शादी – ब्याह :बढ़ता दिखावा घटता अपनापन

                                                                  आज कल शादी ब्याह ,दिखावेबाजी के अड्डे बन गए हैं | मुख्य चर्चा का विषय दूल्हा – दुल्हन व् उनके लिए शुभकामना के स्थान पर कितने की सजावट , खाने में कितने आइटम व् कितने के कपडे कितनी की ज्वेलरी हो गए हैं | ये दिखावेबाजी क्या घटते अपनेपन के कारण है | इसी विषय की पड़ताल करता रचना व्यास जी का उम्दा लेख  शादी – ब्याह :क्यों बढ़ रहा है दिखावा  हम समाज में रहते हैं साहचर्य के लिए ,अपनत्व के लिए और भावनात्मक संतुलन के लिए पर मुझे तो आजकल बयार उल्टी दिशा में बहती नजर आ रही है। अब बयार है प्रतियोगिता की, प्रदर्शन की ,एक दूसरे को नीचा दिखाने की। आजकल व्यक्तित्व, शिक्षा का स्तर व समझदारी से नहीं पहचाना जाता बल्कि कपड़े गहने ,जूते और गाड़ी से श्रेष्ठ बनता है।                                                                 एक स्त्री होने के नाते मैं गौरवान्वित हूँ  और इस प्रगतिशील युग में जन्मी होने के कारण विशेष रूप से धन्य हूँ।  हमने सभी मोर्चो पर खुद को उत्कृष्ट साबित कर दिया है। पर भीतर ये गहरी पीड़ा है कि हममेंसे ज्यादातर ऊपर बताई गई उस प्रतियोगिता की अग्रणी सदस्या है।  हम अपने बजट का ज्यादातर हिस्सा कॉस्मेटिक्स ,कपड़ों और मैचिंग ज्वैलरी पर खर्च करते हैं। संस्कृत साहित्य के महान नाटककार कालिदास का कथन है  “किमिव हि मधुराणां मण्डनं नाकृतीनाम्।”  अर्थात मधुर आकृतियों के विषय में प्रत्येक वस्तु अलंकार बन जाती है। यदि व्यक्तित्व में ओज हैं ,सात्विकता है तो साधारण श्रृंगार भी विशिष्ट प्रतीत होगा।  आज जब हम किसी पारिवारिक या सामाजिक  आयोजन में जाते है तो स्पष्ट महसूस कर सकते है कि मेजबान का पूरा ध्यान कार्यक्रम को भव्य बनाने पर रहता है। शादी ब्याह : गायब हो रहा है अपनापन  चाहे बजट बढ़ जाये पर सजावट में ,व्यंजनों की संख्या में ,मेहमानों की सुविधा में कोई कमी नहीं होनी चाहिए। वहीं मेहमान का पूरा ध्यान स्वयं को ज्यादा प्रतिष्ठित व सुंदर दिखाने पर होता है। इस बीच में बड़ो के लिए सम्मान ,छोटों के लिए आशीर्वाद और हमउम्र के लिए आत्मीयता बिलकुल गायब रहती है। मुझे आत्मिक पीड़ा ये है कि इस सबके लिए हम स्त्रियाँ ज्यादा उत्तरदायी है।  आज से पंद्रह वर्ष पूर्व तक अपने करीबी की शादी में हम हफ्ते भर रुकते थे। सारा शुभ काम उनके निवासस्थान पर ही होता। सारी स्त्रियाँ हँसते -हँसते हाथों से काम करती। गिने चुने सहायक काम के लिए होते जिन्हें गलती से भी नौकर नहीं समझा जाता था। असुविधा होने पर भी शिकायत नहीं होती थी। ख़ुशी -ख़ुशी जब वापस अपने घर लौटते तो थकान का कोई नामो -निशान भी नहीं होता। आज होटल में मेहमानों के सेपरेट रूम होते हैं। सर्वेन्ट्स की फौज होती है। पानी तक उठकर नहीं पीना पड़ता पर दो दिन बाद जब घर आते हैं तो बहुत थके होते है। क्या हमारा स्टेमिना इतना कम हो गया। दरअसल हमारे बीच का अपनत्व कम हो गया ,एक दूसरे के लिए शुभ भावना विलीन हो गई इसलिए हमें भावनात्मक ऊर्जा पूरी नहीं मिलती ,हृदय के आशीर्वाद नहीं मिलते।      अब हमें मात्र औपचारिकता निभानी होती है। दो दिन तक गुड़िया की तरह सज लो ,दिखावे को हँस लो और एक भार -सा सिर पर लादकर आ जाओ कि इनने इतना खर्च किया अब दो -तीन साल बाद मेरी बारी  है। रिसेप्शन शानदार होना चाहिए भले ही हमने अपने बेटे व बेटी को ऐसी सहिष्णुता नहीं सिखाई कि उसकी शादी सफल हो।  पहले कुछ रूपये शादी में लगते थे और हमारे दादा -दादी गोल्डन व प्लेटिनम जुबली मनाते थे। उससे आगे हजारों लगने लगे पर तलाक की नौबत कभी नही आती थी। आज लाखों -करोड़ों शादी में लगाते है और उससे भी ज्यादा तलाक के समय देना होता है।  इस सर्द दुनिया में रिश्तों की गर्माहट जरूरी है।तभी रिश्ते सजीव और चिरयुवा रहेंगे। एक अंधी दौड़ हम स्त्रियों ने ही शुरू की है क्यों न हम ही इसे खत्म कर दे। अबकी बार किसी आयोजन में जाए तो अपनी गरिमामय पोशाक में जाये। किसी के कपड़ो की समीक्षा मन में भी न करें। खाना कैसा भी बना हो उसे तारीफ करके ,बगैर झूठा छोड़े खाएं।  सब पर खुले मन से स्नेह और आशीष लुटाए ;बदले में प्रेम की ऊष्मा व ऊर्जा लेकर घर आयें। संतोष व सादगी की प्रतिमूर्ति बनकर ही हम स्त्रीत्व को सार्थक कर सकती है और समाज को एक खुला व खुशनुमा माहौल दे सकती हैं।यही नवविवाहित दम्पत्ति  को दिया गया हमारा ससे खुबसूरत तोहफा होगा | तो अगली बार कहीं शादी में जायें तो आप भी विचार करें की दिखावा कम और अपनापन ज्यादा हो |  द्वारा रचना  व्यास  एम  ए (अंग्रेजी साहित्य  एवं  दर्शनशास्त्र),   एल एल बी ,  एम बी ए यह भी पढ़ें …  फेसबुक और महिला लेखन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती करवाचौथ के बहाने एक विमर्श आपको आपको  लेख “शादी – ब्याह :बढ़ता दिखावा घटता अपनापन  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    

