समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य

 किरण सिंह  जिन भावों में हित की भावना समाहित हो वही साहित्य है तथा उन भावों को शब्दों में पिरोकर प्रस्तुत करने वाला ही साहित्यकार कहलाता है  | ऐसे में साहित्यकारों पर सामाजिक हितों की बहुत बड़ी जिम्मेदारी पड़ जाती है जिसका निर्वहन उन्हें पूरी निष्ठा व इमानदारी से करना होगा ! साथ ही सरकार को भी नवोदित साहित्यकारों के उत्थान के लिए भी कदम उठाना होगा! पत्र पत्रिकाओं अखबारों आदि ने तो साहित्यकारों की कृतियों को समाज के सम्मुख रखते ही आये हैं साथ ही सोशल मीडिया ने भी इस क्षेत्र में अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है जिसके परिणाम स्वरूप आज हिन्दी साहित्य जगत में रचनाकारों की बाढ़ सी आ गई है  ( खास तौर से महिलाओं की ) जो निश्चित ही साहित्यक क्रांति है!  बहुत सी महिलायें ऐसी हैं जिन्होंने पूर्ण योग्यता तथा क्षमता रखने के बावजूद भी अपने परिवार तथा बच्चों की देखरेख हेतु स्वयं को घर के चारदीवारी के अन्दर कैद कर लिया  उनकी भावनाओं के लिए सोशल मीडिया जीवन दायिनी का काम किया है! निश्चित ही उनके लेखन से समाज को एक नई दिशा मिलेगी!आज की पीढ़ी का भी हिन्दी साहित्य की तरफ रुझान बढ़ रहा है जिन्हें प्रेरित करने तथा मार्गदर्शन में भी सोशल मीडिया अपनी महत्वपूर्ण भूमिका निभा रही है!  किन्तु अफसोस के साथ यह भी कहना पड़ रहा है कि साहित्य जगत भी भ्रष्टाचार और भाई भतीजावाद से अछूता नहीं रह गया है! यहाँ भी नये नये रचनाकाकारों से साहित्य हित के नाम पर मनमानी पैसे ऐठे जा रहे हैं जिनके प्रलोभनों के जाल में नये साहित्यकार आसानी से फँस रहे हैं! भला छपने तथा सम्मान की चाहत किसे नहीं होगी…. इसी लालसा में रचनाकार कुछ साहित्य मठाधीशों के मनमानी के शिकार हो कर अपनी महत्वाकांक्षा को तुष्ट कर रहे हैं जिससे साहित्य हित की परिकल्पना कभी-कभी वीभत्स  सी लगने लगती है!  फिर भी समाज में यदि बुराई व्याप्त है तो अच्छाई भी है इसलिए निराश होने की आवश्यकता नहीं है! अपने लेखन पर ध्यान केंद्रित रखना है सामाजिक हित की भावना से!  लेखिका परिचय :  नाम – किरण सिंह  पति का नाम – श्री भोला नाथ सिंह  सम्प्रति – कवियत्री एवं लेखिका  अनेकों  प्रतिष्ठित पत्रिकाओं व् समाचारपत्रों में कवितायें ,  कहानियाँ लेख आदि प्रकाशित  प्रकाशित पुस्तक – मुखरित संवेदनाएं  निवास – पटना , बिहार  यह भी पढ़ें ……. मुखरित संवेदनाएं – संस्कारों को थाम कर अपने हिस्से का आकाश मांगती स्त्री के स्वर स्त्री विमर्श का दूसरा पहलू  अपरिभाषित है प्रेम दोषी कौन जब अस्पताल में मनाया वैलेंटाइन डे

लेकिन वो बात कहाँ – कहाँ तक सच है ?

दो लोगों की तुलना नहीं हो सकती | जो रास्ता आपके लिए सही है , हो सकता है दूसरे के लिए गलत हो |हर किसी की अपनी विशेष यात्रा है |हम सब की यात्रा न सही है न गलत न अच्छी है न बुरी …. बस अलग है – डैनियल कोपके                             तुलना का इतिहास बहुत पुराना है | शायद जब से प्रकृति में दूसरा मानव बना तब से तुलना करना शुरू हो गया होगा | ये तुलना भले ही सही  हो या गलत पर जीवन के हर क्षेत्र में होती है | तुलना करने से किसको क्या मिलता है , पता नहीं पर तुलना रंग –  रूप में होती है , आकार प्रकार में होती है | सफलता असफलता में में होती है |हालांकि तुलना करना न्याय संगत  नहीं है | क्योंकि दो लोगों की परिस्तिथियाँ व् सोंच , दृष्टिकोण अलग – अलग हो सकता है | उनके संसाधन भी अलग – अलग हो सकते हैं |  उस पर भी अगर बात दो पीढ़ियों की तुलना की हो , वो भी उनकी सफलता की  तो ?                                              कला हो  , विज्ञानं , साहित्य , खेल या कोई और क्षेत्र दो पीढ़ियों की तुलना करना बड़ा कठिन काम है | क्योंकि दोनों पीढ़ियों की परिस्तिथियाँ अलग – अलग  होती हैं | उनका संघर्ष और उनके साथ के पतिस्पर्धा करने वालों की काबिलियत भी अलग | पुरानी पीढ़ी के सफल लोग इस  प्रश्न को दो तरह से लेते हैं  | कुछ तो नए लोगों के संघर्ष और उनकी प्रतिभा का सम्मान करते हैं और कुछ उन्हें सिरे से नकार देते हैं | उन्हें लगता है की अब तो इस क्षेत्र  में लोगों की “बाढ़ “सी आ गयी है | कुछ अच्छा हो ही नहीं रहा है | उदहारण के तौर पर अब तो क्रिकेट ही क्रिकेट हो रहा है | हमारे ज़माने में पांच दिन के मैच होते थे अब तो टी – २० रह गया | कैसे कोई बेहतर खिलाड़ी सिद्ध करेगा | हमारे ज़माने में  आई . आई टी की हज़ार सीटे  भी नहीं होती थी | अब तो ५००० सीटे हैं , exam का पैटर्न भी अलग है वैसा  दिमाग कैसे पता चलेगा | लेखन में तो इतने लोग आ रहे हैं पर अब गहराई रह ही नहीं गयी है , सब फ़ास्ट फ़ूड है | भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं                इन सब के बावजूद नयी प्रतिभाएं हर क्षेत्र में आ रही हैं |उनके अपने संघर्ष हैं , अपनी लड़ाई है और सफलता की अपनी दास्ताँ है |  “बाढ़ ” शायद बढ़ी हुई जनसँख्या , बढ़ी हुई शिक्षा और अपने पैशन को अधिक समय देने की लालसा के कारण है | जिसे नकारात्मक रूप में नहीं देखना चाहिए | ये स्वागत  करने वाली बात है | जो कोई भी कुछ अच्छा करने की कोशिश कर रहा है उसके प्रयास  का उपहास नहीं उड़ाया जाना चाहिए | हर ज़माने में  अपनी कला को , प्रतिभा को आम लोगों तक पहुचाने के लिए प्रचार किया जाता रहा है | हां उसके तरीके अलग होते थे | पर वो तरीके सर्वसुलभ नहीं थे | आज टीवी पर तमाम प्रतिभा खोज कार्यक्रम इस बात के गवाह है की हमारे देश में गांवों – गाँवों में प्रतिभा छुपी हुई है |  तकनीकी बढ़ी है जिससे सफ़र आसान भी हुआ है और कठिन भी | क्योंकि अब अपनी कला को आम लोगों तक पहुँचाना आसान हुआ है | परन्तु अब हजारों के बीच में अपनी एक अलग पहचान बनाना उतना ही मुश्किल |                                             अब आती हूँ अपने प्रिय विषय लेखन पर | अगर लेखन की बात करें तो आज लेखन में बहुत प्रयोग हो रहे हैं | क्योंकि आज केवल साहित्य ही नहीं वुभिन्न विषयों से शिक्षित लोग लिख रहे हैं है | चाहे  वो डॉक्टर हो , इंजिनीयर , विज्ञानं के छात्र  सब ने अपने भीतर छिपे लेखक की कुलबुलाहट को शब्द देना शुरू कर दिया | लेखन की पहली शर्त ही विचार हैं | जब विभिन्न  तरह के विचार सामने आयेंगे तो नयी संभावनाएं बनेगी |  कबीर अनपढ़ थे | फिर भी साहित्य की ऊँची कक्षाओं में पढाये जाते हैं | पर आज किसी दूसरे विषय से शिक्षित व्यक्ति को साहित्यकार का दर्जा देने में आनाकानी करना साहित्य के नहीं व्यक्ति के  हित में हो सकता है | अगर पाठकों की बात करें तो पाठकों की पसंद भी बदली है उनके पास समय का आभाव भी है | अब गाँव में भी चौपाल या बरगद  तले लेट कर घंटों पढने का समय नहीं है |  पढने वाला भी एक पैराग्राफ घुमाते हुए बात पर आने की जगह टू दी पॉइंट पढना चाहता है |ये समय  फ़ास्ट फ़ूड कल्चर को जन्म दे रहा है |क्या इस पर गौर किया गया है की ये लेखक या पाठक की ख़ुशी नहीं विवशता भी हो सकती है | व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाडा                                                 अगर हम स्त्री विमर्श या महिला लेखन की ही बात करें  तो आज महिलाएं बड़ी संख्या में लिख रही हैं | भले ही इसे “बाढ़ “का दर्जा दिया जाए पर विभिन्न विषयों पर स्त्रियों के विचार खुल कर सामने आ रहे हैं | आने भी चाहिए |आज शहर की स्त्री के अपने अलग संघर्ष हैं जो उसकी दादी के संघर्षों से अलग हैं | वो जिन समस्याओं से जूझ रही है उन्हें स्वर देना चाहती है , उन्हें ही पढना चाहती है |उनका हल ढूंढना चाहती है | जबसे  दादी का संघर्ष  घर के अंदर था , पोती का घर के बाहर | ये सच है की अगर दादी ने घर के अंदर संघर्ष न किया होता तो पोती … Read more

