माफ करना आशिफ़ा बिटिया

आशिफ़ा जैसी मासूम बच्चियो के बलात्कार की लाश,महज़ इस देश के किसी भी लहू-लुहान हिस्से मे नही पाई जाती, बल्कि हमारे पशुता और विभत्सता की पराकाष्ठा के जेरे साया हमारे देश के उस हिस्से के—संगीन के बीचो-बीच “अपने टपकते लहू से ये प्रश्न लिखती है, हिन्दुस्तान के नक्शे से ये सवाल पुछती है कि मुझे किस जुर्म की सजा दी गई? —-मेरे वे कौन से अंग विकसित हुये जिसे तक इस हद तक बलात्कार की इच्छा बलवती हुई की मुझ मासुम का बलात्कार कर मार दिया गया?”. हम कजोर नहीं हैं –रेप विक्टिम मुख्तार माई के साहस को सलाम मेरे तो वे यौवनांग भी न दिखे थे, ना ब्रा पहने थी न बड़े व खूबसुरत सुस्पष्ट यौवन उभार थे , मुझ मासूम को फिर क्यूँ इस तरह बेरहमी से नोचा व मारा गया. मै एक मासुम सी बच्ची थी मुझे गोद व वात्सल्य चाहिये था लेकिन मुझे क्या मिला बताओ कि आखिर मुझ जैसी मासूम सी बच्ची का दोष क्या था?. शायद इन प्रश्नो का उत्तर न ये देश दे पायेगा, न यहा की सियासत और न ही यहॉ की जम्हुरियत दे पायेगी. क्योकि आशिफ़ा जैसी मासूम बच्चियो की लाशे भी इन सियासत दा लोगो को—–” अपने सदन की वे सिढ़ियाँ लगती है जिसे लॉघ इस देश के तमाम घिनौने और घृणित नेता सत्ता सुख की तवायफ़ के अजीमोशान मुज़रे का पुरे पाँच साल तक लुत्फ़ और मज़े लेते है सदन की नम आँखे आशिफ़ा सी तमाम सवालात के साथ खामोश व मौन रहती है”. ये हमारे देश के वे खुशनसीब लोग है जो मंचो और मजलिसो मे चिंघाड-चिंघाड बेटियो को बचाने और उनके पढ़ाने की बात करते है.लेकिन इन्हि की बिरादरी और बस्ती का कोई भी विधायक;नेता, मंत्री सांसद, उन्नाव सा इस देश को एक दर्द दे अपनी पुरी विश्वसनिय निर्लज्जता का परिचय देता है| स्त्री देह और बाजारवाद ये वे चुनिंदा शैतान है दिनकी आवाभगत थानेदार,यस.पी.,डि.यम. सभी करते है. “ये दोयम दरज़े की कमिनगी मैने कईयो कई खाकी और खद्दर वाले मे देखी है”. खासकर इनकी हनक मैने मजलूमो और कमजोरो पर ही अधिक देखि है.सच पुछियो तो इनकी दबंगई किसी-किसी मामले मे अपराधी से भी ज्यादा खतरनाक है.अगर अपराध के एक पहलु का नंगा जायज़ा लिया जाय तो आप पायेंगे—” कि आशिफ़ा और उन्नाव जैसी घटना के एक अघोषित पात्र ये भी है ये वे सरकारी कलाकार है जिनकी मदद से कभी-कभी सियासत अपने खून के छींटे भी साफ करवाती है”. कई अपराधी राष्ट्रिय,अंतराष्ट्रिय जेलो मे बंद हो हत्या पे हत्या करवाये जा रहे है,पर किसी–“उन्नाव सी घटना का फरियादी पिता रो वही पवित्र थाने और जेल मे मार दिया जाता है और उसकी थाने पे ऐफ.आई.आर तक नही लिखि जाती”.सच तो ये है कि बच्ची कोई हो चाहे हिन्दु या मुसलमान की वे आशिफ़ा, गीता हो पशु को महज़ पशु कहा जाये न कि किसी आठ साल की मासुम सी बच्ची के बलात्कार की लाश –“राजनीति के कडाहे मे पका उसे अपनी राजनीति की मदांधता के नानवेज का लेग पीस”. हा!जबसे मैने आशिफ़ा की वे नग्न जिस्मानी-हवस के नाखुनी निशानो से भरी उसकी वे पीठ देखी है तबसे मुझे जाने क्यूँ लग रहा है कि ये–“आठ साल की मासुम आशिफ़ा ज़मीन पर नही अपितु हमारे और आपके उस गीता के श्लोक और कुरआन की मुकद्दस आयत पे पड़ी है दिसे हम रोज चुमते व पढ़ते है”. अब तो मै बस यही लिख सकता हूं—-“कि उफ! आशिफ़ा बिटिया दोबारा तुम किसी एैसे मुल्क मे जन्मो जहा तुम्हारे मासूम और कोमल से बदन पे ये निशान न हो”. फोटो क्रेडिट –herjindagi.com @@@रचयिता—–रंगनाथ द्विवेदी. जज कालोनी,मियाँपुर जौनपुर—–222002 (उत्तर–प्रदेश). यह भी पढ़ें … विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं बाबा का घर भरा रहे आपको  लेख “ माफ करना आशिफ़ा बिटिया  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अ टूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords: #justice for girl child,  women issues, Crime against women, Asifa, Kathua rape case, Rape

