सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती

क्या स्त्री के लिए भी  “सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती “ वैसे  तो ज़िन्दगी  किसी के लिए आसान  नहीं है .. परन्तु फिर भी नारी के लिये कुछ ज्यादा मुश्किल है। ज़िन्दगी .कहने को सृष्टि की रचियता है नारी ..पर इस रचियता के हाथ में संव्य की डोर नहीं ..ज़िन्दगी के  विभिन्न किरदार निभाती हुई खुद के अस्तित्व से ही अनजानी रह जाती है।   दूसरों को सदा बेहतर राह दिखाने वाली खुद दिशाविहीन ही रहती है ,अपने रिश्ते नाते संवारती समेटती खुद कितना टूट चुकी है खुद ही नहीं  जानती।  सहनशीलता ,ममता ,त्याग .. इन गुणों की दुहाई दे दे कर .. उसें हमेशा आगे बढ़ने से रोका गया ,बात बिन बात टोका गया !वो खुद भी कभी घर के  टूटने के भय से ,कभी लोक लाज की वज़ह से .. खुद को मिटाती रही .. खुद से अनजान बनी रही । जब छूट गए  बचपन में देखे सपने   मैं भी कभी खुद के सपनों को नहीं जी पाई थी .परन्तु आज की स्त्री ने पूरानी परम्पराओं को जिन्दा रखते हुवे ,, नये विचारों को भी गृहण किया है ,, घर ,परिवार, समाज को संभालते हुवे खुद को भी पहचाना है ।नवीन युग की नारी घर से बाहर तक की सारी जिम्मेदारियों का भार बखूबी वहन कर रही है ..मैंने भी जिन्दगी को एक लम्बे विराम के बाद फिर से जीना शुरू किया .. अपने फ़र्ज़ और जिम्मेदारियों की भीड़ में चुपके -चुपके सिसकती अपनी ख्वाहिशों की सिसकियां सुनी ..अपने टूटते हुवे सपनो की आह महसूसी ..सोचा ये मर गये तो ज़िन्दगी की लाश ढो कर भी क्या फ़ायदा . चलो औरों के लिये जीते जीते ही कुछ साँसे अपने लिये भी ले ली जाये ..। मैंने लॉ किया पापा की ख़ुशी के लिये मैं तो थी कवि हृदया ख्वाबों की पक्की ज़मीन पर मेरा  मन कल्पनाओं के सुन्दर घर बनाता रहता है ,हर वक्त मेरी कल्पनाएँ सुन्दर सृष्टि का ,सुखद भविष्य का ,अति प्रिय वर्तमान का सृजन किया करती है |  बचपन से ही अति भावुक थी  और इसी भावुकता की वजह से मन यथार्थ को बर्दाश्त नहीं कर पाता और इस जीवन उदधि में अगिनत कल्पनाओं की तरंगे हिलोरें मारती रहती है ,अनजाने दर्द में रोती है अनजानी खुशी में खुश होती है | कवि मन कल्पनाओं के सुन्दर आकाश में उड़ता -सच और झूठ   के धरातल पर कितना टिकता ? मैंने वकालात छोड़ी ससुराल वालों की ख़ुशी के लिये …. मैंने अपना लिखना छोड़ा अपनी घर -परिवार को बेहतर तरीके से संभाल पाने के लिये पर शादी के बाद दस साल लिखना छोड़ दिया .. क्योंकि ससुराल वाले इसें ठीक नहीं समझते थे .. पति समझाते भी ..जिसें जो सोचना है वो सोचता रहे तुम वो करो जो तुम्हे सुकूं देता हो .. पर उनकी बात समझते समझते दस साल लग गये ।  हिम्मत जुटाते-जुटाते अर्सा गुज़र गया । इस बीच जाने कितने ख़याल जल -जल कर बुझे होंगे ..