वादा

पिछले काफी दिनों से नीला तनाव में है | हर पल उसे एक डर भीतर ही भीतर खाए जा रहा है | क्या होगा ? आख़िर क्या होगा ? सवालों से घिरी नीला बिस्तर पर लेट जाती है | तनाव और थकान के कारण नींद उसे अपने आगोश में ले लेती है | सपनों के बादल मंडराने लगते हैं | चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा | नीला को इस अंधरे में कुछ नहीं दिखाई दे रहा है | वह बहुत घबरा रही है, मदद को पुकार रही है | पर कहीं कोई नहीं | चारों तरफ एक डरावनी ख़ामोशी पसरी है | बदहवास सी नीला इधर उधर भाग रही है , तभी दूर अँधेरे में उसे एक धुंधली सी रोशनी दिखाई देती है | वह उस ओर बढ़ती है|  अहसास हर कदम पर रोशनी गहरी हो रही हैं |करीब आने पर रोशनी एक झोंपड़ी के भीतर जलती दिखाई देती है | नीला तेज क़दमों से झोंपड़ी के पास पंहुच जाती है, पर दरवाजे के पास आकर रुक जाती है | उसकी सांसे तेजी से चल रही हैं | बहुत कोशिशों के बाद भी कदम आगे नहीं बढ़ रहे हैं | तभी झोंपड़ी के भीतर से एक आवाज आती है, घबराओ नहीं अन्दर आओ | नीला झोंपड़ी के अन्दर प्रवेश करती है | उसने देखा एक बच्ची उसकी ओर पीठ किए बैठी है | मुझे पता था माँ, तुम मुझे लेने जरुर आओगी | चाहे तुम कितने भी जुल्म सहो, पर तुम ही हो, जो मेरे बगैर नहीं रह सकती | आख़िर तुम मुझसे प्यार जो करती हो | थोड़ी खामोशी के बाद…| माँ क्यों खुद को परेशानी में डालती हो, मेरा मोह, तेरा जीवन बर्बाद कर देगा | कोई भी नहीं खड़ा होगा तेरे साथ | कब तक सहन करेगी | सारी ज़िन्दगी रोती रहेगी | तुझे जीना है, तो मेरा मोह छोड़ दे | यही तेरी और मेरी नियति है | यह कहकर वह बच्ची नीला की तरफ मुख कर, नीला की आँखों में ऑंखें डालकर एक मुस्कान फैंक देती है | नया नियम अचानक बच्ची के चारों ओर तेज धुँधर(मिट्टी का गुबार) सा उठता है | वह बच्ची उसी धूल के गुबार में डूबने लगती है | नीला अपना कदम बढ़ाने की कोशिश करती है, पर उसके कदम उठ नहीं रहे हैं | वह चिल्लाती है रुको ! अपना हाथ मेरी तरफ बढ़ाओ, बेटी | रोशनी लुप्त हो जाती है | एक बार फिर चारों तरफ अँधेरा ही अँधेरा | नीला जोर से चिल्लाती है इस बार उसकी नींद टूट जाती है | चेहरा पसीने से भरा है, सांसे तेज चल रही है, सारा शरीर जकड़ सा गया है | बड़ी हिम्मत कर, कमरे की लाइट जलाती है | विजय चैन की नींद सो रहा है | नीला चेहरे का पसीना पौंछ, टेबल पर रखे पानी की घूंट अपने भीतर भरती है | अपने आप से बात करते हुए कहती है | अब मुझे कोई नहीं रोक सकता | अब तक मेरे जहन में तुझे जन्म दूं या ना दूं यही सब चलता रहा है | पर अब तू ना डर बेटी, चाहे जो भी हो | मैं तुझे इस दुनियां में जरुर लाऊँगी | यह मेरा वादा है, बेटी || अर्जुन सिंह  यह भी पढ़ें … अच्छा नहीं लगता बोझ  आखिरी मुलाकात जिंदगी ढोवत हैं बदचलन आपको    “वादा“ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें | filed under- free read, short stories, promise, save girl child, girl child