नवरात्र पर विशेष – यूँ चुकाएं मातृऋण

नरदेहधारियों! तुम्हें क्या पता के एक स्त्री होना.. क्या है? तुम तो मॉं को देवी बनाकर पूजा कर देते है.., और भावुकता भरा डॉयलाग मारते हो के मातृऋण चुकाया नहीं जा सकता। हॉं!! तुम्हारे शास्त्र भी बहुत गुण गाते हैं स्त्री के सतीरूप के, देवीरूप के। कहते हैं मातृऋण चुका नहीं सकते पर.. सामान्य सी तुम्हारी मॉं कैसी स्त्री है? जानते हो?? तुम देवी मानते हो न उसे… देखो! अपनी मॉं की जीवन यात्रा। देखो!! वो जब कोख में थी., उसके माता,पिता,सारा परिवार भ्रूणलिंग की रिपोर्ट हाथ में लिये चिंतित था.., प्लान बना रहा था, कि कैसे हत्या की जाये? तब ऊपरी कमाई के भूखे पढ़े लिखे डॉक्टर नामक राक्षस को उसकी सुपारी दी जाती है., तुम्हारी मॉं ऐसे राक्षसों के हाथों बुरी तरह क्षतविक्षत कर दी जाती है। न…न….न.. ये न सोचना के वो मर गई., वो बड़ी जीवट चेतना है, तुम्हें जन्म भी तो देना है, सो वो कई बार जन्ममृत्यु के दारूण दुख सहकर जन्म ले लेती है.., किसी ऐसे घर में जहॉं कन्या को मार पाना संभव नहीं होता या जहॉं लोग प्रगतिवादी विचार के स्वामी प्रभुत्व रखते हैं। जब वो कन्या के रूप में समाज के लोगों के सामने आती है.., जीवन से भरी हुई , खिलखिलाती हुई., तो उससे कहा जाता है, ऐसे हंसने का लोग ग़लत मतलब निकाल सकते हैं। उसे ख़ासतौर पर बताया जाता है कि लड़के कैसे कैसे होते हैं। वो हंसी नपातुला करना सीख लेती है। लड़कों पर फिर वो जीवनभर भरोसा नहीं कर पाती, जीवनसाथी तक पर भी। उस पर कई नियम लादे जाते हैं, संस्कारों के नाम पर… कारण ? स्वीकार लिया है क् पुरूषों को पैशाची संस्कार जीन से मिलते हैं, तभी तो आपस में नीचा दिखाने के मादर.. गालियां प्रचलन में हैं.,। दिन में सज्जन, रात में गज्जन रात होते ही वो सज्जनता का बहिष्कार कर देते हैं.. कई तो दिन में भी पैशाच को ज़िंदा रखने में सिद्ध होते हैं। नारी …उसकी देह पुरूषों की समस्या है, कोई बहुत बड़ा धार्मिक हो तो कहता है,, कपड़े ऐसे पहनों कि हमें कुछ न दिखाई दे, हिजाब.. नक़ाब तक की नौबत आ जाती है, क्योंकि हम विचलित हो जाते हैं..,दूसरी ओर अधार्मिक राक्षस लोग कहते हैं, हमसे पैसे लेकर कपड़े इतने कम पहनों… के हमारी कंपनी का प्रोडक्ट/मूवी बिक जाये, यूं मॉडलिंग /फिल्मों की दुकान चलाते हैं। ये दुनिया तुम्हारी मॉं बड़ी होते होते झेलती है। रिश्तेदारों में , पड़ोस में अंकल, नीस , चचेरा भाई, स्कूल फ्रेंड किशोरावस्था को शुद्धता से पार करने में बड़ी चुनौती के रूप में उपस्थित होते हैं.,। कोई पुरूष सहज नहीं है.,, बस में चढ़कर कंधा छुआ कर विकृत सुख ले लेंगे,घूर घूर कर ही कपड़ाफाड़ू निगाहें तुम्हारी मॉं का पीछा करती हैं। छेड़छाड़ के विरोध पर ऐसी गालियां या जुमले सुनने को मिलते हैं कि तुम्हारी मॉं को लगता है कि चुपचाप रह जाती तो ही ठीक था., इन सब धृष्टताओं से मनोरोग सा होने लगता है.,, ऐसे झंझावातों से पढ़ाई, नौकरी हर जगह से दो चार होते हुये जब तुम्हारे पिताजी पसंद करने आते हैं तो कई बार रिजेक्ट होने के दु:ख से घायल तुम्हारी मॉं तुम्हारे पिताजी को पसंद न करते हुये भी राजी हो जाती है, क्योंकि उसके पिता की दौलत में यही सामान मिल सकता था, पूरी मार्केट सामने होती है.. आईएएस का दाम,डॉक्टर का , इंजीनियर, प्रोफेसर ; पुलिस , बैंक कुकर्मचारी ….. सबका फिक्स दाम होता है, उसमें भी चुकाने की हैसियत होने के बाद भी ये बाज़ार अद्भुत होता है.. क्योंकि सामान (दुल्हा)के पास अधिकार सुरक्षित होता है.,के वो ख़रीददार को पसंद करे या न करे। आख़िरकार .. वो ख़रीद कर सामान यानी तुम्हारे पिता के घर चली जाती है,तब उसे बताया जाता है कि यहॉं पर सास/ससुर कितने पूज्य हैं, के उनकी पूज्यता के सामने देवता भी पानी भरते हैं। सास की चुनौती रहती है कि उसका बेटा उसे कितना मानता है.., पंगा न लेना। तुम्हारे दादी के पुराने समय की पुनरावृत्ति वो दोहराती है। कई बार वो जानबूझकर नीचा भी दिखाती है ग़ैरों तक के सामने.., यदि त्याग; तपस्या से दिल जीतने की बात सही होती तो एकसमय था के बहुयें ही स्टोव फटने से जलती थीं। [[ वैसे स्वेच्छा से भी कमा रही हैं मगर;आजकल नया रोग है, महिला से कमवाते भी हैं, इन्सटालमेंट ऑफ दहेज … यदि स्त्री को कमाना पड़े या कमाये,तो कमाई की रकम यदि हो तो पति के हाथ में देनी पड़ती है]] तुम्हारी मॉ चालाक हो तो सास के जाल को धीरे धीरे तोड़ देती है… प्रघुम्न के वाण उसके सहयोगी होते हैं। इतने मानसिक,शारीरिक कुचलों के बाद तुम्हारे अस्तित्व को देह देकर ; तुम्हें बेटा /बेटी बनाकर लाती है, तो तुम उसे देवी बना देते हो,,, यह भी उपेक्षा है., उसका बच्चा जो मौजमस्ती करता है, उसमें देवी का प्रवेश नहीं क्योंकि उसका स्थान ऊंचा है। तुम शास्त्र से सुनकर कह देते हो, कि मातृऋण चुक नहीं सकता। पद्मा मनुज कहती है कि चुक सकता है। क्या चिंतन कर सकते हो? तो सुनो! चुका सकते हो.,,अब रास्ते में तुम्हारी मॉं की प्रतिरूप कन्या को न घूरो.., सहज दृष्टि रखो। विवाह करो, बिको मत। परिवार में विशेष जगह दो .., क्योंकि वो नई आई है, घुलमिल जाये.., उसको निर्णयों में भागीदार बनाओ। उसको सुंदर जीवन जीने में मदद करो, उसकी सैलरी पर गिद्ददृष्टि न रखो। उसके कपड़ों पर भाषणकार मत बनो., मन स्वच्छ रखो वरना बहुत सारी पशु योनिज जीव नग्न ही रहते हैं, तब तुम सहज रहते हो क्योंकि तुम्हारी विकृति प्रकृति से नैतिकता की लाश पर पनपती है। काम पवित्र है, कामुकता अपवित्र। स्त्रियों का सहज ही सम्मान करो। देखो!मातृऋण चुक जायेगा। स्त्रियों पर पाबंदी केवल इसलिये है क्योंकि पुरूष गंदा है। पुरूष कामुकता का कीड़ा न बने। स्त्रियों की मानसिक पीड़ा न बने। मातृऋण चुक जायेगा धीरे धीरे। हास्य विनोद उपहास क्रीड़ा न बने पद्मा मनुज यह भी पढ़ें … विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं बाबा का घर भरा रहे आपको  लेख “ नवरात्र पर विशेष – यूँ चुकाएं मातृऋण  ”  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | … Read more

स्त्री संघर्षों का जीवंत दस्तावेज़: “फरिश्ते निकले’

