेष के बारे में विश्वसनीय दस्तावेजों का अध्ययन करे और फिर उन्हे लोगों के सामने प्रस्तुत करें क्यौंकी इतिहास से जुडे किसी भी घटना या व्यक्ति के विषय में मन माना कहना या गड़ना उचित नही है इसका समाज और राष्ट्र पर नकारात्मक प्रभाव जाता है और देश की ख्याति धूमिल होती है |

हम सबकी जिम्मेदारी, मिलकर बनाये दुनियाँ प्यारी

           प्रदीप कुमार सिंह ‘पाल’, शैक्षिक एवं वैश्विक चिन्तक   मानव जाति के अन्नदाता किसान को जमीन को कागजी दांव-पेच से आगे एक महान उद्देश्य से भरे जीवन की तरह देखना चाहिए। कागजी दांव-पेच को हम एक किसान की सांसारिक माया कह सकते हैं, लेकिन अब जमीन पर पौधे लगाने की योजना है, ताकि हमारा सांसारिक मोह केवल जमीनी कागज का न रहे, बल्कि जीवन का एक मकसद बनकर अन्नदाता तथा प्रकृति-पर्यावरण से भी जुड़ा रहे। किसान को अपने उत्तम खेती के पेशे का उसे पूरा आनंद उठाना है। सब्सिडी का लोभ और कर्ज की लालसा किसान को कमजोर करती है। जमीन बेचने की लत से छुटकारा तभी मिलेगा, जब हम धरती की गोद में खेलेंगे, पौधे लगाएंगे। जमीन-धरती हमारी माता है। परमात्मा हमारी आत्मा का पिता है। केवल धरती मां के एक टूकड़े से नहीं वरन् पूरी धरती मां से प्रेम करना है। धरती मां की गोद में खेलकूद कर हम बड़े होते हैं। धरती मां को हमने बमों से घायल कर दिया है। शक्तिशाली देशों की परमाणु बमों के होड़ तथा प्रदुषण धरती की हवा, पानी तथा फसल जहरीली होती जा रही है।                      अक्सर हमारी पूरी उम्र गुजर जाती है और यह तय ही नहीं कर पाते कि हम यहां हैं क्यों? इससे हमारी जीवन की गुणवत्ता दोयम दर्जे की हो जाती है। गुणवत्ता सुधारनी है, तो हमें पहले-पहल बस इतना करना चाहिए कि इसका एक उद्देश्य तय करें। इतने भर से जीवन में आमूल-चूल बदलाव आ सकता है। पैसा, करियर आदि चीजों से हटकर बस हम इतना ठान लें कि कुछ ऐसा कर गुजरेंगे कि उसके पूरा होने के बाद शांति और तसल्ली के साथ मर पाएं, तो समझिए जीवन यात्रा ठीक होगी। जीवन का मकसद सदैव हमारे सामने होने से राह की बाधायें परेशान नहीं करती हैं वरन् वे जीवन के सफर में एक नया अनुभव छोड़ जाती है। प्रत्येक क्षण में मनुष्य के लिए बहुत कुछ अच्छा है। वर्ष में 1 जनवरी का केवल एक दिन ही नया नहीं है वरन् प्रत्येक सुबह एक नया दिन तथा रात्रि में मृत्यु की गोद में सोने का अहसास लेकर आती है।             ओलंपिक में नौका रेस के मुकाबले के दौरान नाविक प्रतियोगी लाॅरेन्स एकाएक अपने घायल प्रतियोगी की मदद के लिए रूक गए। नतीजा यह हुआ कि वह रेस में सबसे पीछे रहे। उन्होंने जीतने की इच्छा से अधिक दूसरे के जीवन को महत्व दिया, इसलिए उनके लिए सबसे अधिक तालियां बजी। उन्होंने वह हासिल कर लिया, जो जीतने वाले के लिए एक सपना होता है। बर्तोल्त ब्रेख्त अपनी कविता में कहते हैं- हमारा उद्देश्य यह न हो कि हम एक बेहतर इंसान बने, बल्कि यह हो कि हम एक बेहतर समाज से विदा ले। रवीन्द्र नाथ टैगोर कहते है कि मनुष्य को चाहिए कि वह अपने जीवन को समय के किनारे पड़ी हुई ओस की भांति हल्के-हल्के नाचने दे। यह नाच तभी हो सकता है, जब हमारा मन ओस की तरह हल्का हो। शुद्ध, दयालु तथा प्रकाशित हृदय हो। हृदय में परहित के लिए जगह हो। आध्यात्मिक गुरू तेजश्री कहते है कि दुनिया वैसी नहीं है जैसी हमें दिखाई देती है वरन् दुनिया वैसी है जिस दृष्टिकोण-विचार से हम उसे देखते हैं।             