साडे नाल रहोगे ते योगा करोगे
यूँ तो योग तन , मन और आत्मा सबके लिए बहुत लाभदायक है इसलिए ही इसे पूरे विश्व ने न केवल अपनाया है बल्कि इसे बढ़ावा देने के लिए 21 जून को अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस भी घोषित कर दिया | लेकिन जरा सोचिये इसे योग में अगर हास्य योग भी जुड़ जाए तो …. फिर तो मन भी चंगा हो जाएगा | व्यंग -साडे नाल रहोगे ते योगा करोगे अपने दुनीचंद जी लोक-संपर्क विभाग में काम करतें हैं। ‘पब्लिसिटी’ में विश्वास रखते हैं। वे सरकारी मशीनरी का एक पुर्जा जो हैं। जब तक उनका एक आध फोटू या लेख कुछेक समाचार पत्रों में ना लग जाये तब तक उनके “आत्माराम” को संतुष्टि नहीं होती। कोई सरकारी मौका या दिवस हो या न हो, कम से कम ‘फोटू’ के साथ अख़बारों में उनके नाम से कुछ जरूर लिखा होना चाहिये। अपने दुनीचंद जी उस बहू की तरह हैं जो रोटी तो कम बेलती है लेकिन अपनी चूड़ियाँ खूब खनकाती है ताकि पतिदेव और सासू मां को पता लगता रहे कि बहू किचन में है तो घर का काम-काज ही कर रही होगी। दुनीचंद जी इतने सनकी हैं कि अगर इनको अपने बारे में जनता को कुछ बताने का मौका न मिले तो इनको बदहजमी और पेट में गैस की शिकायत हो जाती है। इस समस्या से निवारण के लिये वे जंगलों की तरफ निकल पड़ते हैं फिर वहां चाहे बकरियां मिले या भेड़ें, उनके साथ अपना ‘फोटू’ खिचवाते हैं। है क्या, गडरिये का डंडा खुद पकड़ लेते हैं और उसे अपना कैमरा पकडवा देते हैं। जूनून की भी हद होती है, उस दिन अपने मित्र के साथ एक सरकारी दौरे पर कहीं जा रहे थे. रास्ते में सड़क के किनारे जनाब को कंटीली, लाल फूलों वाली झाड़ियाँ दिखी। ड्राईवर को आदेश देकर जनाब दुनीचंद जी ने गाड़ी रुकवा दी, इनका तर्क था -“मैंने आज तक इतने सुंदर फूल काँटों वाली झाड़ियों पर लगे पहले कभी नहीं देखे, यह मौका हाथ से निकल गया तो फिर यह मौका अगले साल अगले मौसम में ही मिलेगा। जनाब ने दो फोटू लिये- एक अपना और एक अपने ड्राईवर का। अपने ड्राईवर का ‘फोटू’ क्यूं लिया, भला? बदला लेने के लिये क्योंकि ड्राईवर ने दुनीचंद जी का पहले फोटू ‘खेंचा’ था चाहे इसका आग्रह खुद दुनीचंद जी ने किया था। अख़बार में इनकी तस्वीर या लेख लगे न लगे, इससे क्या फर्क पड़ता है? खुद ही अपने ‘फेसबुक’ पेज पर लगा लेते हैं. बस, फोटू होनी चाहिये, फिर चाह दस्ताने डालकर झाड़ू ही क्यों न मारना पड़े। घर में बेगम झाड़ू पकड़ाने का निवेदन करती है तो जनाब को कुछ सुनाई नहीं देता, मेरा मतलब ऊँचा सुनाई देता है– ‘ओ मैं कहेया, मैनू नहीं सुनया, भागवाने!” भनाती हुयी बेगम को इनका स्पष्टीकरण होता है. बेगम भी थोडा-बहुत रौला–रप्पा कर के खुद ही झाड़ू उठा लेती है! जिले में कहीं भी डिप्टी कमिश्नर या चीफ मिनिस्टर आ जा रहे हों तो बिना-किसी के ‘दस्से-बताये’ सबसे पहले वहाँ पहुँच जाते हैं! भला क्यूं? एक तो इनकी नौकरी का सवाल और दूसरा, वहाँ फोटू खिचने होते हैं। दुनीचंद जी का मानना है कि अखबार