सोनम , आयशा या एरिका – आखिर महिलाओं की सरेआम बेईज्ज़ती को कब तक मजाक समझते रहेंगे हम

वंदना बाजपेयी अभी कुछ दिन पहले जब सोशल मीडिया देश नोट बंदी जैसे गंभीर मुद्दे पर उलझा हुआ था | हर चौथी पोस्ट इसके समर्थन या विरोध से जुडी थी कुछ नोट बंदी के कारण भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन में लगे थे | नए नोटों की किल्लत थी | और लंबी कतारों से जूझते हुए लोगों को अपना ही कैश मिल रहा था | नए नवेले २००० के नोट तो सब लोगों को दिखे ही नहीं थे | तभी एक सिरफिरे ने नए – नए दो हज़ार के नोट पर लिख दिया ” सोनम गुप्ता बेवफा है ” | देखते ही देखते ये पोस्ट वायरल हो गयी |सोनम गुप्ता नेशनल हास्य का विषय बन गयी | नोट बंदी के गहन विवेचन में व्यसत लोग अचानक एक्टिव हो गए , ठीक वैसे ही जैसे मस्ताजी के क्लास छोड़ते ही बच्चे शोरगुल में व्यस्त हो जाते हैं | पर क्या बड़ों की इस बचकाना हरकत की बच्चों की मासूमियत से तुलना की जा सकती है | वो भी तब जब मुद्दा महिलाओं के सम्मान से जुडा हो | इस पोस्ट के वायरल होते ही इतिहास खंगाले जाने लगे | की सबसे पहले किसी ने १० के नोट पर “सोनम गुप्ता बेवफा है “लिखा था | फिर अन्य नोटों पर भी यही लिखा जाने लगा | हालांकि किसी को नहीं पता की ये सोनम गुप्ता कौन है | फिर भी लोग लगे मजाक उड़ाने | कई वेबसाईट ने तो उसकी पूरी कहानी छाप दी | जाहिर है वो मनगढ़ंत थी | किसी ने बताया की सोनम गुप्ता की क्या मजबूरी थी की वो बेवफा हो गयी | तो किसी ने सोनम गुप्ता की बफवाफी को सही ठहराते हुए सोनम का बचाव किया |तो कोई येन केन प्रकारें सोनम गुप्ता को बेवफा सिद्ध करने में जुट गया |सोनम गुप्ता एक ऐसा नाम है जो रातों रात सबकी जुबान पर चढ़ गया | एक सॉफ्ट ड्रिंक कम्पनी ने तो यहाँ तक घोषणा कर दी की कोई महिला जिसका नाम सोनम गुप्ता है उनके आउटलेट पर आये तो वो उसे फ्री कोल्ड ड्रिंक पिलायेंगे |जो भी हो सोनम गुप्ता एक ऐसा प्रसिद्द नाम बन गयी | जिसे कोई नहीं जानता पर जिसे सब जानते हैं | हंसी मजाक के बीच कभी सोंचा है की क्या ये उन महिलाओं के लिए पीड़ा दायक नहीं है जिनका वास्तव में नाम सोनम गुप्ता है | जब कोई मित्र परिचित उन्हें सोनम गुप्ता कह कर भीड़ में पुकारता होगा तो सभी सर उस और मुद जाते होंगे | या कोई अजनबी उनका नाम पूंछता तो उसके चरे पर एक शरारती मुस्कान आ जाती होगी | हंसी मजाक के बच्च सोनम गुप्ता पर क्या गुज़रती होगी इसकी किसे परवाह है | बात सिर्फ सोनम गुप्ता तक ही सीमित नहीं है | महिलाओ पर ही ज्यादातर चुटकुले बनते हैं | उनमें पत्नी व्अ प्रेमिकाओं पर बन्ने वाले चुटकुले सबसे ज्यादा हैं | प्रेमिकाओं को तो बात – बात पर बेवकूफ व् पत्नियों को अत्याचारी और पति की संपत्ति से प्यार करने वाली दर्शाना आम बात है | अगर आप हास्य के धारावाहिक देखे तो उसमें भी ज्यादातर पुरुष महिला बन कर स्त्री शरीर का मजाक उड़ाते हुए फूहड़ हास्य पैदा करते हैं | स्त्री का शरीर अपमान का विषय बन जाता है | कभी चूड़ियाँ पहन रखी हैं क्या ? कह कर महिला को अक्षम व् कमतर करार दे दिया जाता है |अभी कुछ समय पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें एक खास डियो के महक से स्त्री पुरुष की दीवानी हो जाती है | मजे की बात यह है की उस स्त्री को शिक्षित दिखया गया है |तो क्या शिक्षित स्त्री इतनी मूर्ख होती है की वो पुरुष के गुणों को परखने की जगह उसके डीयो पर मर मिटती है | पुरुषों के विज्ञापनों में महिलाओं का ज्यादातर इसी रूप में इस्तेमाल होता है | क्या ये शर्मनाक नहीं है | ये सब सोनम गुट बेवफा है के आगे की कड़ियाँ ही हैं | मेरी एक मित्र ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से प्रश्न किया था की हमेशा मुन्नी बदनाम , शीला जवान या सोनम गुप्ता बेवफा क्यों हो जाती है | क्यों ऐसा नहीं होता की पप्पू जवान , रमेश बदनाम या सुरेश बेवफा हो जाए | शायद ऐसा कभी नहीं होगा | क्योकि पुरुषों को तो हम वैसा मान कर उन्हें क्लीन चित दिए रहते हैं परन्तु स्त्री के लिए ये शब्द आज भी अपमान का विषय बने हुए हैं | युग बदले परन्तु सीता और अग्नि परीक्षा से स्त्री का रिश्ता वही का वही रहा | पुरुषों को हर बात के लिए बैजात बरी कर के स्त्रियों को उसी कटघरे में खड़ा कर आरोप लगाना मज़ाक का नहीं बहस का मुद्दा होना चाहिए | जहाँ तक नोट पर लिखने का सवाल है उसे तो रिजर्व बैंक ने प्रतिबंधित कर दिया है | नए आदेश के अनुसार अब लिखे हुए नोट स्वीकार नहीं किये जायेंगे | उसने लोगों को आगाह भी किया है की आप लिखे हुए नोट न स्वीकारे | इस आदेश के बाद भविष्य में सोनम गुप्ता अपमानित होने से बच जायेगी |पर क्या सामाजिक रूपसे हम सोनम , आयशा या एरिका को अपमानित करने की आदत से मुक्त हो पायेंगे | लाख टेक का सवाल अब भी वहीं है की महिलाओं की सरेआम बेज्जती को कब तक मजाक समझते रहेंगे हम ?