पंजाब केसरी के वरिष्ठ नागरिक केसरी क्ल्ब की चेयरपर्सन श्रीमती किरण चैपड़ा के अनुसार पिछले दिनों मैंने काॅफी टेबल बुक ‘बेटिया’ लांच की, जिसमें देश के हर फील्ड से प्रसिद्ध बेटियां, चाहे वह राजनीतिक, स्पोट्र्स, एक्टिंग, सामाजिक, पत्रकारिता क्षेत्र को शामिल किया, जिसका उद्देश्य था कि देश की हर आम-खास बेटी जाने कि वह किसी से कम नहीं, वह भी उनकी तरह हर क्षेत्र में आगे बढ़ सकती है। आज भ्रूण हत्या करने वाले भी सोच लें कि बेटी है तो परिवार, समाज, देश है। श्रीमती किरण चैपड़ा के नारियों तथा वरिष्ठ नागरिकों को आगे बढ़ाने के उत्कृष्ट जज्बे को लाखों सलाम।             बुढ़ापा जीवन का एक अटूट सत्य है। बुढ़ापा और गरीबी से जिंदगी अभिशाप बन जाती है। हम बुजुर्गों का ऐसा सहारा बनें, ताकि उन्हें बुढ़ापा अभिशाप नहीं अनुभवों का खजाना महसूस हो। आओ ऐसा संसार बसाएं जहां सुखी-दुखी लोग अपने आपको अकेला, असहाय न महसूस करें और आने वाली पीढ़ियों का मार्गदर्शन करें। वृद्धजनों का सम्मान होना चाहिए। सरकारी तथा निजी संस्थाओं को ओल्ड ऐज होम अधिक से अधिक बनाना चाहिए। ताकि वरिष्ठ नागरिक अपने हम उम्र के लोगों के साथ मजे से हर पल जीवन जीते  हुए संसार से विदा हो।             23 साल की उम्र में रितेश बनें अरबपति। छोटी सी उम्र सिम कार्ड बेचकर गुजारा करने वाले रितेश अग्रवाल आज भारत के सफलतम उद्यमियों में से एक हो गए हैं। एक समय रितेश इंजीनियरिग की परीक्षा देना चाहते थे परंतु आज मात्र 22 वर्ष की उम्र में वे देश के नामी अरबपतियों में से एक हैं। वह ओयो रूम्स के संस्थापक है। कुदरत में भरपूर है। जैसा हम चाहते हैं तथा वैसा करते हैं तो सफलता हमारे कदम चूमती है। सकारात्मक दृष्टिकोण का भी सफलता में काफी श्रेय है। श्रेष्ठ भावना यह है कि कैसे करें ईश्वर की नौकरी? रितेश की कहानी एक जिम्मेदार इंसान की कहानी है समझ मिलने के बाद। बड़बोले बनने से अच्छा है कि सच्चे कर्मयोगी बनने की कला सीखे।             असिस्टेंट सब इंस्पेक्टर के पद पर चयनित हुए उपदेश कुमार वत्स का कहना है कि सिर्फ आगे देखेंगे, तभी आगे बढ़ पाएंगे। मैनेज करना आपके हाथ में होता है। यह बस इस पर निर्भर करता है कि आपकी मानसिकता तैयारी को लेकर कितनी सकारात्मक है। एक समय मेरे मन में जाॅब छोड़कर तैयारी करने का विचार आया, लेकिन फिर लगा कि मैं मैनेज कर सकता हूं और करके रहंूगा। आप किसी परीक्षा की तैयारी कर रहे हैं, तो पूरे मन से करें। फोकस के अभाव में की गई तैयारी, आपको पुनः उसी जगह खड़ा कर देती है, जहां से आपने शुरूआत की थी। कोशिश करने वालों की हार नहीं होती, लहरों से डरकर नैया पार नहीं होती।             बहादुर बच्चों से मुखातिब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि उन्हें मन की शक्ति मजबूत बनाने की जरूरत है। इस दौरान पीएम ने 25 बच्चों को गणतंत्र दिवस के अवसर पर राष्ट्रीय वीरता सम्मान … Read more

