तुम धरती हो…तुम्हे सहना होगा

तुम धरती हो…तुम्हे सहना  होगा वह खटती रही प्रताड़ित होती रही लुटती रही बार बार….लगातार उससे कहा गया तुम धरती हो…तुम्हे सह्ना होगा उससे कहा गया तुम ममता हो…तुम्हे पलना होगा उससे कहा गया तुम कोख हो….तुम्हे इसी से जन्मना …..तो कभी इसी मे मरना होगा           औरत का जन्म किसी तपस्या से कम नहीं है। उसे हर परिस्थिति मे खुद को साबित करना होता है। खटती रह्ती है पूरे दिन, बिना अवकाश। उसकी पूरी ज़िंदगी तीन भागो मे बंटी रहती है। पहला हिस्सा पिता के घर, दूसरा पति के घर तो तीसरा पुत्र के घर बीतता है। एक जीवन में तीन घर संवारने वाली का अपना घर कौन सा है? पिता के घर सुनती रही- ‘तुम्हे पराए घर जाना है।‘ पति के यहाँ कहा गया- ‘पराए घर से आई है न, हमारे घर के तौर-तरीके सीखने में थोडा टाइम लगेगा।‘ बेटे के घर- ‘कुछ सालो की मेहमान, न जाने कब अंतिम बुलावा आ जाए।‘ प्रश्न वही कि उसका अपना घर कौन-सा है? उसका पूरा जीवन किसी चुनौती से कम नहीं है। उसके लिए दुनिया मे आना ही अपने आप मे एक संघर्ष है, एक ऐसा संघर्ष जो माँ की कोख से ही प्रारम्भ हो जाता है। वहाँ भी ख़तरा मंडराता रहता है,यदि वह कन्या-भ्रूण का रूप ले लेती है तो…..न जाने कब कोई तेज़ रौशनी कौंधेगी, कुछ तीखे और धारदार औज़ार उसे ज़ख्म देंगे और वह खून में तब्दील कर दी जाएगी।  जन्म मिलते ही प्रताड़ित प्रारम्भ, संघर्ष प्रारम्भ। उसका लडकी होना बचपन पर भारी पडा । सयानी होने पर एक जिस्म के अतिरिक्त और कुछ नहीं समझा गई। कभी जिस्म पर चोट मिली , तो कभी आत्मा पर । कभी सम्मान लूटा गया, तो कभी सपने। कभी आकांक्षाएँ छलनी हुई तो कभी आत्मसम्मान । वह पीटी गई, घर से निकाली गई , किंतु फिर भी वह लौट आई । उसके शहर में रेलवे ट्रैक भी रहा होगा , नदी भी रही होगी , मगर फिर भी वह लौट-लौट कर आती रही । वह हर बार मार खाकर भागती है, मगर फिर भी लौट आती है और लौटने पर भी मार ही खाती है ।                       (चित्र गूगल से साभार )        हमारी संस्कृति में स्त्री को पूजनीय कहा तो गया है लेकिन जब कभी भी औरत की मान-मर्यादा और सम्मान की रक्षा की बात आती है तो सभी बिदक जाते हैं । इस दोहरेपन का श्रेय बहुत हद तक मनुस्मृति और आज इसी तरह के शास्त्रो को जाता है, जिसमे नारी को घर की सजावट की वस्तु या दैहिक सुख के लिए खिलौन-मात्र माना जाता है । अगर ऐसा न होता तो द्रौपदी पतियो द्वारा ही दांव पर ही न लगाई जाती । सत्यवादी हरिशचंद अपनी दक्षिणा को चुकाने हेतु अपनी ही स्त्री को किसी वस्तु के समान बेचते नहीं । राम द्वारा सीता की अग्नि परीक्षा न ली जाती । ये सभी घटनाये हमारे समाज की सच्चाई को उजागर करती हैं । आज हम हर क्षेत्र में विकास का दावा करते हैं । हमारी दिनचर्या और प्रत्येक गतिविधि में आधुनिकता देखने को मिलती है । लेकिन फिर भी आज की स्त्रिया पुरुषों का उत्पीडन झेलती हैं । घर नाम की ऊंची-ऊंची और सख्त दीवारो के भीतर उनका कोमल तन और मन प्रताडना सहता है । वह अपने बच्चो को जीना सिखाते-सिखाते खुद हंसना भी भूल जाती है । अपने पति को खुश रखने के लिये उसके आगे झूठी मुस्कान का लिहाफ ओढे , नज़रे नीचे किए खडी रहती है जबकी हमारा समाज उसे पूजनीय मानता है । उसे देवी का स्वरूप कहता है , ‘यत्र नार्येस्तु पूज्यते रमंते तत्र देवता‘ यह सूक्ति गहरे अर्थ रखती है । इसे समझ कर हम सम्पूर्ण मानवता को समझ सकते हैं । जिस घर-परिवार में नारी को सम्मान दिया जाता है वहा देवता भी निवास करते है । यदि हर परिवार में नारी को सम्मान करने वाले सदस्य हो तो वे पुरुष स्वय ही देवतुल्य हो जाएंगे । ऐसे सुखद परिवारो से मिलकर एक सुखद समाज का निर्माण होगा और अंततः समूचा विश्व ही सुखद हो उठेगा । यदि कोई मनुष्य अपने घर की स्त्रियो का सम्मान नहीं कर सकता तो वह बाहर की स्त्रियो का तो कतई सम्मान नहीं  कर पाएगा । नारी और समाज का घनिष्ठ सम्बंध है क्योंकि नारी के बगैर समाज और परिवार की कल्पना भी नहीं की जा सकती । सृष्टि के रचयिता ने सृष्टि-सृजन में स्त्री और पुरुष दोनो की महत्वपूर्ण सहभागिता रखी है । एक के बिना