हिन्दी के पाणिनी आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी : संस्मरण

आचार्य श्री किशोरीदास बाजपेयी को हिंदी भाषा का पाणिनि भी कहा जाता है | उन्होंने हिंदी को परिष्कृत रूप में प्रस्तुत किया | उससे पहले खड़ी बोली का चलन तो था पर उसका कोई व्यवस्थित व्याकरण नहीं था | इन्होने अपने अथक प्रयास से व्याकरण का एक सुव्यवस्थित रूप निर्धारित कर हिंदी भाषा का परिष्कार किया और साथ ही नए मानदंड भी स्थापित किये , जिससे भाषा को एक नया स्वरुप मिला |          हिंदी के साहित्यकार व् सुप्रसिद्ध व्याकरणाचारी आचार्य श्री किशोरी दस बाजपेयी जी का जन्म १५ दिसंबर १८९५ में कानपूर के बिठूर के पास मंधना के गाँव रामनगर में हुआ था | उन्होंने न केवल व्याकरण क्षेत्र में काम किया अपितु आलोचना के क्षेत्र में भी शास्त्रीय सिधान्तों का प्रतिपादन कर मानदंड स्थापित किये | प्रस्तुत है उनके बारे में कुछ रोचक बातें ….                                                 फोटो -विकिपीडिया से साभार हिन्दी के पाणिनी आचार्य श्री किशोरीदास  बाजपेयी : संस्मरण                           हिन्दी के पाणिनी कहे जाने वाले ‘दादाजी‘ यानी आचार्य श्री किशोरीदास जी बाजपेयी के बारे में तब पहली बार जाना जब वह हमारे घर पर अपनी छोटी बेटी (मेरी भाभी) का रिश्ता मेरे म॓झले भाई साहब के लिए लेकर आए।हमारे बड़े भाई साहब उनकी बातों से बहुत प्रभावित हुए। इस सिलसिले में शादी से पूर्व उनका कई बार हमारे घर आना हुआ और हर बार वह अपने व्यक्तित्व की एक नई छाप छोड़ गए।तब हमने जाना कि वह बात के पक्के हैं और उनके व्यक्तित्व में एक ऐसा खरापन है जो सभी को ऊपनी ओर आकृष्ट करता है।                           उन्ही दिनों के आस-पास ‘वैद्यनाथ‘ वालों की ओर से दादा जी का अभिनन्दन किया गया जिसमें उन्हे ग्यारह हजार रुपये प्रदान किए गए। इस अभिनन्दन के पश्चात जब वह हमारे घर आए तो उन्होने कहा कि वह यह ग्यारह हजार रुपये अपनी बेटी की शादी में खर्च करेगें और अगर यह रुपये चोरी हो गए तो कुछ भी खर्च नहीं करेगें।उनकी इस साफगोई और खरेपन को लेकर हमारे घर में कुछ दिनों खूब विनोदपूर्ण वातावरण रहा।                              उन्होने कहा,बारात कम लाई जाए लेकिन स्टेशन पर पहुँचने से लेकर वापिस स्टेशन आने तक वह हम लोगों से कुछ भी खर्च नहीं करवाएगें। बारात में कुल बीस- पच्चीस लोग ही गए।लेकिन उन्होने हरिद्वार स्टेशन पर उतरते ही सवारी से लेकर बैंड-बाजे आदि का कुछ भी खर्च हमारी ओर से नहीं होने दिया।उन्होंने शादी शानदार ढंग से निपटाई।भोजन और मिष्ठान्न सभी कुछ देशी घी में बने थे।जो मिठाई उन्होने हमारे घर भिजवाई,वह भी सब शुद्ध देशी घी में बनी थी।उनके द्वारा भिजवाई गई मिठाइयों में पूड़ी के बराबर की चन्द्रकला का स्वाद तो मुझे आज भी याद है।गर्मियों के दिन थे।उन्होने हमारे घर पर बहुत अधिक पकवान व मिठाइयाँ भिजवा दी थीं।माँ ने तुरन्त ही सब बँटवा दीं।आज भी सब रिश्तेदार और मुहल्ले वाले उन मिठाइयों की याद कर लेते हैं।                            गर्मियों की छुट्टियों मैं मैं एक महिने भाभी के साथ कनखल में रही। दादाजी सुबह चार बजे उठ जाते और भगोने में चाय चढ़ा देते। वह चाय पीकर मुझे जगा देते और अपने साथ टहलने ले जाते। हम ज्वालापुर तक टहलने जाते। टहलते समय दादा जी मुझे खूब मजेदार बातें बताते। वह कहते , ‘जाको मारा चाहिए बिन लाठी बिन घाव, वाको यही सिखाइए भइया घुइयाँ पूड़ी खाव।‘ फिर हँस कर कहते कि उन्हे घुइयाँ पूड़ी बहुत पसंद हैं।                                   