नारी ~ब्रह्मा , विष्णु, महेश तीनों की भूमिका में

पंकज “प्रखर ” कोटा ,राजस्थान नारी का व्यक्तित्व बहुत ही अद्भुत है | हमारे देश भारत ऐसी अनगिनत नारियों सेसुसज्जित है जिन्होंने अपने त्याग और तपस्या से देश के नाम को उनंचा किया है | माता के रूप में  इस देश को विवेकनन्द, महर्षि रमण ,अरविन्द घोष ,रामकृष्ण परमहंस ,दयानंद ,शंकराचार्य ,भगत सिंह ,चन्द्र शेखर आज़ाद,सुभाष बाबु,वीर सावरकर जैसे महापुरुषों से अलंकृत किया है | ये देश आज भी गार्गी मदालसा,भारती,विध्योत्त्मा,अनुसूया,स्वयंप्रभा,सीता, सावित्री जैसी सतियों और विदुषियों को नही भूल पाया है | मानव जाति ही नही अपितु ईश्वर भी नारी जाती का ऋणी है क्योकि, धर्म के सम्वर्धन और अधर्म के विनाश के लिए जब भी ईश्वर को अवतार लेना होता है तो उसे भी माँ के रूप में एक नारी की ही आवश्यकता होती है | जितना गौरवशाली इतिहास भारत वर्ष में मिलता है उतना,महान इतिहास समूचे विश्व में शायद ही किसी राष्ट्र का हो | नारी वो जो पुरुष को जन्म देतीं है अपने आप को नारी से श्रेष्ठ समझने वाला पुरुष वर्ग ये बात भली भांति जान ले की  जो नारी पुरुष को जन्म दे सकती वो नारी संसार में कुछ भी करने में सक्षम है नारी यदि पुरुष की आज्ञाओं का पालन आर्तभाव और श्रद्धा से कर रही है तो इसका अर्थ बिलकुल भी ये नही है की वो कमजोर है |ये केवल परिवार और अपने पति के प्रति उसका प्रेम और सेवा भाव है जो उसे प्रकृति ने दिया है| पढ़िए – फेसबुक और महिला लेखन नारी यदि पृकृति प्रदत्त इस गुण का त्याग कर दे तो न केवल परिवार अपितु समाज के महाविनाश का कारण  भी बन सकती है | रामायण में एक घटना आती है की जब देवासुर संग्राम चल रहा था तब उसमे युद्ध करते हुए राजा दशरथ मुर्छित हो गये,उस समय कैकयी ने ही अपनी सूझ-बुझ से उनके प्राणों की रक्षा की थी आगे चल कर ये ही कैकयी मंथरा के बरगला देने के कारन भ्रमित हुई और राम वनवास के समय राजा दशरथ की मृत्यु का कारण बनी | नारी की तुलना यदि ब्रुह्मांड की तीन प्रमुख शक्तियों ब्रुह्मा ,विष्णु और महेश से की जाए तो कोई अतिश्योक्ति नही होगी | जिस प्रकार ब्रह्मा सष्टि  सृजन करते है उसी प्रकार नारी भी वंश रेखा को सींचती है परिवार निर्माण में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है निश्चित रूप से स्त्री को परिवार का हृदय और प्राण कहा जा सकता है। परिवार का सम्पूर्ण अस्तित्व तथा वातावरण गृहिणी पर निर्भर करता है। यदि स्त्री न होती तो पुरुष को परिवार बनाने की आवश्यकता न रहती और न ही इतना क्रियाशील तथा उत्तरदायी बनने की। स्त्री का पुरुष से युग्म बनते ही परिवार की आधारशिला रख दी जाती है और साथ ही उसे अच्छा या बुरा बनाने की प्रक्रिया भी आरम्भ हो जाती है। परिवार बसाने के लिए अकेला पुरुष भी असमर्थ है और अकेली स्त्री भी, पर मुख्य भूमिका किसकी है, यह तय करना हो तो स्त्री पर ध्यान केन्द्रित हो जाता है। पढ़िए – स्त्री और नदी दोनों का स्वछंद विचरण विनाशकारी नारी विष्णुं की तरह परिवार का पालन पोषण करती है समूचे परिवार को एक सूत्र में बांधकर रखने की जिम्मेदारी भी उसी की है साथ ही सबकी आवश्यकताओं का ध्यान रखना ये सब नारी का कार्यक्षेत्र है | माँ का स्नेह और संस्कारों से भावी पीढ़ी को सींचने का कार्य स्त्री ही करती है| पुरुष वर्ग केवल धनार्जन करता है लेकिन उसके प्रबंधन की बागडोर स्त्री के हाथ में होती है स्त्री चाहे साक्षर हो या निरक्षर पर हर स्त्री ये जानती है की पति की आय का उपयोग परिवार के लिए किस प्रकार हो सकता है, नारी अन्दरूनी व्यवस्था से लेकर परिवार में सुख- शान्ति और सौमनस्य के वातावरण को बनाये रखने का दायित्व भी निभाती है। तीसरा और सबसे महत्वपूर्ण उत्तरदायित्व है परिवार को दूषित मनोवृत्तियों और समाज में फैली बुराइयों से अपने परिवार को सुरक्षित रखना पुरानो में भगवान् शिब को संहार करता बताया गया है| नारी भी परिवार में रहकर संहारक की भूमिका निभाती है जी हाँ नारी भी संहार करती है पर किसका ? नारी संहार करती है परिवार में आई बुराइयों का आज के तनाव पूर्ण समय में जब पुरुष प्रतिकूल परिस्थितियों में अपने आप को निसहाय अनुभव करता है तो वो उनसे छुटकारा पाने के लिए बुराइयों की और अगृसर होता है | शराब, जुआ, हताशा,निराशा आदि में पुरुष घिर जाता है |जिसके फलस्वरूप परिवार का पतन शुरू होता है| ऐसी परिस्थितियों में धन्य है भारतीय नारी जो पुरुष का साथ नही छोडती बल्कि अपने प्रेम और सूझ बुझ से पति को सन्मार्ग पर ले आती है, इसी कारन वो अर्धांगिनी कहलाती है | हालांकि पुरुष को सही मार्ग पर लाने के लिए उसे अग्निपथ पर चलना पढ़ता है ,कई कष्टों और पीढ़ाओं को झेलना पढ़ता है | लेकिन नारी हार नही मानती बच्चों में श्रेष्ठ संस्कारों के सिंचन से लेकर उन्हें आदर्श मानव ही नही अपितु महा मानव बनाने तक नारी की महत्वपूर्ण भूमिका रहती है | इतिहास बड़े गर्व के साथ शिवाजी ,महाराना प्रताप जैसे शूरवीरों का नाम लेता है लेकिन इन सूरमाओं में वीरता और मात्रभूमि के प्रति अनन्य भक्ति का बीजारोपण करने वाली माँ नारी ही थी शिवाजी के पिता मुगलों के दरबार में ही काम करते थे| लेकिन शिवाजी की माँ ने शिवा को इसे संस्कार दिए जिसने मुगलों को एक बार नही अपितु अनेको बार मराठा शक्ति के सामने विवश कर दिया | महाराणा प्रताप की माता के ही संस्कार थे की मुगल सेना को कई बार महाराणा प्रताप से युद्ध में मुँह की खानी पड़ी और जीते जी मुगल महाराणा को पकड़ ही नही पाए |  इस गौरवशाली इतिहास का श्रेय किसे जाता है “नारी ” को जिन्होंने न केवल ऐसे सूरमाओं को जन्म दिया अपितु श्रेष्ठ संस्कारों से सींचा | इतिहास में इसे अनेकों उदहारण भरे पड़े है जो सिद्ध करते है की नारी ही परिवार से लेकर समाज निर्माण, और समाज निर्माण से लेकर राष्ट्र निर्माण में अपना मूक योगदान देती आई है |माँ न व् पत्नी के रूप में हम सब नारी के प्रेम व् त्याग को अपने घरों में देखते हैं | फिर क्यों नहीं हम उसे उसके अधिकारों को दे पाते हैं | … Read more

विश्व में शांति की स्थापना के लिए महिलाओं को सशक्त बनायें!