किस्सा बदचलन औरत का

बदचलन ! इसी नाम से पुकारते थे उसे सब । मेरे पिताजी ने भी तो माँ को बताया था उसके बारे में । माँ ने भी जब से सुना उसके बारे में , उसे फूटी आँख न सुहाती थी वह  । वह थी संध्या, हमारी नयी पड़ोसन जो कि मुंबई से आई थी  । देखने में अत्यंत खूबसूरत , छरहरी काया , गोरा रंग, सुनहरी बाल, मुस्कुराहट तो उसके होठों पर सजी ही रहती । आते-जाते सबसे हेलो, हाई, हाउ आर यू ? बोल ही देती  और अगर दूर से किसी को देखती तो हाथ हिला देती जिसे अँग्रेज़ी में वेव करना कहते हैं । शायद यह तरीका था उसका यह दिखाने का कि हाँ मैंने आप को पहचान लिया । मोहल्ले में सभी  औरतों व मर्दों से बात करती ।  जीन्स पहन कर जब वह जाती मोहल्ले के सभी मर्दों की नज़रें  उस पर टिक ही जातीं । मुझे वह बड़ी अच्छी लगती । लेकिन औरतें ! सब सामने तो उससे अच्छी बोलतीं लेकिन पीठ पीछे लगी रहतीं उसकी चुगली करने ।मेरी माँ भी उसके बारे में कुछ सुन कर आती तो पिताजी को ज़रूर बताती  । माँ कहतीं “ पति तो इसका यहाँ रहता नहीं , लगी रहती है ,नैन मटक्का करने दूसरे मर्दों से “ । मुझे भी हिदायत देतीं, कहतीं ” दूर  रहना उस से , ना जाने क्या पट्टी पढ़ादेगी ?”   भगवान जाने कैसी औरत है ? मैं भी माँ से बराबर विवाद करती। कहती ” माँ अच्छी तो है , क्या बुराई है उस में ? हँसमुख है , सब से बात करती है बस !  माँ कहती जाने दे तू ना समझेगी , मर्दों से कुछ ज़्यादा ही बात करती है । मैं कहती हाँ माँ ” तुम औरतों से बात करे तो व्यवहार और अगर पड़ौसी के नाते मर्दों से बोले तो ” बदचलन ” । माँ मेरे विवाद का जवाब कभी न दे पाती । सो चुप हो जाती, कहती ” जाने दे , तू तेरे काम में मन लगा ।उसकी बातों में व्यर्थ समय मत गँवा ।  मेरी भी नयी -नयी नौकरी थी , काम कुछ एसा था कि अंजान लोगों को फ़ेसबुक पर संदेश देने होते और ई-मेल भी भेजने पड़ते और दूसरों के संदेशों का जवाब भी देना पड़ता । इसी सिलसिले में कई लोग मुझे फ्रेंड्स रिक्वेस्ट भी भेज देते और कई अंजान लोग तरह-तरह के संदेश भी देने लगे । जिनके जवाब देना मुझे अच्छा न लगता । कई लोगों को जवाब दे भी देती किंतु फिर वे अपनी सीमा लाँघने की कोशिश करते । उनसे मुझे कन्नी भी काटनी पड़ती । जिससे वे चिढ़ जाते और ऊट-पटांग मेसेज भी देने लगते ।  इन सब हरकतों से मैं थोड़ा परेशान रहने लगी , सोचा माँ को बताऊं , लेकिन माँ मेरी क्या मदद करेगी ? जाने दो, नहीं बताती हूँ एसा सोचती मैं ।फ़ेसबुक पर होने के कारण कई बार वे संदेश रिश्तेदारों एवं पिताजी के मित्रों ने भी पढ़े । पिताजी को तो किसी से यहाँ तक सुनने को मिला कि उनकी बेटी बड़े ग़लत कार्यों में फँसी है । यह सुनते ही पिताजी तो आग बाबूला हो गये । मुझे सख़्त हिदायत मिल गयी नौकरी छोड़ने एवं फ़ेसबुक बंद करने की । मैंने अपने  पिताजीव माँ को बड़ी मुश्किल से समझाया कि मैंने कुछ ग़लत नहीं किया है , लेकिन लोगों के सोचने का तरीका ही कुछ एसा है ।  पिताजी को बात कुछ समझ में आई । माँ भी समझ गयी कि किस तरह से मुझे झूठा बदनाम किया जा रहा था । माँ व पिताजी शांत हो चुके थे ।  अगली बार जैसे ही माँ ने संध्या के बारे में कुछ बोलना चाहा मैंने उन्हें वहीं टोक दिया । बस करो माँ , और कितना बदनाम करोगी उसे । मोहल्ले की औरतों के साथ तुम भी फालतू की बातें बनाती रहती हो । इस बार माँ चुप हो गयी , कहने लगी ठीक ही कहती हो तुम ,संध्या तो अच्छी ही है व्यवहार एवं रूप-रंग दोनों में ।  फिर मैंने उन्हें समझाया, उसके पति यहाँ रहते नहीं, पड़ौसी होने के नाते सभी औरतों और मर्दों से बात कर लेती है , सभी से एक समान व्यवहार करती है । लेकिन उसके रूप-रंग एवं पहनावे के कारण शायद सभी उसे ग़लत नज़रों से देखते एवं कुछ तो अपनी सीमा लाँघने की कोशिश भी करते , जब वे अपने मकसद में कामयाब नही हो पाते तो उसे बदनाम करते और खाम्ख्वाह ही औरतों ने उसे संग्या दे दी थी बदचलन ! अब माँ का नज़रिया संध्या के लिए बिल्कुल बदल गया था  । वह समझ गयी थी कि अकेली या बेसहारा औरत को तो लोग उस अंगूर की बेल की तरह समझते हैं जिसका कोई भी मालिक नहीं । कोई भी आए, अंगूर तोड़े और खा ले । अगर अंगूर ना खा पाए तो कह दे ” अंगूर खट्टे हैं ” । यही हो रहा था संध्या के साथ । अब माँ ने बीड़ा उठा लिया था मोहल्ले की दूसरी औरतों को समझाने का और संध्या के साथ हिल-मिल कर रहने का ।      रोचिका शर्मा,चेन्नई     डाइरेक्टर,सूपर गॅन ट्रेडर अकॅडमी      (www.tradingsecret.c यह भी पढ़ें … ब्लू व्हेल का अंतिम टास्क यकीन ढिंगली मोक्ष आपको आपको  कहानी  “ किस्सा बदचलन औरत का  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें |    keywords: women, characterless women

विशाखापट्टनम रेप -संवेदनाएं भी अब आभासी हो गयी हैं

विशाखापट्टनम का रेलवे स्टेशन साक्षी है एक ऐसे क्रूरतम कृत्य का जिसे पशुता कहना भी पशुओं का अपमान होगा |एक स्त्री के साथ हुई इस वीभत्स घटना का अपराधी केवल एक गंजेड़ी नर पिशाच ही नहीं हर वो आदमी है जो उस समय वहां मौजूद था , जिसने उस घटना को देख कर भी अनदेखा कर दिया | जिसने भी उस घटना को देखकर अपना रास्ता बदल दिया या जिसने भी उस घटना को देखकर सिर्फ शोर मचाना ही अपन कर्तव्य समझा | और उस घटना को अंजाम देने वाले से कम दोषी नहीं हैं वो जो उस घटना का वीडियो बनाते रहे | जिन्हें उस औरत से कहीं ज्यादा चिंता थी अपने फेसबुक अपलोड की | ढेरों लाइक कमेंट उनके झूठे अहंकार को संतुष्ट कर के उनका दिन बना सकते थे | फिर क्या फर्क पड़ता है की किसी की पूरी जिंदगी बिगड़ जाए | विशाखापत्तनम  -सरेआम होता रहा रेप                आज मैं बात कर  रही हूँ  विशाखा पट्टनम रेप केस की | जहाँ एक औरत के साथ भीड़ भरे रेलवे स्टेशन पर सरेआम रेप होता रहा और भीड़ ने उसे रोकने का प्रयास भी नहीं किया | घटना के अनुसार  गंजी सिवा जिसकी उम्र २० वर्ष है २२ अक्टूबर को दिन दोपहर शराब के नशे में रेलवे स्टेशन जाता है | वहां फुट पाथ पर सो रही महिला के साथ सरेआम रेप करता है | सामने से लोग गुज़र रहे है | किसी को कहीं जाना हैं | कोई अपने परिवार को लेने आया है,  कोई किसी को छोड़ने आया है उस भीड़ को केवल अपने परिवार से मतलब है |  महिला की दर्द भरी चीखें जो शायद पर्वतों को भी हिला दें | किसी को सुनाई ही नहीं देती | अलबत्ता कुछ लोग हैं जो सुनते हैं , रुकते हैं , कुछ आवाजे  भी करते हैं पर इतने लोग मिलकर एक निहत्थे शराबी से एक महिला को नहीं बचा पाते | क्यों ? क्योंकि वो बचाना ही नहीं चाहते थे |  इन दर्द से बेपरवाह कुछ उत्त्साही युवक  वीडियो बनाने लग जाते हैं |लाइव रेप …  आभासी दुनिया में  तहलका मच जाएगा | वो औरत जो भिखारी है अर्द्धविक्षिप्त है किसी की लगती ही क्या है ?  हमें तो लाइक कमेन्ट से मतलब है | फलाने ने जब एक पगली से रेप की कविता डाली थी वो भी रात के अँधेरे में तो कितने लाइक आये  थे | ये तो दिन के उजालों में हो रहा है | ये पोस्ट तो वायरल होगी | अफ़सोस की वायरल ये पोस्ट नहीं ये घृणित चलन हो रहा है हालांकि  अब अपराधी पकड़ा जा चुका है और पीड़ित महिला का अस्पताल में इलाज़ चल रहा है | पर किसी घटना को समय रहते रोकने के स्थान पर हम समय निकल जाने के बाद बस मरहमपट्टी में विश्वास करते हैं | ये जानते हुए की ये घाव कभी नहीं भरते | हमारी संवेदनाएं भी बस आभासी हो गयी हैं   संवेदन हीनता की ये हद है की जिस घटना में  हमारा कोई पीड़ित नहीं है उस घटना से हमें कुछ लेना देना नहीं है |हम सब को जल्दी है अपने काम की , नाम की , पैसे की और खुशियों की | समाज के लिए वक्त निकालने को वक्त ही कहाँ है हमारे पास | हम ये भूल जाते हैं की जब  पास के घर में आग लग रही है तो हमारा घर भी सुरक्षित नहीं है | एक चिंगारी हमारे घर को भी स्वाहा  कर सकती है | महिलाओं पर बढ़ते हुए शारीरिक अत्याचार  क्या इस बात का प्रमाण नहीं है की अब हम समाज में नहीं रहते | मुर्दा लोगों की बस्ती में रहते हैं | जी हाँ मुर्दा लोग जो जीते हैं चलते हैं खाते हैं पर जिनकी संवेदनाएं मर गयी हैं | या आभासी दुनिया में दिन रात अपलोड करते हुए  हमारी संवेदनाएं भी बस आभासी हो गयी हैं  नीलम गुप्ता  यह भी पढ़ें … दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती करवाचौथ के बहाने एक विमर्श संवेदनाओं को झकझोरते लेख ” विशाखापट्टनम रेप -संवेदनाएं भी अब  आभासी हो गयी हैं “ पर अपने विचार व्यक्त करें |  हमारा फेसबुक पेज लाइक करें व् “अटूट बंधन “ का फ्री इ मेल सबस्क्रिप्शन लें | जिससे हम लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपके इमेल पर भेज सकें | 

दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ

आज भले ही महिलाओं ने अपनी एक अलग पृष्ठभूमि तैयार कर ली है ,पर अभी भी हमारे पुरुष प्रधान समाज मे स्त्रीयों की हालत काफी नाजुक है | समय बदला,युग बदला और नारी ने भी अपना मुकाम बनाया ,पर एक सत्य जिसे नकारा नहीं जा सकता वह यह है कि आज भी स्त्री पुरुष के अधीन है | हमारे समाज में जो एक शोर चहुंओर व्याप्त है वो यह है कि स्त्रीयों की दुनियां में आश्चर्यजनक परिवर्तन हुए हैं | आज स्त्री अपनी मुकाम खुद बना रही है, उसने दहलीज के बाहर अपने कदम पूरी सख्ती से जमा लिए हैं , उसने अपना आकाश तलाश लिया है ……..बहुत हद तक यह सही भी है , पर इतना भी नहीं जितना सुनने को मिल रहा है| स्त्री संबंधी कई ऐसे मसले भी हैं जो अभी भी अनसुलझे ही हैं, जहां तक अभी हम पहुँच ही नहीं पाये हैं |  जरूरी है देखना कामकाजी स्त्रियों की सही तस्वीर  एक  सत्य जरूर है कि नब्बे के दशक के बाद सबसे अधिक चर्चा नारी मुक्ति और नारी सशक्तिकरण पर ही हुआ है ,पर बिडंबना यह है कि खुद को सशक्त और सक्षम कहने वाली स्त्री की अपनी कोई पहचान नहीं है, कोई पृष्टभूमि नहीं है | दरअसल अभी भी वो ऐसे दोराहे पर खड़ी है जहां से उसे कोई साफ और सुदृढ़ छवि नजर नहीं आ रही है | वह कल्पनाओं और दोहरे द्वंद में फंसी है ,और आज भी वह एक दिखावटी छवि लेकर समाज के सामने खुद को प्रस्तुत करती है | कहने को तो वह पुरुष के समानांतर खड़ी है,पर नजदीक से देखने के बाद हालात कुछ और ही ब्यान करते हैं | समाज में अपनी असली भूमिका से अभी भी वह वंचित है ,  समाज में उसकी छवि शोषिता की ही है , आज भी उसकी गिनती पुरुष के बाद ही होती है | अगर हम  ईमानदारी से नजर डालें तो पाएंगे कि अभी भी स्त्री पुरुषों के अधीन समझी जानेवाली ही एक हँसती-बोलती कठपुतली है | इसलिए बाहर से नकली चमक ओढ़े इन स्त्री के हँसते चेहरे से बेहतर है हम इनके खामोशी से,जबरदस्ती के ओढ़े हुए आवरण को हटाकर परदे के पीछे की तस्वीर को भी देखें |  दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी महिलाएं    आज भले ही वो नौकरी मे अपने पति के बराबर के पोस्ट पर है या उससे ज्यादा ऊंचे ओहदे पर है पर घरेलू जिम्मेदारियों से वह बच नहीं सकती | एक बात जो हमने हमेशा महसूस किया है कि जिस घर में पति-पत्नी दोनों नौकरीपेशा हैं वहाँ हर दिन एक सा रूटीन होता है | पति-पत्नी में आपसी संवाद बहुत ही कम या जरूरतभर  होती है , दोनों अपने-अपने काम के बोझ तले इस कदर दबे रहते हैं कि जीवन के छोटे -छोटे क्षण जिनसे मिलकर दाम्पत्य की डोर मजबूत बनती है को दरकिनार कर अपने काम और सिर्फ काम में मशगूल रहते हैं | उनके हर काम का एक निश्चित टाइम बना है और वे इस नियम के पक्के पाबंद रहते हैं ,जब दोनों काम से लौटते हैं तो जहां पत्नी अपनी बिखरी गृहस्थी को सँवारने लग जाती है वहीं पति महोदय चाय की चुस्कीयों संग टी. वी का आनंद उठाते हैं | किसी -किसी जगह पर पति भी कुछ मदद कर देता है पर ऐसा उसके मूड पर निर्भर करता वह चाहे तो काम करे या न करे कोई दबाव नहीं होता है | लेकिन स्त्री की हालत ठीक इसके विपरीत होती है वह न चाहते हुये भी अपनी उन जिम्मेदारियों से मुक्त नहीं हो सकती | किचेन में जाना उसकी मजबूरी और जरूरत दोनों हो जाती है , मान लें अगर वह सहायिका या मेड रख भी ले तो वह तो घरेलू काम ही करेगी न …….खाना निकालना, बच्चों के होमवर्क कराना, घर के कई छोटे-मोटे काम जैसे,चाय बनाना ,घर को व्यवस्थित करना आदि अनगिनत काम ऐसे हैं जो हर महिला को करना ही पड़ता है |  पहले स्त्री खाना बनाती  थी ,बच्चों को संभालती थी तथा घर के तमाम काम करती थी और पुरुष बाहरी काम संभालता था | पहले बच्चे की ज़िम्मेदारी भी उतनी कठिन नहीं थी ,तब संयुक्त परिवार होता था और हर घर में चार-पाँच या फिर उससे भी अधिक बच्चे होते थे जिनकी पढ़ाने-लिखने की ज़िम्मेदारी घर का कोई सदस्य समूहिक रूप से कर देता था | तब पढ़ाई भी उतना जटिल नहीं था ,एक सामान्य पढ़ाई थी जो बच्चे की माँ भी बैठे-बैठे कर सकती थी पर आज तो बच्चों की किताबें देखकर ऐसा लगता है कि पता नहीं कौन सा कठिन प्रश्न बच्चे कर दें और उसका उतर न देने की स्थिति में क्या होगा ??? इन्हीं समस्याओं से निजात हेतु आज ट्यूटर एक जरूरत सी बन गई है |  बच्चों की असफलता का दोष आता है माँ के हिस्से  आज परवरिश एक कठिन कार्य बन गया है इन सबके वावजूद अगर आपका बच्चा अच्छा निकाल गया तो इसका सारा श्रेय पति महोदय ले जाते हैं और अगर दुर्भाग्य से बच्चा नालायक निकल  गया तो , स्त्री जो अपना सर्वस्व न्योछावर कर देती है उसके हाथ सिर्फ बच्चों के बिगाड़ने का आरोप लगता है | इस स्थिति में स्त्री का मानसिक पतन होता है और वह खुद में आत्मविश्वास की कमी महसूस करती है | आज एकल परिवार का जमाना है ,स्त्री भी नौकरी करने लगी है , इससे जो गृहस्थी है वो डगमगाने लगी है | मेरी समझ से होना तो यह चाहिए था कि स्त्री जब बाहर से काम करके लौटे तो उसे घर में सुकून के कुछ पल मिलने चाहिए था पर ठीक इसके विपरीत उसके कार्यों में दोगुना इजाफा हो गया है | आज तो हालत यह है कि आज जब स्त्री काम से वापस लौटती है तो बच्चों को क्रेश से लेती है घर के लिए जरूरत का समान खरीदती है और तो और जब से फोन का जमाना आ गया है उसके एक-दो काम और बढ़ गए है …..टेलीफोन बिल भरना, बिजली बिल भरना ,गैस का नंबर लगाना आदि | कहने का मतलब यह है कि जिन चीजों का वह फायदा उठाती है उसकी भरपाई भी स्त्री को ही करना पड़ता है | घरेलू कामों के … Read more

सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती

क्या स्त्री के लिए भी  “सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती “ वैसे  तो ज़िन्दगी  किसी के लिए आसान  नहीं है .. परन्तु फिर भी नारी के लिये कुछ ज्यादा मुश्किल है। ज़िन्दगी .कहने को सृष्टि की रचियता है नारी ..पर इस रचियता के हाथ में संव्य की डोर नहीं ..ज़िन्दगी के  विभिन्न किरदार निभाती हुई खुद के अस्तित्व से ही अनजानी रह जाती है।   दूसरों को सदा बेहतर राह दिखाने वाली खुद दिशाविहीन ही रहती है ,अपने रिश्ते नाते संवारती समेटती खुद कितना टूट चुकी है खुद ही नहीं  जानती।  सहनशीलता ,ममता ,त्याग .. इन गुणों की दुहाई दे दे कर .. उसें हमेशा आगे बढ़ने से रोका गया ,बात बिन बात टोका गया !वो खुद भी कभी घर के  टूटने के भय से ,कभी लोक लाज की वज़ह से .. खुद को मिटाती रही .. खुद से अनजान बनी रही । जब छूट गए  बचपन में देखे सपने   मैं भी कभी खुद के सपनों को नहीं जी पाई थी .परन्तु आज की स्त्री ने पूरानी परम्पराओं को जिन्दा रखते हुवे ,, नये विचारों को भी गृहण किया है ,, घर ,परिवार, समाज को संभालते हुवे खुद को भी पहचाना है ।नवीन युग की नारी घर से बाहर तक की सारी जिम्मेदारियों का भार बखूबी वहन कर रही है ..मैंने भी जिन्दगी को एक लम्बे विराम के बाद फिर से जीना शुरू किया .. अपने फ़र्ज़ और जिम्मेदारियों की भीड़ में चुपके -चुपके सिसकती अपनी ख्वाहिशों की सिसकियां सुनी ..अपने टूटते हुवे सपनो की आह महसूसी ..सोचा ये मर गये तो ज़िन्दगी की लाश ढो कर भी क्या फ़ायदा . चलो औरों के लिये जीते जीते ही कुछ साँसे अपने लिये भी ले ली जाये ..। मैंने लॉ किया पापा की ख़ुशी के लिये मैं तो थी कवि हृदया ख्वाबों की पक्की ज़मीन पर मेरा  मन कल्पनाओं के सुन्दर घर बनाता रहता है ,हर वक्त मेरी कल्पनाएँ सुन्दर सृष्टि का ,सुखद भविष्य का ,अति प्रिय वर्तमान का सृजन किया करती है |  बचपन से ही अति भावुक थी  और इसी भावुकता की वजह से मन यथार्थ को बर्दाश्त नहीं कर पाता और इस जीवन उदधि में अगिनत कल्पनाओं की तरंगे हिलोरें मारती रहती है ,अनजाने दर्द में रोती है अनजानी खुशी में खुश होती है | कवि मन कल्पनाओं के सुन्दर आकाश में उड़ता -सच और झूठ   के धरातल पर कितना टिकता ? मैंने वकालात छोड़ी ससुराल वालों की ख़ुशी के लिये …. मैंने अपना लिखना छोड़ा अपनी घर -परिवार को बेहतर तरीके से संभाल पाने के लिये पर शादी के बाद दस साल लिखना छोड़ दिया .. क्योंकि ससुराल वाले इसें ठीक नहीं समझते थे .. पति समझाते भी ..जिसें जो सोचना है वो सोचता रहे तुम वो करो जो तुम्हे सुकूं देता हो .. पर उनकी बात समझते समझते दस साल लग गये ।  हिम्मत जुटाते-जुटाते अर्सा गुज़र गया । इस बीच जाने कितने ख़याल जल -जल कर बुझे होंगे ..कितनी कल्पनायें जग -जग कर सोई होगी ..कितने अहसास मिट गए होंगे ..अंदाज़ा लगाना मुश्किल है .. पर मुझे ठीक से याद है जितना वकालात छोड़ कर दुखी नहीं हुई ..उतना टूटी थी जब अपनी लेखनी का गला दबाया था .. लेखनी जो की मेरी धडकनों में बसती थी .. मेरी प्राणवायु थी ..उसके बिना दस साल गुजारे मैंने ..आज सोचकर ही तड़फ उठती हूँ की औरों की खुशी के लिये खुद को मिटा देना समझदारी नहीं बल्कि कमजोरी है ..ऐसे समझोते कभी मत करो जो आपके वजूद को मिटा दे .. जब मैंने फिर से शुरू किया सपने देखना  आज जब पति, बच्चों व दोस्तों की प्रेरणा से फिर लिख रही हूँ ..तो लग रहा है सच जीना सार्थक हुआ है ..गुजरा वक्त लौट कर तो नहीं आता पर एक दरवाज़ा उस वक्त तक पंहुचता तो ही ..वक्त के बिम्ब झांकते हैं उस दरवाजे से ..अपने आपको पूर्ण होता हुआ देख कर एक इत्मीनान की सांस लेते हैं .. मेरा मानना है जब हम चलने का हौसला करते हैं तो सारी बाधाएं खुद ब खुद सिमटने लग जाती है ..आज मैं दो बेटियां ,पति व अपने माता -पिता की जिम्मेदारी संभालती हुई जब अपनी लेखनी रच रही हूँ  तो मैं कंही कमजोर नहीं पड़ रही बल्कि अनुभवों के साथ उतरती हूँ ..अपनी पहचान में  जब जब जिम्मेदारियों के अक्स शामिल हो जाते हैं ..तब तब अपनी पहचान ज्यादा मजबूती से उभारती है ..आज अनवरत लिखने के साथ मेरे फोटोग्राफी के सपने  को भी फिर से संजोया है मैंने | स्त्री किसी भी उम्र में अपने सपने जी सकती है  आज मैं कह सकती हूँ कि हर स्त्री किसी भी उम्र में अपने सपने जी सकती है ..अपना मुकाम हासिल कर सकती है .अपनी अलग पहचान बना सकती है भीड़ से निकल कर ..बस खुद पर भरोसा ..खुद का मान ..खुद की कद्र होना जरुरी है ..आत्मविश्वास को कभी मिटने न दो बस .अपनी जिम्मेदारियों को बोझ ना समझो ,बल्कि उन्हें भी अपने सपनों का हिस्सा मान कर उठाओ .. बहुत आसान हो जायेगी  राहें सारी  ” इन अंधेरों से स्निग्ध रोशनी छनेगी किसी रोज, बात जो न बनी बनेगी किसी रोज “ आशा पाण्डेय ओझा  सिरोही पिण्डवाडा  राजस्थान  मित्रों , आशा पाण्डेय ओझा जी का लेख ” सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती “ आपको कैसा लगा | अपनी राय से हमे अवगत करायें | लेख पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | हमारा फ्री इ मेल सब्स्क्रिप्शन लें ताकि “अटूट बंधन “ की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपको अपने ईमेल पर मिल सके |  यह भी पढ़ें … करवाचौथ के बहाने एक विमर्श महिलाओं को निडरता का सन्देश देती क्वीन