एक बार जब वे अंग्रेजों के समय जेल में बन्द थे, उनकी कचेहरी में पेशी हुई। पेशी के लिए जज के समक्ष जाते समय पेशकार ने पैसों के लिए अपनी पीठ के पीछे हाथ पसार दिए। दादा जी ने उसकी गदेली पर थूक दिया। वह तुरन्त अपना हाथ पोंछकर जज के सामने खड़ा हो गया।                                     जब हम टहल कर आते , दादा जी नाश्ते में पंजीरी (भुना आटा और बूरा ) में देशी घी डलवा कर लड्डू बनवाते जो एक गिलास ताजे दूध के साथ मुझे नाश्ते में मिलता। यह रोज का नियम था। वह मेरा विशेष ख्याल रखते। जब तक मैं कनखल में रही, दादा जी मेरे लिए मिठाई लाते और मिठाई में अक्सर चन्द्रकला होती।फलों में उन्हे खरबूजा , ककड़ी और देशी आम पसन्द थे। किन्तु हम सबके लिए केला, सन्तरा आदि मौसमी फल भी लाते। आम को वह आम जनता का फल बताते थे।खाने के साथ उन्हे अनारदाने की चटनी बहुत पसंद थी।                                     टहल कर आने के पश्चात दादा जी लिखने का कार्य करते। भोजन करके वह कुछ देर विश्राम करते।तत्पश्चात वह हरिद्वार,श्रवणनाथ ज्ञान म॓दिर पुस्तकालय जाते।यह उनका प्रतिदिन का नियम था। रात में वह कहीं नहीं जाते थे। वह कहते,’दिया बाती जले मद्द (मर्द) मानस घर में भले।‘                                      जब वह हमारे घर कानपुर आते, हम सब उनसे मजेदार किस्से सुनने के लिए उन्हे घेर कर बैठ जाते। ऐसे ही एक समय उन्होने बताया कि एक बार जब वह ट्रेन से जा रहे थे तो उन्होने अपने सामने की सीट पर बैठे व्यक्ति से बात करने की गरज से पूछा कि वह कहाँ जा रहे हैं? उन्होंने कोई जवाब नहीं दिया। ऐसा तीन बार हुआ। अवश्य ही इस व्यक्ति ने धोती कुरता पहने हुए दादा जी को गाँव का कोई साधारण गँवार समझा होगा। जब उन्होने देखा कि यह व्यक्ति बात नहीं करना चाहता तो वह अपनी सीट पर बिस्तर बिछा कर सो गए। सुबह होने पर उन्होने एक केतली चाय, टोस्ट, मक्खन मँगाया और नाश्ता करने लगे।इसी बीच यह व्यक्ति दादा जी से पूछने लगा कि उन्हे कहाँ जाना है? दादा जी ने कोई जवाब नहीं दिया तथा उसकी ओर अपनी पीठ कर ली। ऐसा दो बार हुआ। तीसरी बार वह व्यक्ति जरा जोर से बोला, ‘क्या आप ऊँचा सुनते हैं? ‘अब दादा जी उसकी ओर मुँह घुमा कर बोले, ‘आप मुझसे कहाँ बात कर रहे हैं? आप तो मेरे टोस्ट मक्खन सै बात कर रहे हैं।‘ रात को जब मैंने आपसे बात करने की कोशिश की, आपने कोई जवाब नहीं दिया। ‘ वह व्यक्ति बड़ा शर्मिन्दा हुआ।किन्तु पीछे की सीट पर बैठे हुए शुक्ला … Read more

हिंदी मेरा अभिमान

आज जब पीछे मुड़ कर देखती हूँ और सोचती हूँ  कि हिंदी कब और कैसे मेरे जीवन में इतनी घुलमिल गई  तो इसका पूरा-पूरा शत-प्रतिशत श्रेय माँ और पापा को जाता है और किस तरह जाता है इसके लिए  मुझे अपने बचपन में लौटना होगा। संस्मरण -हिंदी मेरा अभिमान            मेरे पापा बाबूराम वर्मा हिंदी के कट्टर प्रेमी थे। एक माँ के रूप में वे हिंदी से प्यार करते थे। काम करते-करते वे बच्चन जी के लिखे गीत गुनगुनाते रहते थे। आज मुझसे बोल बादल, आज मुझसे दूर दुनिया, मधुशाला, मधुबाला गाते। सुनते-सुनते मुझे भी कई गीत, रुबाइयाँ याद हो गई थीं। बाद में शायद यही मेरी पी एच डी करने के समय बच्चन साहित्य पर शोध करने का कारण भी बनी होगी।          तो हिंदी से मन के तार ऐसे जुड़े कि पराग, चंदामामा, बालभारती, चंपक मिलने की प्रतीक्षा रहने लगी। साप्ताहिक हिंदुस्तान, धर्मयुग और उसमें भी डब्बू जी वाला कोना सबसे पहले देखना… बड़ा आनंद आता। लेखकों, कवियों के प्रति सम्मान की भावना भी उत्पन्न होने लगी। आठवीं कक्षा में थी, तब विद्यालय पत्रिका में मेरी पहली छोटी सी कहानी छपी थी। उस समय जिस आनंद की अनुभूति हुई थी, आज भी जब उसके बारे में सोचती हूँ तो उस आनंद की सिहरन आज भी जैसे अनुभव होती है वैसी ही।         