अर्नेस्ट हेमिंग्वे की अनूदित अमेरिकी कहानी : पुल पर बैठा बूढ़ा

                                                                                  — मूल कथा : अर्नेस्ट हेमिंग्वे                                                        — अनुवाद : सुशांत सुप्रिय               स्टील के फ़्रेम वाला चश्मा पहने एक बूढ़ा आदमी सड़क के किनारे बैठा था । उसके कपड़े धूल-धूसरित थे । नदी पर पीपों का पुल बना हुआ था और घोड़ा-गाड़ियाँ , ट्रक , मर्द , औरतें और बच्चे उस पुल को पार कर रहे थे । घोड़ा-गाड़ियाँ नदी की खड़ी चढ़ाई वाले किनारे से लड़खड़ा कर पुल पर चढ़ रही थीं । सैनिक पीछे से इन गाड़ियों को धक्का दे रहे थे । ट्रक अपनी भारी घुरघुराहट के साथ यह कठिन चढ़ाई तय कर रहे थे और किसान टखने तक की धूल में पैदल चलते चले जा रहे थे । लेकिन वह बूढ़ा आदमी बिना हिले-डुले वहीं बैठा हुआ था । वह बेहद थक गया था इसलिए आगे कहीं नहीं जा सकता था ।                पुल को पार करके यह देखना कि शत्रु कहाँ तक पहुँच गया है , यह मेरी ज़िम्मेदारी थी । आगे तक का एक चक्कर लगा कर मैं लौट कर पुल पर आ गया । अब पुल पर ज़्यादा घोड़ा-गाड़ियाँ नहीं थीं , और पैदल पुल पार करने वालों की संख्या भी कम थी । पर वह बूढ़ा अब भी वहीं बैठा था ।               ” आप कहाँ के रहने वाले हैं ? ” मैंने उससे पूछा ।               ” मैं सैन कार्लोस से हूँ , ” उसने मुस्करा कर कहा ।               वह उसका अपना शहर था । उसका ज़िक्र करने से उसे खुशी होती थी , इसलिए वह मुस्कराया ।               ” मैं तो पशुओं की देखभाल कर रहा था , ” उसने बताया ।               ” ओह , ” मैंने कहा , हालाँकि मैं पूरी बात नहीं समझ पाया ।               ” हाँ , मैं पशुओं की देख-भाल करने के लिए वहाँ रुका रहा । सैन कार्लोस शहर को छोड़ कर जाने वाला मैं अंतिम व्यक्ति था । “               वह किसी गरड़िए या चरवाहे जैसा नहीं दिखता था । मैंने उसके मटमैले कपड़े और धूल से सने चेहरे और उसके स्टील के फ़्रेम वाले चश्मे की ओर देखते हुए पूछा — ” वे कौन से पशु थे ? “               ” कई तरह के , ” उसने अपना सिर हिलाते हुए कहा , ” मुझे उन्हें छोड़ कर जाना पड़ा । “               मैं पुल पर हो रही आवाजाही और आगे एब्रो के पास नदी के मुहाने वाली ज़मीन और अफ़्रीकी-से लगते दृश्य को ध्यान से देख रहा था । मन-ही-मन मैं यह आकलन कर रहा था कि कितनी देर बाद मुझे शोर का वह रहस्यमय संकेत मिलेगा ,जब दोनों सेनाओं की आमने-सामने भिड़ंत होगी । किंतु वह बूढ़ा अब भी वहीं बैठा हुआ था ।              ” वे कौन-से पशु थे ? ” मैंने दोबारा पूछा ।              ” उनकी संख्या तीन थी , ” उसने बताया । ” दो बकरियाँ थीं और एक बिल्ली थी और कबूतरों के चार जोड़े थे । “              ” और आप को उन्हें छोड़ कर जाना पड़ा ? ” मैंने पूछा ।              ” हाँ , तोपख़ाने की गोलाबारी के डर से । सेना के कप्तान ने मुझे तोपख़ाने की मार से बचने के लिए वहाँ से चले जाने का आदेश दिया । “              ” और आपका कोई परिवार नहीं है ? ” मैंने पूछा । मैं पुल के दूसरे छोर पर कुछ अंतिम घोड़ा-गाड़ियों को किनारे की ढलान से तेज़ी से नीचे उतरते हुए देख रहा था ।             ” नहीं , ” उसने कहा , ” मेरे पास केवल मेरे पशु थे । बिल्ली तो ख़ैर अपना ख़्याल रख लेगी , लेकिन मेरे बाक़ी पशुओं का क्या होगा , मैं नहीं जानता । “             ” आप किस राजनीतिक दल का समर्थन करते हैं ? ” मैंने पूछा ।             ” राजनीति में मेरी रुचि नहीं , ” वह बोला । ” मैं छिहत्तर साल का हूँ । मैं बारह किलोमीटर पैदल चल कर यहाँ पहुँचा हूँ , और अब मुझे लगता है कि मैं और आगे नहीं जा सकता । “              ” रुकने के लिए यह अच्छी जगह नहीं है , ” मैंने कहा । ” अगर आप जा सकें तो आगे सड़क पर आपको वहाँ ट्रक मिल जाएँगे , जहाँ से टौर्टोसा के लिए एक और सड़क निकलती है । “              ” मैं यहाँ कुछ देर रुकूँगा , ” उसने कहा । ” और फिर मैं यहाँ से चला जाऊँगा । ट्रक किस ओर जाते हैं ? “              ” बार्सीलोना की ओर , ” मैंने उसे बताया ।              ” उस ओर तो मैं किसी को नहीं जानता , ” उसने कहा , ” लेकिन आपका शुक्रिया । आपका बहुत-बहुत शुक्रिया । “              उसने खोई और थकी हुई आँखों से मुझे देखा और फिर अपनी चिंता किसी से बाँटने के इरादे से कहा , ” मुझे यक़ीन है ,बिल्ली तो अपना ख़्याल रख लेगी । बिल्ली के बारे में फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं । लेकिन बाक़ियों का क्या होगा ? बाक़ियों के बारे में आप क्या … Read more

फुंसियाँ

सुधीन्द्र,जब यह पत्र तुम्हें मिलेगा , मैं तुम्हारे जीवन से बहुत दूर जा चुकी हूँगी । मेरे पैरों में इतने वर्षों से बँधी जं़जीर खुल चुकी होगी । मेरे पैर परों-से हल्के लग रहे होंगे और किसी भी रास्ते पर चलने के लिए स्वतंत्र होंगे ।चलने से पहले तुम से चंद बातें कर लेना ज़रूरी है । कल रात फिर मुझे वही सपना आया । तुम मुझे अपने दफ़्तर की किसी पार्टी में ले गए हो । सपने में जाने-पहचाने लोग हैं । परस्पर अभिवादन और बातचीत हो रही है कि अचानक सबके चेहरों पर देखते-ही-देखते फुंसियाँ उग आती हैं । फुंसियों का आकार बढ़ता चला जाता है । फुंसियों की पारदर्शी झिल्ली के भीतर भरा मवाद साफ़ दिखने लगता है । और तब एक भयानक बात होती है । उन फुंसियों के भीतर मवाद में लिपटा तुम्हारा डरावना चेहरा नज़र आने लगता है । तुम्हारे सिर पर दो सींग उग जाते हैं । जैसे तुम तुम न हो कर कोई भयावह यमदूत हो । असंख्य फुंसियों के भीतर असंख्य तुम । मानो बड़े-बड़े दाँतों वाले असंख्य यमदूत… डर के मारे मेरी आँख खुल गई । दिसंबर की सर्द रात में भी मैं पसीने से तरबतर थी । ” तुमने ऐसा सपना क्यों देखा ? ” जब भी मैं इस सपने का ज़िक्र तुमसे करती तो तुम मुझे ही कटघरे में खड़ा कर देते ।” क्यों क्या ? क्या सपनों पर मेरा वश है ? ” मैं कहती । तुम्हारा बस चलता तो तुम मेरे सपने भी नियंत्रित कर लेते !तुम कहते हो कि यह सपना मेरे अवचेतन मन में दबी हुई कोई कुंठा है, अतीत की कोई स्मृति है । दुर्भाग्य यह है कि मेरी तमाम कुंठाओं के जनक तुम ही हो । मेरे भूत और वर्तमान में तुम्हारे ही भारी क़दमों की चहलक़दमी की आवाज़ गूँज रही है ।मुड़कर देखने पर लगता है कि मामूली-सी बात थी । मेरे गाल पर अक्सर उग आने वाली चंद फुंसियाँ ही तो इसके जड़ में थीं । लेकिन क्या यह बात वाक़ई इतनी मामूली-सी थी ? तुमने ‘ आइसबर्ग ‘ देखा है ? उसका केवल थोड़ा-सा हिस्सा पानी की सतह के ऊपर दिखता है । यदि कोई अनाड़ी देखे तो लगेगा जैसे छोटा-सा बर्फ का टुकड़ा पानी की सतह पर तैर रहा है । पर ‘ आइसबर्ग ‘ का असली आकार तो पानी की सतह के नीचे तैर रहा होता है जिससे टकरा कर बड़े-बड़े जहाज़ डूब जाते हैं । जो बात ऊपर से मामूली दिखती है उसकी जड़ में कुछ और ही छिपा होता है। बड़ा औरभयावह ।