फ़रिश्ते निकले

  अनुभव अपने आप में जीवंत शब्द है, जो सम्पूर्ण जीवन को गहरई से जीये जाने का निचोड़ है। एक रचनाकार अपने अनुभव के ही आधार पर कोई रचना रचता है,चाहे वे राजनीतिक, समाजिक, आर्थिक विषमातओं की ऊपज हों, या फिर निजी दुख की अविव्यक्ति। मैत्रैयी पुष्पा ऐसी ही एकरचनाकार हैं जिन्होनें स्त्रियों से जुडे मुद्दे शोषण, बलात्कार, समाज की कलुषित मन्यातओं में जकड़ी स्त्री के जीवंत चित्र को अपनी रचनाओं में उकेरने का प्रयास किया है। ‘फरिश्ते निकले‘ मैत्रेयी पुष्पा द्वरा रचित ऐसा ही एक नया उपन्यास है जो पुरुष द्वरा नियंत्रित पितृसतात्मक समाज में रुढ़ मन्यताओं का शिकार होती बेला बहू के संघषों की कहानी है। इस उपन्यास कि नायिका बेला बहू समाज के क्रूर सामंती व्यवस्था के तहत गरीबी और पितृविहीन होने के कारण बाल‌- विवाह और अनमेल- विवाह की भेंट चढ़ जाती है। विवाह के उपरांत बेला बहू का संघर्ष शुरु होकर डाकू के गिरोह में शामिल होने के बाद नैतिकता कि भावना से स्कूल खोलती है। आस-पास के कुछ बच्चें दो दिन पाठशाला में आकर मानवता की भावना को ग्रहण करें और समाज से शोषण को मिटाने के लिये नैतिकता का मार्ग अपनायें। इस तरह बेला बहू एक फरिशता बनकर आगे आने वाली पीढ़ी को समाज की कलुषित मन्याताओं से मुक्त कराकर मानवीय गरिमा का संचार कर उन्हें सही राह पर चलने कि प्रेरणा देती है। इस तरह बेला बहू विवाह के पश्चात और डाकू के गिरोह में शामिल होने  के बीच कई संघर्षों का सामना अदम्य जिजीविषा के करती हुई एक निडर स्त्री की छवि को भी अंकित करती है।                                           हमारा देश जहाँ विकास की अंधी दौड़ में आगे बढ़ रहा है वही कुछऐसे गाँव और अंचल भी हैं जहाँ अभी तक विकास के मायने तक पता नहीं हैं अर्थात विकास की चर्चा भी उनलोगों तक नहीं पहुँची है। ऐसे ही गाँव में जन्मी बेला अर्थात बेला बहू उपन्यास के कथा का आरम्भ पितृविहिन बालिका जिसने अभी- अभी अपने पिता को खो दिया है,उसकी माँ पर घर कीपूरी जिम्मेदारी मुँह बाये खड़ी है। बेला की माँ किसी तरह अपना और अपनी बेटी का पालन-पोषण करती है। शुगर सिंह नाम का अधेड़ व्यक्ति जब उन माँ और बेटी को आर्थिक लाभ पहुँचाना शुरु करता है, इसके पीछे उसकी मंशा तब समझ में आती है जब बेला के साथ उसकी सगाई हो जती है।इस तरह ग्यारह वर्ष की बेला का विवाह अधेड़ उम्र के शुगर सिंह के साथ हो जाता है। ना जाने कितने अनमेल विवाह के किस्सों को याद करती बेला ससुराल में निरंतर पति की हवस का शिकार होती है।अन्य लोगों के अनमेल विवाह के कृत्यों को दर्शाती बेला बहू के बारे में स्वय मैत्रैयी जी भी कहती हैं-” बेला बहू तुम्हारा शुक्रियाकि कितनी औरतों की त्रासद कथाएँ तुमने याद दिला दी।” ” ससुराल में बेला बहू पति के निरंतर हवस का शिकार होती रही धीरे-धीरे सुगर सिंह की नपुंसकता का पता बेला को लग जाता है क्योकि विवाह के चार वर्षोंबाद भी संतान का ना उत्पन्न होना और मेडिकल रिपोर्ट की जाँच में बेला के स्वस्थ और उर्वरा होने का प्रमाण मिल जाता है और शुगर सिंह की नपुंसकता बेला बहू के सामने आ जाती है।” विडम्बना तो देखिये गाँव के लोग और स्वयं सुगर सिंह भी बेला बहू कोही बाँझ मानते हैं। बेला बहू येह सोचती है कि – ” उम्र के जिस पड़।व से वह गुजर रही है उसकेउम्र के लड़कियों के हाथ अभी तक पीले नहीं हुये वहीं उसपर बाँझ का आरोप गले में तौंककि तरह डाला जा रहा है।”अजीब विडम्बना है ना पुरुषों के कमियों की सजा भी स्त्री को ही भूगतनी पड़ती है। इन सब सवालों से टकराती हुयी मैत्रैयी पुष्पा समाज की वास्त्विक स्थितियों से हमारा साक्षत्कार कराती हैं। “पति और गाँव के लोगों द्वरा उपेक्षित होने पर वह अपनी ज़िंद्गी को नये सिरे से जीने के लिये भरत सिंह के यहाँ जाकर रहती है, पर मुसीबतें वहाँ भी उसका साथ नहीं छोड़्ती हैं,मानों परछायी की तरह उसके साथ-साथ चलती हैं।”                                                       “भरत सिंह का चरित्र गांव और कस्बों में उभरते उन दबंग नये राजनीतिक व्यवसायियों का है जो अपनी महत्वाकांक्षा पूरी करने के लिये अनैतिकता के किसी भी सीमा तक जा सकते हैं।”5 बेला भरत सिंह और उसके भाइयों द्वारा निरंतर उनकी हवस का शिकार बनती जाती है। और अंत में आक्रामक रवैया अपनाते हुये भरत सिंह के भाइयों को आग के हवालेकर देती है। वह पूरे साहस के साथ अपने अत्याचार का बदला भी लेती है और जेल जाने से भी नहीं डरती। जेल में उसकी मुलाकात डाकू फूलन देवी से होती है औ रइस तरह दोनो के बीच बहनापा रिश्ता कायम हो जाता है शायद दोनों के ही दुख एक से हैं। बचपन के दोस्त बलबीर द्वारा जेल से छूटे जाने पर पर वह कुख्यात डाकू अजय सिंह के गिरोह में शामिल होती है। डाकू की गिरोह में बेला बहू का शामिल होना पाठकों को थोड़। अचम्भितज़रुर करता है पर बेला बहू का उद्देश्य महज़ डकू बनकर लुटपाट करना नहीं है। बल्कि वह उन लोगों का फरिश्ता बनकर साथ निभाती है, उसी की तरह सतालोलुप हवस प्रेमियों और कम उम्र में ही यौन शोषण का शिकार बनकर परिस्थितीवश गलत पगडंडियों पर चलनें को मज़बुर होतें हैं। बेला बहू के डाकू बनकर भी फरिश्ता बने रहने के उपरांत भी उपन्यास कि कहानी खत्म नहीं हो जाती बल्कि मैत्रैयी जीने कुछ और घटनाओं के ताने बाने को भी पिरोया है।जिनमें उजाला और वीर सिंह केप्रेम प्रसंग का चित्रण मर्मिक्ता से ओतप्रोत है। उजाला लोहापीटा की बेटी है जबकी वीर सिंह अमीर घराने में पला बढा। वीर सिंह के पिता को जब इस प्रेम प्रसंग का पता चलता है तो वह उजाला के मौत की साजिश तक रच डालतें हैं पर बेला बहू के सद्प्रयासों से उजाला मौत के भंवर से बाहर निकल आती है। कितनी अजीब बात है ना पुरुष प्रधान समाज स्त्री का जमकर शोषण करता है और उसे गुलाम बने रहने पर मज़बूर करता है। इस सम्बंध में रोहिणी अग्रवाल का कहना है-“यौन शोषण पुरुष की मानसिक विकृति है या पितृसतात्मक व्यवस्था के पक्षपाती तंत्र द्वारा पुरुष को मिला अभयदान? वह स्त्री को गुलाम बनाये रखने का षडयंत्र है या जिसकी लाठी उसकी … Read more

“मुझे अपनी बेटी पर गर्व है “अभियान और सोशल मीडिया

बेटा हो या बेटी, माता -पिता की संतान के रूप में दोनों ही प्यारी होती हैं| होनी भी चाहिए| लेकिन प्यार और सम्मान में अंतर है| हमारे समाज में मान्यता रही है कि  बेटे मनौती का फल है है और बेटियाँ कोख में आई अनचाहा मेहमान | बेटे गेंहूँ की फसल है जिन्हें खाद पानी की जरूरत है तो बेटियाँ खर- पतवार , जिन्हें काट कर फेंक देना है|  स्त्री विमर्श की नीव में वो पितृसत्ता की भावना है जो बेटी जन्म लेने का अधिकार भी नहीं देना चाहती , शिक्षा और भोजन की बात कौन कहे? बेटी को पराया धन माना जाता हो , वंश चलाने  की बात हो या विदेशी आक्रांताओं से बचाने के लिए स्त्री को उसके अपने ही घर में अधिकारों से वंचित करने की परंपरा बनी|  जानिये “मुझे अपनी बेटी पर गर्व है “अभियान बेटों के विरुद्ध नहीं  दुखद सत्य ये है की ये लिंग भेद विकसित देशों में भी रहा है | ब्रिटिश महिलाओं ने भी लम्बे समय तक वोट देने के अधिकार के लिए संघर्ष किया है , उन्हें तो नागरिक होने का दर्जा भिप्राप्त नहीं था | विकसित देशों में भी ऐसे अभियान चले हैं| और उन्होंने महिलाओं का रास्ता सुगम किया है| भारत में भी बेटियों को कोख में मार देने , बेटा -बेटी में भेद भाव करने , बहुओं को जला देने के खिलाफ अनेक अभियान चलाये जाते रहे हैं| बेटी बचाओ, बेटी पढाओ अभियान भी इन्हीं में शामिल है| अभी हाल में ऐसा ही एक अभियान सोशल मीडिया पर चला ” मुझे अपनी बेटी पर गर्व है” जिसमें माता -पिता  ने अपनी बेटी के साथ अपने फोटो शेयर किये| अभियान का उद्देश्य था कि बेटियाँ , बेटों से कमतर  नहीं हैं उन पर भी गर्व करिए | ये अभियान समाज को एक सार्थक सन्देश देने के लिए था |    परन्तु बेटियों के पक्ष में चलाये जा रहे आंदोलन की मूल भावना को समझे बिना उसके खिलाफ ये कह कर विरोध करना शुरू कर दिया कि हमें अपने बेटों पर गर्व क्यों न हो ?  उनका कहना था  बेटा हो या बेटी जब हमारे हाथ में है ही नहीं तो हम अपने बेटों पर गर्व करेंगे |  अब लोगों ने अपने बेटों के साथ फोटो डालने शुरू कर दिए | एक तरह से प्रतिस्पर्द्धा सी शुरू हो गयी |  और निजी भावना से ऊपर समाज को एक  सार्थक  सन्देश देता अभियान कमजोर पड़ने लगा |                         बहुत समय पहले अमेरिका में रंग भेद नीति जोरो पर थी| अश्वेत लोगों की हत्याएं आम बात थी| तब वहां एक आन्दोलन चला था ,” अश्वेतों की जिंदगी महत्वपूर्ण है ” | जाहिर है बात – बेबात पर पुलिस की गोली या जनता द्वारा अश्वेतों के मारे जाने के विरोध में था | जो कट्टर श्वेत थे उन्हें ये बात बहुत बुरी लगी वो तुरंत बोलने लगे कि ये नारा तो गलत है , इसकी जगह ये नारा होना चाहिए था ” हर जिंदगी महत्वपूर्ण है ” | हालाँकि इन आंदोलनों की वजह से ही अश्वेतों को अमेरिका में सम्मान हासिल हुआ | यहाँ  लोगों को समझना होगा की की हम सब को अपने बेटों पर गर्व है , और बिलकुल होना चाहिए |पर  यकीन मानिए ये आन्दोलन हमारे-आपके बेटों के खिलाफ है ही नहीं | बेटी को मान दिलाने को न समझें बेटों का अपमान  इसमें कोई शक नहीं की एक संतान के रूप में बेटा-बेटी बराबर हैं| और दोनों पर गर्व होना चाहिए, फिर भी ये सामाजिक सच्चाई है कि बेटों पर सदा से गर्व होता रहा है , ये माना जाता रहा है कि बेटों से वंश चलता है | उनके बेहतर खान-पान , शिक्षा की व्यवस्था होती रही है | शादीके बाद भी वही घर के मुखिया भी बनते हैं | पर क्या ऐसा बेटियों के साथ होता रहा है ? क्या हम आप इस सच्चाई से अनभिज्ञ हैं |  ये होता रहा है कि बेटों को घी दूध खिलाओ, उन्हें कमाना है और बेटियों को दाल- भात उन्हें दूसरे के घर जाना है|  बेटियों की शिक्षा छुड़ाई जाती रही है क्योंकि माना जाता है उनकी पढाई में पैसे क्यों खर्च करें , उन्हें तो दहेज़ देना है |  जल्दी शादी करो, बोझ उतरे , गंगा नहायें| सोंचिये … आज भी थालियाँ बेटों के जन्म पर ही  बजती हैं बेटियों की नहीं | गर्भ में बेटियाँ ही मारी जाती है, बेटे नहीं | बड़े शहरों की बात छोड़ दें तो आज भी बेटा -बेटी में खाने -पीने और शिक्षा , सुविधा आदि के नाम पर भेदभाव जारी है | बेटी पैदा करने पर ही माँ ताने सुनने व् सामाजिक अपमान की शिकार होती है , जैसे उसने कोई अपराध किया हो| आज भी दहेज़ और उसके ताने हैं| यहाँ बात इक्का -दुक्का अपवाद की नहीं हो रही है | “मुझे अपनी बेटी पर गर्व है”  ये सच है कि आज समाज बदल रहा है , पर क्या ये अपने आप हुआ है या इन आन्दोलनों का असर है | ये आन्दोलन समाज में कमजोर को सम्मान दिलाने के लिए होते हैं | हमें अपने बेटों पर गर्व है , पर बेटियों के साथ खड़े होने का अर्थ बस इतना है कि उन्हें भी समान समझा जाए | आइये समाज परिवर्तन के इस अभियान में शामिल हो कर कहें हमें अपनी और अपने देश की बेटियों पर गर्व है |  यह भी पढ़ें … विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं बाबा का घर भरा रहे आपको आपको  लेख “  “मुझे अपनी बेटी पर गर्व है “अभियान और सोशल मीडिया  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | 