“अंतर “- अभिव्यक्ति का या भावनाओं का – ( समीक्षा – कहानी संग्रह : अंतर )

सही अर्थों में पूछा जाए तो स्वाभाविक लेखन अन्दर की एक बेचैनी है जो कब कहाँ कैसे एक धारा  के रूप में बह निकलेगी ये लेखक स्वयं भी नहीं जानता | वो धारा तो  भावनाओं  का सतत प्रवाह हैं , हां शब्दों और शैली के आधार पर हम उसे कविता कहानी लेख व्यंग कुछ भी नाम दें | ये सब मैं इस लिए लिख रही हूँ क्योंकि अशोक परूथी जी से मेरा पहला परिचय एक व्यंग के माध्यम से हुआ था | “ राम नाम सत्य है “ नामक व्यंग  उन्होंने हमारी पत्रिका “ अटूट बंधन “ के लिए भेजा था | रोचक शैली में लिखे हुए व्यंग को हमने प्रकाशित भी किया था | हमें पाठकों की प्रसंशा  के कई ई मेल मिले | उसके बाद एक सिलसिला शुरू हो गया | और अशोक जी के व्यंग मासिक पत्रिका “ अटूट बंधन “ व् हमारे दैनिक समाचार पत्र “ सच का हौसला “ में नियमित अंतराल पर प्रकाशित होने लगे | उन्हें  व्यंग विधा में एक बडे  पाठक वर्ग से सराहना मिली | उसके बाद परूथी जी की हास्य कविताओं से रूबरू होने का मौका मिला और अब ये कहानी संग्रह “ अंतर  “ | मुझे यह कहने में जरा भी संकोच नहीं है की परूथी जी लेखन की हर विधा में प्रयोग करते हैं और अपनी एक खास शैली में भावों का खाका खींच देते हैं | ठीक वैसे ही जैसे किस चट्टान को काटकर भावनाओं की ये धारा  किस रूप में निकलेगी यह नदी भी नहीं जानती | अंतर कहानी संग्रह में विभिन्न भावों को दर्शाती कहानियों का समावेश किया गया है | कुछ कहानियों में जहाँ हास्य का पुट है वहीँ कुछ कहानियाँ एक अजीब कसमसाहट ,बेचैनी और वेदना से घिरी हुई हैं | विशेष रूप से मैं उल्लेख करना चाहूंगी कहानी अंतर , पिंजरे का पंक्षी व् उसकी मौत का जहाँ अंतस की बेचैनी पाठक स्पष्ट रूप से महसूस करता है | संग्रह की पहली व्  मुख्य कहानी ” अंतर ” पति व् प्रेमी के अंतर ती तुलना करती स्त्री के मनोभावों को ख़ूबसूरती से उकेरती है | उसका मुख्य केंद्र बिंदु है प्रेम की अभिव्यक्ति के अंतर पर , भावनाओं के अंतर पर और उसके हिस्से में आया अंतहीन इंतज़ार , जिसे वो पहले कर न सकी परन्तु बाद में विधाता ने यही उसके भाग्य में लिख दिया | जिस पर रेंगते हुए ही उसे जीवन काटना है | मैं  विशेष रूप से उल्लेख करना चाहूंगी कहानी ” उसकी मौत ” का जिसे हमें अपने दिनक समाचार  पत्र ” सच का हौसला ” में प्रकाशित किया है |ये कहानी नशे की लत से जूझती युवा पीढ़ी के इर्द – घूमती है | जहाँ नशे की लत से साथी की मृत्यु के उपरान्त  अन्य दोस्त अपने नशे की आदत को छोड़ देते हैं | ” उसकी मौत ” उन्हें हिला कर रख देती है | कहानी जहाँ समस्या उठती है वहीँ समाधान के साथ बहुत भावुक भी कर देती है | यह ही नहीं  संग्रह की अधिकतर कहानियाँ समाज की किसी समस्या या मनोवैज्ञानिक पहलू को उठाती हैं व् उसमें डूबते उतराते पाठक को कुछ सोचने में विवश अवस्था में छोड़ देती हैं | वहीँ कुछ कहानियों में हास्य का पुट दे  कर परूथी जी पाठक को निराशा में डूबने से भी उबार लेते हैं | सभी कहानियाँ हमारे आस –पास के परिवेश से उठायी गयी हैं इसलिए उनके पात्र अपने जाने पहचाने से लगते  हैं | साथ ही कहानियों का ताना – बाना सरल –सहज भाषा में बुना गया है | हालांकि यह परूथी जी का पहला कथा संग्रह है पर जिस तरह से उन्होंने कहानियों को उकेरा  है व् उनमें संवेदनाओं का संप्रेषण किया है उसको पढ़कर उनके लेखन के क्षेत्र में सफल होने का सहज ही अंदाज़ लगाया जा सकता है | और जैसा की परूथी जी के जीवन परिचय से मुझे ज्ञात हुआ की उन्होंने छोटी उम्र से लिखना प्रारंभ कर दिया था जिसे जीवन की व्यस्ताओं के कारण स्थगित करना पड़ा और  एक लम्बे अंतराल के बाद पुन : लेखन प्रारंभ किया | पर उनके लेखन से  सिद्ध होता है की प्रतिभा कभी मरती नहीं , उसको  जब सही जमीन मिलती है , अंकुर फूट ही पड़ते हैं मुझे विश्वास है की उनका यह संग्रह लोगों को पसंद आएगा | मैं लेखन के क्षेत्र में उनके उज्जवल भविष्य के लिए उन्हें हार्दिक शुभकामनाएं देती हूँ |                              वंदना बाजपेयी                          कार्यकारी संपादक                                                         अटूट बंधन 

ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा –

” तिराहा “एक ऐसा शब्द जो रहस्यमयी तो है ही  सहज ही आकर्षित भी करता है | हम सब अनेक बार अपने जीवन में इस तिराहे पर खुद को खड़ा पाते हैं | किसी भी मार्ग का चयन जीवन के परिणाम को ही बदल देता है | पर यहाँ  मैं बात कर रहीं हूँ वीणा वत्सल जी के उपन्यास “ तिराहा “की | जिसको मैंने अभी -अभी पढ़ा हैं | और पढने के बाद उस पर कुछ शब्द लिखने की गहरी इच्छा उत्पन्न हुई | “ तिराहा “   वीणा वत्सल सिंह जी का पहला उपन्यास है परन्तु कहीं से भी कमजोर नहीं पड़ता | कथा में सहज प्रवाह है व् लेखन में कसाव जिसके कारण पाठक उपन्यास  को पन्ने दर पन्ने पढता जाता है | आगे क्या हुआ जानने की इच्छा बनी रहती हैं |मेरा अपना मानना  है की किसी उपन्यास का सरल होना उसके लोकप्रिय होने की पहली शर्त है |                “ तिराहा “ की कहानी तीन महिला पत्रों के इर्द गिर्द घूमती है | जहाँ एक ओर मुख्य नायिका अमृता है जो डॉक्टर होने के साथ साथ सभ्य , शालीन महिला भी है | और बेहद संकोची भी | सिद्धार्थ का प्रेम उसकी छुपी हुई प्रतिभाओं को निखारने में सहायक होता है | वहीँ उसका  संकोच प्रेम की स्वीकारोक्ति नहीं कर पाता | पाठक नायक , नायिका का शीघ्र मिलन देखना चाहता है पर दोनों ही अपने मन की बात अस्वीकार किये जाने के भय से कह नहीं पाते हैं | अंत तक उनकी स्वीकारोक्ति का रोमांच बना रहता है | वहीँ दूसरी ओर झुनकी नाम की महिला है | जो मेहतर  टोले  में रहने वाली किसी सवर्ण की अवैध संतान है | पर वह स्वाभिमानी लड़की प्रेम में कोई आतुरता नहीं दिखाती बल्कि अपने सवर्ण प्रेमी को विवश करती है की वो मेहतर टोले के विकास के लिए कुछ करे | कहीं न कहीं झुनकी स्त्री के उस आत्मबल का प्रतीक है जो विपरीत परिस्तिथियों में टूटती नहीं अपितु  त्याग , सेवा व् आत्मसम्मान के चलते परिस्तिथियों को  बदल देती है |ये पात्र मुझे बहुत प्रभावित करता है |  तीसरा और सबसे जरूरी किरदार है सुधा का … जिसमें न स्वाभिमान है न संकोच जिसके पास है तो बस असंख्य स्वप्न बेलगाम हसरते जिनको पाने के लिए वो कुछ भी , कुछ भी कर सकती है और … करती भी है | उसका पतन और अंत  किसी भी कीमत पर अपनी प्रतिभा और योग्यता से ज्यादा पाने की दुखद गाथा  है |ऐसे अति महत्वकांक्षी स्त्रियों के उत्थान व् पतन को हम अपने समाज में अक्सर देखते हैं |                       वैसे तो कहानी के अन्य पात्र भी कम महत्वपूर्ण नहीं है | वस्तुत : उपन्यास को समाज के तीन स्तरों पर साधा गया है |उच्च वर्ग , माध्यम वर्ग व् निम्न वर्ग | सबकी अपनी जीवन शैली , अपनी समस्याएं व् अपने ही प्रकार की राजनीति और सब का एक कहानी के माध्यम से सुन्दर समन्वय  | पर कहीं न कहीं मुझे लगता है कि उपन्यास की लेखिका जो स्वयं एक स्त्री हैं इस बात को स्पष्ट रूप से रेखांकित करती हैं की हर स्त्री एक तिराहे पर  खडी है | वो स्त्री भले ही समाज के किसी वर्ग या जाति  से आती हो ये उसका चयन है वो किस रास्ते पर चलती है | उसी पर उसका जीवन निर्भर करता है |  हम ऐसी स्त्रियों को जानते हैं जो  पढ़ी लिखी हैं , स्वाबलंबी हैं पर संकोच की लक्ष्मण रेखा उन्हें ह्रदय की बात कहने से रोकती है | जो प्रेम तो करती है पर प्रेम को स्वीकार करने में झिझकती है … वो भाग्यशाली हो सकती है की उसे  अपना प्रेम पति रूप में मिले या कहीं तन और कहीं मन की चक्की में पिसते हुए जीवन काटने को विवश भी | दूसरी तरफ एक स्वाभिमानी स्त्री अपने आत्मबल व् स्पष्ट सोंच के चलते विपरीत परिस्तिथियों को अपनी  इच्छा के अनुरूप बदल सकती है | या तीसरी तरफ  वह अपनी हसरतों के आगे हथियार डाल  कर पतन के उस गहरे गर्त में गिर सकती है | अमृता , झुनकी और सुधा तो केवल प्रतीक हैं | ये तिराहा हर औरत के सामने सदा से था है और रहेगा | इस तिराहे में उसे कौन सी राह चुननी है इस का फैसला स्त्री को स्वयं करना होगा |  वीणा वत्सल जी को उनके पहले उपन्यास के लिए हार्दिक बधाई व् उनके लेखन के भविष्य के लिए शुभकामनाएं वंदना बाजपेयी  कार्यकारी संपादक  अटूट बंधन                                                    

डॉ. रमा द्विवेदी के साहित्य में “भविष्य की नारी कल्पना” – शिल्पी “मंजरी”

“स्त्री विमर्श” एक ज्वलंत विषय के रूप में प्राचीन काल से ही किसी न किसी बहाने, प्रत्यक्ष या परोक्ष परिचर्चा का बिन्दु रहा है- समाजशास्त्रियों के लिए, राजनीतिज्ञों के लिए और साहित्य के लिए भी। तथापि पिछले ५०-६० वर्षों से यह स्त्री विमर्श, “नारी मुक्ति आन्दोलन” के नाम पर एक नए रूप में सार्वजानिक रूप से एक ज्वलंत मुद्दा बना हुआ है जिसे यूरोप में अस्तित्ववादी चिन्तक सीमोन-दि-वाउवा और अमेरिका में बेट्टी फ्रीडन जैसी प्रतिभाशाली और नारी अधिकारों की प्रखर प्रवक्ताओं से इस “नारी मुक्ति आन्दोलन” को पर्याप्त बल मिला और वैचारिक आयत के रूप में यह आन्दोलन अपना विस्तार करता हुआ पाश्चात्य सभ्यता, पाश्चात्य वेश-भूषा और पाश्चात्य सोच का स्वरूप धारण कर इस देश के युवा वर्ग में लोकप्रिय हुआ जिसे न्यूनाधिक समर्थन समाज से भी मिला एक समानांतर नवीन वैचारिक चिंतन, लेखन और राजनीतिक स्तर पर, साथ ही क्रिया-प्रतिक्रिया के रूप में इस विमर्श के पक्ष और विपक्ष में रह-रह कर उच्चस्वर उठते रहे और लगभग एक दशक से यह विमर्श “नारी सशक्तिकरण” के नाम से लगातार चर्चा और लेखन का प्रमुख बिन्दु रहा है जिसमें किशोर मनोविकृति ने आग में घी का कार्य किया। यह स्त्री विमर्श अब अपने परंपरागत स्वरूप तक ही सीमित न रहा, सत्ता की राजनीति ने इसे संसद में भी गुंजायमान कर दिया और दिल्ली की “दामिनी प्रकरण” से तो न्यायपालिका भी परोक्ष रूप से इस विमर्श में सम्मिलित हो गयी। भविष्य की फसल वर्तमान के बीज में गुम्फित होती है, अतएव भविष्य की योजनाओं और परिकल्पनाओं की एक भावी योजनाओं की रूपरेखा सर्वत्र अब एक आकार लेती दीखने लगी है– समाज में भी, राजनीति में भी और साहित्य में भी। जब हम हिंदी साहित्य में काव्य के माध्यम से “भविष्य की नारी” पर विचार-विमर्श करते हैं तो दृष्टि पटल पर सहसा हमारा ध्यान आकृष्ट करता है, इसीवर्ष २०१३ में प्रकाशित सम्वेदनशील रचनाकार डॉ.रमा द्विवेदी का हाइकु-संग्रह “साँसों की सरगम” जिसमें कवियित्री ने नारी-अस्मिता, नारी चेतना के विषय में समाज के विभिन्न वर्गों से तो वार्तालाप किया ही है, गर्भस्थ भ्रूण (गर्भस्थ शिशु) से भी वार्तालाप किया है। यह वार्तालाप भावी स्त्री विमर्श, स्त्री की दशा और दिशा को नए रूप, नए अंदाज, नए तेवर और नयी योजना-परिकल्पना के रूप में एक शोधित, संशोधित, परिवर्तित समाज की रूपरेखा प्रस्तुत करता है जो “भविष्यति की नारी” के रूप मेंस्त्री -विमर्श की दृष्टि से अत्यन्त महत्वपूर्ण है। “साँसों की सरगम” से पूर्व कवियित्री के दो काव्य संग्रह “दे दो आकाश” और “रेत का समंदर” प्रकाशित होकर समाज में, विशेष रूप से नारी समाज में अलख जगा रहे हैं। इन तीनों ही काव्य संग्रहों में नारी चेतना, नारी अस्मिता और नारी जीवन के दुःख-दर्द को युक्ति और तर्क के साथ निर्भीक और निडर होकर अभिव्यक्त किया गया है। इस सन्दर्भ में श्री अशोक शुभदर्शी जी ने अपनी समीक्षा में सारगर्भित टिपण्णी की है कि”डॉ. रमा द्विवेदी की कविताएँ उनके अंतर्मन की पाकशाला में खूब पकी हैं,1। इसका निहितार्थ है कि जो अच्छी तरह पकता है वही सुपाच्य भी होता है और विषाणु मुक्त भी। अपनी बात को समाज तक और नारी समुदाय तक ग्राह्य और पोषक बनाने के लिए अंतर्मन की बातों का सुपाच्य होना और विषाणु मुक्त होना अनिवार्य है और इस मर्म को एक पाकशास्त्री नारी से बेहतर भला कौन जान सकता है? इसी का प्रभाव है कि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं में युगीन समस्याएँ उजागर हुई हैं। नारी की स्थिति पर कवयित्री का ध्यान अत्याधिक गया है। आचार्य शिवचंद्र शर्मा ने इन रचनाओं की मूलधारा को उद्‍घाटित करते हुए कहा है – “जीवन का बहुरंगी चित्रण होते हुए भी डॉ. द्विवेदी जी के गीतों में स्त्री वेदना विशेष रूप से मुखरित है।”2 हाइकु के रूप में उनके अंतर्मन की यह वेदना छलक ही पड़ी है कागज़ के ललाट पर– “वेदना पाती / वेदना ही मैं गाती / तुम्हें लौटाती”3। इस वेदना दो स्वर है, प्रो. टी. मोहन सिंह के शब्दों में यदि कहा जाय तो– “इस काव्य में कवयित्री की काव्य चेतना के दो तट दिखाई देते हैं। प्रथम तट नारी की मुक्ति चेतना से संपन्न है तो दूसरा तट लोकबोध संबंधी है।” समाज में इन दोनों ही तटों की समान उपयोगिता है। नारी-चेतना की जागृति को रचनाकारों ने युगीन आवश्यकता के रूप में चिह्नित किया है और आक्रोश के साथ यत्र-तत्र अभिव्यक्त भी किया है लेकिन रमा जी की विशेषता यह है कि वे केवल आक्रोशित नहीं होती, समाधान का तार्किक मार्ग भी बताती है। इस क्रम में प्रथम चरण के रूप में कवयित्री नारी को अपने सर्वांश स्वरूप में ऊपर उठने का संकेत और संदेश देती हैं, यह वैज्ञानिक सत्य है कि जो उठता है वही ऊपर आकाश में विचरण करता है, जन-मानस में छा जाता है। कवियित्री इसीलिए मांग करती हैं– “दे दो आकाश मुझे” लेकिन वे भली प्रकार जानती हैं कि यहाँ माँगने से कुछ नहीं मिलता, अपना मार्ग स्वयं निर्मित करना पड़ता है- “खुद ही खोजो/ कोई न बतायेगा/जीने की राह”4। लेकिन यह समाज जब किसी नारी को अपने मार्ग से आगे नहीं बढ़ने देता, मार्ग में नाना प्रकार के अवरोध उत्पन्न करता है तो यही नारी आक्रोशित होकर दृढ स्वरों में चेतावनी देती है–”कोमलता को कमजोर समझना/ यह है तेरी नादानी/ आती है बाढ़ नदी में जब/ जग को करती है पानी-पानी”5। नारीत्व कमज़ोरी नहीं है बल्कि नारीत्व शक्ति का मूल स्रोत है। इस क्रम में नारी की प्रकृति प्रदत्त मातृत्व-शक्ति को महिमा मंडन के साथ रेखांकित किया है। वंश वृद्धि और पुत्र के रूप में स्वयं को जीवित रखने की लालसा/ जिजीविषा ही दम्पत्ति में पुत्रमोह उतपन्न करती है और माँ-बाप ही जाने–अनजाने पुत्र मोह में फंस जाते हैं और कन्या भ्रूण हत्या जैसे घृणित कृत्य में सम्मिलित हो जाते हैं। इस भंवरजाल में फंसे दंपत्ति से कवियत्री कहती है– “वंश का नाम/ चलाता है आत्मज/ बेबुनियाद”6। बढ़ती जा रही कन्या-भ्रूण हत्या की प्रवृत्ति पर इस कुत्सित–घृणित मानसिकता के लिए समाज को ही नहीं, अपने परिवार और पति को भी दोषी मानते हुए ललकारती हैं– जन्मदात्री हूँ/ बेटी भी मैं जनूंगी / रोकेगा कौन?7 स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति: अब स्त्री विमर्श की प्रकृति और प्रवृत्ति की दृष्टि से यदि डॉ. द्विवेदी की रचनाओं पर बात करें तो उनकी रचनाओं में मुख्यतः तीन प्रकार … Read more