किसी भी बालक के व्यक्तित्व निर्माण में ‘माँ’ की ही मुख्य भूमिका:-  कोई भी बच्चा सबसे ज्यादा समय अपनी माँ के सम्पर्क में रहता है और माँ उसे जैसा चाहे बना देती है। इस सम्बन्ध में एक कहानी मुझे याद आ रही है जिसमें एक माता मदालसा थी वो बहुत सुन्दर थी। वे ऋषि कन्या थी। एक बार जंगल से गुजरते समय एक राजा ने ऋषि कन्या की सुन्दरता पर मोहित होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर उन ऋषि कन्या ने उस राजा से कहा कि ‘‘मैं आपसे शादी तो कर लूगी पर मेरी शर्त यह है कि जो बच्चे होगे उनको शिक्षा मैं अपने तरीके से दूगी।’’ राजा उसकी सुन्दरता से इतनी ज्यादा प्रभावित थे कि उन्होंने ऋषि कन्या की बात मान ली। शादी के बाद जब बच्चा पैदा हुआ तो उस महिला ने अपने बच्चे को सिखाया कि बुद्धोजी, शुद्धोजी और निरंकारी जी। मायने तुम बुद्ध हो। तुम शुद्ध हो और तुम निरंकारी हो। आगे चलकर यह बच्चा महान संत बन गया। उस जमाने में जो बच्चा संत बन जाते थे उन्हें हिमालय पर्वत पर भेज दिया जाता था। इसी प्रकार दूसरे बच्चे को भी हिमालय भेज दिया गया। राजा ने जब देखा कि उसके बच्चे संत बनते जा रहंे हैं तो उन्होंने रानी से प्रार्थना की कि ‘महारानी कृपा करके एक बच्चे को तो ऐसी शिक्षा दो जो कि आगे चलकर इस राज्य को संभालें।’ इसके बाद जब बच्चा हुआ तो महारानी ने उसे ऐसी शिक्षा दी कि वो राज्य को चलाने वाला बन गया। बाद में हिमालय पर्वत से आकर उसके दोनों भाईयों ने अच्छे सिद्धांतों पर राज्य को चलाने में अपने भाई का साथ दिया। प्रत्येक बच्चे के हृदय में बचपन से ही ‘ईश्वरीय गुणों’ को डालें:- प्रत्येक बच्चे का हृदय बहुत कोमल होता है। यदि हम किसी पेड़ के तने पर कुदेर कर ‘राम’ लिख दें तो पेड़ के बड़े होने के साथ ही साथ ‘राम’ शब्द भी बढ़ता हुआ चला जाता है। इसलिए हमें अपने बच्चों में बचपन से ही ईश्वरीय गुणों को डाल देना चाहिए। बचपन में बच्चों के मन-मस्तिष्क में डाले गये गुण उसके सारे जीवन को महका सकते हैं। सुन्दर बना सकते हैं। वास्तव में बचपन में डाले गये जिन विचारों के साथ बच्चा बड़ा होता जाता है धीरे-धीरे वह उन विचारों के करीब पहुँचता जाता है। इस प्रकार बच्चा एक पेड़ के तने के समान होता है। पतली टहनी को जितना चाहो उतना मोड़ सकते हों, लेकिन यही टहनी यदि मोटी डाल बन गई तो फिर हम उसे मोड़ नहीं सकते और अगर हमने उसे जबरदस्ती मोड़ने की कोशिश की तो उसके टूटने की संभावना ज्यादा हो जाती है। इसलिए हमें प्रत्येक बच्चे के हृदय में बचपन से ही गुणों को डाल देना चाहिए। बड़े होने पर बच्चों में इन गुणों को नहीं डाला जा सकता। नारी संवेदना के स्वर विश्व में ‘एकता’ एवं ‘शांति’ की स्थापना में महिलाओं की ही मुख्य भूमिका:- आज महिलाओं को चाहिए कि न वे केवल अपनी दक्षता, सहभागिता व नेतृत्व क्षमता को सिद्ध करें बल्कि उन सभी भ्रांतियों और कहावतों को भी मुँह तोड़ जवाब दें, जो उनका कमजोर आँकलन करती हैं क्योंकि:- नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे।धैर्य, दया, ममता बल हंै विश्वास तुम्हारे।कभी मीरा, कभी उर्मिला, लक्ष्मी बाई।कभी पन्ना, कभी अहिल्या, पुतली बाई।अपने बलिदानों से, युग इतिहास रचा रे।नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे।अबला नहीं, बला सी ताकत, रूप भवानी।अपनी अद्भुत क्षमता पहचानो, हे कल्याणी।बढ़ो बना दो, विश्व एक परिवार सगा रे।नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे।महिला हो तुम, मही हिला दो, सहो न शोषण।अत्याचार न होने दो, दुष्टांे का पोषण।अन्यायी, अन्याय मिटा दो, चला दुधारे।नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे।। इस प्रकार धैर्य, दया, ममता और त्याग चार ऐसे गुण हैं जो कि महिलाओं में पुरुषों से अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘जब आदमियों में स्त्रियोंचित्त गुण आ जायेंगे तो दुनिया में ‘रामराज्य’ आ जायेगा।’’ आज अमेरिका की आर्मी में बहुत सारी औरतें भी हैं। माँ ही बच्चों की सबकुछ होती है। वह जिस तरह से चाहेगी दुनिया को चलायेगी। अगर उसके हाथ में साइन करने की ताकत आ जायेगी तो कभी भी दुष्टों का पोषण नहीं होने पायेगा। लड़ाई सस्ती होती है या शांति? निःसंदेह शांति सस्ती होती है। इसलिए शांति को लाने के लिए हमें बच्चों को प्रेम, दया, करुणा, न्याय, भाईचारा, एकता एवं त्याग आदि सिखाना है। और चूंकि सारी मानवजाति एक समान है इसलिए विश्व से भेदभाव को दूर करने के लिए हमें प्रत्येक बच्चे को एक समान शिक्षा दी जानी चाहिए। आज सारे विश्व की शिक्षा में एकरुपता लाने की आवश्यकता है। दुनिया के घावों को भरने के लिए हमें शांति रुपी मलहम का प्रयोग करना चाहिए। अटूट बंधन विश्व में शांति की स्थापना के लिए महिलाओं को सशक्त करना जरूरी:-  अब्दुल बहा ने कहा है कि विश्व में शांति आदमियों के द्वारा नहीं लायी जायेगी बल्कि महिलाओं के द्वारा लाई जायेगी। यह शांति तभी आयेगी जब कि महिलाओं के पास निर्णय लेने की शक्ति या क्षमता आ जायेगी। कोई भी महिला कभी भी लड़ाइयों के दस्तावेज पर साइन नहीं करेंगी क्योंकि उसे पता है कि उस लड़ाई से उसके पुत्र की, उसके पति की हत्या हो सकती है। एक बच्चे को जो वह पैदा करती है उसे पहले वह 9 महीने तक अपने पेट में पालती है। उसमें वह बहुत कष्ट उठाती है। उसके बाद उस बच्चे को 20 सालों तक पालती-पोषती है। इसमें उसको बहुत सी यातनायें सहनी पड़ती है। इसमें उसको बहुत त्याग करना पड़ता है। बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसलिए उस बच्चे के जीवन को खत्म करने के लिए वह कभी भी लड़ाई के दस्तावेज पर कभी भी साइन नहीं करेगी। इसलिए हमें महिलाओं को सशक्त बनाना है। उन्हंे अच्छी शिक्षा देनी है। उन्हें अच्छी नौकरी देनी है। उन्हें ऊँचे ओहदों पर बैठाना है। -जय जगत्- डाॅ. भारती गांधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-संचालिका, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