ख़राब होते रिश्ते -बेटी को बनना होगा जिम्मेदार बहु

कहते  कहते हैं बेटियां दो कुल की शान होती है। हर माता पिता की ये इच्छा होती है उनकी बेटी खुश रहे। इसी लिये हर माता अपनी हैसियत से बढकर बेटी की शादी करता है किन्तु फिर भी कई बार बेटी अपनए ससुराल मे खुश नही रह पाती ये एक चिन्तन का विषय है। कई कारण हो जाते है जिनकी ओर हमारा ध्यान भी नही जा पाता। ख़राब होते रिश्ते -बहुओं को हो जिम्मेदारी का अहसास  अलग परिवेश व अलग सोच की लडकी अपने ससुराल के देवर जेठ ननद व सास ससुर को दिल से नही अपना पाती। कही हुई सही बात भी उसे बुरी लग जाती है। धैर्य के अभाव मे अपनी अकड मरोड के चलते वो भूल जाती है कि उसे ससुराल मे एडजेस्ट होना है।  बाहर से आयी लडकी सबको अपने हिसाब से नही चला पाती। कितनी बार ससुराल की छोटी छोटी बातो मे मिल मेख निकाल कर ससुराल की चुगली मायके वालो से कर रसास्वादन तो कर लेती है,,, किन्तु वो भूल जाती है रहना तो उसे ससुराल मे ही है। इस तरह वो जल मे रह कर मगर से बैर वाली कहावत को चरितार्थ कर देती है।  मायके संग प्रेम मे वो भूल जाती है कि .परिणाम क्या होगा। उधर आये दिन समधियो की बुराई सुन सुन कर नफरत का ऐसा पुल बन जाता है जिसे पार कर पाना कढिन हो जाता है। दोनो परिवारो मे मूक जंग सी छिड जाती है। बरसो कि पूंजी ऐसी बहू के हाथ मे देने हेतू सास ससुर कतराने लगते है। असुरक्षा की भावना घर कर जाती है,,, ना चाहते हुऐ भी बेटे को अपमानित होना पढता है,, मां व पत्नी के बीच की खाई बढने लगती है। दोनो को न्याय मिले इस बात का बुरा असर बेटे को सहना पढता है।  ख़राब होते रिश्ते -मायका नहीं अब ससुराल है बेटी का घर  कई बार देखने मे आता है लडके वाले शरीफ हो,, कोई मांग ना भी करे तो भी शातिर वधू पक्ष उन्हे फंसाने कि कोशिश करते है। अकारण वर पक्ष को अपमानित करते है तो खामियाजा भी उन्ही की बेटी को ही भुगतना पढता है। समय समय पर घर पर उत्सव अथवा विवाह समारोह मे शामिल न होने पर आपस मे तनातनी का मौहोल हो जाता है। खर्चा होगा वधू पक्ष का ये मान बेटी अपने मायके वालो को रोक लेती है। सामाजिक उपेक्षा के भय से वर पक्ष नाराज हो जाता है इस बात का गहरा असर भी बहू पर पड़ता है। सास बहू के रिशतो मे खटास आना लाजिमी हो जाता है।                बहू चाहे तो अपने मायके मे ससुराल पक्ष का सम्मान बढाये,, अपनी मीठी मीठी बातो से ससुराल वालो का दिल जीत सकती है। कहते है अति हमेशा बुरी होती है। ज्यादा से ज्यादा मायके के चक्कर लगाना, मायके के हर काम मे अपनी उपस्थति दर्ज कराना कंहा उचित है। ससुरालपक्ष को हर काम मे मना करना व मायके पंहुच जाना ससुराल पक्ष से सहन नही हो पाता। अधिकारो के नाम पर सक्षक्त नारी ये भी भूल जाती है कि उसका पहला हक कहाँ बनता है? ख़राब होते रिश्ते- आखिर क्यों टूट रहे हैं परिवार   ये चिन्तन का विषय है कि आज परिवार क्यो टूट रहे है? पहले जहां संयुक्त परिवार मे पांच पांच बहूऐ एक ही चौके मे काम करती थी आज एक बहू भी नही टिक पाती। माना आजादी सबको प्यारी है किन्तु सीमा मे रहकर बडो के मान सम्मान को ध्यान मे रख करघर गृहस्थी को सुखद बनाया जा सकता है। एक बहू, एक नारी अपने अच्छे कायो से माता पिता व सास ससुर दोनो को संतुष्ट रखकर विवाह जैसे धामिक कर्म को संपूर्णता प्रदान कर समाज मे एक अच्छी मिसाल कायम की जा सकती है।।। रीतू गुलाटी  यह भी पढ़ें …  बिगड़ते रिश्तों को संभालता है पॉज बटन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं कहीं हम ही तो अपने बच्चों के लिए समस्या नहीं आपको आपको  लेख “ख़राब होते रिश्ते -बेटी को बनना होगा जिम्मेदार बहु    “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords:women issues,indian women,  relationships, family joint family

विवाहेतर रिश्तों में सिर्फ पुरुष ही दोषी क्यों ?