हिंदी दिवस पर विशेष – हिंदी जब अंग्रेज हुई

वंदना बाजपेयी सबसे पहले तो आप सभी को आज हिंदी दिवस की बधाई |पर जैसा की हमारे यहाँ किसी के जन्म पर और जन्म दिवस पर बधाई गाने का रिवाज़ है | तो मैं भी अपने लेख की शुरुआत एक बधाई गीत से करती हूँ ………. १ .. पहली बधाई हिंदी के उत्थान के लिए काम करने वाले उन लोगों को जिनके बच्चे अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढ़ते हैं | २ …दूसरी बधाई उन प्रकाशकों को जो हिंदी के नाम पर बड़ा सरकारी अनुदान प्राप्त कर के बैकों व् सरकारी लाइब्रेरियों की शोभा बढाते हैं | जिन्हें शायद कोई नहीं पढता | ३… तीसरी और विशेष बधाई उन तमाम हिंदी की पत्र – पत्रिकाओ व् वेबसाइट मालिकों को जो हिंदी न तो ठीक से पढ़ सकते हैं , न बोल सकते हैं न लिख सकते हैं फिर भी हिंदी के उत्थान के नाम पर हिंदी की पत्रिका या वेबसाइट के व्यवसाय में उतर पड़े | आप लोगों को अवश्य लग रहा होगा की मैं बधाई के नाम पर कटाक्ष कर रही हूँ | पर वास्तव में मैं केवल एक मुखौटा उतारने का प्रयास कर रही हूँ | एक मुखौटा जो हम भारतीय आदर्श के नाम पर पहने रहते हैं | पर खोखले आदर्शों से रोटी नहीं चलती |जैसे बिना पेट्रोल के गाडी नहीं चलती उसी तरह से बिना धन के कोई उपक्रम नहीं चल सकता |न ही कोई असाध्य श्रम व्र मेहनत से कमाया हुआ धन hindi के प्रचार – प्रसार में लगा कर खुद सड़क पर कटोरा ले कर भीख मांगने की नौबत पर पहुंचना चाहेगा | तमाम मरती हुई पत्र – पत्रिकाएँ इसकी गवाह हैं | जिन्होंने बड़ी ही सद्भावना से पत्रिका की नीव रखी पर वो उसे खींच नहीं पाए |क्योंकि धन देने के नाम पर कोई सहयोग के लिए आगे नहीं बढ़ा |  रही बात सरकारी अनुदान की तो ज्यादातर अनुदान प्राप्त पत्रिकाओ या पुस्तकों के प्रकाशक प्रचार – प्रसार के लिए बहुत मेहनत नहीं करते | वो केवल ये देखते हैं की उनका घाटा पूरा हो गया है | इसलिए ज्यादातर अनुदान प्राप्त किताबें सरकारी लाइब्रेरियों के शो केस की शोभा बढाती हुई ही रह जाती हैं |कुल मिला कर स्तिथि बहुत अच्छी नहीं रही | पर अब समय बदल रहा है …… कुछ लोग हिंदी को एक ” ब्लूमिग सेक्टर ” के तौर पर देख रहे हैं | वो इससे लाभ की आशा कर रहे हैं | अगर ये व्यवसायीकरण भी कहे और हिंदी लोगों को रोटी दिलाने में सक्षम हो रही है तो कुछ भी गलत नहीं है | क्योंकि भाषा हमारी संस्कृति है , हमारी सांस भले ही हो पर पर उसको जिन्दा रखने के लिए ये जरूरी है की उससे लोगों को रोटी मिले | उदाहरण के तौर पर मैं हिंदी सिनेमा को लेना चाहती हूँ | जिसका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक ही क्यों न हो ….. पर जब एक रूसी मेरा  जूता है जापानी गाता है … तो स्वत : ही hindi के शब्द उसकी जुबान पर चढ़ते हैं और भारत व् भारतीय संस्कृति को जानने समझने की इच्छा पैदा होती है | कितने लोग हिंदी फिल्मों के कारण हिंदी सीखते हैं | कहने की जरूरत नहीं जो काम साहित्यकार नहीं कर पाए वो हिंदी फिल्में कर रही हैं |  किसी संस्कृति को जिन्दा रखने के लिए भाषा का जिन्दा रहना बहुत जरूरी हैं | पर क्या उसी रूप में जैसा की हम हिंदी को समझते हैं | यह सच है की साहित्यिक भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं है | और आम पाठक उसी साहित्य को पढना पसंद करता है जो आम बोलचाल की भाषा में हो | साहित्यिक भाषा पुरूस्कार भले ही दिला दे पर बेस्ट सेलर नहीं बन सकती | कुल मिला कर लेखक का वही दुखड़ा ” कोई हिंदी नहीं पढता ” रह जाता है | देखा जाए तो आम बोलचाल की हिंदी भी एक नहीं है | भारत में एक प्रचलित कहावत है “ चार कोस में पानी बदले सौ कोस पे बानी ” |  इसलिए हिंदी को बचाए रखने के लिए प्रयोग होने बहुत जरूरी हैं | आज हिंदी आगे बढ़ रही है उसका एक मात्र कारण है की प्रयोग हो रहे हैं | हिंदी में केवल साहित्यिक हिंदी पढने वाले ही नहीं डॉक्टर , इंजिनीयर , विज्ञान अध्यापक और अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग लिख रहे हैं | उनका अनुभव विविधता भरा है इसलिए वो लेखन में और हिंदी में नए प्राण फूंक रहे हैं | पाठक नए विचारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं | और क्योंकि लेखक विविध विषयों में शिक्षा प्राप्त हैं | इसलिए उन्होंने भावनाओं को अभिव्यक्त करने में भाषा के मामले में थोड़ी स्वतंत्रता ले ली है | हर्ष का विषय है की ये प्रयोग बहुत सफल रहा है | पढ़ें –व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाड़ा  आज हिंदी में तमाम प्रान्तों के देशज शब्द ख़ूबसूरती से गूँथ गए हैं | और खास कर के अंग्रेजी के शब्द हिंदी के सहज प्रवाह में वैसे ही बहने लगे हैं जैसे विभिन्न नदियों को समेट कर गंगा बहती है |यह शुभ संकेत है | अगर हम किसी का विकास चाहते हैं तो उसमें विभिन्नता को समाहित करने की क्षमता होनी कहिये , चाहे वो देश हो , धर्म हो, या भाषा | कोई भी भाषा जैसे जैसे विकसित व् स्वीकार्य होती जायेगी उसमें रोजगार देने की क्षमता बढती जायगी और वो समृद्ध होती जायेगी |आज क्षितिज पर हिंदी के इस नए युग की पहली किरण देखते हुए मुझे विश्वास हो गया है की एक दिन हिंदी का सूर्य पूरे आकश को अपने स्वर्णिम प्रकाश से सराबोर कर देगा | आप सब हो हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं यह भी पढ़ें … भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य मोह – साहित्यिक उदाहरणों सहित गहन मीमांसा कवि एवं कविता कर्म