तन की सुंदरता में आकर्षण, मन की सुंदरता में विश्वास

सुंदर काया और मोहक रूप क्षणिक आकर्षण पैदा कर सकते हैं लेकिन आंतरिक सुंदरता सामने वाले के मन को हमेशा के लिए वशीभूत कर लेती है। जो लोग रूप पर टिके रह जाते हैं वे अपनी आंतरिक क्षमताओं की तलाश नहीं कर पाते। रूप उनके लिए एक ऐसा जाल बन जाता है जिसे तोडऩा आसान नहीं होता। इसके उलट शरीर से निर्विकार रह कर मन की ताकत पर एकाग्र रहने वाले लोग महानता के शिखर चढ़ जाते हैं।  शक्‍ल से खूबसूरत लोग दिल से भी खूबसूरत हों, ऐसा जरूरी नहीं है। आत्‍मा की सुंदरता पाने के लिए तो व्यक्ति में गुणों का होना जरूरी है। दिखने में बुरा होते हुए भी अगर कोई गुणवान और प्रतिभावान हो तो उसे कामयाब होने से कोई नहीं रोक सकता है, क्योंकि जीवन की लंबी दौड़ में साँझ की तरह ढलते रूप की नहीं, बल्कि सूरज की तरह अँधेरे में उजालों को रोशन करने वाले गुणों की कद्र होती है। चरि‍त्र अच्‍छा हो और सीधा-साधा मन हो तो आप सबको जीत सकते है। हमारे संस्कार हमें अंदर से सुंदर बनाते हैं और इन संस्कारों के बि‍ना तो ऊपरी सुंदरता कि‍सी काम की नहीं है। मन विचार करता है और संकल्प लेता है। अच्छे संकल्प मन को शुद्ध करते हैं और शक्तिशाली बनाते हैं। अच्छे विचार और अच्छे संकल्प मन को लगातार निर्मल करते रहते हैं। मन की सुंदरता के लिए ऐसा करना बहुत ज़रूरी है। जिस तरह  शरीर तभी तक सेहतमंद और सुंदर रह सकता है जब तक कि उसके अंदर का मैल बाहर निकलता रहे,उसी तरह मन की सुन्दरता के लिए भी यह जरूरी है कि मन का मेल बाहर निकलता रहे. हमारे भीतर बहुत से नकारात्मक और फ़ालतू विचार जमा हो जाते हैं और प्रायः वही हमारे मन में घूमते रहते हैं,जिससे मानसिक सौंदर्य प्रभावित होता है.इसलिए हमें निरंतर कुविचारो से मुक्ति के लिए प्रयासरत रहना चाहिए.  जीवन को सुंदर बनाने के लिए सुंदर मन की आवश्यकता है। यदि मन पवित्र, स्वस्थ्य तथा मजबूत है तो जीवन स्वयं ही सुंदर और आनंदमय बन जाता हैं। मन शरीर को नियंत्रित करता है और इस प्रकार हमारे कर्मो को निर्धारित करता है। हमारा व्यवहार ही प्रशंसा व निंदा का कारण बनता है। गुरू, पीर, पैगम्बरों तथा धार्मिक ग्रंथों ने अपना संदेश मन को ही दिया है। मन वाहन में स्टेयरिंग की भांति है। मन ही मानव को इधर-उधर घुमाता है अथवा सुरक्षित रूप से लक्ष्य पर  पहुंचाता है। जब मन को पथ का ज्ञान हो जाता है, तब लक्ष्य की प्राप्ति अवश्य ही हो जाती है। वाह्य सौंदर्य भ्रामक है, वास्तविक सौंदर्य तो आंतरिक है। यही वजह है कि भगवान श्रीराम ने शबरी को भामिनी कहकर संबोधित किया था। भामिनी का भाव सुंदर स्त्री से है। जबकि यह सभी जानते हैं कि शबरी की बाहरी नहीं बल्कि आंतरिक सुंदरता की ख्याति है। बाहरी सौंदर्य तो क्षणभंगुर है। आयु के साथ-साथ ढल जाता है। लेकिन मन की सुंदरता हमेशा बनी रहती है। प्राचीन काल में सौंदर्य की परिभाषा संतुलित थी लेकिन आधुनिकता के दौर में इसका पैमाना भी बदल गया है। सभी ने सादा जीवन और उच्च विचार वाली गरिमयी पद्घति को छोड़कर भौतिकतावादी शैली को गले लगा लिया है। आजकल सुंदरता के मायने ही बदल गए हैं। वाह्य सुंदरता की होड़ में आंतरिक सुंदरता अपना स्थान खोती जा रही है.