नारी मन – ये खाना – खाना क्या लगा रखा है ?
जब भी आँखें बंद करके माँ को याद करती हूँ तो कभी कमर पर पल्लू कस कर पूरी तलते हुए , तो कभी सिल बटने पर चटनी या मसाला पीसते हुए तो कभी हमारे पीछे लंच बॉक्स ले कर दौड़ते हुए , यही दृश्य याद आते हैं | इससे इतर माँ का कोई रूप ध्यान ही नहीं आता | शायद माँ भी जब अपनी माँ को याद करती होंगी या नानी अपनी माँ को या मेरी बेटी मुझे उसे माँ का यही रूप दिखाई देता होगा | भले ही रसोई और पहनावा अलग –अलग हो पर माँ और भोजन या पोषण शब्द एक दूसरे में घुल –मिल गए हैं | पर आज मुझे कोई दूसरी माँ ही याद आ रही हैं | एक टी वी धारावाहिक की माँ | काफी समय बीत गया है जब टी वी पर एक धारावाहिक आया करता था | नाम तो ठीक से याद नहीं शायद जिंदगी … से शुरू होता था | उसमें अरुणा ईरानी मुख्य घरेलू माँ की भूमिका में थीं | और कहानी भी घर –परिवार और उससे जुडी समस्याओं पर थी | उसी में एक एपिसोड में अरुणा ईरानी ( घर की मुख्य स्त्री पात्र ) थोडा देर से उठती है | भाग –भाग कर जल्दी जल्दी नाश्ता तैयार करती है | पर पति और बच्चे मुझे लेट हो जाएगा , मुझे लेट हो जाएगा कहते हुए बिना खाए और बिना लंच लिए चले जाते है | एक पराजित सिपाही की तरह नायिका हाथों में टोस्ट और आँखों में आँसू लिए खड़ी रह जाती है | तभी उसकी सहेली आती है उसे समझाती है की वो सब बाहर कुछ खा लेंगे , पर तू शायद दिन भर कुछ नहीं खाएगी | तू हर समय परिवार के बारे में सोंचती है कुछ अपने बारे में भी सोंच | अपनी जिंदगी के बारे में भी सोंच | इस धारावाहिक को आज याद करने की ख़ास वज़ह भी है | दरसल मैं अपनी सहेली के घर गयी हुई थी | वो भाग भाग कर खाना बना रही थी , साथ ही साथ अभी लायी दो मिनट रुकिए कहती जा रही थी | तभी उसके पति ,”मैं जा रहा हूँ “कहते हुए जाने लगे | जी खाना , उसके प्रश्न पर एकदम बिफर पड़े क्या खाना , खाना लगा रखा है ? मुझे देर हो रही है | उनके जाते ही सुधा के सब्र का बाँध टूट पड़ा | इतनी कोशिश करती हूँ इतने तरीके से बनाकर खिलाती हूँ | ऐसे ही क्या खाना –खाना लगा रखा है कहकर चल देते हैं , फिर मुझसे एक कौर भी खाया नहीं जाता | मुझे क्यों झिडकते हैं इस तरह से , बताओ ? उसके इस प्रश्न पर उस समय तो मैं चुप रही | यूँहीं इधर उधर की बातें कर घर आ गयी | पर घर में यह प्रश्न मुझे मथता रहा | क्यों एक घरेलू औरत की जिंदगी आखिर तुम करती क्या हो से क्या खाना खाना लगा रखा हैं के दो दरवाजों की सांकल खोलने में बीत जाती हैं | इन बंद दरवाजों के बीच वो एक अपराधी, एक कैदी की तरह जीती है | जरूर पढ़ें – फेसबुक और महिला लेखन खाने के माध्यम से उसके द्वारा की गयी देखभाल उसका स्नेह पराजित होता है फिर भी वो अगले दिन उसी तरीके से अपने को व्यक्त करती है क्यों ? शायद धरती से जो नारी की तुलना की गयी है वो व्यर्थ नहीं हैं | कितने हल चलते हैं , कितना रौंदा जाता है पर धरती इनकार नहीं करती फिर , फिर उपजाती है नए –नए फूल – फल | भूखी न रहे उसकी संताने | बच्ची हो या बड़ी वस्तुतः नारी एक माँ है और सबको पोषित करना उसका संतोष | एक स्त्री को भी नहीं पता होता की उसके जन्म लेने के कुछ समय बाद ही एक माँ उसके अन्दर जन्म ले लेती है | तभी तो कोई नहीं सिखाता पर वो पहला खिलौना गुडिया चुनती है | उसको होती है गुड़िया की भूख की चिंता | माटी के बर्तनों में कुछ झूठा –सच्चा पका कर खिला देती है उसे समय –समय पर | कुछ बड़ी होती है तो उसे होने लगती है चिंता पिता की | बाबा घर आये हैं तो उन्हें पानी देना है , और नन्ही हथेलियों के बीच बड़ा सा गिलास थाम कर छलकाते –छलकाते पहुँच जाती है बाबा के पास , गुटकती है घूँट –घूँट संतुष्टि | फिर बड़ी होती है तो अपने हिस्से का खाना भाई की थाली में डाल देती है | खाने से ज्यादा खिलाने में संतोष होता है | झूठ नहीं कहते नारी अन्नपूर्णा है | सबको पोषित करना उसका स्वाभाव है | जब उसका नन्हा शिशु उसकी अपनी रचना उसकी गोद में आ जाती है… तो उसकी सारी दुनिया भोजन और पोषण के इर्द –गिर्द घूमने लगती है |नन्हे नटखट का ठुमक कर आगे बढ़ जाना और माँ का कौर लिए पीछे घूमना देखने वाले को भी वात्सल्य से भर देता है | जब समय पंख लगा कर उड़ जाता है बच्चों और पति की व्यस्तताएं बढ़ जाती हैं और प्राथमिकताएं बदल जाती हैं | नहीं बदलता है तो एक माँ का भोजन के माध्यम से अपने स्नेह को व्यक्त करने का भाव | जरा रुकना और सोचना किसी भोजन से भरी थाली को नहीं किसी स्नेह से भरी थाली को ठुकराते हो , जब तुम कहते हो , “ क्या खाना –खाना लगा रखा है “ वंदना बाजपेयी रिलेटेड पोस्ट बंद तहखानों को भी जरूरत है रोशिनी की स्त्री देह और बाजारवाद नौकरी वाली बहू नाबालिग रेप पीडिता को मिले गर्भपात कराने का अधिकार