दूसरा अधूरा है । फिर क्या कारण है कि पुरुष स्त्री को कमज़ोर समझ कर उसका शोषण करने से पीछे नहीं हटता । आज हर क्षेत्र में स्त्रियो के प्रति अपराध बढ़ते ही जा रहे हैं । यह   बात सच  है कि स्त्रियां नित नया इतिहास रच रही  हैं , हर क्षेत्र  में अपना सिक्का जमा चुकी हैं लेकिन यह भी सत्य है कि उसी अनुपात  में उनके प्रति  होने वाले अपराधो की संख्या और विविधता में भी वृद्धि हुई है । उसे दिन-प्रतिदिन अपराध और अत्याचार द्वारा दबाया जा रहा है । स्त्री वर्ग इस अपराधिक चुनौती का सामना करने में असमर्थ नज़र आ रहा है । वह भी उड्ना चाहती है….स्वप्न देखना चाह्ती है…उन्हे पूरा करना चाह्ती है लेकिन वक्त के क्रूर हाथो में अपनी सभी आकाँक्षाओं का गला घोंट देती है । उसकी आंखो में पलने वाले सपने….उसके परवाज़….सब अपने बच्चो की आंखो से देखने लगती है। वह जिस खूंटे से बंधी है उसे उखाड़ देना चाह्ती है। वह उखाड़ नहीं पाती फिर भी संघर्ष करती है…उसकी गर्दन ऐंठ जाती है । इस संघर्ष में वह खूंटे को न भी उखाड़ पाए मगर वह टूटेगा ज़रूर। बार-बार हर रात एक ही ख्वाब बुनती है मुक्ति का…वज़ूद का। मुक्ति ना भी मिले, वज़ूद न भी बने… तब भी बना रहे साथ मुक्ति का, वज़ूद का। जीवन न भी बचे, बचा रहे यत्न बदलने का।  चलो ….उठो ….शुरूआत करो कहीं से भी क्यूँ न अभी …यहीं से माना बहुत गीले हैं पंख मगर एक बार तबियत से फड़फड़ाके तो देखो अपनी हथेलियों की मुठ्ठी बना भींच लो जोर से सारे गम मूंद लो पलकें कि अब इनमें कोई आँसू न पले बहुत अनमोल है तुम्हारे सपने यहाँ अब इन्हें पलना होगा        रश्मि  शिक्षा – पी-एच. डी. (कबीर काव्य का भाषा शास्त्रीय अध्ययन) संप्रति – लेखन व अध्यापन  विभिन्न समाचार पत्रों, पत्रिकाओं में लेख, कविताएँ, कहानियाँ, पुस्तक-समीक्षाएं प्रकाशित  नवभारत टाइम्स और आज समाज … Read more

मजबूत हैं हौसले ……….. की मंजिल अब दूर नहीं

आधुनिक और बदलते दौर ने जहाँ एक ओर हमें कई विसंगतियां दी है ,वहीँ हमें अपने तरीके से जीवन जीने की आजादी भी दी है | हमारे इसी बदलाव और लाइफस्टाइल से हमें कई सुविधाएँ भी मिली हैं ,इसमें कोई संशय नहीं | आज हमारे समाज में अगर सबसे ज्यादा बदलाव या क्रांति आई है तो वो है महिलाओं की स्थिति में ,जिसे नकारा नहीं जा सकता | इस अचानक हुए परिवर्तन से महिलाओं में एक सुखद अनुभूति का एहसास हुआ है , साथ ही समाज की सोच में हुए सकारात्मक बदलाव से उनकी छवि में निखार व् स्पष्टता दिखाई देती है | आज हमारे समाज में स्त्री व् पुरुष दोनों को सामान अधिकार मिले हैं | अब महिलाएं भी उच्च शिक्षा की अधिकारी हो गई हैं ,उन्हें भी वोट देने का अधिकार प्राप्त है | सबसे ज्यादा जो परिवर्तन देखने में आया है वो यह है कि आज लड़का-लड़की दोनों को पैतृक सम्पति में बराबर का हक है | लड़की जब चाहे अपने संपति के लिए दावा कर सकती है | आज स्त्री किसी पर बोझ नहीं है ,उसे नौकरी करने की पूरी आजादी है और वह अपने पसंद का कैरियर चुनकर एक बेहतर जिन्दगी बसर कर रही है | मजबूत हैं हौसले ……….. की मंजिल अब दूर नहीं                                              पहले जब किसी लड़की की शादी होती थी तो उसके सारे निर्णय उसका पति और उसके ससुराल वाले लेते थे नतीजा क्या होता था एक औरत बेटे की उम्मीद में कई -कई बच्चे की माँ बन जाती थी जिससे उसका स्वास्थ्य प्रभावित होता था और बेहतर स्वास्थ्य सेवा के आभाव में कभी-कभी उसकी मौत तक हो जाती थी | पर अब ऐसा नहीं है ,अब उसके पास कम बच्चे पैदा करने का निर्णय लेने का भी अधिकार है | हालाँकि यह सारे अधिकार उन्हें पहले ही मिल चुके थे , लेकिन आज जो सबसे बड़ा परिवर्तन महिलाओं के जीवन में हुआ है वह है ,उनके खुद के सोच में आया व्यापक एवं परिपक्व  बदलाव |अब हर महिला अपने प्रति बेहद सजग एवं दृढ प्रतिज्ञ हो गई है जो उनके आत्मविश्वासी होने को दर्शाता है | अगर दिल में एक जोश हो ,कुछ कर गुजरने की चाहत हो तो आपके आगे बढ़ने के सारे रास्ते साफ़ नजर आते हैं ,फिर वो कोई भी क्षेत्र हो खुद-बखुद रस्ते बनते जाते हैं और उपलब्धियां मिलती जाती है | बस