मेरे चेहरे पर अक्सर उग आने वाली फुंसियों से तुम्हें चिढ़ थी । मेरा उन्हें सहलाना भी तुम्हें पसंद नहीं था । बचपन से ही मेरी त्वचा तैलीय थी । मेरे चेहरे पर फुंसियाँ होती रहती थीं । मुझे उन्हें सहलाना अच्छा लगता था ।” फुंसियों से मत खेलो । मुझे अच्छा नहीं लगता । ” तुम ग़ुस्से से कह उठते ।” क्यों ? ” आख़िर यह छोटी-सी आदत ही तो थी ।” क्यों क्या ? मैंने कहा, इसलिए ! ”” पर तुम्हें अच्छा क्यों नहीं लगता ? ”तुम कोई जवाब नहीं देते पर तुम्हारा ग़ुस्सा बढ़ता जाता । फिर तुम मुझ पर चिल्लाने लगते । तुम्हारा चेहरा मेरे सपने में आई फुंसियों में बैठे यमदूतों-सा हो जाता । तुम चिल्ला कर कुछ बोल रहे होते पर मुझे कुछ भी सुनाई नहीं देता । मैं केवल तुम्हें देख रही होती । तुम्हारे हाथ-पैरों में किसी जंगली जानवर के पंजों जैसे बड़े-बड़े नाख़ून उग जाते । तुम्हारे विकृत चेहरे पर भयावह दाँत उग जाते । तुम्हारे सिर पर दो सींग उग जाते । तुम मेरे चेहरे की ओर इशारा कर के कुछ बोल रहे होते और तब अचानक मुझे फिर से सब सुनाई देने लगता ।” भद्दी, बदसूरत कहीं की ।” तुम ग़ुस्से से पागल हो कर चीख़ रहे होते ।शायद मैं तुम्हें शुरू से ही भद्दी लगती थी , बदसूरत लगती थी । फुंसियाँ तो एक बहाना थीं । शायद यही वजह रही होगी कि तुम्हें मेरी फुंसियाँ और उन्हें छूने की मेरी मामूली-सी आदत भी असहनीय लगती थी । जब हम किसी से चिढ़ने लगते हैं, नफ़रत करने लगते हैं तब उसकी हर आदत हमें बुरी लगती है । यदि तुम्हें मुझ से प्यार होता तो शायद तुम मेरी फुंसियों को नज़रंदाज़ कर देते । पता नहीं तुमने मुझसे शादी क्यों की ?शायद इसलिए कि मैं अपने अमीर पिता की इकलौती बेटी थी । मेरे पापा को तुमने चालाकी से पहले ही प्रभावित कर लिया था । उनकी मौत के बाद उनकी सारी जायदाद तुम्हारे पास आ गई और तुम अपना असली रूप दिखाने लगे ।” तुम भी पक्की ढीठ हो । तुम नहीं बदलोगी । ” तुम अक्सर किसी-न-किसी बात पर अपने विष-बुझे बाणों से मुझे बींधते रहते ।सच्चाई तो यह है कि शादी के बाद से अब तक तुमने अपनी एक भी आदत नहीं बदली — सिगरेट पीना , शराब पीना , इंटरनेट पर पाॅर्न-साइट्स देखना , दरवाज़ा ज़ोर से बंद करना , बाथरूम में घंटा-घंटा भर नहाते रहना , बीस-बीस मिनट तक ब्रश करते रहना , आधा-आधा घंटा टाॅयलेट में बैठ कर अख़बार पढ़ना , रात में देर तक कमरे की बत्ती जला कर काम करते रहना , सारा दिन नाक में उँगली डाल कर गंदगी निकालते रहना , अजीब-अजीब से मुँह बनाना , बिना किसी बात पर हँस देना … ।तुमने अपनी एक भी आदत नहीं बदली । केवल मैं ही बदलती रही । तुम्हारी हर पसंद-नापसंद के लिए । तुम्हारी हर ख़ुशी के लिए ।जो तुम खाना चाहते थे, घर में केवल वही चीज़ें बनती थीं । टी.वी. के ‘ रिमोट ‘ पर तुम्हारा क़ब्ज़ा होता । जो टी.वी. कार्यक्रम तुम्हें अच्छे लगते थे , मैं केवल वे ही प्रोग्राम देख सकती थी । जो कपड़े तुम्हें पसंद थे , मैं केवल वे ही कपड़े पहन सकतीथी । मेरा जो हेयर-स्टाइल तुम्हें पसंद था , मैं केवल उसी ढंग से अपने बाल सँवार सकती थी । घर में केवल तुम्हारी मर्ज़ी का साबुन, तुम्हारी पसंद के ब्रांड का टूथपेस्ट और तुम्हें अच्छे लगने वाले शैम्पू ही आते थे । खिड़की-दरवाज़ों के पर्दों का रंग तुम्हारी इच्छा … Read more

“सुशांत सुप्रिय के काव्य संग्रह – इस रूट की सभी लाइनें व्यस्त हैं “की शहंशाह आलम की समीक्षा ” गहरी रात के एकांत की कविताएँ