नकाब घूँघट और टैटू

घूँघट और टैटू |हालांकि आपको ये तीनों बेमेल दिख रहे होंगे | कुछ लोग इसे धर्म से जोड़ने का प्रयास भी कर सकते हैं | पर इनका सम्बन्ध धर्म से नहीं लिंग से है | जी हां ! इनका सम्बन्ध स्त्री से हैं , उसकी सुन्दरता से भयभीत होकर उसे छुपाने से है | एक अपराधबोध जो युगों से समाज स्त्रियों के मन में भरता रहा है | जहाँ सुन्दर दिखना अपराध है |सब जानते हैं की पुरुषों की आपराधिक मानसिकता पर लगाम लागने के लिए स्त्री घुंघट या नकाब में अपना चेहरा ढकने को विवश होती रही |पर आज मैं विशेष रूप से बात करना चाहती हूँ टैटू की |और उससे जुडी स्त्री शोषण की दास्तान की | नारी संवेदना के स्वर वैसे टैटू से आज कोई अनजान नहीं है टैटू एक आर्ट है जिसको हम हिंदी में गोदना भी कहते हैं | हमारे देश में इसकी पुरानी परंपरा रही है |लोग फूल – पत्ती से लेकर अपने प्रियतम – प्रियतमा के नाम तक अपने शरीर पर गुदवाते हैं |प्रसिद्द खिलाडी जॉन बेकहम के बारे में तो कहा जाता है की उन्होंने अपने पूरे शरीर पर टैटू गुदवा लिए हैं | पर ये टैटू पुराने गोदना से थोड़े से अलग हैं | क्योंकि इनमें कई रंगों का प्रयोग किया जाता है | व् डिजाइन भी लज्जवाब होते हैं | यही टैटू आजकल फैशन में है | महिला हो या पुरुष सब इसके दीवाने हैं | और अगर युवा वर्ग की बात करे तो टैटू का नशा सर चढ़कर बोलता है यह कहना अतिश्योक्ति न होगी |ये सुन्दर और अलग दिखने की ललक ही तो है जो लोग इतना दर्द सह कर भी टैटू गुदवाते हैं | पर आप को जान कर हैरानी होगी की टैटू का जुड़ाव हमारे देश और शहर नहीं बल्कि सुदूर अंचलों से भी है। ऐसा ही एक उदाहरण है म्‍यांमार की पर्वत श्रृंखला का | जहाँ एक ऐसी जनजाति का निवास है जिसकी महिलाएं अपने पूरे चेहरे पर ही टैटू बनवाती हैं। परन्तु इनके टैटू और युवा वर्ग के टैटू प्रेम में जमीन आसमान का अंतर है | जहाँ युवा वर्ग सुदर या आकर्षक दिखने के लिए टैटू का प्रयोग करता है वही ये महिलाएं बदसूरत दिखने के लिए टैटू का प्रयोग करती हैं …. पर क्यों ? जिसने मुझे इस विषय पर लिखने को विवश किया उस खबर के अनुसार साइबर सिक्योरिटी एक्सपर्ट ते हान लीन ने म्‍यांमार की यात्रा की और इस दौरान कुछ खास तस्‍वीरें लीं। उनके अनुसार जब वे म्‍यांमार जाने का सोच रहे थे तब वे जनजातियों पर शोध भी कर रहे थे। उन्‍होंने वहाँ चिन जनजाति के बारे में पता लगाया। यहां उन्‍होंने पाया कि औरतें अपने चेहरे पर टैटू बनवाती हैं।इसका कारण यह है कि महिलाओं का आकर्षण कम हो सके और उनके अपहरण या बर्मा के नरेश द्वारा उठा लिए जाने की संभावना से बचाया जा सके। यह एक पुरानी परंपरा है। साठ के दशक के बाद ये जनजाति मुन, दाई और मकांग में पैदा होने वाली कन्‍याओं को किशोरावस्‍था में चेहरे पर टैटू बनवाना होता था।इन टैटू के चौकोर खानों में छोटे डॉट होते हैं। दाई महिलाएं गहरे नीले रंग का उपयोग करती हैं। मकांग की महिलाएं नीले व हरे रंग को लगाती हैं। इनके बनाने का तरीका अजीब है। ये कांटों की सहायता से पशु की चर्बी व बैल के पित्‍त के मिश्रण से बनाए जाते हैं। इसे लगवाने में बहुत दर्द होता है। इसे बनाने में पूरा एक दिन लग जाता है। दो सप्‍ताह के समय में यह ठीक होता है। हालांकि बाद में म्‍यांमार शासन ने इसे अनुचित मानकर रोक लगाना शुरू किया ।पर आज उम्रदराज़ महिलाओं के चेहरे पर इसके निशान मौजूद हैं। आज स्त्री पुरुष की समानता की बात चलती है | पर स्त्री पुरुष एक सामान हैं ऐसे उदाहरणों से इस बात की धज्जियां उड़ जाती हैं | जहाँ औरत का मुख्य उद्देश अपनी ख़ूबसूरती को कम करना हो ताकि पुरुषों की गन्दी नज़र से बच सकें … तो समानता नहीं पुरुषों और उनके अंदर निवास करने वाले पशुता का चेहरा नज़र आता है |इसे हम दूसरे देश की बात कह कर अपना पल्ला नहीं झड सकते | क्योंकि हमारे देश में भी बुरका या घुंघट घर की महिलायों को पुरुषों की नज़र से बचाने के लिए करने की परंपरा रही है | एक बुजुर्ग पुरुष की बात मुझे अक्सर याद आती है जिसने कहा था की सुन्दर लड़की केवल शादी के मंडप में अच्छी लगती है | बाकी समय उसके पिता , पति , भाई को तनाव से ही जूझना पड़ता है | घूँघट के पक्ष में अक्सर ये सुनने को मिलता है की हीरा तो छुपा कर ही रखा जाता है |प्रश्न तो उठता ही है की हीरे से स्त्री की तुलना उसे बहुमूल्य बताने की कोशिश है या या भावना विहीन बेजान पत्थर में तब्दील करने की कवायद ?भोपाल के एक कॉलेज ने महिलाओ के जीन्स पहनने पर पबदी भी शायद पुरुषो के भय से इन लड़कियों को बचने के लिए लगाईं होगी | अभी पिछले दिनों एक खबर आई थी की एक औरत ने अपने ऊपर तेज़ाब डाल लिया था | क्योंकि वो सुन्दरता के लिए दिए दिए गए पति व् ससुर के तानों से आजिज़ आ गयी थी |वो अकेली औरत नहीं थी , कई घरों में कैद कर दी गयी , कई घुंघट या नकाब में और कई टैटू में | सुप्रसिद्ध खिलाडी शमी ने जब फेसबुक पोस्ट पर अपनी पत्नी के साथ फोटो पोस्ट की तो जैसे ज्वार – भाटा ही आ गया | एक शालीन से गाउन को लेकर तरह – तरह की फब्तियां कसी गयी | ये लोग धर्म के ठेकेदार थे या अपनी गन्दी नज़र का बयां कर रहे थे | धर्म कोई भी हो स्त्रियाँ पुरुषों की इस गन्दी नज़र से महफूज़ तो कहीं भी नहीं हैं ………….. नकाब , घुंघट या टैटू गुदवाने के बाद भी नहीं | अभी हालिया रिलीज ” पिंक में सहगल सर के अनुसार रूल नंबर वन टू टेन अगर महिलाओं के चेहरे को देखने से पुरुषो को तकलीफ होती हैं तो महिलाओं को नकाब , घुंघट और टैटू में कैद करने के बनस्पत उन्हें घरों में कैद … Read more

दोषी कौन ?