जरुरत है एक जुनून की,एक संकल्प की फिर सारे अरमानों ,सारे हौसलों को उड़ान मिलने लगती है |                                 दृढ प्रतिज्ञ की एक अलख अपने अन्दर जन जग जाता है तो पूरी कायनात उसे हासिल करवाने में जुट जाती है | आज महिलाएं भारत के शहरों से ही नहीं बल्कि गाँव और छोटे शहरों से भी बड़ी भारी तादाद में मल्टीनेशनल कंपनियों से जुड़ रही हैं | आज पूरे  विश्व में महिलाओं की भूमिका में  एक आश्चर्यजनक परिवर्तन हुआ है | आज हर क्षेत्र में महिला पुरुष समकक्ष खड़ी है , फिर वो किचेन हो या राजनीति ,हर जगह अपने जीत का पताका फहरा रही हैं | आज बड़ी भारी संख्या में महिलाएं राजनीति की ओर भी रूख कर रही हैं जबकि पहले कोई दिग्गज महिला ही राजनीति में कदम बढाती थी | पहली महिला आईपीएस ‘किरण वेदी ‘जी आज अनगिनत महिलाओं की आदर्श हैं | हालाँकि यहाँ तक पहुंचना किसी चुनौती से कम नहीं है , पर पहुँच जाने के बाद का आनंद ही कुछ और है | ग्रामीण क्षेत्रों में भी महिलाओं की सक्रियता को देखकर लगता है जैसे आत्मविश्वास की लहर वहां भी चल चुकी है | आज महिलाएं एक ओर तो आत्मनिर्भर बन गई पर उन्हें नित् नये भावनात्मक एवं  शारीरिक परेशानियों से दो-चार होना पड़ता है , इसके बावजूद भी वे निरंतर अपनी पहचान को बुलंद कर रही हैं | घर बाहर दोनों के बीच तालमेल बैठाकर  अपने सपनों को एक नया उड़ान देना ,वास्तव में एक महिला के लिए ही संभव है | कहते हैं किसी के दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते पर स्त्री ने अपनी इक्षा शक्ति से सिद्ध कर दिया है की वो दोनों मोर्चों पर सफल है |एक माँ जल्द्दी –जल्दी बच्चे का लंच पैक कर रसोई के बर्तन निपटा कर कार्यालय जाती है ………. वहां एक बॉस बन कर फैसले लेती है पुनः घर आ कर एक प्रिय पत्नी ,माँ और बहू में परिवर्तित हो जाती है |हां ! कठिन जरूर है पर असंभव नहीं ,आज की कामकाजी महिला के पैरों के नीचे जमीन भी है और मुट्ठी में सपनों का आसमान भी |ऊपर से जब महिलाएं अपने कर्म के क्षेत्रों में तरक्की करती हैं तो उनके अन्दर गजब का आत्मविश्वास बढ़ता है और यही आत्मविश्वास उन्हें सतत कर्मशील बनाता है | महिलाओं के प्रति आए इसी परिवर्तन ने उनके हाथों में नेतृत्व की कमान थमाई है ,जिसके कारण वे एक नई दुनियां में कदम बढ़ा रही हैं ,जहाँ सफलताएँ उनका बाहें फैलाकर इन्तजार कर रही है | आज उनके पास आजादी है,नाम है,शोहरत है तथा हसरतों की ऊँची उड़ान है |     आज महिलाएं अपने तथा अपने परिवार के प्रति ज्यादा सजग एवं प्रयत्नशील है ताकि उन्हें किसी किस्म की दिक्कत व् परेशानी का सामना न करना पड़े | महिलाओं के अन्दर ईश्वर प्रदत जबरदस्त संतुलन है जिसकी वजह से वह अपने परिवार तथा करियर के बीच सामंजस्य बिठाकर अपने सपनों को साकार कर रही है | बीते कुछ वर्षों में महिलाओं ने जिस तेजी से अपनी कामयाबी का परचम लहराया है उसका सीधा असर उनके कार्यक्षेत्र एवं जीवनशैली में दिख रहा है | आज महिलाएं इंटरनेट के जरिये पूरी दुनियां से अपना जुड़ाव बनाई हैं ,जिसका शाश्वत रूप फेसबुक जैसे सोशल साईट पर बखूबी देखा जा सकता है | महिलाओं की जिन्दगी में बढ़ता हुआ सकारात्मक बदलाव ने मुझे एक कविता लिखने पर बाध्य कर दिया …… आँखों में असंख्य हसरतें हैं  ख्वाब भी अब हकीकत में बदलें हैं  हौसलों की उड़ान है,और है एक ऐसा जहान, जहाँ अरमानों की एक अलग दुनियां अंगड़ाई लेती है  बांहें फैलाए हैं मेरी अनगिनत चाहतों का आसमान जहाँ न बंदिशें हैं और न ही कोई … Read more

बोझ की तरह