अपराध बोध

 सर्दी हो या गर्मी, वह अपने नियमों की पक्की, सुबह जल्दी उठकर मंदिर जाना। उसके बाद ही चाय, पानी व अन्य काम करना। आज भी वह मंदिर से लौट चुकी थी। उसकी बहु अभी तक सो रही थी। बहु के नहीं उठने पर तमतमाई जोर की आवाज से सारे घर की चुपी को तोड़ दी, सारा दिन सोती ही रहेगी क्या ? जल्दी उठ ! सूरज सिर पर खड़ा है, ये बेषर्मों सी सो रही है। सुनील की पत्नी जल्दी से कपड़े संभालते हुए उठी, दुपट्टा  सिर पर लेकर सबसे पहले सास के चरण छुए। खुश रहो ! दूधो नहाओ पुतो फलो! आजकल की बहुरियों का तो दिमाग ही खराब हो गया है। शर्म  लिहाज कुछ रही ही नहीं। अपनी सास के सामने भी पैर पसारे सोती रहती हैं। हम तो हमारी सास से पहले उठ जाती थी। सुबह जल्दी से नहाकर, चाय के साथ ही सास के पांव छूती । आज कल तो न दिन का पता न रात का। जब देखो खसमों के साथ कमरे में घुसी रहती हैं। सुनील की पत्नी एक शब्द  भी नहीं बोली! तब तक चाय बनकर तैयार हो गई। इस दौरान सुनील भी घर आ चुका था। लो माॅं जी ! रख दे ! सुना तूने शर्मा  जी के लड़के की बहु के लड़का हुआ है, तुम्हारे साथ ही उनके लड़के की शादी  हुई थी। दो बार बच्चा गिराने के बाद। अब लड़का हुआ है। मुझे भी पोता चाहिए। बहुरी सुन रही है ना, मुझे भी पहला पोता ही चाहिए। हमारे पास इतने पैसे नहीं की हम भी वो क्या कहते हैं? सुनाग्राफी करवा लें। मेरा बेटा इतनी मेहनत कर हमारा खर्च चलाता है, कहीं लड़की हो गई तो कैसे संभालेगा, |   सर्द हवाओं की सायं सायं ने जल्द ही सड़कों पर सन्नाटा फैला दिया। आज सुनील का मन आॅटो लेकर जाने का नहीं था। उसे मालूम था कि ऐसे मौसम में सवारी मिलना मुश्किल  है, पर जाना तो पड़ेगा। घर का खर्च का अंतिम विकल्प यही आॅटो है। रोजाना की भांति उसने अपनी गाड़ी कस्बे के रेलवे स्टेशन  के बाहर नियत स्थान पर खड़ी कर दी। आज रात्रि 9 बजे यात्री ट्रेन समय पर थी। एक सवारी को वह छोड़कर वह आ चुका था। रात्रि 11.30 बजे की ट्र ेन का इंतजार कर रहा था। ट्रेन कोहरे के कारण लेट थी। वास्तविक समय का पता नहीं था। ठंड का कहर भी बढ़ता जा रहा था। उसने स्वयं को आॅटो में कैद कर सोने का विचार बनाया। फैसला आॅटो में बैठ उसने एक नजर आस पास दौड़ाई कहीं कोई नहीं। सारे दिन भार ढ़ोती सड़के अब शांत  होकर सो रही थी। आॅटो के पीछे दीवार के पास एक कुतिया अपने बच्चों के साथ सिमटे लेट रही थी। तभी उसकी नजर दूर से आती रोशनी पर गिरी। दूर से चमचाती रोशनी बड़ी तेजी से उसकी दिशा  