अच्छा सोंचो … अच्छा ही होगा

वो देखो प्राची पर फ़ैल रहा है उजास दूर क्षितज से  चल् पड़ा है नव जीवन रथ एक टुकड़ा धूप पसर गयी है मेरे आँगन में जल्दी –जल्दी चुनती हूँ आशा की कुछ किरण  हंसती हूँ ठठाकर क्योंकि अब मेरी मुट्ठी में बंद है मेरी शक्ति  हर नयी चीज का आगमन मन को प्रसन्नता  से … Read more

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फेसबुक और महिला लेखन

कितनी कवितायें  भाप बन  कर उड़ गयी थी  उबलती चाय के साथ  कितनी मिल गयी आपस में  मसालदान में  नमक मिर्च के साथ  कितनी फटकार कर सुखा दी गयी  गीले कपड़ों के साथ धूप में  तुम पढ़ते हो   सिर्फ शब्दों की भाषा  पर मैं रच रही थी कवितायें  सब्जी छुकते हुए  पालना झुलाते हुए  नींद … Read more

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मदर्स डे पर विशेष- प्रिय बेटे सौरभ

एक माँ का पत्र बेटे के नाम               प्रिय बेटे सौरभ ,                              आज तुम पूरे एक साल के हो गए | मन भावुक है याद आता है आज ही का दिन जब ईश्वर ने तुम्हे मेरी गोद में डाला था तब मैं तो जैसे पूर्ण हो गयी थी | जिसे पूरे नौ महीने अपने … Read more

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“माँ“ … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए

माँ केवल एक भावनात्मक संबोधन ही नहीं है , ना सिर्फ बिना शर्त प्रेम करने की मशीन ….माँ के प्रति कुछ कर्तव्य भी है …. “माँ” … कहीं बस संबोधन बन कर ही न रह जाए डुग – डुग , डुग , डुग … मेहरबान कद्रदान, आइये ,आइयेमदारी का खेल शुरू होता है | तो … Read more

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -६ सम्पादकीय :समग्र जीवन की सफलता

समग्र जीवन की  सफलता जब जानी थी सुख –दुःख की परिभाषा तब बड़ी ही सावधानी से खींच दिया था एक वृत्त सुख के चारों ओर की कहीं मिल न जाए सुख के चटख रंगों में दुःख के स्याह रंग और मैं एक सजग प्रहरी की भांति अनवरत रही युद्ध रत अंधेरों के खिलाफ पर जीवन … Read more

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -५ सम्पादकीय : किसी का जाना …कभी जाना नहीं होता

किसी का जाना ….कभी जाना नहीं होता लाल –पीले हरे नीले रंगों से इतर कुछ अलग ही होते हैं रिश्तों के रंग जहाँ चलतें हैं सापेक्षता के सिद्धांत की पल पल बनते बिगड़ते त्रिकोंड़ो में साथ –साथ आगे बढ़ी हुई रेखायें नहीं ले पाती हैं कोई आकर की दृश्य –अदृश्य रूप में मौजूद रहता है … Read more

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -४ सम्पादकीय -नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय

        नगर ढिंढोरा पीटती प्रीत न करियो कोय …………. शायद ,बहुत पीड़ा से गुज़रता होगा प्रेम जब –जब हम सिद्ध करते होंगे उसकी उपस्तिथि किसी पिज़्ज़ा हट में किसी महंगे टेडी बीयर में या किसी दिल के आकार के खिलौने में लेने और देने में तब –तब शायद , बहुत याद करता … Read more

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -३ सम्पादकीय

वंदना बाजपेयी

कुछ खो कर पाना है …….. चलों कि जाने कि बेला आई है तैयार हैं पालकी , सिंदूर मांग टीका , बड़ी लाल टिकुली कहीं कमी न रह जाए दुल्हन के श्रृंगार में फिर एक बार गले लग के जी भर के रो लें समेट लें यादों कि पोटली को और कर दें विदा समय … Read more

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अटूट बंधन वर्ष -२ अंक -२ सम्पादकीय

वंदना बाजपेयी

                  जीतनें के लिए चाहिए जोश और जूनून   दिसंबर का महीना , साल का  आखिरी महीना | समय के वृक्ष पर २०१५ कि पीली  पत्तियाँ झड़ने को और २०१६ कि नन्हीं हरी कोंपलें उगने को तैयार हैं | आगत के स्वागत के उत्साह  में दबे पांव … Read more

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अटूट बंधन वर्ष -२ , अंक -१ सम्पादकीय

तेरा शुक्रिया है …  “ अटूट बंधन “ राष्ट्रीय हिंदी मासिक पत्रिका अपने एक वर्ष का उत्साह  व् उपलब्धियों से भरा    सफ़र पूरा कर के दूसरे वर्ष में प्रवेश कर रही है | पहला वर्ष चुनौतियों और उसका सामना करके लोकप्रियता का परचम लहराने की अनेकानेक खट्टी –मीठी  यादों के साथ स्मृति पटल पटल पर … Read more

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