तन को सुन्दर बनाने की दौड़ में मन का सौंदर्य लोग भूलते जा रहे है,जबकि मन की सुन्दरता सिर्फ दूसरो के लिए ही नहीं ,बल्कि खुद के लिए भी आनंददायी होती है . ओमकार मणि त्रिपाठी 

अपनों की पहचान बुरे समय में नहीं अच्छे समय में भी होती है

आम तौर पर यही माना जाता है कि जो बुरे वक्त में विपदा के समय साथ दे,वही सच्चा मित्र या हितैषी होता है.यह बात कुछ हद तक सही भी है,लेकिन तस्वीर का एक दूसरा पहलू भी है.कई बार ऐसा भी होता है कि जब आप परेशान या दुखी होते हैं,तो लोग सहानुभूतिवश भी आपके साथ खड़े हो जाते हैं.कई बार तो ऐसा भी होता है कि आपको सख्त रूप से नापसंद करने वाले लोग भी बुरे समय में आपके साथ सहानुभूति जताने लगते हैं,लेकिन जैसे ही आपका बुरा समय दूर हुआ और अच्छा समय आने लगा ,तो वही लोग फिर विरोध का झंडा उठा लेते हैं. आपने अक्सर देखा होगा कि राह चलते किसी के साथ कोई दुर्घटना हो जाये,तो कुछेक लोगो को छोड़कर उस रास्ते से गुजर रहे लगभग सभी लोगो उसकी सहायता के लिए आगे आ जाते हैं और जिससे जितना संभव हो पाता है,वह उतनी मदद बिना कहे करता है.कोई बीमार हो जाये,कोई दुर्घटनाग्रस्त हो जाये,कोई किसी आपदा का शिकार हो जाये या किसी के घर पर मौत का मातम हो,तो उसके साथ सहानुभूति जताने वालो की कमी नहीं होती.लोग कुछ मदद करे या न करें,सहानुभूति तो जता ही देते हैं.सिर्फ परिचित ही नहीं ,अपरिचित लोग भी पुण्य या यश कमाने के लिए दुखी लोगो की मदद के लिए आगे आ जाते हैं अब जरा तस्वीर का दूसरा पहलू देखिये.कोई प्रगति की राह पर चलने लगा,किसी ने कोई सफलता हासिल कर ली,किसी पर सुखो की बरसात होने लगी,तो अपने होने का दावा करने वाले ज्यादातर लोग उससे दूर होने लगते हैं.कुछ तो मन ही मन और कुछ सार्वजनिक तौर पर उसकी निंदा या आलोचना शुरू कर देते हैं.ऐसे में सहयोग की बात तो दूर है,ज्यादातर प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से असहयोग करना शुरू कर देते हैं.इसका मुख्य कारण ईर्ष्या होती है,जिसका मूल आधार यह भाव होता है कि जो हम नहीं कर सके,वह इसने कैसे कर लिया या जिसके लिए हम रात दिन प्रयास करते रहे,जिसके सपने देखते रहे,वह इसे कैसे मिल गया.इर्ष्य एक मानसिक विकार है। यह विकार इतना तीव्र और खतरनाक होता है कि व्यक्ति अपना विवेक भी खो लेता है। यह एक ऐसा रोग है जो दूसरों के लिये तो हानिकारक है ही, स्वयं के लिये भी खतरनाक है। ईर्ष्याभाव एक विष है जो तन और मन दोनों को नष्ट कर देता है। ईर्ष्यालु व्यक्ति को पर निन्दा में सुख की अनुमति होने लगती है.