             #  समीक्षा आलेख : ” गहरी रात के एकांत की कविताएँ “         ———————————————————                                                                                    कोई छायाकार रात की नींद में जाकर जिन दृश्यों के बारे में सोचता है , उन दृश्यों को दिन में कैमरे में क़ैद करते हुए वह अपनी नींद को सार्थक करता है । ठीक उसी तरह एक कवि दिन में देखे , भोगे हुए यथार्थ को गहरी रात के एकांत में काग़ज़-क़लम लिए अपना कवि-धर्म समझकर प्रकट करता है । सुपरिचित कवि सुशांत सुप्रिय ऐसे ही कवियों में हैं जो पूरी ईमानदारी व मासूमियत से अपने देखे , भोगे हुए यथार्थ को अपनी कविताओं में दर्ज़ करते चले जाते हैं :           मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में          वयस्क हाथ बो दिए          वहाँ कोई फूल नहीं निकला          किंतु मेरे घर का सारा सामान          चोरी होने लगा ( मासूमियत / पृ. 9 ) ।           सुशांत सुप्रिय की कविताओं में जो भी दर्ज है , सब उल्लेखनीय है । उल्लेखनीय इसलिए भी है क्योंकि इनके यहाँ मनुष्य अपने कठिन-जटिल समय से पराजित नहीं होता , न किसी को पराजित होने देता है । यहाँ पूरी मनुष्यता जीतती दिखाई देती है :            हारकर मैंने अपनी बाल्कनी के गमले में           एक शिशु मन बो दिया           अब वहाँ एक सलोना सूरजमुखी           खिला हुआ है ( वही ) ।           सुशांत के संग्रह की लगभग सारी कविताएँ एक अच्छे आदमी , एक अच्छे नागरिक की कविताएँ हैं जो अच्छाई के पक्ष में लड़ाई के मूलार्थ सही तरीके से ज़ाहिर कर पाने में सक्षम दिखाई देती हैं । इन कविताओं की भाषा हमें गहराई तक प्रभावित करती है :             हर हत्या के बाद            वहीं से जी उठता हूँ            जहाँ से मारा गया था            जहाँ से तोड़ा गया था            वहीं से घास की नई पत्ती-सा            फिर से उग आता हूँ ( हर बार / पृ. 61 ) ।           दुनिया भर में आदमी के विरुद्ध षड्यंत्र बढ़ते चले जा रहे हैं । सुशांत सुप्रिय भी अपनी कविताओं के माध्यम से इनका मुक़ाबला करते हैं । उनकी कविताएँ हमें अपने समय के दुखों से निजात दिलाने के लिए सदैव तत्पर रहती हैं :             तुम आई            और मैं तुम्हारे लिए            सर्दियों की            गुनगुनी धूप हो गया ( विडम्बना / पृ. 84 ) ।           मेरे विचार से सुशांत सुप्रिय की कविताएँ समकालीन हिंदी कविता में किसी सुखद अनुभूति की तरह हैं — ‘ आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी ‘ और ‘ पानी को नम बना रही मछलियों ‘ की तरह । या फिर ‘ आत्मा में धार ‘ की तरह । कवि : सुशांत सुप्रिय / प्रकाशक : अंतिका प्रकाशन , C-56 , यूजीएफ़ – 4 ,शालीमार गार्डन एक्सटेंशन- 2 , ग़ाज़ियाबाद – 201005 ( उ. प्र. ) / वर्ष:2015 /मूल्य : ₹335/- ; मो: ( कवि ) : 8512070086

सुशांत सुप्रिय के कहानी संग्रह की समीक्षा – किस्सागोई का कौतुक देती कहानियाँ ( सुषमा मुनीन्द्र)

                                 समीक्ष्य कृति  – दलदल (कहानी संग्रह) ( अंतिका प्रकाशन , ग़ाज़ियाबाद ) 2015.  – किस्सागोई का कौतुक देती कहानियाँ                                              १ सुपरिचित रचनाकार सुशांत सुप्रिय का सद्यः प्रकाशित कथा संग्रह ‘दलदल’ ऐसे समय में आया है जब निरंतर कहा जा रहा है कहानी से कहानीपन और किस्सागोई शैली गायब होती जा रही है।  संग्रह में बीस कहानियाँ हैं जिनमें ऐसी ज़बर्दस्त किस्सागोई है कि लगता है शीर्षक कहानी ‘दलदल’ का किस्सागो बूढ़ा, दक्षता से कहानी सुना रहा है और हम कहानी पढ़ नहीं रहे हैं वरन साँस बाँध कर सुन रहे हैं कि आगे क्या होने वाला है।  