एक स्त्री का जब जन्म होता है तभी से उसके लालन पालन और संस्कारों में स्त्रीयोचित गुण डाले जाने लगते हैं | जैसे-जैसे वो बड़ी होती है, उसके अन्दर वो गुण विकसित होने लगते है | प्रेम, धैर्य, समर्पण, त्याग ये सभी भावनाएं वो किसी के लिए संजोने लगती है और मन ही मन किसी अनजाने अनदेखे राज कुमार के सपने देखने लगती है फिर उसी अनजाने से मन ही मन प्रेम करने लगती है | किशोरा अवस्था का प्रेम यौवन तक परिपक्व हो जाता है, तभी दस्तक होती है दिल पर और घर में राजकुमार के स्वागत की तैयारी होने लगती है |  गाजे बाजे के साथ वो सपनों का राजकुमार आता है, उसे ब्याह कर ले जाता है जो वर्षों से उससे प्रेम कर रही थी, उसे ले कर अनेकों सपने बुन रही थी | उसे लगता है कि वो जहाँ जा रही हैं किसी स्वर्ग से कम नही, अनेकों सुख-सुविधाएँ बाँहें पसारे उसके स्वागत को खड़े हैं, इसी झूठ को सच मान कर वो एक सुखद भविष्य की कामना करती हुई अपने स्वर्ग में प्रवेश कर जाती है | कुछ दिन के दिखावे के बाद कड़वा सच आखिर सामने आ ही जाता है | सच कब तक छुपा रहता और सच जान कर स्त्री आसमान से जमीन पर आ जाती है, उसके सारे सपने चकनाचूर हो जाते हैं फिर भी वो राजकुमार से प्रेम करना नही छोड़ती | आँसुओं को आँचल में समेटती वो अपनी तरफ़ से प्रेम समर्पण और त्याग करती हुई आगे बढ़ती रहती है; पर आखिर कब तक ? शरीर की चोट तो सहन हो जाती है पर हृदय की चोट नही सही जाती | आत्मविश्वास को कोई कुचले सहन होता है पर आत्मसम्मान और चरित्र पर उंगुली उठाना सहन नही होता, वो भी अपने सबसे करीबी और प्रिय से | वर्षों से जो स्त्री अपने प्रिय के लम्बी उम्र के लिए निर्जला व्रत करती है, हर मंदिर, मस्जिद, गुरुद्वारे मत्था टेकती है, हर समय उसके लिए समर्पित रहती है, उसकी दुनिया सिर्फ और सिर्फ उसी तक होती है | एक लम्बी पारी बिताने के बाद भी उससे वो मन चाहा प्रेम नही मिलता है ना ही सम्मान तब वो बिखर जाती है, हद तो तब होती है जब उसके चरित्र पर भी वही उंगुली उठती है जिससे वो खुद चोटिल हो कर भी पट्टी बांधती आई है | तब उसके सब्र का बाँध टूट जाता है और फिर उसका प्रेम नफरत में परिवर्तित होने लगता है, फिर भी उस रिश्ते को जीवन भर ढोती है वो, एक बोझ की तरह |                          दूसरी तरफ़ क्या वो पुरुष भी उसे उतना ही प्रेम करता है, जिसके लिए एक स्त्री ने सब कुछ छोड़ कर अपना सब कुछ न्यौछावर कर दिया ? वह उसे जीवन भर भोगता रहा, प्रताड़ित करता रहा, अपमानित करता रहा और अपने प्रेम की दुहाई दे कर उसे हर बार वश में करता रहा | क्या एक चिटकी सिन्दूर उसकी मांग में भर देना और सिर्फ उतने के लिए ही उसके पूरे जीवन उसकी आत्मा, सोच,उसकी रोम-रोम तक पर आधिकार कर लेना यही प्रेम है उसका ? क्या किसी का प्रेम जबरजस्ती या अधिकार से पाया जा सकता है ? क्या यही सब एक स्त्री एक पुरुष  के साथ करे तो वो पुरुष ये रिश्ता निभा पायेगा या बोझ की तरह भी ढो पायेगा इस रिश्ते को ? क्या यही प्रेम है एक पुरुष का स्त्री से ?  नही, प्रेम उपजता है हृदय की गहराई से और उसी के साथ अपने प्रिय के लिए त्याग और समर्पण भी उपजता है | सच्चा प्रेमी वही है जो अपने प्रिय की खुशियों के लिए समर्पित रहे ना कि सिर्फ छीनना जाने कुछ देना भी जाने | वही सच्चा प्रेम है जो निःस्वार्थ भाव से एक दूसरे के प्रति किया जाए नही तो प्रेम का धागा एक बार टूट जाए तो लाख कोशिशो के बाद भी दुबारा नही जुड़ता उसमे गाँठ पड़ जाता है और वो गाँठ एक दिन रिश्तों का नासूर बन जाता है, फिर रिश्ते जिए नही जाते ढोए जाते हैं एक बोझ की तरह  | शायद इसी लिए रहीम दास जी ने कहा है –                रहिमन धागा प्रेम का, मत तोरेउ चटकाय |                टूटे से फिर ना जुरै, जुरै गाँठ परि जाय || मीना पाठक ********************************************************************* कृपया हमारे  atoot bandhan फेस बुक पेज पर भी पधारे 

महिला दिवस और नारी मन की व्यथा

                           युग बदल गए, सदिया गुजर गयीं, बदलते दौर और जमाने के साथ-साथ बहुत कुछ बदल गया,लेकिन अगर कुछ नहीं बदला तो वह है नारी की नियति. कहीं परंपराओं की बेड़ियों में जकड़ी, तो कहीं भेदभाव के कारण दासता व पराधीनता के बंधनों में उलझी नारी आज भी अपनी मुक्ति के लिए छटपटा रही है.वह हौसलो की उड़ान भर कर अपने सपने पूरे करना चाहती है,लेकिन कदम-कदम पर तय की गयीं मर्यादा की लक्ष्मण रेखाये,पारिवारिक- सामाजिक राह में बाधाये बन कर खड़ी हो जाती हैं|                                                                                                           हर साल 8 मार्च आता है. अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस मनाने की रस्म अदा की जाती है. बड़े-बड़े मंचों से नारी उत्थान के संकल्प दोहराये जाते हैं.