किरण सिंह , पटना ********* आए दिन नारी संवेदना के स्वर गूंजते रहते हैं …..द्रवित करते रहते हैं हॄदय को ….छलक ही आते हैं आँखों से अश्रुधार ….परन्तु प्रश्न यह उठता है कि आखिर दोषी कौन है …..पुरुष या स्वयं नारी ? कहाँ होता है महिलाओं की शोषण घर या बाहर ? किससे करें फरियाद ……किससे माँगे अपना हक …… …. पिता से जिसे पुत्री के जन्म के साथ ही …उसकी सुरक्षा और विवाह की चिन्ता सताने लगी थी . या भाई से जिसने खेल खेल में भी अपनी बहन की सुरक्षा का ध्यान रखा….. तभी तो वो ससुराल में सबकुछ सह लेती हैं हँसते हुए कि उनके पिता और भाई के सम्मान में कोई आँच नहीं आए ! वो तो नैहर से विदा होते ही समय चावल से भरा अंजुरी पीछे बिखेरती हुई चल देती हैं कुछ यादों को अपने दिल में समेटे ससुराल को सजाने संवारने ……रोती हैं फिर सम्हल जाती हैं क्यों कि बचपन से ही सुनती जो आई हैं कि बेटियाँ दूसरे घर की अमानत हैं ! छोड़ आती हैं वो अपने घर का आँगन …लीप देती हैं अपने सेवा और प्रेम से पिया का आँगन….. रहता है उन्हें अपने कर्तव्यों का भान ….दहेज के साथ संस्कार जो साथ लेकर आती हैं ……किन्तु क्या उनकी खुशियों का खयाल इमानदारी से रखा जाता है ससुराल में……. उनकी भावनाओं का कद्र किया जाता है ? यह प्रश्न विचारणीय है ! बहुत से लोग इसका उत्तर देंगे कि मैं तो अपनी बेटी से भी अधिक बहू को मानता हूँ या मानती हूँ……आदि आदि….. कुछ लोग हैं भी ऐसे परन्तु गीने चुनें ही …अधिकांशतः वो लोग जिनके बेटे बहू बाहर नौकरी करते हैं ! शायद इसीलिए आजकल नौकरी वाले दूल्हे का मांग ज्यादा है जहां महिलाओं को…नहीं रहना पड़ता ससुराल कैदख़ाने में ……सुरक्षित रहतीं है उनकी आजादी….. परन्तु कुछ वर्ग ऐसा भी है जहां ससुराल वाले पहले से ही अपेक्षा रखते हैं कि उनकी पुत्रवधू लक्ष्मी , सरस्वती , और अन्नपूर्णा की रूप होगी ….वो अपने साथ ऐसी जादुई छड़ी साथ लेकर आएगी कि छड़ी धुमाते ही ससुराल के सभी सदस्यों की मनोकामनाएं पूर्ण हो जाएं ….या बहू के रूप में ऐसा रोबोट चाहते हैं जो बटन दबाने के साथ ही काम शिघ्रता से सम्पन्न कर दे …..बात बात पर बहू के माँ बाप तक पहुंच कर ताने सुनाना तो सास का मौलिक अधिकार बन जाता है ! बहू के रूप में मिली नौकरानी को मां बाप से मिलने पर भी पाबंदी होती है क्यों कि बहू के मायके वाले उनके मांग को पूरा नहीं कर पाते…. बेटे का कान भरने से भी नहीं चूकतीं वो सास के रूप धरी महिलाएं…… क्या तब वो महिला नहीं रहती …..क्यों बेटियों का दर्द सुनाई देता है और बहुओं की आह नहीं ?.क्यों पिसी जाती हैं महिलाएं मायके और ससुराल के चक्की के मध्य ? कौन सा है उसका घर मायका या ससुराल ? और यदि ससुराल तो क्यों ताने दिये जाते हैं मायके को ? कबतक होती रहेगी महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार ? क्यों नहीं सुनाई देता है सास बनते ही नारी को नारी की संवेदना के स्वर ? जागो नारी जागो ….सोंचो , समझो और सुनों नारी की संवेदना के स्वर ! जब तक तुम नारी नारी की शत्रु बनी रहेगी तबतक होती रहेगी बेवस महिलाएं घरेलू हिंसा की शिकार ! ************************

शांति से ओत -प्रोत नारी युग के आगमन की शुरुआत हो चुकी है

डाॅ. जगदीश गाँधी, शिक्षाविद् एवं संस्थापक-प्रबन्धक, सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ (1) संयुक्त राष्ट्र संघ की महिला सशक्तिकरण की दिशा में महत्वपूर्ण पहल:- संयुक्त राष्ट्र संघ ने प्रतिवर्ष 8 मार्च को अन्तर्राष्ट्रीय महिला दिवस के रूप में मनाने की घोषणा की है। अन्तरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने का उद्देष्य विष्व के विभिन्न क्षेत्रों में महिलाओं के प्रति सम्मान, प्रषंसा और प्यार प्रकट करते हुए इस दिन को महिलाओं के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक उपलब्धियों के उपलक्ष्य में उत्सव के तौर पर मनाया जाता है। आज विज्ञान, अंतरिक्ष, खेल, साहित्य, चिकित्सा, षिक्षा, राजनीति, समाज सेवा, बैंकिंग, उद्योग, प्रषासन, सिनेमा आदि ऐसा कोई भी क्षेत्र नहीं हैं जहाँ महिलाओं ने अपना वर्चस्व न कायम किया हो। वास्तव में आज विष्व समाज में महिलाओं की सामाजिक, आर्थिक व राजनीतिक हिस्सेदारी पहले से काफी बढ़ गई है। महिलाओं ने महत्वपूर्ण व असरदार भूमिकाएँ निभा कर न सिर्फ पुरूषों के वर्चस्व को तोड़ा है, बल्कि पुरूष प्रधान समाज का ध्यान भी अपनी ओर आकर्षित किया है। लेकिन इसके साथ ही साथ आज समाज में आज चारों तरफ लड़कियों तथा महिलाओं पर घरेलू हिंसा, रेप, बलात्कार, भू्रण हत्याऐं आदि की घटनायें भी लगातार बढ़ती ही जा रहीं हैं। (2) जब तक देश में स्त्रियां सुरक्षित नहीं होगी तब तक परिवार, समाज और राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं है:- महिलाओं तथा छोटी बच्चियों पर होने वाले भेदभाव, शोषण एवं अत्याचार से विचलित होकर किसी ने कहा है कि विश्व में गर बेटियाँ अपमानित हैं और नाशाद हैं तो दिल पर रखकर हाथ कहिये कि क्या विश्व खुशहाल है? किसी ने नारी पीड़ा को इन शब्दों में व्यक्त किया है – बोझ बस काम का होता, तो शायद हंस के सह लेती ये तो भेदभाव है, जिसे तुम काम कहते हो। वास्तव में अपने जन्म के पहले से ही अपने अस्तित्व की लड़ाई को लड़ती हुई बेटियां इस धरती पर जन्म लेने के बाद भी अपनी सारी जिंदगी संघर्षों एवं मुश्किलों से सामना करते हुए समाज में अपनी एक अलग पहचान बनाती जा रही हैं। लेकिन बड़े दुःख की बात है कि घर, परिवार की जिम्मेदारियों से लेकर अंतरिक्ष तक अपनी कामयाबी का झंडा फहराने वाली इन बेटियों को समाज में अभी भी भेदभाव का सामना करना पड़ रहा है। जबकि महर्षि दयानंद ने कहा था कि ‘‘जब तक देश में स्त्रियां सुरक्षित नहीं होगी और उन्हें, उनके गौरवपूर्ण स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं किया जायेगा, तब तक समाज, परिवार और राष्ट्र का निर्माण संभव नहीं है।’’ इस प्रकार राष्ट्र का निर्माण मातृषक्ति करती है, माँ ही परिवार, समाज और राष्ट्र को संस्कारित करती है। राष्ट्र की गुणवत्ता का आधार नागरिकों की चारित्रिक गुणवत्ता है, जिसकी निर्मात्री केवल मातृषक्ति है। (3) जिस घर में नारी का सम्मान होता है वहाॅ देवता वास करते हंै:- वह मनुष्य के जीवन की जन्मदात्री भी है। ‘मनुस्मृति’ में लिखा है कि यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवतः। यत्रैतास्तु न पूज्यन्ते सर्वास्तत्राफलाः क्रियाः।। (मनुस्मृति,3/56) अर्थात् ”जहाँ स्त्रियों का आदर किया जाता है, वहाँ देवता रमण करते हैं और जहाँ इनका अनादर होता है, वहाँ सब कार्य निष्फल होते हैं। वाल्मीकि जी ने ‘रामायण’ में कहा है ”जननी जन्म भूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी” अर्थात् ”जननी और जन्म-भूमि स्वर्ग से भी बढ़कर है।” महाभारत में श्री विदुर जी ने कहा है ”घर को उज्जवल करने वाली और पवित्र आचरण वाली महाभाग्यवती स्त्रियाँ पूजा (सत्कार) करने योग्य हैं, क्योंकि वे घर की लक्ष्मी कही गई हैं, अतः उनकी विशेष रूप से रक्षा करें।” (महाभारत, 38/11)। नये युग का सन्देश लेकर आयी 21वीं सदी नारी शक्ति के अभूतपूर्व जागरण की है। मेरा विश्वास है कि नारी के नये युग की शुरूआत हो चुकी है। (4) नारी के सम्मान में एक प्रेरणादायी गीत इस प्रकार है:- नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे, धैर्य, दया, ममता बल हंै विश्वास तुम्हारे।। कभी मीरा, कभी उर्मिला, लक्ष्मी बाई, कभी पन्ना, कभी अहिल्या, पुतली बाई। अपने बलिदानों से, इतिहास रचा रे। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे, धैर्य, दया, ममता बल हंै विश्वास तुम्हारे।। अबला नहीं, बला सी ताकत रूप भवानी, पहचानो अपनी अद्भुत क्षमता हे कल्याणी। बढ़ो बना दो, विश्व एक परिवार सगा रे।। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे। धैर्य, दया, ममता बल हंै विश्वास तुम्हारे। महिला हो तुम, मही हिला दो, सहो न शोषण, अत्याचार न होने दो, दुष्टांे का पोषण। अन्यायी अन्याय मिटा दो, चला दुधारे।। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे, धैर्य, दया, ममता बल हैं विश्वास तुम्हारे।। (5) अगर धरती पर कहीं जन्नत है तो वह माँ के कदमों में है:- महिला का स्वरूप माँ का हो या बहन का, पत्नी का स्वरूप हो या बेटी का। महिला के चारांे स्वरूप ही पुरूष को सम्बल प्रदान करते हैं। पुरूष को पूर्णता का दर्जा प्रदान करने के लिए महिला के इन चारों स्वरूपों का सम्बल आवश्यक है। इतनी सबल व सशक्त महिला को अबला कहना नारी जाति का अपमान है। माँ तो सदैव अपने बच्चों पर जीवन की सारी पूँजी लुटाने के लिए लालायित रहती है। मोहम्मद साहब ने कहा है कि अगर धरती पर कहीं जन्ऩत है तो वह माँ के कदमों में है। हमारा मानना है कि एक माँ के रूप में नारी का हृदय बहुत कोमल होता है। वह सभी की खुशहाली तथा सुरक्षित जीवन की कामना करती है। ‘महिला’ शब्द का शाब्दिक अर्थ है ‘मही’ (पृथ्वी) को हिला देने वाली महिला। विश्व की वर्तमान उथल-पुथल शान्ति से ओतप्रोत नारी युग के आगमन के पूर्व की बैचेनी है। (6) माँ, बहिन, पत्नी तथा बेटी को हृदय से पूरा सम्मान देकर ही विश्व को बचाया जा सकता है:- मेरा मानना है कि अनेक महापुरूषों के निर्माण में नारी का प्रत्यक्ष या परोक्ष योगदान रहा है। कहीं नारी प्रेरणा-स्रोत तथा कहीं निरन्तर आगे बढ़ने की शक्ति रही है। प्राचीन काल से ही नारी का महत्व स्वीकार किया गया है। नये युग का सन्देश लेकर आयी 21वीं सदी नारी शक्ति के अभूतपूर्व जागरण की है। जगत गुरू भारत से नारी के नये युग की शुरूआत हो चुकी है। आज बेटियां फौज से लेकर अन्तरिक्ष तक पुरूषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चल रही हैं। स्वयं मुझे भी मेरी बेटी गीता, जो कि मेरी आध्यात्मिक माँ भी है, … Read more