हमारी ब्रा के स्ट्रैप को देखकर तुम्हारी नसें क्यों तन जाती हैं ” भाई “

अरे! तुमने ब्रा ऐसे ही खुले में सूखने को डाल दी?’ तौलिये से ढंको इसे। ऐसा एक मां अपनी 13-14 साल की बेटी को उलाहने के अंदाज में कहती है। ‘तुम्हारी ब्रा का स्ट्रैप दिख रहा है’, कहते हुए एक लड़की अपनी सहेली के कुर्ते को आगे खींचकर ब्रा का स्ट्रैप ढंक देती है। ‘सुनो! किसी को बताना मत कि तुम्हें पीरियड्स शुरू हो गए हैं।’ ‘ढंग से दुपट्टा लो, इसे गले में क्यों लपेट रखा है?’ ‘लड़की की फोटो साड़ी में भेजिएगा।‘ ‘हमें अपने बेटे के लिए सुशील, गोरी, खूबसूरत, पढ़ी-लिखी, घरेलू लड़की चाहिए।‘ ‘नकद कितना देंगे? बारातियों के स्वागत में कोई कमी नहीं होनी चाहिए।‘ ‘दिन भर घर में रहती हो। काम क्या करती हो तुम? बाहर जाकर कमाना पड़े तो पता चले।‘ ‘मैं नौकरी कर रहा हूं ना, तुम्हें बाहर खटने की क्या जरूरत? अच्छा, चलो ठीक है, घर में ब्यूटी पार्लर खोल लेना।‘ ‘बाहर काम करने का यह मतलब तो नहीं कि तुम घर की जिम्मेदारियां भूल जाओ। औरत होने का मतलब समझती हो तुम?’ ‘जी, मैं अंकिता मिश्रा हूं। शादी से पहले अंकिता त्रिपाठी थी। यह है मेरा बेटा रजत मिश्रा।‘ ‘तुम थकी हुई हो तो मैं क्या करूं? मैं सेक्स नहीं करूंगा क्या?’ ‘कैसी बीवी हो तुम? अपने पति को खुश नहीं कर पा रही हो? बिस्तर में भी मेरी ही चलेगी।’ ‘तुम्हें ब्लीडिंग क्यों नहीं हुई? वरजिन नहीं हो तुम?’ ‘तुम बिस्तर में इतनी कंफर्टेबल कैसे हो? इससे पहले कितनों के साथ सोई हो?’ ‘तुम क्यों प्रपोज करोगी उसे? लड़का है उसे फर्स्ट मूव लेने दो। तुम पहल करोगी तो तुम्हारी इमेज खराब होगी।‘ ‘नहीं-नहीं, लड़की की तो शादी करनी है। हां, पढ़ाई में अच्छी है तो क्या करें, शादी के लिए पैसे जुटाना ज्यादा जरूरी है। बेटे को बाहर भेजेंगे, थोड़ा शैतान है लेकिन सुधर जाएगा।’ ‘इतनी रात को बॉयफ्रेंड के साथ घूमेगी तो रेप नहीं होगा?’ ‘इतनी छोटी ड्रेस पहनेगी तो रेप नहीं होगा।‘ ‘सिगरेट-शराब सब पीती है, समझ ही गए होंगे कैसी लड़की है।‘ ‘पहले जल्दी शादी हो जाती थी, इसलिए रेप नहीं होते थे।‘ ‘लड़के हैं, गलती हो जाती है।’ ‘फेमिनिजम के नाम पर अश्लीलता फैला रखी है। 10 लोगों के साथ सेक्स करना और बिकीनी पहनना ही महिला सशक्तीकरण है क्या?’ ‘मेट्रो में अगल कोच मिल तो गया भई! अब कितना सशक्तीकरण चाहिए?’ ‘क्रिस गेल ने तो अकेले सभी बोलर्स का ‘रेप’ कर दिया।’ लंबी लिस्ट हो गई ना? इरिटेट हो रहे हैं आप। सच कहूं तो मैं भी इरिटेट हो चुकी हूं यह सुनकर कि मैं ‘देश की बेटी’, ‘घर की इज्जत’, ‘मां’ और ‘देवी’ हूं। नहीं हूं मैं ये सब। मैं इंसान हूं आपकी तरह। मेरे शरीर के कुछ अंग आपसे अलग हैं इसलिए मैं औरत हूं। बस, इससे ज्यादा और कुछ नहीं। सैनिटरी नैपकिन देखकर शर्म आती है आपको? इतने शर्मीले होते आप तो इतने यौन हमले क्यों होते हम पर? ओह! ब्रा और पैंटी देखकर भी शर्मा जाते हैं आप या इन्हें देखकर आपकी सेक्शुअल डिजायर्स जग जाती हैं, आप बेकाबू हो जाते हैं और रेप कर देते हैं। अच्छा, मेरी टांगें देखकर आप बेकाबू हो गए। आप उस बच्ची के नन्हे-नन्हे पैर देखकर भी बेकाबू हो गए। उस बुजुर्ग महिला के लड़खड़ाकर चलते हुए पैरों ने भी आपको बेकाबू कर दिया। अब इसमें भला आपकी क्या गलती! कोई ऐसे अंग-प्रदर्शन करेगा तो आपका बेकाबू होना लाजमी है। यह बात और है कि आपको बनियान और लुंगी में घूमते देख महिलाएं बेकाबू नहीं होतीं। लेकिन आप तो कह रहे थे कि स्त्री की कामेच्छा किसी से तृप्त ही नहीं हो सकती? वैसे कामेच्छा होने में और अपनी कामेच्छा को किसी पर जबरन थोपने में अंतर तो समझते होंगे आप? मेरे कुछ साथी महिलाओं द्वारा आजादी की मांग को लेकर काफी ‘चिंतित’ नजर आ रहे हैं। उन्हें लगता है कि महिलाएं ‘स्वतंत्रता’ और ‘स्वच्छंदता’ में अंतर नहीं कर पा रही हैं। उन्हें डर है कि महिलाएं पुरुष बनने की कोशिश कर रही हैं और इससे परिवार टूट रहे हैं, ‘भारतीय अस्मिता’ नष्ट हो रही है। वे कहते हैं कि नारीवाद की जरूरतमंद औरतों से कोई वास्ता ही नहीं है। वे कहते हैं सीता और द्रौपदी को आदर्श बनाइए। कौन सा आदर्श ग्रहण करें हम सीता और द्रौपदी से? या फिर अहिल्या से? छल इंद्र करें और पत्थर अहिल्या बने, फिर वापस अपना शरीर पाने के लिए राम के पैरों के धूल की बाट जोहे। कोई मुझे किडनैप करके के ले जाए और फिर मेरा पति यह जांच करे कि कहीं मैं ‘अपवित्र’ तो नहीं हो गई। और फिर वही पति मुझे प्रेग्नेंसी की हाल में जंगल में छोड़ आए, फिर भी मैं उसे पूजती रहूं। या फिर मैं पांच पतियों की बीवी बनूं। एक-एक साल तक उनके साथ रहूं और फिर हर साल अपनी वर्जिनिटी ‘रिन्यू’ कराती रहूं ताकि मेरे पति खुश रहें। यही आदर्श सिखाना चाहते हैं आप हमें? चलिए अब कपड़ों की बात करते हैं। आप एक स्टैंडर्ड ‘ऐंटी रेप ड्रेस’ तय कर दीजिए लेकिन आपको सुनिश्चित करना होगा कि फिर हम पर यौन हमले नहीं होंगे। बुरा लग रहा होगा आपको? मैं पुरुषों को जनरलाइज कर रही हूं। हर पुरुष ऐसा नहीं होता। बिल्कुल ठीक कहा आपने। जब आप सब एक जैसे नहीं हैं तो हमें एक ढांचे में ढालने की कोशिश क्यों करते हैं? आपके हिसाब से दो तरह की लड़कियां होती हैं, एक वे जो रिचार्ज के लिए लड़कों का ‘इस्तेमाल’ करती हैं और एक वे जो ‘स्त्रियोचित’ गुणों से भरपूर होती हैं यानी सीता, द्रौपदी टाइप। बीच का तो कोई शेड ही नहीं है, है ना? च बताइए, आप डरते हैं ना औरतों को इस तरह बेफिक्र होकर जीते देखकर? आप बर्दाश्त नहीं कर पाते ना कि कोई महिला बिस्तर में अपनी शर्तें कैसे रख सकती है? आपका इगो हर्ट होता है जब महिला खुद को आपसे कमतर नहीं समझती। फिर आप उसे सौम्यता और मातृत्व जैसे गुणों का हवाला देकर बेवकूफ बनाने की कोशिश करने लगते हैं। सौम्यता और मातृत्व बेशक श्रेष्ठ गुण में आते हैं। तो आप भी इन्हें अपनाइए ना जनाब, क्यों अकेले महिलाओं पर इसे थोपना चाहते हैं? क्या कहा? मर्द को दर्द नहीं होता? कम ऑन। आप जैसे लोग ही किसी सरल और कोमल स्वभाव वाले … Read more