लेकिन नारी की दशा नहीं बदलती. दुनिया के किसी न किसी कोने में हर दिन कहीं वासना के भूखे भेड़िये किसी नारी की अस्मत पर डाका डालते है,तो कहीं गर्म-गोश्त की मंडी में नीलाम होने के लिए उसे मजबूर किया जाता है. कहीं वह चंद रूपयो के लिए आपने जिगर के मासूम टुकड़ों को     बेचने के लिए मजबूर होती है,तो कहीं दहेज की लपटें उसे निगल लेती हैं.                      कहने का आशय यह है कि सिर्फ़ नारी उत्थान का नारा देने भर से ही शोषण की चक्की में पिस रही नारी मुक्त नहीं होगी, इसके लिए ठोस और सार्थक पहल करनी होगी. बदलते समय के हिसाब से समाज की मानसिकता बदलनी होगी.नारी को समान अधिकारों की जरूरत है.जरूरत इस बात की भी है कि उसकी भावनाओ और अरमानो को भी सम्मान दिया जाए |                                              नारी मन की व्यथा यही है कि क्यों…आखिर क्यों अपने सपने देखने तथा प्रयास करके उन सपनों को हक़ीक़त में बदलने का अधिकार उसके पास क्यों नहीं है.आज के आधुनिक दौर में भी वह अपने जीवन के फैसले ख़ुद लेने के अधिकार से वंचित क्यों है. ऐसा क्यों होता कि जब वह अपने सपनों के आकाश में उड़ना चाहती है,तो रूढ़ियों की आड़ में उसके पर कतर दिए जाते हैं.उसे उन कामों की सजा क्यों दी जाती है,जिसमे उसका कोई दोष नहीं होता.                                                                        यदि कोई औरत विधवा हो जाती है,तो उसमें उसका कोई दोष नहीं होता,लेकिन परिवार,समाज उसके लिए नए मापदंड तय कर देता है.कोई विधुर पुरुष अपनी मनमर्जी के हिसाब से जीवन जी सकता है,लेकिन विधवा औरत ने यदि ढंग के कपड़े भी पहन लिए तो उस पर उंगलिया उठनी शुरु हो जाती हैं.किसी के साथ बलात्कार होता है,तो उसमें बलात्कार की शिकार बनी महिला का क्या दोष है.यह कैसी विडंबना है कि बलात्कारी मूँछों पर हाथ फेरकर अपनी मर्दानगी दिखता घूमता है और बलात्कार का शिकार बनी महिला या युवती को गली-गली मुँह छिपाकर जिल्लत झेलनी पड़ती है. घर-संसार बसाना किसी युवती का सबसे अहम सपना होता है,इसलिये महिलाये बहुत मजबूरी में ही तलाक के लिए पहल करतीं हैं.लेकिन तलाक होते ही तलाकशुदा महिला के बारे में लोगों का नज़रिया बदल जाता है. उसकी मजबूरिया समझने के बजाय मजबूरी का फायदा उठाने वालों की संख्या बढ़ जाती है.यदा-कदा कुछ ऐसे लोग भी मिलते हैं जो तलाकशुदा या विधवा महिला को सार्वजनिक संपत्ति मान कर व्यवहार करते हैं. क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि जिन घरों में महिलाये नौकरी या कारोबार कर रही हैं,घर के पुरुष के साथ कंधे से कंधा मिलाकर आर्थिक योगदान दे रही है,उन घरों में भी महिलाओं से यह अपेक्षा की जाती है कि वे नौकरी या कारोबार भी करती रहें और चूल्हा चक्की के काम में भी किसी तरह की कमी न आने पाने पाए. उलाहने- तानें दिए जाते हैं कि हमारे खानदान में औरतें अमुक-अमुक घरेलू कामों में दक्ष थी,लेकिन उस समय यह ध्यान नहीं दिया जाता कि उस समय महिलाये सिर्फ़ घरेलू काम ही करती थी,नौकरी या कारोबार नहीं करती थी. नारी का उत्थान तभी संभव है,जब उसे समान अधिकार दिए जाए.नारी के प्रति देहवादी सोच को समूल रुप से नष्ट करना होगा.नारी सिर्फ़ देह तक ही सीमित नहीं है.उसके भी सीने में दिल धड़कता है, भावनाएँ स्पंदित होती हैं,आंखो में भविष्य के सपने तैरते हैं, आकाक्षाओं के बादल आते हैं. नारी की महिमा को समझते हुए उसकी गरिमा को सम्मान देना होगा. नारी माँ के रुप में बच्चे को सिर्फ़ जन्म ही नहीं देती,अपने रक्त से सींच कर उसे जीवन भी देती है.बहन के रुप में दुलार देती है,तो बेटी के रुप में आपने बाबुल के घर में स्नेह की बरसात करती है. जीवनसंगिनी के रुप में जीवन में मधुरता के रस का संचार करती है.करुणा,दया,क्षमा,धैर्य आदि गुणों की प्रतीक है नारी.त्याग और ममता की मूर्ति है नारी. भारतीय संस्कृति में नारी को शुरु से ही अहम दर्जा दिया गया है.इस देश की मान्यता रही है कि नारी भोग्या नहीं,पूज्या है.नारी को देवी का दर्जा देने वाले इस देश में जरूरत है एक बार फिर उन्हीं विचारों का प्रचार करने की.यह भारतीय संस्कृति की विशेषता है कि यहाँ स्वयम्वर होते रहे हैं.नारियों को आपने जीवन के फैसले करने का अधिकार रहा है.उसी संस्कृति को ध्यान में रखते हुए नारियों  को समान अधिकार व अवसर देने होंगे,अपने विकास का रास्ता और मंज़िल वे ख़ुद तलाश लेगी | ओमकार मणि त्रिपाठी  प्रधान संपादक :अटूट बंधन एवं सच का हौसला ओमकार मणि से साभार  कृपया हमारे  atoot bandhan फेस बुक पेज पर भी पधारे 