कितनी कल्पनायें जग -जग कर सोई होगी ..कितने अहसास मिट गए होंगे ..अंदाज़ा लगाना मुश्किल है .. पर मुझे ठीक से याद है जितना वकालात छोड़ कर दुखी नहीं हुई ..उतना टूटी थी जब अपनी लेखनी का गला दबाया था .. लेखनी जो की मेरी धडकनों में बसती थी .. मेरी प्राणवायु थी ..उसके बिना दस साल गुजारे मैंने ..आज सोचकर ही तड़फ उठती हूँ की औरों की खुशी के लिये खुद को मिटा देना समझदारी नहीं बल्कि कमजोरी है ..ऐसे समझोते कभी मत करो जो आपके वजूद को मिटा दे .. जब मैंने फिर से शुरू किया सपने देखना  आज जब पति, बच्चों व दोस्तों की प्रेरणा से फिर लिख रही हूँ ..तो लग रहा है सच जीना सार्थक हुआ है ..गुजरा वक्त लौट कर तो नहीं आता पर एक दरवाज़ा उस वक्त तक पंहुचता तो ही ..वक्त के बिम्ब झांकते हैं उस दरवाजे से ..अपने आपको पूर्ण होता हुआ देख कर एक इत्मीनान की सांस लेते हैं .. मेरा मानना है जब हम चलने का हौसला करते हैं तो सारी बाधाएं खुद ब खुद सिमटने लग जाती है ..आज मैं दो बेटियां ,पति व अपने माता -पिता की जिम्मेदारी संभालती हुई जब अपनी लेखनी रच रही हूँ  तो मैं कंही कमजोर नहीं पड़ रही बल्कि अनुभवों के साथ उतरती हूँ ..अपनी पहचान में  जब जब जिम्मेदारियों के अक्स शामिल हो जाते हैं ..तब तब अपनी पहचान ज्यादा मजबूती से उभारती है ..आज अनवरत लिखने के साथ मेरे फोटोग्राफी के सपने  को भी फिर से संजोया है मैंने | स्त्री किसी भी उम्र में अपने सपने जी सकती है  आज मैं कह सकती हूँ कि हर स्त्री किसी भी उम्र में अपने सपने जी सकती है ..अपना मुकाम हासिल कर सकती है .अपनी अलग पहचान बना सकती है भीड़ से निकल कर ..बस खुद पर भरोसा ..खुद का मान ..खुद की कद्र होना जरुरी है ..आत्मविश्वास को कभी मिटने न दो बस .अपनी जिम्मेदारियों को बोझ ना समझो ,बल्कि उन्हें भी अपने सपनों का हिस्सा मान कर उठाओ .. बहुत आसान हो जायेगी  राहें सारी  ” इन अंधेरों से स्निग्ध रोशनी छनेगी किसी रोज, बात जो न बनी बनेगी किसी रोज “ आशा पाण्डेय ओझा  सिरोही पिण्डवाडा  राजस्थान  मित्रों , आशा पाण्डेय ओझा जी का लेख ” सपने जीने की कोई उम्र नहीं होती “ आपको कैसा लगा | अपनी राय से हमे अवगत करायें | लेख पसंद आने पर शेयर करें व् हमारा फेसबुक पेज लाइक करें | हमारा फ्री इ मेल सब्स्क्रिप्शन लें ताकि “अटूट बंधन “ की लेटेस्ट पोस्ट सीधे आपको अपने ईमेल पर मिल सके |  यह भी पढ़ें … करवाचौथ के बहाने एक विमर्श महिलाओं को निडरता का सन्देश देती क्वीन

बेबस बुढापा