में बढ़े जा रही थी। जरूर कोई गाड़ी तेजी में होगी। अचानक वह गाड़ी अस्पताल के पीछे से गुजरते गंदे बड़े बरसाती नाले के पास रूक गई। गाड़ी की हैड लाईटें बंद हो गई। रोड़ लाईट की धुंधली रोशनी में सड़क के किनारे खड़ी गाड़ी में कोई हलचल नहीं हो रही थी। अभी तक दरवाजा नहीं खुला था। थोड़े विराम के बाद दायीं ओर से दरवाजा खुला, एक लम्बा तगड़ा उतरा। चारों तरफ नजरें दौड़ाकर, गाड़ी के अंदर कुछ इशारा करते हुए गाड़ी की खिड़की में मुॅंह डाला। बायीं ओर का दरवाजा खुला। एक महिला अपने दोनों हाथों को सीने से लगाए, जिनके बीच में कपड़ा लिपटा था, गाड़ी से उतरी। महिला ने चारों तरफ नजरें दौड़ाई, एक खामोशी  के बाद बड़ी तेजी से नाले की ओर बढ़ी। नाले के पास जाकर एक बार फिर रूक कर चारों ओर नजरें दौड़ाई। इस बार उसने कपड़े को सीने से हटाकर नाले में फैंक दिया। बड़ी तेजी से इधर-उधर ताकती गाड़ी की ओर लपकी। महिला पुरूश दोनों बिजली सी तेजी के साथ गाड़ी में बैठ गए। गाड़ी चालू हुई और बड़ी तेजी से यू टर्न मारते हुए उसी दिशा में ओझल हो गई जिस दिशा  से आई थी। एक बार फिर सन्नाटा कहीं कोई भी नहीं दिख रहा था। सिवाय रात के अंधेरें में चमकते तारों के, जमीन पर लेटी सड़क के, भौंकते आवारा कुत्तों के, सड़क के किनारों पर जलती लाईटों के, बहतीहवाओं के, बहुत कुछ था पर कुछ भी नहीं था।  सुनील के दिल में कई सवाल तो उठे पर ठंड के बहाव में सभी के सभी दिमाग के एक कोने में जम कर रह गए। सिर खुजाते हुए सुनील अपने आप में बड़बड़ाते हुए, आॅटो के पीछे की सीट पर कम्बल के बीच दुबक कर लेट गया। चाय वाले की आवाज से उसकी आंख खुली। वह जल्दी से उठा ओर कम्बल लपेटे हुए स्टेषन की ओर बढ़ा। अभी सवारी गाड़ी के आने में समय था। महाराज – एक गर्मागर्म चाय देना। चाय की एक-एक घूंट उसके शरीर को उर्जा दे रही थी। तभी स्टेशन पर घोशण हुई, यात्री कृप्या ध्यान दे, यात्री गाड़ी प्लेट फार्म न. एक पर अगले दो मिनट में पंहुचने वाली है। टिफिन सुनील जल्दी से चाय खत्म कर ठीक रोज के निष्चित स्थान पर जाकर खड़ा हो गया। दो मिनट बाद गाड़ी स्टेश न पर पंहुच गई। सुनील को भी एक यात्री मिल गया। सुनील ने उन्हें टैक्सी में बिठा, मंजिल की ओर बढ़ा। गाड़ी अभी थोड़ी दूर बढ़ी ही थी कि सुनील ने देखा कि बहुत सारी भीड़ नाले के पास खड़ी है। सुनील ने सवारी से अनुरोध कर गाड़ी को रोका। जल्दी से भीड़ को चीरता हुआ आगे बढ़ा और देखा एक कपड़े के ऊपर शिशु  बालिका का शव पड़ा है, जिसकी नाल भी अभी पूरी तरह कटी नहीं, खून से सनी है।  यह सब देखकर उसकी आंख के आगे रात का सारा घटनाक्रम दौड़ने लगा। उसके हाथ पैर फुलने लगे, सिर चकाराने लगा। जिस तेजी से वह भीड़ को चीरता हुआ आया था, अब उसी भीड़ से बाहर निकलना मुष्किल हो रहा था। भीड़ के बीच से पीसता हुआ गाड़ी तक पंहुचा। उसका चेहरा सफेद पड़ चुका था। गाड़ी को स्टार्ट कर सवारी से बिना बोले मंजिल की ओर बढ़ा। इस दौरान उसके दिमाग में वही घटनाक्रम घूम … Read more