पापा की अलमारी से ढूँढ-ढूँढ कर पुस्तकें , सरस्वती, कहानी, विशाल भारत निकाल कर पढ़ना एक आदत बन गई थी । शिवानी, मालती जोशी. उषा प्रियंवदा, मन्नू भंडारी, शशिप्रभा शास्त्री, रांगेय राघव आदि को पढ़ने का अवसर मिला। माँ से विवाहों, पर्व-त्योहारों के अवसर पर लोकगीत सुने तो यह विधा भी मन के निकट रही।             हिंदी की पुस्तकें, पत्रिकाएँ पढ़ने का जुनून कुछ इस तरह घर में सबको था कि जब घर में सब होते तो कोई न कोई पुस्तक-पत्रिका हाथ में लिए पढ़ने में लगे होते। यह दृश्य भी देखने लायक हुआ करता था। पापा तो नौकरी के बाद बचे अपने समय का भरपूर उपयोग पढ़ने-लिखने में किया करते थे।           घर में पूरा वातावरण हिंदीमय था। माँ पर अवश्य कभी अपनी आस-पड़ोस की सखियों की देखा-देखी कभी अँग्रेजी दिखावे की दबी सी भावना आ जाती, पर टिक नहीं पाती थी।            जब मेरे छोटे भाई का मुंडन समारोह होना था और उसके निमंत्रण पत्र छपवाने की बात आई तो माँ ने कहा यहाँ सभी अँग्रेजी में छपवाते हैं तो हम भी छपवा लें, हिंदी में छपे निमंत्रण पत्र बाँटेंगे तो देखना कोई आयेगा भी नहीं। पर पापा कहाँ मानने वाले ? बोले.. कोई आये ना आये, निमंत्रण पत्र तो हिंदी में ही छपेंगे और बटेंगे। ऐसा ही हुआ। मैं पापा के साथ निमंत्रण पत्र बाँटने भी गई थी और सब लोग आये थे। उस समय कई दिनों तक इसकी चर्चा होती रही रही थी और कई लोगों ने इसका अनुकरण भी किया था। इस बात ने मेरे मन पर बहुत प्रभाव डाला था।            मेरे पापा देहरादून के वन अनुसंधान संस्थान (एफ. आर. आई ) में हिंदी अनुवादक के पद पर कार्यरत थे। वानिकी से संबंधित अँग्रेजी से हिंदी में अनुवाद किया करते थे। उनकी अँग्रेजी भी बहुत अच्छी थी। पर वे बातचीत हिंदी में ही करते थे। आस-पड़ोस के बच्चों के माता-पिता अँग्रेजी झाड़ते रहते थे। तो मैं कभी सोचती कि मेरे पापा क्यों ऐसा नहीं करते और एक दिन मैंने उनसे पूछ ही लिया  कि आप कभी लोगों से अँग्रेजी में क्यों बातचीत नहीं करते ? उसका जो उत्तर मुझे मिला था उससे मेरे मन में पापा के प्रति सम्मान और भी अधिक हो गया था। उन्होंने मुझे कहा था… जो हिंदी बोल-समझ सकते हैं उनसे हिंदी में ही बात करनी चाहिए, पर जो हिंदी नहीं बोल-समझ सकते वहाँ अँग्रेजी बोलनी मजबूरी है तो बोलनी चाहिए। मैं ऐसा ही करता हूँ।आज ऐसा सोचने वाले कितने हैं?            उनसे हिंदी में अनुवाद करवाने के लिए बहुत लोग आते थे और उसके लिए वह बहुत ही कम पैसे लिया करते थे। कोई-कोई स्वयं पैसे पूछ कर काम करवाता और पैसे देने का नाम न लेता। मैं कहती… आपने अपना समय लगा कर काम किया और उसने पैसे भी नहीं नहीं दिए तो हमारा क्या लाभ हुआ? उलटा नुकसान ही हुआ। तो वह कहते… नुकसान तो हो ही नहीं सकता।मैं पूछती कैसे… तो वह बताते… मेरा किया अनुवाद जब वह व्यक्ति छपवायेगा तो उसे बहुत सारे लोग पढ़ेंगे, तो यह मेरी हिंदी का प्रचार-प्रसार ही हुआ, तो इसमें नुकसान कहाँ? लाभ ही लाभ है। पैसा तो केवल मुझ तक पहुँचता है, पर मेरे किये अनुवाद से हिंदी बहुत लोगों तक पहुँचती है। ऐसी थी अपनी हिंदी माँ के प्रति उनकी सोच…. जिसने मेरे अंदर भी हिंदी प्रेम इतना विकसित किया कि बी.ए. करते समय मैं संस्कृत में एम.ए. करना चाहती थी, पर बी.ए. करने के बाद मैंने एम.ए. हिंदी में प्रवेश लिया था।              मेरे पिता ने कभी भी उपहार में मुझे पैसे-कपड़े नहीं दिये। वे हमेशा यहीं कहा करते थे कि मेरी पुस्तकों का संग्रह ही तुम्हारे लिए मेरा उपहार है, जिसका उपयोग केवल तुम ही मेरे साथ भी और मेरे चले जाने के बाद भी, करोगी। आज वे ही मेरी अमूल्य निधि हैं।            ऐसे ही हिंदीमय वातावरण में पलते-बढ़ते-पढ़ते मेरी कल्पनाओं ने भी अपने पंख पसारने आरंभ कर दिये थे और मेरी कॉपी छोटी-छोटी कविता, कहानी और लेखों से भरने लगी थी।            