सुशांत सुप्रिय के कहानी संग्रह की समीक्षा – किस्सागोई का कौतुक देती कहानियाँ ( सुषमा मुनीन्द्र)

                                 समीक्ष्य कृति  – दलदल (कहानी संग्रह) ( अंतिका प्रकाशन , ग़ाज़ियाबाद ) 2015.  – किस्सागोई का कौतुक देती कहानियाँ                                              १ सुपरिचित रचनाकार सुशांत सुप्रिय का सद्यः प्रकाशित कथा संग्रह ‘दलदल’ ऐसे समय में आया है जब निरंतर कहा जा रहा है कहानी से कहानीपन और किस्सागोई शैली गायब होती जा रही है।  संग्रह में बीस कहानियाँ हैं जिनमें ऐसी ज़बर्दस्त किस्सागोई है कि लगता है शीर्षक कहानी ‘दलदल’ का किस्सागो बूढ़ा, दक्षता से कहानी सुना रहा है और हम कहानी पढ़ नहीं रहे हैं वरन साँस बाँध कर सुन रहे हैं कि आगे क्या होने वाला है।  पूरे संग्रह में ऐसा एक क्रम, एक सिलसिला-सा बनता चला गया है कि हम संग्रह को पढ़ते-पढ़ते पूरा पढ़ जाते हैं।  कभी उत्सुकता, कभी जिज्ञासा, कभी भय, कभी सिहरन, कभी आक्रोश, कभी खीझ, कभी कुटिलता,कभी कृपा से गुजर रहे पात्र इतने जीवंत हैं कि सहज ही अपने भाव पाठकों को दे जाते हैं।   ‘दलदल’ कहानी के विकलांग सुब्रोतो का करुण तरीके से दलदल में डूबते जाना सिहरन से भरता है तो ‘बलिदान’ की बाढ़ग्रस्त भैरवी नदी में नाव पर सवार क्षमता से अधिक परिजनों द्वारा डगमगाती नाव का भार कम करने के लिये, किसका जीवित रहना अधिक ज़रूरी है, किसका कम , इस आधार पर एक-एक कर नदी में कूद कर आत्म-उत्सर्ग करना स्तब्ध करता है।  ‘‘काले चोर प्रोन्नति पायें, ईमानदार निलंबित हों’’ ऐसे अराजक, अनैतिक माहौल में खुद को मिस़फिट पाते ‘मिसफ़िट’ के केन्द्रीय पात्र का आत्महत्या का मानस बना कर रेलवे ट्रैक पर लेटना भय से भरता है तो ‘पाँचवी दिशा’ के पिता का हॉट एयर बैलून में बैठ कर उड़ना, गुब्बारे का अंतरिक्ष में ठहर जाना जिज्ञासा से भरता है।  ‘दुमदार जी की दुम’ के दुमदार जी की रातों-रात ‘दुम निकल आई है’ जैसे भ्रामक प्रचार को अलौकिक और ईश्वरीय चमत्कार मान कर लोगों का उनके प्रति श्रद्धा से भर जाना उत्सुकता जगाता है तो ‘बयान’ के निष्ठुर भाई का ‘‘यातना-शिविर जैसे पति-गृह से किसी तरह छूट भागी मिनी को जबर्दस्ती घसीट कर फिर वहीं (पति-गृह) पहुँचा देना।’’  आक्रोश से तिलमिला देता है।  वस्तुतः सुशांत सुप्रिय की पारखी-विवेकी दृष्टि अपने समय और समाज की प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति-मनः स्थिति पर ऐसे दायित्व बोध के साथ पड़ती है कि संग्रह की पंक्तियाँ तत्कालीन व्यवहार-आचरण का सच्चा बयान बन गई हैं – ‘‘कैसा समय है यह, जब भेड़ियों  ने हथिया ली हैं सारी मशालें, और हम निहत्थे खड़े हैं।’’  (कहानी दो दूना पाँच)।  ‘‘बेटा, पहले-पहल जो भी लीक से हट कर कुछ करना चाहता है, लोग उसे सनकी और पागल कहते हैं।’’  (कहानी ‘पाँचवीं दिशा’)।  ‘‘मैं नहीं चाहता था मिनी आकाश जितना फैले, समुद्र भर गहराये, फेनिल पहाड़ी-सी बह निकले ………… मेरे ज़हन में लड़कियों के लिये एक निश्चित जीवन-शैली थी।’’  (कहानी ‘बयान’)।  ‘‘लोग आपको ठगने और मूर्ख बनाने में माहिर होते हैं।  मुँह से कुछ कह रहे होते हैं जबकि उनकी आॅंखें कुछ और ही बयाँ कर रही होती हैं।’’  (कहानी ‘एक गुम सी चोट’)।  ये कुछ ऐसी वास्तविकतायें हैं जिनसे संत्रस्त हो चुका आम आदमी सवाल करने लगा है ‘‘नेक मनुष्यों का उत्पादन हो सके क्या कोई ऐसा कारखाना नहीं लगाया जा सकता ? ” लेकिन संग्रह की कहानियों में जो सकारात्मक भाव हैं ,वे सवाल का उत्तर दें न दें , आम आदमी को आश्वासन ज़रूर देते हैं कि ‘‘मुश्किलों के बावजूद यह दुनिया रहने की एक खूबसूरत जगह है।’’  (कहानी ‘ पिता के नाम ‘ )                                        २   संग्रह की मूर्ति, पाँचवीं दिशा, चश्मा, भूतनाथ आदि कहानियाँ आभासी संसार का पता देती हैं।  ये कहानियाँ यदि लेखक की कल्पना हैं तो अद्भुत हैं, सत्य हैं तब भी अद्भुत हैं।  ‘मूर्ति’ का समृद्ध उद्योगपति जतन नाहटा आदिवासियों से वह मूर्ति, जिसे वे अपना ग्राम्य देवता मानते हैं, बलपूर्वक अपने साथ ले जाता है।  मूर्ति उसे मानसिक रूप से इतना अस्थिर-असंतुलित कर देती है कि वह पागलपन के चरम पर पहुँच कर अंततः मर जाता है।  ‘पाँचवीं दिशा’ के पिता हॉट एयर बैलून में बैठ कर उड़ान भरते हैं।  गुब्बारा अंतरिक्ष में स्थापित हो जाता है।  वे वहाँ से सैटेलाइट की तरह गाँव वालों को मौसम परिवर्तन की सूचना भेजा करते हैं। ‘‘चश्मा’ कहानी के परिवार के पास चार-पाँच पीढ़ियों  से एक विलक्षण चश्मा है जिसे पहन कर भविष्य में होने वाली घटना-दुर्घटना के दृश्य देखे जा सकते हैं।  दृश्य देखने में वही सफल हो सकता है जिसका अन्तर्मन साफ हो।  ‘भूतनाथ’ का भूत मानव देह धारण कर लोगों की सहायता करता है।  वैसे ‘भूतनाथ’ और ‘दो दूना पाँच’ कहानियाँ  फ़िल्मी ड्रामा की तरह लगती हैं।  सुकून यह है कि जब हत्या, बलात्कार, दुर्घटना, वन्य प्राणियों का शिकार कर, गलत तरीके से शस्त्र रख धन-कुबेर और उनकी संतानें पकड़ी नहीं जातीं या पुलिस और अदालत से छूट जाती हैं, वहाँ ‘दो दूना पाँच’ के कुकर्मी प्रकाश को फाँसी की सजा दी जाती है।  कहानियों में ज़मीनी सच्चाई है इसीलिये झाड़ू, इश्क वो आतिश है ग़ालिब जैसी प्रेम-कहानियाॅं भी प्रेम-राग का अतिरंजित या अतिनाटकीय समर्थन करते हुये मुक्त गगन में नहीं उड़तीं बल्कि इस वास्तविकता को पुष्ट करती हैं कि प्रेम के अलावा भी कई-कई रिश्ते होते और बनते हैं और यदि विवेक से काम लिया जाय तो हर रिश्ते को उसका प्राप्य मिल सकता है : ‘‘जगहें अपने आप में कुछ नहीं होतीं।  जगहों की अहमियत उन लोगों से होती है जो एक निश्चित काल-अवधि में आपके जीवन में उपस्थित होते हैं।’’  (पृष्ठ 73)।  लेकिन कुछ स्थितियाँ ऐसा नतीजा बन जाती हैं कि इंसान शारीरिक यातना से किसी प्रकार छूट जाता है लेकिन मानसिक यातना से जीवन भर नहीं छूट पाता।  बिना किसी पुख्ता सबूत के, संदेह के आधार पर जाति विशेष के लोगों को अपराधी साबित करना सचमुच दुःखद है।  ’मेरा जुर्म क्या   है ?’  के मुस्लिम पात्र के घर की संदेह के आधार पर तलाशी ली जाती है, उसे जेल भेजा जाता है । बरसों बाद वह निर्दोष साबित होकर घर लौटता है लेकिन ये यातना भरे बरस उसका जो कुछ छीन लेते हैं उसकी भरपाई नामुमकिन है।  ‘कहानी कभी नहीं मरती’ के छब्बे पाजी 1984 जून में चलाये गये आपरेशन ब्लू-स्टार के फौजी अभियान की चपेट में आते हैं।  झूठी निशानदेही पर ‘ए’ कैटेगरी का खतरनाक आतंकवादी बता कर उन्हें जेल भेजा जाता है।  वे भी बरसों बाद निर्दोष साबित होते हैं।  कहानियों में इतनी विविधता है कि समकालीन समाज और जीवन की सभ्यता-पद्धति, आचरण-व्यवहार, यम-नियम, चिंतन-चुनौती, मार्मिकता-मंथन, समस्या-समाधान, साम्प्रदायिकता-नौकरशाही, कानून-व्यवस्था, मीडिया, भूकम्प, बाढ़, अकाल, बाँध, डूबते गाँव, कटते जंगल, किलकता बचपन, गुल्ली-डंडा, कबड्डी जैसे देसी खेल, कार्टून चैनल, वीडियो गेम्स, मोबाइल, लैप-टाप  जैसे गैजेट्स … Read more