सोनम , आयशा या एरिका – आखिर महिलाओं की सरेआम बेईज्ज़ती को कब तक मजाक समझते रहेंगे हम

वंदना बाजपेयी अभी कुछ दिन पहले जब सोशल मीडिया देश नोट बंदी जैसे गंभीर मुद्दे पर उलझा हुआ था | हर चौथी पोस्ट इसके समर्थन या विरोध से जुडी थी कुछ नोट बंदी के कारण भविष्य में भारतीय अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले प्रभाव के आकलन में लगे थे | नए नोटों की किल्लत थी | और लंबी कतारों से जूझते हुए लोगों को अपना ही कैश मिल रहा था | नए नवेले २००० के नोट तो सब लोगों को दिखे ही नहीं थे | तभी एक सिरफिरे ने नए – नए दो हज़ार के नोट पर लिख दिया ” सोनम गुप्ता बेवफा है ” | देखते ही देखते ये पोस्ट वायरल हो गयी |सोनम गुप्ता नेशनल हास्य का विषय बन गयी | नोट बंदी के गहन विवेचन में व्यसत लोग अचानक एक्टिव हो गए , ठीक वैसे ही जैसे मस्ताजी के क्लास छोड़ते ही बच्चे शोरगुल में व्यस्त हो जाते हैं | पर क्या बड़ों की इस बचकाना हरकत की बच्चों की मासूमियत से तुलना की जा सकती है | वो भी तब जब मुद्दा महिलाओं के सम्मान से जुडा हो | इस पोस्ट के वायरल होते ही इतिहास खंगाले जाने लगे | की सबसे पहले किसी ने १० के नोट पर “सोनम गुप्ता बेवफा है “लिखा था | फिर अन्य नोटों पर भी यही लिखा जाने लगा | हालांकि किसी को नहीं पता की ये सोनम गुप्ता कौन है | फिर भी लोग लगे मजाक उड़ाने | कई वेबसाईट ने तो उसकी पूरी कहानी छाप दी | जाहिर है वो मनगढ़ंत थी | किसी ने बताया की सोनम गुप्ता की क्या मजबूरी थी की वो बेवफा हो गयी | तो किसी ने सोनम गुप्ता की बफवाफी को सही ठहराते हुए सोनम का बचाव किया |तो कोई येन केन प्रकारें सोनम गुप्ता को बेवफा सिद्ध करने में जुट गया |सोनम गुप्ता एक ऐसा नाम है जो रातों रात सबकी जुबान पर चढ़ गया | एक सॉफ्ट ड्रिंक कम्पनी ने तो यहाँ तक घोषणा कर दी की कोई महिला जिसका नाम सोनम गुप्ता है उनके आउटलेट पर आये तो वो उसे फ्री कोल्ड ड्रिंक पिलायेंगे |जो भी हो सोनम गुप्ता एक ऐसा प्रसिद्द नाम बन गयी | जिसे कोई नहीं जानता पर जिसे सब जानते हैं | हंसी मजाक के बीच कभी सोंचा है की क्या ये उन महिलाओं के लिए पीड़ा दायक नहीं है जिनका वास्तव में नाम सोनम गुप्ता है | जब कोई मित्र परिचित उन्हें सोनम गुप्ता कह कर भीड़ में पुकारता होगा तो सभी सर उस और मुद जाते होंगे | या कोई अजनबी उनका नाम पूंछता तो उसके चरे पर एक शरारती मुस्कान आ जाती होगी | हंसी मजाक के बच्च सोनम गुप्ता पर क्या गुज़रती होगी इसकी किसे परवाह है | बात सिर्फ सोनम गुप्ता तक ही सीमित नहीं है | महिलाओ पर ही ज्यादातर चुटकुले बनते हैं | उनमें पत्नी व्अ प्रेमिकाओं पर बन्ने वाले चुटकुले सबसे ज्यादा हैं | प्रेमिकाओं को तो बात – बात पर बेवकूफ व् पत्नियों को अत्याचारी और पति की संपत्ति से प्यार करने वाली दर्शाना आम बात है | अगर आप हास्य के धारावाहिक देखे तो उसमें भी ज्यादातर पुरुष महिला बन कर स्त्री शरीर का मजाक उड़ाते हुए फूहड़ हास्य पैदा करते हैं | स्त्री का शरीर अपमान का विषय बन जाता है | कभी चूड़ियाँ पहन रखी हैं क्या ? कह कर महिला को अक्षम व् कमतर करार दे दिया जाता है |अभी कुछ समय पहले एक विज्ञापन आता था जिसमें एक खास डियो के महक से स्त्री पुरुष की दीवानी हो जाती है | मजे की बात यह है की उस स्त्री को शिक्षित दिखया गया है |तो क्या शिक्षित स्त्री इतनी मूर्ख होती है की वो पुरुष के गुणों को परखने की जगह उसके डीयो पर मर मिटती है | पुरुषों के विज्ञापनों में महिलाओं का ज्यादातर इसी रूप में इस्तेमाल होता है | क्या ये शर्मनाक नहीं है | ये सब सोनम गुट बेवफा है के आगे की कड़ियाँ ही हैं | मेरी एक मित्र ने फेसबुक पोस्ट के माध्यम से प्रश्न किया था की हमेशा मुन्नी बदनाम , शीला जवान या सोनम गुप्ता बेवफा क्यों हो जाती है | क्यों ऐसा नहीं होता की पप्पू जवान , रमेश बदनाम या सुरेश बेवफा हो जाए | शायद ऐसा कभी नहीं होगा | क्योकि पुरुषों को तो हम वैसा मान कर उन्हें क्लीन चित दिए रहते हैं परन्तु स्त्री के लिए ये शब्द आज भी अपमान का विषय बने हुए हैं | युग बदले परन्तु सीता और अग्नि परीक्षा से स्त्री का रिश्ता वही का वही रहा | पुरुषों को हर बात के लिए बैजात बरी कर के स्त्रियों को उसी कटघरे में खड़ा कर आरोप लगाना मज़ाक का नहीं बहस का मुद्दा होना चाहिए | जहाँ तक नोट पर लिखने का सवाल है उसे तो रिजर्व बैंक ने प्रतिबंधित कर दिया है | नए आदेश के अनुसार अब लिखे हुए नोट स्वीकार नहीं किये जायेंगे | उसने लोगों को आगाह भी किया है की आप लिखे हुए नोट न स्वीकारे | इस आदेश के बाद भविष्य में सोनम गुप्ता अपमानित होने से बच जायेगी |पर क्या सामाजिक रूपसे हम सोनम , आयशा या एरिका को अपमानित करने की आदत से मुक्त हो पायेंगे | लाख टेक का सवाल अब भी वहीं है की महिलाओं की सरेआम बेज्जती को कब तक मजाक समझते रहेंगे हम ?