हिन्दू जीवन दृष्टि में ईर्ष्या और द्वेष जैसे तत्त्वों को राक्षसी दोषों में रखा गया है। इसीलिए कभी –कभी सफलता मिलने के बाद आप अपने को बिलकुल अकेले खड़ा पाते है आप को लगता है की आपने सफलता के लिए अपनों का प्यार खो कर भारी कीमत चुकाई है और अपनी सफलता की ख़ुशी नहीं मना पाते |यह सच है की चोटी पर आदमी अकेला होता है पर उसे अपनों के प्यार और सहारे की सदैव आवश्यकता होती है और सफलता मिलने के पश्चात अचानक से उन लोगों का साथ छोड़ देना जो आपके सपने देखने के समय उसके भागीदार थे मन को अजीब निराशा से भर देता है | मानव मन की इस गुत्थी को समझने के लिए आप को मन कड़ा कर के अपनी सफलता व् खुशियों को अपनों के सच्चे स्नेह के एक लिटमस टेस्ट की तरह समझना चाहिए अच्छे समय में ही अपनों की सही पहचान होती है.दुःख के समय दुखी होने वाले ,सहानुभूति जताने वाले तो आसानी से मिल जाते हैं ,लेकिन आपके सुख से सुखी होने वाले,आपकी खुशिओ से खुश होने वाले बहुत मुश्किल से मिलते हैं और यही लोग आपके सच्चे हितैषी होते हैं. आपकी खुशियों में खुश होने वाले ही वास्तव में आप से निस्वार्थ प्रेम करते हैं जो दुःख –सुख में एक सामान हैं एक कहावत है कि हर पिता अपने बेटे से हारना चाहता है क्योंकि पिता का अपने पुत्र के प्रति निस्वार्थ प्रेम होता है |जो वास्तव में सच्चा प्रेम रखते हैं वह हर सफलता व् ख़ुशी में ख़ुशी व् संतोष का अनुभव करते हैं ,और लिटमस परीक्षा में पास हो जाते हैं |जो निकट सम्बन्धी इस परिक्षण में पास नहीं हो पाते उनके लिए आप को समझ लेना चाहिए की वो केवल निराशा की अवस्था में सहानभूति दिखा कर हीरो बनना चाहते थे |ऐसे रिश्तों के खोने पर दुःख नहीं करना चाहिए अपितु ईश्वर का शुक्रिया अदा करना चाहिए कि आप को सफलता मिलने पर अपने निकट के रिश्तों के भावों के सही उद्देश्य की पहचान हो गयी तस्वीर का दूसरा रुख यह भी है कि सफलता के साथ बहुत से ऐसे लोग भी जुड़ जाते हैं,जिनका किसी न किसी तरह का स्वार्थ होता है , इस दशा में आपको अपने को अचानक से अकेलापन महसूस कर उन लोगों से भावनात्मक रिश्ते नहीं बना लेने चाहिए अन्यथा बार –बार पछताना पड़ता है|यह सही है कि रिश्ते दिल से बनते हैं पर अगर विवेक से काम लेंगे तो निराशा में नहीं डूबना पड़ेगा | अपने सफलता के पथ पर आगे बढे तो आप देखेंगे देर सवेर सिर्फ और सिर्फ वही साथ रह जाते हैं ,जो आपको सच्चे मन से चाहते थे और आपको सफल और खुश देंखना चाहते थे. जिनके लिए आपकी हँसी से मिलने वाली ख़ुशी बेशक़ीमती होती है,अनमोल सी लगती है. जो आपकी ख़ुशी में अपनी ख़ुशी देखते और तलाशते हैं,जिनके पास आपकी ख़ुशी को समेटने वाला मन और दामन होता है.जिनका प्यार, अपनापन, परवाह और मासूमियत अपने आप दस्तक देती है. कुछ लम्हों के लिए ठहरती है. बातें करती है. हाल-चाल पूछती है. ख़ामोशी से अपनी बात कहती है. सामने वाले को उसकी आवाज़ में सुनती है और अपनी राह चल देती है. वही आपके सच्चे हितैषी होते हैं.ये लोग दुःख में सहानुभूति जताने के आकांक्षी नहीं होते,क्योंकि ये वो लोग होते हैं,जो आपको दुखी देखना ही नहीं चाहते,बल्कि हर समय आपकी सफलता और आपके चेहरे पर खिली हुई मुस्कराहट की कामना करते हैं.ऐसे रिश्ते अनमोल होते हैं इन्हें हर हालत में बचा कर रखिये ओमकार मणि त्रिपाठी – प्रधान संपादक अटूट बंधन एवं सच का हौसला

क्‍या सिखाता है कमल का फूल?