अपने पापा से मिली हिंदी प्रेम और साहित्य की विरासत से मुझमें भी छोटे-छोटे विचारों को मूर्त करने के लिए निर्णय लेने -कहने की क्षमता आने लगी।            मैंने अरुणाचल प्रदेश के शिक्षा विभाग में हिंदी अध्यापिका ( टी.जी. टी.) के रूप में चौबीस वर्ष तक कार्य किया। वहाँ सिल्ले उच्च माध्यमिक विद्यालय में विद्यालय पत्रिका निकलती थी जिसमें अँग्रेजी और स्थानीय बोली की रोमन में लिखी रचनायें ही ली जाती थीं। मैंने उसमें हिंदी विभाग भी रखवाया और विद्यार्थियों को प्रोत्साहित करके छोटी छोटी कवितायें, कहानियाँ लिखवाई, उन्हें … Read more

हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी नहीं

                         हिंदी दिवस आने वाला है | अपनी अन्य  पूजाओं की तरह एक बार फिर हम हमारी प्यारी हिंदी को फूल मालाएं चढ़ा कर पूजेंगे और उसके बाद विसर्जित कर देंगे | आखिर क्यों हम साल भर इसके विकास का प्रयास नहीं करते | एक पड़ताल …. हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी नहीं  हिन्दी पखवारा चल रहा है । कुछ भाषण , कवि सम्मेलन , लेखकों और कवियों का सम्मान।अच्छी बात है । लेकिन हमें इससे कुछ अधिक करने की आवश्कता है । पौधों के बढ़ने और उन्हे स्वस्थ रखने के लिए पौधों की जड़ में पानी डालना पड़ता है , फल- फूलों में नहीं। वे तो जड़ों की मजबूती से स्वत: ही स्वस्थ होने लगते हैं।हमें जानना होगा कि हमारी भाषा की जड़ों में किस खाद – पानी की आवश्यकता है ? निश्चघय ही यह जड़ हमारे बच्चे हैं , जिन्हे सही अर्थ , सही उच्चारण सिखाना हमारी जिम्मेदारी है । केरल की एक अध्यापिका बच्चों को श्रुतिलेख बोल रही थीं ।उन्होंने ‘ बाघ ‘ शब्द बोला । बच्चे ने बाघ लिख दिया । काॅपी जाँचने पर उन्होने उस शब्द के नम्बर काट लिए । कारण पूछने पर उन्होने बताया कि ‘ बाग ‘ शब्द है ।जब कि उन्होंने बाघ ही बोला था । बच्चा रोकर रह गया । वह हिन्दी भाषी था। हमने उसे समझाया कि तुम्हारे लिखने में कोई गलती नहीं है । उनके उच्चारण का तरीका फर्क है । जैसे- जेसे बच्चे को मलयाली भाषा समझ में आने लगी , वह यह बात समझ गया । एक मराठी अध्यापिका ने बच्चे को संतान का अर्थ औलाद और बच्चा बताया । मैंने बच्चे से कहा कि औलाद तो सही है किन्तु संतान का अर्थ ‘ बच्चा ‘ गलत है । उसकी जगह संतति कहना सही होगा । आजकल की अंग्रेजी बोलने वाली माँएं बच्चों को सही शब्द सिखाना ही नहीं चाहतीं । उनको लगता है कि जो टीचर ने बताया है , अगर  बच्चे वह नहीं लिखेगें तो उनके नम्बर कट जाएगें ।  यह कैसी मानसिकता है ? कैसी स्पर्धा है ?  केवल ‘एक’ नम्बर के लिए  हम बच्चों को सही गलत का फर्क नहीं मालूम होने देना चाहते । एक मानसिकता यह भी है कि कुछ ही दिनों की तो बात है । आगे चलकर इसे इगंलिश ही बोलनी है । अंग्रेजी भाषा में ही कार्य करना है तो क्या फर्क पड़ता है ? किसी भाषा को सीखना गलत नहीं है किन्तु अपनी भाषा को भूल जाने की कीमत पर नहीं । यह कार्य तो हमे मिलजुल कर ही करना पड़ेगा , तभी कुछ बात बनेगी अन्यथा केवल झूठे आँकड़ों पर ही संतोष करना पड़ेगा । सच्चाई कभी सामने नहीं आ पाएगी और वास्तव मे हिन्दी को राष्ट्रभाषा तथा अंन्तर्राष्ट्रीय स्तर की भाषा बनाने की हकीकत स्वप्न बनकर रह जाएगी । उषा अवस्थी  हिंदी दिवस पर विशेष -क्या हम तैयार हैं हिंदी दिवस -भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं हिंदी जब अंग्रेज हुई गाँव के बरगद की हिंदी छोड़ आये हैं आपको लेख  ” हिंदी की कीमत पर अंग्रेजी नहीं  “कैसा लगा  अपनी राय से हमें अवगत कराइए | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन“की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under-Hindi, Hindi Divas, Hindi and English