में एक आध लेख फोटो के साथ छपवा देने से लोगो को विश्वास हो जाता है और उन्हें सबूत मिल जाता है कि देश में विकास हो रहा है, प्रगति हो रही है। मेरे विचार से यह प्रगति के नाम पर धोखा हो रहा है, दिखावेबाज़ी हो रही है. ड्रामेबाजी है, एन्वें ई शोशे-बाज़ी। यह वैसी ही तरक्की है जैसे उस दिन नेता जी ने मुझे मेरे पूछने पर बताई – जनाब आपके मंत्री बनने के बाद क्या हुयी है प्रगति? जोश में आकर बड़े गर्व से बोले -“मेरे मंत्री बनने के बाद काफी प्रगति हुयी है: आम के पौधे पेड़ हो गये हैं,गल्ली के पिल्लै शेर हो गये हैं!” यह सब करना पड़ता है जी। अपने दुनीचंद जी का योगा दिवस मिलकर मनाने का न्योता था। मैं कैसे मना करता। फोन पर दूनीचंद जी कहने लगे –“कल अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस है, समय पर आ जाना, ‘रल्ल मिल’ कर योगा-दिवस मनायेंगे..” मैंने मिलने की जगह पूछी तो कहने लगे – “वही, अपने गुरूद्वारे के पिछवाड़े वाले मैदान में, सुबह के नों बजे।” मैंने भी दुनीचंद जी का निमंत्रण स्वीकार कर लिया. फिर इतना कौन सा फासला था। दुनीचंद जी का बताया हुआ गुरुद्वारा मेरे घर से दो-तीन मोहल्ले छोड़ कर ही तो था। कोई सात समंदर की दूरी थोडा ही थी हमारे बीच में। दिलों में बस मुहब्बतें बरकरार होनी चाहिये और मन में कुछ करने का इरादा। फिर चाहे फासला विलायत तक का हो या अमेरिका तक का। इन्शाह अल्लाह…बाकी सब खैर सल्लाह! अच्छा खायें, अच्छा पीयें, मस्त रहें, व्यस्त रहें, खुश रहें, आबाद रहें लेकिन योगा जरूर करें. मरना ही है तो स्वस्थ रहते हुए मरे, बीमारी से मरना बड़ा तकलीफदेह है, फिर इलाज कौनसा सस्ता है, यह तो हम भारतवासी खुश किस्मत हैं कि सरकारी अस्पताल में हमारा फ्री उपचार होता है, दवाइयां भी मुफ्त मिलती हैं। सुना है कि अमेरिका में तो जनाब अस्पताल में एक बार का दाखला आपको दिवालिया कर देता है। वहां इतनी महंगी दवाइयां होती हैं कि उनके दाम अदा करने के बाद वे गले से नीचे नहीं उतरती। खैर अंतर्राष्ट्रीय योग दिवस की प्रभात, मैं समय पर उठा, नहा-धोकर धूप-बत्ती की और फिर गुरूद्वारे के पीछे वाले मैदान तक पहुँचाने वाले रास्ते पर हो लिया। गुरूद्वारे के पास पहुँच कर मुझे कुछ दाल में काला लगा। सोच रहा था कि अंतरराष्ट्रीय योग दिवस है, मैदान के बाहर और अन्दर भीड़ –भड़क्का होगा, कुछ तांगे, कुछ गाड़ियां, कुछ रिक्शे वाले शहर की सवारियां ढो रहे होंगे, कुछ चहल-पहल होगी लेकिन जनाब वहाँ तो खामोशी का वातावरण था, न कोई बंदा दिखा और न ही कोई परिंदा, मेरा मतलब वहां न कोई बंदा था और न बन्दे की जात। मैदान के मुख्य द्वार से अन्दर घुसकर मैं यह क्या देखता हूँ, इतने बड़े मैदान में बस दो ही बन्दे थे, मुझे मिलाकर तीन। एक अपने दुनीचंद जी और दूसरा वहां कैमरे वाला मौजूद था जो ध्यान में लीन होने और योग मुद्रा का ड्रामा कर रहे दुनीचंद जी की तस्वीरे अपने कैमरे से भिन्न भिन्न ‘एंगेल’ से कैद कर … Read more