उमा के कॉलेज की छुट्टी आज साढे चार बजे ही हो गई। वैसे तो कॉलेज का समय एक से छः बजे तक है, परन्तु आज कॉलेज के ट्रस्टी दीनानाथ जी का आकस्मिक निधन हो जाने की वजह से छुट्टी डेढ घण्टा पहले ही कर दी गई। यूं तो यह खबर बहुत दुःखद थी, पर उमा यह सोचकर काफी खुश थी कि चलो कम-से-कम आज का यह डेढ-दो घण्टा वह अपने दद्दू के साथ बिता पायेगी। रोज तो इतनी भागमभाग रहती है कि दस मिनट भी उनके पास बैठ पाने की फुर्सत नहीं मिल पाती। मम्मी, पापा, मैं सब कितना बिजी रहते हैं कि दद्दू के लिये जरा भी वक्त नहीं निकाल पाते। दद्दू अकेले बहुत बोर हो जाते होंग। पर करें भी तो क्या? हम सब की भी तो कितनी मजबूरियां हैं। शहरों में वक्त तो इस तरह कम पडता जा रहा है जिस तरह सहरा में पानी। एक बडा शहर कितना वक्त छीन लेता है ना हमसे….. जो वक्त हमारे अपनों के लिए होता है…. और वो इंसान कितना अकेला पड जाता है जो इस शहरी भागमभाग का हिस्सा नहीं है…? हम भी तो कहां निकाल पाते हैं वक्त दद्दू के लिये! पर दद्दू ने आज तक एक बार भी गिला शिकवा नहीं किया…। घर में घुसते या फिर घर से निकलते वक्त दो मिनिट मुश्किल से बरामदे में बैठे दद्दू से बतिया पाते हैं, वो तो कभी-कभी…. या फिर शाम को खाना देते वक्त पांच मिनिट उनके पास बैठ पाती हूं…। दद्दू खाना भी तो हमारे साथ बैठकर खाने की बजाय अपने कमरे में ही खाते हैं…। सोचते-सोचते उमा ने जाने कब स्कूटी की रफ्तार बढा दी। कॉलेज से शहर के बीच का लगभग सात किलोमीटर का रास्ता उसने रोज की अपेक्षा आज कुछ जल्दी तय कर लिया। बाजार आते ही उसने एकदम से स्कूटी को ब्रेक लगाये जैसे अचानक कुछ याद आया हो। स्कूटी साइड में खडी कर दुकान पर चढते-चढते ही सामान ऑर्डर करने लगी। आज उसने दुकान पर पहले से खडे लोगों की जरा भी परवाह न की। वह बिना रुके एक ही स्पीड से सामान ऑर्डर करती गई। अंकल बोरबोन, मोनाको, पॉपकोर्न, चिवडा, नमकीन बीकाजी भुजिया व मुनक्का दीजिये….प्लीज जल्दी कीजिये। दुकानदार मुस्कराकर कहने लगा, ‘‘लगता है बेबी जी, आज बहुत जल्दी में हो।’’ ‘‘हां अंकल! आप प्लीज जल्दी कीजिये। सिर्फ 5 ही मिनिट में वह स्कूटी पुनः स्टार्ट कर घर की ओर चल पडी। आज वह एक भी मिनिट व्यर्थ नहीं गंवाना चाहती थी, आज उसको एक चिंता निरन्तर सता रही थी, ‘‘पता नहीं दद्दू कैसे होंगे…! बुखार उतरा होगा या नहीं? कुछ खाया भी होगा कि नहीं…! शाम करीबन पांच बजे एक प्लेट में बीकाजी भुजिया, बोरबोन बिस्किट व बुखार की गोली रखकर पानी का ग्लास साथ में ले वह दद्दू के कमरे में दाखिल होते हुए दरवाजे से ही दद्दू को प्यार भरी मीठी झिडकी देते हुए कहने लगी, ‘‘दद्दू आज शाम आप टहलने नहीं जायेंगे। समझे ना! आपको बुखार है और यह आपने किसी को बताया तक नहीं। अगर आज मुझे पता न चलता तो आप किसी को बताते भी नहीं, है ना…! और तो और अभी भी आप टहलने जाते हैं…जैसे दो दिन टहलने ना गये तो पार्क पर कोई आफत आ जायेगी…।’’ कहते-कहते उमा ने पानी का ग्लास व प्लेट सेंटर टेबल पर रख टेबल को दद्दू के पास खिसका दिया, ‘‘आप नाश्ता लेकर यह बुखार की गोली लें, तब तक मैं आफ लिए गरमागर्म मसालेवाली चाय बनाकर लाती हूं।’’ अपनी बात खत्म करने से पहले ही उमा फुर्ती से किचन की तरफ चल पडी।देविकाप्रसाद जी ने मन ही मन सोचा, आफत तो आ जायेगी बेटा….पर पार्क पर नहीं, इस घर पर….अगर मैं बहू को इस वक्त घर पर दिखाई दिया तो कोई न कोई आफत तो जरूर आ जायेगी….। बहू के आने से पहले-पहले घर छोड दूं तो अच्छा है…..नहीं तो वो देखते ही दो-चार ताने तो जरूर मारेगी….। देविकाप्रसाद जी को एक-एक करके ज्योति द्वारा सुनाये जानेवाले ताने याद आने लगे जो गत आठ महीनों से वो अपनी इकलौती बहू ज्योति से सुनते आ रहे हैं। बहू के इस कडवे व्यवहार के स्मरण भर से उनका मन अंदर तक कसमसा उठा और बिना कुछ खाये ही वे प्लेट में रखी कडवी गोली उठाकर एक ही झटके से निगल गये। यूं तो दवा निगलना उनको जहर निगलने से कम नहीं लगता, पर उनके प्रति बहू की रग-रग में भरी नफरत और कटुता के ख्याल भर से गोली की कडवाहट को कम कर दिया। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिर ज्योति उन्हें देखते ही अपना आपा खोकर अनाप-शनाप कुछ भी क्यों बोलने लगती है…! मैं कुछ काम पूछता हूं तो बताती नहीं है, बिना बताये करूं तो उसे सुहाता नहीं है….आखिर क्या करूं? क्या मैं इन सब पर मात्र् बोझ बनकर रह गया हूं? उनकी नजर घडी पर पडी, पांच बजकर आठ मिनट हो चुके थे, ‘अब पांच-दस मिनिट में बहू आती ही होगी, मुझे निकल लेना चाहिए। कौन सी अब टांगों में जान बची है, पर मुझे घर पर देखकर ख्वामख्वाह बहू का खून जलेगा, जब-जब मैं बहू को घर पर मिला उसने कुछ न कुछ जरूर सुनाया। और कुछ नहीं तो यह कहकर पंखा ही बंद करेगी कि ‘बिजली वाले क्या सगे लगते हैं! कितना बिल आता है, जरा खबर भी है…! शहरों के खर्च कितनी मुश्किल से चलते हैं आपको क्या पता! इनसे तो बुड्ढे-बुड्ढे लोग घरों का काम निपटाते हैं, पर यह लाट साहब तो पलंग तोडने से ही बाज नहीं आते।’ और भी जाने क्या-क्या सुनने को मिलता है, पर क्या करूं? कोई उपाय भी तो नहीं।’ शुक्र है कि बहू ने अब तक बातों के घाव ही दिये हैं, कहीं किसी रोज लातों के….नहीं-नहीं, हे भगवान्! ऐसा दिन आने से पहले ही मुझे उठा लेना….।’ विचारों की उथल- पुथल में जाने कब सवा पांच बज गये, पुनः नजर घडी की ओर दौडायी और बोल पडे, ‘‘हे राम अब!’’ तब तक उमा चाय लेकर आ गई बोली, ‘‘क्या हुआ दद्दू अब!’’ ‘‘कुछ नहीं बेटा!’’ कहकर देविका प्रसाद जी चुप हो गये। चुप न होते तो कहते भी क्या? उमा ने चाय का कप दद्दू को पकडाते हुए पूछा, ‘‘क्या हुआ … Read more

ढिगली:( कहानी) आशा पाण्डेय ओझा