कमल के फूल को योग और अध्‍यात्‍म में एक प्रतीक के रूप में देखा जाता है। योगिक शब्दावली में बोध व अवबोधन के अलग- अलग पहलुओं को हमेशा से कमल के तरह-तरह के फूलों से तुलना की गई है। शरीर के सात मूल चक्रों के लिए कमल के सात तरह के फूलों को प्रतीक चिह्न माना गया है। कमल के फूल को एक प्रतीक के रूप में इसलिए चुना गया है क्योंकि जहां कहीं कीचड़ और दलदल बहुत गाढ़ा होता है वहां कमल का फूल बहुत अच्छी तरह से खिल कर बड़ा होता है। जहां कहीं पानी गंदा हो और मल-कीचड़ से भरा हो, कमल वहीं पर सबसे बढ़िया उगता है। जीवन ऐसा ही है। आप दुनिया में कहीं भी जायें, और तो और अपने मन के अंदर भी, हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट भरा मिलेगा। अगर कोई कहे कि उसके अंदर मैल नहीं है तो फिर या तो उसने अपने अंदर नहीं झांका या फिर वह सच नहीं बोल रहा है, क्योंकि मन तो आपके वश में है ही नहीं। इसने वह सब-कुछ बटोर लिया है जो उसके रास्ते आया है। आपके पास यह विकल्प तो है कि आप इसका इस्तेमाल कैसे करें लेकिन यह विकल्प नहीं है कि आपका मन क्या बटोरे और क्या छोड़े। आपके मन में जमा हो रही चीजों को ले कर आपके पास कोई विकल्प नहीं है। आप बस यही तय कर सकते हैं कि आप किस तरह से अपने मन की जमापूंजी का इस्तेमाल करें। दुनिया में हर तरह की गंदगी और कूड़ा-करकट है और यह सारा मैल, यह सारा कूड़ा आपके मन में समाता ही रहता है। मल और कूड़ा-करकट देखने से कुछ लोगों को एलर्जी हो जाती है। उनको गंदगी और कूड़ा-करकट गवारा नहीं होता इसलिए वे खुद को इन सब चीजों से दूर ही रखते हैं। वे सिर्फ उन्हीं दो-तीन लोगों के साथ मिलते-जुलते, उठते-बैठते हैं, जिनको वे एकदम सही मानते हैं और बस यही लोग उनकी जिंदगी में रह जाते हैं। आज दुनिया में बहुत लोग ऐसा कर रहे हैं क्योंकि उनको सारी गंदी, सारी निरर्थक चीजों से एलर्जी है। वे एक कोठरी में बंद जिंदगी-सी जी रहे हैं। कुछ दूसरे तरह के लोग ऐसे हैं जो सोचते हैं कि “दुनिया मल-दलदल और कूड़े-करकट से भरी-पटी है तो चलो मैं भी इस कीचड़ का ही हिस्सा बन जाता हूं” और फिर वे भी उसी दलदल में मिल जाते हैं। लेकिन एक और भी संभावना है और वह यह कि आप इस कूड़े-करकट और मल-दलदल को खाद की तरह इस्तेमाल करें और खुद को एक कमल के फूल की तरह खिलायें। कमल के फूल ने इस मल, गंदगी और कूड़े-करकट को किस तरह एक सुंदर और सुगंधित फूल में रूपांतरित कर दिया है! आपको एक कमल के फूल की तरह बनना होगा और गंदे हालात से अनछुए बाहर निकल कर कमल के फूल की तरह खिलना होगा। गंदे-से-गंदे हालात में होने के बावजूद आपको अपनी खूबसूरती और खुशबू बरकरार रखने के काबिल बनना होगा। अगर किसी के पास ऐसी कला है तो वह अपने जीवन-दुख के दलदल में बिना डुबे, उससे बिल्‍कुल अछूता उपर-उपर निकल जाएगा और जो व्यक्ति इस काबिलियत को पहचान कर उसको नहीं तराशता उसको यह जिंदगी जाने कितने तरीकों से तोड़-मरोड़ कर खत्म कर देती है। हर इंसान के अंदर कमल के फूल की तरह खिलने और जीने की काबिलियत होती है। ओमकार मणि त्रिपाठी 

बिना गुनाह की सजा भुगत रहे हैं शिक्षा मित्र