                                दो व्यस्क लोग जब मिल कर एक गुनाह करते हैं तो सजा सिर्फ एक को क्यों ? ये प्रश्न उठता तो हमेशा से रहा है परन्तु  इस सामजिक प्रश्न  की न्यायलय में कोई सुनवाई नहीं थी | ये सच है की विवाह  एक ” अटूट बंधन ” है | जिसमें पति – पत्नी दोनों एक दूसरे के प्रति वफादार रहने की कसम खाते हैं | फिर भी जब किसी भी कारण से ये कसमें टूटती हैं तो उसकी आंच चार जिंदगियों को लपेटे में ले लेती है | और जिंदगी भर जलाती है |दुर्भाग्य है की एक तरफ तो हम स्त्री पुरुष समानता की बात कर रहे हैं वही  हमारा कानून ऐसे मामलों में सिर्फ पुरुषों को दोषी मानता है | और कानूनन  दंड का अधिकारी भी |  अक्सर ऐसे मामलों में महिला शोषित की श्रेणी में आ जाती है | जिसे बरगलाया या फुसलाया गया  | हालांकि इस बात पर उस महिला का पति उससे तलाक ले सकता है पर कानून दंड का कोई प्रावधान नहीं हैं | क्या आज जब महिलाएं पढ़ी -लिखी व् खुद फैसले ले सकती हैं तो क्या व्यस्क रिश्तों में दोनों को मिलने वाले दंड में बराबरी नहीं होनी चाहिए ? विवाहेतर रिश्तों की कहानी     दिव्या और सुमीत अपने बच्चों के साथ  दिल्ली में रह रहे थे | दिव्या और सुमीत के बीच में ऐसा कुछ भी नहीं था जिससे ये कहा जा सके की ये खुशहाल परिवार नहीं है | तभी ताज़ा हवा के झोंके की तरह समीर उनके घर के पास वाले घर में अपनी पत्नी आशा व् बेटी निधि के साथ किराए पर रहने आया | दोनों परिवारों में पारिवारिक मित्रता हुई | जैसा की हमेशा होता है की पड़ोसी के यहाँ कुछ अच्छा बनाया भेज दिया , एक दूसरे की अनुपस्थिति में उनके बच्चों के आने पर उसका ध्यान रख लिया , और मुहल्ले की अन्य  कार्यक्रमों में साथ – साथ गए | पर यहाँ दोस्ती का कुछ अलग ही रंग में रंग रही थी |                                     दिव्या जो बहुत अच्छा खाना बनाती थी और सुमीत को खाने का बिलकुल शौक नहीं था | ऐसा नहीं है की सुमीत को अच्छा खाना भाता नहीं था | पर पेट की बीमारियों के कारण वो सादा खाना ही पसंद करते थे | दिव्या जब भी कुछ बनाती तो तारीफ़ की आशा करती | पर सुमीत कोई भी तली – भुनी चीज सिर्फ एक – दो चम्मच ले कर यह कहना नहीं भूलते ज्यादा तला भुना न बनाया करो | मुझे हजम नहीं होता और बच्चों को भी इससे कोई फायदा नहीं होगा | दिव्या मन मसोस कर रह जाती | ऐसे ही एक दिन दिव्या ने कुछ बनाया और सुमीत ने सही से रीएक्ट नहीं किया | दिव्या दुखी बैठी थी की समीर आशा व् निधि के साथ उनके घर आये |दिव्या ने वही खाना टेबले पर लगा दिया | समीर जो खाने के बहुत शौक़ीन थे | अपने आप को रोक नहीं पाए | और तारीफ़ कर – कर के खाते रहे | दिव्या की जैसे बरसों की मुराद पूरी हो गयी |                            अब तो आये दिन दिव्या कुछ न कुछ अच्छा बना कर भेजती | समीर तारीफों के पुल बाँध देते | हालांकि आशा भी बदले में दिव्या के घर कुछ भेजती पर  वो खाना पकाने में इतनी कुशल नहीं थी | उसका मन किताबों में लगता था | उसका समीर का इस तरह दिव्या के खाने की तारीफ करना खलता तो था पर वो यही सोंच कर चुप रहती की चलो कोई बात नहीं समीर की इच्छा तो पूरी हो रही है | फिर उसे दिव्या से कोई शिकायत भी नहीं थी |  खाने का ये आकर्षण सिर्फ खाने तक सीमित नहीं रहा | समीर की तारीफे बढती जा रही थीं | एक दिन वो किसी जरूरी कागज़ात को देने दिव्या के घर गया | दिव्या गाज़र का हलवा बना रही थी | उसने समीर से हलवा खा कर जाने की जिद की | समीर भी वही बैठ गया |  बच्चे खेल रहे थे | थोड़ी देर बाद बच्चे बाहर पार्क में खेलने चले गए  | दिव्या  हलवा ले कर आई | पिंक साड़ी में वो बहुत आकर्षक लग रही थी | समीर हलवा खाते हुए एक – टक  दिव्या को देख रहा था | दिव्या समीर का देखने का अंदाज समझ रही थी मुस्कुरा कर बोली हलवा कैसे बना | समीर ने दिव्या की आँखों में डूब कर कहा ,” जी करता है बनाने वाले के हाथ चूम  लूँ | दिव्या ने हाथ आगे बढ़ा दिये … तो फिर देर कैसी ? फिर क्या था … मर्यादा , संस्कार और सामाजिक नियम की दीवारें गिरने  में देर नहीं लगी | दोनों की शादियों के अटूट बंधन ढीले पड़ने लगे |  ये सिलसिला तब तक चला जब तक आशा और सुमीत को पता नहीं चला | जब उन्हें पता चला तो जैसे तूफान सा आ गया | आशा व् सुमीत अपने को ठगा सा महसूस कर रहे थे | विवाहेतर रिश्तों में क्या कहता है न्याय                         कानून के अनुसार दो विवाहित लोगों के बीच विवाहेतर रिश्ते  जो आपसी सहमति  से बने हैं रेप की श्रेणी में नहीं आते हैं |परन्तु उनमें दोनों अपराधी  या गिल्टी माना जाता है | offence of adultery को समझने के लिए हमें कोड ऑफ़ क्रिमिनल प्रोसीजर , 73 के सेक्शन 198(2) को समझना पड़ेगा | कोई भी कोर्ट इस प्रकार के रिश्तों को तब तक दंडात्मक नहीं मानेगी जब तक वो लोग जो इससे प्रभावित हैं इसकी शिकायत न करें | ( इंडियन पीनल कोड – 45ऑफ़ 1860) किसी भी विवाहेतर रिश्ते में स्त्री पुरुष जिनकी सहमति  से रिश्ता बना है दोनों अपराधी है हालांकि इसमें दंड का प्रावधान तब तक नहीं है जब तक उस महिला का पति ( उदाहरण  में सुमीत ) दूसरे … Read more

बाबा का घर भरा रहे

एक औरत की डायरी – बाबा का घर भरा रहे  हेलो , कैसी हो बिटिया   फोन पर बाबूजी के ये शब्द सुनते ही उसकी निराश वीरान जिंदगी में जैसे प्रेम की बारिश  हो जाती और वो भी उगा देती झूठ की फसलें … हां बाबूजी , बहुत खुश हूँ | सुधीर बहुत ध्यान रखते हैं | जुबान से कुछ निकले नहीं की हर फरमाइश पूरी | अभी कल ही लौट कर आये हैं दो दिन की पिकनिक से |वैसे भी राची  के पास कितने झरने हैं |  चले जाओ तो  लगता है जैसे  प्रकति की गोद में बैठे हों… और .. वो आधे घंटे तक बोलती रही एक खुशनुमा जिंदगी की नकली दास्ताँ | किसी परिकथा सी | उसे भी कहा पता था था की वो इतनी अच्छी कहानियाँ बना लेती है | झूठी कहानियाँ | पर उन्हें बनाने का उसका उद्देश्य  सच्चा होता था | वो जो भी है भोग लेगी बस बाबूजी खुश रहैं  | ऊसका मायका सलामत रहे | बाबा का घर भरा रहे | एक बेटी यही तो चाहती हैं …वो दूर जिंदगी की धूप झेलती रहे पर उसकी जडें सुरक्षित रहे | बाबूजी भी खुश हो कर कहते ,” बिटिया ऐसे ही खुश रहो | हम लोगों का आशीर्वाद तुम्हारे साथ है | फोन रख कर अक्सर वो सोंचती ,अच्छा किया बाबूजी से झूठ बोल दिया | वैसे भी तो सेहत साथ नहीं देती उनकी | मेरा दुःख सुनेगे तो सह नहीं पायेंगे |  कल के परलोक जाते आज ही चले जायेंगे | नहीं – नहीं , मैं अपने बाबूजी को नहीं खोना चाहती | मैं उन्हें अपना दुःख नहीं बताउंगी | फोन खत्म कर भी नहीं पायी थी कि तभी सुधीर आ गए | बाबूजी से क्या हंस – हंस के बतिया रही थी | अब तो शादी के इतने साल हो गए | अभी भी जब देखो मन माँ – बाप ही लगा रहता है |जब मन में माँ – बाप ही बसे रहेंगे तो  ससुराल में मन कैसे रमेगा | ये शालीन औरतों के लक्षण नहीं है | आज उसने कोई जवाब नहीं दिया | कितना छांटा है , कितना काटा है उसने शालीन औरतों  की परिभाषा में खुद को फिट करने के लिए | पर जितना वो काटती है ये सांचा उतना ही कस जाता है | कौन बनता है शालीन औरतों के सांचे | औरत को इतना बोलना हैं , इतना हँसना है , इतनी बार मायके जाना है , और इतना … |उफ़ !  कितने कसे होते हैं ये सांचे | फिर सुधीर का साँचा वो तो इतना कसा था , इतना कसा की उसे लगता शायद सुधीर की शालीन औरत वो ताबूत है जिसमें घुट कर वो मर जायेगी | कहते हैं बाढ़ बहुत तेज हो तो बाँध टूट ही जाते हैं | चाहे कितने मजबूत बने हों | पर मन के बाँध तो अचानक टूटते हैं | पता ही नहीं चलता की कब से दर्द की नदी खतरे के निशान से ऊपर बह रही थी | बस जरा सा पानी बढ़ा और टूट गया बरसों मेहनत  से बनाया सहेजा गया बाँध |  ऐसे ही उस दिन उसके सब्र का बाँध टूट गया जब बिटिया बोल पड़ी , ” पापा दुकान वाले अंकल ने टाफी दी है | बात मामूली थी | पर स्वाभाव से शक्की सुधीर आगबबूला हो गए | क्या ऐसी ही शालीन औरतें होती हैं | हर किसी से रिश्ते गाँठती  है | लो अब बिटिया भी अंकल कह रही है | कोई अंकल , कोई चाचा कोई भैया और इन रिश्तों की आड़ में जो होता रहा है वो हमसे छुपा नहीं है | सुधीर तो कह कर चले गए | वो रोती  रही , रोती रही |कितना कसा है उसने खुद को | कहीं आती जाती नहीं | किसी से बात भी नहीं करती | अब इससे ज्यादा क्या करे |  तभी बेटी उसके गले में बाहें डाल  कर बोली ,” माँ सामने वाले भैया बुला रहे हैं उनके घर खेलने जाऊं | पता नहीं इन शब्दों ने क्या जहर सा असर किया | वो आपा  खो बैठी | बेतहाशा बेटी को पीटने लगी | खबरदार भैया , चाचा , मामा किसी को कहा | सब आदमी हैं आदमी | बस्स ..| अभी तक तो तेरे पापा  की वजह से कितना खुद को सांचे में ढालने की कोशिश की है | अब तू हर किसी को  अंकल मामा चाचा कहेगी तो मेरे सांचे और कस जायेंगे | सांस लेने की हद तक घुटन भर रही है मेरे जीवन में | कह कर वो रोती रही घंटों … जब होश आया तो बेटी आँखों में आँसूं भरे खड़ी  थी | सॉरी मम्मी अब कभी  नहीं कहूँगी अंकल, भैया आप मत रो |प्लीज मम्मी  कितने मासूम होते हैं बच्चे |लगा की किसी फूल की पंखुड़ी सी सहेज कर रख ले अपने मन की किताब के सुनहरे पन्नों के बीच | कोई दुःख छू भी न जाए | पर  कितना भी चाहों  माँ – बाप के हिस्से के दुःख बच्चों के  भाग्य  में भी जन्म से लिख जाते हैं |वो जान गयी थी की एक शक्की पति के साथ निभाना इतना आसान नहीं है | कहाँ तक खुद को काटेगी | कहाँ तक छांटेगी | खत्म भी हो जायेगी तो भी क्या सुधीर का शक दूर कर पाएगी |कल को बेटी बड़ी हो जायेगी तो ये शक का सिलसिला उसे भी अपनी चपेट में ले लेगा | नहीं … सिहर उठी थी वो अपने ही ख़याल से |   बेटी को सीने से लगा कर उसने निर्णय कर लिया अबकी बाबूजी को बता देगी सब | अपनी बेटी को यूँ घुट – घुट कर नहीं मरने देगी | बाबूजी को बताने के बाद बाबूजी का चेहरा उदास हो गया | थोड़ी देर में खुद को संयत कर जाने कहाँ से संचित गुस्सा उनकी आँखों में उतर आया | रोष में बोले मैं अभी जाता हूँ तुम्हारे ससुराल इसको ये सुना देंगे , उसको वो सुना देंगे | फिर देखे तुम्हें कैसे कोई वहां सताता है | बात सपष्ट थी … रहना तो उसे उसी घर में था | जहाँ सुना कर आने से बात नहीं … Read more