कुछ हाइकू…….पृथ्वी दिवस पर

(1) धरा दिवस       लगें वृक्ष असंख्य       करें प्रतिज्ञा। (२) माता धरती       करें चिंता इसकी       शिशु समान। (3) कहे समय       रहेगी न धरती       करोगे क्या? (4) हम निर्दयी       न सोचे ये धरती       हो कुछ ऐसा। (5) रक्षक बनें       बची रहे धरती       फैले संदेश। (6) बरसें मेघ       नदियाँ रहैं भरी       पोसें धरा। (7) धरा पुकारे       बचे अस्तित्व मेरा       खोजें उपाय। (8) संकल्प ठने       पॉलिथीन मुक्त हो       अपनी धरा। (9) सम्मान करें       धरा से मिले प्राण       उसे लौटाएँ। (10) धरा दिवस         मनाएँ रोज सब         निखरे धरा। (11) कचरा कम          बने जैविक खाद          उर्वर धरा। (12) ढूँढे तरीके         रिसाइकिल करें         निज वस्तुएँ। (13) मिलें संस्कार         सेवा भाव घर से         हंसेंगी धरा। (14) मांगे प्यार         धूल धूसरित धरा         बुलाए हमें। (15) नर्तन करे         हरी भरी धरती         सँवारे सभी। —————————— कॉपीराइट@डॉ.भारती वर्मा बौड़ाई

आज गंगा स्नान की नहीं गंगा को स्नान कराने की आवश्यकता है

  गंगा एक शब्द नहीं जीवन है , माँ है , ममता है | गंगा शब्द से ही मन असीम श्रद्धा से भर जाता है | परन्तु क्या सिर्फ श्रद्धा करन ही काफी है या हमारा माँ गंगा के प्रति कुछ कर्तव्य भी है |बरसों पहले एक फ़िल्मी गीत आज  भी प्रासंगिक है ” मानों तो मैं गंगा माँ हूँ , न मानों तो बहता पानी “ | जिस गंगा को हम पूजते आये हैं , क्या उसे माँ मानते हैं या हमने उसे बहता पानी ही मान लिया है | और उसे माँ गंगे से गंदे नाले मेंपरिवार्तित करने में लगे हुए हैं |   गंगा … पतित पावनी गंगा … विष्णु के कमंडल से निकली  , शिव जी की जटाओ में समाते हुए  भागीरथ प्रयास के द्वारा धरती पर उतरी | गगा  शब्द कहते ही हम भारतीयों को ममता का एक गहरा अहसास होता है | और क्यों न हो माँ की तरह हम भारतवासियों को पालती जो रही है गंगा  | मैं उन भाग्यशाली लोगों में हूँ जिनका बचपन गंगा  के तट पर बसे शहरों में बीता | अपने बचपन के बारे में जब भी कुछ सोचती हूँ तो कानपुर में बहती गंगा और बिठूर याद आ जाता है | छोटे बड़े हर आयोजन में बिठूर जाने की पारिवारिक परंपरा रही है | हम उत्साह से जाते | कल -कल बहती धारा के अप्रतिम सौंदर्य को पुन : पुन : देखने की इच्छा तो थी ही , साथ ही बड़ों द्वरा अवचेतन मन पर अंकित किया हुआ किसी अज्ञात पुन्य को पाने का लोभ भी था | जाने कितनी स्मृतियाँ मानस  पटल पर अंकित हैं पर निर्मल पावन गंगा प्रदूषण का दंश भी झेल रही है | इसका अहसास जब हुआ तब उम्र में समझदारी नहीं थी पर मासूम मन इतना तो समझता ही था की  माँ कह कर माँ को अपमानित करना एक निकृष्ट काम है |   ऐसा ही एक समय था जब बड़ी बुआ हम बच्चों को अंजुरी में गंगा जल भर कर आचमन करना सिखा रही थी | बुआ ने जैसे ही अंजुरी में गंगा जल भरा , समीप में स्नान कर रहे व्यक्ति का थूकी हुई पान की पीक  उनके हाथों में आ गयी  | हम सब थोडा पीछे हट गए | थूकने वाले सज्जन उतनी ही सहजता से जय गंगा मैया का उच्चारण भी करते जा रहे थे | माँ भी कहना और थूकना भी , हम बच्चों के लिए ये रिश्तों की एक अजीब ही परिभाषा थी | यह विरोधाभासी परिभाषा बड़े होने तक मानस पटल पर और भी प्रश्न चिन्ह बनाती गयी | हमारे पूर्वजों नें गंगा को मैया कहना शायद इसलिए सिखाया होगा की हम उसके महत्व को समझ सकें | और उसी प्रकार उसकी सुरक्षा का ध्यान दें जैसे अपनी माँ का देते हैं | गंगा के अमृत सामान जल का ज्यादा से ज्यादा लाभ उठा सके इस लिए पुन्य लाभ से जोड़ा गया | पर हम पुन्य पाने की लालसा में कितने पाप कर गए | फूल , पत्ती , धूप दीप , तो छोड़ो , मल मूत्र , कारखानों के अवशिष्ट पदार्थ , सब कुछ बिना ये सोचे मिलाते गए की माँ के स्वास्थ्य पर ही कोख में पल रहे बच्चों का भविष्य टिका है | इस लापरवाही का ही नतीजा है की आज गंगा इतनी दूषित व प्रदूषित हो चुकी है कि पीना तो दूर, इस पानी से नियमित नहाने पर लोगों को कैंसर जैसी बीमारियां होने का खतरा बढ़ गया है। गंगाजल में ई-कोलाई जैसे कई घातक बैक्टीरिया पैदा हो रहे हैं, जिनका नाश करना असंभव हो गया है। इसी तरह गंगा में हर रोज 19,65,900 किलोग्राम प्रदूषित पदार्थ छोड़े जाते हैं। इनमें से 10,900 किलोग्राम उत्तर प्रदेश से छोड़े जाते हैं। कानपुर शहर के 345 कारखानों और 10 सूती कपड़ा उद्योगों से जल प्रवाह में घातक केमिकल छोड़े जा रहे हैं। 1400 मिलियन लीटर प्रदूषित पानी और 2000 मिलियन लीटर औद्योगिक दूषित जल हर रोज गंगा के प्रवाह में छोड़ा जाता है। कानपुर सहित इलाहाबाद, वाराणसी जैसे शहरों के औद्योगिक कचरे और सीवर की गंदगी गंगा में सीधे डाल देने से इसका पानी पीने, नहाने तथा सिंचाई के लिए इस्तेमाल योग्य नहीं रह गया है। गंगा में घातक रसायन और धातुओं का स्तर तयशुदा सीमा से काफी अधिक पाया गया है। गंगा में हर साल 3000 से अधिक मानव शव और 6000 से अधिक जानवरों के शव बहाए जाते हैं।इसी तरह 35000 से अधिक मूर्तियां हर साल विसर्जित की जाती हैं। धार्मिक महत्व के चलते कुंभ-मेला, आस्था विसर्जन आदि कर्मकांडों के कारण गंगा नदी बड़ी मात्रा में प्रदूषित हो चुकी है। स्तिथि इतनी विस्फोटक है की अगर व्यक्ति नदी किनारे सब्जी उगाए तो लोग प्रदूषित सब्जियां खाकर ज्यादा बीमार होंगे। इन आकड़ों को देने का अभिप्राय डराना नहीं सचेत करना है | यह सच है की गंगा की सफाई के अभियान में कई सरकारी योजनायें बनी हैं | अरबों रुपये खर्च हुए फिर भी स्थिति  वहीँ की वहीँ है | पर्यावरणीय मानकों के मुताबिक नदी जल के बायोकेमिकल ऑक्सीजन डिमाण्ड (B.O.D )का स्तर अधिकतम 3 मि.ली. ग्राम प्रति लीटर होना चाहिए। सफाई के तमाम दावों के बावजूद वाराणसी के डाउनस्ट्रीम (निचले छोर) पर बीओडी स्तर 16.3 मि.ग्रा. प्रति ली. के बेहद खतरनाक स्तर में पाया गया है। प्रदूषण नियंत्रण बोर्ड की रिपोर्ट दर्शाती है कि गंगा के प्रदूषण स्तर में कोई सुधार नहीं हुआ है। शायद सरकारी योजनायें कागजों पर ही बनती हैं | और उन कागजों में धन का बहाव गंगा के बहाव से भी ज्यादा तेज है | धन तो प्रबल वेग से बह जाता है | पर गंगा अपने आँचल में हमारे ही द्वारा डाली गयी गंदगी समेटे वहीँ की वहीँ रह जाती है | अब सवाल ये उठता है की क्या हम इन सरकारी योजनाओं के भरोसे ( जिनका निष्क्रिय स्वरूप हमने अपनी आँखों से देखा है ) अपनी माँ को छोड़ दें | या माँ को माँ कहना छोड़ दें ? बहुत हो गया पुन्य का लोभ , पीढ़ियाँ बीत गयी गंगा में स्नान करते – करते | अब जब गंगा को स्वयं स्नान की आवश्यकता है तो हम पीछे क्यों हटे | इस का हल … Read more

रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून

…   आज विश्व जल संरक्षण दिवस पर मुझे कवि रहीम का दोहा…….       रहिमन पानी राखिये, बिनु पानी सब सून।      पानी गए न उबरे, मोती, मानुस चून।। बरबस याद आ रहा है, क्योंकि अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में अध्यापिका के रूप में बिताये चौबीस वर्षों में जल के महत्त्व को मैंने बखूबी समझा और यही मूलमंत्र जीवन में पाया कि सोने-चांदी, हीरे-मोती से भी ज़्यादा महत्वपूर्ण और अमूल्य है जल। वहाँ की स्मृतियों में जब-तब मैं डूबती-उतराती रहती हूँ। आज विश्व जल संरक्षण दिवस पर उन स्मृतियों को साझा करने की मन में हिलोर उठी। लगा कि इन स्मृतियों को शब्दों में पिरोना चाहिए। अरुणाचल प्रदेश में हम जहाँ भी रहे वहाँ दूर-दूर हैंडपंप लगे होते थे। पहाड़ी जगहों में पानी के स्रोत पर पाइप लाइन फिट करके,पाइप बिछाते हुए जगह-जगह, पर दूर-दूर नल लगा दिए जाते थे। आप कितना भी पानी संग्रह करके रख लें, यदि मितव्ययिता व्यवहार में नहीं है, तो कम ही होता है। वर्षा के दिनों में पाइपों में मिट्टी-पत्ते भर जाते तो पानी का आवागमन अवरुद्ध हो जाता था। पर वहाँ पानी की समस्या से बखूबी परिचित होने के कारन बच्चे, गाँव वाले, शिक्षक सभी उसे ठीक करना अपना नैतिक कर्तव्य समझते थे और इसीलिए सरकारी कर्मचारी की प्रतीक्षा किए बिना जिसे भी पता चलता, वह तीन-चार को संग ले, अपने औजार-हथियारों सहित ठीक करने जा पहुँचते थे और ठीक करके ही लौटते थे। दूर से बाल्टियों में पानी लाना कठिन होता था, तो उसके लिए हमने सरसों-सफोला तेल के पांच लीटर  के प्लास्टिक कैन लेकर पानी लाना आरंभ किया, क्योंकि ढक्कन व पकड़ने की सुविधा होने के कारण उसमें पानी लाने में सुविधा होती थी। वहाँ सरकारी घरों में टीन की छत  थी, तो पति महोदय ने अपनी बुद्धि लगा कर, कनस्तरों को काट-काट कर, उन्हें जोड़ कर पतनाला जैसा बना कर पतले तारों से उसे टीन की छत पर लटकाया। वहाँ जब वर्षा होती तो कई-कई दिन तक होती थी। वर्षा होने पर हम बड़ा ड्रम रखते, उसमें पानी का संग्रह होता रहता। तब मैं विद्यालय और घर के कार्यों की सारी थकान भूल कर बर्तन-कपड़े धोने के कार्य में जुट जाती थी, क्योकि इंद्रदेव  की कृपा से पानी हमें घर के द्वार पर मिल रहा होता था। हमारी ऐसी व्यस्थाओं को देख कर कई शिक्षकों ने अपने घर में पतनाले लगवाए, तेल के प्लास्टिक कैन में पानी लाना   आरंभ किया और कई बार हमें बताया की ऐसी व्यवस्था करके उन्हें बहुत सुविधा हुई है।             पानी ले नल पर बाल्टियों की लंबी लाइन लगी रहती थी। कोई तेज़ बुद्धि वाला पीछे राखी अपनी बाल्टी आँख बचा कर पहले भर लेता तो घरों के अंदर खिड़की से लगातार ताक-घात लगाए महिलाएँ कुरुक्षेत्र के मैदान में महाभारत के लिए आगा-पीछा देखे बिना तुरंत कूद पड़ती थी। चिल्ल-पों, कच-कच, वाकयुद्ध और फिर कई दिनों तक बातचीत बंद। ऐसे में मेरा तो साहस ही नहीं होता था कि उस लंबी लाइन में मैं भी अपनी बाल्टी रखूँ। पति महोदय ने इसका भी उपाय सोचा। रात के ग्यारह बजे तक सब अपना कार्य करके सो चुके होते थे। वह दो सौ फ़ीट का प्लास्टिक पाइप खरीद कर लाए। उसे हम रात के बारह बजे नल पर लगाते और सुबह के तीन बजे तक पानी भरते। मैं लालच में रात को कपडे भी धो डालती।घर के सारे बर्तनों में, कोल्ड ड्रिंक की पचासों से भी ज़्यादा बोतलों में, बड़े ड्रम, बाल्टियाँ, भगोने…सबमें पानी भर कर रख लेती थी। फिर तीन-चार दिनों तक पानी भरने की ज़रूरत नहीं पड़ती थी।                एक दिन विद्यालय के स्टाफ रूम में बैठे शिक्षकों ने हमसे पूछा….बौड़ाई सर! आप कभी पानी भरते दिखाई नहीं देते, क्या बात है? खाना, नहाना, कपडे धोना होता भी है या नहीं? और जब हमारी व्यवस्था सुनी तो दाँतो तले ऊँगली दबा ली। अनुकरण तो उसका होना होना ही था, क्योंकि उसमें मानसिक शांति और आराम जो था।             एक उपाय हम और भी किया करते थे। रविवार को कपड़ों में साबुन लगा घर में रगड़ लेते, फिर उन्हें थैले में रख, कुछ खाने-पीने की चीजें संग लेकर दोनों बच्चों और एक-दो विद्यार्थियों को साथ लेकर नदी की तरफ चले जाते थे।वहाँ बहती नदी में कपड़ों का साबुन निकल कर वहीँ सुखाते, कहते-पीते,फ़ोटो खींचते….और इस तरह पिकनिक का आनंद लेकर घर लौटते। आप सच मानेंगे? कई शिक्षक बंधुओं ने इसका भी अनुसरण किया। देख कर अच्छा लगता है जब आपके किए किसी अच्छे कार्य का अनुकरण होता है।               पानी को और केवल पानी ही नहीं, बिजली, कागज़ आदि कोई भी चीज़ हो, उसे किफ़ायत से खर्च-उपयोग करना आज भी मेरी आदत में शुमार है। कई बार बच्चे कहते है कि अब आप अरुणाचल प्रदेश में नहीं, देहरादून में हो,अपने को बदलो।तो मेरा उत्तर यही होता है कि पानी का संरक्षा और सही उपयोग तो आज की सबसे बड़ी आवश्यकता है। पर्यावरण को सही रखने के लिए, प्रदुषण कम करने और प्राकृतिक संसाधन सुरक्षित रहे, इनका दोहन न हो…..तो इसके लिए हर व्यक्ति को अपनी लापरवाही की आदत बदलनी होगी।          इंटीरियर में रहने पर वहाँ समस्याओं से जूझते-दो-चार होते हुए सहायता-सहयोग करने की भवन स्वयमेव बन जाती है, क्योंकि सब समझते हैं कि यदि हम दुसरे के काम नहीं आएंगे तो अपनी समस्या के समय अकेले पड़ कर हम स्वयं कुछ नहीं कर पाएंगे। पर शहरी सभ्यता में लोगों ने सुविधाओं से संपन्न होने पर जो लबादा ओढ़ कर अपने को चारों ओर से बंद कर लिया है उसमे दूसरों के लिए तो जगह ही नहीं बचती। चिंता होती भी है तो केवल अपनी होती है। ऐसे में प्राकृतिक संसाधनों के संरक्षण की बात तो दूर ही हो जाती है। शहरी संस्कृति में महात्मा गांधी जी के गोल मेज सम्मलेन की तरह पढ़ा-लिखा बुद्धिजीवी वर्ग टी.वी. देखते हुए डाइनिंग टेबल कॉन्फ्रेंस तो कर सकता है,पर स्वयं बाहर निकल कर, मिल कर कार्य करने की बहुत कम सोचता है। हाँ, काम करते हुओं की खिल्ली जरूर आगे बढ़ कर उड़ा सकता है। आज कागजों पर अनगिन एन.जी. ओ कार्य कर रहे है, पर उनमें तन-मन और धन  से भी कार्य करने  वाले कुछ ही लोग प्राकृतिक संसाधनों के दोहन को रोकने और उनके संरक्षण के … Read more