पूरे संग्रह में ऐसा एक क्रम, एक सिलसिला-सा बनता चला गया है कि हम संग्रह को पढ़ते-पढ़ते पूरा पढ़ जाते हैं।  कभी उत्सुकता, कभी जिज्ञासा, कभी भय, कभी सिहरन, कभी आक्रोश, कभी खीझ, कभी कुटिलता,कभी कृपा से गुजर रहे पात्र इतने जीवंत हैं कि सहज ही अपने भाव पाठकों को दे जाते हैं।   ‘दलदल’ कहानी के विकलांग सुब्रोतो का करुण तरीके से दलदल में डूबते जाना सिहरन से भरता है तो ‘बलिदान’ की बाढ़ग्रस्त भैरवी नदी में नाव पर सवार क्षमता से अधिक परिजनों द्वारा डगमगाती नाव का भार कम करने के लिये, किसका जीवित रहना अधिक ज़रूरी है, किसका कम , इस आधार पर एक-एक कर नदी में कूद कर आत्म-उत्सर्ग करना स्तब्ध करता है।  ‘‘काले चोर प्रोन्नति पायें, ईमानदार निलंबित हों’’ ऐसे अराजक, अनैतिक माहौल में खुद को मिस़फिट पाते ‘मिसफ़िट’ के केन्द्रीय पात्र का आत्महत्या का मानस बना कर रेलवे ट्रैक पर लेटना भय से भरता है तो ‘पाँचवी दिशा’ के पिता का हॉट एयर बैलून में बैठ कर उड़ना, गुब्बारे का अंतरिक्ष में ठहर जाना जिज्ञासा से भरता है।  ‘दुमदार जी की दुम’ के दुमदार जी की रातों-रात ‘दुम निकल आई है’ जैसे भ्रामक प्रचार को अलौकिक और ईश्वरीय चमत्कार मान कर लोगों का उनके प्रति श्रद्धा से भर जाना उत्सुकता जगाता है तो ‘बयान’ के निष्ठुर भाई का ‘‘यातना-शिविर जैसे पति-गृह से किसी तरह छूट भागी मिनी को जबर्दस्ती घसीट कर फिर वहीं (पति-गृह) पहुँचा देना।’’  आक्रोश से तिलमिला देता है।  वस्तुतः सुशांत सुप्रिय की पारखी-विवेकी दृष्टि अपने समय और समाज की प्रत्येक स्थिति-परिस्थिति-मनः स्थिति पर ऐसे दायित्व बोध के साथ पड़ती है कि संग्रह की पंक्तियाँ तत्कालीन व्यवहार-आचरण का सच्चा बयान बन गई हैं – ‘‘कैसा समय है यह, जब भेड़ियों  ने हथिया ली हैं सारी मशालें, और हम निहत्थे खड़े हैं।’’  (कहानी दो दूना पाँच)।  ‘‘बेटा, पहले-पहल जो भी लीक से हट कर कुछ करना चाहता है, लोग उसे सनकी और पागल कहते हैं।’’  (कहानी ‘पाँचवीं दिशा’)।  ‘‘मैं नहीं चाहता था मिनी आकाश जितना फैले, समुद्र भर गहराये, फेनिल पहाड़ी-सी बह निकले ………… मेरे ज़हन में लड़कियों के लिये एक निश्चित जीवन-शैली थी।’’  (कहानी ‘बयान’)।  ‘‘लोग आपको ठगने और मूर्ख बनाने में माहिर होते हैं।  मुँह से कुछ कह रहे होते हैं जबकि उनकी आॅंखें कुछ और ही बयाँ कर रही होती हैं।’’  (कहानी ‘एक गुम सी चोट’)।  ये कुछ ऐसी वास्तविकतायें हैं जिनसे संत्रस्त हो चुका आम आदमी सवाल करने लगा है ‘‘नेक मनुष्यों का उत्पादन हो सके क्या कोई ऐसा कारखाना नहीं लगाया जा सकता ? ” लेकिन संग्रह की कहानियों में जो सकारात्मक भाव हैं ,वे सवाल का उत्तर दें न दें , आम आदमी को आश्वासन ज़रूर देते हैं कि ‘‘मुश्किलों के बावजूद यह दुनिया रहने की एक खूबसूरत जगह है।’’  (कहानी ‘ पिता के नाम ‘ )                                        २   संग्रह की मूर्ति, पाँचवीं दिशा, चश्मा, भूतनाथ आदि कहानियाँ आभासी संसार का पता देती हैं।  ये कहानियाँ यदि लेखक की कल्पना हैं तो अद्भुत हैं, सत्य हैं तब भी अद्भुत हैं।  ‘मूर्ति’ का समृद्ध उद्योगपति जतन नाहटा आदिवासियों से वह मूर्ति, जिसे वे अपना ग्राम्य देवता मानते हैं, बलपूर्वक अपने साथ ले जाता है।  मूर्ति उसे मानसिक रूप से इतना अस्थिर-असंतुलित कर देती है कि वह पागलपन के चरम पर पहुँच कर अंततः मर जाता है।  ‘पाँचवीं दिशा’ के पिता हॉट एयर बैलून में बैठ कर उड़ान भरते हैं।  गुब्बारा अंतरिक्ष में स्थापित हो जाता है।  