हिंदी दिवस पर विशेष : भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं

                                                   आज विश्व हिंदी दिवस है|  हमेशा की तरह सभाएं होंगी, गोष्ठियां होंगी और हिंदी की दुर्दशा का वर्णन होगा| क्या ये सच है ? क्या हमारी हिंदी इतनी दयनीय अवस्था में है| शायद नहीं| यह उत्तर मुझे दिल्ली अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेले में जा कर मिला|  जी हाँ, इन दिनों दिल्ली में, अंतर्राष्ट्रीय पुस्तक मेला चल रहा है|  जहाँ जा कर हिंदी की किताबें बिकते देखना बड़ा ही सुखद अनुभव लगा| एक आम प्रचार के विपरीत आज हिंदी और हिंदी किताबों के प्रति लोगों की रूचि बढ़ी है| इसका श्रेय  निश्चित रूप से इंटरनेट  को जाता है|  जिसने हिंदी भाषा के प्रचार- प्रसार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है| लोगों का हिंदी के प्रति रुझान बढ़ा है| वो हिंदी पढना चाहते हैं … पर क्या उसी रूप में जिस रूप में अभी तक पढ़ते आये हैं? या हिंदी में जो देशी और विदेशी भाषा के शब्दों की मिलावट हुई है, उससे उसकी लोकप्रियता बढ़ी हैं| हिंदी का प्रचार हर्ष का विषय है पर प्रश्न ये भी है कि क्या इससे हिंदी को या हिंदी साहित्य को खतरा है?| देशी विदेशी शब्द अपना कर हिंदी का अस्तित्व विरत हुआ है  हिंदी में देशी, विदेशी शब्दों के मिलने से मुझे बचपन की एक बात याद आ गयी |                                          मैं एटलस में गंगा  की धारा कहाँ -कहाँ जाती है बड़े ध्यान से देख रही थी | गोमुख से निकलने के बाद शुरू शरू में कुछ पतली धाराएं गंगा में मिली उन पर तो मैंने ध्यान नहीं दिया पर जब प्रयाग में गंगा जमुना और सरवती के संगम के बाद भी उसे गंगा ही नाम दिया गया | तब मन में स्वाभाविक से प्रश्न उठे …..अब ये गंगा कहाँ रही … अब तो इसका नाम जंगा  या गंग्जमुना होना चाहिए | मैं अपना प्रश्न लेकर पिताजी के पास गयी | तब उन्होंने मुझे समझाया जो दूसरों को अपनाता चलता है उसका अस्तित्व कभी खत्म नहीं होता अपितु और विशाल विराट होता जाता है|  चाहे यह बात परिवार  की हो ,समाज की सम्प्रदाय  की या पूरी मानव प्रजाति की संकीर्ण दायरा विनाश का प्रतीक है और विविधता को अपनाना विकास का |  आज हिंदी दिवस पर यही बात मुझे रह -रह कर याद आ रही है | विश्व हिंदी सम्मेलन के बाद कुछ लोगों में रोष है पर भाषा को नए -नए शब्दों से लैस ,तकनीकी रूप से उन्नत बनाने का अभिप्राय साहित्य विरोध से कदापि नहीं है|                                      एक तरफ तो हम वसुधैव कुटुम्बकम की अवधारणा से भी आगे निकलकर अन्तरिक्ष के अन्य ग्रहों और उपग्रहों में मानव  बस्तियाँ बसाने के सपने देख रहे हैं दूसरी तरफ हम अपनी भाषा को तकनीकी रूप से समृद्ध करने की बात को संशय से देख रहे हैं | कभी हमने इस बात पर गौर किया है हिंदी का अस्तित्व इसी बात पर कायम है की बृज  भाषा ,अवधी ,आदि न जाने कितनी भाषाओँ को हिंदी ने अपने दायरे में समेटा हैं | मीरा के पद व् तुलसी की रामचरित मानस साहित्य की अप्रतिम धरोहर हैं, जो खड़ी  बोली वाली  हिंदी में नहीं लिखे गए हैं| उत्तर प्रदेश में तो हिंदी और उर्दू इतनी घुलमिल गयी है कि आम आदमी के लिए ये बता पाना कठिन है कि  की रोजमर्रा की जिंदगी में जिन शब्दों का इस्तेमाल करता है उसमें से अनगिनत उर्दू के हैं | ऐसे में जब हिंदी को विज्ञान सम्मत ,तकनीकी सम्मत बनाया जाएगा तो उसका विकास ही होगा ,विनाश नहीं | साहित्य में विभिन्न विचारों का समावेश जरूरी            रही बात साहित्य की तो उसे भी