अंतर्राष्ट्रीय गोरैया दिवस पर ……..’ओ री गौरैया ‘ .

. मेरी बचपन की प्यारी सखी गौरैया! तुम्हें पता है आज विश्व गोरैया दिवस है। इसे एक तरह से इसे मैं तुम्हारा जन्मदिवस ही मानती हूँ। सो मेरी प्यारी सखी!जन्मदिवस की बहुत बहुत शुभकामनाएँ। तुम्हें याद होगा, बचपन में माँ से आलू-प्याज रखने वाली टोकरी माँग कर ,पापा से उसमें सुतली बंधवाती थी । एक लकड़ी की सहायता से उसे खड़ा करते, उसके नीचे चावल के दाने बिखेर कर, मैं पापा के साथ सुतली पकड़ कर तुम्हारे इंतज़ार में छिप कर बैठ जाती थी। तुम आती और चावल खा कर फुर्र से उड़ जाती, और मैं देखने के चक्कर में सुतली खींचना ही भूल जाती थी। माँ अलग डाँटती कि खाना छोड़ कर चिड़िया के चक्कर में लगे हो। पर कभी कभी तुम मेरे झाँसे में आकर टोकरी में बंद हो जाती थी और मैं अपनी विजय पर फूली नहीं समाती थी। थोड़ी देर तुम्हें देखती, चावल के और दाने डालती, एक कटोरी में पानी रखती थी। फिर थोड़ी देर बाद टोकरी उठा कर तुम्हें उड़ा देती थी। न जाने कितनी बार हम-तुम इसी तरह बचपन में मिलते रहे।       अब तुम्हारा आना कम हो गया। हम मनुष्य अपने लिए ही सोचने वाले बन गए। कभी सोचा ही नहीं कि अपने लिए सुविधाएँ जुटाने के चक्कर में हम तुम्हारे लिए कितनी कठिनाइयाँ उत्पन्न कर रहे हैं।       पर मेरी सखी! अब तुम बिलकुल चिंता मत करो। अब सभी तुम्हारी चिंता करने लगे हैं। कई एन. जी.ओ. तुम्हारे संरक्षण के लिए  कार्य कर रहे हैं। कई घरों में लोगों ने तुम्हारे लिए घोंसले लगवाए है। अब गर्मियाँ आ रही हैं, तो लोगों ने अभी से मिट्टी के बर्तन में तुम्हारे लिए पानी रखना आरंभ कर दिया है, चावल के दाने, रोटी रखने लग गए हैं। आज तुम्हारा जन्मदिवस मान कर मेरे दोनों बच्चे भी मिट्टी का बर्तन लाने गए हैं,ताकि नए बर्तन में वे तुम्हारे लिए पानी भर कर रख सकें। इसी तरह सभी लोग अब तुम्हारी चिंता करके तुम्हारे संरक्षण के लिए सोचने और कार्य करने में लग गए हैं।           जैसे तुम मेरे बचपन की सखी हो हो, उसी तरह न जाने कितनों की तुम सखी होंगी। वे सब भी मेरी ही तरह बचपन की पुरानी स्मृतियों में तुम्हें देख रही होंगी। तुम हमारे आँगन आनाओ मत भूलना। आज की नई पीढ़ी ने अपने ढंग से तुम्हारे लिए सपने देखे हैं। उन्हें निराश न करना। तुम बिन आँगन सूना है, घर में लगे वृक्ष तुम्हारी राह देख रहे हैं। बताओ मेरी सखी गोरैया! कब आ रही हो हमारे घर। पानी का नया बर्तन तुम्हें बुला रहा है।       ……….आज विश्व गोरैया दिवस पर उसके संरक्षण के लिए हम सब कुछ न कुछ सार्थक सोचें और करें। डॉ भारती वर्मा बौड़ाई 

‘वैलेन्टाइन दिवस’ को मनाएं ‘पारिवारिक एकता दिवस’