ढिगली  पल्स पोलियो अभियान में  सत प्रतिशत  बच्चों को पोलियो की खुराक पिलाई जा सके अत: 70 आंगनवाड़ी वर्करों व स्वास्थ्य विभाग के कर्मियों की मीटिंग रखी गई। पीएमओ डॉ. विजय मालवीय ने स्वास्थ्य विभाग के कर्मचारियों के साथ-साथ आंगनवाड़ी वर्करों को कल से तीन दिवसीय चलने वाले प्लस पोलियो अभियान के बारे में महत्वपूर्ण जानकारी दी।   हालाँकि हम स्वास्थ्य विभाग के कर्मियों को तो ज्यादातर पता रहता है कैसे क्या करना है, अत: पीऍमओ साहब का ख़ास संबोधन आंगनवाडी के कार्यकर्ताओं के लिए ही था। उन्होंने वर्करों को समझाया कि किस प्रकार से बच्चों को पोलियो की दवा पिलानी है। कैसे-कैसे कहाँ-कहाँ से शुरू करना है , कहाँ ख़त्म करना है । शहर में कूल  120 बूथ बना दिए इसके अतिरिक्त कुछ मोबाइल टीम भी गठित कर दी गई । जो बच्चों को पोलियो की दवा पिलाने के लिए ईंट भट्ठों व अन्य आबादी से बाहर  बन रही बहुमंजिला इमारतों, दूर शहर से ग्रामीण क्षेत्रों तक जुड़ती सड़को पर चल रहे नरेगा, कच्ची बस्तियों ,पहाड़ियों वाले क्षेत्रों में दवा पिलाने का काम करें।  उषा शर्मा व दिलीप देव के साथ मुझे हिरणमगरी सेक्टर चार-पांच का जिम्मा सौंपा गया ।  सारे कर्मचारी दूसरे दिन सुबह अपने-अपने निर्धारित केन्दों पर कैसे,कब निकलेंगे तय करने लगे।   हम तीनों ने भी तय कर लिया सुबह आठ बजे कहाँ मिलना है.. कहाँ से, किस तरह शुरू करेंगे। सुबह दस बजे तक हमारा काम बड़ी फुर्ती से होता है । उस वक्त अधिकांशत: पुरुष घर पर ही होते हैं इस कारण या तो घरों के दरवाजे खुले मिल जाते हैं, नहीं मिले तो भी महिलाओं को उस समय दरवाजा खोलने में ज्यादा हिचकिचाहट या अन्य कोई  आशंका नहीं होती । ज्यादा सवाल जवाब भी नहीं होते अधिकतर पुरुष सरकार की इस योजना के बारे में जानते हैं । जानती तो पढ़ी लिखी महिलाएं भी हैं पर अधिकतर पढ़ी-लिखी महिलाएं भी नौकरी धंधे में होने के कारण सुबह फटाफट घर का काम निपटाने में लगी रहती है । फिर नौकरी पर चली जाती हैं  पीछे बुजुर्ग महिलाएं बच्चों की देखभाल करती घर पर मिलती हैं । कुछ घरों में जवान महिलाएं घर पर होते हुवे पति के ऑफिस या काम धंधे पर चले जाने के बाद  दरवाजा खोलने के लिए सास को ही भेजती है या यूँ समझलो बहू को पीछे धकेलती हुई  सास ही आगे आती है अपने वीरता, अनुभवों व ज्ञान की प्रदर्शनी करने । सास जी धीरे-धीरे आती दस सवाल अन्दर से दाग कर फिर दरवाजा खोलती है, खोल कर पुन: बीस सवाल और दागती है  कुछ महिलाएं सास की ओट में खड़ी चाह कर भी किसी प्रश्न का जवाब नहीं दे पाती । खैर आज तो स्तिथि बहुत बदल गई ..पर शुरू-शुरू में जब मैं नौकरी में आई ही थी उन दिनों इस अभियान से जुड़ कर जब दूर बस्ती में जाते थे तो हमें दूसरी दुनिया का प्राणी जान कर बड़े अजीब अंदाज से देखा जाता था ,बड़ा तल्ख़ व्यवहार भी किया जाता था । तब तो हमें उसी गाँव बस्ती का कोई मुख्या भी साथ में लेना होता था लोगों को समझाने बुझाने के लिए । कई कई जगह तो यह अफवाह भी फैली हुई थी कि यह दवा पिलाने से बड़े होकर बच्चे नपुसंक हों जायेंगे, व लड़कियों में माहवारी की दिक्कत आएगी कम बच्चे पैदा हों इस वास्ते सरकार ने ऐसी योजना चलाई है ..  