झूठ की समझ

“आज अचानक तुझे क्या सूझ गया जो इन पुरानी किताबों को खंगाल रही हो | कुछ नहीं है इनमें  सब रद्दी है हर बार दीवाली पर सोचती हूँ कि बेच दूंगी | लेकिन कभी हाथ नहीं बढ़ता इनकी ओर जब भी इन की ओर बढ़ती हूँ तेरे पिता का चेहरा सामने आ जाता है | उन्हें बहुत प्यार था इन किताबों से | पर तूं तो बता क्या ढूढ़ रही है ?” “माँ मैं अपनी पुरानी डायरियां देख रही हूँ |” “माँ : क्यों ?” “उसमें मेरी कविताएँ और कहानियां लिखी हैं |” “तो तुम अब उसका क्या कर रही है ?” “माँ अजय को दिखानी है |” “माँ : क्यों ?” “वो कविता और कहानियां लिखते हैं | जब मैंने उनसे कहा कि मैं भी पहले लिखती थी | तो हँसने लगे | मेरा रोज मजाक बनाते हैं| इस बार मैंने तय कर लिया है | मैं उन्हें अपनी डायरियां दिखाकर ही रहूंगी |” “माँ ,लगी रह कुछ मिल जाये तो, मैं तो जा रही हूँ | मेरा तो इस धुल से दम घुटता है |” कुछ देर बाद रीना को उसकी एक पुरानी डायरी मोटी – मोटी किताबों के बीच दुबकी मिल जाती है | अरे वाह ! आखिर मिल ही गयी | डायरी निकालते वक्त उसके साथ रखी किताब निचे गिर जाती है | रीना जब उसे उठाती है | तो उसमे से एक पत्र नीचे गिरता है | रीना उसे उठाती है | अरे ये तो मेरा ही लिखा है | रीना उसे पढ़ने लगती है | पत्र को पढ़ते-पढ़ते उसकी आँखें भर आती है | यह पत्र उसने 13 साल की उम्र में माँ के कहने पर लिखा था | माँ को पढ़ना – लिखना नहीं आता है | उस रोज खाना बनाते हुए माँ रो रही थी | माँ पिता जी के रोज के झगड़ों से परेशान थी | पर अपने भाई और पिता को हर बार खुश होने का पैगाम भिजवाती थी |  रीना ने उस समय माँ को कहा था कि माँ तुम हर बार झूठ क्यों लिखवाती हो ? पिता जी तुम्हारे साथ रोज झगड़ा करते हैं फिर भी तुम मामा और नाना को खुश हूँ लिखवा कर पत्र भिजवाती हो | उस समय रीना माँ से नाराज हो गयी थी | माँ का झूठ उसे समझ नहीं आ रहा था | तभी माँ की आवाज आती है | रीना आंसू पोंछ लेती है और माँ की ओर बढती है |  आज उसे माँ का वह झूठ समझ आ रहा था |  – अर्जुन सिंह यह भी पढ़ें … परिस्थिति सम्मान राम रहीम भीम और अखबार अनफ्रेंड आपको  लघु कथा “झूठ की समझ “ कैसी लगी   | अपनी राय अवश्य व्यक्त करें | हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | अगर आपको “अटूट बंधन “ की रचनाएँ पसंद आती हैं तो कृपया हमारा  फ्री इ मेल लैटर सबस्क्राइब कराये ताकि हम “अटूट बंधन”की लेटेस्ट  पोस्ट सीधे आपके इ मेल पर भेज सकें