                                                              (1) ‘वैलेन्टाइन दिवस’ के वास्तविक, पवित्र एवं शुद्ध भावना को समझने की आवश्यकताः- संसार को ‘परिवार बसाने’ एवं ‘पारिवारिक एकता’ का संदेश देने वाले महान संत वैलेन्टाइन के ‘मृत्यु दिवस’ को आज जिस ‘आधुनिक स्वरूप’ में भारतीय समाज में स्वागत किया जा रहा है, उससे हमारी भारतीय संस्कृति एवं सभ्यता प्रभावित हो रही है। संत वैलेन्टाइन ने तो युवा सैनिकों को विवाह करके परिवार बसाने एवं पारिवारिक एकता की प्रेरणा दी थी। इस कारण अविवाहित युवा पीढ़ी का अपने प्रेम का इजहार करने का ‘वैलेन्टाइन डे’ से कोई लेना-देना ही नहीं है। आज वैलेन्टाइन डे के नाम पर समाज पर बढ़ती हुई अनैतिकता ने हमारे समक्ष काफी असमंज्स्य तथा सामाजिक पतन की स्थिति पैदा कर रखी है। नैतिक मूल्यों की कमी के कारण आज लड़कियों तथा महिलाओं के विरूद्ध अपराध, छेड़छाड़, अश्लीलता, बलात्कार, हत्या आदि जैसी जघन्य घटनायें लगातार बढ़ती ही जा रहीं हैं। (2) विवाह के पवित्र बन्धन को ‘वैलेन्टाइन दिवस’ पूरी तरह से स्वीकारता एवं मान्यता देता है:- ‘वैलेन्टाइन डे’ का दिन हमें सन्देश देता है कि अविवाहित स्त्री-पुरूष के बीच किसी प्रकार का अनैतिक संबंध नहीं होना चाहिए। विवाह के पवित्र बन्धन को ‘वैलेन्टाइन डे’ पूरी तरह से स्वीकारता एवं मान्यता देता है। आज महान संत वैलेन्टाइन की मूल, पवित्र एवं शुद्ध भावना को भुला दिए जाने के कारण यह महान दिवस मात्र युवक-युवतियों के बीच रोमांस के विकृत स्वरूप में देखने को मिल रहा है। वैलेन्टाइन डे को मनाने के पीछे की जो कहानी प्रचलित है उसके अनुसार रोमन शासक क्लाडियस (द्वितीय) किसी भी तरह अपने राज्य का विस्तार करना चाहता था। इस लक्ष्य की पूर्ति के लिए वह संसार की सबसे ताकतवर सेना को बनाने के लिए जी-जान से जुटा था। राजा के मन में स्वार्थपूर्ण विचार आया कि विवाहित व्यक्ति अच्छे सैनिक नहीं बन सकते हैं। इस स्वार्थपूर्ण विचार के आधार पर राजा ने तुरन्त राजाज्ञा जारी करके अपने राज्य के सैनिकों के शादी करने पर पाबंदी लगा दी। (3) महान संत वैलेन्टाइन के प्रति सच्ची श्रद्धा प्रकट करने के लिए मनाया जाता था ‘वैलेन्टाइन दिवस’:- रोम के एक चर्च के पादरी महान संत वैलेन्टाइन को सैनिकों के शादी करने पर पाबंदी लगाने संबंधी राजा का यह कानून ईश्वरीय इच्छा के विरुद्ध प्रतीत हुआ। कुछ समय बाद उन्होंने महसूस किया कि युवा सैनिक विवाह के अभाव में अपनी शारीरिक इच्छा की पूर्ति गलत ढंग से कर रहे हैं। सैनिकों को गलत रास्ते पर जाने से रोकने के लिए पादरी वैलेन्टाइन ने रात्रि में चर्च खोलकर सैनिकों को विवाह करने के लिए प्रेरित किया। सम्राट को जब यह पता चला तो उसने पादरी वैलेन्टाइन को गिरफ्तार कर माफी मांगने के लिए कहा अन्यथा राजाज्ञा का उल्लघंन करने के लिए मृत्यु दण्ड देने की धमकी दी। सम्राट की धमकी के आगे संत वैलेन्टाइन नहीं झुके और उन्होंने प्रभु निर्मित समाज को बचाने के लिए मृत्यु दण्ड को स्वीकार कर लिया। संत वैलेन्टाइन की मृत्यु के बाद लोगों ने उनके त्याग एवं बलिदान को महसूस करते हुए प्रतिवर्ष 14 फरवरी को उनके ‘शहीद दिवस’ पर उनकी दिवंगत आत्मा की शान्ति के लिए प्रार्थनायें आयोजित करना प्रारम्भ कर दिया। इसलिए ऐसे महान संत के ‘शहीद दिवस’ पर खुशियां मनाकर उनकी भावनाओं का निरादर करना सही नहीं है। (4) वैलेन्टाइन डे को ‘आधुनिक’ तरीके से मनाना भावी पीढ़ी के प्रति अपराध:- ‘वैलेन्टाइन डे’ मनाने को तेजी से प्रोत्साहित करने के पीछे छिपी एकमात्र भावना धन कमाना अर्थात ‘वैलेन्टाइन डे’ कार्डो की ब्रिकी का एक बड़ा बाजार विकसित करना, फुहड़ डान्सों तथा मंहगे होटलों में डिनर के आयोजनों की प्रवृत्तियों को बढ़ाकर अनैतिक ढंग से अधिक से अधिक लाभ कमाने वाली शक्तियां इसके पीछे सक्रिय हैं। विज्ञापन के आज के युग में वैलेन्टाइन बाजार को भुनाने का अच्छा साधन माना जाता है। मल्टीनेशनल कंपनियां अपने उत्पादों को बेचने के लिए अपना बाजार बढ़ाना चाहती हैं और इसके लिए उन्हें युवाओं से बेहतर ग्राहक कहीं नहीं मिल सकता। अतः ‘वैलेन्टाइन डे’ आधुनिक तरीकांे से मनाने को प्रोत्साहित करना भावी पीढ़ी एवं मानवता के प्रति अपराध है। अन्तिम विश्लेषण यह साफ संकेत देते हैं कि ‘वैलेन्टाइन डे’ के आधुनिक स्वरूप का भारतीय समाज एवं छात्रों में किसी प्रकार का स्वागत नहीं होना चाहिए क्योंकि यह मात्र सस्ती प्रेम भावनाओं को प्रदर्शित करने की छूट कम उम्र में छात्रों को देकर उनकी अनैतिक वृत्ति को बढ़ावा देता है। (5) परिवार, स्कूल एवं समाज को ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित करें:- हम संत वैलेन्टाइन के इन विचारों का पूरी तरह से समर्थन करते हैं कि विवाह के बिना किसी स्त्री-पुरूष में अनैतिक संबंध होने से समाज में नैतिक मूल्यों में गिरावट आ जाएगी और समाज ही भ्रष्ट हो जाएगा। इस समस्या के समाधान का एक मात्र उपाय है, बच्चों को बचपन से ही भौतिक, सामाजिक, मानवीय तथा आध्यात्मिक सभी प्रकार की संतुलित शिक्षा देकर उनका सर्वागीण विकास किया जाए। किसी भी बच्चे के लिए उसका परिवार, स्कूल तथा समाज ये तीन ऐसी पाठशालायें हैं जिनसे ही बालक अपने सम्पूर्ण जीवन को जीने की कला सीखता है। इसलिए यह जरूरी है कि परिवार, स्कूल तथा समाज को ईश्वरीय प्रकाश से प्रकाशित किया जाये। एक स्वच्छ व स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए हमारा कर्तव्य है कि हम विश्व के बच्चों की सुरक्षा व शांति के लिए आवाज उठायें और पूरे विश्व के बच्चों तक संत वैलेन्टाइन के सही विचारों को पहुँचायें जिससे प्रत्येक बालक के हृदय में ईश्वर के प्रति, अपने माता-पिता के प्रति, भाई-बहनों के प्रति और समाज के प्रति भी पवित्र प्रेम की भावना बनी रहे। (6) परिवार, विद्यालय तथा समाज से मिली शिक्षा ही मनुष्य के चरित्र का निर्माण करती हैः- दिल्ली गैंगरेप कांड जैसी बढ़ती घटनायें चारित्रिकता, नैतिकता, कानून व जीवन मूल्यों की शिक्षा के अभाव में राह भटक गये लोगों के कारण ही हो रहीं हंै। वास्तव में किसी भी मनुष्य के सम्पूर्ण जीवन को तीन प्रकार के चरित्र निर्धारित करते हैं। पहला प्रभु प्रदत्त चरित्र, दूसरा माता-पिता के माध्यम से प्राप्त वांशिक चरित्र तथा तीसरा परिवार, स्कूल तथा समाज से मिले वातावरण से विकसित या अर्जित चरित्र। इसमें … Read more