करवाचौथ के बहाने एक विमर्श

 विभिन्न रिश्तों को विभिन्न व्रत त्योहारों के रूपमें सहेजने वाले हामारे देश में पति पत्नी के रिश्ते को सहेजने वाला त्यौहार है करवाचौथ | करवाचौथ एक व्रत  है आस्था का , प्रेम का विश्वास का | सदियों से स्त्रियाँ विशेषकर भारतीय स्त्रियाँ अपने प्रेम को विभिन्न रूपों में व्यक्त करती हैं | चाहे वो भोजन के माध्यम से हो , या ऊन से बुने स्वेटर के माध्यम से हो या देखभाल के माध्यम से | व्रत उपवास भी उसी परंपरा का हिस्सा रहे हैं | वैसे पति-पत्नी का रिश्ता आपसी समझ पर चलता है | जहाँ रिश्ते ढोए जा रहे वहां इन बातों का कोई मतलब नहीं है | लेकिन जहाँ वास्तव में आस्था है वहां तर्क कैसा | कल करवाचौथ का व्रत था | सोशल मीडिया पर जितनी पोस्ट व्रत के पक्ष में आई उतनी ही विरोध में | कहीं-कहीं परंपरा और बाजारवाद की जंग छिड़ी दिखी | करवाचौथ पर लगे आरोपों के कारण मुझे इस पर एक विमर्श की आवश्यकता महसूस हुई | रखे गए तर्कों के आधारपर ही बात की जाए तो … वो जो करवाचौथ का पूर्णतया विरोध करते हैं ·       वैसे तो  करवाचौथ का व्रत  करने वाली /व्रत न करने वाली स्त्रियाँ अपने विचार खुलकर रख रही हैं |  मेरे विचार से हर स्त्री को स्वतंत्रता है की वो व्रत करे या न करे परन्तु व्रत करने वाली स्त्रियों को पति की गुलाम कह देना मुझे उचित नहीं लगता | पढ़ी लिखी आधुनिक युवा स्त्रियाँ भी स्वेक्षा से व्रत कर रही हैं | यहाँ परंपरा को निभाने का कोई दवाब नहीं है | स्त्री विमर्श की खूबी यह होनी चाहिए की हर स्त्री अपनी स्वतंत्रता से निर्णय  ले | क्योंकि न सारे पुरुष एक जैसे हो सकते हैं न सारी  स्त्रियाँ |     सच है की करवाचौथ पर अब बाजारवाद हावी है | परन्तु ऐसा कौन सा त्यौहार है जिस पर बाजारवाद हावी नहीं हैं | पर काफी समय से इसका निशाना करवाचौथ ही बन रहा है | दीपावली हो , होली या फिर ईद और क्रिसमस बाजारवाद ने हर जगह पाँव पसार दिए हैं | ·              भारत में  हर प्रांत  या शहर में करवाचौथ एक तरीके से नहीं मनाया जाता है | कई जगहों पर यह घरों में मनाया जाता है | वहां सजने की इतनी परंपरा नहीं है | कुछ स्थानों पर यह सामूहिक रूप से मनाया  जाता है | वहां श्रृंगार की परंपरा ज्यादा है | यह परंपरा शुरू से थी | सामूहिक रूप से मानाने से एक तरह से “एक समारोह “ का भाव आता है | वहाँ  अच्छे कपडे पहनना व् तैयार हो कर जाना स्वाभाविक हैं | वैसे अतिशय मेकअप की बात छोड़ दें तो सुरुचिपूर्ण ढंग से तैयार हो कर कोई पूजा करना हमारी परंपरा का हिस्सा है | जिसमें किसी भी धातु के जेवर पहनना भी शामिल है | पूजा करते समय धातु पहनने की वजह वैज्ञानिक है | इसी कारण  पुरुष भी पहले जेवर पहनते थे | सुहाग के व्रत में १६ श्रृंगार परंपरा का ही हिस्सा हैं | आधुनिकता का नहीं |           पढ़िए –   करवाचौथ और बायना     ·    कई जगह यह कहा गया की इसे दूसरे प्रांत  के लोग भी अपना रहे हैं | यह फैशन बन गया है | आज जब की पूरा विश्व “ग्लोबल विलेज “ कहलाने लगा है | ये बात कुछ सही नहीं लगती | देश के कई हिस्सों में रहते हुए मैंने खुद कई ऐसे त्यौहार मनाना शुरू किया | जो हमारे यहाँ परंपरा से नहीं होते थे | पर उनको मानाने में मुझे ख़ुशी मिलती थी |ख़ुशी किसी नियम को नहीं मानती |  जब आप किसी दूसरे प्रांत में रह रहे हों और पूरा प्रांत किसी त्यौहार के रंग में रंगा  हो तो उस सामूहिक ख़ुशी का हिस्सा बनने  में एक अलग ही आनंद है | ·         करवाचौथ को फिल्मों ने अपनाया है पर असली करवाचौथ फ़िल्मी नहीं है | सरगी खाने का रिवाज़ भी हर जगह नहीं है | आम भारतीय घरों में कोई भी त्यौहार हो महिलाओं को रसोई से छुट्टी नहीं मिलती | मात्र ८ , ९ % उच्च वर्ग या उच्च माध्यम वर्ग की महिलाओं को हम समस्त भारतीय महिलाओं का प्रतिनिधि नहीं मान सकते | फिल्मों की बात पर हिलेरी क्लिंटन का एक वक्तव्य याद आता है | फिल्में किसी भी देश की सही छवि नहीं व्यक्त करती |फिल्मों की माने तो अमेरिकी कपडे ही नहीं पहनते व् भारतीय खाना ही नहीं खा पाते |    वो जो करवाचौथ पर बस लकीर के फ़कीर बने रहने चाहते हैं सच्चा स्त्री विमर्श सिर्फ विरोध के नाम पर विरोध करना नहीं है | जरूरी ये नहीं की हर परंपरा को तोड़ दिया जाए | जरूरी ये है की कुछ सुधार  हो ताकि परंपरा भी बची रहे व् नया संतुलित समाज भी विकसित हो | करवाचौथ उस दिशा में उठाया गया पहला कदम है | जहाँ कई पति भी पत्नियों के लिए व्रत रख रहे हैं | जो व्रत नहीं रख पाते वो दिन भर पत्नियों का ध्यान रख कर उन्हें स्पेशल फील कराते हैं |  पढ़िए – काकी का करवाचौथ  कुछ लोग इसे रोमांटिक त्यौहार की संज्ञा भी दे रहे हैं | मैंने पहले भी इस पर एक लेख “रात इंतज़ार चलनी और चाँद “ लिखा था | ये सच है है की रात , चाँद और चलनी एक अनोखा समां बाँध देते हैं | परन्तु पहले इसमें रोमांटिक तत्व नहीं थे | ये विशुद्ध पूजा के रूप में ही था | आज अगर नयी पीढ़ी ने इसमें रोमांस ढूंढ निकाला है तो इसमें हर्ज ही क्या है ? आखिरकार पति – पत्नी का रिश्ते में रोमांस की अहम् भूमिका है | करवाचौथ वाले दिन जब इसे बड़ों की स्वीकृति व् आशीर्वाद भी प्राप्त हो तो प्रेम की इस अभिव्यक्ति से परहेज कैसा | इस अभिव्यक्ति से दोनों उस प्रेम का अहसास करते हैं जो वर्ष भर की जिम्मेदारियों में कहीं खो सा जाता है | या यूँ कहें की एक रिश्ता फिर से खिल जाता है | पत्नी को गिफ्ट देना इसी नयी सोंच का हिस्सा है | जहाँ … Read more