स्त्री ही स्त्री की शक्ति – मैत्रेयी पुष्पा

 अवसर था  हिंदी भवन में हिंदी मासिक पत्रिका “ अटूट बंधन “ के  सम्मान समारोह – २०१५ के  आयोजन का  | कार्यक्रम की मुख्य अतिथि सुविख्यात लेखिका व् साहित्य एकादमी दिल्ली की उपाध्यक्ष श्रीमती मैत्रेयी पुष्पा जी थी व् मुख्य वक्ता अरविन्द सिंह जी( राज्यसभा टी. वी ) व् सदानंद पाण्डेय जी ( एसोसिएट एडिटर वीर अर्जुन ) थे | प्रस्तुत है एक रिपोर्ट  मैत्रेयी जी की सौम्य छवि में हर स्त्री को अपनापन  महसूस होता है | ये उस अपनेपन का असर ही तो है की मैत्रेयी जी बड़ी ही बेबाकी से स्त्री मन की बात को अपनी कलम के माध्यम से व्यक्त करती रही हैं | और स्त्रियों के जीवन को आसान बनाने की लड़ाई लडती रही हैं |   एक स्त्री ही स्त्री की शक्ति सबसे पहले  श्रीमती मैत्रेयी पुष्पा जी ने सरस्वती प्रतिमा के आगे दीप जला कर कार्यक्रम का शुभारम्भ किया | उन्होंने सभा को संबोधित करते हुए कहा कि एक स्त्री ही स्त्री की शक्ति हैं | उन्होंने आगे कहा कि ये पुरुष प्रधान समाज की सोंच है की ,” एक स्त्री दूसरी स्त्री को पसंद नहीं करती हैं, या नीचा दिखाने का प्रयास करती है, उनमें परस्पर वैमनस्य होता है | वास्तविकता इससे बिलकुल उलट है  |स्त्री की उपस्थिति  में दूसरी स्त्री अपने को सुरक्षित व् सहज महसूस करती है |उसे आत्म रक्षा के लिए बनावटी आवरण नहीं ओढने पड़ते | यही कारण है की एक स्त्री दूसरी स्त्री का दुःख बहुत अच्छी तरह से समझ सकती है व् बाँट सकती है मैत्रेयी पुष्पा जी ने महिला सिपाहियों के सामने दिए गए अपने भाषण का उल्लेख करते हुए कहा कि जब वो विद्यार्थी थी व् बस से स्कूल जाया करती थी तो स्त्री होने के नाते उन्हें जो कष्ट , ताने , अपमान सहने पड़ते थे उसे वो मौन होकर झेलने को विवश थी | रास्ते में एक थाना पड़ता था | दिल करता था बस से कूद कर वहां उस दुर्व्यवहार की शिकायत करे परन्तु पुरुष पुलिस कर्मियों के दुर्व्यवहार के किस्से उन्हें भयभीत करते थे | अगर कोई महिला पुलिस कर्मी वहां होती तो वह जरूर बस से उतर कर थाने जाती और बस उससे लिपट कर रो लेती | न वो कुछ कहती न वो कुछ सुनती पर सारा दर्द बिना कहे सुने बयाँ हो जाता |   उन्होंने आगे कहा की उनके इन शब्दों को सुन कर महिला सिपाही द्रवित हो उठी और हर महिला ने आगे आकर अपना एक किस्सा सुनाया | जो पुरुष शोषण कि दास्ताँ थी | सारा हाल सिसकियों से भर उठा |थोड़ी देर पहले जो महिलाएं अपने  सिपाही बनने  के अपने फैसले पर बहुत खुश नहीं थी वो गर्व से भर उठी व् उन्होंने इस बात को स्वीकार किया कि एक स्त्री   दूसरी स्त्री की उपस्थिति  में सुरक्षित महसूस करती है | श्रीमती पुष्प ने बताया कि बाद में उन्होंने  उनके हर किस्से को उन्होंने अपनी पुस्तक “ फाइटर कि डायरी” में उद्घृत किया है | जो उनकी अति लोकप्रिय पुस्तकों में से एक है |     संपादन के क्षेत्र में महिला रचनाकारों का आगे आना सुखद   अपनी बात पर जोर देते हुए श्रीमती पुष्पा ने कहा कि हर क्षेत्र में महिलाओ का आगे आना जरूरी हैं क्योंकि ये दूसरी महिलाओ को सुरक्षा का अहसास दिलाता है | उन्होंने ख़ुशी जाहिर की संपादन के क्षेत्र में आज महिलाएं आगे आ रही हैं | पर अभी और महिलाओं को आगे आना चाहिए | ये अभी तक स्त्रियों के लिए वर्जित क्षेत्र था | इस क्षेत्र में महिलाओं का आगे आना पुरुष संपादकों द्वारा महिला रचनाकारों के शोषण को रोकेगा | जिससे उनकी लेखनी मुखर हो सकेगी | उन्होंने आगे कहाँ की साहित्य जीवन की शिक्षा देता हैं | व्यक्ति डाक्टर हो सकता है , इंजिनीयर हो सकता है , पर जिसने साहित्य नहीं पढ़ा उसने जीवन को नहीं पढ़ा |     प्रचार से नहीं विषय – वस्तु से चलती हैं पत्रिकाएँ पत्र –पत्रिकाओं के विषय में चर्चा करते हुए उन्होंने कहा कि एक पत्रिका को रचनाकार मिल सकते हैं , बहुत प्रयास से उसका प्रचार –प्रसार भी किया जा सकता है ,परन्तु अगर उसकी विषय वस्तु में दम नहीं होगा तो पाठक नहीं मिलेंगे | जिसक पत्रिका की विषय वस्तु में दम होगा उसे पाठक ढूंढ – ढूंढ कर पढेंगे | रचना ठोस व् सत्य आधारित होनी चाहिए फिर चाहे उसमें आधुनिक जीवन शैली का वर्णन हो या लोकजीवन  का |   लोग हिंदी पढना चाहते हैं उन्होंने इस दुष्प्रचार का विरोध किया कि लोग हिंदी पढना नहीं चाहते हैं | सच्चाई ये है कि लोग हिंदी साहित्य को पढना चाहते हैं, पर भ्रामक प्रचार से दूर हो रहे हैं | बार – बार ये बात फैलाई जा रही है की लोग हिंदी नहीं पढना चाहते | जो की सच नहीं है | उन्होंने डी यू के अपने अनुभव को साझा करते हुए कहा की की वहां एक बार जाने पर उन्होंने छात्र – छात्राओं के मन में हिंदी के प्रति अथाह प्रेम देखा | परन्तु अफ़सोस इस दिशा में कोई सार्थक प्रयास नहीं किया जा रहा है | इसके लिए स्कूल  कॉलेजों में कविता कहानी की कार्यशाला यें लगाने पर बल दिया |       अपने भाषण के अंत में उन्होंने एक बार फिर कहा की हर क्षेत्र में  स्त्रियो का आगे आना सुखद है और वः अपनी कलम से उनके लिए हर संभव लड़ाई लडती रहेंगी |    टीम ABC   एक महान सती थी पद्मिनी फिल्म पद्मावती से रानी पद्मावती तक बढ़ता विवादशादी ब्याह -बढ़ता दिखावा , घटता अपनापन मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं   आपको आपको  लेख “ स्त्री ही स्त्री की शक्ति – अटूट बंधन सम्मान समारोह में मैत्रेयी पुष्प जी के भाषण का अंश “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |  keywords:Women empowerment, Women issues, Maitreyi Pushpa,Atoot Bandhan 