वे वहाँ से सैटेलाइट की तरह गाँव वालों को मौसम परिवर्तन की सूचना भेजा करते हैं। ‘‘चश्मा’ कहानी के परिवार के पास चार-पाँच पीढ़ियों  से एक विलक्षण चश्मा है जिसे पहन कर भविष्य में होने वाली घटना-दुर्घटना के दृश्य देखे जा सकते हैं।  दृश्य देखने में वही सफल हो सकता है जिसका अन्तर्मन साफ हो।  ‘भूतनाथ’ का भूत मानव देह धारण कर लोगों की सहायता करता है।  वैसे ‘भूतनाथ’ और ‘दो दूना पाँच’ कहानियाँ  फ़िल्मी ड्रामा की तरह लगती हैं।  सुकून यह है कि जब हत्या, बलात्कार, दुर्घटना, वन्य प्राणियों का शिकार कर, गलत तरीके से शस्त्र रख धन-कुबेर और उनकी संतानें पकड़ी नहीं जातीं या पुलिस और अदालत से छूट जाती हैं, वहाँ ‘दो दूना पाँच’ के कुकर्मी प्रकाश को फाँसी की सजा दी जाती है।  कहानियों में ज़मीनी सच्चाई है इसीलिये झाड़ू, इश्क वो आतिश है ग़ालिब जैसी प्रेम-कहानियाॅं भी प्रेम-राग का अतिरंजित या अतिनाटकीय समर्थन करते हुये मुक्त गगन में नहीं उड़तीं बल्कि इस वास्तविकता को पुष्ट करती हैं कि प्रेम के अलावा भी कई-कई रिश्ते होते और बनते हैं और यदि विवेक से काम लिया जाय तो हर रिश्ते को उसका प्राप्य मिल सकता है : ‘‘जगहें अपने आप में कुछ नहीं होतीं।  जगहों की अहमियत उन लोगों से होती है जो एक निश्चित काल-अवधि में आपके जीवन में उपस्थित होते हैं।’’  (पृष्ठ 73)।  लेकिन कुछ स्थितियाँ ऐसा नतीजा बन जाती हैं कि इंसान शारीरिक यातना से किसी प्रकार छूट जाता है लेकिन मानसिक यातना से जीवन भर नहीं छूट पाता।  बिना किसी पुख्ता सबूत के, संदेह के आधार पर जाति विशेष के लोगों को अपराधी साबित करना सचमुच दुःखद है।  ’मेरा जुर्म क्या   है ?’  के मुस्लिम पात्र के घर की संदेह के आधार पर तलाशी ली जाती है, उसे जेल भेजा जाता है । बरसों बाद वह निर्दोष साबित होकर घर लौटता है लेकिन ये यातना भरे बरस उसका जो कुछ छीन लेते हैं उसकी भरपाई नामुमकिन है।  ‘कहानी कभी नहीं मरती’ के छब्बे पाजी 1984 जून में चलाये गये आपरेशन ब्लू-स्टार के फौजी अभियान की चपेट में आते हैं।  झूठी निशानदेही पर ‘ए’ कैटेगरी का खतरनाक आतंकवादी बता कर उन्हें जेल भेजा जाता है।  वे भी बरसों बाद निर्दोष साबित होते हैं।  कहानियों में इतनी विविधता है कि समकालीन समाज और जीवन की सभ्यता-पद्धति, आचरण-व्यवहार, यम-नियम, चिंतन-चुनौती, मार्मिकता-मंथन, समस्या-समाधान, साम्प्रदायिकता-नौकरशाही, कानून-व्यवस्था, मीडिया, भूकम्प, बाढ़, अकाल, बाँध, डूबते गाँव, कटते जंगल, किलकता बचपन, गुल्ली-डंडा, कबड्डी जैसे देसी खेल, कार्टून चैनल, वीडियो गेम्स, मोबाइल, लैप-टाप  जैसे गैजेट्स … Read more

दूसरे देश में

                                                                                (  अमेरिकी कहानी   )                             ———————–       अर्नेस्ट हेमिंग्वे की कहानी ” इन अनदर कंट्री ” का अंग्रेज़ी से हिंदी में                       ” दूसरे देश में ” शीर्षक से अनुवाद————————————————————————–                                     दूसरे देश में                                   ————-                                                     —  मूल लेखक : अर्नेस्ट हेमिंग्वे                                                           अनुवाद : सुशांत सुप्रिय         शरत् ऋतु में भी वहाँ युद्ध चल रहा था , पर हम वहाँ फिर नहीं गए । शरत् ऋतु में मिलान बेहद ठण्डा था और अँधेरा बहुत जल्दी घिर आया था । फिर बिजली के बल्ब जल गए और सड़कों के किनारे की खिड़कियों में देखना सुखद था । बहुत सारा शिकार खिड़कियों के बाहर लटका था और लोमड़ियों की खाल बर्फ़ के चूरे से भर गई थी और हवा उनकी पूँछों को हिला रही थी । अकड़े हुए , भारी और ख़ाली हिरण लटके हुए थे और छोटी चिड़ियाँ हवा में उड़ रही थीं और हवा उनके पंखों को उलट रही थी । वह बेहद ठण्डी शरत् ऋतु थी और हवा पहाड़ों से उतर कर नीचे आ रही थी ।        