विदाई

                                        विदाई एक शब्द नहीं है | इसमें अलग होने का भाव है | इसीलिये तो विदा शब्द कहते ही अजीब सी कसमसाहट महसूस होती है | विदाई शब्द कहते ही हमें एक सजी धजी दुल्हन की छवि दिखाई देने लगती है | जो विवाह उपरान्त अपने माता -पिता का घर छोड़ कर हमेशा के लिए पति के घर जा रही है | परन्तु विदाई का अर्थ इससे कहीं व्यापक है | आज यूँ ही मुकेश का गाया  यह गीत कानों में पड  गया और मन की घडी के कांटे उलटे चलने लगे । ये शहनाईयाँ दे रही हैं  दुहाई , कोई चीज अपनी हुई है पराई किसी से मिलन है किसी से जुदाई नए रिश्तों ने तोडा नाता पुराना ………..                                              बात तब की है जब मैं बहुत छोटी थी घर के पास से शहनाई की आवाज़ आ रही थी । थोड़ी देर सुनने के बाद एक अजीब सी बैचैनी हुई….. जैसे कुछ टूट रहा हैं कुछ जुड़ रहा है । आदतन अपने हर प्रश्न की तरह इस प्रश्न के साथ भी  माँ के पास  जाकर  मेरा अबोध मन पूँछ उठा ” माँ ये कौन सा बाजा बज रहा है ,एक साथ ख़ुशी और दुःख दोनों महसूस हो रहा है । तब माँ ने सर पर हाथ फेर कर कहा था ” ये शहनाई है। अंजू दीदी की विदाई हो रही है ना । इसलिए बज रही है । अब अंजू दीदी यहाँ नहीं रहेंगी अपने ससुराल में अपने पति के साथ रहेंगी । क्यों माँ आंटी -अंकल ऐसा क्यों कर रहे है क्यों अपनी बेटी को दूसरे के घर भेज रहे हैं । क्या सब बेटियां दूसरों के घर भेजी जाती हैं ? क्या मुझे भी आप दूसरे के घर भेज देंगी । माँ की आँखें नम हो गयी । हां बिटिया  ! हर लड़की की विदाई होती है । उसे दूसरे के घर जाना होता है । तुम्हारी भी होगी । मेरे घबराये चेहरे को देखकर माँ ने मेरे सर पर हाथ फेर कर किसी कविता की कुछ पक्तियाँ दोहरा दी । पता नहीं किसकी थी पर जो इस प्रकार हैं। …………. कहते हैं लोग बड़ी शुभ घडी हैं शुभ घडी तो है पर कष्टदायक बड़ी है जुदा  होता है ,इसमें टुकड़ा जिगर का हटाना ही पड़ता है दीपक ये घर का                                              उस दिन पहली बार समझ में आया था ये घर मेरा अपना नहीं है मुझे जाना पड़ेगा … कहीं और । पर बचपन की खेल कूद में कब का भूल गयी । एक दिन यूँही माँ ने आरती कर के रखी थी।तेज हवा का झोंका आया और वो बुझ गयी । मैं जोर से  चिल्लाई “माँ आरती बुझ गयी ,आरती बुझ गयी “. । माँ ने डाँट कर कहा ” बुझ गयी नहीं कहते …  कहते हैं विदा हो गयी ।  माँ के शब्दों को मैं देर तक सोचती रही  आरती विदा हो गयी । कैसे ,कहाँ ,किसके साथ ……शायद प्रकाश  अन्धकार के साथ  विदा हो गया…… जो कुछ पीछे छूट गया वो बुझ गया । जीवन के पथ पर जब दो लोग  एक साथ आगे बढ़ जाते हैं ,या विदा हो जाते हैं तो  जो  पीछे जो छूट जाते हैं वो बुझ जाते हैं ।क्या दिन संध्या के रूप में दुल्हन की तरह तैयार होता है और विदा हो जाता है रात के साथ ? रात  खिलते कमल के फूलों और कलरव करते पंक्षियों की बारात के आगमन पर  उगते भास्कर की रश्मियों की डोली में बैठकर विदा हो जाती है दिन के  साथ ?क्या विदाई ही जीवन सत्य है ,अवश्यसंभावी है ।   क्या यही है “किसी से मिलन किसी से जुदाई ” मेरे पास अपने ही प्रश्नों का कोई उत्तर नहीं था ।     अक्सर देखती थी किसी लड़की की विदा पर माँ और लड़की तो रोते ही थे बाकी सब नाते -रिश्तेदार जाने  क्यों रोते थे ,वो तो साथ में भी नहीं रहते थे । शायद वो जानते थे की विदाई ही जीवन का सच हैं । जीवन है तो कभी ङ्कभी कोई न कोई विदाई होनी ही है । हालाँकि हमारे  सखियों के ग्रुप में  अक्सर ऐसा होता था किन्हीं दो सखियों की मित्रता घनी हुई व् वो ग्रुप से अलग हुई ,अक्सर देखा था पर इसे विदाई नहीं माना  । तब तो इतना ही जानती थी कि विदाई लड़कियों की ही होती है। ……… जब भैया की शादी हुई तो भाभी को विदा करा कर लाये तब ये कहाँ जाना था की एक विदाई और हो रही है  …बहन के रूप में भाई पर अधिकार की ,आपस में बिताये जाने वाले समय की जो २ ४ घंटों से घटकर आरती की थाली में रखे राखी के धागे नन्ही सी रोली के टीके और अक्षत के चावलों में सिमट कर रह जाने वाले हैं ।                     शायद वो भी एक विदाई ही थी जब उस स्कूल को छोड़ा था जहाँ बचपन से पढ़ रही थी । फेयर वेल का फंक्शन था । साड़ी लडकियाँ खाने में जुटी थी और हम कुछ सहेलियाँ रोने में । अजीब सा दुःख था……कल से नहीं आना है इस स्कूल में जहाँ रोज आने की आदत थी । तब हमारी प्रिंसिपल सिस्टर करेजिया ने जोर से घुड़की दी थी। फेल हो जाओ यहीं रह जाओगी । और हम आंसूं पोंछ कर विदा होने को तैयार हो गए ।                              विदाई को कुछ कुछ समझा था अपनी बड़ी बहन की विदा पर । साथ खाना ,खेलना ,पढना सोना । छोटी होने के नाते कुछ आनावश्यक फायदे भी लेना  ……. कुछ अच्छा खाने का मन  कर रहा है ” दीदी है ना ‘ ये दुप्पट्टा ठीक से पिन अप  नहीं है …  दीदी है ना । बर्थडे  पार्टी में क्या पहनूँ ….  दीदी है ना वो बताएगी । शादी बारात की ख़ुशी … Read more