उत्तर प्रदेश में सहायक शिक्षक के रूप में समायोजित किये गए शिक्षामित्रो को एक साथ कई समस्याओं का सामना करना पड़ रहा है.जहाँ एक ओर प्रदेश में 1.35 लाख सहायक अध्यापक बने शिक्षामित्रो का समायोजन हाईकोर्ट ने रद्द कर दिया है,वहीँ प्रदेश सरकार ने अब उनके वेतन पर भी रोक लगा दी है.वेतन पर रोक लगने से शिक्षामित्रो के त्यौहार फीके हो गए हैं.जहाँ अन्य लोग दीपपर्व की तैयारियां कर रहे हैं,वंही शिक्षामित्र इस बात को लेकर असमंजस में हैं कि उनकी नौकरी रहेगी या जाएगी.एनसीईटी से कुछ राहत मिलने की खबरे जरूर आयी हैं,लेकिन जब तक कोई ठोस निर्णय न हो जाये,तब तक शिक्षामित्र दुविधा में ही रहेंगे. बात सिर्फ समायोजन रद्द होने या वेतन रोके जाने तक ही सीमित नहीं है,शिक्षामित्रो को बिना किसी गुनाह के जगहंसाई का भी सामना करना पड़ रहा है.कुछ स्कूलों में प्रधानाध्यापक शिक्षामित्रो पर कटाक्ष कर रहे हैं और उपस्थिति रजिस्टर में हस्ताक्षर कराने को लेकर आगे-पीछे हो रहे हैं.इसके अलावा शिक्षामित्रो को घर-परिवार और समाज की भी फब्तियां सुनने पड़ रही हैं. कई ऐसे भी शिक्षामित्र हैं,जिन्होंने सहायक अध्यापक बनने की उम्मीद में नौकरी और रोजगार के कई दूसरे अच्छे-अच्छे मौके छोड़ दिए और काफी मशक्कत के बाद सहायक अध्यापक बनने के बाद एक बार फिर मायूसी का सामना करना पड़ा. वेतन रोकने का आदेश आने के बाद से हजारों शिक्षामित्र आर्थिक संकट से जूझ रहे हैं.यही वजह है कि प्रदेश और केंद्र सरकार के ढुलमूल रवैये को लेकर शिक्षामित्रो में काफी रोष व्याप्त है.ज्यादातर शिक्षामित्र हर दिन अपने पक्ष में किसी अनुकूल खबर का इंतज़ार करते हैं और कोई राहत की खबर न मिलने से फिर मायूस होकर अगले दिन का इंतज़ार करते हैं.मुश्किल यह है कि सरकार ने आधिकारिक रूप से अभी तक यह भी स्पष्ट नहीं किया है कि वे अपने-अपने विद्यालय जाएँ या न जाएँ और जाएँ तो किस हैसियत से जाएँ.उल्लेखनीय है कि तकनीकी तौर पर समायोजित शिक्षामित्र इस समय न तो सहायक अध्यापक,क्योंकि सहायक अध्यापक बनते ही उनका शिक्षामित्र पद समाप्त हो गया था. कुल मिलकर शिक्षामित्र बिना किसी गलती के सजा भुगत रहे हैं.उन्हें सहायक अध्यापक के रूप में समायोजित करने का निर्णय प्रदेश सरकार ने लिया था और यदि प्रदेश सरकार ने अपने अधिकारों का उल्लघन किया है,तो इसमें शिक्षामित्रो का क्या दोष है.प्रकाशपर्व दीपावली के पहले यदि 1.35 लाख शिक्षामित्रो को इस तरह की दुविधा का सामना करना पड़ रहा है,तो निश्चित रूप से उसके लिए सरकारें जिम्मेदार हैं.हाईकोर्ट का फैसला आने के बाद प्रदेश सरकार को इस मामले को लेकर जिस तरह की तत्परता दिखानी चाहिए थी,वह उसने नहीं दिखाई.उधर एनसीईटी भी आधिकारिक रूप से अपना पक्ष घोषित करने में विलम्ब कर रहा है.यदि उसे किसी भी तरह की राहत देनी है,तो जल्द ही उसकी सार्वजानिक रूप से घोषणा की जानी चाहिए.कुल मिलकर दोनों सरकारों और सम्बंधित विभागों को शिक्षामित्रो की वेदना को गंभीरता से लेना चाहिए और जल्द से जल्द अपना रूख साफ करना चाहिए,जिससे शिक्षामित्रो के मन से संशय दूर हो सकें. ओमकार मणि त्रिपाठी 

कहाँ हो -मै बैंक /डाक घर में हूँ