चलो चले जड़ों की ओर ; नागेश्वरी राव

                         वृद्ध अवस्था अपने आप में दुखदायक है|इस स्तर में  आजादी, सम्मान, क्षमता, मानसिक, शारीरिक शक्ति का हनन होने लगता है|,जिन वृद्धों का लक्ष केवल परिवार रहा हो जब कटु सत्य सामने आता है, पैर तले जमीन खिसक –जाती है उन्हें कई कुंठाओं, व्यथाओं का सामना करना पड़ता है। क्योकि बच्चों के समस्याएं, समय की कमी,उनकी आर्थिक परिस्थितियां, समाज की मांग, स्पर्धा आदि उन्हें रिस्ते को संभालने में असफल बना देते हैं| इनके आलावा व्यक्तियों के संस्कार, ममता आदि का भी असर पड़ता है। लेकिन सर्वविदित है कि आधुनिक समय में संयुक्त परिवार की बात दूर, मूल परिवार भी मिट रहा है, पति, पत्नी,बच्चे तीनो को अलग अलग रहना पड़ता है. समय कहाँ कहाँ ले जाता है इंसान को| यह समाज का प्रारूप है. यह सच्चाई है इसे हम नकारा नहीं सकते| इस यथार्थ को लेकर ही वृद्धो के हलातो के सुधारने का प्रयास करना ही है। यह सच है हर दूसरे दिन खबर पढ़ते है कि महत्वाकांक्षी बच्चें (४०%) एवं उनके  अभिभावकों द्वारा संपत्ति को जबरदस्ती हड़पने के लिए माता पिता को पीटा जा रहा है. उन्हें छोटे तहखाने जैसे कमरे में रखा जा रहा है, अस्वस्थ एवं कमजोर माता-पिता से जबरदस्ती काम ले रहे है| भारत सरकार ने अपने वरिष्ठ नागरिकों के लिए विभिन्न रियायतें और सुविधाएं प्रदान करता है| बुजुर्ग माता पिता के कल्याण,रखरखाव, आत्म-सम्मान, शांति और रक्षा के लिए केंद्रीय मंत्रिमंडल के नवीनतम निर्णय के अंतर्गत वरिष्ठ नागरिक अधिनियम, 2007 पारित किया है.साथ ही वरिष्ठ नागरिक या माता-पिता को सामान्य  जीवन बिताने के लिए  बच्चों और रिश्तेदारों पर एक कानूनी जिम्मेदारी सौंपा है। जो, विदेशों में रहने वाले भारतीय नागरिकों सहित सभी पर लिए लागू होता है। राज्य सरकार हर जिले में वृद्धाश्रम का निर्माण करेगा, पर  वरिष्ठ नागरिकों के संतान, रिश्तेदारों,को पर्याप्त समर्थन प्रदान करने की आवश्यकता है। अंतत: हम कहना चाहते है कि बच्चे, अपने पालन पोषण करने की कृतज्ञता स्वरूप और अपनी कल की चिंता कर, माता पिता की सेवा और सम्मान करे| बुजुर्ग भी अपने सरकार द्वारा प्राप्तः सुविधाओ तथा सुरक्षा के प्रति सजग रहे। जिन बच्चो के पास धन की नही, समय का आभाव है वे अपने माता पिता के लिए बुजुर्ग के आवश्यकताओं को ध्यान में रख कर बनाये गए अपार्टमेंट और आधुनिक साधनो का उपलब्ध कराये और मानव होने का एहसास करे| समाज–सेवक भी इस ओर प्रयासरत रहने की कृपा करें| नागेश्वरी राव 

चलो चले जड़ो की ओर : अशोक परूथी

                                                                                  माँ देश में बेटे के बिछोड़े में अकेली रोती तो है लेकिन इसका हल क्या है। उसे अपने साथ विदेश भी ले जाओ लेकिन उसका मन वहाँ नही लगता। अपने बेटों या बेटियों के पास भी उसका दिल नही लगता, उसका मन तो बस उसी मिट्टी में बसा रहता है जहां वह पल्ली और बड़ी हुयी होती है …जिसे वह अपना देश और अपना घर कहती है …उससे अपनी सभ्यता, अपनी भाषा, अपनी गालियां, अपना घर, एक एक पाई इकठी कर जुटाई चीज़े से लगाव …अमिट रहता है। अपनी संतान से जुदाई भी उससे सहन नही होती और अपने वतन की मिट्टी में भी वह मिट्टी होकर रह जाना चाहती है। यह कैसी विडम्बना है – एक तरह अपनी संतान का प्यार, मोह, सुख और लगाव और दूसरी और अपने वतन की मिट्टी जो उसे न इधर का छोडती है न उधर का! यह तो था किस्सा उन माता पिता का जिनके बच्चे विदेश रहते है, उनके बच्चे अपनी रोज़ी-रोटी के कारण विदेश तो छोड़ नही सकते और अपने माँ-बाप को भी अपने पास बुला लेते हैं लेकिन माँ-बाप का वहाँ दिल नही लगता ! लेकिन, मुद्दा भारत में रहने वाले बजुर्गों का है । आज सयुंक्त परिवार नही रहे – कारण वित्य (financial) हो सकते हैं या बहू -बेटियों की निजी आज़ादी का मसला हो सकता है या इसे हम पश्चमी सभ्यता का प्रभाव भी कह सकते हैं। यही हाल विदेशियों का भी है उन्हें अपने माँ-बाप तभी याद आते हैं जब उन्हें अपने बच्चो को रखने के लिए ‘माई’ की याद आती है – यह बड़े दुख की बात है !मेरे पिता कहा करते थे- देखो, एक माँ-बाप का जोड़ा अपने पाँच -या छह (संतान) को पालने -पोषने में क्या क्या कुरबानिया देता है, उनकी पढ़ाई , उनके लालन-पालन में अपना सब सुख-आराम और धन सब कुछ वार कर देता है । यही नही उन्हें अच्छी शिक्षा देने के ईलावा अपने सुखी भविष्य की परवाह न करते हुये अपने बचे-खुचे धन को भी उनकी शादियों पर खर्च कर देता है और फिर यह नतीजा – यह सारे स्मारिद्ध बच्चे – जो आज डाक्टर, इंजनीयर, वकील या किसी सफल व्यवसाय में ही क्यूँ न हों – सारे के सारे, सब के सब , मिलकर भी अपने एक माता-पिता का उनकी वृद्धावस्था में दायित्व नही लेते या ले सकते!मेरे बच्चो, मेरे भाईयो अपने माँ-बाप के लिए कुछ न करो एक्सट्रा करो, अगर उनसे दूर भी रहते हो तो थोड़ा समय निकाल कर उन्हे मिल ज़रूर आया करो और अगर यह भी मुमकिन नही तो उन्हें कभी -कभार फोन ही कर उनका हल-चाल पूछ लिया करो , बस इस्सी में माँ-बाप खुश हो जाते हैं – बस इतना तो हम सबका फर्ज़ बंता है ….भगवान हमसबको सतबुद्धि दे और इस दिशा में ठोस कदम उठाने का साहस दे …नही तो कल हम भी बूढ़े होंगे …हमारा भी यही अशर होगा जो आज हमारे जीवन देने वालों का हो रहा है । बदनसीब, हैं वह लोग जिंहे अपने माता-पिता का आशीर्वाद नही मिलता ! ताकि समय निकाल जाने के बाद आपका यह गि”ला न रहे –मामा -पापा , प्लीज़ मुझे एक बार और अपने गले लगा लो!” अशोक परूथी  