केवल एक चश्मे से देखने की आवश्यकता नहीं है | जितने भिन्न -भिन्न विचारों का समावेश होगा साहित्य उतना ही समृद्ध होगा | साहित्य कार की कोई डिग्री नहीं होती | मसि कागद छुओ नहीं वाले अनपढ़ कबीर दास भी साहित्यकार हैं |                                   आज़ाद भारत में साहित्य में मठाधीशी परंपरा को जन्म दिया |   दुर्भाग्य से आज़ाद भारत में साहित्य एक खास विचार धारा में कैद हो गया | जहाँ केवल छपने छपाने और सहमति का प्रसाद पाने के लिए एक ख़ास विचारधारा को आगे बढ़ाया जाने लगा | विरोधी विचारों को नकारा जाने लगा | साहित्य समाज का दर्पण है जिसमे  हर वर्ग,  हर विचारधारा का प्रतिनिधित्व होना चाहिये |   पर एक बड़े वर्ग का प्रतिनिधित्व न कर पाने के कारण साहित्य समाज से कटने लगा | जनता के ह्रदय को न छू पाने के कारण बड़ी -बड़ी नाम ,ईनामधारी  साहित्यिक पुस्तकें ,पुस्तकालयों की शोभा बन कर रह गयी | फिर हमी ने चिल्लाना शुरू किया की पाठक साहित्य से दूर हो  रहा है | समेलन ,सेमीनार भाषणबाजी कर के सारा दोष पाठक के सर मढ़ दिया |  आत्ममुग्धा की अवस्था में   यहाँ तक कहना शुरू कर दिया ” हम तो अच्छा लिखते हैं पर पाठक ही विवेक से फैसला न लेकर चलताऊ सामग्री  पढता है | जब की अंग्रेजी साहित्य धड़ल्ले से पढ़ा जा रहा था |  वहाँ नए -नए प्रयोग हो रहे हैं | हम मुँह में अँगुली  दबा कर आश्चर्य से देखते हैं ………. फिर वही अँगुली मुँह से निकाल कर पाठक पर उठा देते हैं,  ” पाठक हिंदी नहीं पढना चाहता “| बेचारी हिंदी जिसे हम घरों में ( चाहे किसी भी रूप में ) बोलते पढ़ते लिखते हैं बिला वजह सूली पर चढ़ा दी जाती है | हिंदी में नए विचारों का स्वागत हो                                       चेतन भगत कहते हैं ” या तो आप लोकप्रिय हो सकते हैं या साहित्यकार |वास्तव में यह दर्द हर उस व्यक्ति का है जो कुछ नया देना चाहता  है|  बहुत समय पहले जब हिंदी साहित्य में स्त्री … Read more

क्या हम तैयार है?

डॉ. भारती वर्मा बौड़ाई ———————       हिंदी की दशा कैसी है, किस दिशा में जा रही है, क्या हो रहा है, क्या नही हो रहा है, सरकार क्या कर रही है..आदि-आदि पर हिंदी दिवस आने से कुछ पहले और कुछ बाद तक चर्चा चलती रहती है। इस रोदन, गायन-चर्चा से अच्छा क्या यह नहीं होगा कि हिंदी के लिए कुछ सार्थक  करने का जरिया हम स्वयं ही बनें।         पढ़ना-पढ़ाना एक ऐसी प्रक्रिया है जिससे हम सभी दो-चार होते हैं। कोई विद्यालय-महाविद्यालय में पढ़ाता है, तो कोई घर पर बच्चों को ट्यूशन देते हैं, कोचिंग का व्यापार भी खूब फलफूल रहा है, अपने बच्चों को भी सभी माता-पिता पढ़ाते ही हैं, तो इस प्रक्रिया में हम हिंदी के लिए कुछ करने के लिए सोचें? सचमुच हिंदी से प्रेम करते हैं, तो कुछ छोटे-छोटे सार्थक कदम उठाने पर अवश्य चिंतन किया जा सकता है। पढ़िए – हिंदी जब अंग्रेज हुई          आइए , विचार करते हैं कि हम क्या और कैसे इसकी शुरुआत कर सकते हैं?  प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालयों में तो पढ़ाई के अतिरिक्त अन्य इतर गतिविधियों के रूप में सामान्य ज्ञान, वाद-विवाद, निबंध, कहानी लेखन प्रतियोगिताएँ, कविता पाठ, श्लोक ज्ञान प्रतियोगिताएँ होती ही हैं, उच्च माध्यमिक विद्यालयों, महाविद्यालयों में विद्यालय-महाविद्यालय पत्रिकाएँ भी निकाली जाती हैं। यदि हम सभी अपने घर के आसपास, मोहल्ले के पढ़ने वाले छोटे बच्चों को  साथ लेकर किसी पर्व-त्योहार, दिवस विशेष पर मोहल्ले-पड़ोस वालों के साथ मिल कर समय-समय पर कुछ आयोजन करें जिसमें सामान्य ज्ञान, किसी विषय वाद-विवाद प्रतियोगिता हो, सुलेख प्रतियोगिता हो, विषय देकर आधा, एक-डेढ़ मिनट बोलने का अवसर ढें, छोटे-छोटे नाटक हों, कृष्णजन्माष्टमी, दशहरे-दीवाली पर रामलीला, कृष्णलीला जैसे छोटे -छोटे सांस्कृतिक कार्यक्रम भी हों, कविताएँ, दोहे-चौपाईंयाँ याद करवाकर प्रतियोगिताएँ हों भाषा को समृद्ध करने का उपाय साहित्य विरोध से नहीं .