कंगना रनौत – महिलाओं को निडरता का संदेश देती क्वीन

वंदना बाजपेयी  फिल्म अभिनेत्री कंगना रनौत को कौन नहीं जानता |बेहद खूबसूरत कंगना ने प्रतिभा के दम  पर बहुत कम समय में फिल्म इंडस्ट्री की क्वीन के रूपमें अपनी पहचान बना ली |३२ मार्च १९८७ को हिमांचल के सूरजपुर कसबे में जन्मी कंगना का कोई फ़िल्मी गॉड फादर नहीं था |कुछ क्रीएटीव करने की तलाश उन्हें मुंबई ले आई | वो उनके संघर्ष के दिन थे |  १६ साल की उम्र में उन्होंने पहली फिल्म की थी |फिर उन्होंने पीछे मुड  कर नहीं देखा  | दिन रात संघर्ष करते हुए उन्होंने आज वो मुकाम हासिल कर लिया है की वो इस समय संबसे ज्यादा मेहनताना लेने वाली अभिनेत्रियों में शुमार हैं |                        उनकी कहानी एक छोटे शहर की लड़की के बड़े सपने देखने , रास्ते के संघर्षों को झेलने व् हिम्मत के साथ जीतने की कहानी है | लेकिन आज हम बात कर रहे हैं कंगना के बेबाक अंदाज़ की | उनमें गलत को गलत कहने की हिम्मत है | ये साहस ये निडरता उनमें कहाँ से आती  है ? बतौर कंगना ये साहस हर स्त्री में है | बस हमने ही उसे दबा के रखा है |   पढ़िए : हम कमजोर नहीं हैं ~ रेप विक्टिम मुख्तार माई के साहस को सलाम अभी हाल में आपकी अदालत का कंगना का इंटरव्यू दिया  | मेरे ख्याल से जिसने भी देखा वह उनकी हिम्मत और बेबाकी का कायल जरूर हो गया हो होगा |   उनके जो तर्क मुझे बहुत पसंद आये | वो आप अब से बाँट रही हूँ |क्योंकि  वो हर स्त्री में हिम्मत जगाने वाले हैं | … १      प्रतिभा कहीं भी पैदा  हो सकती है | वो बड़े घरानों की बपौती नहीं है | भले ही कोई किसी बड़े फ़िल्मी परिवार या नामी खानदान से आया हो | और उसको पहला एक्सपोजर अच्छा मिल जाए | मीडिया पब्लिसिटी भी हो जाए पर किसी की प्रतिभा और किस्मत को कोई नहीं चुरा सकता | काम और नाम प्रतिभा और किस्मत से आगे बढ़ता है न की खानदानों के लेवल से | २     सफलता के लिए जरूरी है जिद … कुछ पाने की | जिद्द को इच्छाशक्ति भी कह सकते हैं | जब इच्छा इतनी प्रबल होगी तभी इंसान कठिन परिश्रम कर सकता है | अन्यथा संघर्ष उसे तोड़ देंगे |  ३    भरोसा सिर्फ अपनी प्रतिभा का करना चाहिए | अगर कोई कहता है है की वो आपको कहाँ से कहाँ पहुंचा देगा | तो उसका इरादा सिर्फ आपको कठपुतली बनाने का है | इसलिए ऐसे वाक्य बोलने वालों से शुरुआत से ही किनारा कर लें | क्योंकि कठपुतली बनना आपकी प्रतिभा पर ग्रहण है | ४      अगर आप क्रीएटीव फील्ड में हैं तो निरतर नए प्रयोग ही आपको और आपके जूनून को जिन्दा रख सकते हैं | हमेशा अलग हट कर करने की सोंचिये | ५     अगर किसी लड़की के साथ कुछ गलत हो रहा है तो बेख़ौफ़  हो कर पुलिस की मदद लेनी चाहिए | क्योंकि परिवार और दोस्त चाहते हुए भी मदद नहीं कर सकते | वो खुद इन पावरफुल लोगों से डर जाते हैं | पढ़िए – जब आप किसी की तरफ एक अंगुली उठाते हैं तो तीन अंगुलियाँ आप की तरफ उठती हैं        एक लड़की पर जब अनर्गल आरोप लगते हैं तो वो इसलिए डर कर चुप हो जाती है क्योंकि उसे लगता की उसके परिवार वालों की फीलिंग्स हर्ट हो रही होंगी | जब वो अपने इस डर पर काबू पा लेती है तभी वो हिम्मत से बेबाक बोलती है |         जब  आप साहस करके गलत बातों के खिलाफ कुछ बोलना शुरू करते हैं तो आपको बेबाक या बेहया  का खिताब मिलता है | और अगर आप नहीं बोलते हैं तो ये आरोप सिद्ध हो जाता है |          कितना भी दर लगे पर ये याद रखिये जब कोई अपनी बात हिम्मत से कहता है तो समाज उसका साथ देता है | झूठ के चाहे जितने भी मुंह हो पर जब सच सामने आता है तब सबको लकवा मार जाता है | जब किसी स्त्री के विरुद्ध प्रचार हो रहा हो तो उसे अपने सच के साथ धैर्य रखना चाहिए |      अगर आप रचनात्मक क्षेत्र में हैं तो प्रायोजित अवार्ड से दूरी बना कर रखिये क्योंकि ये खीदे जाते हैं | या पैसे के दम पर या चापलूसी के दम पर | दोनों ही बातों में अवार्ड पा कर भी आत्मसम्मान आप का ही टूटता है |                   कंगना ने जिस तरीके से हर इल्जाम पर अपना पक्ष रखा | उन्होंने इस बात को गलत सिद्ध कर दिया की जल में रह कर मगरमच्छ से बैर नहीं किया जा सकता | उन्होंने फिल्म इंडस्ट्री के मगरमच्छों से बैर भी मोल लिया भी लिया फिर भी वो जल की रानी ( क्वीन ) हैं |  यह भी पढ़ें ……………. स्त्री देह और बाजारवाद स्त्री विमर्श का दूसरा पहलू नौकरी वाली बहू गुडिया , माटी  और देवी फोटो क्रेडिट  – bollywood hungama

हम कमजोर नहीं हैं – रेप विक्टिम मुख्तार माई के साहस को सलाम

वंदना बाजपेयी  सुनो तुम , रात को घर से बाहर मत जाना , दुपट्टा से सर पूरा ढक लेना , पूरे दांत दिखा के मत हँसना … जब परिवार वाले अपने ही घर की बेटी बहुओं पर यह  कह कर मना  करते हैं तो उनके अन्दर एक भय रहता है | वो भय उनके मन में बैठा है  अखबार की उन सुर्ख़ियों से  जो न सिर्फ सफ़ेद पन्नों पर काले अक्षरों से लिखी जाती हैं बल्कि किसी स्त्री के जीवन के आगे के सारे पन्नों  को स्याह कर देती हैं | स्त्री  के साथ होने वाले सबसे खौफनाक अपराधों में से एक है बालात्कार | क्या पुरुष का यह पाशविक रूप स्त्री के सामने  इसलिए आता है क्योंकि वो शारीरिक रूप से कमजोर है ?  रेप या बालात्कार उसे तन से नहीं तोड़ता मन से भी तोड़ देता है |मन के घाव जीवन भर नहीं भरते | स्त्री अपना पूरा आत्म विश्वास  खो बैठती है | परन्तु आज मेरा इस लेख को लिखने का उद्देश्य उस महिला को सलाम करने का है  जिन्होंने इस  हादसे के बाद न केवल खुद को शारीरिक व् मानसिक रूप से संभाला  बल्कि हर महिला को रास्ता दिखाया की ” हम कमजोर नहीं हैं ”   आज हम एक ऐसी ही महिला के बारे में बता रहे हैं |उस महिला का नाम है मुख्तार माई | शायद आपके लिए ये नाम अनजाना हो | है भी क्या ख़ास इस नाम में | पर इस नाम में क्या ख़ास है यह उनकी जीवनी   ” इज्ज़त ‘पढने के बाद पता चल जाएगा | उनकी आत्मकथा का अनुवाद कई भाषाओँ में हो चुका हैं | कई देशों में यह बेस्ट सेलर भी रही है |इस पर एक लघु फिल्म भी बन चुकी है व् उस पर उन्हें कई अवार्ड भी मिल चुके हैं | न्यूयार्क के मशहूर ओपेरा थंबप्रिंट में मुख्तार माई की दर्द भरी दास्ताँ को सामाजिक अत्याचार के नाम पर शिकार मासूम लोगों के दर्द के रूप में दिखाया गया है |  मुख्तार माई पाकिस्तान के मुज्जफ्फरगढ़ की रहने वाली हैं | उनकी की दर्द भरी दास्ताँ आज से १५  साल पहले शुरू हुई थी | उस समय उनके भाई पर आरोप लगा था की उसने मस्तोई बलोच परिवार की एक महिला को छेड़ने  की कोशिश  की थी | गाँव की पंचायत में मुकदमा बैठा | उसने आँख के बदले आँख के कानून पर चलते हुए फैसला सुनाया ,” इसकी कीमत लड़के के परिवार को चुकानी पड़ेगी | ” और वो कीमत चुकाई मुख्तार माई ने | जब पुरुष का रूप धरे ६ भूखे  भेडिये उन पर टूट पड़े | गांव की परिषद की ओर से दी गई सजा के तौर पर मुख्तार माई से न सिर्फ सामूहिक बलात्कार किया गया था बल्कि  उनकी  बिना कपड़ों के परेड कराई गई थी। निरपराध व् निर्दोष माई तन से और मन से पूरी तरह टूट गयी | पर उन्होंने ख़ुदकुशी का रास्ता न अपना कर दोषियों को सजा दिलाने की ठानी | उन्होंने अदालत में शिकायत दर्ज की | बार – बार अदालत जाते समय उन्हें जान से मार देने की धमकी मिलती रही पर वो अपने निर्णय  पर चट्टान की तरह अडिग रहीं | उनका कहना था की पंचायत के पूर्व नियोजित फैसले में उन्हें बलि का बकरा बनाया गया | उनका दर्द कम नहीं हो सकता | पर वो ऐसे अपराध झेती लड़कियों के लिए मिसाल देना चाहती है की चुप बैठ कर रोने से बेहतर है सामने आओ व् दोषियों को सजा दिलवाओ |सामूहिक बलात्कार का शिकार हुई मुख्तार माई महिला अधिकारों के लिए चलने वाले अभियान का प्रतीक बन गई थी। मुख़्तार के संघर्ष की कहानी मीडिया में फैलते ही कई देशों से उन्हें मदद आने लगी | उन्हें कई पुरूस्कार मिले | एक स्थानीय अदालत ने इस मामले में छह लोगों को सजा सुनाई लेकिन ऊपरी अदालत ने मार्च 2005 में इनमें से पांच को बरी कर दिया था और मुख्य अभियुक्त अब्दुल खालिक की सजा को उम्र कैद में बदल दिया था। पाकिस्तान सरकार की तरफ से हर्जाने के रूप में ९४०० डॉलर मिले |इस पैसे से उन्होंने दो स्कूल खोले | वो बहुत से लोगों की मदद कर रही हैं | उनका कहना है की लड़कियों को केवल मूक पशु बन कर नहीं रहना चाहिए | बल्कि अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना चाहिए | क्यों पुरुष महिलाओं की सहमति के बिना उनके लिए निर्णय लें |                                         संघर्ष की मिसाल बनी मुख्तार माई ने अपनी जिंदगी को नए सिरे से शुरू किया | अभी हाल में रोजीना मुनीब ने उन्हें   पाकिस्तान फैशन वीक में रैंप पर उतारा |  दरसल रोजीना मुनीब ने मुख्तार माई  को मनाया कि वह यहां आए ताकि महिलाओं में संदेश जाए कि एक बार गलत होने का मतलब ये नहीं होता कि जिंदगी खत्म हो गई है।हालांकि इस तरह से आम  जनता का सामना करने से पहले वो थोडा हिचकिचा जरूर रही थी पर फिर से उन्होंने साहस का दामन थामा और पूरे आत्मविश्वास के साथ रैम्प पर चलीं | सभी ने उनका तालियों की गडगडाहट के साथ स्वागत किया | पाकिस्तान के कराची शहर में आयोजित कार्यक्रम में रैंप पर उतरी मुख्तार माई पाकिस्तान की ही नहीं समस्त नारी जाती के लिए साहस और आशा का रोल मॉडल बनकर उभरी। ।   पढ़िए -जब आप किसी की तरफ एक अँगुली उठाते  हैं तो तीन अंगुलियाँ आप की तरफ उठती हैं   बाद में श्रोताओं को संबोधित करते हुए माई ने कहा, उन्होंने कहा कि अगर मेरे एक कदम से एक महिला की मदद होती है, तो मैं मुझे बहुत खुशी होगी| ‘मैं उन महिलाओं की आवाज बनना चाहती हूं जो उन परिस्थितियों से होकर गुजरी हैं, जिनका सामना मैंने किया। मेरी बहनों के लिए मेरा संदेश है कि” हम कमजोर नहीं है।”  हमारे पास भी दिल और दिमाग है, हम सोच सकते हैं।’ मैं अपनी बहनों से कहना चाहती हूं कि अन्याय होने पर हिम्मत नहीं हारनी चाहिए क्योंकि एक एक दिन हमें न्याय जरूर मिलेगा। पढ़िए – नाबालिग रेप पीडिता को मिले गर्भपात का अधिकार  अंत में टाइम पत्रिका में निकोलस क्रिस्टाफ के लेख का जिक्र जरूर … Read more