लिखो की कलम अब तुम्हारे हाथ में भी है

लिखो की कलम अब तुम्हारे हाथ में भी है लिखो की कैसे छुपाती हो चूल्हे के धुए में आँसू लिखो की  हूकता है दिल जब  गाज़र  –मूली की तरह उखाड़ कर फेंक दी जाती हैं कोख की बेटियाँ लिखो उन नीले साव के बारे में जो उभर आते  है पीठ पर लिखो की  कैसे कलछता है मन सौतन को देख कर इतना ही नहीं … प्रेम के गीत लिखो मुक्ति का राग लिखो मन की उड़ान लिखो जो भोगा ,जो झेला ,जो समझा सब लिखो क्योंकि अब कलम तुम्हारे हाथ में है लिखो कब तक बांचा जाएगा तुम्हे पुरुष की कलम से   आज महिलाएं  मुखर हुई हैं| वो साहित्य का सृजन कर रही हैं | हर विषय पर अपनी राय दे रही हैं | अपने विचारों को बांच रही हैं | यह एक सुखद समय है |  इस विषय पर कुछ लिखने से पहले मैं आप सब को ले जाना चाहूंगी इतिहास में ….कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है और यह वह दिखाता  है जो समाज का सच हैं ,परन्तु दुखद है नारी के साथ कभी न्याय नहीं हुआ उसको अब तक देखा गया पुरुष की नजर से …….क्योकि हमारे पित्रसत्रात्मक समाज में नारी का बोलना ही प्रतिबंधित रहा है ,लिखने की कौन कहे मुंह की देहरी लक्ष्मण रेखा थी जिससे निकलने के बाद शब्दों के व्यापक अर्थ लिए जाते थे ,वर्जनाओं की दीवारे थी नैतिकता का प्रश्न था …. लिहाजा पुरुष ही नारी का दृष्टिकोण प्रस्तुत करते रहे …….. …और नारी के तमाम मनोभाव देखे जाते रहे पुरुष के नजरिये से | उन्होंने नारी को केवल दो ही रूपों में देखा या देवी के या नायिका के ,बाकि मनोभावों से यह कहते हुए पल्ला झाड़ लिया की “नारी को समझना तो ब्रह्मा के वश में भी नहीं है “भक्ति काल में नारी देवी के रूप में स्थापित की गयी , त्याग ,दया क्षमा की साक्षात् प्रतिमूर्ति . जहाँ सौन्दर्य वर्णन भी है तो मर्यादित देवी के रूप में  |  रीति काल श्रृंगार रस से भरा पड़ा है,जहाँ नारी नायिका की छवि में कैद हो कर रह गयी, उसकी आत्मा उसके आकार –प्रकार की मापदंडों में नापी जाने लगी  |                        यह सच है की विचार शील लोग केवल मुट्ठी भर होते हैं | बाकी सब उन विचारों का अनुसरण करते हैं | जब आधी आबादी ही लिखने से वंचित थी तो विचार और समाज एक तरफ़ा होता चला गया | काल बदले पर लेखन के क्षेत्र में  नारी की दशा वही रही | परन्तु जब  देश स्वतंत्र हुआ और कुछ हद तक नारी को भी कागज़ कलम में अपने विचारों को व्यक्त करने की स्वतंत्रता मिली|  तब कुछ सपने सजे , कुछ पंख लगे कुछ आकाश दिखा तब नारी को एक सांचे में देखने वाला पुरुष मन भयभीत हुआ ,आधुनिकता का लेवल लगा कर उसे वापस कठघरे में खड़ा करने की कोशिश की गयी |  लिखो , और पन्ने पर उतार दो अपने हर दर्द को                             यही शायद वो समय था जब शिक्षित नारी बोल उठी “बस “देवी ,प्रेमिका ,माँ बहन ,बेटी ,पत्नी के अतरिक्त सबसे पहले एक इंसान हैं हम , हमारे अन्दर भी धड़कता है दिल ,हैं भावनाएं ,कुछ विरोध ,कुछ कसक ,कुछ पीड़ा कुछ दर्द जो सदियों से पुरुष के प्रतिबिम्बों में ढलने के लिए छिपाए थे गहरे अन्दर, अब असह्य हो गयी है वेदना,  अब जन्म देना ही पड़ेगा किसी रचना को |वास्तव में देखा जाये तो नारी लेखन खुद में खुद को ढूँढने की कोशिश है क्योकि सदियों से परायी परिभाषाओं में जीते -जीते सृष्टि  की रचना रचने वाली खुद भूल गयी कि विचारों को आकर कैसे दिया जाता है |                ऐसे में कई सशक्त रचनाकारों ने कलम उठा कर नारी जीवन के कई अनछुए पहलुओं को उद्घाटित किया यहाँ तक की नारी जीवन की पीड़ा कसक को व्यक्त करने के लिए उन्होंने अपने जीवन को भी पाठकों के सामने परोस दिया |  कुछ महिला रचनाकारो ने तो  एक कदम आगे बढ़कर वर्जित क्षेत्र में प्रवेश करते हुए स्त्री -पुरुष संबंधों पर बेबाकी से कलम चलाई  यह भी एक सच है जिसे  नारी के नजरिये से समाज के सामने लाना जरूरी था | महिलाओ को उनके हिस्से का सम्मान दिलाने के लिए आज  न  सिर्फ लेखन अपितु संपादन के क्षेत्र में भी न जाने कितनी महिलाएं अपने अदम्य हौसलों के साथ   कलम ले कर इस यज्ञ  में आहुति दे रही  हैं |  उन्होंने पुरुषों के इस क्षेत्र में वर्चस्व को तोडा है आज महिलाएं हर विषय पर लिख रहीं हैं ,गभीर विवेचना , वैज्ञानिक तथ्यों ,समाज के हर वर्ग का दर्द ,स्त्री पुरुष संबंधोंपर ,  हर बात पर बेबाकी से लिख रहीं हैं , अपनी राय ,अपने विचार रख रहीं हैं |  अगर देखा जाये तो यह एक बहुत ही शुभ लक्षण  है|  इससे पहले की सदियों से दबाया गया कोई ज्वाला मुंखी फूटता धरती के गर्भ में छिपे लावे को सही दिशा मिल गयी है यह विनाश का नहीं विकास का प्रतीक बनेगा |  कलम उठाओ ताकि आने वाली पीढ़ियाँ समझ सके तुम्हें    यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगी की संतान को आँखे तो ईश्वर देता है पर उसे दृष्टि माँ देती है | पिछली पीढ़ियों ने भले ही आँसू बहाए हैं पर वो व्यर्थ नहीं गए हैं | आज का बच्चा पढ़ रहा है स्त्री के दर्द को अपनी माँ की कलम से ………….. आशा है वो समझेगा अपने नाम से पहचान की अपनी पत्नी की इक्षा को , ,भेदभाव की शिकार अपनी बेटी के दर्द को , सहकर्मी के मनोभावों को ,कामवाली ,मजदूर स्त्री की पीड़ा को | तभी होगा संतुलन तभी बनेगा क्षितिज स्त्री पुरुष के मध्य सही अर्थों में | इसलिए लिखो …. क्योंकि कलम तुम्हारे हाथ में भी है ….  वंदना बाजपेयी यह भी पढ़ें ……… फेसबुक और महिला लेखन दोहरी जिंदगी की मार झेलती कामकाजी स्त्रियाँ मुझे जीवन साथी के एवज में पैसे लेना स्वीकार नहीं करवाचौथ के बहाने एक विमर्श आपको आपको  लेख “ लिखो की कलम अब तुम्हारे हाथ में भी है  “ कैसा लगा  | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट … Read more