ऐसी भ्रांतियां दूर करने के लिए एक-एक परिवार को कितनी-कितनी देर समझाना बुझाना पड़ता था क्या बताऊँ  कछ हमसें नहीं समझते उन्हें साथ चला गाँव का मुख्या समझाता कोई कोई तो तब भी नहीं समझते आज बहुत बदलाव आया है, बहुत जागरूक हुवे हैं लोग  हालाँकि समय के साथ सब कुछ काफी बदला है पर शक की नजर से तो आज भी देखा जाता है हमें । जिन-जिन घरों के लोग हमें शक्लो सूरत से जानने लगे हैं वो तो थोड़ा ठीक-ठाक व्यवहार करते हैं। पर हमारी बस्ती तो हर बार बदल दी जाती है कम या ज्यादा यह अजनबियत का व्यवहार व संकोच की दृष्टि तो हमें हर बार मिलती है ।लगभग दुत्कार भरा आचरण तो हर बार ही दो चार जगह देखना भोगना,सहना होता ही है जो अब एक तरह से इस नौकरी का अंग बन गया नियति या नौकरी का हिस्सा मान कर हर माह दो,तीन दिन यह संत्रास भी भोग लेते हैं । आज दोपहर बारह बजे तक तो हमने हर संभव कोशिश की फटाफट घर-घर दवा पिला दें   पर महिलाएं खिड़की की ओट में से झांकती, दरवाजे के छेद में से देखती, यह सुविधा न होने पर छत पर चढ़कर मुंडेर से झांकती है । इस तरह दरवाजा खोलने में जाने कितनी-कितनी देर लगा देती फिर भी आँखे फाड़-फाड़ मुंह को लटका कर करकराती आवाज में चिडचिडाती जाने क्या जानना चाहती है हमारे बारे में .. । दोपहर दो बजे बाद तो लगभग हर घर की महिला घंटी बजने के साथ दोपहर की सुस्ताती नींद में दरवाजा खोलती है तो वक़्त चार गुना जाया हो जाता है उनकी नींद उड़ाने व बच्चे को दवा पीलाने में .. । कहीं बच्चा नींद से जगाये जाने पर रोने लगता है तो कहीं माएं या दादियाँ बच्चों को जगाने से साफ़ मना कर जाती है । अभियान पर निकलने से पहले ही यह सब सोच-सोच कर मन झूंझलाता तो बहुत है पर  कर कुछ भी नहीं सकते .. । इस वक्त  कुछ गर्मी  बढ़ रही है एक बजते-बजते तो पसीने से तर होने लगे हैं, बार-बार गला भी सूखने लगा .. । अपनी-अपनी गलियां निपटाते हुवे मैंन सड़क पर फिर बार-बार मिल जाते हैं हम लोग,फिर अलग-अलग गलियां बाँट लेते हैं, फिर अपने-अपने टारगेट में जुट जाते हैं जब-जब मिलते हैं तीनों मिलकर चाय पानी पी लेते हैं ,तीनों का साथ लाया पानी भी खत्म हो गया  । अभी तक शहरी इलाके में हैं बारी-बारी तीनों ने एक-एक बोतल बिसलरी की भी खरीदी, दो बार चाय की थड़ी पर बैठ कर चाय भी पी चुके हैं… । गलियां ..घर.. बच्चे तलाशते,निपटाते दोपहर के दो बज गए। सेक्टर चार के राजीव गाँधी पार्क में अमलतास के पेड़ के नीचे गुदगुदी हरी नर्म दूब पर बैठ हम तीनों ने दोपहर का … Read more