बाजारवाद : लेख – शिखा सिंह

बाजरबाद की घुसपैठ  ने लोगों को अपना कैदी बना लिया है,जिसमें लोग खुद को भी अनदेखा करने लगे है। आज के दौर ने बाजारबाद को अपना घर बना लिया है ।जो मैन शुरूआत. यहीं से  होती है। बाजारबाद ने अपने इतने पैर फैला लिये कि लोगों का उसके बगैर चलना मुमकिन नही हो पा रहा है।क्या लोगों की सोच इतनी छोटी होती जा रही है ।इंसान ने अच्छे और बुरे का फर्क करना ही छोड दिया है। या अच्छे बुरे को  अपनी सोच में पैदा नही करना चहाता। क्या हमारे संस्कार इतने तकियानुसी हो गये जिन्हें बच्चे और परिवार मानना नही चहाता या हम खुद अच्छे संस्कार देना नही चहाते ।हमारे घरों से शुरु होने बाली ही चकाचौंध की बजह हमारी जेबों पर हबी है।जिसको लोगों को तवज्जो न देकर दिखावे को महत्व देते है।इस बजारबाद की बजह से अपराध की घटनाएँ बडती नजर आ रही है।जैसे कि हमारे समाज में शराब ड्रग्स सिगरेट  पीना एक आम बात हो गई ॥ क्या हमारे संस्कार इतने घिसे पीटे होते जा रहे है कि ऐसी गलतियों को अनदेखा कर देतें है।यही से बच्चे गलत रास्तें पर जाते नजर आते दिखाई देने लगते है। मगर हमारे अनदेखा करने के कारण बच्चे और भी आगे बढने लगते है।जो और बढे अपराध की श्रेणी में पहुँच जाते है।इसके दोषी हम खुद होते है।क्यों कि अधिक कमाने के चक्कर में माता पिता आज के दौर को अपना लेते है। बाजर के जो पैर फैले है उसमें हमारी इकोनोमी इतनी गडबडाई है ।कि अकेले घर चलाना मुश्किल होता जा रहा है।तो पति पत्नी दोनों को कमाना आम बात हो गई बिना एक दूसरे के साथ दिये घर नही चलता मगर इस आपा धापी में बच्चों की ओर से ध्यान हट जाता है।तो बच्चे प्यार और जरूरते कहीं और तलाशने लगते है।इसी बीच वो गलत रास्ते अपना लेते है। मगर हमारी कमजोरियों का फायदा भी उठाने लगते है।आये दिन उनकी जरूरतें बढने लगती है। इसी तरह हमेशा हर नए साल आने बाली नई नई तकनीकियों द्वारा हमारे बाजार बहुत सी चीजें नई सजती है।जिनके लिये अपना इकट्ठा किया गया धन भी व्यर्थ कर देतें है। जिनमें कार्ड है महगें महगें गिप्टस और भी अन्य नयी-नयी चीजें जो बेवजह पैसे की बर्बादी करना होता है। क्या हर रिश्ते की नीव दिखावे से तय होती है। अगर ये सब किसी भी रिश्ते में मायने रखते है।तो वहाँ रिश्तों का कोई मोल नही हो सकता नही किसी रिश्तों को इस खडी नीव पर तवज्जो दी जा सकती है। इस बनावटी परबेस में जिंदगी और रिश्तों के क्या मायने है। जहाँ एक रुपता या संकलन अच्छा न हो वहाँ इन रिश्तों को कुछ नही समझा जाता। बाजारबाद की भीड ने अपनी घुसपैट ऐसी की है, जिससे लोग बाहर नही निकल पा रहे है।उस यू कहे इस बाजारबाद की चमक से निकलना नही चहाते,क्यों कि उसने लोगो को पुरी तरह से अपनी कैद में कर लिया है। जहाँ तक देखा जाये तो शहर से निकल कर ग्रामीण इलाकों पर भी हवी होने लगा है चकाचौंध का सितारा, जो अपनी थाप जमा चूका है। क्या हम इतने कमजोर हो गये है कि दूसरों की नकल कर के अपने जीवन का आंनद ले पायेगे, क्या  हम दूसरो की बराबरी करने को अपना होना कहेगें । जो निचले स्तर पर अपना जीवन जी रहे है जिनके पास इतना नही कि अपना अच्छे से दो बक्त का पेट भर सके तो उनके हिस्से में जीना शान से नही होगा क्या वो इस समाज के हिस्से में नही आते या कभी आयेगें क्या उनका होना नही तय होगा क्यों ,आखिरकार उनके हिस्से में हमेशा अपमान आता है क्या बाजारबाद जरूरी है या इंसान का होना। मानते है बाजारबाद की घुसपैट ने हमको नये नये तरीके और साधन दिये है जिससे बहुतकुछ अच्छा   भी मिल रहा है हमारी सुविधाएं हमें जल्दी मंजिल तक पहुँचा देती है, मगर हमारे रिश्तों में खुशियाँ और दूरियां बडती जा रही है। जिसके कारण होनेवाले अपराध औरापराधी दोनो बढते जा रहे है,काम की तलाश में गाँव से शहरों की तरफ भगने लगे है लोग लेकिन अगर वहाँ वो अपने पैर अच्छे कमो में नही जमा पाये या काम मिलने के बाद गलत संगति में आ गये तो कोई न कोई अपराध कर ही बैठते है,सारा जीवन बनने के बजाये जेल में बिगाडना पडता है।जो कुछ भी होता है अपने पास उसे भी गवा बैठते है। इस लिये बाजारबाद में सामिल होने के लिये अच्छी शिक्षा और सही ढंग भी होना जरूरी है ताकि उसे किस प्रकार प्रयोग किया जाये, जो आपको होने बाले नुकसान और अपराधों से बचा सके। जहाँ तक देखा जाये तो ये इंसान के खुद के ऊपर निर्भर करता है कि वो इस बाजारबाद को किस तरह भोग सकता है,क्यों कि बाजारबाद की घुसपैट ने अपना घर हर जगह बना रखा है, जो मंजिल भी देता है और नुकशान भी। कुछ शहरी जीवन में तो होने बाले अपराध बढते ही जा रहे है, जैसे कि आने बाले नये शाल में कुछ अच्छे और बडे पैसे बाले परिवार के बच्चे कुछ तो परिवार के अन्य सदस्य भी सामिल होते है जो कि होटलो में पार्टियां मनाते है और अपनी जरूरत की पूँजी को शराब और अय्याशी में लुटाते नजर आते है।इतने ज्यादा कामवोश खो जाते है कि अच्छे बुरे की पहचान ही भूल जाते है और अपराध कर बैठते है ।लडके लडकियाँ दिनों ही सामिल होते है।पूँजी को बर्बाद. करने में । इसी कारण बालात्कार जैसी घटनाये हो जाती है जो कि इंसानियत को शर्मशार करती है। अगर इसी पूँजी को सही ढंग से इस्तेमाल किया जाये तो कईयों के परिवार भी बचाये जा सकते है और भूख भी।जो कि गलत कार्यों में  बार्बाद की ग ई पूँजी का निवेश भी सही तरके से किया जा सकता है क्या जरूरी है इतना बेवजह पैसे का दुरुपयोग करना इससे हमारे समाज की दशा बिगडती नजर आ रही है ।क्या समाजिक सरोकारो को इतना अनदेखा किया जा सकता है, जो कि सरकार के बनाये गये कानूनों का कोई पालन नही होता लोग दिल्ली जैसी जगह एंव बडी सिटीयों में लोग शराब पीकर या अन्य नशा करके नये साल के आगमन की शुरुआत करते … Read more