संजय वर्मा ‘दृष्टि ‘ पुराने 500 व  1000  की करेंसी नोट लीगल टेंडर नहीं होने के बाद  नए 500 व् 2000 के करेंसी नोट के चलन से भ्रष्टाचार  ,नकली करेंसी रोकनेआदि हेतु कारगार साबित होगा  किन्तु कुछ व्यवहारिक परेशानी का सामना आम लोगो से लेकर खास लोगो  करना पड रहा है । धीरे धीरे इसका भी कुछ न कुछ समाधान अवश्य निकलेगा ही । टीवी पर करेंसी नोट बदलवाने व् पुराने करेंसी नोट बदलवाने की खबरे प्रसारित हो रही और  फेसबुक -वाट्सअप पर इसके त्वरित समाचार के लिए  और समाधान हेतु घर परिवार की नजरें ताजे समाचारों हेतु मानों पलक पावड़े लिए बैठी हुई है । तभी घर के अंदर से पति महोदय को पत्नी ने आवाज लगाई -नहा  कर बाजार से सब्जी -भाजी ले आओ किन्तु पति महोदय को लगा फेस बुक का चस्का । वे फेस बुक के महासागर में तैरते हुए मदमस्त हुए जा रहे । बच्चे पापा से स्कूल ले जाने की जिद कर रहे थे  की स्कूल  में देर हो जाएगी । काम की सब तरफ से पुकार हो रही मगर जवाब बस एक मिनिट । नाइस ,वेरी नाइस की कला में माहिर हो गए थे । मित्र की संख्या में हजारों  इजाफा से वे मन ही मन खुश थे किन्तु पडोसी को चाय का नहीं पूछते इसका यह भी कारण हो सकता उन्हें फुर्सत नहीं हो । दोस्तों में काफी ज्ञानी हो गए थे । मित्र भी सोचने लगे कि यार ये इतना ज्ञान कहा से लाया इससे पहले तो ये हमारे साथ दिन भर रहता और हमारी देखी  हुई फिल्म की बातें समीक्षा के रूप में सुनता रहता था । एक दिन मोहल्ले वाले मित्रों ने सोचा इनके घर चल कर के पता किया जाए ठण्ड में गरमागरम चाय भी मिल जायगी । मित्रों ने घर के बाहर लगी घंटी  दो चार बार बजाई । अंदर से आवाज आई जरा देखना कौन आया है ।  उन्हें उठ कर  देखने की  भी फुरसत नहीं मिल रहे थी । दोस्तों ने कहा यार आज कल दिखता ही नहीं क्या बात है । हमने सोचा कही बीमार तो नहीं हो गया हो इसलिए खबर लेने और करेंसी 500 ओर 1000 रूपये बंद होने और नए 500 व् 2000 की नै करेंसी नोट आगये की खबर देने भी  आये है ।पता नहीं दिख नहीं रहा तो शायद खबर मालूम न हो । घर में देखा तो भाभीजी वाट्सअप में अपने रिश्तेदारों को त्योहारों की फोटो सेंड करने में सर झुकाये तल्लीन और कुछ बच्चे भी इसी मे लगे थे । अब ऐसा लग रहा था की फेसबुक और वाट्सअप में जैसे मुकाबला हो रहा हो । घर के काम का समय मानो विलुप्तता की कगार पर जा खड़ा हुआ हो । सब जगह चार्जर लटक रहे थे । मोबाइल यदि कही भूल से रख दिया और नहीं मिला तो ऐसा लगता जैसे कोई अपना लापता हो गया हो और दिमाग में चिड़चिड़ापन ,हिदायते ,उभर कर आना  मानों रोज की आदत बन गई हो । चार्जिग करने के लिए घर में ही होड़ होने लगी । बैटरी लो होजाने   से सब एकदूसरे को सबुत पेश करने लगे । वाकई इलेक्ट्रॉनिक युग में प्रगति हुई किन्तु लोग रिश्तों और दिनचर्या में कम ध्यान देकर अधिक समय और सम्मान  फेस बुक और वाट्सअप और मोबाइल पर केंद्रित करने लगे है । उधर 500 और 1000 हजार की करेंसी बदलवाने की चिंता और नए मिलने वाले नोटों का इंतजार जिससे घर के रुके काम सुचारू रूप से गति पकड़ले । गांव -शहर में करेंसी  बदलवाने को ले जाते हुजूम से बैंक और डाकघर चर्चित हुए वही कोई परिचित किसी से पूछे की आप कहा हो। वो एक ही पता बता रहा है मै बैंक /डाक घर में हूँ ।  संजय वर्मा “दॄष्टि “ मनावर ( धार)  Attachments area