आधी आबादी :कितनी कैद कितनी आज़ाद (उपासना सियाग )

औरत होना ही अपने आप में एक ताकत है ..           नारी विमर्श , नारी -चिंतन या नारी की चिंता करते हुए लेखन , हमेशा से ही  होड़   का विषय रहा है। हर किसी को चिंता रहती है नारी के उत्थान की ,उसकी प्रगति की .पर कोई पुरुष या मैं कहूँगी कोई नारी भी , अपने दिल पर हाथ रख कर बताये और सच ही बताये कि  क्या कोई भी किसी को अपने से आगे  बढ़ते देख सकता है। यहाँ हर कोई प्रतियोगी है. फिर सिर्फ नारी की बात क्यूँ की जाये !           एक औरत अपने जीवन में कितने रूप धारण करती है, बेटी से ले कर दादी तक। उसका हर रूप शक्ति स्वरूप ही है। बस कमी है तो अपने अन्दर की शक्ति को पहचानने की। ना जाने क्यूँ वह कस्तूरी मृग की तरह इधर -उधर भागती -भटकती रहती है। जबकि  खुशबु रूपी ताकत तो स्वयम उसमे ही समाहित है। सदियाँ गवाह है जब भी नारी ने प्रतिरोध किया है तो उसे न्याय अवश्य ही मिला है।        सबसे पहले तो मुझे ” महिला-दिवस ” मनाने  पर ही आपत्ति है. क्यूँ बताया जाये के नारी कमजोर है  और उसके लिए कुछ किया जाये। कुछ विद्वान जन का मत होता है  , एक महिला जो विभिन्न रूप में होती है उसका आभार प्रकट करने के लिए ही यह दिन मनाया जाता है।  ऐसी मानसिकता पर मुझे हंसी आती है . एक दिन आभार और बाकी साल क्या ….? फिर तो यह शहरी   क्षेत्रों तक ही सीमित हो कर ही रहता है।  मैं स्वयं ग्रामीण क्षेत्र से हूँ। एक अपने परिवेश की महिला से कह बैठी , ” आज तो महिला दिवस है …!” वो हंस पड़ी और बोली , ” अच्छा बाकी दिन हमारे नहीं होते क्या…? ” यह भी सोचने वाली बात है के बाकी दिन नारी, नारी ही तो है …!          हमारे आस -पास नज़र दौडाएं तो बहुत सारी महिलाये दिख जाएगी ,मैं यहाँ आधुनिकाओं की बात नहीं कर रही हूँ . मैं बात कर रही हूँ ग्रामीण क्षेत्रीय या मजदूर -वर्ग की महिलाओं की , जो रोज़ ना जाने कितनी चिंताए ले कर सोती है और सुबह उठते ही कल की चिंता भूल कर आने वाले कल की चिंता में जुट जाती है। वह  आज में तो जीती ही नहीं। जिस दिन वह अपने , आज की चिंता करेगी वही दिन उसके लिए होगा।  उसके लिए उसका देश , उसका घर और उसके देश का प्रधानमंत्री उसका पति ही होता है।  और विपक्ष उसके ससुराल वाले ही बस ! अब ऐसे महिला के लिए क्या चिंता की जाये जब उसे ही पता नहीं उसके लिए क्या सही है या गलत।  उसे अपने बुनियादी हकों के बारे में भी पता नहीं है बस फ़र्ज़ के नाम पर घिसी -पिटी   मान्यताएं ही निभाए जा रही है। यहाँ  तो हम बात कर सकते हैं कि ये  महिलाएं अशिक्षित है और उन्हें अपने बुनियादी हको के बारे में कोई भी जानकारी ही नहीं है।  बस जानवरों की तरह हांकी ही जा रही है।     लेकिन शहर की आधुनिक और उच्च -शिक्षित महिलाओं की बात की जाये तो उनको अपने हक़ के बार में तो पता चल गया है लेकिन अपने फ़र्ज़ ही भूले जा रही है।  वे  विदेशी संस्कृति की ओर  बढती जा रही है।  बढती महत्वकांक्षाएँ और आगे बढ़ने की होड़ में ये अपना स्त्रीत्व और कभी जान तक गवां बैठती है ऐसे बहुत सारे उदहारण है हमारे सामने।        मुझे दोनों ही क्षेत्रो की नारियों से शिकायत है।  दोनों को ही  पुरुष रूपी मसीहा का  इंतजार रहता है कि कोई आएगा और उसका उद्धार करेगा।  पंजाबी में एक कहावत का भावार्थ है ” जिसने राजा महाराजाओं को और महान संतो को जन्म दिया है उसे बुरा किस लिए कहें !” और यह सच भी है।       कहा जाता है नारी जैसा कठोर नहीं और नारी जैसा कोई नरम नहीं है. तो वह किसलिए अपनी शक्ति भूल गई ! पुरुष को वह जन्म देती है तो क्यूँ  नहीं अपने अनुरूप  उसे ढाल देती. किसलिए वह पुरुष कि सत्ता के आगे झुक जाती है।           जब तक एक नारी अपनी स्वभावगत ईर्ष्या से मुक्त नहीं होगी . तब तक वह आगे बढ़ ही नहीं सकती . चाहे परिवार हो या कोई कार्य क्षेत्र महिलाये आगे बढती महिलाओं को रोकने में एक महिला ही बाधा डालती है . पुरुष तो सिर्फ मौके का फायदा ही उठाता है।  औरतें, औरतों की दुश्मनहोती है .ये शब्द तो पुरुषों के ही है ,बसकहलवाया गया है औरतों केमुहं से …….… और कहला कर उनके दिमाग मेबैठा दिया गया है …. लेकिन औरतें ,औरतों की दुश्मन कब हुई है भला …… जितना वो एक दूसरी को समझ सकती  है ,उतना और कौन समझता है ……. उसकी उदासी में ,तकलीफ में , उसके दुःख में कौन मरहम लगाती है ….   मैं यहाँ पुरुषों की बात नहीं करुगी कि उन्होंने औरतों पर कितने जुल्म किये और क्यूँ और कैसे.  बल्कि मैं तो कहूँगी , औरतों  ने सहन ही क्यूँ किये. यह ठीक है , पुरुष और स्त्री कि शारीरिक क्षमता अलग – अलग है. आत्म बल और बुद्धि बल में किसी भी पुरुष सेए स्त्री कहीं भी कमतर नहीं  फिर उसने क्यूँ एक  पुरुष को केन्द्रित कर आपस में अपने स्वरूप को मिटाने  को तुली है।       मुझे विद्वान  जनों के एक कथन  पर हंसी आती है और हैरानी भी होती है , जब वे कहते है ,” समाज में  ऐसी व्यवस्था हो जिससे स्त्रियों का स्तर सुधरे.” समाज सिर्फ पुरुषों से ही तो नहीं बनता .यहाँ भी तो औरतों  की  भागीदारी होती है।  फिर  वे क्यूँ पुरुषों पर ही छोड़ देती है कि  उनके बारे में फैसला ले।        मेरे विचार से शुरुआत हर नारी को अपने ही घर से करनी होगी।  उसे ही अपने घर बेटी को , उसका  हक़ और फ़र्ज़ दोनों याद दिलाने के साथ -साथ उसे अपने मान –सम्मान कि रक्षा करना भी सिखाये।  अपने बेटों को नारी जाति का सम्मान करना सिखाये।  बात जरा सी है और  समझ नहीं आती … जब एक माँ अपनी  बेटी को दुपट्टा में इज्ज़त   सँभालने का तरीका  समझाती है , तो वह अपने बेटे को राह … Read more