दहेज़ प्रथा – मुझे जीवनसाथी के एवज में पैसे देना स्वीकार नहीं

दहेज क्या है? विवाह के समय माता-पिता द्वारा अपनी संपत्ति में से कन्या को कुछ धन, वस्त्र, आभूषण आदि के रूप में देना ही दहेज है। प्राचीन समय में ये प्रथा एक वरदान थी। इससे नये दंपत्ति को नया घर बसाने में हर प्रकार का सामान पहले ही दहेज के रूप में मिल जाता था। माता-पिता भी इसे देने में प्रसन्नता का अनुभव करते थे। परंतु समय के साथ-साथ यह स्थिति उलट गयी। वही दहेज जो पहले वरदान था अभिशाप बन गया है। आज चाहे दहेज माता पिता के सामर्थ में हो ना हो, जुटाना ही पड़ता है। कई बार तो विवाह के लिए लिया गया कर्ज सारी उमर नहीं चुकता तथा वर पक्ष भी उस धन का प्रयोग व्यर्थ के दिखावे में खर्च कर उसका नाश कर देता है। इसका परिणाम यह निकला कि विवाह जैसा पवित्र संस्कार कलुषित बन गया। कन्यायें माता-पिता पर बोझ बन गयीं और उनका जन्म दुर्भाग्यशाली हो गया। पिता की असमर्थता पर कन्यायें आत्महत्या तक पर उतारू हो गयीं।  ‘मैं जिस किसी की जीवन साथी बनूँगी, उसको जीवन साथी बनने के एवज में कोई पैसा नही दूँगी।’’ इसके लिए विचारशील नवयुवकों को स्वयं आगे आकर इस लानत से छुटकारा पाना होगा। साथ ही समाज को भी प्रचार द्वारा अपनी मान्यताए बदलकर दहेज के लोभियों को कुदृष्टि से देखकर अपमानित करना चाहिए। अभी तक इस विषय में बहुत कुछ करना अभी शेष है। जैसा आप सबको पता है कि भारतीय पुरूषों के अपने जीवन साथी से पैसा लेने की इस कुप्रथा को ही ‘‘दहेज प्रथा’’ कहते हैं। इस प्रथा का साइड इफेक्ट अब यह हो गया है कि लाखों की संख्या में लड़कियां पैदा होने से पहले ही गर्भ में मार दी जाती हैं। आप जानते ही है कि ‘‘सेक्स अनुपात’’ गड़बड़ा जाने से कितने तरह के अपराध पनपते हैं।  दहेज प्रथा लोकतंत्र के सभी स्तम्भों तक कई जगह सुनने में आ रहा है कि जो नौजवान आईएएस/आईपीएस/पीसीएस (जे)/एचजेएस हो जा रहे हैं वो और उनके परिवार अपनी जीवनसाथी से 25-25 करोड़ तक लेकर बेमेल शादी कर रहे हैं। जबकि एक आईएएस/आईपीएस/पीसीएस (जे)/एचजेएस को नौकरी की शुरूआत में ही एक जिले की व्यवस्था सुधारने की जिम्मेदारी दी जाती है और वह भारत की 125 करोड़ की आबादी के उन 600 सबसे शक्तिशाली लोगों में शामिल होते हैं, जिनको भारत के कुल 600 जिलों में रह रहे भारतीय नागरिकों को सबसे अच्छी व्यवस्था देनी होती है, उनको सब प्रकार की बुराईयों से बचाना होता है। लेकिन दुर्भाग्यवश यह दहेज कुप्रथा लोकतंत्र के सभी स्तम्भों तक भी अब पहुँच गई है और लोकतंत्र में जिस वर्ग को व्यवस्था को चलाने की जिम्मेदारी है अगर वही ऐसी कुप्रथाओं के वायरस से ग्रस्त हो जायेंगे तो फिर भारत के लोकतंत्र का चरमराना तय है। सबसे ऊपर वर्ग ही ग्रसित हो जाये तो बाकी को क्या कहना? अगर हम अब भी न चेते तो हमारी बेटियाँ/बहनें निराशा में चली जाएंगी, और हम सब ध्यान रखें कि बेटी ही भावी माँ होती है और अगर माँ ही निराशा में चली गई तो हम लाख ‘‘भारत माता की जय’’ बोले, भारत कैसे आगे बढ़ेगा। दहेज़ प्रथा को रोकने की शुरुआत हर लड़की कोखुद से करनी होगी  भारतीय मानस दहेज मुक्त हो और दहेज कुप्रथा से उत्पन्न हो रही समस्याओं से अवगत हो। दहेज़ प्रथा को रोकने की शुरुआत हर लड़की कोखुद से करनी होगी  | उसी की शुरुआत करते हुए मैं संकल्प लेती हूँ कि मैं दहेज प्रथा आधारित वैवाहिक सम्बन्ध को किसी भी दशा में स्वीकार नही करूँगी तथा मैं इस सामाजिक कुरीति के विरूद्ध प्रारम्भ हो रही वैचारिक क्रान्ति में पूर्ण मनोयोग से तब तक सहभागिता करती रहूँगी जब तक सर्वथा समाज विरोधी इस कुप्रथा का समूल नाश न हो जाये। आप सभी विचारशील नागरिकों के आशीर्वाद से मेरा शुभ संकल्प पूरा हो। दहेजरहित समाज के निर्माण में मीडिया बन्धुओं का सक्रिय सहयोग बड़ी भूमिका निभा रहा है, आगे भी निभाता रहेगा।   तो अब वक्त आ गया है कि भारत के श्रेष्ठ बौद्धिक जन उठकर खड़े हों और ‘‘डाउरी फ्री इंडिया मूवमेंट’’ की शुरूआत करें। संकल्प सभा का आयोजन किया जाये जिसमें हर जाति/धर्म की ऐसी लड़कियां जो आत्मनिर्भर हैं या आत्मनिर्भरता की तरफ अग्रसर हैं, वो संकल्प ले कि ‘‘मैं अपने आत्म गौरव के सापेक्ष संकल्प लेती हूँ कि मैं जिस किसी की जीवन साथी बनूँगी, उसको जीवन साथी बनने के एवज में कोई पैसा नहीं दूँगी।’’  दहेज़ प्रथा के विरुद्ध एक सवाल भारतीय पुरुषों से   ‘‘आइये हम भारतीय पुरूषों से यह सवाल पूछें कि क्या आप अपने गृहस्थ जीवन की शुरूआत अपनी जीवनसंगिनी से पैसा लेकर करेंगे? आइए हम भारतीय स्त्रियों से यह सवाल पूछें कि तुम कब तक जीवनसंगिनी बनने के भी पैसे दोगी? हम सब ‘‘दहेज कुप्रथा’’ पर व्यवस्थित तरीके से चोट करना अपने परिवार से आरम्भ करें, यही देश के महापुरूषों के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी। दहेज मांगना और देना दोनों निन्दनीय कार्य हैं। जब वर और कन्या दोनों की शिक्षा-दीक्षा एक जैसी है, दोनों रोजगार में लगे हुए हैं, दोनों ही देखने-सुनने में अच्छे तथा स्वस्थ हैं, तो फिर दहेज की मांग क्यों की जाती है? कन्यापक्ष की मजबूरी का नाजायज फायदा क्यों उठाया जाता है? भारत में कुछ ऐसी जातियां भी हैं जो वर को नहीं, अपितु कन्या को दहेज देकर ब्याह कर लेते हैं, लेकिन ऐसा कम ही होता है। अब तो ज्यादातर जाति वर के लिए ही दहेज लेती हैं। दहेज प्रथा को रोकने के लिए सार्थक उपाय  दहेज-दानव को रोकने के लिए सरकार द्वारा सख्त कानून बनाया गया है। इस कानून के अनुसार दहेज लेना और दहेज देना दोनों अपराध माने गए हैं। अपराध प्रमाणित होने पर सजा और जुर्माना दोनों भरना पड़ता है। यह कानून कालान्तर में संशोधित करके अधिक कठोर बना दिया गया है। अधिक संख्या में बारात लाना भी अपराध है। दहेज के लिए कन्या को सताना भी अपराध है। दहेज के कलंक और दहेज रूपी सामाजिक बुराई को केवल कानून के भरोसे नहीं रोका जा सकता। इसके रोकने के लिए लोगों की मानसिकता में बदलाव लाया जाना चाहिए।  विवाह अपनी-अपनी जाति में करने की जो परम्परा है उसे तोड़ना होगा तथा अन्तर्राज्यीय विवाहों को प्रोत्साहन देना होगा। तभी दहेज लेने के मौके घटेंगे और विवाह का क्षेत्र व्यापक … Read more