ये छोटे-छोटे ऐसे सार्थक कार्यक्रम हैं जो हम अपने घर के आसपास, मोहल्लेवालों, मोहल्ला समिति के सहयोग से सहज ही आयोजित कर सकते हैं और अपने बच्चों में हिंदी के प्रति प्रेम और सृजन के बीज बोकर उनकी इस क्षमट्स को विकसित करने में सहज ही योगदान दे सकते हैं। पुरस्कार स्वरूप छोटी-छोटी पुस्तकें भी बच्चों के उपयोग में आने वाली चीजों के साथ सहज में दे सकते हैं          इन छोटे और सार्थक उठाए गए कदमों के दूरगामी, पर स्थायी परिणाम अवश्य आ सकते हैं। यही हमारी हिंदी चाहती भी है कि बोलने में समय व्यर्थ न करते हुए, कुछ सार्थक करके हम सब किसी न किसी रूप में हिंदी को आगे बढ़ाने का जरिया बनें।         बताइये…..क्या तैयार हैं? —————————————– यह भी पढ़ें ………. समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उदेश्य गाँव के बरगद की हिंदी छोड़ आये हैं Attachments area

गाँव के बरगद की हिन्दी छोड़ आये

रंगनाथ द्विवेदी। शर्मिंदा हूं—————- सुनूंगा घंटो कल किसी गोष्ठी में, उनसे मै हिन्दी की पीड़ा, जो खुद अपने गाँव मे, शहर की अय्याशी के लिये——– अपने पनघट की हिन्दी छोड़ आये। गंभीर साँसे भर, नकली किरदार से अपने, भर भराई आवाज से अपने, गाँव की एक-एक रेखा खिचेंगे, जो खुद अपने बुढ़े बाप के दो जोड़ी बैल, और चलती हुई पुरवट की हिन्दी छोड़ आये। फिर गोष्ठी खत्म होगी, किसी एक बड़े वक्ता की पीठ थपथपा, एक-एक कर इस सभागार से निकल जायेंगे, हिन्दी के ये मूर्धन्य चिंतक, फिर अगले वर्ष हिन्दी दिवस मनायेंगे, ये हिन्दी के मुज़ाहिर है एै,रंग——— जो शौक से गाँव के बरगद की हिन्दी छोड़ आये। @@@आप सभी को हिन्दी दिवस की ढ़ेर सारी बधाई। रंगनाथ द्विवेदी का रचना संसार अलविदा प्रद्युम्न – शिक्षा के फैंसी रेस्टोरेंट के तिलिस्म में फंसे अनगिनत अभिवावक जिनपिंग – हम ढाई मोर्चे पर तैयार हैं आइये हम लंठों को पास करते हैं

हिंदी दिवस पर विशेष – हिंदी जब अंग्रेज हुई

वंदना बाजपेयी सबसे पहले तो आप सभी को आज हिंदी दिवस की बधाई |पर जैसा की हमारे यहाँ किसी के जन्म पर और जन्म दिवस पर बधाई गाने का रिवाज़ है | तो मैं भी अपने लेख की शुरुआत एक बधाई गीत से करती हूँ ………. १ .. पहली बधाई हिंदी के उत्थान के लिए काम करने वाले उन लोगों को जिनके बच्चे अंग्रेजी मीडियम के स्कूलों में पढ़ते हैं | २ …दूसरी बधाई उन प्रकाशकों को जो हिंदी के नाम पर बड़ा सरकारी अनुदान प्राप्त कर के बैकों व् सरकारी लाइब्रेरियों की शोभा बढाते हैं | जिन्हें शायद कोई नहीं पढता | ३… तीसरी और विशेष बधाई उन तमाम हिंदी की पत्र – पत्रिकाओ व् वेबसाइट मालिकों को जो हिंदी न तो ठीक से पढ़ सकते हैं , न बोल सकते हैं न लिख सकते हैं फिर भी हिंदी के उत्थान के नाम पर हिंदी की पत्रिका या वेबसाइट के व्यवसाय में उतर पड़े | आप लोगों को अवश्य लग रहा होगा की मैं बधाई के नाम पर कटाक्ष कर रही हूँ | पर वास्तव में मैं केवल एक मुखौटा उतारने का प्रयास कर रही हूँ | एक मुखौटा जो हम भारतीय आदर्श के नाम पर पहने रहते हैं | पर खोखले आदर्शों से रोटी नहीं चलती |जैसे बिना पेट्रोल के गाडी नहीं चलती उसी तरह से बिना धन के कोई उपक्रम नहीं चल सकता |न ही कोई असाध्य श्रम व्र मेहनत से कमाया हुआ धन hindi के प्रचार – प्रसार में लगा कर खुद सड़क पर कटोरा ले कर भीख मांगने की नौबत पर पहुंचना चाहेगा | तमाम मरती हुई पत्र – पत्रिकाएँ इसकी गवाह हैं | जिन्होंने बड़ी ही सद्भावना से पत्रिका की नीव रखी