व्यर्थ में न बनाये साहित्य को अखाड़ा

                                          ये विवाद सदा से चलता रहेगा कि कौन सा साहित्य बेहतर है ” गहन या लोकप्रिय”………  अपनी विद्वता सिद्ध करने के लिए या अपनी हताशा छिपाने के लिए साहित्यकारों में यह एक मुद्दा बना ही रहता है। पर मैं इस विवाद को सिरे से नकारती हूँ ………  दरसल साहित्य के रचियताओ ने साहित्य कि परिभाषा ही बिगाड़ दी है।  साहित्य कि एक मात्र सार्थक परिभाषा तुलसीदास जी ने दी थी जब वो कहते हैं ” कीरति भनिति भूति भलि सोई । सुरसरि सम सब कहँ हित होई।। “                                                     मेरे विचार से    साहित्य जनता तक अपनी बातो को,विचारों को  पहुचाने का माध्यम है अगर वो  महज पांडित्य प्रदर्शन का माध्यम बन कर रह गया तो  केवल लाइब्रेरियों में सज कर रह जाएगा,आम जनता न उसे समझ पाएगी न स्वीकार कर पाएगी।  फिर भी अगर  साहित्यकारों का यही उदेश्य है तो कुंठा क्यों ?वस्तुत : मैं प्रभात रंजन जी कि इस बात से सहमत हूँ कि आज का साहित्य आलोचकों को संतुष्ट करने के लिए लिखा जा रहा है. जो उसे क्लिष्ट और दुरूह बना रहा है ,साथ ही आम जनता कि पहुँच से बहुत दूर भी।  ऐसा साहित्य केवल साहित्य वर्ग में ही सराहा जाता है और कुछ त्रैमासिक , अर्धवार्षिक , वार्षिक साहित्यिक लघुपत्र -पत्रिकाओ में ही सिमिट  जाता है।” व्यापक रूप से न सराहे जाने न पढ़े जाने का क्षोभ साहित्यकारों कि बातों से साफ़ झलकता है.। इस निराशा के लिए  साहित्यकार और आलोचक और उनके द्वारा बनाये गए प्रतिमान दोनों  जिम्मेदार हैं  ।                                                                                  जहाँ तक मेरा मानना है गहन बात को सुगुमता से कह देना एक कठिन काम है ……….अह एक कला है और यही लोकप्रियता का पैमाना भी ।  अक्सर मुझे अपनी एक गणित कि शिक्षिका ध्यान में आती है जिन्हें गणित का ज्ञान बहुत था। हम सब उनके फार्मूलों को पकड़ने का प्रयास करते थे पर सदा असफल हो जाते। तभी किसी कारण वश एक दूसरी शिक्षिका कुछ दिन के लिए आई ,उन्हीने वही गणित हम सब के लिए सरल बना दी हमें पढने में आनद  आने लगा।  गणित वही  थी फोर्मुले भी वही थे पर दूसरी शिक्षिका ने उसे इतना सुगम बना दिया कि कक्षा  के हर बच्चे के समझ में आ जाये।  पर यह काम वही कर सकता है जो किसी विचार  को आत्मसात करे ,मथे और सरल बना कर प्रस्तुत करे।  कठिन बात को सरल बना कर कह देना कठिन काम है। ………. जो इस कठिन काम को कर पायेगा वही लोकप्रिय होगा ,साहित्य भी इससे अछूता नही है।                                                  उदहारण के तौर पर मैं तुलसी कृत मानस कि बात करना चाहूंगी।  राम कथा कितने लोगों ने लिखी पर मानस ही लोकप्रिय है …. क्यों ? साहित्य के पुरोधा जानते हैं कि मानस को वह साहित्यिक दृष्टि से किसी भी प्रकार से कम नहीं आंक  सकते।  भाषा सौन्दर्य ,भाव ,अलंकार , और हर  पंक्ति में छिपा दर्शन अपने आप में अनूठा है। पर मानस आज भी लोकप्रिय है शायद सृष्टि  के अंत तक रहे क्योकि कठिन दर्शन को राम कथा के माध्यम से  सरल भाषा में जन -जन तक पहुंचाती है।  प्रेमचंद्र को ही ले कितने कठिन और गूढ़ चरित्रों को वो सुगमता से रचते हैं।  उनका एक -एक पात्र मन में उतरता है।  रंगभूमि में गहरा दर्शन सरलता से कह दिया है।  “निराशा  कि पराकाष्ठा वैराग्य है ” एक वाक्य में पूरा दर्शन है।  पर प्रेमचंद्र अद्रितीय हैं उनका स्थान कोई नहीं ले सकता न साहित्य जगत में न लोकप्रियता के  जगत में ।                                                            अक्सर जब साहित्य पर बहस होती है तो लोग फिल्मों तक पहुचते हैं। ……… और कदाचित गलत भी नहीं है। एक विधा  दूसरी विधा से जुडी होती है । पहले फिल्मों में भी कला और व्यावसायिक के रूप में बटवारा हुआ करता था।  कला फिल्में आम जनता से दूर हुआ करती थी कहा जाता था ” उनका क्लास अलग है “कई लोग अपने को उस क्लास में सिद्ध करने के लिए जबरदस्ती ३ घंटे बर्बाद करते थे । जबकि आम जनता में धरणा  थी कि ” अगर एक कप चाय आधे घंटे में पी जाए तो वो कला फिल्म और आधे मिनट में पी जाए तो व्यावसायिक। पर आज यह वर्गिकरण  खत्म हो चुका है …क्यों ?  उत्तर स्पष्ट है तथाकथित कला फिल्मों के निर्माताओ को लगा कि इस तरह से वो अपनी बात आम जनता तक नहीं पहुचा पा रहे हैं ……….  आज उसका अच्छा रूप सामने देखने को मिल रहा है जहाँ यह बैरियर खत्म हो गए हैं……गहरी बात जनता तक आसानी से पहुचाई जा रही है। ……यही फिल्मों का उदेश्य है।  उदहारण के तौर पर मैं आमिर खान कि “तारे जमी पर “देना चाहूंगी जहाँ एक विशेष रोग से पीड़ित बच्चे कि समस्या को आसानी से जनता तक पहुचाया । माता -पिता ने अपने बच्चों कि समस्या को समझा।  स्कूलो में सेमीनार हुए ,व्यापक तौर यह समझा गया कि बच्चा अगर पढ़ाई  में पिछड़  रहा है तो  कोई शारिक कारण भी हो सकता है । फिल्म अपने व्यावसायिक और सामाजिक दोनों उदेश्यों में सफल हुई ,लोकप्रिय हुई।अजय देवगन की एक फिल्म ने “डिफ्यूस्ड पर्सनालिटी डिसऑर्डर “नामक मानसिक बीमारी से जूझती  स्त्री की समस्या से आम जनता को अवगत कराया है।   अभी हाल में प्रदर्शित NH 24 ………ऑनर किलिंग के गंभीर मुद्दे को उठाती है…..                                                         … Read more