किसी भी बालक के व्यक्तित्व निर्माण में ‘माँ’ की ही मुख्य भूमिका:-

विश्व में शांति की स्थापना के लिए  महिलाओं को सशक्त बनायें! किसी भी बालक के व्यक्तित्व निर्माण में ‘माँ’ की ही मुख्य भूमिका:- कोई भी बच्चा सबसे ज्यादा समय अपनी माँ के सम्पर्क में रहता है और माँ उसे जैसा चाहे बना देती है। इस सम्बन्ध में एक कहानी मुझे याद आ रही है जिसमें एक माता मदालसा थी वो बहुत सुन्दर थी। वे ऋषि कन्या थी। एक बार जंगल से गुजरते समय एक राजा ने ऋषि कन्या की सुन्दरता पर मोहित होकर उनसे विवाह का प्रस्ताव किया। इस पर उन ऋषि कन्या ने उस राजा से कहा कि ‘‘मैं आपसे शादी तो कर लूगी पर मेरी शर्त यह है कि जो बच्चे होगे उनको शिक्षा मैं अपने तरीके से दूगी।’’ राजा उसकी सुन्दरता से इतनी ज्यादा प्रभावित थे कि उन्होंने ऋषि कन्या की बात मान ली। शादी के बाद जब बच्चा पैदा हुआ तो उस महिला ने अपने बच्चे को सिखाया कि बुद्धोजी, शुद्धोजी और निरंकारी जी। मायने तुम बुद्ध हो। तुम शुद्ध हो और तुम निरंकारी हो। आगे चलकर यह बच्चा महान संत बन गया। उस जमाने में जो बच्चा संत बन जाते थे उन्हें हिमालय पर्वत पर भेज दिया जाता था। इसी प्रकार दूसरे बच्चे को भी हिमालय भेज दिया गया। राजा ने जब देखा कि उसके बच्चे संत बनते जा रहंे हैं तो उन्होंने रानी से प्रार्थना की कि ‘महारानी कृपा करके एक बच्चे को तो ऐसी शिक्षा दो जो कि आगे चलकर इस राज्य को संभालें।’ इसके बाद जब बच्चा हुआ तो महारानी ने उसे ऐसी शिक्षा दी कि वो राज्य को चलाने वाला बन गया। बाद में हिमालय पर्वत से आकर उसके दोनों भाईयों ने अच्छे सिद्धांतों पर राज्य को चलाने में अपने भाई का साथ दिया। प्रत्येक बच्चे के हृदय में बचपन से ही ‘ईश्वरीय गुणों’ को डालें:- प्रत्येक बच्चे का हृदय बहुत कोमल होता है। यदि हम किसी पेड़ के तने पर कुदेर कर ‘राम’ लिख दें तो पेड़ के बड़े होने के साथ ही साथ ‘राम’ शब्द भी बढ़ता हुआ चला जाता है। इसलिए हमें अपने बच्चों में बचपन से ही ईश्वरीय गुणों को डाल देना चाहिए। बचपन में बच्चों के मन-मस्तिष्क में डाले गये गुण उसके सारे जीवन को महका सकते हैं। सुन्दर बना सकते हैं। वास्तव में बचपन में डाले गये जिन विचारों के साथ बच्चा बड़ा होता जाता है धीरे-धीरे वह उन विचारों के करीब पहुँचता जाता है। इस प्रकार बच्चा एक पेड़ के तने के समान होता है। पतली टहनी को जितना चाहो उतना मोड़ सकते हों, लेकिन यही टहनी यदि मोटी डाल बन गई तो फिर हम उसे मोड़ नहीं सकते और अगर हमने उसे जबरदस्ती मोड़ने की कोशिश की तो उसके टूटने की संभावना ज्यादा हो जाती है। इसलिए हमें प्रत्येक बच्चे के हृदय में बचपन से ही गुणों को डाल देना चाहिए। बड़े होने पर बच्चों में इन गुणों को नहीं डाला जा सकता। विश्व में ‘एकता’ एवं ‘शांति’ की स्थापना में महिलाओं की ही मुख्य भूमिका:- आज महिलाओं को चाहिए कि न वे केवल अपनी दक्षता, सहभागिता व नेतृत्व क्षमता को सिद्ध करें बल्कि उन सभी भ्रांतियों और कहावतों को भी मुँह तोड़ जवाब दें, जो उनका कमजोर आँकलन करती हैं क्योंकि:- नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे। धैर्य, दया, ममता बल हंै विश्वास तुम्हारे। कभी मीरा, कभी उर्मिला, लक्ष्मी बाई। कभी पन्ना, कभी अहिल्या, पुतली बाई। अपने बलिदानों से, युग इतिहास रचा रे। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे। अबला नहीं, बला सी ताकत, रूप भवानी। अपनी अद्भुत क्षमता पहचानो, हे कल्याणी। बढ़ो बना दो, विश्व एक परिवार सगा रे। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे। महिला हो तुम, मही हिला दो, सहो न शोषण। अत्याचार न होने दो, दुष्टांे का पोषण। अन्यायी, अन्याय मिटा दो, चला दुधारे। नारी हो तुम, अरि न रह सके पास तुम्हारे।। इस प्रकार धैर्य, दया, ममता और त्याग चार ऐसे गुण हैं जो कि महिलाओं में पुरुषों से अधिक मात्रा में पाये जाते हैं। महात्मा गांधी ने कहा था कि ‘‘जब आदमियों में स्त्रियोंचित्त गुण आ जायेंगे तो दुनिया में ‘रामराज्य’ आ जायेगा।’’ आज अमेरिका की आर्मी में बहुत सारी औरतें भी हैं। माँ ही बच्चों की सबकुछ होती है। वह जिस तरह से चाहेगी दुनिया को चलायेगी। अगर उसके हाथ में साइन करने की ताकत आ जायेगी तो कभी भी दुष्टों का पोषण नहीं होने पायेगा। लड़ाई सस्ती होती है या शांति? निःसंदेह शांति सस्ती होती है। इसलिए शांति को लाने के लिए हमें बच्चों को प्रेम, दया, करुणा, न्याय, भाईचारा, एकता एवं त्याग आदि सिखाना है। और चूंकि सारी मानवजाति एक समान है इसलिए विश्व से भेदभाव को दूर करने के लिए हमें प्रत्येक बच्चे को एक समान शिक्षा दी जानी चाहिए। आज सारे विश्व की शिक्षा में एकरुपता लाने की आवश्यकता है। दुनिया के घावों को भरने के लिए हमें शांति रुपी मलहम का प्रयोग करना चाहिए। विश्व में शांति की स्थापना के लिए महिलाओं को सशक्त करना जरूरी:- अब्दुल बहा ने कहा है कि विश्व में शांति आदमियों के द्वारा नहीं लायी जायेगी बल्कि महिलाओं के द्वारा लाई जायेगी। यह शांति तभी आयेगी जब कि महिलाओं के पास निर्णय लेने की शक्ति या क्षमता आ जायेगी। कोई भी महिला कभी भी लड़ाइयों के दस्तावेज पर साइन नहीं करेंगी क्योंकि उसे पता है कि उस लड़ाई से उसके पुत्र की, उसके पति की हत्या हो सकती है। एक बच्चे को जो वह पैदा करती है उसे पहले वह 9 महीने तक अपने पेट में पालती है। उसमें वह बहुत कष्ट उठाती है। उसके बाद उस बच्चे को 20 सालों तक पालती-पोषती है। इसमें उसको बहुत सी यातनायें सहनी पड़ती है। इसमें उसको बहुत त्याग करना पड़ता है। बहुत से कष्ट उठाने पड़ते हैं। इसलिए उस बच्चे के जीवन को खत्म करने के लिए वह कभी भी लड़ाई के दस्तावेज पर कभी भी साइन नहीं करेगी। इसलिए हमें महिलाओं को सशक्त बनाना है। उन्हंे अच्छी शिक्षा देनी है। उन्हें अच्छी नौकरी देनी है। उन्हें ऊँचे ओहदों पर बैठाना है। -जय जगत्- भवदीया डाॅ. भारती गाँधी संस्थापिका-निदेशिका सिटी मोन्टेसरी स्कूल, लखनऊ

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस् पर विशेष : कुछ पाया है …….. कुछ पाना है बाकी

अंतराष्ट्रीय महिला दिवस् पर विशेष       कुछ पाया है …….. कुछ पाना है बाकी सदियों से लिखती आई हैं औरतें सबके लिए चूल्हे की राख पर  धुएं से त्याग द्वारे की अल्पना पर रंगों से प्रेम तुलसी के चौरे पर गेरू से श्रद्धा  अब लिखेंगी अपने लिए आसमानों पर कलम से सफलता की दास्ताने अब नहीं रह जाएगा आरक्षित उनके लिए पूरब के घर में दक्षिण का कोना बल्कि बनेगा  एक क्षितिज जहाँ सही अर्थो में  स्थापित होगा संतुलन शिव और शक्ति  में  ८ मार्च अन्तराष्ट्रीय महिला दिवस …. ३६५ दिनों में से एक दिन महिलाओं के लिए ….पता नहीं क्यों  मैं कल्पना नहीं कर पाती किसी ऐसे दिन ऐसे घंटे या ऐसे मिनट की जिसमें स्त्री न हो ,या जो स्त्री के लिए न हो तो फिर ये  महिला दिवस क्या है ? माँ ,बहन बेटी ,सामान्य नारी के लिए सम्मान या मात्र खानापूरी  ,भाषण बाज़ी चर्चाएँ ,नारे बाजी जो यह सिद्ध कर देती है कि वो कहीं न कहीं कमजोर है ,उपेक्षित है ,पीड़ित है , क्योंकि समर्थ के कोई दिन नहीं होते ,दिन कमजोर लोगो के ऊपर करे गये अहसान है कि एक दिन तो कम से कम तुम्हारे बारे में सोचा गया | क्या स्त्री को इसकी जरूरत है ? क्या ये मात्र एक फ्रेम से निकल कर दूसरे फ्रेम में टंगने  के लिए है | इस उहापोह के बीच में मैं पलटती हूँ एक किताब  राहुल संस्कृतायन  “वोल्गा से  गंगा ”  | जिसमें राहुल संस्कृतायन  नारी के बारे में  लिखते हैं  …. देह के स्तर पर  बलिष्ठ ,नेतृत्व  करने की क्षमता के  साथ वह युद्ध करने में और  शिकार करने में   भी पुरुष की सहायक   हुआ करती थी।  