हम सभी हर दोपहर अस्पताल में होते थे और गोधूलि के समय शहर के बीच से अस्पताल तक पैदल जाने के कई रास्ते थे । उनमें से दो रास्ते नहर के बगल से हो कर जाते थे , पर वे लम्बे थे । हालाँकि अस्पताल में घुसने के लिए आप हमेशा नहर के ऊपर बने एक पुल को पार करते थे । तीन पुलों में से एक को चुनना होता था । उनमें से एक पर एक औरत भुने हुए चेस्टनट बेचती थी । उसके कोयले की आग के सामने खड़ा होना गरमी देता था और बाद में आपकी जेब में चेस्टनट गरम रहते थे । अस्पताल बहुत पुराना और बहुत ही सुंदर था और आप एक फाटक से घुसते और और चल कर एक आँगन पार करते और दूसरे फाटक से दूसरी ओर बाहर निकल जाते । प्रायः आँगन से शव-यात्राएँ शुरू हो रही होती थीं । पुराने अस्पताल के पार ईंट के बने नए मंडप थे और वहाँ हम हर दोपहर मिलते थे । हम सभी बेहद शिष्ट थे और जो भी मामला होता उसमें दिलचस्पी लेते थे और उन मशीनों में भी बैठते थे जिन्होंने इतना ज़्यादा अंतर ला देना था ।         डॉक्टर उस मशीन के पास आया जहाँ मैं बैठा था और बोला — ” युद्ध से पहले आप क्या करना सबसे अधिक पसंद करते थे ? क्या आप कोई खेल खेलते थे ? “         मैंने कहा — ” हाँ , फ़ुटबॉल । “         ” बहुत अच्छा ,” वह बोला । ” आप दोबारा फ़ुटबॉल खेलने के लायक हो जाएँगे , पहले से भी बेहतर । “         मेरा घुटना नहीं मुड़ता था , और पैर घुटने से टखने तक बिना पिण्डली के सीधा गिरता था , और मशीन घुटने को मोड़ने और ऐसे चलाने के लिए थी जैसे तिपहिया साइकिल चलानी हो । पर घुटना अब तक नहीं मुड़ता था और इसके बजाय मशीन जब मोड़ने वाले भाग की ओर आती थी तो झटका खाती थी । डॉक्टर ने कहा — ” वह सब ठीक हो जाएगा । आप एक भाग्यशाली युवक हैं । आप दोबारा विजेता की तरह फ़ुटबॉल खेलेंगे । “         दूसरे मशीन में एक मेजर था जिसका हाथ एक बच्चे की तरह छोटा था । उसका हाथ चमड़े के दो पट्टों के बीच था जो ऊपर-नीचे उछलते थे और उसकी सख़्त उँगलियों को थपथपाते थे । जब डॉक्टर ने उसका हाथ जाँचा तो उसने मुझे आँख मारी और कहा — ” और क्या मैं भी फ़ुटबॉल खेलूँगा , कप्तान-डॉक्टर ? ” वह एक महान् पटेबाज रहा था , और युद्ध से पहले वह इटली का सबसे महान् पटेबाज था ।         डॉक्टर पीछे के कमरे में स्थित अपने कार्यालय में गया और वहाँ से एक तस्वीर ले आया । उसमें एक हाथ दिखाया गया था जो मशीनी इलाज लेने से पहले लगभग मेजर के हाथ जितना मुरझाया और छोटा था और बाद में थोड़ा बड़ा था । मेजर ने तस्वीर अपने अच्छे हाथ से उठाई और उसे बड़े ध्यान से देखा । ” कोई ज़ख़्म ? ” उसने पूछा ।        ” एक औद्योगिक दुर्घटना , ” डॉक्टर ने कहा ।        ” काफ़ी दिलचस्प है , काफ़ी दिलचस्प है , ” मेजर बोला और उसे डॉक्टर को वापस दे दिया ।        ” आपको विश्वास है ? “        ” नहीं , ” मेजर ने कहा ।         मेरी ही उम्र के तीन और लड़के थे जो रोज़ वहाँ आते थे । वे तीनो ही मिलान से थे और उनमें से एक को वक़ील बनना था , एक को चित्रकार बनना था और एक ने सैनिक बनने का इरादा किया था । जब हम मशीनों से छुट्टी पा लेते तो कभी-कभार हम कोवा कॉफ़ी-हाउस तक साथ-साथ लौटते जो कि स्केला के बगल में था । हम साम्यवादी बस्ती के बीच से हो कर यह छोटी दूरी तय करते थे । हम चारो इकट्ठे रहते थे । वहाँ के लोग हमसे नफ़रत करते थे क्योंकि हम अफ़सर थे और जब … Read more