*मोह* ( साहित्यिक उदाहरणो सहित गहन मीमांसा )

कृष्ण

वंदना बाजपेयी  कोई इल्तजा कोई बंदगी न क़ज़ा से हाथ छुड़ा सकी किये आदमी ने कई जतन  मगर उसके काम न आ सकी न कोई दवा न कोई दुआ ………………                                                        यू  कहने को तो यह गीत की पंक्तियाँ  हैं पर इसके पीछे गहरा दर्शन है ………………मृत्यु  अवश्यम्भावी है ……………हम रोज देखते हैं पर समझते नहीं या समझना नहीं चाहते है ………….. मृत्यु  हर चीज की है|बड़े -बड़े  पर्वत समय के साथ   रेत  में बदल जाते है .|नदियाँ विलुप्त हो जाती हैं ,द्वीप गायब हो जाते हैं |सभ्यताएं नष्ट हो जाती हैं|किसी का आना किसी का जाना जीवन का क्रम है .परंतू मन किसी के जाने को सहन नहीं कर पता है .जाने वाला विरक्त भाव से चला जाता है ,कहीं और जैसे कुछ हुआ ही न हो बस समय का एक टुकड़ा था जो साथ -साथ जिया था |परंतू जो बच  जाता है उसकी पीड़ा असहनीय होती है ,ह्रदय चीत्कारता है ,स्मृतियाँ जीने नहीं देती ……..यह मोह है जो मन के दर्पण को धुंधला कर देता है |जो अप्राप्य को प्राप्त करने की आकांक्षा करने लगता है | मोह ( साहित्यिक उदाहरणो  सहित गहन मीमांसा ) ………….. दुर्गा शप्तशती में राजा  सुरथ जो  अपने अधीनस्थ कर्मचारियों द्वारा जंगल में भेजे जाने पर भी निरंतर अपने राज्य के बारे में चिंतन करते रहते हैं वो  विप्रवर मेधा के आश्रम में वैश्य को भी अपने सामान पीड़ा भोगते हुए पाते हैं जो पत्नी व् पुत्र के ठुकराए जाने पर भी निरंतर उन्हीं की चिंता करता है .वैश्य कहता है “हे महामते ,अपने बंधुओं के प्रति जो इस प्रकार मेरा चित्त प्रेम मगन  हो रहा है .इस बात को मैं जान कर भी नहीं जान पाता ,मैं उनके लिए लम्बी साँसे ले रहा हूँ जिनके मन में प्रेम का सर्वथा आभाव है .|. मेरा मन उनके प्रति निष्रठुर  क्यों नहीं हो पता? ऋषि समझाते हैं “मनुष्य ही नहीं पशु -पक्षी भी मोह से ग्रस्त हैं ….. जो स्वयं भूखे होने पर भी अपने शिशुओ की चोंच में दाना डालते हैं(दुर्गा शप्तशती -प्रथम अध्याय -श्लोक -५०) यतो हि ज्ञानिनः सर्वे पशुपक्षिम्रिगाद्य : ज्ञानं  च तन्मनुश्यांणा यत्तेषा मृगपक्षीणाम .मोहग्रस्त शूरवीर निद्राजित अर्जुन के हाथ से धनुष छूटने लगता है वो कहते हैं “इस युद्ध  की इच्छा  वाले स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जाते हैं और मुख भी सूखा जाता है मेरे हाथ से धनुष गिरता है ,त्वचा जल रही है मेरा मन भ्रमित है मैं खड़ा रहने की अवस्था  में नहीं हूँ (गीता अध्याय -१ श्लोक ३० ) स्वयं प्रभु राम जो माता सीता से बहुत प्रेम करते हैं कि उनके अपहरण होने पर होश खो बैठते हैं ……दुःख में पशु -पक्षियों ,लता पत्रों से भी सीता का पता पूछते हैं (अरण्य कांड (२९ -४ ) “हे खग -मृग हरी मधुकर श्रेणी ,तुम देखि  सीता मृगनयनी खंजन सुक कपोत मृग मीना ,मधुप निकर कोकिला प्रवीणा वही स्वयं   बाली के वध पर उसकी पत्नी तारा को ईश्वर द्वारा निर्मित  माया का ज्ञान देते हैं …………….(किष्किन्धा कांड -चौपायी ११ -२ ) “तारा विकल देख रघुराया ,दीन्ह ज्ञान हर लीन्ही माया चिति जल पावक गगन समीरा ,पञ्च रचित अति अधम शरीरा प्रगट सो तन तव आगे सोवा ,जीव नित्य को लगी तुम रोवा उपजा ज्ञान चरण तब लागी ,लीन्हेसी परम भागती वर मांगी                                      उपनिषदों में में आत्मा के नित्य स्वरुप की व्यख्या करते हुए मोह को बार -बार जन्म लेने का कारण बताया है। यह मोह ही है जो समस्त पीड़ा का केंद्र बिंदु है ,जिसके चारों ओर प्राणी नाचता है। ………. “साधकको शरीर और मोह की  की अनित्यता और अपनी आत्मा की नित्यता पर विचार करके इन अनित्य भोगो से सुख की आशा त्याग करके सदा अपने साथ रहने वाले नित्य सुखस्वरूप परमब्रह्म पुरुषोतम को प्राप्त करने का अभिलाषी बनना चाहिए (कठोपनिषद -अध्याय १ वल्ली दो श्लोक -१९ )                                     परन्तु फिर भी ये प्राणी के बस में नहीं है,कि वो मोह को अपने वष में कर ले।                                                          मोह एक ऐसा पर्दा है जो  ज्ञान ,विवेक पर आच्छादित हो जाता है जब देवता व् अवतारी ईश्वर भी इससे  नहीं बचे तो साधारण मनुष्य की क्या बिसात है | दरसल जब मनुष्य समाज में रहता है तो एक -दूसरे के प्रति शुभेक्षा या सद्भाव  और प्रेम होना होना स्वाभाविक है .|परन्तु मोह और प्रेम में अंतर है ……… मोह वहीँ उत्पन्न होता है  जहाँ प्रेम की पराकाष्ठा  हो जाये …………दशरथ का पुत्र प्रेम कब पुत्र मोह में परिवर्तित हो गया स्वयं दशरथ भी नहीं जान पाए ….और पुत्र के वियोग में तड़पते -तड़पते उन्होंने प्राण त्याग दिए ……………….. जहाँ प्रेम स्वाभाविक है वहीँ मोह घातक .|समझना ये है कि प्रेम आनन्द देता है मोह पल -पल पीड़ा को बढ़ाता  है ,जहाँ प्रतीक्षा है वहीँ तड़प है .|अगर हम हिंदी काव्य साहिय में बात करे तो  हरिवंश राय  बच्चन मोह वश  कहते हैं …………………. तिमिर समुद्र कर सकी न पार नेत्र की तरी  न कट सकी न घट सकी विरह घिरी विभावरी कहाँ मनुष्य है जिसे कमी खली न प्यार की …………. इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे दुलार लो इसीलिए खड़ा रहा की तुम मुझे पुकार लो …………                             वही जब माया  का पर्दा हटता है तो वो खुद ही गा उठते है,जीवन -म्रत्यु ,प्रेम और मोह के अंतर को समझते हैं  …………..तो कह उठते हैं …………….. अम्बर के आनन को देखो कितने इसके तारे टूटे कितने इसके प्यारे छूटे जो छूट गए फिर कहाँ मिले पर बोलो टूटे तारों पर कब अम्बर शोक मनाता है जो बीत गई सो बात गई                                 अपनी … Read more