राहुल सांकृत्यायन के अनुसार नारी में सबको साथ लेकर चलने की शक्ति थी, वह झुण्ड में आगे चलती थी ,वह अपना साथी खुद चुनती थी ।” वोल्गा से  गंगा ” में वे  एक जगह लिखते हैं ” पुरुष की भुजाएं भी ,स्त्री की भुजाओं की  तरह बलिष्ठ थीं ” अतार्थ स्त्री की भुजाएं तो पहले से ही बलिष्ठ थी |आखिर समय के साथ क्या हुआ की वो बलिष्ठ भुजाओं वाली स्त्री इतनी कमजोर हो गयी कि उसके लिए दिवस बनाने की आवश्यकता पड़ी |                           मैं महिलाओं के मध्य पायी जाने वाली  समस्याए और उनका समाधान खोजना चाहती हूँ |मुझे सबसे पहले याद आती है गाँव की  धनियाँ , जो ढोलक की थाप पर नृत्य करती है “मैं तो चंदा ऐसी नार राजा क्यों लाये सौतानियाँ | नृत्य करते समय वो प्रसन्न है चहक रही है परन्तु वास्तव में उसका पूरा जीवन इसी धुन पर नृत्य कर रहा है | धनियाँ घुटने तक पानी में कमर झुका कर दिन भर धान  रोपती है ,७-८ बच्चे पैदा करती है ,चूल्हा चकिया करती है ,शराबी पति से डांट  –मार खाती है फिर भी सब सहती है उसका अपना कोई अस्तित्व नहीं है ,कभी सोचा ही नहीं है उसकी धुरी उसका पति है ,जो स्वतंत्र है ….ये औरते रोती हैं लगातार ,बात –बिना बात पर ,ख़ुशी में गम में  सौतन का भय उसे सब कुछ सहने को और एक टांग पर दिन भर नृत्य करने को विवश करता है चक्की चलती है ,धनियाँ नाचती है , बच्चा रोता है धनियाँ नाचती है ,ढोलक बजती है धनियाँ नाचती है … धनियाँ नाचती है अनवरत ,लगातार ,बिना रुके बिना थके |                        मुझे याद आती हैं पड़ोस के मध्यमवर्गीय परिवार वाली  भाभी जो स्कूल में अध्यापिका हैं , बैंक में क्लर्क हैं या  घर के बाहर किसी छोटे मोटे काम में लगी हुई कमाऊ बहु का खिताब अर्जित किये हैं…. भाभी दुधारू गाय हैं , समाज में इज्ज़त है  पर ये अंत नहीं है शुरुआत है उनकी कहानी का |  भाभी दो नावों पर सवार हैं एक साथ , समाज़ की वर्जनाओं रूपी विपरीत धारा  में बहती नदी, जिसे उन्हें पार करना है हर हाल में ज़रा चूके तो गए ….. मीलों दूर नामों निशान भी नहीं मिलेगा | एक बहु घर का खाना बना छोटे बड़े का ध्यान रख  सर पर पल्ला करके घर से बाहर  निकलती है ,चौराहे के बाद पल्ला हटा कर वह एक कामकाजी औरत है ,शाम को फिर रूप बदलना है ,महीने के आखिर में अपनी मेहनत  की कमाई को घर वालों को सौप देना है , क्यों न ले आखिर उन्होंने ही तो दी है घर के बाहर ऐश करने की इजाज़त ….. भाभी इंसान नहीं हैं मशीन हैं ,या घडी के कांटे जिन्हें चलना हैं समाज की टिक –टिक के बीच जो कोई अवसर जाने नहीं देना चाहता “कण देखा और तलवार मारी का “भाभी अक्सर छुप  कर रोती हैं ,या कभी अपने आँसू को चूल्हे के धुए में छिपा लेती हैं … भाभी जानती हैं माध्यम वर्गीय औरत और आँसू …. जैसे शरीर और प्राण |                   मुझे याद आती हैं डॉक्टर ,इंजीनियर , बड़ी कंपनियों की मालिक औरतें ,जिन्होंने खासी मेहनत के बाद अपना एक मुकाम बनाया है |आज बड़े –बड़े ऊंचे  पदों पर बैठी हैं…. अक्सर फाइलों पर दस्तखत करते हुए जब दिख जाते हैं अपने हाथ तो भर जाता है निराशा से मन, एक सहज स्वाभाविक प्रश्न से “क्यों स्त्री के दोनों हाथों में लड्डू नहीं होते “ क्यों कुछ पाने कुछ खोने का नियम हैं |ये औरते बोर्ड ऑफ़ डायरेक्टर्स की मीटिंग में जाती हैं ,माइक सभालती हैं ,सफलता पर घंटों लेक्चर देती हैं पर खो देती हैं जब बेटी नें पहली बार माँ कहा था ,जब बेटा पहली बार चलना सीखा था ,युवा होते बच्चों को देना चाहती  हैं समय पर नहीं, कहाँ हैं समय ?पेप्सिको की इन्द्रा नुई कहती हैं ऊँचे पदों पर बैठी औरत हर दिन जूझती है इस प्रश्न से आज किसे प्राथमिकता देना है एक माँ को या एक सी .ई .ओ को |ये औरतें रोती  नहीं,…. समय ही नहीं हैं पर हर बार दरक जाती हैं अन्दर से ,बढ़ जाती है एक सलवट माथे पर ,जिसे छुपा लेती हैं मेकअप की परतों में ,पहन लेती हैं समाजिक मुखौटा … और  हो जाती हैं तैयार अगली मीटिंग के लिए                   मुझे दिखाई देती है महिलाओं की एक चौथी जमात जो सभ्यता के लिए बिलकुल नयी है| ये हाई सोसायटी की मॉड औरते … Read more