आधी आबादी कितनी कैद कितनी आज़ाद

जरूरी है सम्मान  कैद उतनी ही जितना कि कोई एक पंछी खुले पिंजरे मे हो  मगर उसके पंख काट दिए गए हों |  या एक विस्तृत विषय है जिसपर संक्षिप्त में कहना नाइंसाफी होगी | माँ की कोख में जब कोई बच्चा  होता है,  तो अमूमन उसे नहीं पता होता की उसके गर्भ में पलने वाला बच्चा बेटा है या बेटी | जन्म लेते ही आधार बन जाता है परिवार की खुशियों का एक बेटे का जन्म लेना | और मैं कहूँगी कि ब भी हम कहीं न कहीं पाते हैं कि बेटियों के जन्मते ही परिवार मायूस सा हो जाता है |  बेटियां बड़ी होती हैं स्कुल जाती हैं तमाम सारे परिवार से मिले निर्देशों के साथ | मध्यम वर्गीय परिवारों में अक्सर जो बेटियों के साथ जुडी हर घटना को उंच नीच से तोलते हैं | किससे  बात करोगी,  किस से मिलोगी,  किसके साथ उठो बैठोगी,  के साथ उसकी दिशा और दशा शुरू से बाँध  दी जाती है |इसमें उनका भी दोष नहीं , ये समाज शुरू से पुरुष प्रधान समाज रहा है सो हर क्षेत्र में दबदबा  पुरुष ने ही रखा है |  मुझे हैरानी होती है तब , जब अक्सर मेरे आसपास के पुरुष ये सवाल करते हैं कि हर बड़े काम को परुष ही निभा पाते हैं | जैसे बड़ी दावतें हों तो वहां खाना पुरुष ही पकाते हैं | टेलर्स अच्छे पुरुष ही होते हैं | स्पोर्ट्स में पुरुष , अंतरिक्ष में पुरुष , आसमान में पुरुष , …  बसों में ड्राईवर पुरुष  बगैरह बगैरह  आफिसों में भी …. | यहाँ तक कि मंदिरों में पुजारी भी पुरुष |   मैं उन्हें बताना चाहती हूँ कि इन सभी क्षेत्रों में जहाँ भी महिलाओं को मौके मिले हैं उन्होंने अपने अस्तित्व को जताया है | चाहे वह कोई भी क्षेत्र हो कॉरपोरेट्स ऑफिस  …. मेट्रो , स्पोर्ट्स ., अन्तरिक्ष ,…  कुकिंग . पहाड़ों पर चढ़ना ….. जहाँ भी अवसर मिले हैं स्त्री  ने अपने आपको साबित  किया है  |  मुझे लगता है हमें सोच बदलने की जरूरत है बस | जहाँ बचपन से बेटियों को नसीहतें दी  जाती हैं संस्कार दिए जाते हैं उसी तरह बेटों को भी सिखाया जाए कम से कम स्त्री का सम्मान करना  तो अवश्य | जिस तरह बेटों को निडरता का पाठ पढाया जाता है उसी तरह बेटियों को भी निडर बनाया जाए |  जिस तरह बेटियों का सम्मान उनकी अस्मिता शुचिता को उनकी देह से जोड़ कर देखा जाता है | उसी तरह बेटों को उनका मान रखना सिखाया जाना चाहिए |  ये क्या कि प्रताड़ित पुरुष करे और मान सम्मान  एक स्त्री का चला जाए | बलात्कार किसी स्त्री का हो मुंह स्त्री ही छुपाये . क्यों नहीं सिखाया जाता किसी बेटी को सर उठा कर जीना ?? क्यों नहीं सिखाया जाता बेटों को आधी आबादी को सम्मान देना ??  निशा कुलश्रेष्ठ  atoot bandhan

आधी आबादी कितनी कैद कितनी आज़ाद -किरण सिंह

जटिल प्रश्न आधी आबादी कितनी कैद कितनी आजाद इसका उत्तर देना काफी कठिन है क्योंकि उन्हें खुद ही नहीं पता वे चाहती क्या हैं…! वह तो संस्कृति , संस्कारों , परम्पराओं एवं रीति रिवाजों के जंजीरों में इस कदर जकड़ी हुई हैं कि चाहकर भी नहीं निकल सकतीं…. स्वीकार कर लेती हैं गुलामी…. आदी हो जाती हैं वे कैदी जीवन जीने की पिंजरे में बंद परिंदों की तरह जो अपने साथी परिंदों को नील गगन में उन्मुक्त उड़ान भरते हुए देखकर उड़ना तो चाहते हैं किन्तु उन्हें कैद में रहने की आदत इस कदर लगी हुई होती है कि वे उड़ना भूल गए होते हैं और यदि वे पिंजरा तोड़कर किसी तरह उड़ने की कोशिश भी करते हैं तो बेचारे मारे जाते हैं अपने ही साथी परिंदों के द्वारा….! मध्यम और निम्न वर्ग की महिलाओं की तो स्थिति और भी दयनीय है वह ना तो आर्थिक रूप से आजाद हैं ना मानसिक रूप से और ना ही शारीरिक रूप से..! छटपटाती हैं वे किन्तु कोई रास्ता नहीं दिखाई देता है उन्हें और वह अपने जीवन को तकदीर का लिखा मानकर जी लेती हैं घुटनभरी जिंदगी किसी तरह…! दूसरा तबका जो सक्षम है , उड़ान भरना जानती हैं , नहीं आश्रित हैं वे किसी पर, उन्हें नहीं स्वीकार होता है कैदी जीवन, उन्हें चाहिए आजादी ,अपनी जिंदगी की निर्णय लेने की… उन्हें नहीं पसंद होता है किसी की टोका टोकी.. इसीलिए बगावत पर भी उतर जाती हैं वे कभी कभी ….! चूंकि समाज संस्कृति और परंपराओं की घूंघट ओढ़े स्त्री को देखने का आदी रहा है इसलिए स्त्री के ऐसा उन्मुक्त रुप को सहजता से स्वीकार नहीं कर पाता….! बदलाव की तरफ बढ़ रहा है समाज , दर्जा मिल रहा है घरों में बेटा बेटियों को बराबरी का…… कानून भी महिलाओं के पक्ष में बन रहे हैं .. फिर भी महिलाएं अभी तक आजाद नहीं हैं…खास तौर से अपने जीवन साथी के चुनाव करने में जहाँ लड़कों की पसंद को तो स्वीकार कर लिया जाता है किन्तु लड़कियों को आज भी काफी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है…! ******************************** ©कॉपीराइट किरण सिंह  अटूट बंधन