पर वो उसे खींच नहीं पाए |क्योंकि धन देने के नाम पर कोई सहयोग के लिए आगे नहीं बढ़ा |  रही बात सरकारी अनुदान की तो ज्यादातर अनुदान प्राप्त पत्रिकाओ या पुस्तकों के प्रकाशक प्रचार – प्रसार के लिए बहुत मेहनत नहीं करते | वो केवल ये देखते हैं की उनका घाटा पूरा हो गया है | इसलिए ज्यादातर अनुदान प्राप्त किताबें सरकारी लाइब्रेरियों के शो केस की शोभा बढाती हुई ही रह जाती हैं |कुल मिला कर स्तिथि बहुत अच्छी नहीं रही | पर अब समय बदल रहा है …… कुछ लोग हिंदी को एक ” ब्लूमिग सेक्टर ” के तौर पर देख रहे हैं | वो इससे लाभ की आशा कर रहे हैं | अगर ये व्यवसायीकरण भी कहे और हिंदी लोगों को रोटी दिलाने में सक्षम हो रही है तो कुछ भी गलत नहीं है | क्योंकि भाषा हमारी संस्कृति है , हमारी सांस भले ही हो पर पर उसको जिन्दा रखने के लिए ये जरूरी है की उससे लोगों को रोटी मिले | उदाहरण के तौर पर मैं हिंदी सिनेमा को लेना चाहती हूँ | जिसका उद्देश्य शुद्ध व्यावसायिक ही क्यों न हो ….. पर जब एक रूसी मेरा  जूता है जापानी गाता है … तो स्वत : ही hindi के शब्द उसकी जुबान पर चढ़ते हैं और भारत व् भारतीय संस्कृति को जानने समझने की इच्छा पैदा होती है | कितने लोग हिंदी फिल्मों के कारण हिंदी सीखते हैं | कहने की जरूरत नहीं जो काम साहित्यकार नहीं कर पाए वो हिंदी फिल्में कर रही हैं |  किसी संस्कृति को जिन्दा रखने के लिए भाषा का जिन्दा रहना बहुत जरूरी हैं | पर क्या उसी रूप में जैसा की हम हिंदी को समझते हैं | यह सच है की साहित्यिक भाषा आम बोलचाल की भाषा नहीं है | और आम पाठक उसी साहित्य को पढना पसंद करता है जो आम बोलचाल की भाषा में हो | साहित्यिक भाषा पुरूस्कार भले ही दिला दे पर बेस्ट सेलर नहीं बन सकती | कुल मिला कर लेखक का वही दुखड़ा ” कोई हिंदी नहीं पढता ” रह जाता है | देखा जाए तो आम बोलचाल की हिंदी भी एक नहीं है | भारत में एक प्रचलित कहावत है “ चार कोस में पानी बदले सौ कोस पे बानी ” |  इसलिए हिंदी को बचाए रखने के लिए प्रयोग होने बहुत जरूरी हैं | आज हिंदी आगे बढ़ रही है उसका एक मात्र कारण है की प्रयोग हो रहे हैं | हिंदी में केवल साहित्यिक हिंदी पढने वाले ही नहीं डॉक्टर , इंजिनीयर , विज्ञान अध्यापक और अन्य व्यवसायों से जुड़े लोग लिख रहे हैं | उनका अनुभव विविधता भरा है इसलिए वो लेखन में और हिंदी में नए प्राण फूंक रहे हैं | पाठक नए विचारों की ओर आकर्षित हो रहे हैं | और क्योंकि लेखक विविध विषयों में शिक्षा प्राप्त हैं | इसलिए उन्होंने भावनाओं को अभिव्यक्त करने में भाषा के मामले में थोड़ी स्वतंत्रता ले ली है | हर्ष का विषय है की ये प्रयोग बहुत सफल रहा है | पढ़ें –व्यर्थ में न बनाएं साहित्य को अखाड़ा  आज हिंदी में तमाम प्रान्तों के देशज शब्द ख़ूबसूरती से गूँथ गए हैं | और खास कर के अंग्रेजी के शब्द हिंदी के सहज प्रवाह में वैसे ही बहने लगे हैं जैसे विभिन्न नदियों को समेट कर गंगा बहती है |यह शुभ संकेत है | अगर हम किसी का विकास चाहते हैं तो उसमें विभिन्नता को समाहित करने की क्षमता होनी कहिये , चाहे वो देश हो , धर्म हो, या भाषा | कोई भी भाषा जैसे जैसे विकसित व् स्वीकार्य होती जायेगी उसमें रोजगार देने की क्षमता बढती जायगी और वो समृद्ध होती जायेगी |आज क्षितिज पर हिंदी के इस नए युग की पहली किरण देखते हुए मुझे विश्वास हो गया है की एक दिन हिंदी का सूर्य पूरे आकश को अपने स्वर्णिम प्रकाश से सराबोर कर देगा | आप सब हो हिंदी दिवस की हार्दिक शुभकामनाएं यह भी पढ़ें … भाषा को समृद्ध करने का अभिप्राय साहित्य विरोध से नहीं समाज के हित की भावना ही हो लेखन का उद्देश्य मोह – साहित्यिक उदाहरणों सहित गहन मीमांसा कवि एवं कविता कर्म