जब आप किसी की तरफ एक अँगुली उठाते हैं तो तीन अंगुलियाँ आप कीतरफ उठती हैं

भा भू अ पुरस्कार – प्रसंग सात समंद की मसि करौं स्त्री लेखको को जो लानतें – मलानतें पिछले दिनों भेजी गईं , उसका निरपेक्ष विश्लेषण कुछ महत्वपूर्ण प्रश्न खड़े करता है. साथी पुरुषों से अनुरोध है कि जरा रुक कर सोचें — • क्या आपको सचमुच यह लगता है कि स्त्रियाँ सिर्फ शरीर हैं और उनका प्रज्ञा पक्ष बाधित है ? उनमें सिर्फ पाशविक संवेदनाएँ हैं और निरपेक्ष निर्णय का विवेक उन्हें छू तक नहीं गया, राग द्वेष से ऊपर उनका कोई निर्णय हो ही नहीं सकता ?  • क्या आपके मन में अपनी बेटियों के लिए ऐसे समाज की कल्पना है जहाँ कोई स्त्री सहज स्नेहवश किसी को घर बुला ही नहीं सकती. क्या घर एक ऐसा “रेजिमेंटेंड स्पेस” होना चाहिए जहाँ सिर्फ पुरुषों के मेहमान विराजें? क्या आपकी माँओं ने आपके दोस्तों को कभी लाड़ में आकर घर नहीं बुलाया ? क्या आप पत्नी के दोस्त / रिश्तेदारों / सहकर्मियों के लिए घर के दरवाज़े बंद रखते हैं? क्या हम मध्यकालीन समाज में रह रहे हैं जहाँ हर प्रौढ़ स्त्री “कुट्टिनी” ही होती थी और हर युवा स्त्री “मनचली ?”  • क्या सहज मानवीय गरिमा की रक्षा में उठी आवाज जातिसूचक और लिंगभेदी गालियों ( कुंजरिन) आदि से कीलित की जानी चाहिए ?  क्या यह जेल जाने लायक कृत्य नहीं है ? कोई प्रखर स्त्री सार्वजनिक मंच से गंभीर प्रश्न उठा रही हो , उस समय उसका नख-शिख वर्णन करने लगना क्या उसे थप्पड़ मारने जैसा नहीं है ?  • क्या आपको ऐसा नहीं जान पड़ता कि घर- गृहस्थी चलाने वाली कामकाजी औरतों के पास मरने की भी फ़ुर्सत नहीं होती? पहले की स्त्रियाँ तन – मन से सेवा करती थी पर सिर्फ अपने घर की. अब की कामकाजी स्त्रियाँ तन-मन-धन से घर बाहर दोनों सींचती हैं, लगातार इतना श्रम करती हैं , समय चुरा कर लिखती – पढती भी हैं, तो किसलिए ? इसी महास्वप्न के तहत कि बिना दीवारों का एक बंधु परिवार गढ़ पाएँ जहाँ मीरां की प्रेम-बेल वर्ण वर्ग नस्ल और संप्रदाय की कँटीली दीवारें फलांगती हुई अपनी स्नेह-छाया दुनिया के सब वंचितों और परेशानहाल लोगों पर डाल पाए ताकि उनकी अंतर्निहित संभावनाएँ मुकुलित हो पाएँ ? • क्या यह जरुरी नहीं कि हम अपने युवा साथियों में भाषिक संवेदना विकसित होने दें और उन्हें बताएं कि फ़तवे जारी करने से अपनी ही प्रतिभा कुंठित होती है. किसी के चरित्र पर या उसके लेखन पर कोई क्रूर टिप्पणी आपकी अपनी ही विश्वसनीयता घटाती है. किस बड़े आलोचक ने ऐसा किया ? आलोचना की भाषा में तो माली का धैर्य चाहिए.  बड़े प्रतिरोध की आलोचनात्मक भाषा तो और शिष्ट और तर्कसम्मत होनी चाहिए- घृणा और आवेग से काँपती हुई भाषा यही बताती है कि आपके बचपन में आप पर ध्यान नहीं दिया गया और अब आपने अपने लिए ग़लत प्रतिमान चुने. क्या आपको ऐसा नहीं लगता कि यह स्थिति आपको करुणास्पद बनाती है या हास्यास्पद ? मुक्तिबोध ने कवि को ” आत्मा का जासूस” कहा था. परकायाप्रवेश की क्षमता ही किसी को बड़ा कवि बनाती है. एकबार ठहर भर कर क्या आपने सोचा कि क्या उस नवांकुर को कैसा लग रहा होगा इस समय जिसने ” बच्चे धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं” जैसी संवेदनशील कविता लिखी. हृदय से कृतज्ञ हूँ उन सभी साथियों की जो बिना किसी आह्वान के, सहज नैतिक तेजस्विता की माँगलिक प्रेरणा से यातना की इन अंधेरी रातों में हमारे साथ बने रहे.  मैं फेसबुक पर नहीं हूँ पर साथियों ने आप सबके नाम मुझ तक पहुँचा दिए हैं और मैंने अपनी कल्पना का एक बंधु परिवार गढ़ भी लिया है जिसका निर्णायक रक्त या यौन-संबंध नहीं, सहज स्नेह और ममता का नाता है. इस बहाने हम ऊर्ध्वबाहु संकल्प लेते हैं हैं कि ( विमर्शों द्वारा प्रस्तावित) भाषी औज़ारों से लड़े जाने वाले मनोवैज्ञानिक युद्ध में हम हमेशा साथ बने रहेंगे. #अनामिका  गीता श्री की फेसबुक वाल से साभार फोटो क्रेडिट – शब्दांकन