कवि एवं कविता कर्म

                                                                                   माया मृग जी साहित्य के क्षेत्र में जाना -माना  नाम है। …… उनकी खूबसूरत कविता के साथ -साथ पढ़िए कवि एवं  कविता-कर्म पर आलेख  कवि एवं कविता – कर्म ************************* मैं साहित्‍यकार नहीं हूं.कुदरत का क्‍लर्क हूं.कुदरत जो डिक्‍टेट कराती है, वह लिपिबद्ध करता हूं .कुदरत को अगर सिर्फ पेड़ पौधे मानना हो तो बात अलग— अगर इसे भीतर तक महसूस कर सकें तो सचमुच हम धन्‍य हो जाते हैं.कि कुदरत ने हमें चुना अपने किसी काम के लिए.पर ,यह तो सच ही है कि कुदरत हमें चुनती है कुछ ख़ास कामों के लिए कई बार ऐसा भी लगता है कि कई घटनाएं भी कुदरत के आधीन हो घटती है और उस के अंतस में जो होता है हम उसे सही समय पर ही जान पाते हैं घटनाएं दरअसल आकस्मिक नहीं होती.एक पूरी प्रक्रिया तय होती है पहले उसके बाद अचानक वे हमें दिखती हैं.यदि हमारी संवेदनशीलता विस्‍तृत हो जाए तो घटना से पूर्व उसकी प्रक्रिया का आभास पा जाती है .इसी से शायद कवि को ब्रहृम कहा हमारे शास्‍त्रों में.ब्रह्म होना भगवान होने जैसा नहीं बल्कि एक संवेदनशील इन्‍सान होने जेसा ही मानना चाहिए कई बार हम सब महसूस करते हैं किसी घटना को देखकर— कि अरे यह तो पहले भी कहीं हुआ हे कहीं देखा है;या कहीं पढा है.जबकि ऐसा होता नहीं.तो कहां देखा या सुना.सपने में— नहीं.वह प्रक्रिया तब चल रही थी इस घटना की.हम उसके अंश भर से परिचित हो पाए क्‍योंकि हमारी संवेदना तब वहां से संवेदित थी.हम मन भर कर घूमते हैं मन से’हमारी संवेदनाएं हवा में यात्रा करती हैं.जहां से कुछ ग्रहण कर सकें, ले अाती हैं अमृता प्रीतम विचार क े बारे में कहती हैं कि विचार पंख वाला बीज है, इस जमीन पर नमी ना हुई तो दूसरी जगह जा टिकेगा यही बात हमारी संवेदना की है.वह पंखों पर रहती है हर समय.शुष्‍क बौद्धिक लोग कवि नहीं हो पाते.वे अच्‍छे लेखक हो सकते हैं पर कवि नहीं कितना कुछ समझना बाक़ी है.बेशक, कुदरत असीम है जितना समझते जाएं लगता जाएगा कि ओह अभी तो हमें कुछ भी नहीं पता.किनारे पर खड़े होकर समु्द्र की गहराई की नाप बताना बौद्धिकता है.धारा में डूबते हुए गहराई में उतरते जाना कविता है.कितना अजीब है यह सब.पर मुझे तो लगता है कि हां ऐसा ही है बौद्धिक लोग आक्रामक और कवि दुनयिावी नजर से पलायनवादी क्‍यूं होते हैं.इसलिए कि धारा काे नापने के लिए बुदिध चाहिए, बहने के लिए धारा से प्रेम होना कैलाश वाजपेयी की एक कविता का अंश है — आंख भी ना बंद हो और दुनिया अांख से ओझल हो जाए कुछ ऐसी तरकीब करना हर जीत के आगे और पीछे शिकस्‍त है इसलिए सफलता से डरना डूबना तो तय है भरोसा नाव पर नहीं नदी पर करना कविता शब्‍दों में नहीं होती.दो शब्‍दों के बीच छूट गई खाली जगह में होती है.जैसे हम जब बहुत गहरे तक भीतर डूबे हों तो जो बोलते हैं उस समय वे शब्‍द उतनी बात नहीं कहते जितना बीच बीच में ली गई लंबी गहरी सांस कहती है.कविता वही गहरी सांस है वही चुप और गहरी अांख है, जिसमें शब्‍द केवल सहारा देते हैं बात को.शब्‍द बात नहीं हैं.बात तो शब्‍दों के पीछे है.जब बहुत कुछ कहना हो तो क्‍या करें, दीप्ति नवल कहती हैं जब बहुत कुछ कहने को जी चाहता है .तब कुछ भी कहने को जी नहीं चाहता.यह चुप्‍पी कविता है चुप्‍पी जितनी सघन होगी कविता उतने गहरे से अाएगी.आत्‍मदंभ और आत्‍मप्रशंसा में डूबे लोगों की कविता सतही इसीलिए हो जाती है.कि वे अपने भीतर उतर नहीं पाते.भीतर उतरने पर पता लगता है कि दरअसल हम तो कहीं हैं ही नहीं’जब हम हैं ही नहीं तो दंभ ि‍कस बात का.गर्व किस बात का.मुझे कोई कवि कहता है तो हंसी अा जाती है.मैं कैसे कवि हुआ.मैं तो कुदरत का क्‍लर्क ठहरा.कविता मेरी कैसे हुई.वह तो पंख वाली संवेदना थी.यहां ना उगती तो कहीं और उगती.आपने भी महसूस किया होगा कई बार हमारे भीतर कुछ चल रहा होता है हम आलस्‍यवश या किसी कारण वश उसे नहीं लिखतेलिख पाते तो देखते हैं कि कुछ ही समय में लगभग वही बात कोई दूसरा लिख देता है हम चौकते हैं– अरे ये तो मैं कल सोच रहा या रही थी तो चूंकि मैने अपनी ज़मीन नहीं दी उसे.वह पंख वाली संवेदना कहीं अौर जाकर उग आई.विचार मरता नहीं, इसे ही कह सकते हैं- संवेदना मरती नहीं इसे ही कह सकते हैं;वह जगह बदल लेती है वैसे ही जैसे विज्ञान कहता है ऊर्जा कभी नष्‍ट नहीं होती बात एक ही है,ऊर्जा कह लो, संवेदना कह लो, विचार कह लो;वह अमृत्‍य है देखिये कितनी मजेदार बात है;कुछ भी मर नहीं सकता और हम सबसे ज्‍यादा मृत्‍यु से डरते हैं गीता में लिखा कि आत्‍मा मरती नहीं यानी वह नष्‍ट नहीं होती, विज्ञान कहता है ऊर्जा अक्षय है, बल्कि इससे भी अागे जाकर कहें तो कोई भी पदार्थ अक्षय है.अमर है.कोई भी चीज ना तो नष्‍ट की जा सकती है ना बनाई जा सकती है बस उसका रुप बदलना ही सारा खेल हैइसे अब कविता और संवेदना के साथ जोड़कर देखिये कविता ना तो बनाई जा सकती है ना नष्‍ट की जा सकती है, वह बस शब्‍द बदलकर समय और संदर्भ बदलकर हर बार नई होकर दिखती हे आप बताइये,क्‍या ऐसा कुछ है जो अाज तक ना कहा गया हो क्‍या इस स्‍तर की कोई मौलिकता संभव है कि आज तक किसी ने कभी किसी रुप में ना कहा हो.हमारी कल्‍पना की उड़ान भी वहीं तक है जहां तक वह बात सृष्टि में मौजूद हो जब पहले से मौजूद है तो हमारी मौलिकता क्‍या है लिखने वाले की मौलिकता बस इतनी ि‍क रुप नया दे दिया.शब्‍द बदल गए.गीता के ि‍हसाब से कहूं तो देह बदल गई.आत्‍मा वही की वहीं.संवेदना वही की वही .जो प्रेम लाखों बरस पूर्व मौजूद था, उसकी संवेदना तब भी वही थी आज भी वही तो नई प्रेमकविता यानी समय और संदर्भ बदलकर उसी संवेदना की … Read more