फिल्म पद्मावती से रानी पद्मावती तक बढ़ता विवाद

आज संजय लीला भंसाली के कारण रानी पद्मावती  व् जौहर व्रत फिर से चर्चा में है | फिल्म पर बहसें जारी हैं | हालाँकि की जब तक फिल्म न देखे तब तक इस विषय में क्या कह सकते हैं ? ये भी सही है की कोई भी फिल्म बिलकुल इतिहास की तरह नहीं होती | थोड़ी बहुत रचनात्मक स्वतंत्रता होती ही है | जहाँ तक संजय लीला भंसाली का प्रश्न है उनकी फिल्में भव्य सेट अच्छे निर्देशन व् गीत संगीत , अभिनय के कारण काफी लोकप्रिय हुई हैं |  परन्तु यह भी सच है की वह भारतीय ऐतिहासिक स्त्री चरित्रों को हमेशा से विदेशी चश्मे से देखते रहे | ऐसा उन्होंने अपनी कई फिल्मों में किया है | उम्मीद है इस बार उन्होंने न्याय किया होगा | आज इस लेख को लिखने का मुख्य मुद्दा सोशल मीडिया पर हो रही वह बहस है जिसमें फिल्म पद्मावती के स्थान पर अब रानी पद्मावती को तुलनात्मक रूप से कमतर साबित करने का प्रयास हो रहा है | रानी पद्मावती इतिहास के झरोखे से प्राप्त ऐतिहासिक जानकारी के अनुसार संझेप मे रानी  पद्मावती सिंघल कबीले के राजा गंधर्व और रानी चंपावती की बेटी थी | वो अद्वितीय सुंदरी थीं | कहते हैं की वो इतनी सुन्दर थीं की अगर पानी भी पीती तो उनकी गर्दन से गुज़रता हुआ दिखाई देता |पान खाने से उनका गला तक लाल हो जाता था |  जब वो विवाह योग्य हुई तो उनका स्वयंवर रचाया गया | जिसे जीत कर चित्तौड़ के राजा रतन सिंह ने रानी पद्मावती से विवाह किया | और उन्हें ले कर अपने राज्य आ गए |  यह १२ वी १३ वी शताब्दी का समय था | उस समय चित्तौड़ पर राजपूत राजा रतन सिंह का राज्य था | जो सिसोदिया वंश के थे | वे अपनी पत्नी पद्मावती से बेहद प्रेम करते थे | कहते हैं उनका एक दरबारी राघव चेतन अपने राजा  के खिलाफ हो कर दिल्ली के सुलतान अल्लाउदीन खिलजी के पास गया | वहां जा कर उस ने रानी की सुदरता का वर्णन कुछ इस तरह से किया की सुलतान उसे पाने को बेचैन हो उठा |उसने चित्तौड़ पर चढ़ाई कर दी |राजा रतन सिंह  ने किले का दरवाजा बंद करवा दिया | खिलजी की सेना बहुत बड़ी थी | कई दिन तक युद्ध चलता रहा | किले के अन्दर खाने पीने का सामान खत्म होने लगा | तब राजा रतन सिंह ने किले का दरवाजा खोल कर तब तक युद्ध करने का आदेश दिया जब तक शरीर में प्राण रहे |  रानी पद्मावती जानती थी की की राजा रतन सिंह की सेना बहुत छोटी है | पराजय निश्चित है | राजपूतों को हरा कर सैनिक उसके साथ दुर्व्यवहार करेंगे | इसलिए उसने जौहर व्रत का आयोजन किया | जिसमें उसने व् किले की समस्त स्त्रियों ने अग्नि कुंड में कूदकर अपने प्राणों का बलिदान किया  | जब खिलजी व् उसकी सेना रतन सिंह की सेना को परस्त कर के अन्दर आई तब उसे राख के अतिरिक्त कुछ नहीं मिला | रानी पद्मावती के ऐतिहासिक साक्ष्य रानी पद्मावती के बारे में लिखित ऐतिहासिक साक्ष्य मालिक मुहम्मद जायसी का पद्मावत नामक महा काव्य है | कर्नल टाड  ने भी राजस्थान के इतिहास में रानी पद्मावती के बारे में वर्णन  किया है | जो जायसी के माहाकव्य से मिलता जुलता है | जिसे उन्होंने जनश्रुतियों के आधार पर तैयार किया | इतिहासवेत्ता साक्ष्यों के आभाव में इसके अस्तित्व पर समय समय पर प्रश्न चिन्ह लगाते रहे हैं | परन्तु एक पराधीन देश में ऐतिहासिक साक्ष्यों का न मिल पाना कोई असंभव बात नहीं है | साक्ष्य नष्ट किये जा सकते हैं पर जनश्रुतियों के आधार पर एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक पहुंची सच्चाई नहीं | ये अलग बात है की जनश्रुति के आधार पर आगे बढ़ने के कारण कुछ जोड़ – घटाव हो सकता है | पर इससे न तो रानी पद्मावती के अस्तित्व पर प्रश्न चिन्ह लगता है न ही उसके जौहर व्रत पर … जिसे स्त्री अस्मिता का प्रतीक बनने  से कोई रोक नहीं पाया | रानी पद्मावती की सीता व् लक्ष्मी बाई से तुलना आश्चर्य है की फिल्म पद्मावती का पक्ष लेने की कोशिश में सोशल मीडिया व् वेबसाइट्स पर सीता पद्मावती और रानी लक्ष्मी बाई की तुलना करके रानी पद्मावती को  कमतर  साबित करने  का बचकाना काम  किया जा रहा है  | जहाँ ये दलील दी जा रही है की सीता रावण के राज्य में अकेली होकर भी आत्महत्या नहीं करती है व् रानी लक्ष्मी बाई अकेली  हो कर भी अंग्रेजों से लोहा लेती है तो रानी पद्मावती ने आत्महत्या (जौहर ) कर के ऐसा कौन सा आदर्श स्थापित कर दिया जो वह भारतीय स्त्री अस्मिता का प्रतीक बन गयी | हालांकि मैं दो विभिन्न काल खण्डों की स्त्रियों की तुलना के  पक्ष में नहीं हूँ | फिर भी यहाँ स्पष्ट करना चाहती हूँ | इन तीनों की स्थिति अलग – अलग थी | जहाँ रावण ने  सीता की इच्छा के बिना उन्हें हाथ न लगाने का संकल्प किया था | वो केवल उनका मनोबल तोडना चाहता था | जिसे सीता ने हर विपरीत परिस्थिति में  टूटने नहीं दिया | कहीं न कहीं उन्हें विश्वास था की राम उन्हें बचाने अवश्य आयेंगे | वो राम को रावण से युद्ध में परस्त होते हुए देखना चाहती थी | यही इच्छा उनकी शक्ति थी | रानी लक्ष्मी बाई  का युद्ध अंग्रेजों के खिलाफ था | अंग्रेज उनका राज्य लेना चाहते थे उन्हें नहीं | इसलिए उन्होंने अंतिम सांस तक युद्ध करने का निर्णय लिया | रानी पद्मावती   जानती थी की राजा रतनसिंह युद्ध में परस्त हो जायेंगे | वो भी अंतिम सांस तक युद्ध कर के वीरगति को प्राप्त हो सकती थी | लेकिन अगर वो वीरगति को प्राप्त न होकर अल्लाउदीन  खिलजी की सेना द्वारा बंदी बना ली जाती तो ? ये जौहर व्रत अपनी अस्मिता को रक्षा करने का  प्रयास था | आत्महत्या नहीं है रानी पद्मावती का जौहर व्रत कई तरह से रानी पद्मावती  के जौहर व्रत को आत्महत्या सिद्ध किया जा रहा है | जो स्त्री अस्मिता की प्रतीक रानी पद्मावती  व् चित्तौड़ की अन्य महिलाओं को गहराई से न समझ पाने के कारण है … Read more