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ

सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ  1. खो गई चीज़ें                                वे कुछ आम-सी चीज़ें थींजो मेरी स्मृति में सेखो गई थींवे विस्मृति की झाड़ियों मेंबचपन के गिल्ली-डंडे कीखोई गिल्ली-सी पड़ी हुई थीं वे पुरानी ऐल्बम में दबेदाग़-धब्बों से भरेकुछ श्वेत-श्याम चित्रों-सी दबी हुई थींवे पेड़ों की ऊँची शाखाओं मेंफड़फड़ाती फट गईपतंगों-सी अटकी हुई थींवे कहानी सुनते-सुनते सो गएहम बच्चों की नींद मेंअधूरी-सी खड़ी हुई थींकभी-कभी जीवन की अंधी दौड़ मेंहम उनसे यहाँ-वहाँ टकरा जाते थेतब हम अपनी स्मृति केकिसी ख़ाली कोने कोफिर से भरा हुआ पाते थे …खो गई चीज़ेंवास्तव में कभी नहीं खोती हैंदरअसल वे उसी समयकिसी और जगह पर मौजूद होती हैं                           ———-०———-                             2.  स्वप्न                            ————-                                               वह एक स्वप्न थामेरी नींद मेंआना ही चाहता था किटूट गई मेरी नींदकहाँ गया होगा वह स्वप्न —भटक रहा होगा कहींया पा ली होगी उसनेकिसी की नींद में ठौरडर इस बात का है कियदि किसी की भी नींद मेंठिकाना न मिला उसे तोकहीं निराश हो करआत्म-हत्या न कर लेआज की रातएक स्वप्न                               ———-०———-                                  3. वे जो वग़ैरह थे                                ———————                                                                वे जो वग़ैरह थेवे बाढ़ में बह जाते थेवे भुखमरी का शिकार हो जाते थेवे शीत-लहरी की भेंट चढ़ जाते थेवे दंगों में मार दिए जाते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही खेतों में फ़सल उगाते थेवे ही शहरों में भवन बनाते थेवे ही सारे उपकरण बनाते थेवे ही क्रांति का बिगुल बजाते थेदूसरी ओरपद और नाम वाले हीसरकार और कारोबार चलाते थेउन्हें भ्रम था कि वे ही संसार चलाते थेकिंतुवे जो वग़ैरह थेउन्हीं में सेक्रांतिकारी उभर कर आते थेवे जो वग़ैरह थेवे ही जन-कवियों कीकविताओं में अमर हो जाते थे …                            ———-०———-                                  4. जब तक                                —————                                                        – जब तक स्थिति परक़ाबू पानेपुलिस आती हैजल चुके होते हैंदर्जनों घर आगज़नी मेंजब तकफ़्लैग-मार्च के लिएसेना आती हैमर चुके होते हैंदर्जनों लोग दंगों मेंजब तकशांति-वार्ता कीपहल की जाती हैआ चुकी होती हैएक बड़ी दरार मनों मेंजब तकसूरज दोबाराउगता हैअँधेरा लील चुका होता हैइंसानियत को … प्रेषकः सुशांत सुप्रिय          A-5001,          गौड़ ग्रीन सिटी ,          वैभव खंड ,           इंदिरापुरम ,           ग़ाज़ियाबाद -201010          ( उ. प्र. ) मो: 8512070086 ई-मेल: sushant1968@gmail.com समस्त चित्र गूगल से                              ———-0——-––atoot -bandhan हमारे फेस बुक पेज पर भी पधारे  आपको    “सुशांत सुप्रिय की कवितायेँ      “ कैसे लगी  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under: , poetry, hindi poetry, kavita